श्रीराम का अवतरणअंत:करण में भी हो

किशोर कुमार//

स्वामी सत्यानंदजी महाराज देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1925 में उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। इसके बाद “राम शरणम्” नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था। संत तुलसीदास भी कह गए हैं – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि दो दिनों बाद ही है। श्रीराम का जन्मोत्सव श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाएगा। वैसे, नवरात्रि शुरू होते ही नवदुर्गा की आराधना के साथ ही राम कथाओं का सिलसिला भी जारी है। हमने देखा था कि अयोध्या में बाल राम की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर देश भर में राम-भक्ति का ज्वार किस स्तर पर था। राम कथाओं के आयोजनों में भी वैसी ही राम-भक्ति की झलक मिलती है। इसलिए कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम हमारे लिए वरेण्य हैं। उनके आदर्शों से ही हमारी संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हुई है। वह संस्कृति आज भी हम सब में बीज रूप में मौजूद है। यह बात दीगर है कि नाना प्रकार के आघातों के कारण उस बीज का पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया। पर अब समय आ गया है कि हमें दशरथ नंदन राम की कथाओं से आगे बढ़कर जगत पसारा राम के गुणों को आत्मसात कर खुद को रूपांतरित करना चाहिए। परब्रह्म राम से आशीष लेने का यही एकमात्र उपाय है।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं और अजब-गजब कारनामे करवा देती हैं।  

संत कबीर दास की वाणी है, एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ! एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा। सामान्य बुद्धि से देखें तो यहां चार राम की बात हो गई। इसलिए कि दशरथनंदन राम के जन्म से पहले भी भी राम नाम का अस्तित्व तो था ही न और ऐसा भी नहीं है कि कबीर साहेब से पहले राम के विविध रूपों को लेकर चर्चा न हुई थी। याज्ञवल्यक-भारद्वाज संवाद में प्रसंग आता है। ऋषि भारद्वाज याज्ञवल्यक से पूछ लेते हैं कि दशरथनंदन राम और घट-घट में बैठे राम क्या एक ही हैं? याज्ञवल्यक मुस्कुराते हुए कहते हैं, श्री राम भाव की दृष्टि से दशरथ नंदन हैं और ज्ञान की दृष्टि से घट-घट में समाए हुए हैं। दोनों राम हैं एक ही……पर मैं जानता हूं कि तुम्हें इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है। संशय तो सामान्य बुद्धि वालों को होगा और तुम उनकी तरफ से यह सवाल पूछ रहे हो। ताकि इसी बहाने फिर राम जी के गुणों का रसपान भी हो जाए।

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है। ।

संत कबीर हों या रहीम, वैदिककालीन ऋषि हों या आधुनिक युग के आत्मज्ञानी संत, किसी ने अलग-अलग राम की बात नहीं की, बल्कि एक ही राम के अलग-अलग गुण-धर्मों का बखान किया। ताकि मानव जीवन धन्य हो सके। तभी कबीर ने सामान्य जनों को संबोधित करते हुए कहा, कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे वन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहि।।….तो दूसरी तरफ रहीम ने कहा, राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि। यानी जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किए, उनका जन्म व्यर्थ है। वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।

सबका सार एक ही है कि केवल कथा के राम में उलझे रहने का कोई सार नहीं है। हमें समझना होगा कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? वे असुरों का संहार करके शांति और सद्भाव के लिए ही तो अवतार लेते हैं। फिर, सोचने वाली बात है कि रामायण या रामचरितमानस में जिन कथाओं का वर्णन है, वे केवल भौतिक जगत में ही घटित होते हैं? क्या हमारा जीवन अपने आप में रामायण का रंगमंच नहीं है? सच तो यह है कि हमारे जीवन में रोज-रोज राम-रावण युद्ध चलते रहता है। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि योगबल से ही अपने अंतर्मन में चल रहे युद्ध को जीता जा सकता है। लोभ,मोह, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों वाले रावण रूपी इंद्रियों का शमन का कोई दूसरा उपाय नहीं। दुर्गुणों के शमन से ही सीता रूपी शांत बुद्धि मुक्त होकर अयोध्या रूपी आत्म-निकेतन में वापस लौट सकती है। इसलिए रामकथा को ऐतिहासिकता के दायरें में ही देखना, हीरा छोड़कर कंकड़ चुन लेने के समान है।

रामचरितमानस की कथा है कि सती जी को श्रीराम के परब्रह्म परमात्मा होने पर संशय हो गया था। क्यों? इसलिए कि शिवजी जिस श्रीराम की आराधना करते हैं, उसका गुण-धर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि वह पत्नी के लिए जंगलों में भटके और विलाप करता रहे। सो, सती जी ने सीता समान बनकर श्रीराम के समक्ष प्रस्तुत हो गईं। कोई तर्कशील प्राणी कह सकता है कि सती का सीता रूप धारण कर लेना कवि की कल्पना मात्र हो सकता है। पर हमारे जैसे लोग योगविद्या की शक्ति की गहराइयों का अंदाज भी नहीं लगा सकतें। योगशास्त्र में परकाया प्रवेश विद्या का उल्लेख है। आदिगुरू शंकराचार्य ने कामशास्त्र के ज्ञान के लिए मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया था। नजीजतन, राजा जीवित हो गया था और अपनी पत्नी के साथ रहने लगा था, जबकि उसमें राजा अमरूक की नहीं, बल्कि शंकराचार्य की आत्मा थी। 

खैर, श्रीराम तो परब्रह्म हैं। उनसे क्या छिपा रह सकता है। उन्होंने न केवल सती जी को पहचान कर प्रणाम किया, बल्कि शंकरजी के बारे में भी पूछा। सती जी लज्जित हो गईं। माफी मांगकर वापस लौटने लगीं। पर थोड़ी ही दूर जाकर पीछे मुड़ती हैं तो देखती हैं कि श्रीराम सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ खड़े हैं। तब उनका बचा-खुचा संशय भी जाता रहा। भगवान की माया और योगमाया समझ में आ जाती है। सच है कि माया और योगमाया दोनों ही भगवान की शक्तियां हैं। संतजन कहते हैं कि जब हम अपनी वृत्तियों को अंदर से बाहर की ओर ले जाते हैं तो माया या भोग कहलाता है। दूसरी तरफ जब हमारी अंतर्यात्रा होती है तो वह योग होता है। इस प्रसंग से भी प्रेरणा मिलती है कि हम श्रीराम को केवल दशरथनंदन राम ही समझने की भूल न कर दें। उनकी लीलाओं के संदेश मानव जीवन को धन्य कर देने वाले हैं। पर हमारे जीवन में इन संदेशों का प्रस्फुटन योगबल से ही संभव है। स्वयं भगवान श्रीराम ने भी मानव शरीर धारण किया तो अपना मूल स्वरूप जानने के लिए गुरू वशिष्ठ से योगविद्या ग्रहण करनी पड़ी थी।

