कोरोना महामारी के बाद प्राण चिकित्सा की बढ़ती अनिवार्यता

किशोर कुमार

प्राणायाम आध्यात्मिक जीवन के साथ ही स्वस्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है। शरीर के सारे अंग अपना काम तभी सही तरह से करें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें नियमित रूप से ऑक्सीजन युक्त खून की पूर्ति होती रहे। पर यह काम तभी संभव हो पाता है जब दिल और फेफड़े स्वस्थ्य होते हैं। कोरोनाकाल की घटना याद होगी कि चिकित्सकों की सलाह पर हम सब ब्रेथ होल्डिंग एक्सरसाइज करने लगे थे। कोई तीस सेकेंड तक श्वास रूका रह जाता था तो समझ लेते थे कि फेफड़ा स्वस्थ्य है। पर मौजूदा समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं जिस तेजी बढ़ी हैं, मानव स्वास्थ्य को खतरा भी उतनी ही तेजी से बढा है। यूं तो इस संकट से उबरने के लिए खान-पान और रहन-सहन से लेकर कई स्तरों पर एहतियात बरतने की जरूरत है। पर प्राणायाम की शक्ति ऐसी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।  

विश्व विख्यात वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन के बारे में तो हम जानते ही हैं। मांसपेशियों के दर्द से परेशान थे। इलाज के लिए दुनिया के अनेक भागों में गए। पर राहत न मिली। तभी उन्हें दक्षिण भारतीय योगगुरू बीके सुंदरराज आयंगार के बारे में पता चला। चलने-फिरने से लगभग लाचार होने के बावजूद मेनुहिन सात घंटे की यात्रा तय करके आयंगार की शरण में पहुंच गए थे। अपनी व्यथा बताई। आयंगार ने योगोपचार शुरू किया तो कम समय में ही बड़ी राहत मिल गई थी।

मेनुहिन योग और आयंगार के दीवाने हो गए। योग के प्रति लगाव ऐसा हुआ कि शीर्षासन तक करने लगे। बात जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने मेनुहिन को अपने सामने शीर्षासन करने की चुनौती दी। इसलिए कि उन्हें शायद खबरों पर यकीन नहीं था। मेनुहिन ने चुटकी बजाते शीर्षासन कर दिखाया। इससे नेहरू जी इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने भी शीर्षासन करके दिखा दिया। यह घटना भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनी थी। इसके साथ ही बीकेएस आयंगार की कीर्ति दुनिया भर में फैल गई थी। वे मेनुहिन के आग्रह पर इंग्लैंड गए और जल्दी ही यूरोपीय देशों में छा गए थे।

यह प्रसंग जानने के बाद किसी को भी सहज उत्सुकता होगी कि आखिर हठयोगी आयंगार ने ऐसा कौन-सा जादू किया होगा। अब तक उनकी जितनी भी पुस्तकें पढ़ी है, किसी में इस बात का खुलासा नहीं है। आयंगार की चर्चित पुस्तक “लाइट ऑन प्राणायाम” में येहुदी मेनुहिन द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पढ़ी तो लगा कि आसनों के साथ ही प्राणायाम का जादू था कि वे इतनी जल्दी रोग मुक्त हो गए थे। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है – “प्राणायाम वायु-संचालन की एक क्रिया है, जो पृथ्वी पर जीवन का निर्धारण करती है। यह वस्तुत: आइंस्टाइन के पदार्थ और ऊर्जा के सिद्धांत को संपूर्णता प्रदान करता है। साथ ही उसे मानव के लिए व्यवहारिक बनाता है।“ कई महीनों की खोज के बाद आखिर एक तस्वीर भी हाथ लगी, जिसमें आयंगार के सामने मेनुहिन नाड़ी शोधन प्राणायाम करता दिख रहा है।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती प्राणायाम के संदर्भ में कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो योगी कुंभक के साथ अपने हाथों से उसकी टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने से योगी के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं। वैदिक सिद्धांतों के मुताबिक भी गायत्री मंत्र का जप करते हुए पूरक, रेचक और कुंभक बेहद ताकतवर होता है।

हठयोग के प्रख्यात गुरू बीकेएस आयंगार ने भी कहा है – “प्राणायाम मनुष्य के शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है। साथ ही योग के चक्र की धुरी है। तभी इसे महातपस या ब्रह्मविद्या कहा जाता है।“ आमतौर पर प्राणायाम की तीन-चार विधियां ही प्रचलित हैं। पर इसकी और भी विधियां हैं। उज्जायी, अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, सूर्यभेदन, शीतकारी, शीतली, भस्त्रिका, कपालभाति, भस्त्रिका, भ्रामरी, नाड़ी शोधन आदि। इन विधियों की भी कई उप विधियां या अवस्थाएं हैं। नाड़ी शोधन और कपालभाति पर कई अनुसंधान हो चुके हैं। प्राणायाम के रहस्यों पर से जैसे-जैसे पर्दा उठ रहा है, उसको देखते हुए आने वाले समय में यह हठयोग से इत्तर एक स्वतंत्र विषय बन जाए तो हैरानी न होगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। प्राणायाम से नाड़ी मंडल में संतुलन बना और मस्तिष्क केंद्रों की खतरनाक क्षतिकारक प्रतिक्रिया नियंत्रित हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहेवियरल हेल्थ एंड एलाइड साइंसेज, भोपाल और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने किशोरवय के छात्रों की आक्रमकता पर कपालभाति के प्रभाव का अध्ययन किया है। इसका नतीजा है कि योग की यह क्रिया आक्रमकता पर काबू पाने में बेहद प्रभावी है। पतंजलि योग अनुसंधान संस्थान ने भी कपालभाति में काफी काम किया है। हालांकि कलापभाति को लेकर विवाद भी पुराना है कि यह प्राणायाम है या शोधन-क्रिया। पर इसे व्यापक रूप से प्राणायाम का हिस्सा माना जा चुका है।

प्राणायाम के महत्व का अंदाज इस बात से भी लगा सकते हैं कि ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। वे केवल और केवल प्राणायाम करते हैं। समय की मांग है कि प्राणायाम साधना को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हृदय रोग से मुक्त रखता है उष्ट्रासन

किशोर कुमार

इस बार बात उष्ट्रासन की। हम जानते हैं कि योगासन कमर-तोड़ मेहनत या कसरत नहीं, बल्कि प्राण-शक्ति के उचित वहन और अभिसरण के साथ सात्विक कर्म की तरह अभ्यास किया जाए तो स्वास्थ्य, शांति, मनोबल और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। जिस तरह कर्म के तीन आधार होते हैं – मन वचन और शरीर, उसी तरह इसकी श्रेणियां होती हैं। यथा, सात्विक राजसिक और तामसिक। त्रिगुण कर्म की व्यवस्था और व्याख्या श्रीमद्भगवतगीता में सुंदर तरीके से की गई है। रावण, कुंभकर्ण और विभीषण का प्रसंग तो हम सब जानते ही हैं। तीनों ने घोर तपस्या की थी, योगसाधना की थी। पर रावण का तप राजसिक, कुंभकर्ण का तप तामसिक और विभीषण का तप सात्विक था। परिणाम यह हुआ कि रावण की वासनाएं असीमित थी। कुंभकर्ण नींद में ही रहता था, जबकि विभीषण अपनी सात्विक तपस्या की बदौलत श्रीराम का स्नेह पाने में सफल हो गया था।

