स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग की शुद्धता बनाए ऱखने का संकल्प लें


किशोर कुमार

भारत एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। नौंवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग सत्र का नेतृत्व करेंगे। यह वही मंच है जहां प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल पहले पहली बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के वार्षिक आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इस बार के आयोजन का थीम है – वसुधैव कुटुम्बकम’, जो हमारे सनातन धर्म का मूल मंत्र रहा है। हमारा दर्शन है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है। इसी अवधारणा की वजह से भारत लंबे समय तक विश्व गुरू बना रहा। भारत में सामर्थ्य है कि वह फिर से विश्व गुरू बन सकता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भले भारत की पहल पर दुनिया भर में मनाया जाना लगा है। पर हमें इस बात को याद रखना होगा कि हमारे संतों और योगियों ने इसके लिए पृष्ठभूमि पहले से तैयार कर रखी थी। तभी दुनिया ने हमारी बातों को गंभीरता से लिया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस तो 2015 से मनाया जा रहा है। पर भारत में पहली बार विश्व योग सम्मेलन सन् 1953 में ऋषिकेश में हुआ था। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसके लिए पहल की थी। ‘योग तथा विश्व धर्म संसद” उस योग सम्मेलन का थीम था। इसके माध्यम से पहली बार योग के सिद्धांतों, विचारधाराओं तथा विधियों को जनसाधारण्य के सामने लाया गया था। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों की जानकारी, समझ और अनुभव प्रदान करना था।

इस आयोजन के बीस साल बाद यानी 1973 में परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने दूसरे विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया था। पचास से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने भारत आए थे। इस आयोजन का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी स्तर पर योग का प्रचार-प्रसार करना था। उनका मानना था कि साधारण योग शिक्षकों की बजाय योग केवल उन्हीं लोगों के द्वारा सिखाया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन में योग को आत्मसात् और सिद्ध किया हो। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आने वाले भविष्य में ऐसे हजारों-लाखों ‘किताबी योग शिक्षक’ आ जाएँगे जो किसी किताब में से कुछ आसनों के चित्र देखकर योग सिखाना शुरू कर देंगे और अपने आपको योग शिक्षक कहेंगे। आज देश के कोने-कोने में तो क्या, सारे विश्व में यही होता दिखाई दे रहा है। इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संन्यासियों को योग की शिक्षा देनी प्रारम्भ की थी। सन् 1973 के सम्मेलन के बाद योग आन्दोलन सारे विश्व में दावानल की तरह फैल गया और दुनिया के कोने-कोने में योग केन्द्र, आश्रम और शिक्षक तैयार होने लगे। योग प्रचार के साथ-साथ योग अनुसंधान तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग के प्रयोग भी किए जाने लगे।

यह सुखद है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती द्वारा विश्व योग सम्मेलन की शुरू की गई परंपरा आज भी कायम है। अब बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। अब तो कई अन्य भारतीय संगठन भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग सम्मेलन करने लगे हैं। इसका असर विश्वव्यापी है। साठ और सत्तर के दशक में बल्गेरिया एक साम्यवादी देश था, जहाँ योग और अध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं था। आज बल्गेरिया में बड़ी संख्या में लोग योग साधना करते हैं। स्वामी योगभक्ति सरस्वती का एक आलेख हाल ही पढ़ा था। उसके मुताबिक फ्रांस में भारतीय योग पद्धति लोकप्रियता के शिखर पर है। वहां की सरकार बच्चों की योग शिक्षा को लेकर काफी सजग और सतर्क रहती है। इसके लाभ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे हैं। योगनिद्रा साधना सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से होती है।

विश्व योग सम्मेलनों से यौगिक अनुसंधानों को भी काफी बढ़ावा मिला है। विज्ञान समझने का प्रयास करता है और योग अनुभव दिलाता है। विज्ञान के द्वारा हम यह जान पाते हैं कि योग की उपयोगिता इस जीवन में क्या है और योग के द्वारा हम जान पाते हैं कि हम अपने जीवन को एक सुन्दर उद्यान में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। बीते पाचास-साठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो यौगिक अनुसंधानों के मामले में खासतौर से कैवल्यधाम, लोनावाला और बिहार योग विद्यालय के काम उल्लेखनीय हैं। एक तरफ स्वामी कुवल्यानंद योग अनुसन्धान द्वारा योग की व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर रहे तो दूसरी तरफ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी काम को विश्वव्यापी फलक प्रदान किया। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत में विश्व गुरु बनने के गुण मौजूद हैं।

भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। रूद्रयामल तंत्र से पता चलता है कि पार्वती ने भगवान शंकर से प्रश्न किया था, ‘इस संसार में बहुत कष्ट है, रोग, व्याधि, अशान्ति और अराजकता है। मनुष्य दुःख के वातावरण में जन्म लेता है, दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सुख प्राप्ति के लिए जीवन पर्यन्त दुःख से संघर्ष करता है और अंत में दुःख के वातावरण मृत्यु को प्राप्त करता है। क्या इस संसार में, इस जीवन में दुःख से मुक्ति सम्भव है?’ जबाव में शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी। वही योग शिक्षा हमारी थाती है।

आज योग आज भले ही एक विश्वव्यापी शब्द बन गया है। पर अपवादों के छोड़ दें तो उसकी पहचान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सिमट कर रह गई है। जीवन को परिवर्तित करने, पल्लवित करने, सुधारने की प्रक्रिया के रूप में कुछ परंपरागत योग संस्थान ही काम कर पा रहे हैं। संत कबीर एक दो नहीं, बल्कि चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब बचपन से ही सुनते-समझते आए हैं। घट-घट में बैठे राम की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है। पर तीसरे और चौथे राम की तो चर्चा तक नहीं होती। आमतौर पर न कोई बतलाता है और न ही हम जानने की कोशिश करते हैं कि जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? योग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हम वर्षों से आसन और प्राणायाम में ही उलझे हुए हैं।

इतनी प्राचीन किन्तु सर्वशक्तिशाली विद्या को सीमित दायरे में रखना आत्मघाती होगा। हमें आसन और प्राणायाम से आगे की बात करनी होगी। योग की समग्रता और शुद्धता पर ध्यान देना होगा। तभी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की सार्थकता होगी और तभी भारत विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होकर वसुधैव कुटुंबकम् के मंत्र को सार्थक कर पाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हे सत्यानंद! आपको शत्-शत् नमन!

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती क्या फिर भौतिक शरीर धारण कर चुके हैं? यानी, उनका पुनर्जन्म हो चुका है? हम कैसे पहचानेंगे उन्हें? इस तरह के न जाने कितने ही सवाल उस महान संत के अनुयायियों के जेहन में अक्सर कौंधते रहते हैं। और ऐसा अकारण ही नहीं है। जन्मशताब्दी वर्ष पर इसी आलोक में प्रस्तुत है यह आलेख।

कोई चौदह साल पहले 5 दिसंबर 2009 को महासमाधि लेने से पहले स्वामी जी स्वयं भक्तों से कहते थे कि रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा में हूं। मिलते ही चला जाऊंगा। फिर भावुक होते आयुयायियों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए मजाक करते और पूछते, मैं नया शरीर धारण करके आऊंगा तो कैसे पहचानोगे? जबाव में कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। स्वामी जी सबकी बातें सुनते और मुस्कुराते रहते। पर देखते-देखते महाप्रस्थान का दिन आ ही गया। स्वामी जी ने आसन ग्रहण किया और शिष्यों से कहा, रिटर्न टिकट मिल चुका है, मैं चला….और भौतिक शरीर को त्याग दिया था।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में विज्ञान के आलोक में योग का अलख जगाने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने समाधि न ली होती तो आज से कोई तीन दिन बाद ही शिष्यगण अपने प्रिय गुरू की उपस्थिति में उनकी 100वीं जयंती मनाते। उनका जन्म मौजूदा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सन् 1923 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस साल यह तिथि 8 दिसंबर को है। यानी महासमाधि दिवस और जयंती के बीच का अंतराल मात्र तीन दिन।