रामनवमी के मौके पर प्रभु श्रीराम के अवतरण का जश्न मनाइए। पर ध्यान रखिए कि हमारे भीतर भी श्रीराम की शक्ति का उदय होना चाहिए। परंपरा के दुर्भाग्य पर रोने का वक्त गया। हमारी संस्कृति का सौभाग्य है कि हमारे पास शक्तिशाली योगबल है, जिसका सिंचन करके फिर रामराज्य की स्थापना संभव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योगविज्ञान विश्लेषक हैं।)

आदिशक्ति की लीलाकथा और दुर्गासप्तशती

किशोर कुमार //

नवसंवत्सर की शुरूआत ही देवी की आराधना से होगी। सृष्टि की रचना देवी से हुई थी। ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीकात्मक रूप भी वे ही हैं। उपनिषद में कहा गया है कि पराशक्ति ईश्वर की परम शक्ति है। यही विविध रूपों में प्रकट है। आत्मज्ञानी संत प्राचीनकाल से कहते रहे हैं कि देवी या शक्ति सभी कामनाओं, ज्ञान और क्रियाओं का मूलाधार है। अब वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि प्रत्येक वस्तु शुद्ध अविनाशी ऊर्जा है। यह कुछ और नहीं, बल्कि उस दैवी शक्ति का एक रूप मात्र है, जो अस्तित्व के प्रत्येक रूप में मौजूद है। नवरात्रि के दौरान हम उसी देवी की आराधना करेंगे कि वे हमें तामसिक गुणों से मुक्ति दिलाकर सात्विक गुणों के विकास की दिशा में अग्रसर करें।  

शक्ति की आराधना सृष्टि के आरंभ से ही होती आई है। तभी सृष्टि के प्रारंभ में समाज स्त्री प्रधान था। वैदिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। पर, सभ्यता के विकास के साथ नाना प्रकार के विकारों के कारण समाज का स्वरूप बदला और पुरूष की प्रधानता हो गई। पर, संतजन कहते हैं कि जैसे-जैसे आंतरिक जागरण होगा, हमें शक्ति की महत्ता समझ में आने लगेगी और यह अवश्यंभावी है। खैर, नवरात्रों के दौरान दुर्गा सप्तशती के मंत्रों से वातारण गूंजायमान होगा। मंत्रों की शक्ति आंतरिक उत्थान का संवाहक बनेगी। देवी महात्म्य से हमें योगमय जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी।

हम सब जानते हैं कि दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण की सबसे बड़ी देन है। इसमें कुल सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के चरित का वर्णन किया गया है। वैसे तो सामान्य जनों के लिए दुर्गासप्तशती पूजा-पाठ का एक ग्रंथ है। पर मंत्र विज्ञान के आलोक में व्याख्या हो तो पता चलता है कि यह हमारे आंतरिक जागरण का अद्भुत ग्रंथ है। शास्त्रों में शक्ति की महिमा जगह-जगह मिलती है। श्रुति और स्मृति आधारित ग्रंथों में भिन्नता दिखती है। पर अर्थ नहीं बदलता। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में इस शक्ति से संबंधित स्तवन मिलते हैं। उनमें इस शक्ति को समग्र सृष्टि की मूल परिचालिका बतलाकर विश्व जननी के रूप में स्तुति की गई है। इस शक्ति के द्वारा अनेक मौकों पर देवताओं को त्राण मिला और तभी से देवी सर्वविद्या के रूप में पूजित होती आ रही हैं।

देवी के नौ स्वरूपों में प्रथम शैलपुत्री है, जो प्रकृति की प्रतीक हैं। यानी प्रकृति की आराधना से नवरात्रों की शुरूआत होती है। देवी भागवत और अथर्ववेद में देवी स्वयं कहती हैं – मैं ही सृष्टि, मैं ही समष्टि, मैं ही ब्रह्म, मैं ही परब्रहा, मैं ही जड़, मैं ही चेतन, मैं ही स्थल, मैं ही विशाल, मैं ही निद्रा, मैं ही चेतना हूं। मेरे से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है और मैं ही इसके काल का कारण बनूंगी। मेरे से पृथक कोई नहीं। मैं सबसे पृथक हूं। कितना सुखद है कि संसार को आलोकित करने वाली, गुणों को अभिव्यक्ति देने वाली, काल को वश में करने वाली, मानवमात्र का हित करने वाली शक्ति स्वरूपा मां की लीलाओं में छिपे संदेशों को समझते हुए योगबल द्वारा आंतरिक जागरण करने का बेहतरीन अवसर मिलने वाला है।

नवरात्रों के दौरान प्रथम तीन दिनों तक देवी मां की आराधना भयंकर दुर्गा शक्ति के रूप में की जाती है। यह अपनी समस्त अशुद्धियों, दोषों, दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए शक्ति प्राप्त करने का अवसर होता है। इसके लिए दुर्गा सप्तशती परायण के साथ ही अष्टांग योग के यम-नियम की साधना श्रेष्ठ है। जब दुर्गुणों को नष्ट करने के बाद देवी मां की आराधना महालक्ष्मी के रूप में करके सद्गुणों का विकास करने की बारी होती है।  इससे दैवी संपदा का अक्षय भंडार प्राप्त होता है। अंतिम तीन दिन देवी मां की आराधना महासरस्वती के रूप में की जाती है, जो दैवी ज्ञान और ब्रहाज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। उनकी वीणा श्रेष्ठ महावाक्यों और प्रणव के स्वरों को हृदय में जगाती हैं। वह परम नाद का ज्ञान देती हैं और आत्मज्ञान प्रदान करती हैं।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

सच है कि मंत्रयोग का अपना स्वतंत्र विज्ञान है। शब्द तत्व की ऋषियों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द से सूक्ष्म जगत में जो हलचल मचती है, उसी का उपयोग मंत्र विज्ञान में किया गया है। ऋषियों ने इसी विद्या पर सबसे अधिक खोजें की थीं। तभी यह विद्या इतनी लोकप्रिय हो पाई थी कि जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता था। जल की वर्षा करने वाले वरूणशास्त्र, भयंकर अग्नि उगलने वाले आग्नेयास्त्र, संज्ञा शून्य बनाने वाले सम्मोहनशास्त्र, समुद्र लांघना, पर्वत उठाना, नल की तरह पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना आदि अनेकों अद्भुत कार्य इसी मंत्र शक्ति से किए जाते थे।

कालांतर में कर्मकांडों की वजह से शक्ति की उपासना के साथ कई विसंगतियां जुड़ती गईं। बलि प्रथा इसका जीवंत उदाहरण है। बलि देनी है अपने अंतर्मन में छिपे अवगुणों की। हथियार है यम-नियम। पर हम भटक गए और बलि देने लगे पशुओं की। संतों की वाणी है कि कलियुग में शस्त्र नहीं, शास्त्र से द्वारा जीत हासिल की जा सकती है। इसलिए कि तलवार से तलवार शांत नहीं होती। दुर्गा सप्तशती की साधना का अंतिम लक्ष्य है – जीवन में श्रेय और प्रेय का आविर्भाव। हमारी साधना का संकल्प भी यही होना चाहिए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति की शक्ति और रामकृष्ण परमहंस