उष्ट्रासन ऐसा योगासन है, जिसका अभ्यास सात्विक गुणों का विकास करके किया जाए तो अनाहत चक्र के जागरण में बड़ी मदद मिलती है। अनाहत चक्र भक्ति का केंद्र है। इसे अजपा जप द्वारा आसानी से जागृत किया जाता है। पर उष्ट्रासन अपजा के पहले उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। गुरूजनों का अनुभव है कि अनाहत चक्र में चेतना का स्तर उठते ही योग साधक प्रारब्ध के सहारे नहीं, बल्कि अपनी इच्छानुसार जीवन जीने में सक्षम हो जाता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अनाहत का संबंध हृदय से है, जो आजीवन लयबद्ध तरीके से स्पंदित और तरंगित होता रहता है। जब तक चेतना अनाहत के नीचे के चक्रों में केंद्रित होती है, तब तक व्यक्ति भाग्यवादी बना रहता है। प्रारब्ध की बदौलत उसके जीवन की गाड़ी बढ़ती रहती है। पर जब चेतना मणिपुर चक्र से होकर आगे बढ़ जाती है तो व्यक्ति जीवन की कुछ परिस्थितियों का सामना करने में पूरी तरह सक्षम हो जाता है। उसमें बहुत हद तक प्रारब्ध बदलने तक की क्षमता विकसित हो जाती है।   

उपरोक्त तथ्यों से उष्ट्रासन की महत्ता का पता चलता है। यानी यह योगासन शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से तो मुक्ति तो दिलाता ही है, आध्यात्मिक विकास में इसकी बड़ी भूमिका है। श्रीश्री रविशंकर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इस योगासन के लाभ बताते हुए कहते है कि इसके अभ्यास से पाचन शक्ति बढ़ती है। फेफड़ा स्वस्थ्य व मज़बूत बनाता है। पीठ व कंधों को मजबूती मिलती है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द से छुटकारा मिलता है। रीढ़ की हड्डी में लचीलेपन एवं मुद्रा में सुधार आता है और मासिक धर्म की परेशानी से राहत मिलती है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती दावे के साथ कहते हैं कि कोई स्वस्थ्य व्यक्ति इस आसन को नियमपूर्वक करता रहे तो उसे जीवन में कभी हृदय रोग होगा ही नहीं। इस लिहाज से हृदय रोगियों के लिए भी यह बेहद उपयोगी आसन है। ऐसा इसलिए कि योगाभ्यासी जब यह आसन करते हुए पीछे की ओर झुकता है और हाथों को पीछे ले जाकर दोनों पैरों के सहारे टिकाता है तो हृदय से निकलने वाली सभी रक्त वाहिकाओं का विस्तार होता है। नतीजतन, चर्बी की मात्रा बढ़ जाने से जिनकी धमनियां अवरूद्ध हो चुकी हैं और वे इस वजह से नाना प्रकार की समस्याएँ झेल रहे है, उन्हें उष्ट्रासन से काफी लाभ होता है।

घेरंड संहिता में बतलाए गए कुल 32 आसनों में उष्ट्रासन का महत्वपूर्ण स्थान है। महर्षि घेरंड ने उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है – अधोमुख लेटें और दोनों पांवों को पलटकर पीठ पर टिका ले। पांवों को हाथों से पकड़कर मुख और पांवों से दृढ़तापूर्वक सिकोड़ लें। यह उष्ट्रासन कहलाता है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “आसन प्राणायाम मुद्रा बंध” में बतलाया गया है कि यह आसन पाचन और प्रजनन प्रणालियों के लिए लाभदायक है। आमाशय और आंतों में खिंचाव पैदा करके कब्ज दूर करता है। पीठ का पीछे झुकना कशेरूकाओं को लोच प्रदान करता है और मेरूदंड, झुके कंधे और कुबड़ेपन में लाभ दिलाता है। शरीर की आकृति में सुधार आता है। गर्दन का अग्रभाग पूरा खिंच जाता है, जिससे उस क्षेत्र के अंगों को शक्ति मिलती है र थाइराइड ग्रंथि नियंत्रित होती है। दमा से पीड़ित रोगी को इससे लाभ होता है।

घेरंड संहिता के भाष्य में परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि अभ्यासी श्वास रोककर सिर पीछे ले जाते हैं तो मस्तिष्क में खून का दबाव अधिक होने से कई बार चक्कर आने लगता है। ऐसे में सिर को सीधा ही रखना चाहिए और अभ्यासक्रम में कुछ दिनों बाद उसे पीछे ले जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि आसन करते समय सामान्य श्वास ही लिया जाना चाहिए। गहरी श्वास लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसिलए कि छाती पहले से ही पूरी तरह फैली हुई होती है। आमाशय, गले, मेरूदंड औऱ सामान्य श्वास के प्रति सजग रहकर स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान एकाग्र किया जाना चाहिए। हर योग साधना की तरह इसमें भी कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी जाती है। मसलन, उष्ट्रासन करके खड़े होते समय एड़ियों के बीच कमर की चौड़ाई जितनी दूरी होनी चाहिए। उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों को यह योगाभ्यास या तो नहीं करना चाहिए या फिर उचित मार्ग-दर्शन लेना चाहिए।   

कुछ समय पहले पुणे स्थित भारतीय विद्यापीठ के आयुर्वेदिक कालेज और श्रीगंगानगर आर्युवेदिक कालेज के शोधार्थियों ने कमर के निचले हिस्से के दर्द और गर्दन दर्द में उष्ट्रासन के प्रभावों का अध्ययन किया था। उसके मुताबिक, 26.67 फीसदी व्यक्तियों ने चिह्नित प्रतिक्रिया दिखाई, 36.67 फीसदी ने मध्यम प्रतिक्रिया दिखाई और 36.66 फीसदी ने हल्की प्रतिक्रिया दिखाई। अलग-अलग प्रभावों की वजहें थीं। पर इतना तय हुआ कि उष्ट्रासन इन बीमारियों में अपना असर दिखाता है।

प्रसिद्ध योगाचार्य और आयंगार योग के जनक बीकेएस आयंगार सात्विक योग साधना पर बहुत जोर देते थे। वे कहते थे कि योगासनों की साधना का भी सात्विक होना आवश्यक है। स्वास्थ्य, शांति और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति के लिए विशुद्ध हेतु से किया गया आसन-तपस अंतर्रात्मा से मिलने के लिए है। इस धारणा को मन में रखने पर मार्ग आसान और सुस्पष्ट हो जाता है। उष्ट्रासन के मामले में भी यही बात लागू है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम और सुरों की देवी लता मंगेशकर

किशोर कुमार

आमतौर पर प्राणायाम की चर्चा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होती है। कोरोनाकाल में प्राणायाम की चर्चा कुछ ज्यादा ही हुई, जो बेहद जरूरी थी। पर अब समय आ गया है कि शक्तिशाली प्राणायाम की चर्चा को थोड़ा विस्तार मिलना चाहिए। पर पहले भारत रत्न स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर की बात, जो कोरोना संक्रमण से लंबी लड़ाई के बाद देवलोक गमन कर चुकी हैं। स्वर की इस देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

किसी भी गायक के जीवन में समग्र योग और खासतौर से प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लता मंगेशकर ने अपने करियर के प्रारंभिक दिनों में ही इस बात को भलिभांति समझा था। वह खुद ही कहती रही हैं कि प्राणायाम की शक्ति के कारण ही गाने में कहां सांस लेनी है और कहां छोड़नी है, इसका शुद्धता से निर्वहन करना संभव हो सका। कई गानों में तो श्रोताओं को पता भी नहीं चल पाता कि मैंने कहां सांस भरा और कहां छोड़ दिया। “अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी….तुमपे मरना है ज़िंदगी अपनी…ओ ओ, अब तो है तुमसे…” राग मांड में गाया गया फिल्म “अभिमान” का यह गीत श्वास-प्रश्वास की बारीकियों की साधना का बेहतरीन उदाहरण है। प्राणायाम को साधे बिना शायद सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग करना मुश्किल ही होता, जो इस कठिन राग की मांग है।  