आध्यात्मिक साधना के आलोक में तर्क करने पर मन में सहज सवाल उठेगा कि संन्यासी की अंतिम इच्छा तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना होता है। फिर परमहंस जी महासमाधि के लिए रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा क्यों करते रहे? जबाव पहले से मौजूद है। परमहंस जी ने महाप्रयाण से पहले ही कहा था, योग का उत्तम ज्ञान बताना प्रथम उत्तम दान है। इससे अज्ञान मिटता है और क्लेष दूर होते हैं। रोगी को दवा-दारू देना द्वितीय उत्तम दान है और भूखे को भोजन देना तृतीय उत्तम दान है। सभी इस महान कर्तव्य का पालन करें, इसके लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। मेरे हिस्से का काम शेष रह गया है। इसलिए रिटर्न टिकट लेकर जा रहा हूं। आऊंगा जरूर।

किस रूप में आएंगे? परमहंस जी कहते, मेरी इच्छा होगी कि एक ऐसी स्त्री के गर्भ से जन्म लूं, जो तथाकथित छोटी जाति की हो। उस परिवार में जन्म लेकर अपने माता-पिता को उपदेश दूंगा। साथ ही मजदूरों और मेहतरो को भी, जो मेरे आसपास होंगे। ताकि वे भी अच्छे संस्कारों को आत्मसात् कर सकें। यही है बोधिसत्व। बोधिसत्व के रूप में भगवान बुद्ध ने अनेक जन्मों में अवतार लिया, पशु के घर, भिक्षुओं के परिवार में, साहूकारो और राजा के घर। उन्होंने सभी जगह धर्म की शिक्षा दी। साधुओं और महात्माओं का यही आदर्श होना चाहिए। संत नामदेव वंचितों की तरह जीते रहे और अमर हो गए।

परमहंस जी अपने अनुयायियों से कहते, तुमलोग भी चाहते हो कि इस शरीर को छोड़ने के बाद फिर से नया शरीर धारण करूं। पर यह तय है कि तुम्हारा बेटा बनकर पैदा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी होगी। इसलिए कि तुमलोग भौतिक सुख चाहते हो और मैं कहूंगा, नहीं मां, मैं मात्र एक लंगोटी पहनूंगा। मैं गीता-रामायण और श्रीमद्भागवतम् की शिक्षा दूंगा। जीवन जीने की कला सिखाऊंगा और अन्य कौशल भी, जिनकी जीवन में आवश्यकता है। जैसे, मवेशियों की देखभाल कैसे की जाए, खेती कैसे की जाए, गन्ने कैसे उगाए जाएं, बैंक खाते में सावधि जमा कैसे करें। आदि आदि। इसलिए भगवान से कहना कि प्रभु, ऐसा बालक दो जो घर में योग भी लाए और भोग भी। योग का मतलब ऊंचे विचार, ज्ञान का विचार, भगवान का विचार और भोग का मतलब है लड़का-लड़की, धन-दौलत आदि। हर काम देश-काल को ध्यान में रखकर होना चाहिए। इस युग में योग और भोग दोनों जरूरी है।

परमहंस जी के गुरू और बीसवीं सदी के महानतम संत ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जब कहा था, जाओ सत्यानंद, योग का प्रचार करो, तो  स्वामी सत्यानंद सरस्वती बड़ी उलझन में पड़ गए थे। “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास” वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत होने लगी थी। वे तो संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए योग का न तो प्रशिक्षण लिया था और न ही उसमें कोई रूचि थी। उलझन इसी बात से थी। गुरू तो सिद्ध संत थे। उन्हें अपने शिष्य के मन की उलझन समझते देर न लगी थी। इसलिए पास बुलाया और सिर पर हाथ रखा। शक्तिपात हो गया। फिर एक रूपए आठ आने दिए औऱ फिर दोहराया, जाओ, योग का प्रचार करो। तुम जिस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो, उसके लिए अभी बीस साल प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक समय का सदुपयोग करो।

