तो इसलिए नहीं मिट पाता कर्मों का लेख

किशोर कुमार //

वेदों में ईश्वर के विषय में प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वद्रष्टा कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है, जो समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार ही न्यायपूर्वक फल प्रदान करता है। पर सवाल है कि सूक्ष्म जगत में पाप-पुण्य का लेखा-जोखा और कर्मफल कैसे तय होता होगा? इस लेख का प्रतिपाद्य विषय यही है। वैदिक शास्त्रों के इस कर्मफल-सिद्धांत से जहां चित्रगुप्त भगवान का सीधा वास्ता जुड़ा हुआ है। वहीं, वैदिक ज्योतिष में शनिदेव को भी कर्मफलदाता और न्याय प्रदाता माना गया है। इसे महज संयोग मानिए या किसी प्रकार का अंतर्संबंध कि चित्रगुप्त भगवान और रामदूत हनुमान का अवतरण दिवस एक ही दिन यानी चैत्र मास की पूर्णिमा को है।

हम सब जानते हैं कि पवनपुत्र हनुमान श्रीराम के लिए कितने प्रिय थे। पर श्रीराम के राज्याभिषेक से जुड़ी एक कथा से पता चलता है कि चित्रगुप्त भगवान श्रीराम के लिए आदरणीय थे। तभी राज्याभिषेक के लिए आयोजित समारोह में चित्रगुप्त भगवान की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उनके पास विशेष दूत भेजा गया था। हालांकि इसके पीछे भी एक लंबी कहानी है। चित्रगुप्त भगवान के अवतरण और उनके कार्य-निर्धारण से जुड़े तमाम प्रसंग “कायस्थ इनसाइक्लोपीडिया” नामक पुस्तक में विस्तार पूर्वक मिल जाते हैं, जो वैदिक साक्ष्यों पर आधारित हैं। भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी रहे उदय सहाय ने अपने दो वर्षों के गहन शोध के बाद इस पुस्तक की रचना की है।

खैर, आइए मुख्य विषय पर कि कर्म-अकर्म क्या है और श्रीमद्भगवतगीता से लेकर अनेक वैदिक ग्रंथों में क्यों कहा गया है कि कर्मों का लेख मिटता नहीं है। तर्कशील व्यक्ति तो पुनर्जन्म के सिद्धांत को ही मानने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में उन्हें कर्मफल का सिद्धांत बकवास लगना स्वाभाविक ही है। बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे — बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी वैदिक साक्ष्यों को कौन कहे, कई बार विज्ञानसम्मत बातों पर भी भरोसा करना मुश्किल होता है। ओशो रेल से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते थे — इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि आत्मा नित्य है। वह न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। इस तरह हम देखते हैं कि पुनर्जन्म की बात सनातन संस्कृति में सर्वमान्य है। तभी हमने हाल ही रामावतार की चर्चा विस्तार से की थी। सती ही अगले जन्म में पार्वती हुईं और महाभारत का प्रसंग तो हम सब जानते ही हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –  हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते। …और आधुनिक युग में पुनर्जन्म के मामलों में शांति देवी का प्रसंग तो सर्वाधिक चर्चित रहा है। तीस के दशक में दिल्ली में जन्मी एक लड़की ने नौ साल की उम्र में दावा किया कि यह उसका पुनर्जन्म है। पिछले जन्म में उसका नाम लुग्दी था और मथुरा के कपड़ा व्यापारी केदारनाथ चौबे की पत्नी थी। उसकी बातें इतनी पुख्ता थीं कि गांधी जी ने पहले तो खुद शांति से मुलाक़ात की। जांच कमेटी की रिपोर्ट से भी इस बात की सत्यता का पता चल गया था।

भारत के तमाम आध्यात्मिक संत इस बात पर एकमत रहे हैं कि कर्म का नियम हमारे जन्म, स्थिति और जीवन की परिस्थितियों को निश्चित करता है। पंचध्यायी में एक श्लोक है – नयन्ति नरकं नूनं मात्मानो मानवान् हतः। दिवं लोकं च ते तुष्टा इत्यूचुर्मन्त्र वेदिनः।। सार यह कि हनन की हुई आत्मा नरक को ले जाती है और संतुष्ट की हुई आत्मा दिव्य लोक प्रदान करती है। गरूड़ पुराण का अध्ययन करें तो पंचध्यायी का यह मंत्र ज्यादा ही स्पष्ट हो जाएगा। उसमें कहा गया है कि यमलोक में ‘चित्रगुप्त’ नामक देवता हर एक जीव के भले-बुरे कर्मों का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं। जब प्राणी मर कर यमलोक में जाता है, तो वह लेखा पेश किया जाता है और उसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक प्रदान किया जाता है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अर्वाचीन वैज्ञानिक भाषा में संस्कार का तात्पर्य अनुभव अथवा प्रभाव होता है। जिस प्रकार एक बीज में महान् वृक्ष बनने और फल देने की नियति छुपी होती है, उसी प्रकार आत्मा के भीतर ये संस्कार छुपे रहते हैं। हर छोटा-बड़ा अनुभव अपने पीछे एक संस्कार छोड़ जाता है। फिर ये संस्कार ही जीवन-चरित्र और व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं। विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित कर चुका है कि मानव मस्तिष्क में भी कभी न रुकने वाला चेतना का कैमरा गतिशील रहता है, जो स्वाद, स्पर्श, ध्वनि, रूप, लक्ष्य, घ्राण सम्बन्धी प्रत्येक अनुभव को नोट करता है। मनुष्य जब मरता है तथा उसका सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है, तभी चेतना के कार्यकलापों पर विराम लगता है। चेतना द्वारा जो भी अनुभव ग्रहण किए जाते हैं वे रूपान्तरित होकर अन्य शरीर में संचित होते हैं। प्रथम तो वे स्थूल मन में रहते हैं और यदि आप उनका दोबारा उपयोग न करें, तो वे वहाँ से अवचेतन शरीर में स्थानान्तरित हो जाते हैं। यदि वहाँ भी उनका उपयोग न हो तो वे कारण शरीर में पहुँच जाते हैं। हमारा प्रत्येक अनुभव अमिट होता है। छोटे से छोटा अनुभव जिस पर हम ध्यान नहीं देते, वह भी चेतना में संचित हो जाता है।

तंत्र विद्या के लिहाज से स्वाधिष्ठान चक्र ही वह हार्डडिस्क है, जो व्यक्ति के अस्तित्व का आधार माना गया है। मस्तिष्क में इसका प्रतिरूप अचेतन मन है, जो संस्कारों का भंडारगृह है। ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक कर्म, पिछला जीवन, पिछले अनुभव, मानव व्यक्तित्व का सबसे बड़ा पक्ष अचेतन सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र को माना जा सकता है। अचेतन मन संस्कारों के जमा होने का केन्द्र है तथा यही इस चक्र के स्तर पर अनुभव की जाने वाली अनेक नैसर्गिक अनुभूतियों का उद्गम भी है। यही चक्र हिरण्यगर्भ, ब्रह्माण्डीय गर्भाशय है, जहाँ सब कुछ सुप्तावस्था में वर्तमान है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘सृष्टि के प्रारम्भ में केवल हिरण्यगर्भ था उसके बाद सभी वर्तमान चेतन जगत् का प्रादुर्भाव हुआ’ और वही (हिरण्यगर्भ) उन सबका रक्षक था ।

इन बातों को वैज्ञानिक दृष्टि से भी समझिए। आस्ट्रिया के तंत्रिकाविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड मनुष्य की मानसिक संरचना का अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान् प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतःचेतना में होता रहता है। अमेरिकी तंत्रिकाविज्ञानी डॉ वीबेंस और उनके बाद के वैज्ञानिकों ने माइक्रोस्कोप की सहायता से मस्तिष्क के ग्रे मैटर का परीक्षण करने के बाद वैज्ञानिक ने जो निष्कर्ष निकाला, वह चित्रगुप्त भगवान के अवतरण और उनके कार्य संबंधी आख्यान से मेल खाते हुए हैं। पौराणिक आख्यान है कि चित्रगुप्त भगवान हर प्राणी के हर एक कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखते रहते हैं।