किशोर कुमार //

सभी जानते हैं कि उन्नीसवीं सदी के महान संत रामकृष्ण परमहंस काली मां के परम भक्त थे। माता की छोटी मूर्ति सदैव अपने पास रखते थे और कहते कि इसी में पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है। किसी विदेशी नागरिक को स्वाभाविक रूप से बात अटपटी लगी तो उसने कहा, क्या इसे साबित किया जा सकता है? परमहंस जी ने कहा कि इंसानों के अंदर जो शक्ति है, उससे अलग एक और शक्ति है, जिसे हम कॉस्मिक एनर्जी कहते हैं। जब हम इसे महसूस करते हैं, तब ही आप इसे हासिल कर सकते हैं। देखो न, सूर्य तो पृथ्वी से कितना बड़ा है। पर दिखता छोटा है। क्यों? इसलिए कि वह हमसे दूर है। जो काली मां से दूर हैं, उसे भी काली मां की विराटता का पता नहीं चलता। मैं करीब हूं तो उनका विराट स्वरूप देखता हूं। और जो देखता हूं, वही कहता हूं।

आपने सुना होगा, अध्यात्म ज्ञान के मार्तण्ड व युग पुरूष संत ज्ञानेष्वर से जुड़ा एक प्रसिद्ध प्रसंग। पंडितों ने उन्हें चुनौती दी थी कि यदि तुममे और पास खड़े भैंसे में एक ही आत्मा है, तो क्या यह भैंस भी वेद मंत्र पढेगा? ज्ञानदेव ने चुपचाप भैंसे के पास जाकर भैंस की पीठ थपथपाई, और कहा हे देवता, आप इन पंडितों के सामने वेद मंत्र का उच्चारण करें। अचानक भैंसा मानव की वाणी में मंत्र बोलने लगा था। रामकृष्ण परमहंस की भी अनुभूति थी कि आत्मा एक है, जो विविध रूपों में भासित होता है। इसलिए उन्होंने अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद को अद्वैतवादी बनाया। पर जन सामान्य को सदैव अद्वैतवाद की ही शिक्षा देते रहे। वे मुख्यत: नारद भक्ति की शिक्षा देते थे। कहते थे कि कलियुग में इसी शिक्षा से उद्धार होगा। भगवत् प्रेम के गूढ़ार्थ बताने के लिए नारद मुनि ने चौरासी सूत्र दिए थे। उन्हें ही नारद भक्ति सूत्र कहा गया है। परमहंस जी कहते थे कि भक्ति में छलांग लगाओ, राख गायब हो जाएगा, फूल ही फूल दिखने लगेगा। यह कोई सैद्धांतिक नहीं, अनुभव की बात है।

परमहंस जी कहते कि यह भक्ति किसी प्रार्थना स्थल पर जाने जैसी नहीं है। यह भक्ति वैज्ञानिक है, आंतरिक ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने की बात है। यह मार्ग भी उतना ही मजबूत है कि इच्छानुकूल फल देने में सक्षम बना देगा। रामकृष्ण परहंस के जीवन का एक अद्भुत प्रसंग है। मानव जाति के इतिहास में वे अकेले व्यक्ति थें, जिन्होंने सभी धर्मों के मार्ग से सत्य तक जाने की चेष्टा की और सभी धर्मों से उसी शिखर को पा लिया। ईश्वर अल्लाह तेरो नाम तो अनेक लोग जपते रहे हैं। पर उन्होंने अनुभव से जान लिया है कि ईश्वर एक है। उल्लेख है कि जब वे इस्लाम की साधना करते थे तो वे ठीक मुसलमान फकीर हो गए थे। वे भूल गये राम-कृष्ण और ‘अल्लाहू-अल्लाहू’ की आवाज लगाने लगे थे, कुरान की आयतें सुनने लगे थे।

जब वे सखी-संप्रदाय की साधना करने लगे तो उनमें स्त्रियों के सारे गुण प्रकट हो गए थे। आवाज बदल गई, चलने का तरीका बदल गया और यहां तक कि शरीर का बनावट तक बदल गया था। मासिक धर्म का चक्र शुरू हो गया था। सखी-संप्रदाय की मान्यता है कि परमेश्वर ही पुरुष है, बाकी सब स्त्रियां हैं। परमेश्वर कृष्ण है, बाकी सब उसकी सखियां हैं। इसलिए सखी-संप्रदाय का पुरुष भी अपने को स्त्री ही मान कर चलता है। लेकिन जो घटना रामकृष्ण के जीवन में घटी, वह अपवाद था। सखी-संप्रदाय के ही कई लोग कृष्ण को पति मानते हुए उनकी मूर्ति को लेकर बिस्तर पर सो जाते थे। पर अनुभूति नहीं मिल पाती थी। पर रामकृष्ण परमहंस के मन में यह भावना इतनी प्रगाढ़ हुई कि मैं स्त्री हूं, सब कुछ बदल गया था।

इस प्रसंग से साबित होता है कि मनुष्य जैसा दिखाई देता है उससे कहीं अधिक है। रामकृष्ण परमहंस की चेतना की तो बात ही क्या है। उनके जीवन की एक अन्य अद्भुत घटना से इस बात को समझिए। महान योगी तोतापुरी ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि उनमें सारे गुण मौजूद हैं। एक कमी है कि भावनात्मक ऊर्जा के स्तर पर सजगता का विकास नहीं हो पाया है। यह काम हो जाए तो वे चरम को छू सकते हैं। एक आसान विधि है, जिसके अभ्यास से जागरूकता शक्तिशाली हो जाएगी। रामकृष्ण मान गए। पर इस विधि से भी काली के ही दर्शन होते थे।

तोतापुरी ने दूसरी युक्ति निकाली। कहा, ‘अब काली दिखें, तो तलवार से उनके टुकड़े कर दीजिएगा।’ परमहंस जी ने पूछा, ‘मुझे तलवार कहां से मिलेगी?’ तोतापुरी ने जवाब दिया, ‘वहीं से, जहां से आप काली को लाते हैं। यानी मानसिक तल पर ही सब कुछ होना था। परमहंस जी फिर काली दे दर्शन पाकर परमानंद में डूबने ही वाले थे, कि तोतापुरी ने शीशे के टुकड़े से उनके माथे पर एक गहरा चीरा लगा दिया। परमहंस जी ने उसी समय अपनी कल्पना में तलवार बनाई और काली के टुकड़े कर दिए, इस तरह वह मां और मां से मिलने वाले परमानंद से मुक्त हो गए। अब वह वास्तव में एक परमहंस और पूर्ण ज्ञानी बन गए थे।

