पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे तो प्रतिभावान होंगे बच्चे

सावन का महीना योग के आदिगुरू शिवजी को प्रिय है तो इस बार लेख की शुरूआत उनसे जुड़ी एक कथा से। फिर योग विद्या की बात। कथा है कि चंद्रमा का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष की सत्ताई कन्याओं से हुआ था। पर चंद्रदेव केवल रोहिणी प्यार करते थे। बाकी छब्बीस बहनों को यह बात नागवार गुजरने लगी तो बात प्रजापति दक्ष तक पहुंची। उन्होंने इस मामले में दखल तो दी। पर बात नहीं बनी। इससे क्रोधित होकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि उसका शरीर क्षय रोग से गल जाएगा। श्राप का असर दिखने लगा तो स्वर्गलोक में हाहाकार मच गया। स्वर्ग का देवता रोग से गल जाए तो हड़कंप मच जाना लाजिमी था।

खैर, बात ब्रह्मा जी तक पहुंची। उन्होंने चंद्रदेव को सुझाव दिया कि प्रभास तीर्थ क्षेत्र जाएं। वहां शिवलिंग की स्थापना करके आरोग्यवर्द्धक महामृत्युंजय मंत्र की साधना करें। भगवान मृत्युंजय प्रसन्न हुए तो स्वयं प्रकट होकर रोग का उपचार करेंगे। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। महादेव प्रकट हुए और आशीर्वाद दिया कि रोग से मुक्ति मिल जाएगी। पर उनका शरीर पंद्रह दिनों तक घटेगा और पंद्रह दिन बढ़ेगा। रोग से मुक्ति मिल जाने से प्रसन्न चंद्रमा ने महादेव से प्रार्थना की कि वे उसके आराध्य बनकर उसी विग्रह में प्रवेश कर जाएं, जिसकी उसने आराधना की थी। आदियोगी ने बात मान ली औऱ विग्रह में प्रवेश कर गए। कालांतर में वही स्थान सोमनाथ के रूप में मशहूर हुआ और आदियोगी वहां सोमेश्वर कहलाए। हम सब जानते हैं कि सोमनाथ मंदिर गुजरात के प्रभास पाटन में अवस्थित है। इस कथा से महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति का पता चलता है।

वेदों में कहा गया है कि ऋषियों की ध्यान की सूक्षमावस्था में अनहद नाद की अनुभूति हुई। इसे ही मंत्र कहा गया, जो बेहद शक्तिशाली है। मानव के मेरूदंड में मुख्यत: छह चक्र होते हैं। उनमें अलग-अलग रंगों की पंखुड़ियां अलग-अलग संख्या में होती हैं। उन सब पर संस्कृत में एक-एक स्वर व व्यंजन अक्षर होता है। सभी चक्रों के बीज मंत्र भी होते हैं। जैसे आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है। मंत्र भी इन्हीं अक्षरों से बने होते हैं। इसलिए ॐ मंत्र का सीधा प्रभाव आज्ञा चक्र पर होता है। इस चक्र के जागृत होने से प्रतिभा का विकास होता है। अंतर्दृष्टि मिलती है।

कुछ शताब्दियों पहले तक अनुष्ठान करके आठ साल की उम्र से ही बच्चों को मंत्रों खासतौर से ॐ और गायत्री मंत्र का जप करने को कहा जाता था। वे बच्चे बड़े होकर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा शांतिपूर्ण जीवन जीते थे। योग से नाता टूटने का कुप्रभाव देखिए कि कोरोनाकाल में बड़ों के साथ ही बच्चे भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं। अनेक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों से भी महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र के साथ ही ॐ नम: शिवाय और न जाने कितने ही मंत्रों के मानव शरीर पर होने वाले सकारात्मक प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी आदि आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक संत मंत्रों के प्रभावों से जनकल्याण करते रहे हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 1994 में बाल योग मित्र मंडल बनाकर बच्चों के योग को बड़ा फलक प्रदान किया था। उन्होंने संभवत: पुराने समय में बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर चायदानी आसन विकसित किया और बार-बार ऐसा करते हुए बच्चे उब न जाएं, इसलिए इसके साथ बाल गीत जोड़कर मनोरंजक बना दिया था। इस आसन में बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए दाहिए पैर को पीछे करके हाथ से पकड़ना होता है। बाईं केहुनी को मोड़कर हाथ को सामने करने के बाद कलाई को नीचे की ओर झुकाना होता है। ताकि पोज चायदानी की टोटी जैसा बन जाए। इस स्थिति में देर तक रहने से पैरों में शक्ति आती है और एकाग्रता का विकास होता है।