परमहंस जी परकाया प्रवेश विद्या में सिद्धहस्त थे। वे अनुयायियों से पूछते थे, यह शरीर किसका है? फिर इसका उत्तर भी देते थे। कहते, यह स्वामी सत्यानंद का शरीर है। मैंने (आत्मा) ने इस शरीर को किराए पर लिया है। अपने आध्यात्मिक तत्व को बांटने के लिए। जब तक हूं, इस शरीर में वास कर रहा हूं। पर मैं इस शरीर को छोड़ भी सकता हूं। तुम मुझे स्वामी सत्यानंद के रूप में जानते हो। किन्तु यथार्थ में मैं स्वामी सत्यानंद नहीं भी हो सकता हूं। बीस वर्षों तक, एक सिद्ध आत्मा ने, जिसका मैंने आह्वान किया था, इस शरीर में निवास किया। जब मैं अठारह वर्षों का था तो एक तांत्रिक योगिनी से मिला था। उन्होंने ही मुझे अन्य चीजों के अलावा आवाह्न विज्ञान की शिक्षा दी थी। यह शिक्षा तांत्रिक पद्धति का एक अंग है। वे जानती थीं कि मुझे आवाह्न विज्ञान की शिक्षा इसलिए जरूरी है, ताकि मैं इस आत्मा का आवाह्न अपने गुरू के आदेश की पूर्ति के लिए कर सकूं।

उस विद्या से मिली अलौकिक शक्ति का ही प्रतिफल है कि कई दशकों से बिहार योग या सत्यानंद योग की खुशबू सुगंधित पुष्प की तरह सर्वत्र फैल रही है। जाहिर है कि परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने गुरू के मिशन को बखूबी पूरा किया। बीस वर्षों के भीतर न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में योग और उसकी वैज्ञानिकता पर उल्लेखनीय कार्य करके अपने द्वारा बिहार के एक छोटे-से शहर मुंगेर में गंगा के तट पर स्थापित बिहार योग विद्यालय को दुनिया के मानचित्र पर ला खड़ा कर दिया। फिर तो दुनिया के अनेक देशों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” को कहना पड़ा कि भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय का स्थान प्रथम है।

जब संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने का उचित समय आया तो परमहंस जी सन् 1989 में मुंगेर को सदा के लिए छोड़कर दैव कृपा से झारखंड के देवघर जिले के रिखिया गांव में धुनी रमाने पहुंच गए थे। वहां उन्होंने सेवा, प्रेम और दान को अपने आध्यात्मिक जीवन का आधार बनाया था। वे कहते थे कि सेवा आध्यात्मिक जीवन का पहला, प्रेम दूसरा और दान तीसरा पाठ है। इसके बाद ही आत्म-शुद्धि, ध्यान और ईश्वर-साक्षात्कार का नंबर आता है।

दुनिया भर में योग-अध्यात्म को मिल रही गति और भक्तियुग के आने के संकेतों से अनुयायियो को भरोसा होने लगा है कि परमहंस जी का अवतरण हो चुका है। इसलिए कि रिखिया में उन्हें ऐसी ही दुनिया की झलक मिल रही थी। उन्हें ऐसे ही जगत के निर्माण में अपने हिस्से का काम करने के लिए नवजीवन चाहिए था। परमहंस जी किस रूप में आए या आएंगे, थोड़ी देर के लिए इन बातों को छोड़ भी दें, तो यह निर्विवाद है कि उनकी शिक्षाएं मानव जीवन के उत्थान में उत्प्रेरक का काम कर रही है, करती रहेगी। आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक संत को उनकी जन्मशती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मानवता के लिए योग, ख्याल अच्छा है

किशोर कुमार

संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है, साधु प्रकारांतर से परोपकार ही करते हैं : स्वामी शिवानंद सरस्वती

कुंभ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दशनामी संप्रदाय के अखाड़ों का होता है। ये अखाड़े आदिगुरु शंकराचार्य की महान परम्परा की याद दिलाते हैं। आदि शंकर ने विभिन्न पंथों में बंटे संत समाज को संगठित किया था। ताकि आध्यात्मिक शक्तियों की बदौलत भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की जा सके। पर उन्हें जल्दी ही महसूस हुआ कि केवल शास्त्र से बात नहीं बनने वाली, शस्त्र की भी जरूरत होगी। तब उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के तहत अखाड़ों की स्थापना की। फिलहाल देश में कुल तेरह अखाड़े हैं। इनमें सात दशनामी परंपरा के शैव मत वाले, चार वैष्णव मत वाले और दो उदासीन मत वाले हैं। पर नागा संन्यासी शैव मत वाले अखाड़ों में ही बनाए जाते हैं। इस लेख में योग के आलोक में साधु-संन्यासियों के योगदान और उनके जीवन से जुड़े तथ्यों की पड़ताल करने की कोशिश है।    

साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं, उनका कोई नगर नहीं, राजधानी नहीं….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं। पर ये लड़ाकू साधु-संन्यासी अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें। उन्हें धूल चटा देते हैं….। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को ये बातें बेहद परेशान करती थीं। वे कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से वे कांप जाते थे। उनके सिपाही भी भयभीत रहने लगे थे। ”वंदे मातरम्…” गीत के रचयिता कवि-उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास “आनंदमठ” में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का यह वृतांत बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत है।

कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के जिस जमात को हम देखते हैं, वे अंग्रेजों, उसके पहले मुगलों और न जाने कितने ही विदेशी आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाले उन साधु-संन्यासियों की परंपरा वाले ही तो हैं। लगभग बाइस सौ साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षार्थ संत समाज को संगठित किया था। अतीत के झरोखे से झांककर देखने से पता चलता है कि आदि शंकर ने साधु-संन्यासियों की फौज तैयार न की होती तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखना असंभव हो गया होता। यह जरूर है कि कालांतर में परिस्थितियां बदलती गईं तो साधु-संन्यासियों की भूमिकाएं भी बदलती गईं। पर इसके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। तभी अक्सर उनके बारे में कई सवाल खड़े किए जाते हैं। यथा अखाड़ों के नागा साधुओं और अन्य साधु-संन्यासियों की आधुनिक युग में क्या उपयोगिता है? कुंभ के बाद पहाड़ों में कंपा देने वाली सर्दियों के दौरान खुले बदन या कम कपड़ों में किस तरह जीवित रह जाते हैं? वे वहां करते क्या हैं और क्या खाकर जिंदा रहते हैं? उनकी अदम्य शक्ति का स्रोत क्या है? जो साधु-संन्यासी पहाड़ों में नहीं रहतें, वे आश्रमों में क्या करते होंगे? आदि आदि।

आईए, योग-शक्ति के आलोक में इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया कि हिमालय और जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासियों की वर्तमान समय में क्या उपयोगिता रह गई है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, “ये साधु-संन्यासी आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत होते हैं, सिद्धांत के पक्के होते हैं। मानवता के कल्याण के लिए अपने साधना स्थल से ही हमलोगों आदेश देते हैं। उनके आदेशों का पालन करने के बाद हमलोग भी वहीं चले जाते हैं।“ परमहंस योगानंद कहते थे, “जो संतजन बाह्य स्तर पर कार्य नहीं करते, वे भी अपने विचारों एवं पवित्र स्पंदनों द्वारा जगत् का आत्मज्ञानहीन मनुष्यों द्वारा अथक किए गए लोकोपकारी कार्यों से कहीं अधिक बढ़कर हित करते हैं। महात्माजन अपने-अपने ढंग से और प्राय: कड़वे विरोध झेलकर अपने समकालीन लोगों को प्रेरित करने तथा उन्नत करने का नि:स्वार्थ प्रयास करते रहते हैं।

साधु-संन्यासियों की सूक्ष्म शक्ति की बात भी कोई कपोल-कल्पना नहीं है। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में हठयोगी थे साधु हरिदास। खेचरी मुद्रा सिद्ध थे। महाराज उनकी यौगिक शक्तियों की परीक्षा लेना चाहते थे। लिहाजा महाराजा की इच्छानुसार उन्होंने महाराजा और कुछ विदेशी चिकित्सकों की उपस्थिति में चालीस दिनों के लिए भू-समाधि ले ली। उन्हें सही तरीके से मिट्टी से ढ़क दिया गया। कुछ दिनों बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पर जब चालीस दिन पूरे हुए तो साधु हरिदास के निर्देशानुसार मिट्टी हटाकर उनकी गर्दन की हड्डियों पर गाय के घी से मालिश कर दिया गया तो वे इस तरह उठ खड़े हुए थे, मानों कुछ समय के लिए ध्यान साधना में बैठे रहे हों। बिल्कुल तरोताजा थे। उनकी सूक्ष्म शक्तियों की कई मिसालें दी जाती हैं, जिनका उल्लेख फ्रांस सरकार के दस्तावेजों में भी है। परमहंस योगानंद ने अपने परमगुरू और सिद्ध संन्यासी लाहिड़ी महाशय के बारे में लिखा है कि वे अपने दाह-संस्कार के दूसरे दिन प्रात: दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने पुनरूज्जीवित परन्तु रूपांतरित शरीर में फिर से प्रकट हुए थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के मामले में भी उनके कई विदेशी शिष्यों का ऐसा ही अनुभव रहा है।