रामकृष्ण परमहंस की चेतना इतनी ठोस थी कि वह जिस रूप की इच्छा करते थे, वह उनके लिए एक हकीकत बन जाती थी। यह भक्ति की शक्ति थी। यूं कहें कि उनकी तमाम शक्तियों के मूल में भक्ति ही थी। तभी बंगाल महापंडित केशवचंद्र सेन का समूचा तर्क औपचारिक शिक्षा से कोसो दूर रहे परमहंस जी सामने गिर गया था। दरअसल, परमहंस जी की ख्याति जब दूर-दूर तक फैल गई तो बंगाल महापंडित केशवचंद्र सेन की उनसे शास्त्रार्थ करने की इच्छा बलवती हो गई। विद्वता और तार्किकता अद्वितीय थी। मेधा बड़ी प्रखर थी। बंगाल में शायद ही कोई विद्वान हो जिसे वे अपनी तर्क-शक्ति से हरा न चुके थे। मन में विचार आया कि वे रामकृष्ण जैसे अपढ़ को तो चुटकी बजाते हरा देंगे। महापंडित पद्मनाभ जैसा ही भाव आ गया।

संत कबीर के समकालीन पद्मनाभ को अहंकार था कि वे शास्त्रार्थ में किसी को भी पराजित कर सकते हैं। अनेक बैलगाड़ियों पर ग्रंथ भरकर काशी चले थे, वहां के पंडितों को पराजित करने। पंडितों ने सामना करा दिया संत कबीर से। उस कबीर से, जिनकी उद्घोषणा है कि “मसि-कागद तौ छुओ नहिं, कलम गही ना हाथ।” और कहानी सबको ज्ञात है कि संत कबीर ने जब सवाल किया कि इतने सारे ग्रंथ पढ़कर समझे या समझ कर पढ़े, तो महापंडित पद्मनाभ उलझ गए। उलझने वाली बात ही थी। यदि समझ पहले से थी तो पढ़े क्यों और समझ कर पढ़े तो किताब को समझा होगा, परमात्मा को नहीं। पद्मनाभ को जवाब न सूझा था और पराजित हो गए थे। ऐसा ही कुछ हुआ केशवचंद्र सेन के साथ। वे पराजित हो गए थे।     

रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को तर्क से नहीं हराया जा सकता, क्योंकि रामकृष्ण जैसे व्यक्ति का आधार ही तर्क पर नहीं होता। केशवचंद्र ने तर्क पर तर्क दिये और रामकृष्ण उठ—उठकर उनको छाती से लगा लें! और कहें, ‘क्या गजब की बात कही! वाह! वाह! अहा! आनंद आ गया!’ केशवचंद्र ने कहां, ‘वह कैसे?’ परमहंस जी ने कहा कि ऐसी प्रतिभा मनुष्य में है, तो जरूर इस जगत के स्रोत में महाप्रतिभा होनी ही चाहिए, नहीं तो तुममें प्रतिभा कहां से आती? जब फूल खिलते हैं, तो उसका अर्थ है कि जमीन गंध से भरी होगी। तुम्हारी गंध को देखकर ही ईश्वर प्रमाणित होता है!’ केशवचंद्र का सिर झुक गया और चरण पर गिर पड़े थे।

तो परमहंस जी आमलोगों के लिए देशकाल को ध्यान में रखते हुए भक्ति की शिक्षा देते थे। अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद को अद्वैत की शिक्षा दी तो आमलोगों द्वैत की, मुख्यत: नारद भक्ति की शिक्षा दी। इसलिए कि नारद मुनि ने शाण्डियल्य भक्ति सूत्र की तरह ज्ञान प्रधान भक्ति की बात नहीं की है। उन्होंने भाव प्रधान भक्ति समझाई और कहा कि परमेश्वर की भक्तिमय सेवा से इंद्रियां और मन माया के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा का द्वार खुल जाता है। प्रसिद्ध पुराण कथा भी है। कलियुग में भक्ति देवी के दोनों पुत्रों ज्ञान व वैराग्य का उद्धार भक्ति के प्रभाव से ही हो पाया था। इससे भी भक्ति की श्रेष्ठता का पता चलता है। परमहंस जी की 188वीं जयंती पर सादर नमन। उनकी शिक्षाएं पूरी मानव जाति को आलोकित करती रहेंगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

रामभक्त महर्षि योगी और राम मुद्रा

किशोर कुमार //

भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक महर्षि महेश योगी अपनी विज्ञानसम्मत यौगिक क्रियाओं ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, यौगिक उड़ान आदि के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार संबधी उनके अनुराग से भी हम सब वाकिफ हैं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में महर्षि संस्थान अहर्निश उनकी शिक्षाओं को नईपीढ़ी तक पहुंचाने में जुटे रहते हैं। पर रामभक्त के रूप में उनकी चर्चा कम ही होती है। आज महर्षि जी की पुण्यतिथि है। उन्होंने 11 जनवरी 2008 को घोषणा की कि धरती पर उनका काम पूरा हो चुका है और 5 फरवरी 2008 को नीदरलैंड में अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया था। महर्षि जी का पुण्यस्मरण करते हुए इस लेख की शुरूआत उनके जीवन की उन पहलुओं से करते हैं, जिसकी चर्चा कम ही होती है।

यह सर्वविदित हैं कि महर्षि महेश योगी ने विश्व शांति राष्ट्र की घोषणा करके नीदरलैंड और अमेरिका के कुछ भागों में राम मुद्रा चलाई थी। उनकी संस्था ‘ग्लोबल कंट्री वर्ल्ड ऑफ पीस’ ने 2002 में इस मुद्रा को जारी किया तो नीदरलैंड सरकार ने इसे कानूनी मान्यता देने में जरा भी देऱी न की थी। इससे महर्षि योगी और राम भक्तों के प्रभाव का पता चलता है। नीदरलैंड के बाद अमेरिका के आयोवा स्थित महर्षि वैदिक सिटी में भी राम मुद्रा जारी किया गया था। इतना ही नहीं, अमेरिका के कोई 35 राज्यों में श्रीराम नाम वाले बॉड्स शुरू किए गए थे। खास बात यह है कि राम मुद्राएं आज भी चलन में है। अमेरिकन इंडियन जनजाति आयवे की बहुलता वाले आयोवा के लोगों को प्रभु श्रीराम से इतना प्रेम है कि उन्हें मुद्रा की सरकार मान्यता की भी परवाह नहीं रहती। वे स्थानीय स्तर पर खरीददारी और आपसी लेन-देन के लिए इसी मुद्रा का इस्तेमाल करते हैं। उन मुद्राओं में कई भाषाओं में राम और श्रीराम की तस्वीर के नीचे राजा राम – राम ब्रह्म परमाथ रूपा लिखा होता है।

महर्षि जी की श्रीराम में अटूट श्रद्धा का ही परिणाम था कि राम मुद्रा प्रचलन में लाने का उनका संकल्प पूरा हो सका था। वे अपने जीवन में भी श्रीराम के आदर्शों को आत्मसात करने की भरपूर कोशिश करते रहे। इस बात को एक प्रसंग से समझिए। महर्षि योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के प्रिय शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। इसलिए कि वे इसके लिए सुपात्र थे। महर्षि जी के तमाम गुरू भाइयों को भी लगता था कि अगला शंकराचार्य तो महर्षि योगी ही बनेंगे।

