कैवल्यधाम, योग परंपारा और विज्ञान का संगम

किशोर कुमार

महाराष्ट्र के योगी स्वामी कुवल्यानंद यौगिक क्रियाओं से मिलने वाले परिणामों को विज्ञान की कसौटी पर भी सिद्ध करके भारत के साथ ही पश्चिमी देशों में भी ख्याति अर्जित कर रहे थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को खुद ही कुवल्यानंद जी के योगाश्रम कैवल्यधाम में जाकर उनकी उपलब्धियों का साक्षी बनना चाहते थे। लिहाजा वे महाराष्ट्र के लोनावाला पहुंच गए, जहां कैवल्यधाम आकार ले रहा था। वे स्वामी जी की उपलब्धियों से बेहद खुश हुए। पर तुरंत ही उन पर संशय के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। दरअसल, उन्हें आश्रम में पता चला कि स्वामी जी को अमेरिका में रहने के न्यौते मिल रहे हैं। नेहरू जी नहीं चाहते थे कि भारत में योग परंपरा और विज्ञान का मिलन कराने वाले स्वामी कुवल्यानंद विदेश की धरती पर रच-बस जाएं। उन्होंने अपने मन के इस बात को न छिपाते हुए तुरंत ही स्वामी जी से आग्रह किया, आपको जो सुविधाएं चाहिए, बस मिलेगी। पर भारत छोड़कर मत जाइएगा। राष्ट्रवादी सोच वाले स्वामी कुवल्यानंद ने नेहरू जी को आश्वस्त किया कि वे अपने वतन को छोड़कर कहीं नहीं जा रहे हैं। हां, भारतीय योग का सुगंध विदेशों तक पहुंचे, वह यह जरूर चाहते हैं।

यह सुखद है कि स्वामी कुवल्यानंद जी का संकल्प फलीभूत हो चुका है। बीसवीं सदी के उस महान योगी ने दैवीय प्रेरणा और गुरू के आदेश पर जिस कैवल्यधाम रूपी योग मंदिर को अपने खून-पसीने से सींचा था, अब वह नित नई ऊंचाइयां छू रहा है। कैवल्यधाम के एक सौ साल पूरे होने पर देश-दुनिया के लोगों ने देखा कि जिस तरह दूध में शहद घुल-मिल जाता है, उसी तरह उस योग मंदिर में योग की परंपरा और विज्ञान का मिलन हो चुका है। दो दिनों पहले ही कैवल्यधाम के सौ साल पूरे होने पर एक तरफ भव्य शताब्दी समारोह का आयोजन करके जश्न तो मनाया गया, तो दूसरी तरफ शताब्दी वर्ष में स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण संबंधी स्वामी जी के सपने को प्रभावी ढंग से साकार करने का संकल्प भी लिया गया।   

योग विश्व समुदाय को दिया गया भारत का अमूल्य उपहार है। 2015 से हर वर्ष विश्व के अधिकांश देशों में योग दिवस मनाया जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया था कि योग पद्धति स्वास्थ्य व कल्याण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है और पूरे विश्व समुदाय के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। योग का लाभ बच्चों और हमारी युवा पीढ़ी तक पहुंचाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित योग विद्या को शिक्षण व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। योग व्यक्ति के समग्र विकास का मार्ग है। इसे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रभावी साधन माना जाता है। व्यापक शोध और परीक्षण के बाद हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह स्थापित किया कि योग का निरंतर अभ्यास कैवल्य प्राप्त करने में सहायक है। उन्होंने कहा कि 20वीं सदी में स्वामी कुवलयानंद जी जैसे महान व्यक्तित्वों ने योग प्रणाली के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उपयोगिता को प्रचारित किया। स्वामी कुवलयानंद जी विद्यालयों में योग शिक्षा के प्रसार को काफी महत्व देते थे। उम्मीद है कि ‘कैवल्यधाम’ योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित करेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवाओं को समग्र विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाता रहेगा। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, राष्ट्रपति, भारत

स्वामी कुवल्यानंद ने स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण का सपना नौ दशक पहले देखा था। तब उनकी बातें किसी को भी अटपटी लगी रही होगी। पर अब कहना होगा कि उन्होंने अपनी दिव्य-दृष्टि से भांप लिया था कि भविष्य की चुनौतियां क्या होंगी और उनका समाधान किस विधि संभव है। संयोग देखिए कि वह समय भी आ गया जब प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने योग को दुनिया भर में प्रचारित करने के लिए कमर कस ली। उनका ध्यान बरबस ही इस बात की ओर भी गया कि भारत के योगी क्यों कहते रहे हैं कि प्रथमत: स्कूली बच्चों के लिए है और योगमय जीवन की शुरूआत वहां से होनी चाहिए। उन्हें इसका मर्म समझते देर न लगी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में योग को शामिल कर दिया। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि कैवल्यधाम के योगाचर्यों ने अपने गुरू स्वामी कुवल्यानंद के सपने को साकार करने का जो बीड़ा उठाया है, वह समयानुकूल है।     