यह निर्विवाद है कि सनातन काल से सभ्यता और सांस्कृति बरकरार रखकर मानवता का कल्याण करने में योगियों व संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। उनकी अलौकिक शक्तियां हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। इसे इस तरह समझिए। जापान में समुराई नामक समुदाय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। इस समुदाय के ज्यादातर लोग सेना में जाते थे। पर पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे उनकी शारीरिक शक्ति और कल्पना-शक्ति ऐसी हो जाती थी कि उनके सामने दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा-चक्र को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान-चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है।

पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि जंगलों और पहाड़ों में साधना करने वाले साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। वैसे तो जंगलों और पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से सब कुछ मौजूद होता है। इनमें सौर-शक्ति प्रमुख है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रोटीनयुक्त रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल की बदौलत सौर-शक्ति को कैद करना संभव हो पाता है, जो जीवन दायिनी है। अपामार्ग या चिरचिटा जंगलो और पहाड़ों में उपलब्ध होता है। इसके बीज में इतनी शक्ति है कि कोई बिना अन्न ग्रहण किए एक सप्ताह से ज्यादा समय गुजार सकता है। पर ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे।

हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, योग के सामान्य साधको को भी सलाह दी जाती है कि यदि हृदय रोग, उच्च रक्तचाप व मिर्गी के रोगी न हो तो सूर्यभेद प्राणायाम करें। शरीर में गर्मी पैदा हो जाएगी। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता।

उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे, “संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। एक साधु के लिए साधना की अंतिम परिणति सेवा होती है, समाधि नहीं।” आखाड़ों से जुड़े साधु-संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

बिहार योग : ऐसे फैलती है सुगंधित पुष्प की खुशबू

सुगंधित पुष्प अपना प्रचार खुद करता है। यह शाश्वत सत्य बिहार योग या सत्यानंद योग के मामले में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। बिहार योग चार महीनों के भीतर दूसरी बार चर्चा में है। पहले योगनिद्रा के कारण चर्चा में था। अब यौगिक कैप्सूल और गुरूकुल शिक्षा पद्धति को लेकर चर्चा में है। दोनों ही बार चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। वैसे तो बिहार योग की उपस्थिति एक सौ से ज्यादा देशों में है और जर्मनी में योग शिक्षा का आधार ही बिहार योग है। पर अपने देश में चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती रही।  परिस्थितियां बदलीं तो बिहार के सुदूरवर्ती मुंगेर जिले में उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर खिले योग रूपी फूल की खुशबू का अहसास सहज ही हुआ। उसी का नतीजा है कि बीते साल बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान का प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला तो इसके एक साल पहले यानी सन् 2017 में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। यही नहीं, केंद्र सरकार देश में योग के संवर्द्धन के लिए जिन चार योग संस्थानों की सहायता ले रही है, उनमें बिहार योग विद्यालय भी है।        

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आधुनिक युग के जरूरतों को ध्यान में रखकर बिहार योग या सत्यानंद योग पद्धति से तैयार योग कैप्सूल में क्या खास दिखा कि वे खुद उसके दीवाने हुए और उसके बारे में देशवासी भी जानें, इसकी जरूरत समझी? इस सवाल पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले योग की परंपरा और आध्यात्मिक चेतना के विकास से सबंधित कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके जरिए “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर देशवासियों के बीच बड़ा संदेश गया।