योगशास्त्र में भी कहा गया है कि बच्चे जब आठ साल के हो जाएं तभी आसन और प्राणायाम के अभ्यास शुरू कराए जाने चाहिए। यदि सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्रणायाम, भ्रामरी प्राणायाम व गायत्री मंत्र के जप के साथ ही योगनिद्रा बच्चों के दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। दुनिया भर में इस बात को लेकर एक हजार से ज्यादा शोध किए जा चुके हैं। इसलिए संशय की कोई गुंजाइश नहीं है।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है।

धर्म, अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शिक्षा को अपनी अंतर्दृष्टि से नए आयाम देने वाले जिड्डू कृष्णमूर्ति की यह बात आज भी प्रासंगिक है कि पहले की शिक्षा ऐसी न थी कि बच्चे यंत्रवत, संवेदनशून्य, मंदमति और असृजनशील बनते। आज हमारा समाज शिक्षित है। पर कई मूल्यों को खो चुका है। नतीजा है कि योग शास्त्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर योग की महिमा जानने के बावजूद हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

सच है कि नए भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी जड़ता टूटेगी और बच्चों का जीवन योगमय होगा। शिक्षा में योग के समावेश को लेकर सरकार अपना काम कर रही है। हमें भी अपने हिस्से का काम करना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

शक्ति इतनी कि जीवन में चार चांद लगा दे यह प्राणायाम

इस कॉलम में बात शुरू हुई थी प्रतिभा के विकास के लिए उपनयन संस्कार के यौगिक आयामो की महत्ता को लेकर और उस कड़ी में यह तीसरा आलेख है – यह बताने के लिए कि आज्ञा चक्र, जिसका पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों से अन्योन्याश्रय संबंध है, बच्चों में मामूली रूप से भी उदीप्त रहे तो मस्तिष्क ज्यादा क्रियाशील रहेगा और प्रतिभा का विकास बेहतर तरीके से हो सकेगा। तब केवल डिग्रियां हासिल करने तक बात सीमित नहीं रहेगी। जीवन को सृजनात्मक तरीके से जीने की राह बन सकती है। योग विज्ञानी कहते हैं कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से होनी चाहिए। अब तक हुए शोधों से भी इस बात की पुष्टि होती है। सच है कि यदि हम बेहतर राष्ट्र का निर्माण चाहते हैं तो इस दिशा में कदम बढ़ाना ही होगा। योग बच्चों के लिए बड़े महत्व का है।  

बच्चों के उपनयन संस्कार के समय सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा देने की परंपरा रही है। बीते अंक में सूर्य नमस्कार की बात हुई थी। इस बार नाड़ी शोधन प्राणायाम की बात। पर इसके पहले आज्ञा चक्र के उदीप्त होने से मिलने वाली अतीन्द्रिय शक्तियों के चमत्कारों की बात। थिओडोर “टेड” जुड सीरियोस अमेरिका में एक साधारण व्यक्ति था। पर उसकी अतीन्द्रिय शक्तियां असाधारण थीं। सन् 2006 में परलोक सिधारने से पहले कोई चार दशकों तक अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों की बदौलत ऐसे-ऐसे काम किए कि अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बन गया था। उसे केंद्र में रखकर योग की शक्ति और शारीरिक संरचना में सूक्ष्म व भौतिक अस्तित्वविहीन चक्रों के चमत्कारिक प्रभावों पर कई फिल्में बनीं। “द अमेजिंग वर्ल्ड ऑफ साइकिक फेनोमेना” नामक कोई नब्बे मिनटों की एक डक्यूमेंट्री भी काफी लोकप्रिय हुई, जो टेड के जीवन पर आधारित है।

