तो इसलिए नहीं मिट पाता कर्मों का लेख

किशोर कुमार //

वेदों में ईश्वर के विषय में प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वद्रष्टा कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है, जो समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार ही न्यायपूर्वक फल प्रदान करता है। पर सवाल है कि सूक्ष्म जगत में पाप-पुण्य का लेखा-जोखा और कर्मफल कैसे तय होता होगा? इस लेख का प्रतिपाद्य विषय यही है। वैदिक शास्त्रों के इस कर्मफल-सिद्धांत से जहां चित्रगुप्त भगवान का सीधा वास्ता जुड़ा हुआ है। वहीं, वैदिक ज्योतिष में शनिदेव को भी कर्मफलदाता और न्याय प्रदाता माना गया है। इसे महज संयोग मानिए या किसी प्रकार का अंतर्संबंध कि चित्रगुप्त भगवान और रामदूत हनुमान का अवतरण दिवस एक ही दिन यानी चैत्र मास की पूर्णिमा को है।

हम सब जानते हैं कि पवनपुत्र हनुमान श्रीराम के लिए कितने प्रिय थे। पर श्रीराम के राज्याभिषेक से जुड़ी एक कथा से पता चलता है कि चित्रगुप्त भगवान श्रीराम के लिए आदरणीय थे। तभी राज्याभिषेक के लिए आयोजित समारोह में चित्रगुप्त भगवान की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उनके पास विशेष दूत भेजा गया था। हालांकि इसके पीछे भी एक लंबी कहानी है। चित्रगुप्त भगवान के अवतरण और उनके कार्य-निर्धारण से जुड़े तमाम प्रसंग “कायस्थ इनसाइक्लोपीडिया” नामक पुस्तक में विस्तार पूर्वक मिल जाते हैं, जो वैदिक साक्ष्यों पर आधारित हैं। भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी रहे उदय सहाय ने अपने दो वर्षों के गहन शोध के बाद इस पुस्तक की रचना की है।

खैर, आइए मुख्य विषय पर कि कर्म-अकर्म क्या है और श्रीमद्भगवतगीता से लेकर अनेक वैदिक ग्रंथों में क्यों कहा गया है कि कर्मों का लेख मिटता नहीं है। तर्कशील व्यक्ति तो पुनर्जन्म के सिद्धांत को ही मानने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में उन्हें कर्मफल का सिद्धांत बकवास लगना स्वाभाविक ही है। बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे — बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी वैदिक साक्ष्यों को कौन कहे, कई बार विज्ञानसम्मत बातों पर भी भरोसा करना मुश्किल होता है। ओशो रेल से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते थे — इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि आत्मा नित्य है। वह न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। इस तरह हम देखते हैं कि पुनर्जन्म की बात सनातन संस्कृति में सर्वमान्य है। तभी हमने हाल ही रामावतार की चर्चा विस्तार से की थी। सती ही अगले जन्म में पार्वती हुईं और महाभारत का प्रसंग तो हम सब जानते ही हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –  हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते। …और आधुनिक युग में पुनर्जन्म के मामलों में शांति देवी का प्रसंग तो सर्वाधिक चर्चित रहा है। तीस के दशक में दिल्ली में जन्मी एक लड़की ने नौ साल की उम्र में दावा किया कि यह उसका पुनर्जन्म है। पिछले जन्म में उसका नाम लुग्दी था और मथुरा के कपड़ा व्यापारी केदारनाथ चौबे की पत्नी थी। उसकी बातें इतनी पुख्ता थीं कि गांधी जी ने पहले तो खुद शांति से मुलाक़ात की। जांच कमेटी की रिपोर्ट से भी इस बात की सत्यता का पता चल गया था।