डॉ वीबेंस के मुताबिक, सभी प्राणियों के मस्तिष्क की परमाणुओं पर सूक्ष्म रेखाएं बनती चली जाती है और ये रेखाएं हमारे शारीरिक – मानसिक कार्यों को लिपिबद्ध किए जाने के कारण बनती हैं। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारियां सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहती हैं। वेद-ज्ञान से पता चलता है कि एक ही आत्मा हम सबमें अलग-अलग भासित होती है। उसी तरह ब्रह्मा की शक्ति से संचालित चित्रगुप्त भी अलग-अलग प्राणियों में अलग-अलग भासित होते हैं। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है। बगीचे की वायु और गंदे नाले की वायु में गंध भेद होने के बावजूद वायु तत्व मूलतः एक ही है। वैसे ही अलग-अलग प्राणियों में उनके पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व हैं।

श्रीराम शर्मा आचार्य ने तो खुद भी इस विषय पर काफी अध्ययन किया था। उनका मत है कि मस्तिष्क में उपस्थित ग्रे मैटर के परमाणुओं में मिला रेखांकन ही अंतःचेतना का संस्कार है। यही है चित्रगुप्त की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। यथा, गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन आदि। इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। संभव है कि चित्त का अपभ्रंश चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्त को चित्र कहा जाता रहा हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए ग्रे मैटर के परमाणुओं में  गुप्त रूप से और सूक्ष्म रूप से  बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे हुए होते हैं। मस्तिष्क की इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त का विधान मान लेने से प्राचीन आख्यान की पुष्टि हो जाती है।

वेद-भाष्य के रचयिता सायण के भाई और भगवान शंकाराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीमठ के आचार्य रहे विद्यारण्य स्वामी कृत श्रीपंचदशी में मंत्र है – नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। यानी कर्म फल भोगे बिना करोड़ो कल्प में भी कर्म क्षीण नहीं होगा। यदि इस जन्म में कर्मों का फल न मिला तो अगले किसी जन्म में अवश्य मिलेगा। चाहे वह शुभ हो या अशुभ। इस प्रमाण से भी स्पष्ट है कि शरीर आत्मा से पृथक है और शरीर नष्ट होने के बाद चेतना की रिकार्डिंग नष्ट नहीं होती।

वैदिक प्रमाणों से लेकर ऋषियों के अनुभवों तक से निष्कर्ष निकलता है कि कर्मों के ये लेख जब प्रारब्ध में तब्दील होता हैं तो हमें उस प्रारब्ध का भोग भोगना ही होता हैं। इसलिए योगी विद्या-अविद्या की व्याख्या करते हुए कर्मयोग की अनिवार्यता पर बल देते हैं। साधना के तीन सनातन मार्ग हैं – कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। कर्मयोग से चित्त शुद्ध होता है। भक्तियोग से एकाग्रता मिलती है और ज्ञानयोग से आवरण का नाश होता है, जो सत्यान्वेषण के लिए जरूरी है। त्याग सहित कर्म ही कल्याणकारी है और उसे ही कर्मयोग कहा गया है। नि:स्वार्थपूर्ण कर्म से यदि संस्कार बना भी तो चित्रगुप्त भगवान अपनी कृपा ही बरसाएंगे। जन्म-मरण का चक्र जारी रहने के बावजूद भौतिक जगत के लिहाज से जीवन में मंगल ही मंगल रहेगा।   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीराम का अवतरणअंत:करण में भी हो

किशोर कुमार//

स्वामी सत्यानंदजी महाराज देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1925 में उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। इसके बाद “राम शरणम्” नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था। संत तुलसीदास भी कह गए हैं – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि दो दिनों बाद ही है। श्रीराम का जन्मोत्सव श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाएगा। वैसे, नवरात्रि शुरू होते ही नवदुर्गा की आराधना के साथ ही राम कथाओं का सिलसिला भी जारी है। हमने देखा था कि अयोध्या में बाल राम की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर देश भर में राम-भक्ति का ज्वार किस स्तर पर था। राम कथाओं के आयोजनों में भी वैसी ही राम-भक्ति की झलक मिलती है। इसलिए कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम हमारे लिए वरेण्य हैं। उनके आदर्शों से ही हमारी संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हुई है। वह संस्कृति आज भी हम सब में बीज रूप में मौजूद है। यह बात दीगर है कि नाना प्रकार के आघातों के कारण उस बीज का पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया। पर अब समय आ गया है कि हमें दशरथ नंदन राम की कथाओं से आगे बढ़कर जगत पसारा राम के गुणों को आत्मसात कर खुद को रूपांतरित करना चाहिए। परब्रह्म राम से आशीष लेने का यही एकमात्र उपाय है।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं और अजब-गजब कारनामे करवा देती हैं।  

संत कबीर दास की वाणी है, एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ! एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा। सामान्य बुद्धि से देखें तो यहां चार राम की बात हो गई। इसलिए कि दशरथनंदन राम के जन्म से पहले भी भी राम नाम का अस्तित्व तो था ही न और ऐसा भी नहीं है कि कबीर साहेब से पहले राम के विविध रूपों को लेकर चर्चा न हुई थी। याज्ञवल्यक-भारद्वाज संवाद में प्रसंग आता है। ऋषि भारद्वाज याज्ञवल्यक से पूछ लेते हैं कि दशरथनंदन राम और घट-घट में बैठे राम क्या एक ही हैं? याज्ञवल्यक मुस्कुराते हुए कहते हैं, श्री राम भाव की दृष्टि से दशरथ नंदन हैं और ज्ञान की दृष्टि से घट-घट में समाए हुए हैं। दोनों राम हैं एक ही……पर मैं जानता हूं कि तुम्हें इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है। संशय तो सामान्य बुद्धि वालों को होगा और तुम उनकी तरफ से यह सवाल पूछ रहे हो। ताकि इसी बहाने फिर राम जी के गुणों का रसपान भी हो जाए।

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है। ।

संत कबीर हों या रहीम, वैदिककालीन ऋषि हों या आधुनिक युग के आत्मज्ञानी संत, किसी ने अलग-अलग राम की बात नहीं की, बल्कि एक ही राम के अलग-अलग गुण-धर्मों का बखान किया। ताकि मानव जीवन धन्य हो सके। तभी कबीर ने सामान्य जनों को संबोधित करते हुए कहा, कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे वन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहि।।….तो दूसरी तरफ रहीम ने कहा, राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि। यानी जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किए, उनका जन्म व्यर्थ है। वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।

सबका सार एक ही है कि केवल कथा के राम में उलझे रहने का कोई सार नहीं है। हमें समझना होगा कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? वे असुरों का संहार करके शांति और सद्भाव के लिए ही तो अवतार लेते हैं। फिर, सोचने वाली बात है कि रामायण या रामचरितमानस में जिन कथाओं का वर्णन है, वे केवल भौतिक जगत में ही घटित होते हैं? क्या हमारा जीवन अपने आप में रामायण का रंगमंच नहीं है? सच तो यह है कि हमारे जीवन में रोज-रोज राम-रावण युद्ध चलते रहता है। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि योगबल से ही अपने अंतर्मन में चल रहे युद्ध को जीता जा सकता है। लोभ,मोह, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों वाले रावण रूपी इंद्रियों का शमन का कोई दूसरा उपाय नहीं। दुर्गुणों के शमन से ही सीता रूपी शांत बुद्धि मुक्त होकर अयोध्या रूपी आत्म-निकेतन में वापस लौट सकती है। इसलिए रामकथा को ऐतिहासिकता के दायरें में ही देखना, हीरा छोड़कर कंकड़ चुन लेने के समान है।

रामचरितमानस की कथा है कि सती जी को श्रीराम के परब्रह्म परमात्मा होने पर संशय हो गया था। क्यों? इसलिए कि शिवजी जिस श्रीराम की आराधना करते हैं, उसका गुण-धर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि वह पत्नी के लिए जंगलों में भटके और विलाप करता रहे। सो, सती जी ने सीता समान बनकर श्रीराम के समक्ष प्रस्तुत हो गईं। कोई तर्कशील प्राणी कह सकता है कि सती का सीता रूप धारण कर लेना कवि की कल्पना मात्र हो सकता है। पर हमारे जैसे लोग योगविद्या की शक्ति की गहराइयों का अंदाज भी नहीं लगा सकतें। योगशास्त्र में परकाया प्रवेश विद्या का उल्लेख है। आदिगुरू शंकराचार्य ने कामशास्त्र के ज्ञान के लिए मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया था। नजीजतन, राजा जीवित हो गया था और अपनी पत्नी के साथ रहने लगा था, जबकि उसमें राजा अमरूक की नहीं, बल्कि शंकराचार्य की आत्मा थी। 

