सूर्योपासना कर ली, अब बारी सूर्य नमस्कार की

किशोर कुमार

आस्था का महापर्व छठ संपन्न हो गया। इस पर्व की शुरूआत कहां से हुई, कैसे हुई, इस पर बहुत लिखा-कहा जा चुका है। अब बात होनी चाहिए सूर्योपासना के यौगिक आयाम की, जो जीवन को सुखमय बनाने के लिए अमृत समान है। आप समझ गए होंगे। मैं बात करने जा रहा हूं सूर्य नमस्कार योग की, जिसे सूर्योपासना का ही विकसित रूप माना जाता है। भारतीय वांग्मय से हमें ज्ञात हो चुका है कि वैदिक काल से की जा रही सूर्योपासना ही छठ पूजा औऱ आधुनिक हठयोग की शक्तिशाली योगविधि सूर्य नमस्कार का आधार बनी थी। पर इतना जान भर लेना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस पुरानी योग पद्धति के विज्ञान को समझना भी महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर योगियों ने साबित किया कि सूर्य नमस्कार के अभ्यास से मानव प्रकृति का सौर पक्ष जागृत होता है। इससे चेतना के विकास के लिए जीवनदायिनी ऊर्जा मिल जाती है।

मैंने इस पूरे मामले को समझने के लिए देश-विदेश में सूर्य नमस्कार पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों और बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की दुनिया भर में स्वीकार्य पुस्तक “सूर्य नमस्कार” को आधार बनाया है। पहले जानते हैं कि अपने अध्ययनों के बाद वैज्ञानिक सूर्य नमस्कर योग को लेकर किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। कोरोना महामारी के बाद खासतौर से भारत के युवा हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। कई युवा जान गंवा चुके हैं। अमेरिका के सैन जोश स्टेट यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के वैज्ञानिक भावेश सुंरेंद्र मोदी का शोध भी युवाओं पर ही आधारित है। उन्होंने छह एशियाई युवाओं पर शोध किया। यह जानने के लिए कि सूर्य नमस्कार हृदय रोगियों के लिए कितना कारगर है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से कोर्डियोरेस्पिरेटरी फिटनेस को ठीक रखा जा सकता है।

अपने देश में भी सूर्य नमस्कार को लेकर अध्ययन किए जाते रहते हैं। चेन्नई स्थित सत्यभाषा इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी के एल प्रसन्ना वेंकटेश ने अपने एक सहयोगी के साथ शोध किया तो पाया कि सूर्य नमस्कार अंतःस्रावी तंत्र (इंडोक्राइन सिस्टम) को व्यवस्थित रखता है। वरना, जीवन संकट में पड़ जाता है। यही वजह है कि सूर्य नमस्कार के अभ्यासियों को न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति मिल जाती है। वैसे, टी. कृष्णमाचार्य, स्वामी शिवानंद, स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर आदि नामचीन योगियों ने तो साठ के दशक में ही अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि सूर्य नमस्कार शारीरिक अवयवों में नवजीवन का संचार करता है। साथ ही वर्तमान जीवन पद्धति की मांगों व तनावों के बीच हमें क्रियाशील जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करता है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इस योग के प्रभावों को थोड़ा विस्तार से समझा। वे कहते थे कि सूर्य नमस्कार मुँहासा, फोड़े-फुंसियां, रक्ताल्पता, कम भूख लगना, दुर्बलता, स्थूलता, कम विकास होना, स्फीत शिरा, गठिया, सिरदर्द, दमा तथा फेफड़े की अन्य विकृतियाँ, पाचन संस्थ की व्याधियाँ, अपच, कब्ज, गुर्दे संबंधी व्याधियाँ, यकृत की क्रियाशील में कमी, निम्न रक्तचाप, मिर्गी, मधुमेह, त्वचा की बीमारियाँ (एक्जिा सोरायसिस, सफेद दाग), सामान्य सर्दी-जुकाम का बचाव, अन्तःस्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म तथा रोगनिवृत्ति संबंधी समस्याएं, मानसिक व्यधियां (जैसे, चिंता, अवसाद, विक्षिप्त, मनोविकृति) इत्यादि बीमारियों से निजात दिलाता है।