पर गुरू ब्रह्मानंद सरस्वती के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। वे महर्षि योगी की उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के वाकिफ थे और चाहते थे कि उनके जरिए वैदिक ज्ञान का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार हो। इसलिए जब अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करनी थी तो पहले महर्षि योगी को बुलाकर आदेश दे दिया कि तुम वैदिक शिक्षा का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार करो। मतलब साफ था कि महर्षि जी शंकराचार्य नहीं बनाए जाएंगे। इसलिए कि शकराचार्यों के लिए समुद्र लंघन वर्जित माना गया गया और गुरू के आदेश पूरा करने के लिए समुद्र लंघन करना ही होता। महर्षि जी जरा भी विचलित हुए बिना गुरू आदेश को अमल में लाने के लिए निकल पड़े थे पश्चिम की ओर। जरा गौर कीजिए। श्रीराम को वनवास भेजे जाने वाले प्रसंग से यह घटना कितनी मिलती-जुलती है। श्रीराम का राजतिलक होना था और मिल गया वनवास। श्रीराम खुशी-खुशी वनगमन कर गए थे। इस कथा के गूढ़ार्थ समझने पर हमारे जीवन को उन्नत बनाने वाले कई संदेश मिलते हैं। पर क्या हम सब उन संदेशों पर विचार भी कर पातें? महर्षि योगी अपने गुरू की इच्छा को पूरा करने के लिए ताउम्र जो कुछ कर पाए थे, उससे साबित होता है कि उन पर मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की शिक्षाओं व्यापक प्रभाव था।  

हालांकि शंकराचार्य न बनाए जाने पर महर्षि जी से ईर्श्या करने वालों को आलोचना करने का एक मौका मिल गया था। कई लोग महर्षि जी से कहते कि कुछ लोग आपकी निंदा कर रहे हैं। महर्षि जी कहते, निंदा करने वालों ने तो प्रभु श्रीराम को भी नहीं छोड़ा था। पर हाथी से सीखो। उसकी विशेषता क्या है? वह हाथ जोड़ने वालों से प्रसन्न होकर उसके पास ठहरता नहीं और भौंकने वाले कुत्तो की परवाह नहीं करता। इसलिए, उसकी चाल में मस्ती बनी रहती है। संत-स्वभाव भी ऐसा ही होना चाहिए। यदि हम तमोगुणी निंदकों की परवाह करने लगे तो शिष्य धर्म का पालन कैसे हो पाएगा? एक दूसरा प्रसंग भी है। महर्षि योगी को दुनिया भर में सिद्ध संत मान लिया गया था। उसके बाद अपने देश में सत्संग दे रहे थे तो एक व्यक्ति ने पूछ लिया, महर्षि जी, आपको संत क्यों कहा जाता है? महर्षि जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ, जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है। इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं। चूंकि पहले के सभी संतों का भी ऐसा ही संदेश रहा है, इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं।”

अविभाजित मध्य प्रदेश के राजिम शहर में 12 जनवरी 1918 को जन्मे महर्षि महेश योगी ऐसे आत्मज्ञानी संत थे, जिन्होंने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर काम किया था। भावातीत ध्यान योग (ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन) जैसी योग विधियां इसके सबूत हैं। अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देशों के अखबारों में उनकी यौगिक विधियों के प्रभाव बताने वाली खबरें स्थान पाती रहती हैं। महर्षि महेश योगी ने अपने जीवनकाल में वेदों में निहित ज्ञान का अनुभव करके अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इन शिक्षाओं के प्रचार के लिए संस्थाएं स्थापित की और उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया। यह सुखद है कि उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं को फैलाने का काम बिना किसी गतिरोध के जारी है। जगह-जगह महर्षि वेद पीठ की स्थापना करके वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। यह महर्षि जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्रिसमस, धर्मों की सारभूत एकता और स्वामी सत्यानंद

किशोर कुमार //

दुनिया भर में क्रिसमस की धूम है तो दूसरी तरफ धर्मों की सारभूत एकता का संदेश देता झारखंड के देवघर जिला स्थित रिखियापीठ आज आधी रात के बाद ही बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 100वीं जयंती का गवाह बनने जा रहा है। यही वह पीठ है, जहां से इस महान योगी ने कई दशकों तक सेवा, प्रेम और दान की सैद्धांतिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी दी थी। आश्रम परिसर में क्राइस्ट कुटीर की स्थापना करके अपनी अनुभूतियों के आधार पर संदेश दिया था कि धर्मों में सारभूत एकता है। इस बात को वैदिक ग्रंथों के आधार पर सिद्ध भी किया था।  

आज जब क्रिश्चियन ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में डूबे हुए हैं, तो बाबाजी, संत युक्तेश्वर गिरि, परमहंस योगानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक अपनी-अपनी अनुभूतियों के आधार पर धर्मों में सारभूत एकता की जो बात कहते रहे हैं, उसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम …। दुनिया भर के सिद्ध संत इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – …. सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह प्रकारांतर से एक ही है।   

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ” महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।      

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। उन देशों में सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? ईसाई धर्मावलंबियों के बीच भारत के परंपरागत योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई? “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाए। यही समय की मांग है। मेरी क्रिसमस! नमो नारायण।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

कैवल्यधाम, योग परंपारा और विज्ञान का संगम

किशोर कुमार

महाराष्ट्र के योगी स्वामी कुवल्यानंद यौगिक क्रियाओं से मिलने वाले परिणामों को विज्ञान की कसौटी पर भी सिद्ध करके भारत के साथ ही पश्चिमी देशों में भी ख्याति अर्जित कर रहे थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को खुद ही कुवल्यानंद जी के योगाश्रम कैवल्यधाम में जाकर उनकी उपलब्धियों का साक्षी बनना चाहते थे। लिहाजा वे महाराष्ट्र के लोनावाला पहुंच गए, जहां कैवल्यधाम आकार ले रहा था। वे स्वामी जी की उपलब्धियों से बेहद खुश हुए। पर तुरंत ही उन पर संशय के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। दरअसल, उन्हें आश्रम में पता चला कि स्वामी जी को अमेरिका में रहने के न्यौते मिल रहे हैं। नेहरू जी नहीं चाहते थे कि भारत में योग परंपरा और विज्ञान का मिलन कराने वाले स्वामी कुवल्यानंद विदेश की धरती पर रच-बस जाएं। उन्होंने अपने मन के इस बात को न छिपाते हुए तुरंत ही स्वामी जी से आग्रह किया, आपको जो सुविधाएं चाहिए, बस मिलेगी। पर भारत छोड़कर मत जाइएगा। राष्ट्रवादी सोच वाले स्वामी कुवल्यानंद ने नेहरू जी को आश्वस्त किया कि वे अपने वतन को छोड़कर कहीं नहीं जा रहे हैं। हां, भारतीय योग का सुगंध विदेशों तक पहुंचे, वह यह जरूर चाहते हैं।