खैर, श्रीराम तो परब्रह्म हैं। उनसे क्या छिपा रह सकता है। उन्होंने न केवल सती जी को पहचान कर प्रणाम किया, बल्कि शंकरजी के बारे में भी पूछा। सती जी लज्जित हो गईं। माफी मांगकर वापस लौटने लगीं। पर थोड़ी ही दूर जाकर पीछे मुड़ती हैं तो देखती हैं कि श्रीराम सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ खड़े हैं। तब उनका बचा-खुचा संशय भी जाता रहा। भगवान की माया और योगमाया समझ में आ जाती है। सच है कि माया और योगमाया दोनों ही भगवान की शक्तियां हैं। संतजन कहते हैं कि जब हम अपनी वृत्तियों को अंदर से बाहर की ओर ले जाते हैं तो माया या भोग कहलाता है। दूसरी तरफ जब हमारी अंतर्यात्रा होती है तो वह योग होता है। इस प्रसंग से भी प्रेरणा मिलती है कि हम श्रीराम को केवल दशरथनंदन राम ही समझने की भूल न कर दें। उनकी लीलाओं के संदेश मानव जीवन को धन्य कर देने वाले हैं। पर हमारे जीवन में इन संदेशों का प्रस्फुटन योगबल से ही संभव है। स्वयं भगवान श्रीराम ने भी मानव शरीर धारण किया तो अपना मूल स्वरूप जानने के लिए गुरू वशिष्ठ से योगविद्या ग्रहण करनी पड़ी थी।

रामनवमी के मौके पर प्रभु श्रीराम के अवतरण का जश्न मनाइए। पर ध्यान रखिए कि हमारे भीतर भी श्रीराम की शक्ति का उदय होना चाहिए। परंपरा के दुर्भाग्य पर रोने का वक्त गया। हमारी संस्कृति का सौभाग्य है कि हमारे पास शक्तिशाली योगबल है, जिसका सिंचन करके फिर रामराज्य की स्थापना संभव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योगविज्ञान विश्लेषक हैं।)

गायत्री परिवार का अश्वमेघ यज्ञ

किशोर कुमार

दुनिया के झंझटों से परेशान होकर कुछ व्यक्ति एक वटवृक्ष के नीचे बैठे वार्तालाप कर रहे थे। सभी विमर्श कर रहे थे कि तपस्या से प्रभावित होकर भगवान ने दर्शन दे दिए और वर मांगने को कहा तो क्या मांगेंगे? किसी ने अन्न मांगने का सुझाव दिया तो किसी ने बल मांगने की इच्छा जताई। विशाल वटवृक्ष उनकी बातों पर ठहाका लगाता हुआ बोला- मेरी बात मानो, तुम लोगों से न तपस्या होगी, न उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी, क्योंकि यदि इतना मनोबल होता तो संसार से घबराकर न भागते। मैं बिना मांगे ही एक वरदान देता हूँ, उसका नाम है प्रेम। प्रेम की भावना विकसित करो, फिर देखो जो वस्तु चाहोगे, वहीं प्राप्त करने की क्षमता तुम्हारे अन्दर आ जाएगी। मुंबई में पांच दिनों तक चला गायत्री परिवार का विशाल अश्वमेघ महायज्ञ भी मुख्यत: प्रेम यानी प्राणि मात्र से प्रेम, राष्ट्र से प्रेम के संदेश के साथ संपन्न हो गया। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी कहना होगा कि यह महायज्ञ समयानुकूल था और तन-मन को स्वस्थ आधार देकर वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को विकासित करने के लिहाज से मील का पत्थर साबित होगा। 

भारतीय परंपरा में अश्वमेध यज्ञ का विशेष महत्व है। अश्वमेध यज्ञों के महत्व के वर्णन से वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। प्राचीन काल में, इन्हें पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करने, ईश्वर की कृपा प्राप्त करने और राष्ट्र को एकजुट करने के लिए किया जाता था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ और उस दौरान लव-कुश के युद्ध की कहानी कौन नहीं जानता। श्री राम धर्म के प्रति समर्पित थे और उन्होंने अपने राज्य के कल्याण और सुरक्षा के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यह उनका धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक था और उनके शासनकाल में धार्मिक न्याय का पालन करने का संकल्प प्रकट करता था। महाभारत का महायुद्ध समाप्त होने के बाद देश में शांति और सद्भाव का साम्राज्य स्थापित करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था।

आधुनिक युग की समस्याएँ अलग हैं तो इस यज्ञ का स्वारूप भी बदला हुआ है। कलियुग धर्माचार्यों की चिंता इस बात को लेकर होती है कि किसी विधि मानव में देवत्व का उदय होना चाहिए। ताकि आत्मवत् सर्वभूतेषु (सभी जीवित प्राणी आत्मीय हैं) और वशुधैव कुटुंबकम् (संपूर्ण पृथ्वी हमारा परिवार है) की भावना का विकास हो सके। यह तो तभी संभव होगा जब स्वस्थ शरीर, शुद्ध मन और सभ्य समाज का निर्माण होगा। गायत्री परिवार का मुंबई में 21 से 25 फरवरी तक पांच दिवसीय अश्वमेघ महायज्ञ को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विज्ञान की कसौटी पर हमें यज्ञ, हवन और मन्त्रोच्चारण के महत्व का पता चल चुका है। अश्वमेघ यज्ञ के रूप में मिनी-कुंभ में पांच दिनों के भीतर 2.4 करोड़ मंत्र-युक्त यज्ञ आहुतियों से अभूतपूर्व सकारात्मकता उत्पन्न हुई, जो आने वाले समय में देश और विशेष रूप से मुंबई शहर के लिए शांति और समृद्धि में परिलक्षित होगी।

अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा संचालित 47वां अश्वमेध महायज्ञ इस मायने में अनूठा था कि यह प्रतिभाओं के परिष्कार तथा नियोजन के साथ नशा मुक्ति को भी समर्पित था। ताकि राष्ट्र को वह ऊर्जा प्रदान हो जिससे राम राज्य की स्थापना हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि गायत्री परिवार का अश्वमेध यज्ञ, सामाजिक संकल्प का एक महा-अभियान बन चुका है। इस अभियान से जो लाखों युवा नशे और व्यसन की कैद से बचेंगे, उनकी वो असीम ऊर्जा राष्ट्र निर्माण के काम में आएगी।

इस यज्ञ की खास बात यह रही कि गायत्री परिवार ने इसे प्रचलित अनुष्ठान से अलग इसकी वैज्ञानिकता बतलाते हुए हर कार्य संपन्न कराया। नतीजा हुआ कि यज्ञ में भाग लोगों के मन में यज्ञ के परिणामों को लेकर स्पष्टता बनी रही। इससे यज्ञ ज्यादा ही प्रभावशाली बन पड़ा। जैसे, लोगों को पता था कि महायज्ञ में गायत्री मंत्रोचार के परिणाम क्या होने हैं। इसके लिए उनके समक्ष पूर्व में किए गए शोधों के नतीजे थे, जिनमें बताया गया है कि ध्वनि कंपन की शक्ति को विज्ञान के क्षेत्र में क्यों स्वीकार किया गया है और ये कंपन सूक्ष्म और ब्रह्मांडीय स्तर पर ऊर्जा क्षेत्रों में प्रवेश करके क्या परिणाम देते हैं। इसके लिए गायत्री परिवार की ओर से एक अमेरिकी वैज्ञानिक के शोध नतीजों का हवाला दिया गया। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगुल ने स्थापित किया था कि गायत्री मंत्र के पाठ से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं।

इसी तरह और भी शोध नतीजे लोगों के संज्ञान में लाए गए थे। जैसे, गायत्री परिवार के हरिद्वार स्थित ब्रह्मवर्चस अनुसंधान संस्थान में स्थापित यज्ञोपैथी प्रयोगशाला में एक यज्ञ के अनुष्ठान के दौरान मंत्रोच्चार के साथ जड़ी-बूटियों के उर्ध्वपातन के प्रभाव का अध्ययन से पता चला था कि यह पल्मोनरी टीबी से छुटकारा दिलाने के लिए बड़े महत्व का है। पल्मोनरी ट्यूबरकुलोसिस दुनिया भर में एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। अकेले भारत में हर साल लगभग अस्सी हजार नए मामले सामने आते हैं। मंत्र के बार-बार लयबद्ध जप और गहरी सांस लेने के कारण, यज्ञ के दौरान उत्पन्न औषधीय वाष्प चमत्कारिक परिणाण देता है।