हम जानते हैं कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में असंतुलन होना योग के दृष्टिकोण से अस्वस्थ होने का मुख्य कारण होता है। कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् या व्यवस्थाप्रिय हो, यदि उसके ऊर्जा संस्थान सामान्य ढंग से क्रियाशील नहीं हैं तो उसे व्याधिग्रस्त होना ही है। सूर्य नमस्कार योग में इतनी शक्ति है कि उससे शारीरिक व मानसिक ऊर्जाओं में पुनर्संतुलन स्थापित हो जाता है। कोरोना महामारी और वायुमंडल में फैले प्रदूषण के कारण फेफड़े की बीमारी आम हो गई है। हर आयु वर्ग के लोग इस बीमारी से दो चार हो रहे हैं। चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि फेफड़ों की रचना खण्डों या उपखण्डों से हुई है। सामान्य श्वसन में शायद ही कोई सभी उपखण्डों का उपयोग करता हो । सामान्यतया फेफड़ों के केवल निम्न भाग ही उपयोग में आते हैं। ऊपरी हिस्से या तो कार्य करना बन्द कर देते हैं या उनमें उपयोग में लाई हुई वायु, कार्बन डाइ-ऑक्साइड तथा विषैली गैस जमा होती रहती हैं। ऐसा विशेषकर शहरवासियों तथा धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों के फेफड़ों में पाया जाता है। ये विषैले पदार्थ फेफड़ों में वर्षों तक पड़े रह जाते हैं, जिससे श्वसन तथा अन्य शारीरिक संस्थानों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

इसी वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाते हुए स्वामी सत्यानंद सरस्वती बतलाते रहे हैं कि श्वसन संस्थान के लिए यह योग कारगर है। दरअसल, सूर्य नमस्कार में प्रत्येक गति के साथ लयबद्ध गहन श्वसन प्रक्रिया स्वतः होती रहती है। इससे फेफड़ों में भरी हुई दूषित वायु पूर्णतः बाहर निकल जाती है और उनमें ताजी, स्वच्छ तथा ऑक्सीजन-युक्त वायु भर जाती है। विशेषकर ऐसा हस्तउत्तानासन की स्थिति में होता हैं, इसमें वक्ष भित्ति फैल जाती है। पादहस्तासन करते समय जब किंचित् बलपूर्वक श्वास छोड़ी जाती है, (ऐसा खुले मुँह से भी किया जा सकता है), तब यह श्वास शुद्धिकरण की शक्तिशाली विधि बन जाती है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने से फेफड़ों की सभी कोशिकाएँ फैलती हैं, उद्दीप्त होती हैं और स्वच्छ हो जाती हैं। रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस कारण शरीर, मस्तिष्क के ऊत्तकों एवं कोशिकाओं की क्षमता तथा ऑक्सीजनीकरण में वृद्धि होती है। सुस्ती से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। श्वसन-व्याधियाँ दूर होती हैं तथा वायु मार्ग का अवांछित श्लेष्मा भी समाप्त होता है। यह अभ्यास क्षय की तरह के ऐसे रोगों से बचाव करता है, जो फेफड़ों के कम उपयोग में लाए गये तथा निश्चल भागों में उत्पन्न होते हैं।

स्पष्ट है कि सूर्य नमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। अच्छी बात यह है कि छात्रों को भी यह खूब भाता है। यह तथ्य भी विज्ञानसम्मत है कि यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो सूर्य मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार करने से उसका असर द्विगुणित हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सनातन धर्म से निकला यौगिक अमृत है सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार //

आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार एक बार फिर चर्चा में है। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की जा रही है। इसलिए इस बार के कॉलम का विषय सूर्यनमस्कार ही चुना। पर जब लिखने बैठा तो जी20 शिखर सम्मेलन के 55 पृष्ठों वाले दस्तावेज पर नजर गई, जिसे किसी मित्र ने भेजा था। भारत के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चिंतन को दर्शाने वाले इस दस्तावेज ने बेहद प्रभावित किया। इसलिए उस दस्तावेज के सार-तत्व के आलोक में दो शब्द।   

जी20 शिखर सम्मेलन से हमने क्या खोया, क्या पाया, इसका राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण होता रहेगा। पर यह अच्छा हुआ कि इस शिखर सम्मेलन के बहाने हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

आज सनातन धर्म को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है और पक्ष व विपक्ष में बहुत-सी बातें कही जा चुकी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर वैदिककालीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के संत तक धर्म को परिभाषित करके मानते रहे हैं कि जीवन में धर्म की बड़ी अहमियत है। जैसे योग को जीने की कला माना जाता है, वैसे ही धर्म को भी जीने की कला और विज्ञान माना गया। संत जब धर्म की बात कहते हैं तो प्रकारांतर से अध्यात्म की भी बात कर रहे होते हैं। इसलिए कि कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई है।

ओशो की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है – मेरा स्वर्णिम भारत। इसकी बहुत-सी बातों से मत-मतांतर हो सकता है। पर नईपीढ़ी को प्रेरित करने वाली अनेक बाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को,अपनी हिमाच्छादित ऊँचाईयों को पुनः पा लेगा, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। अब देखिए न। भारत जी20 शिखर सम्मेलन का अगुआ बना तो उसने फिर से “वसुधैव कुटुंबम्” के रूप में सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचारधारा को मजबूती से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। कमाल यह कि इस पर पूरी दुनिया ने तालियां बजाईं।

भारत ने कोई नौ साल पहले जब योग को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया तो उसका मकसद केवल अपना कल्याण नहीं था। मंशा तो यही थी कि पूरे विश्व का कल्याण हो। सभी खुशहाल रहें। इसलिए कि स्वस्थ तन-मन ही खुशहाली की कुंजी है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि सुखी, समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन की चाहत है तो योगविद्या को जीवन का हिस्सा बनाना ही होगा। यह आजमाया हुआ है। प्राचीनकाल में भारत के लोग इसी विद्या के बल पर सुखी जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सदैव समग्र योग पर बल दिया। पर भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को ज्यादा ही अहमियत देती रही है तो इसकी खास वजह है।

दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। अब यह बात कोई सैद्धांतिक नहीं रह गई है, बल्कि लाखों लोगों का अनुभव है। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है।

एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है। बीते सप्ताह देहरादून में प्रयाग आरोग्य केंद्र के सहयोग से योगा स्पोर्ट्स फेडरेशन ने दो दिवसीय सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसे आशातीत सफलता मिली। इस मेगा इवेंंट में सात देशों और अठारह राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल योग को खेल बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। पर खेल-खेल में योग के हिमायती रहे हैं। इसलिए मेगा इवेंट होने के बावजूद सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं रह गया था, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहा। जाहिर है कि ऐसे अभ्यास के बड़े लाभ होते हैं। इस आयोजन की एक और विशिष्टता थी। इसमें भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए “मिस योग इंडिया” प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी, जो योग की गौरवशाली संस्कृति की झांकी थी।

खैर, सूर्यनमस्कार के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों मे स्पष्टता रहे, इसके लिए पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ठीक ही रहता है। बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

योग-शास्त्रों में सूर्योपासना के प्रसंग तो जगह-जगह है। पर सूर्य नमस्कार किसके दिमाग की उपज है, यह पहेली है। आम धारणा रही है कि आधुनिक युग में सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक  “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।   