भारत के तमाम आध्यात्मिक संत इस बात पर एकमत रहे हैं कि कर्म का नियम हमारे जन्म, स्थिति और जीवन की परिस्थितियों को निश्चित करता है। पंचध्यायी में एक श्लोक है – नयन्ति नरकं नूनं मात्मानो मानवान् हतः। दिवं लोकं च ते तुष्टा इत्यूचुर्मन्त्र वेदिनः।। सार यह कि हनन की हुई आत्मा नरक को ले जाती है और संतुष्ट की हुई आत्मा दिव्य लोक प्रदान करती है। गरूड़ पुराण का अध्ययन करें तो पंचध्यायी का यह मंत्र ज्यादा ही स्पष्ट हो जाएगा। उसमें कहा गया है कि यमलोक में ‘चित्रगुप्त’ नामक देवता हर एक जीव के भले-बुरे कर्मों का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं। जब प्राणी मर कर यमलोक में जाता है, तो वह लेखा पेश किया जाता है और उसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक प्रदान किया जाता है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अर्वाचीन वैज्ञानिक भाषा में संस्कार का तात्पर्य अनुभव अथवा प्रभाव होता है। जिस प्रकार एक बीज में महान् वृक्ष बनने और फल देने की नियति छुपी होती है, उसी प्रकार आत्मा के भीतर ये संस्कार छुपे रहते हैं। हर छोटा-बड़ा अनुभव अपने पीछे एक संस्कार छोड़ जाता है। फिर ये संस्कार ही जीवन-चरित्र और व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं। विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित कर चुका है कि मानव मस्तिष्क में भी कभी न रुकने वाला चेतना का कैमरा गतिशील रहता है, जो स्वाद, स्पर्श, ध्वनि, रूप, लक्ष्य, घ्राण सम्बन्धी प्रत्येक अनुभव को नोट करता है। मनुष्य जब मरता है तथा उसका सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है, तभी चेतना के कार्यकलापों पर विराम लगता है। चेतना द्वारा जो भी अनुभव ग्रहण किए जाते हैं वे रूपान्तरित होकर अन्य शरीर में संचित होते हैं। प्रथम तो वे स्थूल मन में रहते हैं और यदि आप उनका दोबारा उपयोग न करें, तो वे वहाँ से अवचेतन शरीर में स्थानान्तरित हो जाते हैं। यदि वहाँ भी उनका उपयोग न हो तो वे कारण शरीर में पहुँच जाते हैं। हमारा प्रत्येक अनुभव अमिट होता है। छोटे से छोटा अनुभव जिस पर हम ध्यान नहीं देते, वह भी चेतना में संचित हो जाता है।

तंत्र विद्या के लिहाज से स्वाधिष्ठान चक्र ही वह हार्डडिस्क है, जो व्यक्ति के अस्तित्व का आधार माना गया है। मस्तिष्क में इसका प्रतिरूप अचेतन मन है, जो संस्कारों का भंडारगृह है। ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक कर्म, पिछला जीवन, पिछले अनुभव, मानव व्यक्तित्व का सबसे बड़ा पक्ष अचेतन सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र को माना जा सकता है। अचेतन मन संस्कारों के जमा होने का केन्द्र है तथा यही इस चक्र के स्तर पर अनुभव की जाने वाली अनेक नैसर्गिक अनुभूतियों का उद्गम भी है। यही चक्र हिरण्यगर्भ, ब्रह्माण्डीय गर्भाशय है, जहाँ सब कुछ सुप्तावस्था में वर्तमान है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘सृष्टि के प्रारम्भ में केवल हिरण्यगर्भ था उसके बाद सभी वर्तमान चेतन जगत् का प्रादुर्भाव हुआ’ और वही (हिरण्यगर्भ) उन सबका रक्षक था ।

इन बातों को वैज्ञानिक दृष्टि से भी समझिए। आस्ट्रिया के तंत्रिकाविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड मनुष्य की मानसिक संरचना का अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान् प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतःचेतना में होता रहता है। अमेरिकी तंत्रिकाविज्ञानी डॉ वीबेंस और उनके बाद के वैज्ञानिकों ने माइक्रोस्कोप की सहायता से मस्तिष्क के ग्रे मैटर का परीक्षण करने के बाद वैज्ञानिक ने जो निष्कर्ष निकाला, वह चित्रगुप्त भगवान के अवतरण और उनके कार्य संबंधी आख्यान से मेल खाते हुए हैं। पौराणिक आख्यान है कि चित्रगुप्त भगवान हर प्राणी के हर एक कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखते रहते हैं।

डॉ वीबेंस के मुताबिक, सभी प्राणियों के मस्तिष्क की परमाणुओं पर सूक्ष्म रेखाएं बनती चली जाती है और ये रेखाएं हमारे शारीरिक – मानसिक कार्यों को लिपिबद्ध किए जाने के कारण बनती हैं। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारियां सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहती हैं। वेद-ज्ञान से पता चलता है कि एक ही आत्मा हम सबमें अलग-अलग भासित होती है। उसी तरह ब्रह्मा की शक्ति से संचालित चित्रगुप्त भी अलग-अलग प्राणियों में अलग-अलग भासित होते हैं। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है। बगीचे की वायु और गंदे नाले की वायु में गंध भेद होने के बावजूद वायु तत्व मूलतः एक ही है। वैसे ही अलग-अलग प्राणियों में उनके पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व हैं।