लोगों ने जाना कि यज्ञ मिर्गी के मरीजों के लिए कितना फलदायी है। भारत में, लगभग 10 मिलियन लोग मिर्गी से पीड़ित हैं। चिंताजनक बात यह है कि ज्यादातर मिर्गी पीड़ितों का कभी इलाज नहीं किया जाता है। दक्षिण अफ़्रीका में पारंपरिक चिकित्सकों ने मिर्गी के मरीजों पर यज्ञों के प्रभावों का अध्ययन किया तो पाया कि यज्ञ की प्रक्रिया वांछनीय औषधीय फाइटोकेमिकल्स और अन्य स्वस्थ पोषक तत्वों के लाभों को बढ़ाती है। इससे मरीजों की रिकवरी आसान होती है।

रूस के यहूदी जीवाणु वैज्ञानिक व्लादीमीर हाफ्किन ने हैजा-रोधी टीका विकसित करके भारत में सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। गायत्री परिवार ने उनके एक शोध परिणाम के हवाला से भी यज्ञ के चिकित्सकीय प्रभावों से लोगों को अवगत कराता रहा है। डॉ. हाफकिन के मुताबिक, “घी और चीनी को मिलाकर जलाने से धुआं निकलता है जो कुछ रोगों के कीटाणुओं को मारता है और श्वास नली से संबंधित कुछ ग्रंथियों से स्राव होता है, जो हमारे दिल और दिमाग को आनंद से भर देता है।”

यज्ञ की वैज्ञानिकता ने युवावर्ग पर व्यापक प्रभाव डाला। खास बात यह रही कि महायज्ञ से आध्यात्मिक लाभ लेने वालों की संख्या ज्यादा थी। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में महायज्ञ के सकारात्मक परिणाम दिखेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

नववर्ष : नई आशाओं और नए संकल्पों का दिवस

किशोर कुमार      

हम अपनी मान्यताओं के आधार पर किसी भी दिवस को नववर्ष के रूप में मना लें, पर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से खुद में बदलाहट का संकल्प लेकर तदनुरूप दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास नहीं कर पाएं तो समझिए कि यह दिवस व्यर्थ गया। हम इंद्रियों का दास बने रहकर भौतिक सुखों यथा मदिरा-मांस व नाना प्रकार की अपसंस्कृतियों के पीछे ही भागते रह गए तो इस दिवस को वर्ष के बाकी दिवसों से भी बदत्तर समझिए। नववर्ष की सार्थकता तब है, जब हम शराब के साथ नहीं, बल्कि परमात्मा की उपस्थिति महसूस करते हुए जश्न मनाएंगे। सिर्फ वाईफाई से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद से पूछकर जश्न मनाएंगे कि मैं कौन हूं?  मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? तब जीवन रूपांतरित होगा और नववर्ष सार्थक हो जाएगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे महान संत के गुरू और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक  स्वामी शिवनांद सरस्वती नववर्ष पर अपने शिष्यों से कहते थे – नववर्ष में एक नवीन जीवन प्रारम्भ कीजिए। अपने दोषों-दुर्बलताओं पर धैर्यपूर्वक विजय प्राप्त करिए। एक सच्चे साधक और योगी बनने का दृढ संकल्प करिए। नववर्ष आपके सामने एक नवीन पुस्तिका की भाँति होना चाहिए। इस पुस्तिका के एक नूतन पृष्ठ पर प्रेम एवं एकत्व के सन्देश को अंकित कीजिए। इस पृष्ठ पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखिए – केवल प्रेम द्वारा ही घृणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा मानव की सेवा ईश्वर की आराधना है। अपने समक्ष उच्च प्रेम, भ्रातृत्व, करुणा एवं क्षमा के आदर्श को सदैव रखिए। अपने प्रत्येक शब्द एवं कर्म में इन आदर्शों को अभिव्यक्त करिए तथा इस नववर्ष को एक दिव्य नवीन युग के अवतरण का माध्यम बनाइए।

पर ये उपलब्धियां कैसे हासिल होंगी? महान योगियों और महापुरूषों के जीवन का संदेश है कि धैर्य रखिए और सद्गुणों के विकास के लिए इच्छा-शक्ति को प्रबल कीजिए। फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों करने का प्रयास कीजिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि तन जितना घूमता रहे उतना ही स्वस्थ रहता है और मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ रहता है। पर हमारा जीवन प्राय: इसके उलट होता है। ऐसे में सद्गुणों के विकास के लिए एकाग्रता और इच्छा-शक्ति प्रबल करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जब मन एकाग्र नहीं होता है तो हम अधीर बने रहते हैं। यहां तक की प्रभु की कृपा के लिए भी शॉर्टकट खोजते रहते हैं। फिर तो प्रेम, सेवा, करूणा आदि की बातें भी बेमानी हो जाती हैं। नतीजतन, हमारे जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों की प्रबलता बनी रह जाती है।

नए वर्ष में जीवन कहां से शुरू करें कि सद्गुणों का विकास हो सके? स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शिक्षा है कि बात यम-नियम से शुरू हो तो सबसे अच्छा। वरना, प्रारंभ शंखप्रक्षालन से कीजिए।  हठयोग में यह अतिश्रेष्ठ क्रिया है। इसके द्वारा शरीर के भीतर की अशुद्धियाँ, पुराने मल का संचय बहिष्कृत किया जाता है। उसी तरह मन को निर्मल करने हेतु मन का शंखप्रक्षालन आवश्यक है। शारीरिक शंखप्रक्षालन में पहले कष्ट होता है, उन कष्टों से विजय प्राप्त करके ही स्वस्थ, रोगरहित, हल्के शरीर की प्राप्ति होती है। इसी तरह मन में वासनाओं की गन्दगी भरी पड़ी है। कुसंस्कारों, दुर्विचारों एवं वासनाओं का पुंज ही तो है यह मन। यह गन्दगी न्यूनाधिक रूप में सबके भीतर विद्यमान है। आप इसे जान भी कैसे सकेंगे? इस हेतु योगशास्व में एक उत्तम क्रिया है, जिसे अनार्मौन कहा जाता है। शंखप्रक्षालन में नमक और पानी का जो कार्य है, वही कार्य अन्तमौन में मंत्र-जप का है। मंत्र-जप के साथ जीवन की गहराई से विचार उठते हैं। भले-बुरे, जैसे भी हों, अच्छे के लिए होते हैं। इन्हें भीतरी सफाई का लक्षण मानिए। मंत्रों की बड़ी महिमा है। मंत्रों की परिभाषा में कहा गया है कि मंत्र वह शक्ति है, जो मन के उसके बंधनों से स्वतंत्र कर देती है।

इन यौगिक क्रियाओं से इच्छा-शक्ति प्रबल बनाने और आध्यात्मिक उन्नति की जमीन तैयार हो जाती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद ने सन् 1944 में नववर्ष के लिए दिए गए अपने संदेश में कहा था कि उनकी सफलता का रहस्य इच्छा-शक्ति ही थी। वे इसी इच्छा-शक्ति की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि भाग्य वैसा है, जैसा आप इसे बनाते हैं। पर यदि हमारी इच्छा अनुचित है या प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है तो बात कैसे बनेगी। ध्यान रहे कि जीवन में ईश्वर का सच्चा पुत्र बनने की अपेक्षा एक करोड़पति बनने का प्रयास करना वास्तव में बहुत अधिक कठिन है। ईश्वर ने करोड़पति नहीं, बल्कि अपने जैसा बनने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दे रखी है। और जब आप देवत्व पर अधिकार करते हैं तो प्रत्येक वस्तु आपकी हो जाती है।

इसलिए शंखप्रक्षालन और अंतर्मौन से योगमय जीवन की जमीन तैयार हो जाए तो निष्काम कर्मयोग का साधक बनाना जीवन को रूपांतरित करने के लिए श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, योग में स्थित रहकर, सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहते हुए फलों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्म करते रहो। यह मानसिक समता ही योग कहलाता है। योगी कहते हैं कि यह अवस्था ध्यान की अवस्था या उससे भी बढ़कर है। श्रीकृष्ण द्वितीय अध्याय के इस सूत्र की महत्ता बारहवें अध्याय में बतलाते हैं। वे कहते है कि अभ्यास योग से ज्ञान योग उत्तम है। ज्ञान योग से ध्यान योग उत्तम है और ध्यान योग से कर्मफल का त्याग उत्तम है। क्यों? इसलिए कि कर्मफल के त्याग से तत्क्षण शांति उपलब्ध हो जाती है। जीवन रूपातंरित हो जाता है।   

नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए हमें शांति से बैठकर आत-निरीक्षण करने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन को रूपातंरित करने वाले नए संकल्प लेनी चाहिए। हमारे गुरूजी कहते थे कि यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। कुछ नहीं हूं का भाव है अहंकार रहित होने का भाव है, जो निष्काम कर्मयोग से प्राप्त होता है। उसी की बुनियाद पर सुखद, समृद्ध और आनंदमय जीवन का महल खड़ा होता है। नववर्ष की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत मीराबाई हर युग में, हर काल में प्रासंगिक

किशोर कुमार

संत मीराबाई प्रासंगिक थीं, हैं और रहेंगी भी। अच्छा है कि उनकी 525वीं जयंती बड़े पैमाने पर मनाई जा रही है और उनकी स्मृति में डाक टिकट और सिक्के जारी किए गए हैं। वैसे भी, महान संतों की स्मृति में डाक टिकट जारी करने, सिक्के जारी करने का रिवाज पुराना है और यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। संत मीराबाई के जीवन से केवल कृष्ण-भक्ति के ही संदेश नहीं मिलते, बल्कि मीरा नाम तो बड़प्पन, ज्ञान, भारतीय संस्कृति, साहस, पवित्रता, सेवा, बलिदान और सबसे बढ़कर, समर्पण व भक्ति का एक शक्तिशाली प्रतीक है। ऐसे में आधुनिक युग के युवाओं के चरित्र-निर्माण के लिहाज से वे ज्यादा ही प्रासंगिक हैं। इसलिए उनके आदर्शों को वैज्ञानिक तरीके से और आज के संदर्भ में प्रस्तुत करना होगा।

देश ने बीते 25 नवंबर को साधु थानवरदास लीलाराम वासवानी को उनकी जयंती पर याद किया। वे एक ऐसे भारतीय शिक्षाविद् थे, जिन्होंने शिक्षा में मीरा आंदोलन का शंखनाद किया था। उन्होंने सन् 1932 में सिंध प्रांत में मीरा स्कूल की स्थापना की थी, जो एक मॉडल संस्थान था। वे चाहते थे कि वह स्कूल विश्वविद्यालय का शक्ल ले ले। पर विभाजन की ज्वाला में वह योजना जलकर भस्म हो गई थी। महाराष्ट्र में मीरा आंदोलन शून्य से शुरू करना पड़ा था। अनेक मीरा स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए। इन शिक्षण संस्थानों का असल मकसद औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था। समय के साथ ही परिस्थितियां बदली हैं। आज आलम यह है कि मीरा के पद की बात हो तो कई छात्रों को फिल्मी गाने की याद आती है – के पग घुँघरू बाँध, मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँगरू के…। यह बेहद चिंताजनक है। इसलिए मौजूदा समय में इस आंदोलन को आगे बढ़ाना ही साधु वासवानी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। केवल “नो नानवेज डे”, जैसा कि 25 नवंबर को उत्तर प्रदेश में मनाया गया, पर्याप्त नहीं है।  

संत मीराबाई भक्तिकाल की दैवीय शक्ति से परिपूर्ण विलक्षण योगिनी थीं। पर उनकी जीवनी आधुनिक युग के लिए भी प्रेरणा का प्रकाश-पुंज है। जरा सोचिए, आदियोगी शिव की तरह हलक में जहर उतार ले और बाल बांका भी न हो, यह कोई साधारण बात है। ससुराल वालों ने इसके पहले भी कम प्रताड़ित न किया था। उन्हें लगभग वैसी ही यातनाएं दी गईं जितनी प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु दिया करते थे। श्रीकृष्ण ने जैसे प्रह्लाद की रक्षा की वैसे ही मीरा के पक्ष में भी सदैव खड़े रहे। तभी संत मीराबाई के जीवन की कई घटनाएं आम समझ से चमत्कार से कम नहीं जान पड़ती हैं। एक बार राणा ने मीरा के पास टोकरी में एक नाग भेजा और संदेश दिया कि इसमें फूलों की माला है। मीरा स्नान करके पूजा करने बैठ गईं। अपना ध्यान समाप्त करने के बाद, टोकरी खोला तो अंदर श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और फूलों की एक माला थी। राणा ने मीरा को सोने के लिए कीलों का एक बिस्तर भेजा। मीरा ने अपनी पूजा समाप्त की और कीलों के बिस्तर पर सो गईं। लो! कीलों का बिस्तर गुलाब के फूलों के बिस्तर में तब्दील हो गया था।

इस वैज्ञानिक युग में ये शास्त्रसम्मत कथाएं हमें काल्पनिक लग सकती हैं। पर आधुनिक युग में भी कई ऐसे संत हुए, जिनके कारनामें विज्ञान के लिए चुनौती बनी रह गई हैं। बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। तब बच्चे बड़ों से पूछेंगे कि मीराबाई जहर पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं? यह सुखद है कि भक्ति विज्ञान और मीराबाई की आध्यात्मिक शक्ति के रहस्यों पर देश-दुनिया में लगातार शोध किए जा रहे हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पांच दशक पहले जो बातें कही थीं, उसकी झलक अब हम सबको भी मिलती दिख रही है। देश-दुनिया में मीराबाई और उनकी भक्ति की शक्ति की प्रबलता व उसके रहस्य को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन किए जा रहे हैं। सच तो यह है कि संपूर्ण भक्ति विज्ञान पर वैज्ञानिक शोधों की दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है। संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। दूसरी तरफ मीराबाई का जीवन से प्रेरणा लेते हुए मौजूदा शिक्षा प्रणाली को समृद्ध बनाने के लिए सुगबुगाहट शुरू है।

इसमें दो मत नहीं कि मीराबाई हमारे देश के सितारों से भरे आध्यात्मिक आकाश में सबसे चमकीले सितारों में से एक हैं। वह ज्ञानी हैं, दार्शनिक हैं औऱ रहस्यवादिनी हैं। उनके पदों में वैसा ज्ञान, दर्शन और रहस्यों का प्रस्फुटन हुआ है, वैसा संत कबीर की रचनाओं को छोड़कर शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। मीराबाई के पूर्व जन्म का संस्कार ही था कि वे बाल्यावस्था से गिरिधर गोपल की भक्त बन गई थीं। और संचित कर्मों के बिना पर उनकी भक्ति की शक्ति थी कि तमाम झंझावातों से निकलकर अमर हो गईं।

उनके पूर्व जन्म की बात कुछ लोगों को कपोल कल्पना लग सकती है। वैसे भारतीय वांग्यमय में पुनर्जन्म के हजारों उदाहरण मिलते हैं। जैसे, शिव-पार्वती व विष्णु अवतारों के साथ ही काक भुशुण्डी जी की कहानी सर्वाधिक प्रचलित है। मीराबाई को भी श्रीकृष्ण की गोपियों में एक और श्रीराधा की सहेली बतलाया गया है। इसे सच न मानने का कोई आधार नहीं है। पर इन विवादों में न भी पड़ा जाए तो उनके जीवन मिलने वाले संदेश मूल्यवान हैं। उनकी 525वीं जयंती पर आयोजित भव्य कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है, जब संत मीराबाई की शिक्षाएं आंदोलन का स्वरूप ले ले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

विजयादशमी का यौगिक संदेश – नियति को बदला जा सकता है

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती

आज विजयदशमी का दिन है और यह दो सम्प्रदायों का पवित्र उत्सव है। एक वैष्णव सम्प्रदाय का और दूसरा शाक्त सम्प्रदाय का। नौ दिन तक वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय वाले इस पर्व को मनाते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय वाले राम और रावण को सामने रखकर इस पर्व को मनाते हैं और शाक्त सम्प्रदाय वाले देवी जी और महिषासुर को सामने रख कर। राम और रावण एक इतिहास है, जो बीत चुका है। परन्तु इतिहास सदा इतिहास नहीं रहता, वह एक अन्दर पौराणिक दन्तकथा बनता है, और वही पुराण मनुष्य के वर्तमान में एक सत्य बनता है, एक यथार्थ बनता है। दन्तकथाओं ने राम और रावण को सत्य और असत्य का, देवी और आसुरी शक्ति का प्रतीक माना है। अपने अंदर जो अज्ञान है, अपने चारों तरफ जो अविद्या फैली है, अपने समाज में जो भ्रष्टाचार फैला है, सारी दुनिया में जो आंतंक फैला है, वह आज का असुर है, रावण है। आज रावण का वध प्रतीक के रूप में नहीं, पौराणिक कथा के असुर एक पात्र के रूप में नहीं, इतिहास की एक हस्ती के रूप में नहीं, बल्कि यथार्थ रूप में करना है, यही इस पर्व का मतलब होता है। अर्थात् मैं अपने मन से अविद्या और अज्ञान निकालूँगा, तब मैं कह सकूँगा कि रावण म महिषासुर मर गया।