कैवल्यधाम के शताब्दी वर्ष समारोह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने ठीक ही कहा, योग विश्व समुदाय को भारत का अमूल्य उपहार है। स्वामी कुवलयानंद जी स्कूलों में योग शिक्षा के प्रसार को बहुत महत्व देते थे। आज भी उनका सींचा हुआ पौधा यानी कैवल्यधाम संस्थान और उसके द्वारा संचालित स्कूल कैवल्य विद्या निकेतन व अन्य शिक्षण संस्थान प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं। मुझे विश्वास है कि ‘कैवल्यधाम’ में योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित होता रहेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवा समग्र विकास के पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे। महामहिम राष्ट्रपति को कैवल्यधाम की ओर से भी आश्वस्त किया गया कि योग परंपरा और विज्ञान का संगम पूर्व की तरह अविरल प्रवाहित होता रहेगा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है, बल्कि हकीकत बन चुकी है। सच है कि कैवल्यधाम परंपरा के अग्रणी योगी ओमप्रकाश तिवारी के नेतृत्व में स्वामी कुवल्यानंद की परंपरा तेजी से विस्तार पा रही है।

स्वामी कुवल्यानंद आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। इस तरह उन्होंने योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं।

यह तो हुई कैवल्यधाम और स्वामी कुवल्यानंद जी की बात। अब समझिए कि बच्चों के लिए योग पर इतनी जोर क्यों है? बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ ही ग्रंथियों में व्यापाक बदलाव होते हैं। अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद दोनों भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। पीनियल और पिट्यूटरी, इन दोनों ग्रंथियों का परस्पर गहन संबंध है। सच कहिए तो पीनियल ग्रंथि पिट्यूटरी ग्रंथि के लिए ताला का काम करती है। ताला खुलते ही पिट्यूटरी अनियंत्रित होती है औऱ बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं।

इसलिए बच्चों की प्रतिभावान बनाने से लेकर चरित्र-निर्माण तक को ध्यान में रखते हुए स्वामी कुवल्यानंद से लेकर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक बच्चों की योग शिक्षा पर खासा जोर देते रहे हैं। भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। स्वामी कुवल्यानंद उन्हीं में से एक थे। कैवल्यधाम के रूप में उनकी फुलवारी की खुशबू दूर-दूर तक फैलती रहे, शताब्दी वर्ष में यही कामना है।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत मीराबाई हर युग में, हर काल में प्रासंगिक

किशोर कुमार

संत मीराबाई प्रासंगिक थीं, हैं और रहेंगी भी। अच्छा है कि उनकी 525वीं जयंती बड़े पैमाने पर मनाई जा रही है और उनकी स्मृति में डाक टिकट और सिक्के जारी किए गए हैं। वैसे भी, महान संतों की स्मृति में डाक टिकट जारी करने, सिक्के जारी करने का रिवाज पुराना है और यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। संत मीराबाई के जीवन से केवल कृष्ण-भक्ति के ही संदेश नहीं मिलते, बल्कि मीरा नाम तो बड़प्पन, ज्ञान, भारतीय संस्कृति, साहस, पवित्रता, सेवा, बलिदान और सबसे बढ़कर, समर्पण व भक्ति का एक शक्तिशाली प्रतीक है। ऐसे में आधुनिक युग के युवाओं के चरित्र-निर्माण के लिहाज से वे ज्यादा ही प्रासंगिक हैं। इसलिए उनके आदर्शों को वैज्ञानिक तरीके से और आज के संदर्भ में प्रस्तुत करना होगा।

देश ने बीते 25 नवंबर को साधु थानवरदास लीलाराम वासवानी को उनकी जयंती पर याद किया। वे एक ऐसे भारतीय शिक्षाविद् थे, जिन्होंने शिक्षा में मीरा आंदोलन का शंखनाद किया था। उन्होंने सन् 1932 में सिंध प्रांत में मीरा स्कूल की स्थापना की थी, जो एक मॉडल संस्थान था। वे चाहते थे कि वह स्कूल विश्वविद्यालय का शक्ल ले ले। पर विभाजन की ज्वाला में वह योजना जलकर भस्म हो गई थी। महाराष्ट्र में मीरा आंदोलन शून्य से शुरू करना पड़ा था। अनेक मीरा स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए। इन शिक्षण संस्थानों का असल मकसद औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था। समय के साथ ही परिस्थितियां बदली हैं। आज आलम यह है कि मीरा के पद की बात हो तो कई छात्रों को फिल्मी गाने की याद आती है – के पग घुँघरू बाँध, मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँगरू के…। यह बेहद चिंताजनक है। इसलिए मौजूदा समय में इस आंदोलन को आगे बढ़ाना ही साधु वासवानी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। केवल “नो नानवेज डे”, जैसा कि 25 नवंबर को उत्तर प्रदेश में मनाया गया, पर्याप्त नहीं है।  

संत मीराबाई भक्तिकाल की दैवीय शक्ति से परिपूर्ण विलक्षण योगिनी थीं। पर उनकी जीवनी आधुनिक युग के लिए भी प्रेरणा का प्रकाश-पुंज है। जरा सोचिए, आदियोगी शिव की तरह हलक में जहर उतार ले और बाल बांका भी न हो, यह कोई साधारण बात है। ससुराल वालों ने इसके पहले भी कम प्रताड़ित न किया था। उन्हें लगभग वैसी ही यातनाएं दी गईं जितनी प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु दिया करते थे। श्रीकृष्ण ने जैसे प्रह्लाद की रक्षा की वैसे ही मीरा के पक्ष में भी सदैव खड़े रहे। तभी संत मीराबाई के जीवन की कई घटनाएं आम समझ से चमत्कार से कम नहीं जान पड़ती हैं। एक बार राणा ने मीरा के पास टोकरी में एक नाग भेजा और संदेश दिया कि इसमें फूलों की माला है। मीरा स्नान करके पूजा करने बैठ गईं। अपना ध्यान समाप्त करने के बाद, टोकरी खोला तो अंदर श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और फूलों की एक माला थी। राणा ने मीरा को सोने के लिए कीलों का एक बिस्तर भेजा। मीरा ने अपनी पूजा समाप्त की और कीलों के बिस्तर पर सो गईं। लो! कीलों का बिस्तर गुलाब के फूलों के बिस्तर में तब्दील हो गया था।