यह सुखद है कि स्वामी कुवल्यानंद जी का संकल्प फलीभूत हो चुका है। बीसवीं सदी के उस महान योगी ने दैवीय प्रेरणा और गुरू के आदेश पर जिस कैवल्यधाम रूपी योग मंदिर को अपने खून-पसीने से सींचा था, अब वह नित नई ऊंचाइयां छू रहा है। कैवल्यधाम के एक सौ साल पूरे होने पर देश-दुनिया के लोगों ने देखा कि जिस तरह दूध में शहद घुल-मिल जाता है, उसी तरह उस योग मंदिर में योग की परंपरा और विज्ञान का मिलन हो चुका है। दो दिनों पहले ही कैवल्यधाम के सौ साल पूरे होने पर एक तरफ भव्य शताब्दी समारोह का आयोजन करके जश्न तो मनाया गया, तो दूसरी तरफ शताब्दी वर्ष में स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण संबंधी स्वामी जी के सपने को प्रभावी ढंग से साकार करने का संकल्प भी लिया गया।   

योग विश्व समुदाय को दिया गया भारत का अमूल्य उपहार है। 2015 से हर वर्ष विश्व के अधिकांश देशों में योग दिवस मनाया जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया था कि योग पद्धति स्वास्थ्य व कल्याण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है और पूरे विश्व समुदाय के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। योग का लाभ बच्चों और हमारी युवा पीढ़ी तक पहुंचाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित योग विद्या को शिक्षण व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। योग व्यक्ति के समग्र विकास का मार्ग है। इसे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रभावी साधन माना जाता है। व्यापक शोध और परीक्षण के बाद हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह स्थापित किया कि योग का निरंतर अभ्यास कैवल्य प्राप्त करने में सहायक है। उन्होंने कहा कि 20वीं सदी में स्वामी कुवलयानंद जी जैसे महान व्यक्तित्वों ने योग प्रणाली के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उपयोगिता को प्रचारित किया। स्वामी कुवलयानंद जी विद्यालयों में योग शिक्षा के प्रसार को काफी महत्व देते थे। उम्मीद है कि ‘कैवल्यधाम’ योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित करेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवाओं को समग्र विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाता रहेगा। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, राष्ट्रपति, भारत

स्वामी कुवल्यानंद ने स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण का सपना नौ दशक पहले देखा था। तब उनकी बातें किसी को भी अटपटी लगी रही होगी। पर अब कहना होगा कि उन्होंने अपनी दिव्य-दृष्टि से भांप लिया था कि भविष्य की चुनौतियां क्या होंगी और उनका समाधान किस विधि संभव है। संयोग देखिए कि वह समय भी आ गया जब प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने योग को दुनिया भर में प्रचारित करने के लिए कमर कस ली। उनका ध्यान बरबस ही इस बात की ओर भी गया कि भारत के योगी क्यों कहते रहे हैं कि प्रथमत: स्कूली बच्चों के लिए है और योगमय जीवन की शुरूआत वहां से होनी चाहिए। उन्हें इसका मर्म समझते देर न लगी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में योग को शामिल कर दिया। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि कैवल्यधाम के योगाचर्यों ने अपने गुरू स्वामी कुवल्यानंद के सपने को साकार करने का जो बीड़ा उठाया है, वह समयानुकूल है।     

कैवल्यधाम के शताब्दी वर्ष समारोह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने ठीक ही कहा, योग विश्व समुदाय को भारत का अमूल्य उपहार है। स्वामी कुवलयानंद जी स्कूलों में योग शिक्षा के प्रसार को बहुत महत्व देते थे। आज भी उनका सींचा हुआ पौधा यानी कैवल्यधाम संस्थान और उसके द्वारा संचालित स्कूल कैवल्य विद्या निकेतन व अन्य शिक्षण संस्थान प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं। मुझे विश्वास है कि ‘कैवल्यधाम’ में योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित होता रहेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवा समग्र विकास के पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे। महामहिम राष्ट्रपति को कैवल्यधाम की ओर से भी आश्वस्त किया गया कि योग परंपरा और विज्ञान का संगम पूर्व की तरह अविरल प्रवाहित होता रहेगा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है, बल्कि हकीकत बन चुकी है। सच है कि कैवल्यधाम परंपरा के अग्रणी योगी ओमप्रकाश तिवारी के नेतृत्व में स्वामी कुवल्यानंद की परंपरा तेजी से विस्तार पा रही है।

स्वामी कुवल्यानंद आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। इस तरह उन्होंने योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं।

यह तो हुई कैवल्यधाम और स्वामी कुवल्यानंद जी की बात। अब समझिए कि बच्चों के लिए योग पर इतनी जोर क्यों है? बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ ही ग्रंथियों में व्यापाक बदलाव होते हैं। अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद दोनों भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। पीनियल और पिट्यूटरी, इन दोनों ग्रंथियों का परस्पर गहन संबंध है। सच कहिए तो पीनियल ग्रंथि पिट्यूटरी ग्रंथि के लिए ताला का काम करती है। ताला खुलते ही पिट्यूटरी अनियंत्रित होती है औऱ बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं।

इसलिए बच्चों की प्रतिभावान बनाने से लेकर चरित्र-निर्माण तक को ध्यान में रखते हुए स्वामी कुवल्यानंद से लेकर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक बच्चों की योग शिक्षा पर खासा जोर देते रहे हैं। भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। स्वामी कुवल्यानंद उन्हीं में से एक थे। कैवल्यधाम के रूप में उनकी फुलवारी की खुशबू दूर-दूर तक फैलती रहे, शताब्दी वर्ष में यही कामना है।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत मीराबाई हर युग में, हर काल में प्रासंगिक

किशोर कुमार

संत मीराबाई प्रासंगिक थीं, हैं और रहेंगी भी। अच्छा है कि उनकी 525वीं जयंती बड़े पैमाने पर मनाई जा रही है और उनकी स्मृति में डाक टिकट और सिक्के जारी किए गए हैं। वैसे भी, महान संतों की स्मृति में डाक टिकट जारी करने, सिक्के जारी करने का रिवाज पुराना है और यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। संत मीराबाई के जीवन से केवल कृष्ण-भक्ति के ही संदेश नहीं मिलते, बल्कि मीरा नाम तो बड़प्पन, ज्ञान, भारतीय संस्कृति, साहस, पवित्रता, सेवा, बलिदान और सबसे बढ़कर, समर्पण व भक्ति का एक शक्तिशाली प्रतीक है। ऐसे में आधुनिक युग के युवाओं के चरित्र-निर्माण के लिहाज से वे ज्यादा ही प्रासंगिक हैं। इसलिए उनके आदर्शों को वैज्ञानिक तरीके से और आज के संदर्भ में प्रस्तुत करना होगा।