ईश्वर को हम राम रूप में भी देखते हैं और देवीजी के रूप में भी। देवीजी का रूप अत्यन्त प्राचीन है। मनुष्य ने आज से लाखों साल पहले, अपने जीवन के आदिकाल में, जब उसने देखना-सोचना शुरू ही किया था, सबसे पहले ईश्वर को माँ के रूप में देखा। उसे स्त्री रूप में देखा, पुरुष रूप में नहीं। संसार को बनाने वाला जो भी हो, उसकी सबसे पहले जो पूजा चली, वह स्त्री के रूप में चली। नारी पूजा, स्त्री पूजा और देवी पूजा, यहीं से पूजा की शुरुआत होती है, क्योंकि आदिकाल में हमारा समाज मातृ-प्रधान समाज था। आज हमारा समाज मातृ-प्रधान नहीं, पितृ-प्रधान है। इसलिए हमने ईश्वर को भी पुरुष के रूप में कल्पित किया है, श्रीराम, शिवजी या गणेशजी के रूप में। अब भगवान चाहे स्त्री हो या पुरुष, उससे अपने को अभी कोई मतलब नहीं है। मतलब केवल इतना है कि वह परमात्मा की शक्ति आज के दिन हम लोगों के अन्दर ज्ञान, प्रकाश, विद्या, शक्ति, सम्पत्ति और मंगल के रूप में जागृत होती है।

रावण के दस सिर थे, इसीलिए हम इस पर्व को दशहरा भी बोलते हैं। हमारे भी दस सिर हैं, पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हम संसार के सब भोगों को ग्रहण करते हैं। ये दस इन्द्रियाँ रावण का स्वरूप हैं, प्रतीक हैं और इस रावण के सिर काटते-काटते रामजी हार गए। विभीषण की तरफ देखने लगे कि यह सब क्या हो रहा है। बार-बार उसके सिर काटते थे, बार-बार वे वापस आ जाते थे। तब विभीषण ने कहा, ‘महाराज, जब तक अमृत का पिण्ड सूखेगा नहीं, तब तक रावण मरने वाला नहीं है। रावण के दस सिरों की तरह ये जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, इनको जीतना होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम अपनी नाक काट दो या कान काट दो या गाँधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँध लो। इन्द्रियों को रोकने से कुछ नहीं हो सकता, जब तक कि तुम अपने मन से तृष्णा को नहीं निकालते ।

तृष्णा एक प्यास है। और यह तृष्णा उम्र के साथ घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है। लोगों के बाल जितने सफेद होते जाते हैं, उनकी तृष्णा उतनी काली होती जाती है। तृष्णा कभी बुढ़िया नहीं होती, वह हमेशा जवान रहती है।

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितेनांकितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥

तुम्हारे अन्दर में वह तृष्णा नाभि में है, जिसको कहते हैं मणिपुर। तृष्णा मनुष्य के अन्दर छुपी है और जब तक वह तुम्हारे अन्दर है, तुम रावण को मार नहीं सकते, इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह तृष्णा चाहे भोग की हो, चाहे योग की, आखिर हथकड़ी तो हथकड़ी है, चाहे सोने की पहनो या लोहे की। अब इस तृष्णा का क्या करना है। रामचन्द्रजी ने विभीषण से पूछा कि इस अमृत रूपी तृष्णा को सुखाने का क्या तरीका है। तब उन्होंने वायवास्त्र, पर्जन्यास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र या ब्रह्मास्त्र, इनमें से किसी अस्त्र का इस्तेमाल नहीं किया, केवल आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल किया। अग्नि का स्वरूप है जलाना और तृष्णा है पानी । पानी को उबालते जाओ, उबालते जाओ, उसकी भाप निकलती है और थोड़ी देर में टोपिया एकदम खाली हो जाता है। यह जो आग्नेयास्त्र है, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 6.35 ॥

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हे अर्जुन! अभ्यास और वैराग्य, ये दो तरीके हैं, जिनके द्वारा तुम इस रावण को मार सकते हो, इस अमृत-कुण्ड को सुखा सकते हो।’ यह तृष्णा जो तुम्हारे अन्दर है, पता नहीं कब से हैं। ‘जनम-जनम की तृष्णा’ कबीरदास कहते हैं। पता नहीं पूर्व जन्म में तुमने क्या सोचा था और वह पूरा नहीं हुआ। अब भारत में जितने गरीब लोग हैं, सब मोटर गाड़ी और डिश टी.वी. का सपना देख रहे हैं। अगर सपना पूरा नहीं होगा, तो अगले जनम में तृष्णा तो रहेगी ही। तृष्णा पैदा होती है अधूरी इच्छा से। और यह तृष्णा रावण की नाभि का अमृत घट है। यह सबके अन्दर है। इसलिए हम लोग राम नहीं, रावण हैं। इस तृष्णा को दूर करने के लिए कृष्ण भगवान ने दो उपाय बतलाए, अभ्यास और वैराग्य। योग सूत्रों में भी कहा गया है-

अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः ॥

वैराग्य आग्नेयास्त्र है। अब वैराग्य किसको कहते हैं? इसका बिल्कुल सरल उदाहरण है, जिन विषयों को तुमने देखा या सुना, वे बार-बार तुम्हारे मन में चक्कर लगाते हैं। दादाजी को मरे पाँच साल हो गए, लेकिन अभी भी उनकी याद आती है। बीती हुई घटनाएँ मनुष्य के वर्तमान जीवन को उद्विग्न करती हैं। वर्तमान का भूतकाल से कितना सम्बन्ध हो सकता है, यह हर एक आदमी को अपने लिए निर्धारित करना पड़ेगा। हम लोग यह निर्धारित नहीं कर पाते हैं, इसीलिए हमारा मन अशान्त रहता है

आज के युग में राम और रावण का तथा देवीजी और महिषासुर का हमारे आज के जीवन से, हमारे आज के जीवन से, हमारे चारों तरफ के समाज से और विश्व की जितनी परिस्थितियाँ हैं, उनसे सम्बन्ध होना चाहिए। इसी रूप में हमको विजयदशमी के इस पर्व को देखना है। और एक बात हमेशा याद रखनी है कि अपने घर में तुम लोगों को पूजा-पाठ निरंतर करना चाहिए। इससे तुम अपने जीवन की नियति को भी बदल सकते हो। तुम नियति के गुलाम नहीं हो, उसमें परिवर्तन किया जा सकता है।

(बीसवीं सदी के महान संत औऱ विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक)

भावातीत स्वरूप वाली महान संत आनंदमयी मां

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी की महान योगिनी श्री आनंदमयी मां विंध्याचल स्थित अपने आश्रम में थीं। मिर्जापुर के जिलाधिकारी उनके दर्शन के लिए आश्रम पहुंचे तो मां ने उन्हें आश्रम के अहाते की एक जगह दिखाते हुए कहा, इस भूमि के गर्भ में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां सदियों से गड़ी हैं। अब उनका दम घुटने लगा है। आप उस स्थल की खुदाई करवा कर उन्हें निकालने का प्रबंध कर दें। यह बात सन् 1955 की है। जिलाधिकारी नृसिंह चटर्जी ने मां के इस आग्रह को किसी दैवी आदेश की तरह लिया और हैरानी की बात यह रही कि लंबे समय तक चली खुदाई के बाद लगभग दो सौ मूर्तियां मिल गई थीं। यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी।

कोई दो दशकों तक मां की साधना का मुख्य केंद्र काशी रहा। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए जगह की तलाश की जा रही थी। पर बात बन नहीं पा रही थी। सन् 1942 में मां अपनी शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि, जिन्हें सभी दीदी थे, के साथ बनारस रेलवे स्टेशन के प्रतिक्षालय में बैठी थीं। तभी उनकी नजर बनारस के मानचित्र पर गई। वह एक स्थान पर उंगली रखकर कहा, देखो दीदी, यह रहा तुम्हारा आश्रम। वह स्थान अस्सी और भदैनी के बीच था। मां के शिष्य उस स्थल पर गए तो ऐसा लगा मानो जमीन का मालिक इंतजार में ही था कि वहां कितनी जल्दी मां का आश्रम बन जाए। 