योगशास्त्र मानता हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत नाद योग की मूल प्रक्रिया का विकसित स्तर है। शास्त्रीय गायन में ब्रह्म नाद एक स्थिति होती है, जिसे नाद योग से प्राप्त किया जाता है। दरअसल, श्वास और ऊर्जा का संयोग ही नाद है। मानव शरीर में प्राणमय कोष या ऊर्जा शरीर के बड़े मायने हैं। इसमें बहत्तर हजार नाड़ियाँ होती हैं, जो ऊर्जा मार्ग हैं और जिनमें से हो कर ऊर्जा सारे शरीर में बहती है। ये नाड़ियाँ, मानवीय शारीरिक व्यवस्था में 114 स्थानों या केंद्रों या चक्रों पर एक दूसरे से मिलती हैं, और फिर से बंट जाती हैं। इसलिए, नाड़ियों को शुद्ध करने और ऊर्जा केंद्रों को सक्रिय करने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। चूंकि गायन में सुर की निरंतरता श्वास पर निर्भर करती है, इसलिए गायकों के लिए प्राणायाम साधना बड़े महत्व की हो जाती है।  

भारतीय सनातन परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। योगशास्त्र के मुताबिक प्राण का संबंध मन से, संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का संबंध जीवात्मा से और जीवात्मा का विश्वात्मा से रहता है। तभी ऋषियों के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे प्राण-वायु के तरंगों पर नियंत्रण करके विश्व प्राण पर अधिकार पाने का रहस्य जान जाते थे। इस तरह वे एक सर्वव्यापक शक्ति को वश में कर लेते थे, जिसे विद्युत-शक्ति, चुंबकीय शक्ति, गुरूतत्व शक्ति और विचार शक्ति जैसी सभी शक्तियों का स्रोत कहा जाना चाहिए। इसलिए प्राणायाम ही नहीं, समग्र योग को रोग-मुक्ति से आगे की बात माना गया है। पर जैसे ही आगे की बात यानी आध्यात्मिक अनुभूति की अनंत यात्रा की बात आती है, तो मान लिया जाता है कि यह संसार से विरक्ति की बात हो गई।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसंग उल्लेखनीय है। कहते हैं कि जब महर्षि दयानंद ने अपने गुरू से आज्ञा मांगी कि वे हिमालय में जाकर तपस्या करना चाहते हैं तो गुरू ने मना कर दिया और कहा, “तुम चौराहे पर ही खड़े रहो। इसलिए कि जो दीपक चौराहे पर जलता रहता है, वह चारो ओर से आने वाले लोगों के मार्ग को प्रकाशित करता है। अपने प्रकाश को हिमालय के किसी कंदरा में बंद मत करो।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिकता और सांसारिकता जीवन के दो पंख होते हैं। जीवन में सुख, संपदा, शांति और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय जरूरी होता है। तभी जीवन में पूर्णता आती है और यही योगशास्त्र का विषय़ भी है।

खैर, बात हो रही थी प्राणायाम की। श्रीमद्भागवतगीता के महात्म्य में लिखा है कि प्राणायाम साधना की शक्ति ऐसी है कि साधक के इस जन्म के तो क्या, पूर्व जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रश्नोपनिषद में प्रसंग है कि महर्षि पिप्पलाद से एक शिष्य ने पूछा कि प्राण कहां से उत्पन्न होता है? महर्षि पिप्पलाद ने इसके उत्तर में कहा था कि आत्मा से ही प्राण पैदा होता है। योगीजन कहते रहे हैं कि प्राण ही सूर्य का रूप है। सूर्य जब अपने आप को खींच लेता है तो प्राणी रूप आदि विभिन्न गुणों से हीन होकर मुक्त हो जाता है।

उपनिषद की ही कथा है, बड़ी प्रचलित कथा है कि शरीर के सभी अभिमानी देवताओं ने अपने-अपने वश की हुई इंद्रियों द्वारा विचार कराया कि उन सबमें श्रेष्ठ कौन है? आकाश, वायु, अग्नि, वाणी, मन, चक्षु आदि सभी ने अपनी-अपनी महिमा का बखान करते हुए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की। जब प्राण की बारी आई और उसने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की तो किसी को भरोसा न हुआ। तब प्राण शरीर छोड़कर जाने लगा। इससे तुरंत ही सभी इंद्रियां नष्ट होने लगीं। तब सबको प्राण की श्रेष्ठता का अहसास हुआ। वैदिक ग्रंथों में चर्चा है कि जिसने प्राण-तत्व को जान लिया, उसने वेद को जान लिया। तभी वेदांत सूत्र में उल्लेख है कि श्वास-प्रश्वास ही परब्रह्म है।

योग ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाकर उस पर मन केंद्रित करते हुए विधि-सम्मत श्वास-प्रश्वास से एक अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इसी शक्ति की बदौलत आत्मोन्नति के साथ ही खुद का और दूसरो का भी कष्ट निवारण किया जा सकता है। इसी प्राण के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है, जो एक पूर्ण वैज्ञानिक विद्या है। पर प्राणायाम की वृहत्तर साधना के परिणाम आज के जमाने के लिहाज से चमत्कार जैसे ही जान पड़ते हैं। शिव स्वरोदय प्राण-शक्ति के चमत्कारिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रंथ है। इसी विद्या की बदौलत योगी शुभ-अशुभ फलों की भविष्यवाणी करते रहे हैं। साथ ही जन कल्याण के लिए बताते रहे हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण-वायु का प्रवाह किस तरह कराया जाए कि जीवन सुखमय रहे।

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में विभूतिपाद के तीसरे पाद के 37वें और 50वें सूत्र में सिद्धियों के गुण-दोष का निरूपण मिलता है। पर जब इन सिद्धियों का दुरूपयोग किया जाने लगा तो योगियों ने गृहस्थों के लिए प्राणायाम साधना को रोगोपचार तक सीमित रहने दिया। वरना ऋषि-मुनि कहते रहे हैं कि जिसने कुंभक, जो सही मायने में प्राणायाम है, को साध लिया, वह तीनों लोकों में चाहे कुछ भी कर सकता है। ऐसी है प्राणायाम की शक्ति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे तो प्रतिभावान होंगे बच्चे

सावन का महीना योग के आदिगुरू शिवजी को प्रिय है तो इस बार लेख की शुरूआत उनसे जुड़ी एक कथा से। फिर योग विद्या की बात। कथा है कि चंद्रमा का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष की सत्ताई कन्याओं से हुआ था। पर चंद्रदेव केवल रोहिणी प्यार करते थे। बाकी छब्बीस बहनों को यह बात नागवार गुजरने लगी तो बात प्रजापति दक्ष तक पहुंची। उन्होंने इस मामले में दखल तो दी। पर बात नहीं बनी। इससे क्रोधित होकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि उसका शरीर क्षय रोग से गल जाएगा। श्राप का असर दिखने लगा तो स्वर्गलोक में हाहाकार मच गया। स्वर्ग का देवता रोग से गल जाए तो हड़कंप मच जाना लाजिमी था।

खैर, बात ब्रह्मा जी तक पहुंची। उन्होंने चंद्रदेव को सुझाव दिया कि प्रभास तीर्थ क्षेत्र जाएं। वहां शिवलिंग की स्थापना करके आरोग्यवर्द्धक महामृत्युंजय मंत्र की साधना करें। भगवान मृत्युंजय प्रसन्न हुए तो स्वयं प्रकट होकर रोग का उपचार करेंगे। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। महादेव प्रकट हुए और आशीर्वाद दिया कि रोग से मुक्ति मिल जाएगी। पर उनका शरीर पंद्रह दिनों तक घटेगा और पंद्रह दिन बढ़ेगा। रोग से मुक्ति मिल जाने से प्रसन्न चंद्रमा ने महादेव से प्रार्थना की कि वे उसके आराध्य बनकर उसी विग्रह में प्रवेश कर जाएं, जिसकी उसने आराधना की थी। आदियोगी ने बात मान ली औऱ विग्रह में प्रवेश कर गए। कालांतर में वही स्थान सोमनाथ के रूप में मशहूर हुआ और आदियोगी वहां सोमेश्वर कहलाए। हम सब जानते हैं कि सोमनाथ मंदिर गुजरात के प्रभास पाटन में अवस्थित है। इस कथा से महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति का पता चलता है।