इस वैज्ञानिक युग में ये शास्त्रसम्मत कथाएं हमें काल्पनिक लग सकती हैं। पर आधुनिक युग में भी कई ऐसे संत हुए, जिनके कारनामें विज्ञान के लिए चुनौती बनी रह गई हैं। बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। तब बच्चे बड़ों से पूछेंगे कि मीराबाई जहर पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं? यह सुखद है कि भक्ति विज्ञान और मीराबाई की आध्यात्मिक शक्ति के रहस्यों पर देश-दुनिया में लगातार शोध किए जा रहे हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पांच दशक पहले जो बातें कही थीं, उसकी झलक अब हम सबको भी मिलती दिख रही है। देश-दुनिया में मीराबाई और उनकी भक्ति की शक्ति की प्रबलता व उसके रहस्य को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन किए जा रहे हैं। सच तो यह है कि संपूर्ण भक्ति विज्ञान पर वैज्ञानिक शोधों की दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है। संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। दूसरी तरफ मीराबाई का जीवन से प्रेरणा लेते हुए मौजूदा शिक्षा प्रणाली को समृद्ध बनाने के लिए सुगबुगाहट शुरू है।

इसमें दो मत नहीं कि मीराबाई हमारे देश के सितारों से भरे आध्यात्मिक आकाश में सबसे चमकीले सितारों में से एक हैं। वह ज्ञानी हैं, दार्शनिक हैं औऱ रहस्यवादिनी हैं। उनके पदों में वैसा ज्ञान, दर्शन और रहस्यों का प्रस्फुटन हुआ है, वैसा संत कबीर की रचनाओं को छोड़कर शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। मीराबाई के पूर्व जन्म का संस्कार ही था कि वे बाल्यावस्था से गिरिधर गोपल की भक्त बन गई थीं। और संचित कर्मों के बिना पर उनकी भक्ति की शक्ति थी कि तमाम झंझावातों से निकलकर अमर हो गईं।

उनके पूर्व जन्म की बात कुछ लोगों को कपोल कल्पना लग सकती है। वैसे भारतीय वांग्यमय में पुनर्जन्म के हजारों उदाहरण मिलते हैं। जैसे, शिव-पार्वती व विष्णु अवतारों के साथ ही काक भुशुण्डी जी की कहानी सर्वाधिक प्रचलित है। मीराबाई को भी श्रीकृष्ण की गोपियों में एक और श्रीराधा की सहेली बतलाया गया है। इसे सच न मानने का कोई आधार नहीं है। पर इन विवादों में न भी पड़ा जाए तो उनके जीवन मिलने वाले संदेश मूल्यवान हैं। उनकी 525वीं जयंती पर आयोजित भव्य कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है, जब संत मीराबाई की शिक्षाएं आंदोलन का स्वरूप ले ले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कोरोना महामारी के बाद प्राण चिकित्सा की बढ़ती अनिवार्यता

किशोर कुमार

प्राणायाम आध्यात्मिक जीवन के साथ ही स्वस्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है। शरीर के सारे अंग अपना काम तभी सही तरह से करें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें नियमित रूप से ऑक्सीजन युक्त खून की पूर्ति होती रहे। पर यह काम तभी संभव हो पाता है जब दिल और फेफड़े स्वस्थ्य होते हैं। कोरोनाकाल की घटना याद होगी कि चिकित्सकों की सलाह पर हम सब ब्रेथ होल्डिंग एक्सरसाइज करने लगे थे। कोई तीस सेकेंड तक श्वास रूका रह जाता था तो समझ लेते थे कि फेफड़ा स्वस्थ्य है। पर मौजूदा समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं जिस तेजी बढ़ी हैं, मानव स्वास्थ्य को खतरा भी उतनी ही तेजी से बढा है। यूं तो इस संकट से उबरने के लिए खान-पान और रहन-सहन से लेकर कई स्तरों पर एहतियात बरतने की जरूरत है। पर प्राणायाम की शक्ति ऐसी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।  

विश्व विख्यात वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन के बारे में तो हम जानते ही हैं। मांसपेशियों के दर्द से परेशान थे। इलाज के लिए दुनिया के अनेक भागों में गए। पर राहत न मिली। तभी उन्हें दक्षिण भारतीय योगगुरू बीके सुंदरराज आयंगार के बारे में पता चला। चलने-फिरने से लगभग लाचार होने के बावजूद मेनुहिन सात घंटे की यात्रा तय करके आयंगार की शरण में पहुंच गए थे। अपनी व्यथा बताई। आयंगार ने योगोपचार शुरू किया तो कम समय में ही बड़ी राहत मिल गई थी।