देश ने बीते 25 नवंबर को साधु थानवरदास लीलाराम वासवानी को उनकी जयंती पर याद किया। वे एक ऐसे भारतीय शिक्षाविद् थे, जिन्होंने शिक्षा में मीरा आंदोलन का शंखनाद किया था। उन्होंने सन् 1932 में सिंध प्रांत में मीरा स्कूल की स्थापना की थी, जो एक मॉडल संस्थान था। वे चाहते थे कि वह स्कूल विश्वविद्यालय का शक्ल ले ले। पर विभाजन की ज्वाला में वह योजना जलकर भस्म हो गई थी। महाराष्ट्र में मीरा आंदोलन शून्य से शुरू करना पड़ा था। अनेक मीरा स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए। इन शिक्षण संस्थानों का असल मकसद औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था। समय के साथ ही परिस्थितियां बदली हैं। आज आलम यह है कि मीरा के पद की बात हो तो कई छात्रों को फिल्मी गाने की याद आती है – के पग घुँघरू बाँध, मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँगरू के…। यह बेहद चिंताजनक है। इसलिए मौजूदा समय में इस आंदोलन को आगे बढ़ाना ही साधु वासवानी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। केवल “नो नानवेज डे”, जैसा कि 25 नवंबर को उत्तर प्रदेश में मनाया गया, पर्याप्त नहीं है।  

संत मीराबाई भक्तिकाल की दैवीय शक्ति से परिपूर्ण विलक्षण योगिनी थीं। पर उनकी जीवनी आधुनिक युग के लिए भी प्रेरणा का प्रकाश-पुंज है। जरा सोचिए, आदियोगी शिव की तरह हलक में जहर उतार ले और बाल बांका भी न हो, यह कोई साधारण बात है। ससुराल वालों ने इसके पहले भी कम प्रताड़ित न किया था। उन्हें लगभग वैसी ही यातनाएं दी गईं जितनी प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु दिया करते थे। श्रीकृष्ण ने जैसे प्रह्लाद की रक्षा की वैसे ही मीरा के पक्ष में भी सदैव खड़े रहे। तभी संत मीराबाई के जीवन की कई घटनाएं आम समझ से चमत्कार से कम नहीं जान पड़ती हैं। एक बार राणा ने मीरा के पास टोकरी में एक नाग भेजा और संदेश दिया कि इसमें फूलों की माला है। मीरा स्नान करके पूजा करने बैठ गईं। अपना ध्यान समाप्त करने के बाद, टोकरी खोला तो अंदर श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और फूलों की एक माला थी। राणा ने मीरा को सोने के लिए कीलों का एक बिस्तर भेजा। मीरा ने अपनी पूजा समाप्त की और कीलों के बिस्तर पर सो गईं। लो! कीलों का बिस्तर गुलाब के फूलों के बिस्तर में तब्दील हो गया था।

इस वैज्ञानिक युग में ये शास्त्रसम्मत कथाएं हमें काल्पनिक लग सकती हैं। पर आधुनिक युग में भी कई ऐसे संत हुए, जिनके कारनामें विज्ञान के लिए चुनौती बनी रह गई हैं। बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। तब बच्चे बड़ों से पूछेंगे कि मीराबाई जहर पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं? यह सुखद है कि भक्ति विज्ञान और मीराबाई की आध्यात्मिक शक्ति के रहस्यों पर देश-दुनिया में लगातार शोध किए जा रहे हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पांच दशक पहले जो बातें कही थीं, उसकी झलक अब हम सबको भी मिलती दिख रही है। देश-दुनिया में मीराबाई और उनकी भक्ति की शक्ति की प्रबलता व उसके रहस्य को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन किए जा रहे हैं। सच तो यह है कि संपूर्ण भक्ति विज्ञान पर वैज्ञानिक शोधों की दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है। संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। दूसरी तरफ मीराबाई का जीवन से प्रेरणा लेते हुए मौजूदा शिक्षा प्रणाली को समृद्ध बनाने के लिए सुगबुगाहट शुरू है।

इसमें दो मत नहीं कि मीराबाई हमारे देश के सितारों से भरे आध्यात्मिक आकाश में सबसे चमकीले सितारों में से एक हैं। वह ज्ञानी हैं, दार्शनिक हैं औऱ रहस्यवादिनी हैं। उनके पदों में वैसा ज्ञान, दर्शन और रहस्यों का प्रस्फुटन हुआ है, वैसा संत कबीर की रचनाओं को छोड़कर शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। मीराबाई के पूर्व जन्म का संस्कार ही था कि वे बाल्यावस्था से गिरिधर गोपल की भक्त बन गई थीं। और संचित कर्मों के बिना पर उनकी भक्ति की शक्ति थी कि तमाम झंझावातों से निकलकर अमर हो गईं।

उनके पूर्व जन्म की बात कुछ लोगों को कपोल कल्पना लग सकती है। वैसे भारतीय वांग्यमय में पुनर्जन्म के हजारों उदाहरण मिलते हैं। जैसे, शिव-पार्वती व विष्णु अवतारों के साथ ही काक भुशुण्डी जी की कहानी सर्वाधिक प्रचलित है। मीराबाई को भी श्रीकृष्ण की गोपियों में एक और श्रीराधा की सहेली बतलाया गया है। इसे सच न मानने का कोई आधार नहीं है। पर इन विवादों में न भी पड़ा जाए तो उनके जीवन मिलने वाले संदेश मूल्यवान हैं। उनकी 525वीं जयंती पर आयोजित भव्य कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है, जब संत मीराबाई की शिक्षाएं आंदोलन का स्वरूप ले ले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सूर्योपासना कर ली, अब बारी सूर्य नमस्कार की

किशोर कुमार

आस्था का महापर्व छठ संपन्न हो गया। इस पर्व की शुरूआत कहां से हुई, कैसे हुई, इस पर बहुत लिखा-कहा जा चुका है। अब बात होनी चाहिए सूर्योपासना के यौगिक आयाम की, जो जीवन को सुखमय बनाने के लिए अमृत समान है। आप समझ गए होंगे। मैं बात करने जा रहा हूं सूर्य नमस्कार योग की, जिसे सूर्योपासना का ही विकसित रूप माना जाता है। भारतीय वांग्मय से हमें ज्ञात हो चुका है कि वैदिक काल से की जा रही सूर्योपासना ही छठ पूजा औऱ आधुनिक हठयोग की शक्तिशाली योगविधि सूर्य नमस्कार का आधार बनी थी। पर इतना जान भर लेना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस पुरानी योग पद्धति के विज्ञान को समझना भी महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर योगियों ने साबित किया कि सूर्य नमस्कार के अभ्यास से मानव प्रकृति का सौर पक्ष जागृत होता है। इससे चेतना के विकास के लिए जीवनदायिनी ऊर्जा मिल जाती है।

मैंने इस पूरे मामले को समझने के लिए देश-विदेश में सूर्य नमस्कार पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों और बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की दुनिया भर में स्वीकार्य पुस्तक “सूर्य नमस्कार” को आधार बनाया है। पहले जानते हैं कि अपने अध्ययनों के बाद वैज्ञानिक सूर्य नमस्कर योग को लेकर किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। कोरोना महामारी के बाद खासतौर से भारत के युवा हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। कई युवा जान गंवा चुके हैं। अमेरिका के सैन जोश स्टेट यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के वैज्ञानिक भावेश सुंरेंद्र मोदी का शोध भी युवाओं पर ही आधारित है। उन्होंने छह एशियाई युवाओं पर शोध किया। यह जानने के लिए कि सूर्य नमस्कार हृदय रोगियों के लिए कितना कारगर है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से कोर्डियोरेस्पिरेटरी फिटनेस को ठीक रखा जा सकता है।