वेदों में कहा गया है कि ऋषियों की ध्यान की सूक्षमावस्था में अनहद नाद की अनुभूति हुई। इसे ही मंत्र कहा गया, जो बेहद शक्तिशाली है। मानव के मेरूदंड में मुख्यत: छह चक्र होते हैं। उनमें अलग-अलग रंगों की पंखुड़ियां अलग-अलग संख्या में होती हैं। उन सब पर संस्कृत में एक-एक स्वर व व्यंजन अक्षर होता है। सभी चक्रों के बीज मंत्र भी होते हैं। जैसे आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है। मंत्र भी इन्हीं अक्षरों से बने होते हैं। इसलिए ॐ मंत्र का सीधा प्रभाव आज्ञा चक्र पर होता है। इस चक्र के जागृत होने से प्रतिभा का विकास होता है। अंतर्दृष्टि मिलती है।

कुछ शताब्दियों पहले तक अनुष्ठान करके आठ साल की उम्र से ही बच्चों को मंत्रों खासतौर से ॐ और गायत्री मंत्र का जप करने को कहा जाता था। वे बच्चे बड़े होकर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा शांतिपूर्ण जीवन जीते थे। योग से नाता टूटने का कुप्रभाव देखिए कि कोरोनाकाल में बड़ों के साथ ही बच्चे भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं। अनेक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों से भी महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र के साथ ही ॐ नम: शिवाय और न जाने कितने ही मंत्रों के मानव शरीर पर होने वाले सकारात्मक प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी आदि आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक संत मंत्रों के प्रभावों से जनकल्याण करते रहे हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 1994 में बाल योग मित्र मंडल बनाकर बच्चों के योग को बड़ा फलक प्रदान किया था। उन्होंने संभवत: पुराने समय में बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर चायदानी आसन विकसित किया और बार-बार ऐसा करते हुए बच्चे उब न जाएं, इसलिए इसके साथ बाल गीत जोड़कर मनोरंजक बना दिया था। इस आसन में बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए दाहिए पैर को पीछे करके हाथ से पकड़ना होता है। बाईं केहुनी को मोड़कर हाथ को सामने करने के बाद कलाई को नीचे की ओर झुकाना होता है। ताकि पोज चायदानी की टोटी जैसा बन जाए। इस स्थिति में देर तक रहने से पैरों में शक्ति आती है और एकाग्रता का विकास होता है।

योगशास्त्र में भी कहा गया है कि बच्चे जब आठ साल के हो जाएं तभी आसन और प्राणायाम के अभ्यास शुरू कराए जाने चाहिए। यदि सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्रणायाम, भ्रामरी प्राणायाम व गायत्री मंत्र के जप के साथ ही योगनिद्रा बच्चों के दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। दुनिया भर में इस बात को लेकर एक हजार से ज्यादा शोध किए जा चुके हैं। इसलिए संशय की कोई गुंजाइश नहीं है।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है।

धर्म, अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शिक्षा को अपनी अंतर्दृष्टि से नए आयाम देने वाले जिड्डू कृष्णमूर्ति की यह बात आज भी प्रासंगिक है कि पहले की शिक्षा ऐसी न थी कि बच्चे यंत्रवत, संवेदनशून्य, मंदमति और असृजनशील बनते। आज हमारा समाज शिक्षित है। पर कई मूल्यों को खो चुका है। नतीजा है कि योग शास्त्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर योग की महिमा जानने के बावजूद हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

सच है कि नए भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी जड़ता टूटेगी और बच्चों का जीवन योगमय होगा। शिक्षा में योग के समावेश को लेकर सरकार अपना काम कर रही है। हमें भी अपने हिस्से का काम करना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

कोरोना से बचाव में मददगार है भ्रामरी

शारीरिक व मानसिक व्याधियों को दूर करने में योग की भूमिका से हम सब वाकिफ रहे हैं। पर हाल ही एक शोध से पता चला कि कोरोना संक्रमण का असर कम करने में योग की बड़ी भूमिका हो सकती है। जर्नल रेडॉक्स बायोलॉजी के मुताबिक, शोध से पता चला है कि नाइट्रिक ऑक्साइड कोविड-19 से उबरने में मदद कर सकती है और लाखों लोगों की जान बचा सकती है। यह एक एंटीमाइक्रोबियल और एंटी-इंफ्लामेटरी मोलिक्यूल है, जो पल्मोनरी वैस्क्युलर के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम जानते हैंं कि नाइट्रिक ऑक्साइड शरीर में प्राकृतिक रूप से उत्पादित होने वाला एक पदार्थ है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाता है। परमहंस निरंजनानंद सरस्वती के मुताबिक ओम् के उच्चारण के साथ भ्रामरी प्राणायाम करने से नाइट्रिक आक्साइड 15 गुणा ज्यादा उत्पादित होता है।

बात तो कोविड-19 और योग के प्रभावों पर होनी है। पर शुरूआत एक औपनिषदिक कथा से। कौशल प्रदेश के विख्यात ऋषि थे अश्वलायन। पांडित्य उनके पास था, पर अनुभवात्मक ज्ञान नहीं था। ऐसे समझिए कि वे आम के बारे में जानते थे। पर आम का स्वाद चखा न था। ऋषि थे तो शब्दों से उन्हें सब पता था। शस्त्रों में जो कहा गया है, उन्हें ज्ञात था। सिद्धांत से परिचित थे। पर जब ब्रह्मविद्या की जिज्ञासा हुई तो महर्षि पिप्पलाद के पास ऐसे गए मानों उनका दिमाग खाली हो और वे कुछ भी नहीं जानते हैं। समिधा लेकर नम्रतापूर्वक खड़े हो गए। महर्षि पिप्पलाद के योग्य शिष्य बन गए। तभी उनका सैद्धांतिक ज्ञान अनुभव में तब्दील हो पाया था।

सैद्धांतिक ज्ञान हो और अनुभवात्मक ज्ञान न हो तो उसका परिणाम क्या होता है, इसे ऐसे समझिए।  बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती शिष्यों के साथ अपने अनुभव, अपना संस्मरण साझा किया करते थे। वे जब विदेश भ्रमण पर थे तो हवाई जहाज में उनकी मुलाकात एक ऐसे अन्वेषी से हो गई, जिसने रसगुल्ला पर अनुसंधान किया था। उसने रसगुल्ले के बारे में काफी कुछ बतलाया। पर इसी बीच एक घटना घटित हो गई। स्वामी जी के पास रसगुल्ला था। उन्होंने बैग से निकाला और सहयात्री को भी खाने के लिए दिया। सहयात्री ने रसगुल्ला कभी देखा न था। लिहाजा वह पूछ बैठा कि यह क्या है? स्वामी जी ने कहा कि यह वही चीज है, जिसके बारे में आप लंबा व्याख्यान दिए जा रहे थे….। इसलिए मैं इस कॉलम में अक्सर सलाह देता हूं कि लेख या किताबें पढ़कर कभी योगाभ्यास नहीं करना चाहिए। सैद्धांतिक ज्ञान योग्य योग शिक्षक के चयन और अभ्यास में तो सहायक होता है। पर जब अभ्यास करना हो तो योग्य प्रशिक्षक का मार्ग-दर्शन जरूरी है।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर आई तो तमाम एहतियात के बावजूद मैं गंभीर रूप से कोरोना संक्रमण की चपेट में आ गया। अनेक लोगों के फोन आते थे। वे कहते कि आप तो योग विद्या पर इतना लिखते हैं। यौगिक उपाय कीजिए। सब ठीक हो जाएगा। खैर, कोरोना की दूसरी लहर में अनेक लोगों का ज्वर दस-बारह दिनों तक भी रहता है। चिकित्सक कहते हैं कि छठा दिन महत्वपूर्ण है। यदि ज्वर न जाए तो चिकित्सकों की राय से स्ट्रायड के जरिए इलाज पर विचार होना चाहिए। मेरे चिकित्सक ने भी कुछ ऐसी अनुशंसा की। पर स्ट्रायड को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं थीं। समस्या बढ़ती देख मैंने आठवें दिन अपने गुरू परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का ध्यान करते हुए सो गया।