श्रीराम शर्मा आचार्य ने तो खुद भी इस विषय पर काफी अध्ययन किया था। उनका मत है कि मस्तिष्क में उपस्थित ग्रे मैटर के परमाणुओं में मिला रेखांकन ही अंतःचेतना का संस्कार है। यही है चित्रगुप्त की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। यथा, गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन आदि। इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। संभव है कि चित्त का अपभ्रंश चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्त को चित्र कहा जाता रहा हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए ग्रे मैटर के परमाणुओं में  गुप्त रूप से और सूक्ष्म रूप से  बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे हुए होते हैं। मस्तिष्क की इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त का विधान मान लेने से प्राचीन आख्यान की पुष्टि हो जाती है।

वेद-भाष्य के रचयिता सायण के भाई और भगवान शंकाराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीमठ के आचार्य रहे विद्यारण्य स्वामी कृत श्रीपंचदशी में मंत्र है – नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। यानी कर्म फल भोगे बिना करोड़ो कल्प में भी कर्म क्षीण नहीं होगा। यदि इस जन्म में कर्मों का फल न मिला तो अगले किसी जन्म में अवश्य मिलेगा। चाहे वह शुभ हो या अशुभ। इस प्रमाण से भी स्पष्ट है कि शरीर आत्मा से पृथक है और शरीर नष्ट होने के बाद चेतना की रिकार्डिंग नष्ट नहीं होती।

वैदिक प्रमाणों से लेकर ऋषियों के अनुभवों तक से निष्कर्ष निकलता है कि कर्मों के ये लेख जब प्रारब्ध में तब्दील होता हैं तो हमें उस प्रारब्ध का भोग भोगना ही होता हैं। इसलिए योगी विद्या-अविद्या की व्याख्या करते हुए कर्मयोग की अनिवार्यता पर बल देते हैं। साधना के तीन सनातन मार्ग हैं – कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। कर्मयोग से चित्त शुद्ध होता है। भक्तियोग से एकाग्रता मिलती है और ज्ञानयोग से आवरण का नाश होता है, जो सत्यान्वेषण के लिए जरूरी है। त्याग सहित कर्म ही कल्याणकारी है और उसे ही कर्मयोग कहा गया है। नि:स्वार्थपूर्ण कर्म से यदि संस्कार बना भी तो चित्रगुप्त भगवान अपनी कृपा ही बरसाएंगे। जन्म-मरण का चक्र जारी रहने के बावजूद भौतिक जगत के लिहाज से जीवन में मंगल ही मंगल रहेगा।   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीराम का अवतरणअंत:करण में भी हो

किशोर कुमार//

स्वामी सत्यानंदजी महाराज देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1925 में उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। इसके बाद “राम शरणम्” नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था। संत तुलसीदास भी कह गए हैं – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि दो दिनों बाद ही है। श्रीराम का जन्मोत्सव श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाएगा। वैसे, नवरात्रि शुरू होते ही नवदुर्गा की आराधना के साथ ही राम कथाओं का सिलसिला भी जारी है। हमने देखा था कि अयोध्या में बाल राम की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर देश भर में राम-भक्ति का ज्वार किस स्तर पर था। राम कथाओं के आयोजनों में भी वैसी ही राम-भक्ति की झलक मिलती है। इसलिए कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम हमारे लिए वरेण्य हैं। उनके आदर्शों से ही हमारी संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हुई है। वह संस्कृति आज भी हम सब में बीज रूप में मौजूद है। यह बात दीगर है कि नाना प्रकार के आघातों के कारण उस बीज का पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया। पर अब समय आ गया है कि हमें दशरथ नंदन राम की कथाओं से आगे बढ़कर जगत पसारा राम के गुणों को आत्मसात कर खुद को रूपांतरित करना चाहिए। परब्रह्म राम से आशीष लेने का यही एकमात्र उपाय है।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं और अजब-गजब कारनामे करवा देती हैं।  