मेनुहिन योग और आयंगार के दीवाने हो गए। योग के प्रति लगाव ऐसा हुआ कि शीर्षासन तक करने लगे। बात जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने मेनुहिन को अपने सामने शीर्षासन करने की चुनौती दी। इसलिए कि उन्हें शायद खबरों पर यकीन नहीं था। मेनुहिन ने चुटकी बजाते शीर्षासन कर दिखाया। इससे नेहरू जी इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने भी शीर्षासन करके दिखा दिया। यह घटना भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनी थी। इसके साथ ही बीकेएस आयंगार की कीर्ति दुनिया भर में फैल गई थी। वे मेनुहिन के आग्रह पर इंग्लैंड गए और जल्दी ही यूरोपीय देशों में छा गए थे।

यह प्रसंग जानने के बाद किसी को भी सहज उत्सुकता होगी कि आखिर हठयोगी आयंगार ने ऐसा कौन-सा जादू किया होगा। अब तक उनकी जितनी भी पुस्तकें पढ़ी है, किसी में इस बात का खुलासा नहीं है। आयंगार की चर्चित पुस्तक “लाइट ऑन प्राणायाम” में येहुदी मेनुहिन द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पढ़ी तो लगा कि आसनों के साथ ही प्राणायाम का जादू था कि वे इतनी जल्दी रोग मुक्त हो गए थे। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है – “प्राणायाम वायु-संचालन की एक क्रिया है, जो पृथ्वी पर जीवन का निर्धारण करती है। यह वस्तुत: आइंस्टाइन के पदार्थ और ऊर्जा के सिद्धांत को संपूर्णता प्रदान करता है। साथ ही उसे मानव के लिए व्यवहारिक बनाता है।“ कई महीनों की खोज के बाद आखिर एक तस्वीर भी हाथ लगी, जिसमें आयंगार के सामने मेनुहिन नाड़ी शोधन प्राणायाम करता दिख रहा है।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती प्राणायाम के संदर्भ में कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो योगी कुंभक के साथ अपने हाथों से उसकी टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने से योगी के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं। वैदिक सिद्धांतों के मुताबिक भी गायत्री मंत्र का जप करते हुए पूरक, रेचक और कुंभक बेहद ताकतवर होता है।

हठयोग के प्रख्यात गुरू बीकेएस आयंगार ने भी कहा है – “प्राणायाम मनुष्य के शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है। साथ ही योग के चक्र की धुरी है। तभी इसे महातपस या ब्रह्मविद्या कहा जाता है।“ आमतौर पर प्राणायाम की तीन-चार विधियां ही प्रचलित हैं। पर इसकी और भी विधियां हैं। उज्जायी, अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, सूर्यभेदन, शीतकारी, शीतली, भस्त्रिका, कपालभाति, भस्त्रिका, भ्रामरी, नाड़ी शोधन आदि। इन विधियों की भी कई उप विधियां या अवस्थाएं हैं। नाड़ी शोधन और कपालभाति पर कई अनुसंधान हो चुके हैं। प्राणायाम के रहस्यों पर से जैसे-जैसे पर्दा उठ रहा है, उसको देखते हुए आने वाले समय में यह हठयोग से इत्तर एक स्वतंत्र विषय बन जाए तो हैरानी न होगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। प्राणायाम से नाड़ी मंडल में संतुलन बना और मस्तिष्क केंद्रों की खतरनाक क्षतिकारक प्रतिक्रिया नियंत्रित हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहेवियरल हेल्थ एंड एलाइड साइंसेज, भोपाल और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने किशोरवय के छात्रों की आक्रमकता पर कपालभाति के प्रभाव का अध्ययन किया है। इसका नतीजा है कि योग की यह क्रिया आक्रमकता पर काबू पाने में बेहद प्रभावी है। पतंजलि योग अनुसंधान संस्थान ने भी कपालभाति में काफी काम किया है। हालांकि कलापभाति को लेकर विवाद भी पुराना है कि यह प्राणायाम है या शोधन-क्रिया। पर इसे व्यापक रूप से प्राणायाम का हिस्सा माना जा चुका है।

प्राणायाम के महत्व का अंदाज इस बात से भी लगा सकते हैं कि ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। वे केवल और केवल प्राणायाम करते हैं। समय की मांग है कि प्राणायाम साधना को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्री दुर्गासप्तशती : श्लोकों में छिपे गूढ़तम प्रयोग  

किशोर कुमार //

मौका नवरात्रि का है इसलिए इस लेख में मुख्यत: दुर्गा शप्तशती और मंत्रयोग की बात। इस विश्लेषण के जरिए  जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।

हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने भी अनुभव किया कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है।

श्री दुर्गाशप्तशती सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। नवरात्रि के समय में मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती का पाठ किया जाता है। यही दुर्गासपत्शती है। इसमें हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि…. जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं।

असंयमित जीवन-पद्धति के कारण मानव के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं उपस्थित होती रहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि मानसिक रोगियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदिशक्ति की मंत्रो के साथ आराधना का मानसिक स्तर पर भी व्यापक असर होना है। आध्यात्मिक चिकित्सकों के प्रायोगिक अनुभव का सार हैं कि दुर्गासप्तशती के कथा भाग से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण इसके मंत्र प्रयोग हैं, जिन्हें यदि कोई सविधि सम्पन्न कर सके तो जिन्दगी की हवाएँ और फिजाएँ बदली जा सकती है।

नवरात्रि का संदेश पवित्रता, प्रचुरता और ज्ञान का आह्वान है। जहां ज्ञान और सद्गुण मिलकर जीवन में प्रकट होते हैं, वहां हमें दिव्य जीवन मिलता है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