मजेदार यह कि टेड सेरियोस न तो वैज्ञानिक था औऱ न ही आध्यात्मिक। सामान्य व्यक्ति था। उसे न तो पीनियल ग्रंथि का ज्ञान था न ही आज्ञा चक्र का। अतीन्द्रिय शक्तियों यानी साइकिक पावर्स के बारे में पढ़ा भर था। प्राचीन काल के वैज्ञानिक संतों की माने तो बिना यौगिक क्रियाओं के भी कई लोगों की कुंडलिनी जागृत होती है। पूर्व जन्म के संचित संस्कार के उभर आने से ऐसा होता है। टेड सेरियोस के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह हजारो मील दूर की घटनाओं को न केवल देख-सुन सकता था, बल्कि उसकी आंखें कैमरे की तरह उस घटना को कैद करने में सक्षम थीं। आंख की उन तस्वीरों को कैमरे में ट्रांसफर करके उसका प्रिंट लिया जा सकता था। वह हजारो किलोमीटर दूर के भी जिस किसी वस्तु का ध्यान करता था, उसका प्रतिबिंब उसकी आंखों में बन जाता था। यह न तो सम्मोहन का कमाल होता था और न ही फोटोग्राफी की कोई ट्रिक।

अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अति मानवीय चेतना संबंधी शोध करने वाली संस्था इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च की उपाध्यक्ष पालिन ओहलर और वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों व बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में टेड सेरियोस ने ऐसे कई कारनामे कर दिखाए तो तहलका मच गया। इस घटना से एक साल पहले यानी सन् 1962 में टेड सेरियोस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। उसे उस नक्शे के आधार पर कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पनिक चित्र उतारने को कहा गया। टेड सेरियोस ने फटाफट दो चित्र बना डाले। उनके बारे में तहकीकात की गई तो पता चला कि वे फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने-ए-आम के मानसिक चित्र थे। श्रीमद्भगवतगीता में संजय की दिव्य-दृष्टि के बारे में तो हम सब जानते ही हैं। वह तो सैकड़ों किलो मीटर दूर बैठकर कुरूक्षेत्र के युद्ध का आंखो देखा हाल ऐसा बयां करते जा रहा था मानों उसकी आंखों के सामने क्लोज सर्किट टीवी लगा हो। यह बात कई लोगों को कपोल-कल्पना लग सकती है। पर ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं, जो इस युग में घटित हुए।

इतिहास के पन्ने ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा कुछ खास नहीं थी। पर अतीन्द्रिय शक्तियां ऐसी थी कि उनके सामने बड़े-बड़े ज्ञानी भी पानी भरते थे। अमेरिका का विलियम पॉवेल लीयर पढ़ा-लिखा कुछ खास नहीं था। उसने अपना जीवन चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के तौर पर शुरू किया था। पर वह अपने दफ्तर में लोगों को बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बात करते सुनता तो उसे ऐसा लगता था कि मानो इसके बारे में वह पहले भी सुन रखा है। उसने अवचेतन मन की बातें योग के जरिए चेतन तल पर लाने की ठानी। नतीजतन, उसका जीवन बदल गया। उसने बैटरी एलिमिनेटर का भी आविष्कार किया। 8-ट्रैक कारतूस और एक ऑडियो टेप सिस्टम विकसित किया। बाद में जेट बनाने लगा। उसकी इन उपलब्धियों से अवाक् “लॉस एंजलिस टाइम्स” के प्रथम संपादक डिग्बी डायल, जिनकी सन् 2017 में मृत्यु हो गई, ने विलियम पॉवेल लीयर का इंटरव्यू किया तो अमेरिका में तहलका मच गया। उसने बताया कि अतीन्द्रिय शक्ति जागृत होने के बाद उसे दिशा मिलने लगी और क्षमता का विकास हुआ। यही उसकी सफलता का राज है। 