संत कबीर दास की वाणी है, एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ! एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा। सामान्य बुद्धि से देखें तो यहां चार राम की बात हो गई। इसलिए कि दशरथनंदन राम के जन्म से पहले भी भी राम नाम का अस्तित्व तो था ही न और ऐसा भी नहीं है कि कबीर साहेब से पहले राम के विविध रूपों को लेकर चर्चा न हुई थी। याज्ञवल्यक-भारद्वाज संवाद में प्रसंग आता है। ऋषि भारद्वाज याज्ञवल्यक से पूछ लेते हैं कि दशरथनंदन राम और घट-घट में बैठे राम क्या एक ही हैं? याज्ञवल्यक मुस्कुराते हुए कहते हैं, श्री राम भाव की दृष्टि से दशरथ नंदन हैं और ज्ञान की दृष्टि से घट-घट में समाए हुए हैं। दोनों राम हैं एक ही……पर मैं जानता हूं कि तुम्हें इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है। संशय तो सामान्य बुद्धि वालों को होगा और तुम उनकी तरफ से यह सवाल पूछ रहे हो। ताकि इसी बहाने फिर राम जी के गुणों का रसपान भी हो जाए।

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है। ।

संत कबीर हों या रहीम, वैदिककालीन ऋषि हों या आधुनिक युग के आत्मज्ञानी संत, किसी ने अलग-अलग राम की बात नहीं की, बल्कि एक ही राम के अलग-अलग गुण-धर्मों का बखान किया। ताकि मानव जीवन धन्य हो सके। तभी कबीर ने सामान्य जनों को संबोधित करते हुए कहा, कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे वन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहि।।….तो दूसरी तरफ रहीम ने कहा, राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि। यानी जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किए, उनका जन्म व्यर्थ है। वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।

सबका सार एक ही है कि केवल कथा के राम में उलझे रहने का कोई सार नहीं है। हमें समझना होगा कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? वे असुरों का संहार करके शांति और सद्भाव के लिए ही तो अवतार लेते हैं। फिर, सोचने वाली बात है कि रामायण या रामचरितमानस में जिन कथाओं का वर्णन है, वे केवल भौतिक जगत में ही घटित होते हैं? क्या हमारा जीवन अपने आप में रामायण का रंगमंच नहीं है? सच तो यह है कि हमारे जीवन में रोज-रोज राम-रावण युद्ध चलते रहता है। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि योगबल से ही अपने अंतर्मन में चल रहे युद्ध को जीता जा सकता है। लोभ,मोह, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों वाले रावण रूपी इंद्रियों का शमन का कोई दूसरा उपाय नहीं। दुर्गुणों के शमन से ही सीता रूपी शांत बुद्धि मुक्त होकर अयोध्या रूपी आत्म-निकेतन में वापस लौट सकती है। इसलिए रामकथा को ऐतिहासिकता के दायरें में ही देखना, हीरा छोड़कर कंकड़ चुन लेने के समान है।

रामचरितमानस की कथा है कि सती जी को श्रीराम के परब्रह्म परमात्मा होने पर संशय हो गया था। क्यों? इसलिए कि शिवजी जिस श्रीराम की आराधना करते हैं, उसका गुण-धर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि वह पत्नी के लिए जंगलों में भटके और विलाप करता रहे। सो, सती जी ने सीता समान बनकर श्रीराम के समक्ष प्रस्तुत हो गईं। कोई तर्कशील प्राणी कह सकता है कि सती का सीता रूप धारण कर लेना कवि की कल्पना मात्र हो सकता है। पर हमारे जैसे लोग योगविद्या की शक्ति की गहराइयों का अंदाज भी नहीं लगा सकतें। योगशास्त्र में परकाया प्रवेश विद्या का उल्लेख है। आदिगुरू शंकराचार्य ने कामशास्त्र के ज्ञान के लिए मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया था। नजीजतन, राजा जीवित हो गया था और अपनी पत्नी के साथ रहने लगा था, जबकि उसमें राजा अमरूक की नहीं, बल्कि शंकराचार्य की आत्मा थी। 