उद्गम का स्रोत चाहे जो भी हो, पर सूर्य नमस्कार यौगिक अमृत है। तभी इसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं। सनातन धर्म की खासियत है कि वह बिना किसी भेदभाव के मानव जाति को ऐसी जीवनोपयोगी विधियां उपलब्ध कराता है कि उस पर अमल किया जाए तो जीवन खुशहाल हो जाएगा। सूर्य नमस्कार इसका बेहतरीन उदाहरण है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे तो प्रतिभावान होंगे बच्चे

सावन का महीना योग के आदिगुरू शिवजी को प्रिय है तो इस बार लेख की शुरूआत उनसे जुड़ी एक कथा से। फिर योग विद्या की बात। कथा है कि चंद्रमा का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष की सत्ताई कन्याओं से हुआ था। पर चंद्रदेव केवल रोहिणी प्यार करते थे। बाकी छब्बीस बहनों को यह बात नागवार गुजरने लगी तो बात प्रजापति दक्ष तक पहुंची। उन्होंने इस मामले में दखल तो दी। पर बात नहीं बनी। इससे क्रोधित होकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि उसका शरीर क्षय रोग से गल जाएगा। श्राप का असर दिखने लगा तो स्वर्गलोक में हाहाकार मच गया। स्वर्ग का देवता रोग से गल जाए तो हड़कंप मच जाना लाजिमी था।

खैर, बात ब्रह्मा जी तक पहुंची। उन्होंने चंद्रदेव को सुझाव दिया कि प्रभास तीर्थ क्षेत्र जाएं। वहां शिवलिंग की स्थापना करके आरोग्यवर्द्धक महामृत्युंजय मंत्र की साधना करें। भगवान मृत्युंजय प्रसन्न हुए तो स्वयं प्रकट होकर रोग का उपचार करेंगे। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। महादेव प्रकट हुए और आशीर्वाद दिया कि रोग से मुक्ति मिल जाएगी। पर उनका शरीर पंद्रह दिनों तक घटेगा और पंद्रह दिन बढ़ेगा। रोग से मुक्ति मिल जाने से प्रसन्न चंद्रमा ने महादेव से प्रार्थना की कि वे उसके आराध्य बनकर उसी विग्रह में प्रवेश कर जाएं, जिसकी उसने आराधना की थी। आदियोगी ने बात मान ली औऱ विग्रह में प्रवेश कर गए। कालांतर में वही स्थान सोमनाथ के रूप में मशहूर हुआ और आदियोगी वहां सोमेश्वर कहलाए। हम सब जानते हैं कि सोमनाथ मंदिर गुजरात के प्रभास पाटन में अवस्थित है। इस कथा से महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति का पता चलता है।

वेदों में कहा गया है कि ऋषियों की ध्यान की सूक्षमावस्था में अनहद नाद की अनुभूति हुई। इसे ही मंत्र कहा गया, जो बेहद शक्तिशाली है। मानव के मेरूदंड में मुख्यत: छह चक्र होते हैं। उनमें अलग-अलग रंगों की पंखुड़ियां अलग-अलग संख्या में होती हैं। उन सब पर संस्कृत में एक-एक स्वर व व्यंजन अक्षर होता है। सभी चक्रों के बीज मंत्र भी होते हैं। जैसे आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है। मंत्र भी इन्हीं अक्षरों से बने होते हैं। इसलिए ॐ मंत्र का सीधा प्रभाव आज्ञा चक्र पर होता है। इस चक्र के जागृत होने से प्रतिभा का विकास होता है। अंतर्दृष्टि मिलती है।