मन पर हो रहे अध्ययनों से साबित हुआ है कि वह एक ऐंटेना या रेडियो के समान है, जो समस्वरित होता है तो अचानक किसी ऐसे केंद्र से जुड़ जाता है, जहां की बातें मानस पटल पर आ जाती हैं। जब तरंग संयोजक क्षीण होता है तो उस केंद्र से संपर्क करना मुश्किल होता है। आत्मा या अतीन्द्रिय भौतिक चीज नहीं, जिसे देखा जा सके। इसका स्वरूप अनुभव ही होता है। अनेक देशों की सेना आधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग किए बिना विचारों के संप्रेषण की संभावनाओं पर काम कर रही है। नासा अंतरिक्ष में भेजे गए वैज्ञानिकों से विचारों के संप्रेषण के जरिए संबंध बनाने, यहां तक कि उनकी चिकित्सा करने तक की संभावनाओं पर काम कर रहा है। इस काम में पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती भी शामिल हैं।

सोवियत संघ की सेना ने अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रभाव जानने के लिए सबसे पहले मादा खरगोश पर प्रयोग किया था। एक मादा खरगोश को रिसर्च सेंटर में रखा गया। उसके माथे पर इलेक्ट्रोड्स लगा दिए गए। ताकि उसके मानसिक तरंगों की मानिटरिंग की जा सके। उसके आठ बच्चों को समुद्री मार्ग से सैकड़ो किलोमीटर दूर ले जाया गया। वहां उस पर जैसे ही वार किया गया, रिसर्च सेंटर में रखी गई खरगोश विचलित हो उठी। उसके मस्तिष्क पर तीब्र आवृत्ति वाली तरंगे उत्पन्न होने लगीं। इससे साबित हुआ कि जानवरों में भी भावनात्मक संबंध होता है। मानव पर अतीन्द्रिय शक्ति का असर तो अक्सर देखने को मिलता है। कोई बच्चा दूर देश में गंभीर रूप से बीमार होता है और इधर उसकी मां की अतीन्द्रिय शक्ति उस समय मामूली रूप से भी सक्रिय होती है तो उसके मन में तरंग उठता है और किसी अनिष्ट की आशंका से मन विचलित हो उठता है।

दरअसल, शरीर की मुख्य तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन आज्ञा चक्र में होता है। योगियों का मानना है कि पीनियल ग्रंथि का आज्ञा चक्र से निकट संबंध है। यह अंतर्ज्ञान के क्षेत्र है। इसलिए आज्ञा चक्र को जागृत करने के किसी भी उपाय से पीनियल ग्रंथि भी प्रभावित होता है। विज्ञान साबित कर चुका है कि आमतौर पर मस्तिष्क के दस में से एक भाग ही सही तरीके से काम करता है। शेष नौ भाग सुषुप्तावस्था में होता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस बात की व्याख्या कुछ ऐसे करते थे – मस्तिष्क का क्रियाशील भाग तो इड़ा और पिंगला की शक्ति से काम करता है। पर शेष नौ भागों में केवल पिंगला की ही शक्ति मिलती है। पिंगल जीवन है और इड़ा चेतना। यदि कोई व्यक्ति जीवित हो और वह सोचने में असमर्थ हो तो यही कहा जाएगा कि उसमें प्राण-शक्ति तो है, किन्तु मनस शक्ति नहीं है। यही स्थिति मस्तिष्क के निष्क्रिय हिस्से की होती है। उसमें प्राण तो होता है, किन्तु मनस शक्ति नहीं होती।