राजयोग की शक्ति, अवसाद से मुक्ति

किशोर कुमार

संत कबीर ने कहा है, चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। दरअसल, कबीर ने शाश्वत सत्य को ही फिर से उद्घाटित किया था। वैदिक ग्रंथों में तो दु:ख और चिंता के दुष्परिणामों को लेकर कितनी ही बातें कही गई हैं। गरूड़ पुराण में चिंता को चिता के समान बतलाया गया है। पर साथ ही वैदिक ग्रंथों में समाधान भी दिया गया है कि इसके पार कैसे जाया जा सकता है। अब तो आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश, हताशा और दु:ख एक ही आधार से उपजे रोग हैं और वैदिककालीन योग ग्रंथों में बतलाए गए उपाय बड़े काम के हैं।

भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में चिंता और अवसाद की समस्याओं पर बड़े-बड़े शोध हुए। ज्यादातर शोधों के परिणाम उन यौगिक उपायों के पक्ष में हैं। इतना ही नहीं, कई बार तो पश्चिम के वैज्ञानिक चौंकते हैं कि सर्जरी किए बिना आखिर योगियों को शरीर की अंदरूनी संरचना के बारे में ज्ञान कैसे हुआ कि मर्ज की दवा भी बतला दी? सच है कि रूद्रयामल तंत्र में शिव-पार्वती संवाद से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्र तक में आध्यात्मिक उत्थान के उपायों के साथ ही शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से निजात पाने के उपायों पर व्यापक चर्चा है।

श्रीमद्भगवतगीता का महल तो अर्जुन के विषाद की बुनियाद पर ही खड़ा है। पर कोरोनाकाल के बाद आम लोगों का विषाद और उसके परिणाम अलग हैं। इस विषाद, इसके परिणाम और इससे मुक्ति के उपायों पर महर्षि पतंजलि का काम अद्वितीय है। उन्होंने अपने योगसूत्रों के जरिए गागर में सागर भर दिया है। वे कहते है कि रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि विक्षेप से हमारी आंतरिक ऊर्जा का लयात्मक ढंग बदल जाता है और बेचैनी शुरू हो जाती है। बेचैनी लगातार बनी रहे तो नाना प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग प्रकट होते हैं। 

महर्षि पतंजलि इस स्थिति से उबरने के लिए जो तीन सूत्र देते हैं, वे ही मन के प्रबंधन के लिए यौगिक उपायों की बुनियाद बनते हैं। इनमें पहला सूत्र है – अथ योगानुसाशनम्। यानी योग एक व्यवस्था है, अनुशासन है और इसका आधार है – यम और नियम। यम से उनका अभिप्राय है स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देने से है। इसे आत्म—संयम भी कह सकते हैं। सच है कि हमने ऐसे जीवन की शुरूआत कर दी, जो विपरीत दिशाओं में गति करता हो, तो बात बिगड़ेगी ही। इसी तरह जीवन में सुनिश्चित नियमन रहे। जैसे, सत्य का धारण करते हुए सत्कर्मों से जो भी फल मिले उसी से संतोष रहे तो जीवन खुशनुमा हो ही जाएगा। इसे ही नियम कहते हैं।  यम-नियम के साथ योग शिक्षा बच्चों को दी जाए तो उनके जीवन में नया विहान होते दे न लगेगी।

इसलिए महर्षि पतंजलि ने एक सूत्र के जरिए समझाया कि योगानुशासन का परिणाम क्या होना है।  वे कहते हैं – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होगा। जब हम सिनेमा घर में फिल्म देखते रहते हैं तो पर्दे पर प्रेक्षेपित चलचित्र मन मोह लेता है। जहां स्क्रीन के सिवा कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ घटित होता दिखता है। हालात ऐसे बनते हैं कि हम अपने आप को कुछ घंटों के लिए भूल जाते हैं। ओशो कहते हैं कि जो कुछ सिनेमा घर में घटित हो रहा था, मनुष्य के भीतर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पा‌र्श्व-भूमि में है, जिसे अचेतन कहते हैं। इस अचेतन में संग्रहीत वृत्तियां, वासनाएं, संस्कार चित्त के परदे पर प्रक्षेपित होते रहते हैं। यह चित्त-वृत्तियों का प्रवाह प्रतिक्षण बिना विराम चलता रहता है। चेतना दर्शक है, साक्षी है। वह इस वृत्ति-चित्रों के प्रवाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है। इस अज्ञान से जागना चित्त-वृत्तियों के निरोध है। महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को ही योग कहा है।

सवाल फिर भी रह जाता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध होने से क्या होगा? तब महर्षि पतंजलि सूत्र देते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही सिनेमा हॉल में फिल्म खत्म होने के बाद जो भ्रम टूटा था और स्वयं के होने का अहसास हुआ था, वैसे ही जीवन से भ्रांतियां दूर होंगी। योग सध जाएगा। आत्म-साक्षातकार होगा। स्वंय को जान पाएंगे। सवाल है कि शुरूआत कहां से की जाए। सच है कि मौजूदा समय में लोगों का लक्ष्य योग-साधना का उच्चतर परिणाम पाना शायद ही होगा। पर शरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए चित्तवृत्तियों के निरोध की दिशा में थोड़े यौगिक उपाय भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं। चिंता या तनाव से मुक्ति पाने की राह आसान हो जाएगी। फिर तो नकारात्मक चिंता सकारात्मक चिंता में बदल जाएगी। तब हम चिंता नहीं, चिंतन भी नहीं, बल्कि मनन करने लगेंगे। ऐसे में जाहिर है कि हमारे ईर्द-गिर्द ही उपलब्ध उपाय घुप्प अंधेरे में दीपक बनकर मार्ग प्रशस्त कर देंगे।