कुछ शताब्दियों पहले तक अनुष्ठान करके आठ साल की उम्र से ही बच्चों को मंत्रों खासतौर से ॐ और गायत्री मंत्र का जप करने को कहा जाता था। वे बच्चे बड़े होकर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा शांतिपूर्ण जीवन जीते थे। योग से नाता टूटने का कुप्रभाव देखिए कि कोरोनाकाल में बड़ों के साथ ही बच्चे भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं। अनेक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों से भी महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र के साथ ही ॐ नम: शिवाय और न जाने कितने ही मंत्रों के मानव शरीर पर होने वाले सकारात्मक प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी आदि आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक संत मंत्रों के प्रभावों से जनकल्याण करते रहे हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 1994 में बाल योग मित्र मंडल बनाकर बच्चों के योग को बड़ा फलक प्रदान किया था। उन्होंने संभवत: पुराने समय में बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर चायदानी आसन विकसित किया और बार-बार ऐसा करते हुए बच्चे उब न जाएं, इसलिए इसके साथ बाल गीत जोड़कर मनोरंजक बना दिया था। इस आसन में बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए दाहिए पैर को पीछे करके हाथ से पकड़ना होता है। बाईं केहुनी को मोड़कर हाथ को सामने करने के बाद कलाई को नीचे की ओर झुकाना होता है। ताकि पोज चायदानी की टोटी जैसा बन जाए। इस स्थिति में देर तक रहने से पैरों में शक्ति आती है और एकाग्रता का विकास होता है।

योगशास्त्र में भी कहा गया है कि बच्चे जब आठ साल के हो जाएं तभी आसन और प्राणायाम के अभ्यास शुरू कराए जाने चाहिए। यदि सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्रणायाम, भ्रामरी प्राणायाम व गायत्री मंत्र के जप के साथ ही योगनिद्रा बच्चों के दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। दुनिया भर में इस बात को लेकर एक हजार से ज्यादा शोध किए जा चुके हैं। इसलिए संशय की कोई गुंजाइश नहीं है।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है।

धर्म, अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शिक्षा को अपनी अंतर्दृष्टि से नए आयाम देने वाले जिड्डू कृष्णमूर्ति की यह बात आज भी प्रासंगिक है कि पहले की शिक्षा ऐसी न थी कि बच्चे यंत्रवत, संवेदनशून्य, मंदमति और असृजनशील बनते। आज हमारा समाज शिक्षित है। पर कई मूल्यों को खो चुका है। नतीजा है कि योग शास्त्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर योग की महिमा जानने के बावजूद हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

सच है कि नए भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी जड़ता टूटेगी और बच्चों का जीवन योगमय होगा। शिक्षा में योग के समावेश को लेकर सरकार अपना काम कर रही है। हमें भी अपने हिस्से का काम करना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

योगियों के अमृत मंथन से निकला सूर्य नमस्कार!

किसके दिमाग की उपज है सूर्य नमस्कार, जिसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं? आम धारणा है कि सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।  

किशोर कुमार

इस बार सूर्य नमस्कार की बात। हठयोग की एक ऐसी शक्तिशाली विद्या की बात, जो प्राचीन काल में हठयोग का हिस्सा नहीं था। पर उसकी क्रियाएं मौजूद थीं और सूर्य उपासना मानव की आंतरिक अभिव्यक्तियों का एक अत्यंत सहज रूप थी। इनका समन्वय करके बनाई गई योग विधि ही आधुनिक युग का सूर्य नमस्कार है। मंत्र योग के बाद शायद यह इकलौती योग विधि है, जिसका धार्मिक वजहों से विवादों से नाता बना रहता है। बावजूद लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। योग विज्ञानी इसे मानव शरीर में सूर्य की ऊर्जाओं को व्यवस्थित करने का बेहतरीन तरीका मानते हैं, जिनसे हमारा जीवन संचालित है। इसकी सत्यता का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान होने लगे तो विज्ञान को भी इसकी अहमियत स्वीकारनी पड़ी है।