अगले दिन सुबह बिहार योग विद्यालय के एक वरिष्ठ संन्यासी का फोन आया। उन्होंने सुझाव दिया कि अन्य दवाओं के साथ ही महासुदर्शन चूर्ण लीजिए। बुखार उतर जाएगा। ठीक ही बुखार कम होने लगा और उतर गया। स्ट्रायड लेने की जरूरत ही न पड़ी। बीमारी के दौरान आक्सीजन का लेवर थोड़ा नीचे जाने लगा था तो उसी समय संभवत: गुरूजी की प्रेरणा से बिहार योग विद्यालय के पूर्व छात्र और दिल्ली के लोकप्रिय योगाचार्य शिवचित्तम मणि का फोन आ गया कि मकरासन, उदर श्वसन, नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम करें। पर श्वास-प्रश्वास पर एकाग्रता के साथ। आर्श्चजनक ढंग से आक्सीजन के स्तर में सुधार हो गया और मानसिक शांति भी मिली।

कोविड-19 का दुष्प्रभाव मेरे वोकल कॉर्ड पर पड़ा था। आवाज एकदम दब गई थी। चिकित्सकों ने कहा कि इसके इलाज के पहले कई जांच की जरूरत होगी और आवाज लौटने में दो महीनों का वक्त लग सकता है। बिहार योग विद्यालय के वरिष्ठ संन्यासी और मेरे श्रद्धेय स्वामी जी ने इसके लिए काकी मुद्रा करने का सुझाव दिया। कहा कि इससे आवाज भी लौटेगी और फेफड़े को भी बल मिलेगा। यकीन मानिए कि काकी मुद्रा दो दिनों तक चार बार करने के साथ ही मेरी आवाज खुल गई। वोकल कॉर्ड की समस्या जाती रही। कोरोना संक्रमण खत्म होने के बाद कुछ योगाचार्यों की सलाह पर कपालभाती और भस्त्रिका प्राणायाम करने लगा। मुंह से और नाक से खून आने लगा। अजीब तरह का भारीपन महसूस हुआ। फिर जल्दी ही समझ में आया कि ये अभ्यास बीमारी से उबरने के पंद्रह-बीस दिनों बाद ही करने चाहिए।

आखिर कोरोना से संक्रमित मरीजों के लिए मकरासन, उदर श्वसन, नाड़ी शोधन प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और काकी मुद्रा जरूरी क्यों है? मकसासन वैसे तो पीठ के नीचले भाग के दर्द या मेरूदंड की किसी भी गड़बड़ी में प्रभावकारी है। पर दमा और फेफड़े के रोगियों के लिए भी बेहद लाभकारी इसलिए है कि इससे फेफड़े में अधिक वायु प्रवेश करता है। इस आसन का महत्व एलोपैथी के चिकित्सकों ने भी समझा और खुलकर अनुशंसा की। उदर श्वसन से श्वसन का मार्ग प्रशस्त होता है। इसे श्वसन की सबसे स्वाभाविक व प्रभावी विधि माना जाता है। जाहिर है कि फेफड़े को मजबूती प्रदान करके आक्सीजन का स्तर सुधारने में इसकी भी बड़ी भूमिका होती है। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि प्राण-वायु में अशांति के कारण दमा, खांसी, सरदर्द, आखों की बीमारियों सहित कई बीमारियां बिन बुलाए आ जाती है। पर प्राण वायु संतुलित हो तो फेफड़े से लेकर रक्त और शरीर की सभी कोशिकाओं में आक्सीजन पर्याप्त रूप से रहता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम, जिसे अनुलोम-विलोम भी कहा जाता है, पर अनेक अनुसंधान हुए हैं। रक्त में पर्याप्त आक्सीजन पहुंचाने में इसकी भूमिका अतुलनीय है।

जर्नल रेडॉक्स बायोलॉजी के मुताबिक, हाल ही में हुए एक शोध से ये बात सामने आई है कि नाइट्रिक ऑक्साइड कोविड-19 से उबारने में मदद कर सकती है और लाखों लोगों की जान बचा सकती है। शोध के अनुसार, ये एक एंटीमाइक्रोबियल और एंटी-इंफ्लामेटरी मोलीक्यूल है, जो पल्मानरी वैस्क्यूलर के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मूल रूप से, नाइट्रिक ऑक्साइड शरीर में प्राकृतिक रूप से उत्पादित एक पदार्थ है। शोधों से साबित हो चुका है कि भ्रामरी प्राणायाम प्राकृतिक रूप से उत्पादित होने वाले नाइट्रिक ऑक्साइड में पंद्रह फीसदी तक की वृद्धि कर देता है। इसलिए योगियों ने कोरोनाकाल में भ्रामरी प्राणायाम पर काफी बल दिया। काकी मुद्रा से मानसिक तनाव कम होता है। रक्तचाप सामान्य रहता है। पाचन-क्रिया ठीक रहती है औऱ रक्त शुद्ध होता है। गले से संबंधित बीमारियां ठीक होती हैं।

योगशास्त्रों के मुताबिक योगियों को काकी मुद्रा की प्रेरणा कौए से मिली थी। कहते हैं कि कौए कभी बीमार नहीं होते। उसकी वजह यह है कि वे अपनी चोंच से श्वास लेते हैं। योगियों ने खुद पर प्रयोग किया। वे अपने मुख को कौए के चोंच सदृश्य बनाकर हवा भरतें और थोड़ी देर बाद नाक से उसे छोड़ देतें। इसके कई फायदे दिखे। मानसिक तनाव कम होता है। रक्तचाप सामान्य रखता है। पाचन-क्रिया ठीक रहती है औऱ रक्त शुद्ध होता है। गला साफ होता है। आजकल चेहरे पर झुर्रियां न पड़े, इसलिए लड़कियों और महिलाओं में यह लोकप्रिय हो रहा है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि इसके नियमित अभ्यास से कौए के समान निरोग और दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। इन अभ्यासों के साथ ही नेति किया जाए तो सोने पे सुहागा। इन तथ्यों से साफ है कि कोरोना संक्रमण और उसके कुप्रभावों को दूर करने में योग बेहद प्रभावकारी है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)         

संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है, साधु प्रकारांतर से परोपकार ही करते हैं : स्वामी शिवानंद सरस्वती

कुंभ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दशनामी संप्रदाय के अखाड़ों का होता है। ये अखाड़े आदिगुरु शंकराचार्य की महान परम्परा की याद दिलाते हैं। आदि शंकर ने विभिन्न पंथों में बंटे संत समाज को संगठित किया था। ताकि आध्यात्मिक शक्तियों की बदौलत भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की जा सके। पर उन्हें जल्दी ही महसूस हुआ कि केवल शास्त्र से बात नहीं बनने वाली, शस्त्र की भी जरूरत होगी। तब उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के तहत अखाड़ों की स्थापना की। फिलहाल देश में कुल तेरह अखाड़े हैं। इनमें सात दशनामी परंपरा के शैव मत वाले, चार वैष्णव मत वाले और दो उदासीन मत वाले हैं। पर नागा संन्यासी शैव मत वाले अखाड़ों में ही बनाए जाते हैं। इस लेख में योग के आलोक में साधु-संन्यासियों के योगदान और उनके जीवन से जुड़े तथ्यों की पड़ताल करने की कोशिश है।    

साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं, उनका कोई नगर नहीं, राजधानी नहीं….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं। पर ये लड़ाकू साधु-संन्यासी अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें। उन्हें धूल चटा देते हैं….। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को ये बातें बेहद परेशान करती थीं। वे कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से वे कांप जाते थे। उनके सिपाही भी भयभीत रहने लगे थे। ”वंदे मातरम्…” गीत के रचयिता कवि-उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास “आनंदमठ” में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का यह वृतांत बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत है।

कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के जिस जमात को हम देखते हैं, वे अंग्रेजों, उसके पहले मुगलों और न जाने कितने ही विदेशी आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाले उन साधु-संन्यासियों की परंपरा वाले ही तो हैं। लगभग बाइस सौ साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षार्थ संत समाज को संगठित किया था। अतीत के झरोखे से झांककर देखने से पता चलता है कि आदि शंकर ने साधु-संन्यासियों की फौज तैयार न की होती तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखना असंभव हो गया होता। यह जरूर है कि कालांतर में परिस्थितियां बदलती गईं तो साधु-संन्यासियों की भूमिकाएं भी बदलती गईं। पर इसके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। तभी अक्सर उनके बारे में कई सवाल खड़े किए जाते हैं। यथा अखाड़ों के नागा साधुओं और अन्य साधु-संन्यासियों की आधुनिक युग में क्या उपयोगिता है? कुंभ के बाद पहाड़ों में कंपा देने वाली सर्दियों के दौरान खुले बदन या कम कपड़ों में किस तरह जीवित रह जाते हैं? वे वहां करते क्या हैं और क्या खाकर जिंदा रहते हैं? उनकी अदम्य शक्ति का स्रोत क्या है? जो साधु-संन्यासी पहाड़ों में नहीं रहतें, वे आश्रमों में क्या करते होंगे? आदि आदि।

आईए, योग-शक्ति के आलोक में इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया कि हिमालय और जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासियों की वर्तमान समय में क्या उपयोगिता रह गई है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, “ये साधु-संन्यासी आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत होते हैं, सिद्धांत के पक्के होते हैं। मानवता के कल्याण के लिए अपने साधना स्थल से ही हमलोगों आदेश देते हैं। उनके आदेशों का पालन करने के बाद हमलोग भी वहीं चले जाते हैं।“ परमहंस योगानंद कहते थे, “जो संतजन बाह्य स्तर पर कार्य नहीं करते, वे भी अपने विचारों एवं पवित्र स्पंदनों द्वारा जगत् का आत्मज्ञानहीन मनुष्यों द्वारा अथक किए गए लोकोपकारी कार्यों से कहीं अधिक बढ़कर हित करते हैं। महात्माजन अपने-अपने ढंग से और प्राय: कड़वे विरोध झेलकर अपने समकालीन लोगों को प्रेरित करने तथा उन्नत करने का नि:स्वार्थ प्रयास करते रहते हैं।

साधु-संन्यासियों की सूक्ष्म शक्ति की बात भी कोई कपोल-कल्पना नहीं है। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में हठयोगी थे साधु हरिदास। खेचरी मुद्रा सिद्ध थे। महाराज उनकी यौगिक शक्तियों की परीक्षा लेना चाहते थे। लिहाजा महाराजा की इच्छानुसार उन्होंने महाराजा और कुछ विदेशी चिकित्सकों की उपस्थिति में चालीस दिनों के लिए भू-समाधि ले ली। उन्हें सही तरीके से मिट्टी से ढ़क दिया गया। कुछ दिनों बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पर जब चालीस दिन पूरे हुए तो साधु हरिदास के निर्देशानुसार मिट्टी हटाकर उनकी गर्दन की हड्डियों पर गाय के घी से मालिश कर दिया गया तो वे इस तरह उठ खड़े हुए थे, मानों कुछ समय के लिए ध्यान साधना में बैठे रहे हों। बिल्कुल तरोताजा थे। उनकी सूक्ष्म शक्तियों की कई मिसालें दी जाती हैं, जिनका उल्लेख फ्रांस सरकार के दस्तावेजों में भी है। परमहंस योगानंद ने अपने परमगुरू और सिद्ध संन्यासी लाहिड़ी महाशय के बारे में लिखा है कि वे अपने दाह-संस्कार के दूसरे दिन प्रात: दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने पुनरूज्जीवित परन्तु रूपांतरित शरीर में फिर से प्रकट हुए थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के मामले में भी उनके कई विदेशी शिष्यों का ऐसा ही अनुभव रहा है।

यह निर्विवाद है कि सनातन काल से सभ्यता और सांस्कृति बरकरार रखकर मानवता का कल्याण करने में योगियों व संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। उनकी अलौकिक शक्तियां हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। इसे इस तरह समझिए। जापान में समुराई नामक समुदाय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। इस समुदाय के ज्यादातर लोग सेना में जाते थे। पर पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे उनकी शारीरिक शक्ति और कल्पना-शक्ति ऐसी हो जाती थी कि उनके सामने दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा-चक्र को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान-चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है।

पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि जंगलों और पहाड़ों में साधना करने वाले साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। वैसे तो जंगलों और पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से सब कुछ मौजूद होता है। इनमें सौर-शक्ति प्रमुख है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रोटीनयुक्त रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल की बदौलत सौर-शक्ति को कैद करना संभव हो पाता है, जो जीवन दायिनी है। अपामार्ग या चिरचिटा जंगलो और पहाड़ों में उपलब्ध होता है। इसके बीज में इतनी शक्ति है कि कोई बिना अन्न ग्रहण किए एक सप्ताह से ज्यादा समय गुजार सकता है। पर ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे।

हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, योग के सामान्य साधको को भी सलाह दी जाती है कि यदि हृदय रोग, उच्च रक्तचाप व मिर्गी के रोगी न हो तो सूर्यभेद प्राणायाम करें। शरीर में गर्मी पैदा हो जाएगी। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता।

उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे, “संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। एक साधु के लिए साधना की अंतिम परिणति सेवा होती है, समाधि नहीं।” आखाड़ों से जुड़े साधु-संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

जब परमहंस माधवदास की हालत रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी

मुंबई से शुरू होकर दुनिया अनेक देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” ने अपने संस्थापक योगेंद्र जी के सपनों को साकार करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। 100 साल से भी ज्यादा पुराने इस संस्थान में यौगिक विधियों से विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार के लिए अनेक शोध-कार्य किए गए। इनमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों की भी सहभागिता रही। पर हाल के वर्षों में हृदय रोगियों को यौगिक क्रियाओं से पुरानी अवस्था में ले जाने संबंधी शोध कमाल के साबित हुए हैं। बेहतर योग शिक्षा के मामले में धाक् ऐसी जमी है कि 21 देशों के छात्र एक ही छत के नीचे योग विद्या हासिल कर रहे हैं। यह पहला योग संस्थान है, जिसे भारत सरकार के क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से मान्यता मिली । योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संस्थान को प्रधानमंत्री योग पुरस्कार से सम्मानित किया ।   

ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स दादाभाई नरौजी के दामाद और पेशे से अभियंता होमी डाडिना शारीरिक रूप से अशक्त हो गए थे। न धन की कमी थी, न प्रभाव कम था। दुनिया का बेहतरीन इलाज उपलब्ध था। पर बात नहीं बन पा रही थी। मुंबई विश्व विद्यालय के कुलपति आरपी मसानी को बात समझ में आ गई थी कि योगाचार्य के रूप में तेजी से उभर रहे मणिभाई हरिभाई देसाई की प्रतिभा असाधारण है। लिहाजा उन्होंने मणिभाई को होमी डाडिना से मिलवाया। डाडिना तो स्वस्थ्य हुए ही, उनके साथ ही अनेक लोगों को बीमारियों से मुक्ति मिल गई। इसके साथ ही भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” की स्थापना की बुनियाद पड़ गई और कम समय में मणिभाई योगेन्द्र जी के नाम से दुनिया में मशहूर हो गए थे।