योग में तनावों से मुक्ति की व्यापक संभावनाएं विद्यमान हैं। योगशास्त्र की मान्यता है कि सभी बीमारियों की जड़ें शरीर और मन में होती हैं। इसलिए किसी बीमारी का यौगिक उपचार करना हो तो योगी हठयोग और राजयोग की विधियां बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम उतना ही बतलाया, जिससे सजगता का विकास करके मन को एकाग्र करने में मदद मिले। उनका कहना है कि आसन ऐसा हो कि शरीर को सुख मिले, आराम मिले। तभी उन्होने कहा – स्‍थिरसुखमासनम्। यानी स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है। और प्राणायाम? वे कहते हैं – प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। यानी रेचक और कुंभक के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे ही हम नाड़ी शोधन प्राणायाम के रूप में जानते हैं।

हमारे शरीर में मुख्यत: तीन नाड़ियां होती हैं – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना तो सुषुप्त नाड़ी है। पर बाकी दो नाड़ियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो शारीरिक बीमारियां प्रकट होती हैं। मनोऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए कि इन बाधाओं का असर शरीर की अन्य नाड़ियों पर भी होती है। इसलिए, शारीरिक व्याधियों को दूर करने से लेकर आध्यात्मिक चेतना के विकास तक में यह बड़े महत्व का होता है। जीवन के ऊहापोह में शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपरोक्त विधियां वाकई बड़े काम के हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग की स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहब की दीवारें

किशोर कुमार

आजादी की 75वीं वर्षगांठ को आजादी के अमृत महोत्सव के तौर पर मनाते हुए सूर्य नमस्कार की अहमियत को भी समझा जाना देश के उज्जवल भविष्य के लिए गहरा और बेहतरीन संदेश है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। यानी सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े की कामना के पीछे मुख्य रूप से योगबल की ही बात है। पर देश पर लगातार विदेशियों के आक्रमण के दौरान आत्मविश्वास खो देने वालों का मिजाज ऐसा बना कि अपनी ही गौरवशाली प्राचीन संस्कृति पर प्रसन्नतापूर्वक आक्षेप करने लगे। कुछ मजहब के नाम पर तो कुछ दास मानसिकता के कारण। यह सुखद है कि राष्ट्रवादी ताकतों के केंद्रीय भूमिका में आते ही ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग हाशिए पर जा रहे हैं। तभी सूर्य नमस्कार के विरोध को तवज्जो नहीं मिल रही है।   

अगले 20 फरवरी 2022 तक आयोजित योगामृत महोत्सव में 75 करोड़ सूर्य नमस्कार का लक्ष्य रखा गया है। निश्चित रूप से योगामृत महोत्सव जन-सामान्य को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिहाज से बेहद उपयोगी साबित होगा। इस बार यह आयोजन ऐसे वक्त में होना है, जब अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले महर्षि महेश योगी की जयंती (12 जनवरी) भी है। इन दोनों महान योगियों को नमन, जिनके यौगिक मंत्रों की अहमियत सर्वकालिक है।

भारत की योग विद्या को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए हमारे ऋषि-मुनि अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत में स्वामी विवेकानंद ने विस्मृत योग विद्या को फिर से दुनिया के सामने उपस्थित किया और महर्षि महेश योगी ने अपने भावातीत ध्यान के जरिए देश का मान बढ़ाया। पर उन्हें इस काम में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। जब यूरोपीय विद्वान बीएम लेजर लैजरियो कह देते कि फलां योग विधि उपयोगी है तो उनकी बातों को पूर्वी देशों के लोग भी मानने को तैयार हो जाते। पर भारतीय ऋषियों को योग विधियों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर बताना पड़ता था।

योग विद्या के जानकार बताते है कि आजादी से पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। पर औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार को विदेशों में लोकप्रियता मिली थी। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सूर्य नमस्कार की वैज्ञानिकता पर पुस्तक लिखी तो मानों मजहब की दीवारें दुनिया भर में गिरने लगीं। लोगों ने अनुभव किया कि समग्रता में योग और उसका अंग सूर्य नमस्कार विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। फिर तो इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा दुराग्रह नहीं रहा। 

भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। कुछ साल पहले ही उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।

वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चुकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।

जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था। तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।

अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।

पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

Elementor #4207

कोविड से उत्पन्न संकट और योग

कुमार कृष्णन
कोविड-19 महामारी से उत्पन्न संकट बहुत बड़ा है और इसके वर्तमान प्रकोप से जनता में तनाव और चिंता बढ़ गई है। कोविड-19 न केवल लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है बल्कि रोगियों और उनके परिवार के सदस्यों के मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। आॅन लाइन क्लासेस का अलग असर बच्चों के बीच देखने को मिल रहे हैं।
रिपोर्टों के अनुसार, कोविड-19 रोगियों के मनोवैज्ञानिक संकट को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और इसका समाधान नहीं किया जाता है। कोविड देखभाल अस्पतालों में चिंता और तीव्र अवसाद के बाद आत्महत्या की भी रिपोर्ट प्राप्त हुई हैं। विभिन्न देशों से प्राप्त समाचारों के अनुसार, कई रोगियों को पृथकवास की चिंता और लक्षणों के बिगड़ने के डर से बड़े संकट का सामना करना पड़ा है। श्वसन संकट, हाइपोक्सिया, थकान और अनिद्रा और अन्य लक्षणों जैसी जटिलताओं को भी देखा गया है।
योग के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का मानना है आनेवाले पांच वर्षों के दौरान मानसिक रोगियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होगी। यह काफी चुनौतिपूर्ण होगा। करोना से ठीक होने के बाद लोगों में मस्तिष्क विकृतियां उत्पन्न हो रही है। इसमें मनोवृत्ति व याददाश्त कमजोर होने की संभावना बनी रहती है। कोरोना के बाद इंसेफ लाइटिस की समस्या भी काफी देखी गई है। कोरोना से ठीक हुए मरीजों के दिमाग में सूजन आ जाती है। साथ ही खून के थक्के जमने की शिकायत भी देखने को मिल रही है। वर्तमान में कोरोना मरीजों के 30 से 35 प्रतिशत में नर्वस सिस्टम संबंधी लक्षण देखने को मिल रहे हैं।
करोना के बाद दिमाग में ब्लड क्लोटिंग होने और इससे स्ट्रोक भी समस्या कई कोरोना के मरीजों में देखने को मिल रही है।शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली नसों पर हमला करती है, इससे कमजोरी, सुन्नपन, झनझनाहट और पैरालाइसिस का खतरा बढ़ जाता है। कोरोना से ठीक हुए मरीजों में कई तरह के साइड इफेक्ट देखे जा रहे हैं। जिन पर शोध भी किया जा रहा है। कोरोना संक्रमण को मात दे चुके 40 प्रतिशत लोग अब अनिंद्रा की समस्या से जूझ रहे हैं। अनिद्रा की समस्या उम्रदराज लोगों के साथ ही युवाओं में भी नजर आ रही है। कुछ लोगों को समय पर नींद नहीं आ रही है तो कुछ लोगों की नींद सोने के थोड़ी देर बाद ही बाद ही खुल जाती है, वहीं कुछ लोगों की नींद सुबह जल्दी खुल जाती है। अनिद्रा की समस्या से जूझ रहे लोग अब मनोरोग विशेषज्ञों की मदद ले रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि समय रहते अनिद्रा की समस्या का निदान नहीं किया जाए तो न केवल सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, कब्ज जैसी ही समस्याएं हो जाती हैं। कई लोगों में हाइपरटेंशन, कार्डियक डिसआर्डर, चयापचय तंत्र और रोग प्रतिरोधक क्षमता बिगड़ने संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं।
योग के हस्तक्षेप ने कोविड-19 रोगियों को ठीक करने में सहायता प्रदान की है। श्वांस लेने के सरल प्राणायाम को महामारी के लक्षण वाले रोगियों और श्वसन संकट वाले लोगों में एसपीओ 2 के स्तर को बढ़ाने के लिए सहायक के रूप में देखा गया है।
परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार योग में जिस भुजंगासन का अभ्यास कराया जाता है।करोनाकाल में चिकित्सकों ने श्वसनतंत्र को ठीक करने के लिए चिकित्सकीय परामर्श दिए।उसका काफी लाभ मिला। दरअसल में भुजंगासन से करने से छाती वाला हिस्सा खुलता है और फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।आप देखें तो पूरे करोनाकाल में योग ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।अब चिकित्सा के क्षेत्र में योग के एक एक आसनों पर पर शोध हो रहे हैं। बिहार योग पद्धति यानी सत्यानंद योग पद्धति का स्वरूप बहुत विस्तृत है और इसकी पहुंच बहुत गहरी है।योगनिद्रा और प्राणायाम,सत्यानंद योग पद्धति के अभिन्न अंग हैं। आज पूरे विश्व में करोड़ों लोग डिप्रेशन की बीमारी से जूझ रहे हैं। डिप्रेशन के चलते युवाओं खुदकुशी की प्रवृति बढ़ी है। योग उन बीमारियों का सीधा उपचार करता है जिसका मूल कारण तो मनोवैज्ञानिक होता है, लेकिन शरीर सीधा कुप्रभाव पड़ता है। सत्यानंद योग में उदर श्वसन प्रक्रिया है। सोने से पहले और नींद से उठने के तुरंत बाद उदर श्वसन दस मिनट किया जा सकता है। श्वांस की गति तेज हो तो इसे अपनाया जा सकता है। भ्रामरी प्राणायाम, जिसमें कंठ से भौरे जैसा गुंजन पैदा किया जाता है। भ्रामरी प्राणायाम के अभ्यास से मस्तिष्क में एक प्रकार की तरंग उत्पन्न होती है जिससे मस्तिष्क, स्नायविक तंत्र और अंत:स्रावी तंत्र के विक्षेप दूर होते हैं और व्यक्ति शांति व संतोष का अनुभव करता है। अनिद्रा की शिकायत दूर होती है।यह डिप्रेशन को दूर करने में कारगर है।परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बताते हैं कि इस प्राणायाम के अभ्यास से नाइट्रिक ऑक्साइड उत्पन्न होता है, जो अनिद्रा को दूर करने में सहायक होता है।वैज्ञानिकों ने तो अब इसका स्प्रे भी तैयार कर लिया है। हमारे ऋषि और मनीषियों ने काफी पहले से अपनाया।नाइट्रिक ऑक्साइड संक्रमण के दौरान फेफड़ों के उच्च दबाव को नियंत्रित करने में बहुत उपयोगी है। नाइट्रिक ऑक्साइड शरीर में वायरस के प्रसार को 82% तक कम कर देता है।
पारंपरिक यौगिक प्राणायाम, भ्रामरी,उज्जयी और नाड़ीशोधन प्राणायाम का स्नायु तंत्र पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आज वैज्ञानिक भी जान गए हैं कि दाएं और बांए नासिका छिद्र से श्वांस लेने -छोड़ने से दिमाग के दोनो गोलार्द्धों में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को बहुत लाभ पहुंचता है।कोविड काल में आॅनलाईन क्लास के चलन से नुकसान हो रहा है।
ऑनलाइन क्लास के कारण घंटो मोबाइल या लैपटॉप का उपयोग करते है जिसकी बजह से उनकी आँखों और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादा उपयोग से कम उम्र में ही उनको चश्मे लगवाने पड़ते है और बच्चो में कम उम्र में ही दर्द की समस्या देखने को मिलती है।
योग बच्चो के तनाव,शारीरिक अंगों को सुचारू बनाने में प्रभावी भूमिका अदा करता है।योगनिद्रा काफी अभ्यास है।अनिद्रा तथा तनाव की स्थिति में काफी कारगर है।
हाल में वैज्ञानिकों ने कहा धर्म आस्था है तो आध्यात्म साकारात्मकता की खोज करना। योग जीवन में सकारात्मकता लाने का सशक्त माध्यम है।योग एक समग्र पद्धति है,जो शरीर,प्राण और मन में सामंजस्य की स्थिति पैदा करता है।
(योग के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से बातचीत पर आधारित)