मां एक बार कानपुर से लखनऊ कार से जा रहीं थीं। उन्नाव के पास एक गांव से गाड़ी गुजर रही थी तो मां सहसा बोल पड़ीं – “कितना सुन्दर गांव है, कितना सुन्दर पेड़ हैं।” मां की शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि ने यह सुनते ही गाड़ी रूकवा दी। फिर वहां पहुंची जहां सुंदर पेड़ थे। दरअसल, तालाब के किनारे दो छोटे-छोटे नीम व बट के पेड़ थे। मां ने गाड़ी से उतर कर पेड़ों का खूब आदर किया। बोली, “अच्छा तुम लोग इस शरीर को ले आए।” गाड़ी से फलों की टोकरी व माला मंगवाई। मालाएं वृक्षों पर अपने हाथों से सजा दीं और फल बांट दिए। स्थानीय लोगों से कहा, इन वृक्षों की पूजा करना। भला होग

मां ने बचपन से लेकर समाधि तक ऐसी लीलाएं इतनी की कि उनकी गिनती ही न रह गई। वह ऐसी लीलाएं क्यों करती थीं? महान संत तो चमत्कारों के पीछे भागते ही नहीं। फिर मां आजीवन ऐसा क्यों करती रहीं? उत्तर मिलता है कि भगवान का चरित्र उजागर करने, भगवान का संदेश फैलाने का उनका यही तरीका था। आधुनिक विज्ञान नए-नए अनुसंधान करके अवचेतन मन की शक्तियों पर प्रकाश डालते रहता है। पर मां की हर लीला में मानव चेतना के विकास के लिए, मानव के कल्याण के लिए कोई न कोई संदेश होता था। वह कहती थीं कि व्यक्ति अपने गुण-कर्म के आधार पर उन शक्तियों को यथा संभव जागृत करके जीवन को धन्य बना सकता है। मां के आचरण में साधुता, प्रज्ञा में ज्ञान की चमक और भाव के स्तर पर भक्ति थी। वे बतलाती थी कि पुनर्जन्म होता है। यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है।  इसलिए जीवन में सत्व गुण की प्रधानता रहे, यह बहुत जरूरी है।

मां की शक्तियां भी उनके पूर्व जन्मों के सत्कर्मों का ही प्रतिफल था। इसलिए कि इस जन्म में तो उनके न कोई गुरू थे और न ही उन्होंने कहीं योग और अध्यात्म की शिक्षा ली थी। औपचारिक शिक्षा भी न थी। पर, बचपन से ही भक्तियोग के रस टपकने लगे थे। ढाई साल की उम्र में ननिहाल में थीं और वहां मां के साथ कीर्तन में गईं तो वहां शरीर शिथिल होकर लुढक गया था। पर किसी के लिए भी समझना मुश्किल था कि यह कीर्तन का प्रभाव है। समय बीतता गया और दैवीय शक्तियां स्फुटित होती गईं। मां को बचपन से नाम संकीर्तन खूब भाता था। आध्यात्मिक अनुभवों से इसकी वैज्ञानिकता भी समझ में आ गई। लिहाजा चैतन्य महाप्रभु कि तरह उन्होंने संकीर्तन को ही भवगत् संदेश बांटने का जरिया बनाया था।

रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। वे फिर कलियुग गुण-धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं, सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से और द्वापर में पूजा करने से जो फल मिलता है, वैसा ही फल कलियुग में नाम संकीर्त्तन, जप से मिलता है। मां कहती थीं कि यदि किसी में सत्व गुण की प्रधानता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध भी सहयोग में है तो ऐसा व्यक्ति कलियुग में भी सतयुग या अन्य युगों जैसा बेहतर फल प्राप्त कर सकता है। पर आम लोगों के लिए तो “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा…।“ इसलिए कीर्तन करो, नाम के जप और कीर्तन से ही सब कुछ होता है।

मां कहतीं, ‘स्मरण रक्खो, स्मरण रक्खो, भगवान् का नाम सर्वदा स्मरण करते-करते इस संसार रूपी कारागार के दिन कट जाएंगे। स्वयं तो अच्छे होने की चेष्टा करना ही, जो जहाँ हो, उसे भी बुला लेना, जिसके कर्म के साथ धर्म का संबंध नहीं है; उसको ईश्वर का नाम (भजन) करने के लिए निरंतर विनती करो। जो उसको (भगवान् को) जिस किसी विशुद्ध-भाव से पाने को चेष्टा कर रहा है, उसको उसी भाव से आलिंगन करो, और जिसने उसकी महिमा को जान लिया है उसके सत्संग से अपने जीवन को कृतार्थ करो।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेख है, कागभुसुंडि जी की कथा है और आधुनिक युग के संत भी वैज्ञानिक आधार पर कहते रहे हैं कि हम अपनी यात्रा इस जन्म में जहां खत्म करते हैं, अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने का कोई समय नहीं होता। जब जागे, तभी सबेरा। क्षय शरीर का होता है, आत्मा अमर है। मां यह बात सबसे कहती थीं। लगभग पांच दशकों तक देश के कोने-कोने में हरि-स्मरण, हरि-संकीर्तन का अलख जगाकर भक्ति की गंगा प्रवाहित करने वाली मां के पास उनके समकालीन साधु-संतों से लेकर राजनीति और दूसरे क्षेत्र के दिग्गजों का आना-जाना लगा रहता था। मां भी नन्हीं बच्ची की तरह सभी आत्मज्ञानी संतों के दर्शन के लिए जाया करती थीं।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” में वर्णन किया हुआ है – मैं पहली बार आनन्दमयी माँ से मिला था तो मसझते देर न लगी कि भीड़ में होते हुए भी वे समाधि की एक उच्च अवस्था में थीं। अपने बाह्य नारी रूप का उन्हें कोई भान नहीं था। उन्हें केवल अपने परिवर्तनातीत आत्म-स्वरूप का भान था। उस अवस्था में वे ईश्वर के एक अन्य भक्त से आनन्द के साथ मिल रही थीं। उनकी यात्रा में देरी होते देख मैं जल्दी ही निकल लेना चाहता था। पर वह बोल पड़ीं, “बाबा! मैं कई युगों बाद इस जन्म* में आपसे पहली बार मिल रही हूँ! इतनी जल्दी तो मत जाइए!” योगानंद जी दरअसल अपनी भतीजा अमिया बोस के आग्रह पर मां से मिलने गए थे। अमिया ने उनसे कहा था – “निर्मला देवी यानी मां के दर्शन किए बिना कृपया भारत से मत जाइए। उनमें अत्यंत तीव्र भक्तिभाव है; सब तरफ वे आनन्दमयी माँ के नाम से विख्यात हैं। मैं उनसे मिली हूँ। अभी हाल ही में वे मेरे छोटे- से नगर जमशेदपुर पधारी थीं। एक शिष्य के अनुरोध पर आनन्दमयी माँ एक मरणासन्न मनुष्य के घर गईं। वे उसकी शय्या के पास खड़ी हो गयींउनके हाथ ने जैसे ही उसके माथे का स्पर्श किया, उसकी घर्र-घर्र बन्द हो गई। उसकी बीमारी तत्क्षण गायब हो गई। वह भी देखकर आनन्दित और विस्मित हो गया कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका था।”

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर मां के दैवीय स्वरूप में चर्चा करते थे। उन्हें परमहंस की उपाधि मां ने ही दी थी। डा० अलेक्जेंडर लिपस्की परमहंस स्वामी योगानन्द की पुस्तक ‘योगी कथामृत’ पढकर मां की ओर आकर्षित हुए थे। वाराणसी में १९६५ में मां से मिले तो उनके ही होकर रह गए। उन्होंने लिखा कि उनका अनुभव था कि मस्तिष्क की अन्तरतम परतों में भी मां का सहज प्रवेश है। मां की तुलना उन्होंने वृहत आध्यात्मिक चुम्बक से की है, जिसके सामने से अपने को अलग कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अपने को एकदम अनपढ़ कहने वाली मा आनन्दमयी के मुख से बड़े बड़े विद्वानों द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर इतनी सहजता, सरलता एवं दृढ़ता से सुनने को मिले कि आश्चर्य हुआ। मां के श्रीमुख से ‘हे भगवान्. और सत्यं ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म का कीर्तन उन्हें ईश्वर के प्रेम और आनन्द का उच्छवास प्रतीत हुआ और यह कहने को लिपस्की विवश हो गये कि ‘पृथ्वी में अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यहीं है, यहीं है।

आम लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े संतों को भी मां परमात्मा की अवतार जैसी लगती थीं। महर्षि दयानंद सरस्वती से रहा न गया। उन्होंने मां से पूछ लिया था, मां तुम कौन हो? कोई कहता है तुम अवतार हो, कोई कहता है तुम आवेश हो, कोई कहता है साधक या बद्ध जीव हो, मुझे यथार्थतः जानने की इच्छा है तुम कौन हो? मां ने कहा, “बाबा, तुम मुझे क्या समझते हो? तुम जो समझते हो मैं वही हूं।” इस उत्तर को ऐसे समझिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। इस तरह महर्षि दयानंद जी को मां के उत्तर में ही मां के स्वरूप का वास्तविक परिचय मिल गया था। जीवन पर्यंत प्रेम, परोपकार और भक्ति का संदेश देकर लोगों का जीवन धन्य बनाने वाली महान योगिनी को महासमाधि दिवस (27 अगस्त) पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आत्मज्ञानी संतों का मूल्यांकन भला कैसे हो!