खैर, श्रीराम तो परब्रह्म हैं। उनसे क्या छिपा रह सकता है। उन्होंने न केवल सती जी को पहचान कर प्रणाम किया, बल्कि शंकरजी के बारे में भी पूछा। सती जी लज्जित हो गईं। माफी मांगकर वापस लौटने लगीं। पर थोड़ी ही दूर जाकर पीछे मुड़ती हैं तो देखती हैं कि श्रीराम सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ खड़े हैं। तब उनका बचा-खुचा संशय भी जाता रहा। भगवान की माया और योगमाया समझ में आ जाती है। सच है कि माया और योगमाया दोनों ही भगवान की शक्तियां हैं। संतजन कहते हैं कि जब हम अपनी वृत्तियों को अंदर से बाहर की ओर ले जाते हैं तो माया या भोग कहलाता है। दूसरी तरफ जब हमारी अंतर्यात्रा होती है तो वह योग होता है। इस प्रसंग से भी प्रेरणा मिलती है कि हम श्रीराम को केवल दशरथनंदन राम ही समझने की भूल न कर दें। उनकी लीलाओं के संदेश मानव जीवन को धन्य कर देने वाले हैं। पर हमारे जीवन में इन संदेशों का प्रस्फुटन योगबल से ही संभव है। स्वयं भगवान श्रीराम ने भी मानव शरीर धारण किया तो अपना मूल स्वरूप जानने के लिए गुरू वशिष्ठ से योगविद्या ग्रहण करनी पड़ी थी।

रामनवमी के मौके पर प्रभु श्रीराम के अवतरण का जश्न मनाइए। पर ध्यान रखिए कि हमारे भीतर भी श्रीराम की शक्ति का उदय होना चाहिए। परंपरा के दुर्भाग्य पर रोने का वक्त गया। हमारी संस्कृति का सौभाग्य है कि हमारे पास शक्तिशाली योगबल है, जिसका सिंचन करके फिर रामराज्य की स्थापना संभव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योगविज्ञान विश्लेषक हैं।)

होली : परमानंद का सतरंगी उत्सव

किशोर कुमार //

रंग है, गुलाल है। मस्ती है, आनंद है। सतरंगी उत्सव है, उल्लास का महोत्सव है। तभी ब्रज की मस्ती भरी होली हो, महाराष्ट्र की मटकी होली हो या कोई अन्य होली, सभी का अंतर्निहित भाव एक है। वह है – बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव। शास्त्रों में उल्लेख है और संत-महात्मा अपने अनुभवों के आधार पर कहते रहे हैं कि सात्विक गुणों में अभिवृद्धि होती है तो अंतर्मन में प्रेम और श्रद्धा का दीपक जलता है। ऐसे मन में ही आनंद का आविर्भाव होता है और जीवन उत्सव बन जाता है।

होली से जुड़ी जितनी भी कथाएं हैं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मायने एक ही है। इसलिए होलिकादहन का गूढ़ार्थ समझे बिना यह महान उत्सव वैसा ही जान पड़ता है, जैसे आत्माविहीन शरीर। पुराण कथा तो सबको पता ही है। दैत्यराजा हिरण्यकश्यप भगवान शिव से अमरता का मिले वरदान से इतना अहंकारी हो गया था कि देवताओं में भी त्राहिमाम मच गया था। कोई ईश्वर की प्रार्थना करे, यह उसे गंवारा न था। पुत्र प्रह्लाद भी अपवाद न था। इसलिए उसने प्रह्लाद की जान लेने के लिए न जाने कितने ही यत्न किए। अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर अग्नि में भस्म कर देते तक की कोशिश की।

आचार्य रजनीश ने इस प्रसंग को बड़े ही तर्कपूर्ण ढ़ंग से प्रस्तुत किया था। वे बड़े दार्शनिक थे, मनोवैज्ञानिक थे। उनकी कल्पनाशीलता कमाल की थी। बोलते थे तो ऐसे मानों आंखों देखा हाल बयां कर रहे हों। तो होली का मौका था और अपने शिष्यों को बता रहे थे – हिरण्यकश्यप प्रहलाद के सामने कमजोर मालूम होने लगा होगा। आनंद के सामने दु:ख सदा कमजोर हो जाता है। दु:ख नकार है। आनंद विधायक ऊर्जा का आविर्भाव है। दु:ख में कभी कोई फूल खिले हैं? कांटे ही लगते हैं। प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्यप का कांटा लज्जा से भर गया होगा, ईर्ष्या से जल गया होगा। प्रहलाद के भगवान के नाम पर गाए गए गीत उसे बहुत बेचैन करने लगे होंगे। उसकी सांसें घुटने लगीं। फिर तो उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है नकार को, नास्तिक को, निर्बल-दुर्बल को – मिटा दो इसे। यानी विध्वंस।