भृगुसंहिता में कहा गया है कि नियति का निर्माण पहले “काल” में होता है। यानी घटना पहले “काल” में घटती है। उसके बाद अंतरिक्ष में। फिर “देश” में। योगेंद्र जी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगा मानों पटकथा पहले लिख दी गई हो। उनके पिता हरिभाई देसाई अपने लाडले को सिविल सर्विस में देखना चाहते थे। दो कारणों से ऐसा भरोसा बना था। पहला तो यह कि अमलसाड इंग्लिश स्कूल में मणिभाई की गिनती मेघावी छात्रों में होती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने नियमों में बदलाव करके सिविल सेवा भारतीयों के लिए खोल दिया था। पत्नी के परलोक गमन के कारण बेटे के सहारे जिंदगी जीना चाहते थे। पर मणिभाई तो योगी बनकर जन्मे थे। सो सिविल सर्विस में जाने की बात कौन कहे, कालेजी पढाई भी रास नहीं आई थी। अवचेतन का आध्यात्मिक संस्कार प्रकट होने लगा तो महान योगी परमहंस माधवदास जी का सानिध्य मिल गया।

बंगाल में जन्मे परमहंस माधवदास जी के शिष्य तो कई थे। पर उनकी मणिभाई पर विशेष कृपा थी। साथ खिलाते और साथ साधना कराते थे। जिस तरह नरेन (स्वामी विवेकानंद) को देखते ही रामकृष्ण परमहंस की आंखों में आंसू आ गए थे और बरबस ही बोल पड़े थे, “नरेन तू आ गया। मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था।“ लगभग वैसा ही मणिभाई के साथ हुआ था। कहते हैं न कि हर गुरू को योग्य शिष्य की तलाश होती है। मणिभाई परमहंस माधवदास के पास पास पहुंचे तो उनकी भी स्थिति कुछ रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी। दूसरी तरफ योग्य गुरू की दृष्टि पड़ते ही मणिभाई के भीतर का संत भाव प्रकट हो गया। वे आश्रम में बीमारियों से मुक्ति के लिए आए लोगों का स्वतंत्र रूप से यौगिक उपचार करने लगे थे। वस्त्र धौती कराते हुए एक महिला की जान पर बन आई थी। पर लोगों ने देखा कि मणिभाई ने कठिन समय में भी कितनी कुशलता से स्थिति को संभाला लिया था और महिला स्वस्थ हो घर लौटी थी।

कोमल हृदय वाले मणिभाई की योग-दृष्टि स्पष्ट थी। वे स्वामी विवेकानंद और उनके वेदांत दर्शन से बेहद प्रभावित थे। पर योगविद्या का प्रथमत: उपयोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए करना चाहते थे। वे जानते थे कि धार्मिक कारणों और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों के कारण हाशिए पर डाल दी गई योगविद्या को को पीड़ित मानवता की सेवा करते हुए ही पुनर्स्थापित किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में हठयोग की कुछ विधियां खेलकूद के तौर पर जीवित थीं। सामाजिक स्थिति को देखते हुए मणिभाई को लगा कि अष्टांग योग को मूल रूप में स्वीकार्यता दिलाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर मुख्य चौरासी आसनों में से तेरह आसनों का चयन किया और अलग-अलग बीमारियों के लिहाज से उन्हें प्राणायाम से जोड़कर नई योग विधियां तैयार की। इसके अलावा हठयोग के शुद्धिकरण की कुछ क्रियाओं का समावेश किया। फिर इन योग विधियों की वैज्ञानिकता को प्रमाणित किया किया तो लोगों को बात सहज ही समझ में आई। 

मणिभाई को आश्रम से बाहर योगोपचार के लिए जो पहला मरीज मिला था, वह कोई और नहीं, बल्कि होमी डाडिना ही थे। डाडिना स्वस्थ हुए और मणिभाई से इतने प्रभावित हुए कि अपने ही घर का एक हिस्सा योग केंद्र चलाने के लिए दे दिया। योग केंद्र पर होने वाले खर्चों की जिम्मेवारी भी खुद ही ले ली। सन् 1918 का 25 दिसंबर था। पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम थी। उसी दिन मुंबई के पास वर्सोवा में “द योगा इंस्टीच्यूट” का श्रीगणेश हो गया। चूंकि खर्च अकेले डाडिना वहन कर रहे थे, इसलिए मणिभाई ने योग प्रशिक्षण और योगोपचार बिल्कुल मुफ्त कर दिया। बेहतर नतीजे मिलने लगे तो ख्याति विदेशों तक फैल गई। अमेरिका से, यूरोप से लोग आने लगे। जगह कम पड़ गई। अमेरिकी चाहते थे कि ऐसा केंद्र उनके देश में भी खुले। जिस तरह इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन बीकेएस आयंगार के दीवाने बनकर उन्हें पश्चिमी दुनिया में पहुंचा दिया था। लगभग उसी तरह डाडिना मणिभाई को लेकर अमेरिका गए और वहां योग केंद्र स्थापित करने में मदद की।

मणिभाई अमेरिका से लौटे तो सन् 1923 में अपना नाम बदल लिया। अब वे योगेंद्र जी बन गए। इसका कारण तो ज्ञात नहीं। पर इसके बाद उन्होंने योग विद्या को जनोपयोगी बनाने के लिए अपने अध्ययनों और शोधों के आधार पर कई सुधारवादी कदम उठाए। योग साधना से महिलाओं को जोड़ा। कई शोध प्रबंध लिखे। इस तरह उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हठयोग को प्रभावशाली बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी अतुलनीय योगदान का नतीजा है कि “द योगा इंस्टीच्यूट” बीते सौ सालों में कई देशों में भी पांव पसार चुका है। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा की बदौलत ही यह संस्थान प्रधानमंत्री पुस्कार का हकदार बना। कोरोनाकाल में खासतौर से लॉकडाउन के दौरान लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए इसके प्रशंसनीय कार्यों से लाखों लोग लाभान्वित हुए। आज जबकि योग सबकी जरूरत बन चुका है और योगविद्या रोजगार या स्वरोजगार के लिए अहम बन गई है, योगेंद्र जी के कार्यों, उनके आदर्शों से नई पीढी को बेहतर प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

बिहार योग : ऐसे फैलती है सुगंधित पुष्प की खुशबू

सुगंधित पुष्प अपना प्रचार खुद करता है। यह शाश्वत सत्य बिहार योग या सत्यानंद योग के मामले में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। बिहार योग चार महीनों के भीतर दूसरी बार चर्चा में है। पहले योगनिद्रा के कारण चर्चा में था। अब यौगिक कैप्सूल और गुरूकुल शिक्षा पद्धति को लेकर चर्चा में है। दोनों ही बार चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। वैसे तो बिहार योग की उपस्थिति एक सौ से ज्यादा देशों में है और जर्मनी में योग शिक्षा का आधार ही बिहार योग है। पर अपने देश में चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती रही।  परिस्थितियां बदलीं तो बिहार के सुदूरवर्ती मुंगेर जिले में उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर खिले योग रूपी फूल की खुशबू का अहसास सहज ही हुआ। उसी का नतीजा है कि बीते साल बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान का प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला तो इसके एक साल पहले यानी सन् 2017 में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। यही नहीं, केंद्र सरकार देश में योग के संवर्द्धन के लिए जिन चार योग संस्थानों की सहायता ले रही है, उनमें बिहार योग विद्यालय भी है।        

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आधुनिक युग के जरूरतों को ध्यान में रखकर बिहार योग या सत्यानंद योग पद्धति से तैयार योग कैप्सूल में क्या खास दिखा कि वे खुद उसके दीवाने हुए और उसके बारे में देशवासी भी जानें, इसकी जरूरत समझी? इस सवाल पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले योग की परंपरा और आध्यात्मिक चेतना के विकास से सबंधित कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके जरिए “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर देशवासियों के बीच बड़ा संदेश गया।

प्रधानमंत्री के खुद का जीवन योगमय है और योग को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पुनर्स्थापित करने में उनका योगदान सर्वविदित है। उन्होंने “फिट इंडिया मूवमेंट” के कार्यक्रम में चर्चा के लिए फिटनेस की दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया तो गुरूकुल परंपरा वाले संस्थान के संन्यासी से बात करना न भूले। उन्होंने इसके लिए स्वामी शिवध्यानम सरस्वती के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया, जो योग की गौरवशाली परंपरा वाले संस्थान बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के शिष्य हैं और जिन्होंने आईआईटी, दिल्ली जैसे संस्थान से उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद चेतना के उच्चतर विकास के लिए अलग मार्ग चुन लिया था। प्रधानमंत्री का यह कदम कोई अकारण नहीं रहा होगा। नई शिक्षा नीति में कई मामलों में गुरूकुल परंपरा की झलक दिखाई गई है। वे युवापीढ़ी को जरूर यह बताना चाहते होंगे कि गुरूकुल परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या का प्रभाव कैसा होता है।