जीवन-शक्ति प्रदायक इस योग विधि से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा होगी। इसके पहले जानते हैं कि जिस सूर्य नमस्कार को अपने आप में पूर्ण योग साधना माना जाता, उसे मौजूदा स्वरूप कब और कहां मिला? आसनों के समूह को एक साथ किसने गूंथा? इसे लोकप्रियता किसने दिलाई? वैसे तो सूर्योपासना आदिकाल से की जाती रही है। सूर्योपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता है, वह शक्तिशाली, क्रियाशील, बुद्धिमान और दीर्घजीवी होता है। पर योग के आयामों पर शोध करने वाले अमेरिकी मानव विज्ञानी जोसेफ एस अल्टर की पुस्तक “योगा इन मॉडर्न इंडिया” के मुताबिक सूर्य नमस्कार 19वीं शताब्दी से पहले किसी भी हठयोग शास्त्र का हिस्सा नहीं था। इस बात की पुष्टि स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका और महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता से भी होती है। यहां तक कि हठयोग के लिए ख्यात नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ के गोरक्षशतक में भी सूर्य नमस्कार का उल्लेख नहीं है। फिर यह वजूद में आया कैसे?

श्रुति व स्मृति के आधार पर उपलब्ध दस्तावेजों और अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका प्रतिदिन अभ्यास किया करते थे। वे सूर्य के उपासक थे और सूर्योदय के साथ ही सूर्य को प्रणाम करके योगासन करते थे। माना जाता है कि वही कालांतर में सूर्य नमस्कार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वैदिक काल से चली आ रही सूर्य उपासना समर्थ रामदास के जीवन का हिस्सा इस तरह बनी थी कि उन्होंने अपनी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में इसकी महिमा का बखान करने के लिए एक अध्याय ही लिख दिया था। हालांकि उनकी पुस्तक में कहीं भी आसनों के समूह को सूर्य नमस्कार नहीं कहा गया है। पर मैसूर और औंध प्रदेश में लगभग एक ही काल-खंड में जिस तरह सूर्य नमस्कार लोकप्रिय होने लगा था, उससे ऐसा लगता है कि समर्थ रामदास ने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया होगा।

विख्यात योगी की कहानी, सद्गुरू जग्गी वासुदेव की जुबानी

कर्नाटक के योग शिक्षक थे – राघवेंद्र राव। वे रोज 1008 बार सूर्य नमस्कार करते थे। जब नब्बे साल के हुए तो 108 बार सूर्य नमस्कार करने लगे थे। यह कटौती अपनी आध्यात्मिक साधना के कारण कर दी थी। वे बेहतरीन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। नब्ज छू कर बता देते थे कि अगले 10-15 वर्षों में किस तरह की बीमारी हो सकती है। उनका आश्रम था, जहां प्रत्येक सोमवार की सुबह से शाम तक मरीज देखते थे। इसके लिए रविवार की शाम को ही आश्रम पहुंच जाते थे। उनकी एक और खास बात थी। गंभीर से गंभीर मरीज को चुटकुला सुनाकर खूब हंसाते थे। इससे मरीजों से भरे आश्रम में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था।
उनके समर्पण की एक दास्तां यादगार रह गई। वे एक बार अपने दो साथियों के साथ आश्रम से 75 किमी की दूरी पर फंस गए। दरअसल, ट्रेन रद्द हो गई थी। आश्रम हर हाल में पहुंचना था। रात्रि में ट्रेन के अलावा दूसरा कोई साधन न था। लिहाजा उन्होंने 83 साल की उम्र में फैसला किया कि रेलवे टैक पर दौड़ते हुए आश्रम पहुंचेंगे। ताकि सुबह-सुबह मरीजों का इलाज कर सकें। ऐसा ही हुआ। वे चार बजे सुबह आश्रम पहुंच गए और समय से मरीजों को देखने के लिए उपलब्ध हो गए। उनके दो साथी अगले दिन ट्रेन से आश्रम पहुंचे तो राघवेंद्र राव की दास्तां सुनाई। वे 106 वर्षों तक जीवित रहे और प्राण त्यागने के दिन तक योग सिखाते रहे।