प्रधानमंत्री के खुद का जीवन योगमय है और योग को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पुनर्स्थापित करने में उनका योगदान सर्वविदित है। उन्होंने “फिट इंडिया मूवमेंट” के कार्यक्रम में चर्चा के लिए फिटनेस की दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया तो गुरूकुल परंपरा वाले संस्थान के संन्यासी से बात करना न भूले। उन्होंने इसके लिए स्वामी शिवध्यानम सरस्वती के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया, जो योग की गौरवशाली परंपरा वाले संस्थान बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के शिष्य हैं और जिन्होंने आईआईटी, दिल्ली जैसे संस्थान से उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद चेतना के उच्चतर विकास के लिए अलग मार्ग चुन लिया था। प्रधानमंत्री का यह कदम कोई अकारण नहीं रहा होगा। नई शिक्षा नीति में कई मामलों में गुरूकुल परंपरा की झलक दिखाई गई है। वे युवापीढ़ी को जरूर यह बताना चाहते होंगे कि गुरूकुल परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या का प्रभाव कैसा होता है।

स्वामी शिवध्यानम सरस्वती ने प्रधानमंत्री के सवालों का जबाव देते हुए स्वामी शिवानंद सरस्वती की गुरू-शिष्य परंपरा और बिहार योग परंपरा का वर्णन इस तरह किया कि नवीन और प्राचीन गुरूकुल परंपरा में एकरूपता की झांकी प्रस्तुत हो गई। अनेक लोगों को हैरानी हुई होगी कि आधुनिक जमाने में भी ऐसा गुरूकुल है। स्वामी शिवध्यानम उन्नत गुरू-शिष्य परंपरा के न होतें तो उनके पास एक मौका था कि प्रधानमंत्री के समाने खुले मंच पर अपनी पीठ खुद थपथपा सकते थे। पर गुरूकुल योग विद्या का असर देखिए कि उन्होंने अपनी योग परंपरा के तीन मुख्य संतों स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के आदर्शों की चर्चा करते हुए आश्रम के अपने अनुभव को इस तरह साझा किया कि आदर्श गुरू-शिष्य परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या को लेकर नईपीढी के बीच सकारात्मक संदेश गया। 

बिहार योग-सत्यानंद योग एक ऐसी परंपरा है, जिसमें शास्त्रीय और अनुभवात्मक ज्ञान और आधुनिक दृष्टिकोण का समन्वय है। इसमें योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। तमिलनाडु में जन्मे और पेशे से चिकित्सक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सत्यानंद सरस्वती जैसे शिष्य को आगे करके योग विद्या की ऐसी गंगा-जमुनी बहाई कि आज दुनिया के लोग उसमें डुबकी लगाकर आनंदमय जीवन जी रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के बाद स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस महायज्ञ को आगे बढ़ा रहे हैं।  

अब योग कैप्सूल की बात। विश्वव्यापी कोरोना वायरस का तांडव अपने देश में भी शुरू हुआ तो केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार करवाए थे। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान ने 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए, नवयुवतियों के लिए, गर्भवती महिलाओँ के लिए, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए औऱ चालीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किए। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक जमाने के लोगों की जीवन-पद्धति और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कई साल पहले कुछ योग विधियां बतलाई थी, जिसके समन्वित रूप को योग कैप्सूल कहा था। प्रधानमंत्री को स्वामी निरंजन का योग कैप्सूल भा गया। शायद इसकी मुख्य वजह इसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान और योगनिद्रा का समावेश होना है, जिनके कारण शारीरिक व मानसिक बीमारियां दूर ही रहती हैं। 