अपने देश में भी सूर्य नमस्कार को लेकर अध्ययन किए जाते रहते हैं। चेन्नई स्थित सत्यभाषा इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी के एल प्रसन्ना वेंकटेश ने अपने एक सहयोगी के साथ शोध किया तो पाया कि सूर्य नमस्कार अंतःस्रावी तंत्र (इंडोक्राइन सिस्टम) को व्यवस्थित रखता है। वरना, जीवन संकट में पड़ जाता है। यही वजह है कि सूर्य नमस्कार के अभ्यासियों को न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति मिल जाती है। वैसे, टी. कृष्णमाचार्य, स्वामी शिवानंद, स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर आदि नामचीन योगियों ने तो साठ के दशक में ही अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि सूर्य नमस्कार शारीरिक अवयवों में नवजीवन का संचार करता है। साथ ही वर्तमान जीवन पद्धति की मांगों व तनावों के बीच हमें क्रियाशील जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करता है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इस योग के प्रभावों को थोड़ा विस्तार से समझा। वे कहते थे कि सूर्य नमस्कार मुँहासा, फोड़े-फुंसियां, रक्ताल्पता, कम भूख लगना, दुर्बलता, स्थूलता, कम विकास होना, स्फीत शिरा, गठिया, सिरदर्द, दमा तथा फेफड़े की अन्य विकृतियाँ, पाचन संस्थ की व्याधियाँ, अपच, कब्ज, गुर्दे संबंधी व्याधियाँ, यकृत की क्रियाशील में कमी, निम्न रक्तचाप, मिर्गी, मधुमेह, त्वचा की बीमारियाँ (एक्जिा सोरायसिस, सफेद दाग), सामान्य सर्दी-जुकाम का बचाव, अन्तःस्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म तथा रोगनिवृत्ति संबंधी समस्याएं, मानसिक व्यधियां (जैसे, चिंता, अवसाद, विक्षिप्त, मनोविकृति) इत्यादि बीमारियों से निजात दिलाता है।

हम जानते हैं कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में असंतुलन होना योग के दृष्टिकोण से अस्वस्थ होने का मुख्य कारण होता है। कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् या व्यवस्थाप्रिय हो, यदि उसके ऊर्जा संस्थान सामान्य ढंग से क्रियाशील नहीं हैं तो उसे व्याधिग्रस्त होना ही है। सूर्य नमस्कार योग में इतनी शक्ति है कि उससे शारीरिक व मानसिक ऊर्जाओं में पुनर्संतुलन स्थापित हो जाता है। कोरोना महामारी और वायुमंडल में फैले प्रदूषण के कारण फेफड़े की बीमारी आम हो गई है। हर आयु वर्ग के लोग इस बीमारी से दो चार हो रहे हैं। चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि फेफड़ों की रचना खण्डों या उपखण्डों से हुई है। सामान्य श्वसन में शायद ही कोई सभी उपखण्डों का उपयोग करता हो । सामान्यतया फेफड़ों के केवल निम्न भाग ही उपयोग में आते हैं। ऊपरी हिस्से या तो कार्य करना बन्द कर देते हैं या उनमें उपयोग में लाई हुई वायु, कार्बन डाइ-ऑक्साइड तथा विषैली गैस जमा होती रहती हैं। ऐसा विशेषकर शहरवासियों तथा धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों के फेफड़ों में पाया जाता है। ये विषैले पदार्थ फेफड़ों में वर्षों तक पड़े रह जाते हैं, जिससे श्वसन तथा अन्य शारीरिक संस्थानों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

इसी वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाते हुए स्वामी सत्यानंद सरस्वती बतलाते रहे हैं कि श्वसन संस्थान के लिए यह योग कारगर है। दरअसल, सूर्य नमस्कार में प्रत्येक गति के साथ लयबद्ध गहन श्वसन प्रक्रिया स्वतः होती रहती है। इससे फेफड़ों में भरी हुई दूषित वायु पूर्णतः बाहर निकल जाती है और उनमें ताजी, स्वच्छ तथा ऑक्सीजन-युक्त वायु भर जाती है। विशेषकर ऐसा हस्तउत्तानासन की स्थिति में होता हैं, इसमें वक्ष भित्ति फैल जाती है। पादहस्तासन करते समय जब किंचित् बलपूर्वक श्वास छोड़ी जाती है, (ऐसा खुले मुँह से भी किया जा सकता है), तब यह श्वास शुद्धिकरण की शक्तिशाली विधि बन जाती है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने से फेफड़ों की सभी कोशिकाएँ फैलती हैं, उद्दीप्त होती हैं और स्वच्छ हो जाती हैं। रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस कारण शरीर, मस्तिष्क के ऊत्तकों एवं कोशिकाओं की क्षमता तथा ऑक्सीजनीकरण में वृद्धि होती है। सुस्ती से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। श्वसन-व्याधियाँ दूर होती हैं तथा वायु मार्ग का अवांछित श्लेष्मा भी समाप्त होता है। यह अभ्यास क्षय की तरह के ऐसे रोगों से बचाव करता है, जो फेफड़ों के कम उपयोग में लाए गये तथा निश्चल भागों में उत्पन्न होते हैं।

स्पष्ट है कि सूर्य नमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। अच्छी बात यह है कि छात्रों को भी यह खूब भाता है। यह तथ्य भी विज्ञानसम्मत है कि यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो सूर्य मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार करने से उसका असर द्विगुणित हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्री दुर्गासप्तशती : श्लोकों में छिपे गूढ़तम प्रयोग  

किशोर कुमार //

मौका नवरात्रि का है इसलिए इस लेख में मुख्यत: दुर्गा शप्तशती और मंत्रयोग की बात। इस विश्लेषण के जरिए  जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।

हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने भी अनुभव किया कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है।

श्री दुर्गाशप्तशती सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। नवरात्रि के समय में मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती का पाठ किया जाता है। यही दुर्गासपत्शती है। इसमें हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि…. जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं।

असंयमित जीवन-पद्धति के कारण मानव के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं उपस्थित होती रहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि मानसिक रोगियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदिशक्ति की मंत्रो के साथ आराधना का मानसिक स्तर पर भी व्यापक असर होना है। आध्यात्मिक चिकित्सकों के प्रायोगिक अनुभव का सार हैं कि दुर्गासप्तशती के कथा भाग से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण इसके मंत्र प्रयोग हैं, जिन्हें यदि कोई सविधि सम्पन्न कर सके तो जिन्दगी की हवाएँ और फिजाएँ बदली जा सकती है।

नवरात्रि का संदेश पवित्रता, प्रचुरता और ज्ञान का आह्वान है। जहां ज्ञान और सद्गुण मिलकर जीवन में प्रकट होते हैं, वहां हमें दिव्य जीवन मिलता है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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