योग साहित्य के ज्यादातर जानकार बताते है कि देश की आजादी से पहले औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ था। पर इस बात के भी सबूत हैं कि भवानराव श्रीनिवासराव के प्रचार से कोई दो दशक पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। भवानराव श्रीनिवासराव ने 1920 के आसपास सूर्य नमस्कार का प्रचार शुरू किया था, जबकि टी कृष्णामाचार्य की पुस्तक व्यायाम प्रदीपिका का प्रकाशन 1896 में हो चुका था, जिसमें सूर्य नमस्कार के आसनों की विस्तार से चर्चा है।   बीकेएस अयंगर और के पट्टाभि जोइस टी कृष्णामाचार्य के ही शिष्य थे। इन बातों का उल्लेख नॉर्मन ई सोजमन की पुस्तक “द योग ट्रेडिशन ऑफ मैसूर पैलेस” में है। कैनेडियन नागरिक सोजमन संस्कृत व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन तथा योग के प्रशिक्षण के लिए कोई 14 वर्षों तक भारत में रहे। उसके मुताबिक मैसूर के राजा कृष्णराज वाडियार हिमालय के योगी राममोहन ब्रह्मचारी के शिष्य कृष्णामाचार्य से बेहद प्रभावित थे।

प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक और राजनयिक अप्पा साहेब पंत पूर्व औंध प्रदेश के राजा भवानराव श्रीनिवासराव के ही पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता पर एक पुस्तक लिखी थी – ऐन अनयूजुअल राजा। उसमें सूर्य नमस्कार के प्रचार के बारे में विस्तार से चर्चा है। इसमें मुताबिक, औंध से सटे मिराज राज्य, जो अब महाराष्ट्र का हिस्सा है, के राजा की सलाह पर भवानराव श्रीनिवासराव नियमित रूप से सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने लगे थे। उन्हें प्रारंभिक दिनों से ही खेलकूद के प्रति गहरी अभिरूचि तो थी ही, जर्मन बॉडी बिल्डर और शोमैन यूजेन सैंडो से भी खासे प्रभावित थे। जब उन्हें इसके लाभ दिखने लगे तो दीवानगी बढ़ गई। नतीजतन, उन्होंने न केवल देश से बाहर भी सूर्य नमस्कार का प्रचार किया, बल्कि अखबारों में लेख लिखे और मराठी में एक पुस्तक भी लिख डाली, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था। उसका नाम है – “द टेन प्वाइंट वे टू हेल्थ।“ इसे 1923 में इंग्लैंड के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया था।

हरियाणा के संदीप आर्य सबसे ज्यादा समय तक सूर्य नमस्कार करने का वर्ल्ड रिकार्ड बना चुके हैं। उन्होंने बीते साल लखनऊ में आयोजित वर्ल्ड योगा चैंपियनशिप में 36 घंटे 21 मिनट तक सूर्य नमस्कार करके अपना ही रिकार्ड तोड दिया था। इसके पहले 17 घंटे 30 मिनट तक सूर्य नमस्कार का वर्ल्ड रिकार्ड उन्हीं के नाम था। वे अपनी इन उपलब्धियों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से सम्मानित हो चुके हैं।  

हम सब जानते हैं कि सूर्य नमस्कार में मुख्यत: सात मुद्राएं होती हैं। पांच मुद्राओं की पुनरावृत्ति होती है। इस तरह बारह मुद्राएं हो गईं। आध्यात्मिक गुरू और ईशा फाउंडेशन के प्रमुख सद्गुरू जग्गी वासुदेव के कहते हैं कि ऐसा होना महज संयोग नहीं है। सूर्य का चक्र लगभग सवा बारह साल का होता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही बारह आसनों की श्रृंखला बनाई गई। ताकि हमारे शरीर के चक्रों का सौर चक्र से तालमेल हो सके। बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक युग की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह योग विधियों को मिलाकर यौगिक कैप्सूल तैयार किया। समझा जाता है सूर्य नमस्कार भी कुछ ऐसे ही विचारों की देन है। इन्हें योगियों का अमृत मंथन कहना समीचीन होगा। सच तो यह है कि बेहद असरदार योग विधि मानव जाति के लिए अमृत से कम नहीं है।