योग से संबंधित अतीन्द्रिय पक्षों पर सोवियत संघ की दो महिला मनोवैज्ञानिकों शीला ओस्ट्रांडेर और लिन्न श्रोएडर ने सत्तर के दशक में ही एक पुस्तक लिखी थी – “साइकिक डिस्कवरीज बिहाइंड द आयरन कर्टेन।“ इसके बाद तो दुनिया भर में इस विषय पर सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जो अनुसंधानों पर आधारित हैं। ज्यादातर पुस्तकों में अतीन्द्रिय शक्तियों को टेलीपैथी या टेलीसाइकिक्स बताते हुए व्याख्या की हैं। भारत के योग रिसर्च फाउंडेशन ने दुनिया के कई देशों के साथ मिलकर इस विषय पर अध्ययन किया। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अध्ययन के नतीजों की व्याख्या की है। उनके मुताबिक, पंचमहाभूतों में एक होता है आकाश तत्व। उसी में अग्नि तत्व व्याप्त होता है, जिस तेज या ऊर्जा कहते हैं। आदमी जो भी कर्म या विचार करता है, उसका स्पंदन वायुमंडल के द्वारा आकाश तत्व में फैलता है। ठीक वैसे ही जैसे पानी में पत्थर फेंकने पर तरंगें उत्पन्न होती हैं। यदि कोई व्यक्ति या यंत्र उन स्पंदनों को पकड़ने में सक्षम है तो वह जान सकता है कि उन स्पंदनों के मूल में कौन से विचार हैं। इसे ही टेलीपैथी कहते हैं। पर उसी स्पंदन को चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में ग्रहण कर एक रूप दिया जाता है तो जो हो रहा है या अतीत में जो हुआ उसे अंतर्दृष्टि से स्पष्ट रूप से देखने की शक्ति मिल जाती है। इसे कहते हैं दिव्य-दृष्टि। जिस प्रकार एक तरंग का रूप परिवर्तित होने से हम दूर के दृश्यों और आवाज को टेलीविजन पर देख-सुन पाते हैं। उसी तरह योग की परंपरा में कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी सहायता से तृतीय नेत्र को जागृत किया जा सकता है। इससे पदार्थ, नाम और रूप को देखने वाली दृष्टि अतीन्द्रिय दृष्टि में बदल जाती है। उन्हीं उपायों में एक है नाड़ी शोधन प्राणायाम।

आधुनिक विज्ञान से उलट तंत्र शास्त्र के मुताबिक मस्तिष्क छह भागों में विभक्त है और उनकी अलग-अलग शक्तियां होती हैं। उन्हीं शक्तियों में एक है अतीन्द्रिय शक्ति। हम सब अनुभव करते हैं कि कोई आदमी किसी विषय में प्रखर होता है तो कोई किसी विषय में। इसकी वजह ये शक्तियां ही होती हैं। योग साधक हों या प्रतिभा के विकास के आकांक्षी छात्र, आज्ञा चक्र उनके लिए काफी मायने रखता है। चक्र साधना का प्रवेश द्वार ही आज्ञा चक्र को माना जाता है। उसे साधे बिना बाकी चक्रों की साधना दुष्कर होता है। आम आदमी विशेष रूप से छात्रों के आज्ञा चक्र के जागृत रहने से चेतना का रूपांतरण होता है और बुद्धि प्रखर होती है। दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं का आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील होता है। इसलिए वे अधिक सूक्ष्म, संवेदनशील और ग्रहणशील होती हैं। नतीजतन, घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाती है। पर छात्रों के मामले में यौगिक अभ्यासों की बदौलत आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील रहने से पीनियल ग्रंथि और उससे जुड़ी पिट्यूटरी आदि ग्रंथियां स्वस्थ रहती हैं तो प्रतिभा का समुचित विकास होता है।

दूसरी तरफ, अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। नतीजतन, प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पता। नाड़ी शोधन प्राणायाम का अंत:स्रावी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।

योग शास्त्र के मुताबिक, प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है सुषुम्ना नाड़ी को जगाना। कुंभक यानी श्वास अधिक समय तक रोकने के अभ्यास से तो इसमें सफलता मिलती ही है, एक नाक से श्वास लेने औऱ दूसरे से छोड़ देने की क्रिया से भी सुषुम्ना को जागृत करना संभव है। पर यह तभी संभव है जब श्वास अधिक लंबा, गहरा होगा। यदि अभ्यास करके पंद्रह सेकेंड में श्वास लेना और उतनी देरी में छोड़ना संभव हुआ तो जीवन में क्रांतिकारी बदलाव संभव है। इसलिए कि मूलाधार चक्र में माया का आवरण ओढ़कर चिर निद्रा में सोई सुषुम्ना शक्ति जागृत होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है तो सामान्य लोगों को स्वस्थ्य काया मिलती है, प्रतिभा का विकास होता है। पर आध्यात्मिक लोगों के मामले में जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। इन तथ्यों के आलोक में बच्चों को आठ साल की उम्र से ही नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास कराने के फायदों को समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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