श्रीकृष्ण की बांसुरी, गोपियां और स्वामी सत्यानंद की दिव्य-दृष्टि

रासलीला, श्रीकृष्ण की बांसुरी, उसकी सुमधुर धुन और गोपियां…. इस प्रसंग में बीती शताब्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की व्याख्या एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह शास्त्रसम्मत है, विज्ञानसम्मत भी है।

जन्माष्टमी के मौके पर विशेष तौर से ज्ञान मार्ग के लोगों के लिए एक प्रेरक कथा। परमगुरू और कोई सौ से ज्यादा देशों में विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी बिहार योग पद्धति के जन्मदाता परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के श्रीमुख से सत्संग के दौरान अनेक भक्तों ने यह कथा सुनी होगी। फिर भी यह सर्वकालिक है। प्रासंगिक है।  

श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। कथा है कि उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? उन सबसे रह न गया तो एक दिन सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें आखिर ऐसी क्या बात है कि भगवान तुम्हें दिन-रात अपने पास रखते हैं और तुम उनकी पटरानी की तरह साथ-साथ रहती हो? तुम तो जंगली और सूखे बांस से बनी हो, जिसका न तो कोई रंग, न रूप और न अन्य कोई आकर्षण। फिर तुमने ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है कि भगवान तुम्हें अपने श्रीमुख से लगाते हैं तो तुमसे ऐसी सुमधुर आवाज निकलती है कि मोर पागलों की तरह नाचने लगते हैं। पहाड़ों में अजीब शांति छा जाती है। जीव-जंतु मूर्तिवत हो जाते हैं। तुमसे निकली सुरीली धुन से हम गोपियां भी सुध-बुध खो बैठती हैं और पागलों की तरह कृष्ण से मिलने दौड़ पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि तुम बांसुरी नहीं, जादू की छड़ी हो।

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उससे इतनी सुरीली आवाज कैसे निकलती है कि गोपियों के मन में इतने सारे सवाल चल रहे हैं। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“  मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है। इसलिए आपलोग भी अपने वैभव, अपनी सुंदरता व विद्वता के अभिमान से मुक्त होकर अपने को खाली कर दें तो भगवान दिव्य प्रेम से भर देंगे।“

श्री स्वामी जी कहते थे – श्रीकृष्ण की रासलीला वाली बात हम सबको पता है। कथा है कि श्रीकृष्ण आधी रात को जंगल में जा कर जब बांसुरी बजाने लगे तो उस बांसुरी की मधुर धुन सुनकर गोपिकाएं मदहोश हो गईं। जो जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में जंगल की तरफ दौड़ पड़ीं और बांसुरी की सुरीली धुन पर नाचने लगी थीं। इस प्रसंग को इस तरह समझना चाहिए और यही शास्त्रसम्मत है, यही विज्ञानसम्मत भी है। यह शरीर भी सूक्ष्म रूप से कृष्ण की वंशी ही है। उसकी सुमधुर आवाज आत्मा है। इंद्रियों को वश में कर लेना गोपियां हैं। गो मतलब इंद्रिय और पी मतलब उसे पी जाना। अर्थात कृष्ण की मुरली के धुन पर गोपियों के खींचे चले आने से अभिप्राय है आत्मा की आवाज पर इंद्रियों का वश में हो जाना। योग साधक जब साधना में लीन होता है, ध्यानमग्न होता है तो उसकी अंतर्रात्मा की आवाज से इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं और झूमने लगती हैं, नाचने लगती हैं। यानी वे वश में आ जाती हैं। आत्मा में लीन हो जाती हैं। यही योग की पूर्णता है, यही भक्ति की पराकाष्ठा है, यही मनुष्य के जीवन का पूर्णत्व है। रासलीला का अभिप्राय यही है।“

: News & Archives