बीते सप्ताह उपनयन संस्कार के वक्त बच्चों को दी जाने वाली योग शिक्षाओं की चर्चा की गई थी। उनमें सूर्य नमस्कार प्रमुख था। विभिन्न अनुसंधानों के नतीजों से साबित हो चुका है कि योग की यह प्रभावशाली विधि अंत:स्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनमें शरीर की सबसे महत्वपूर्ण पीयूषिका ग्रंथि शामिल है। सूर्य नमस्कार इस ग्रंथि के क्रिया-कलापों का नियमन करने वाले हॉइपोथैलेमस को उद्दीप्त करता है। इस कॉलम में पीनियल ग्रंथि की बार-बार चर्चा हुई है। सूर्य नमस्कार से उसके क्षय होने की प्रक्रिया भी मंद पड़ती है। मासिक धर्म संबंधी अनियमितताओं और उससे उत्पन्न तनावों से मुक्ति दिलाने में यह योगासन बेहद प्रभावकारी है। रीढ़ के रोगों से बचाव के लिए यह सबसे उत्तम विधि मानी जाती है।

कई व्याधियों में सूर्य नमस्कार बेहद प्रभावी है। वे हैं – अंत:स्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म व रोग निवृत्ति संबंधी समस्याएं, दमा व फेफड़े की विकृतियां, पाचन संस्थान की व्याधियां, निम्न रक्तचाप, मिर्गी व मधुमेह, मानसिक व्याधियां, गठिया, गुर्दे संबंधी व्याधियां, यकृत की क्रियाशीलता में कमी, सामान्य सर्दी-जुकाम से बचाव आदि। मतलब यह कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में संतुलन लाने के लिए यह लाभदायक है। यदि किसी का ऊर्जा संस्थान असंतुलित है तो व्याधियों से मुक्त रह पाना नामुमकिन है।  

पंचमढ़ी का सूर्य नमस्कार पार्क

स्वास्थ्य खासतौर से कैलोरी को लेकर सतर्क लोग आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक तथा आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर के एक शोध के नतीजों से सूर्य नमस्कार के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। शोध के मुताबिक, 30 मिनट में भारोत्तोलन से 199 कैलोरी, टेनिस से 232 कैलोरी, बास्केटबाल से 265 कैलोरी, बीच वॉलीबाल से 265 कैलोरी, फुटबॉल से 298 कैलोरी, 24 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से साइकिल चलाने से 331 कैलोरी, पर्वतारोहण से 364 कैलोरी, दौड़ने से 414 कैलोरी (यदि रफ्तार 12 किमी प्रति घंटा हो) और सूर्य नमस्कार से 417 कैलोरी का उपयोग होता है। सूर्य नमस्कार के 12 सेट 12 से 15 मिनट में 288 शक्तिशाली योग आसनो के समान है।

सूर्य नमस्कार के मामले में एक खास बात यह है कि धार्मिक आधार पर विवाद होने के बावजूद थोड़े संशोधनों के साथ इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में इसका सकारात्मक प्रभाव होता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा। पाकिस्तान के प्रमुख योग गुरू शमशाद हैदर खुद ही हजारों लोगो को एक साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराते हैं। केवल “ऊँ” की जगह “अल्लाह हू” बोलते हैं। वे मानते हैं कि योग का कोई धर्म नहीं होता।

यह सच है कि मानव जिन पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है, उनका भला क्या धर्म हो सकता है। मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने के उपायों का भी कोई धर्म नहीं हो सकता। सूर्य नमस्कार शरीर की आंतरिक रहस्यपूर्ण प्रणालियों पर नियंत्रण प्राप्त करने और उनके बीच सामंजस्य लाने का एक सशक्त साधन है। यौगिक अमृत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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