किशोर कुमार //

भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन के जितने भी आत्मज्ञानी संत हुए, उनमें से किसी ने भी मातृ-शक्ति की महत्ता को कमतर नहीं आंका और न ही ऐसा कोई काम किया, जिससे सामाजिक विभेद उत्पन्न हो। चाहे वे गौतम बुद्ध, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत रविदास, गुरूनानक देव और चैतन्य महाप्रभु हों या फिर संत कबीर, मीराबाई, रहीम रसखान और संत तुलसीदास। जी हां, रामचरित मानस के रचयिता संत तुलसीदास भी।

जरा सोचिए कि विशिष्टाद्वैतवाद के समर्थक जिस आत्मज्ञानी संत की गुरू ही महिला रही हों, वह भला महिलाओं की ताड़ना-प्रताड़ना या सामाजिक विभेद पैदा करने वाली बातें कैसे कर सकता है? कालांतर में निश्चत रूप से किसी ने अपनी सुविधानुसार ऐसी पंक्तियां जोड़ी – घटाई गई होंगी, जिससे संदर्भ बदला तो अर्थ भी बदल गया या फिर हम अवधि में लिखे गए शब्दों की सही व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। वैसे, पांच सौ साल बाद महज थोथे तर्कों से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। बल्कि समग्रता में मूल्यांकन करके ही सत्य के करीब पहुंचा जा सकता है।

संत तुलसीदास को आत्मज्ञान मिलने की कहानी तो सबको पता ही है। वे अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्यार करते थे। पत्नी मायके गईं तो तुलसीदास वियोग में इतने बावले हुए कि घनघोर वर्षा के बीच नदी पार कर ससुराल पहुंच गए थे। दरवाजा न खुला तो घर के पीछे रस्सी लटकी दिखी, जो वास्तव में सांप था। सांप को रस्सी सझकर उसी के सहारे दूसरे मंजिल के उस कमरे में पहुंच गए, जहां रत्नावली सो रही थीं। रत्नावली ने पति की ऐसी आसक्ति देखकर बरबस ही बोल पड़ी थीं – “हे नाथ! मेरी देह से जितना प्रेम करते हो, इतना प्रेम यदि राम से करते, तो आपका जीवन धन्य हो जाता।“ और इसी बात से उन्हें आत्मज्ञान हो गया। वे चित्रकूट जाकर तपस्या में तल्लीन हो गए थे।

बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के स्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने सत्संग में जब कभी गोस्वामी तुलसीदास की चर्चा आती थी, कहते थे – “यह मानने का कोई कारण नहीं कि गोस्वामी तुलसीदास ने नारी के असम्मान में कभी कुछ कहा होगा। या तो उनकी बातें समझी न गईं या किसी कारणवश चौपाइयों में जोड़-तोड़ किया गया होगा। तुलसी के रामायण में तो स्त्री मर्यादा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उसे देवी बतलाते हुए सुरसा को भी माता कहकर ही संबोधित किया गया है।“ सच है कि तुलसीदास खुद ही कहते हैं –  “एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“ यह स्त्री-पुरूष समानता वाली बात ही तो है। यही नहीं, उन्होंने नवधा भक्ति के आलोक में श्रीराम और माता शबरी का भी बेहद सुंदर वर्णन किया है।

सच तो यह है कि पूरे रामचरित मानस में सामाजिक सद्भाव की बात है। इसे तर्क करके नहीं समझा जा सकता। भक्ति कोई बुद्धि-विलास की वस्तु नहीं है। महर्षि अरविंद ने भक्ति के प्रसंग में कहा भी है –  तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। इस तार्किक बुद्धि के पार जाकर भावना से भक्ति के मर्म को समझा जा सकता है। भावना का संबंध बुद्धि से नहीं है। ओशो कहा करते थे –“शास्त्र को लाख पढ़ लो, चाहो तो अपने ही अर्थ निकाल लोगे। शास्त्र तुम्हें बदले न बदले, पर तुम शास्त्र को जरूर बदल सकते हो, क्योंकि तुम जो अर्थ चाहोगे, वही अर्थ निकाल लोगे। तुम्हारी व्याख्या शास्त्र पर सवार हो जाएगी।“ भारतीय इतिहास को जिस तरह तोड़े-मरोड़े जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं, उनके आधार पर यह मानने का कोई कारण नहीं कि रामचरित मानस और अन्य धार्मिक ग्रंथों में सुविधानुसार तोड़-मरोड़ नहीं किया गया होगा। 

इसे महज संयोग ही कहिए कि इस महीने यानी फरवरी में तीन ऐसे आत्मज्ञानी संतों की जयंती मनाई जाती है, जिन्होंने भक्ति आंदोलन चलाकर सामाजिक समरसता के लिए अनूठे कार्य किए। उनमें से एक संत रविदास की जयंती तो हम मना चुके। भक्ति आंदोलन के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य संत रविदास ने अपने भक्ति आंदोलन के जरिए सामाजिक भेदभाव मिटाने में अहम् भूमिका निभाई थी। आज यानी 6 फरवरी को चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवन प्रदान करके विश्वव्यापी बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले आध्यात्मिक नेता भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की जयंती है और कोई बारह दिनों बाद यानी 18 फरवरी को श्रीचैतन्य महाप्रभु की जयंती है। इस लेख में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की बात होगी तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के आंदोलन की झलक मिल ही जाएगी।

भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने जीवन काल में देश भर में न केवल गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की जड़ें मजबूत की थी, बल्कि अपने पट्ट शिष्य श्रील अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को आगे करके दुनिया भर में भक्ति आंदोलन का ऐसा डंका बजवाया कि आज भी इस्कॉन और श्रीकृष्ण भावनामृत के रूप में उस आंदोलन की मजबूत उपस्थिति सर्वत्र देखी जा सकती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के मुख्यत: चार सूत्रों, जिनमें जाति भेद मिटाने, अंधविश्वास का परित्याग करने औऱ मानवता की सेवा को प्रमुखता देने की वजह से न केवल संप्रदायों के बीच विभेद कमा, बल्कि जाति-पांति और छुआ-छूत को लेकर भी आम लोगों का दृष्टिकोण बदला। नजीजा हुआ कि श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू किया गया भक्ति आंदोलन, जो कालांतर में धीमा पड़ गया था, पुनर्जीवित हो उठा और देश भर में फैल गया।

श्रीचैतन्य महाप्रभु का पहली बार जगन्नाथपुरी में पदार्पण हुआ था तो उनकी संकीर्तन मंडली में सभी वर्गों के लोग इस तन्मयता से जुट गए कि लगा ही नहीं कि समाज में कोई जाति विभेद भी है। उनके शिष्यों में हरिदास ठाकुर शूद्र थे। पर वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनूठे शिष्य थे। कथा है कि रविदास ठाकुर चाहते थे कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के देह त्याग से पहले उन्हें अपना देह त्याग करने की अनुमति मिल जाए। इसलिए कि वे अपने गुरू का विरह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। यह बात सुनते ही चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास जी से कहा – “हरिदास, यदि तुम चले जाओगे तो मैं कैसे रहूंगा, हरिदास क्या तुम मुझे अपने संग से वंचित करना चाहते हो?  तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा और कौन है यहाँ?” इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि भारत के किसी भी आत्मज्ञानी संत ने सामाजिक विभेद नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता के लिए अपने-अपने तरीकों से काम किया। तभी देश में सर्वत्र अनेकता में एकता बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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