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के योग कैप्सूल कुछ इस तरह है – सुबह उठते ही महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र ग्यारह बार पाठ और दुर्गाजी के बत्तीस नामों का तीन बार पाठ। पहला मंत्र शारीरिक व मानसिक आरोग्य के लिए, दूसरा जीवन में बौद्धिक व भावनात्मक प्रतिभा की जागृति के लिए और तीसरा मंत्र जीवन से क्लेश व दु:ख की निवृत्ति एवं संयम व समरसता की प्राप्ति के लिए है। दैनिक चर्या के बाद पांच आसनों यथा तड़ासन, तिर्यक तड़ासन, कटि चक्रासन, सूर्य नमस्कार और सर्वांगासन का अभ्यास। इसके बाद नाड़ी शोधन और भ्रामरी प्राणायामों का अभ्यास। शाम को काम-काज से निवृत्त होने के बाद योगनिद्रा और रात को सोने से पहले दस मिनट मन को एकाग्र करने के लिए धारणा का अभ्यास। इसे ध्यान भी कहा जा सकता है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “स्वामी निरंजन का व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है और वह आज की पीढ़ी के अनुरूप सोच सकते हैं।” स्वामी निरंजन अपने गुरू की कसौटी पर खरे उतरे। उनका यौगिक कैप्सूल योग साधना की एक ऐसी पद्धति है, जिसे अपनाने वाले अपने जीवन में बदलाव स्पष्ट रूप से देखने लगे हैं। देश-विदेश के लाखों लोग इस पद्धति को अपना कर निरोगी जीवन जी रहे हैं। योग विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है। बाइबिल का प्रथम वाक्य है – “आरंभ में केवल शब्द था और वह शब्द ही ईश्वर था।“ भारतीय दर्शन के मुताबिक वह शब्द कुछ और नहीं, बल्कि “ॐ” था। ॐ मंत्र तीन ध्वनियों से मिलकर बना है – अ, उ और म। इनमें प्रत्येक ध्वनि के स्पंदन की आवृत्ति अलग-अलग होती है, जिससे चेतना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ॐ नमः शिवाय कई नादो का समुच्य है। गायत्र मंत्र में चौबीस ध्वनियां हैं। मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। इसकी सहायता से अपनी बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर पुन: चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है।  

अनेक लोग किसी देवी-देवता को स्मरण करके मंत्रों का जप करते हैं। पर विदेशी लोग जब इन्हीं मंत्रों के जप करते हैं तो उनके मन में तो हमारे किसी देवी-देवता का रूप नहीं होता। फिर भी वे लाभान्वित होते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि मंत्रों की साधना करते वक्त किसी भी विषय़ पर मन को एकाग्र करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। मन को खुलकर अभिव्यक्त होने देना चाहिए। मंत्र विज्ञान प्राचीन काल से विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से प्रयोग में था। इस विज्ञान की ओर अधुनिक विज्ञानियों की नजर गई है और इसका पुनरूत्थान किया जा रहा है। उन्हें पता चल गया है कि मंत्रों की शक्ति से ही प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित किया जा सकता है। आने वाले समय में मंत्रों का उपयोग एक वैज्ञानिक उपकरण के रूप में उसी तरह होगा, जिस तरह मौजूदा समय में लेजर या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का उपयोग प्रकृति के गहनतर आयामों को जानने के लिए किया जाता है।  

जहां तक योगनिद्रा की बात है तो प्रत्याहार की शक्तिशाली और मौजूदा समय में प्रचलित विधि स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देन है। उन्होंने तंत्रशास्त्र से इस विद्या को हासिल करके इतना सरल, किन्तु असरदार बनाया कि आज दुनिया भर में इसका उपयोग मानसिक बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों तक के उपचार में हो रहा है। दरअसल यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति का एक व्यवस्थित तरीका है। गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है। मन की सजगता और शिथिलीकरण के लिए यह अचूक विधि मानी जाती है।

अब योग विधियों को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और उनके नतीजों की बात। बिहार योग विद्यालय ने स्पेन के बार्सिलोना स्थित अस्पताल में शल्य चिकित्सा कराने पहुंचे तनावग्रस्त मरीजों पर मंत्र के प्रभावों पर शोध किया। ऐसे सभी मरीजों को एक कमरे में बैठाकर बार-बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करने को कहा गया था। ईईजी और अन्य चिकित्सा उपकरणों के जरिए देखा गया कि मंत्रोचारण से भय, घबराहट और चंचलता के लिए जिम्मेदार बीटा तरंगें कम होती गईं औऱ अल्फा तरंगों की वृद्धि होती गई। स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है।

अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योगनिद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योगनिद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योगनिद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रेडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोंटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी का जीनव-काल योगनिद्रा के अभ्यास से काफी बढ़ गया था।

इन दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि आधुनिक युग में योग कैप्सूल को जीवन-पद्धति में शामिल किया जाना कितना लाभप्रद है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री चाहते हैं लोग योग कैप्सूल को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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