स्वामी शिवध्यानम सरस्वती ने प्रधानमंत्री के सवालों का जबाव देते हुए स्वामी शिवानंद सरस्वती की गुरू-शिष्य परंपरा और बिहार योग परंपरा का वर्णन इस तरह किया कि नवीन और प्राचीन गुरूकुल परंपरा में एकरूपता की झांकी प्रस्तुत हो गई। अनेक लोगों को हैरानी हुई होगी कि आधुनिक जमाने में भी ऐसा गुरूकुल है। स्वामी शिवध्यानम उन्नत गुरू-शिष्य परंपरा के न होतें तो उनके पास एक मौका था कि प्रधानमंत्री के समाने खुले मंच पर अपनी पीठ खुद थपथपा सकते थे। पर गुरूकुल योग विद्या का असर देखिए कि उन्होंने अपनी योग परंपरा के तीन मुख्य संतों स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के आदर्शों की चर्चा करते हुए आश्रम के अपने अनुभव को इस तरह साझा किया कि आदर्श गुरू-शिष्य परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या को लेकर नईपीढी के बीच सकारात्मक संदेश गया। 

बिहार योग-सत्यानंद योग एक ऐसी परंपरा है, जिसमें शास्त्रीय और अनुभवात्मक ज्ञान और आधुनिक दृष्टिकोण का समन्वय है। इसमें योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। तमिलनाडु में जन्मे और पेशे से चिकित्सक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सत्यानंद सरस्वती जैसे शिष्य को आगे करके योग विद्या की ऐसी गंगा-जमुनी बहाई कि आज दुनिया के लोग उसमें डुबकी लगाकर आनंदमय जीवन जी रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के बाद स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस महायज्ञ को आगे बढ़ा रहे हैं।  

अब योग कैप्सूल की बात। विश्वव्यापी कोरोना वायरस का तांडव अपने देश में भी शुरू हुआ तो केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार करवाए थे। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान ने 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए, नवयुवतियों के लिए, गर्भवती महिलाओँ के लिए, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए औऱ चालीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किए। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक जमाने के लोगों की जीवन-पद्धति और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कई साल पहले कुछ योग विधियां बतलाई थी, जिसके समन्वित रूप को योग कैप्सूल कहा था। प्रधानमंत्री को स्वामी निरंजन का योग कैप्सूल भा गया। शायद इसकी मुख्य वजह इसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान और योगनिद्रा का समावेश होना है, जिनके कारण शारीरिक व मानसिक बीमारियां दूर ही रहती हैं। 

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के योग कैप्सूल कुछ इस तरह है – सुबह उठते ही महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र ग्यारह बार पाठ और दुर्गाजी के बत्तीस नामों का तीन बार पाठ। पहला मंत्र शारीरिक व मानसिक आरोग्य के लिए, दूसरा जीवन में बौद्धिक व भावनात्मक प्रतिभा की जागृति के लिए और तीसरा मंत्र जीवन से क्लेश व दु:ख की निवृत्ति एवं संयम व समरसता की प्राप्ति के लिए है। दैनिक चर्या के बाद पांच आसनों यथा तड़ासन, तिर्यक तड़ासन, कटि चक्रासन, सूर्य नमस्कार और सर्वांगासन का अभ्यास। इसके बाद नाड़ी शोधन और भ्रामरी प्राणायामों का अभ्यास। शाम को काम-काज से निवृत्त होने के बाद योगनिद्रा और रात को सोने से पहले दस मिनट मन को एकाग्र करने के लिए धारणा का अभ्यास। इसे ध्यान भी कहा जा सकता है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “स्वामी निरंजन का व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है और वह आज की पीढ़ी के अनुरूप सोच सकते हैं।” स्वामी निरंजन अपने गुरू की कसौटी पर खरे उतरे। उनका यौगिक कैप्सूल योग साधना की एक ऐसी पद्धति है, जिसे अपनाने वाले अपने जीवन में बदलाव स्पष्ट रूप से देखने लगे हैं। देश-विदेश के लाखों लोग इस पद्धति को अपना कर निरोगी जीवन जी रहे हैं। योग विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है। बाइबिल का प्रथम वाक्य है – “आरंभ में केवल शब्द था और वह शब्द ही ईश्वर था।“ भारतीय दर्शन के मुताबिक वह शब्द कुछ और नहीं, बल्कि “ॐ” था। ॐ मंत्र तीन ध्वनियों से मिलकर बना है – अ, उ और म। इनमें प्रत्येक ध्वनि के स्पंदन की आवृत्ति अलग-अलग होती है, जिससे चेतना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ॐ नमः शिवाय कई नादो का समुच्य है। गायत्र मंत्र में चौबीस ध्वनियां हैं। मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। इसकी सहायता से अपनी बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर पुन: चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है।  

अनेक लोग किसी देवी-देवता को स्मरण करके मंत्रों का जप करते हैं। पर विदेशी लोग जब इन्हीं मंत्रों के जप करते हैं तो उनके मन में तो हमारे किसी देवी-देवता का रूप नहीं होता। फिर भी वे लाभान्वित होते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि मंत्रों की साधना करते वक्त किसी भी विषय़ पर मन को एकाग्र करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। मन को खुलकर अभिव्यक्त होने देना चाहिए। मंत्र विज्ञान प्राचीन काल से विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से प्रयोग में था। इस विज्ञान की ओर अधुनिक विज्ञानियों की नजर गई है और इसका पुनरूत्थान किया जा रहा है। उन्हें पता चल गया है कि मंत्रों की शक्ति से ही प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित किया जा सकता है। आने वाले समय में मंत्रों का उपयोग एक वैज्ञानिक उपकरण के रूप में उसी तरह होगा, जिस तरह मौजूदा समय में लेजर या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का उपयोग प्रकृति के गहनतर आयामों को जानने के लिए किया जाता है।  

जहां तक योगनिद्रा की बात है तो प्रत्याहार की शक्तिशाली और मौजूदा समय में प्रचलित विधि स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देन है। उन्होंने तंत्रशास्त्र से इस विद्या को हासिल करके इतना सरल, किन्तु असरदार बनाया कि आज दुनिया भर में इसका उपयोग मानसिक बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों तक के उपचार में हो रहा है। दरअसल यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति का एक व्यवस्थित तरीका है। गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है। मन की सजगता और शिथिलीकरण के लिए यह अचूक विधि मानी जाती है।

अब योग विधियों को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और उनके नतीजों की बात। बिहार योग विद्यालय ने स्पेन के बार्सिलोना स्थित अस्पताल में शल्य चिकित्सा कराने पहुंचे तनावग्रस्त मरीजों पर मंत्र के प्रभावों पर शोध किया। ऐसे सभी मरीजों को एक कमरे में बैठाकर बार-बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करने को कहा गया था। ईईजी और अन्य चिकित्सा उपकरणों के जरिए देखा गया कि मंत्रोचारण से भय, घबराहट और चंचलता के लिए जिम्मेदार बीटा तरंगें कम होती गईं औऱ अल्फा तरंगों की वृद्धि होती गई। स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है।

अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योगनिद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योगनिद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योगनिद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रेडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोंटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी का जीनव-काल योगनिद्रा के अभ्यास से काफी बढ़ गया था।

इन दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि आधुनिक युग में योग कैप्सूल को जीवन-पद्धति में शामिल किया जाना कितना लाभप्रद है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री चाहते हैं लोग योग कैप्सूल को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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