पर भक्त प्रह्लाद का बाल-बांका क्यों न हुआ? ओशो बताते हैं – प्रहलाद ने अपनी श्रद्धा-भक्ति में अवरोध न आने दिया। उसे पहाड़ से फेंका, पानी में डुबाया, आग में जलाया। पर परमात्मा पर विश्वास डोला नहीं और न ही पिता के प्रति दुर्भावना पैदा न हुई। यदि दुर्भावना भी आ गई होती तो तत्क्षण आस्तिक की मौत हो गई होती और वह जलकर भस्म हो गया होता। जीसस ने भी तो ऐसा ही किया था। सूली लगी थी और परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – इन सभी को माफ कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं। ये नासमझ हैं। इसलिए कहता हूं कि संशय रहित भक्ति में बड़ी शक्ति है। ऐसे भक्त को सूली पर लटका कर या आग में जलाकर मारना असंभव है।  

आज के संदर्भ में देखें तो लगेगा कि हमारे भीतर भी तो हर पल, हर क्षण देव-दानवों के बीच संघर्ष चलते रहता है। और अंतर्मन में जो घटित होता है, वही भौतिक जगत में अनाचार, अत्याचार की घटनाओं कारण बनता है। मनुष्य त्रिगुणातीत है। उसकी स्थिति एक जैसी कभी नहीं रहती। सत्व, रजस और तमस गुणों की मात्रा में कमी-बेशी होती रहती है। परिणाम भी गुण के अनुरूप ही मिलने लगते हैं। ऐसे में अखंड श्रद्धा और विश्वास कैसे पनपे? फिर तो मन संदेह से भरा रहेगा। ऐसे मन से अभीष्ट की सिद्धि असंभव ही है। इन गुणों का विकास तो सात्विक गुणों की छांव में होता है। श्रीरामचरितमानस के सती पार्वती प्रसंग में कथा है। रजस गुणी दक्ष की बेटी थीं सती। देखा कि शिव जी भगवान श्रीराम को सच्चिदानंद कहते हुए अभिवादन कर रहे हैं तो मन संदेह से भर गया। सोचने लगीं कि विरह में तपता हुआ मनुष्य भला सच्चिदानंद कैसे हो सकता है? पर अगला जन्म पार्वती के रूप में हुआ तो मन में संशय के लिए कोई जगह न रह गई थी। प्रक्रियाओं से गुजरकर रूपांतरित हो चुकी थीं।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – हे अर्जुन, तुम नित्य सत्व में स्थित रहो। अब परमज्ञानी अर्जुन भी नित्य सत्व में स्थित न रह सके थे तो आम आदमी की क्या बिसात? मेरे गुरूदेव परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि तुम्हारे लिए इसका मतलब यह हुआ कि काम कुछ भी करते रहे। पर भावना शुद्ध रखने की कोशिश करनी है। तभी मन से संशय दूर रहेगा और संकल्पों में दृढ़ता आएगी। चेतना का विकास करके भावनाओं को परिशुद्ध करने के लिए ही योगविद्या है। यहां योगविद्या से तात्पर्य केवल आसन-प्राणायाम नहीं है। राक्षसों की सबसे बड़ी कमजोरी क्रूरता है तो मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी कृपणता है। इसलिए, सेवा और परमार्थ की जरूरत है। इनमें ऐसी शक्ति है कि जीवन पूरी तरह रूपांतरित हो जाए। कृपणता के रहते सत्वगुणों का विकास संभव नहीं है। फिर श्रद्धा व भक्ति दूर की कौड़ी हो जाएगी और असुरों का साम्राज्य कायम रह जाएगा।          

होली का संबंध श्री कृष्ण और राधा रानी की प्रेम कहानी से भी जुड़ा है। पुराण कथा है कि श्री कृष्ण खुद तो काले-नीले थे और राधा रानी के गोरे रंग को देखकर माता से बार-बार सवाल करते कि मैं क्यों काला? यशोदा माता ने कहा कि जो रंग पसंद हो राधा को लगा दो। फिर क्या था। श्रीकृष्ण ने राधा रानी को अपने ही रंग में रंग दिया था। कालांतर में यही दिवस होली का दिन हो गया। इस प्रसंग को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो बात बड़ी अर्थपूर्ण लगेगी। राधा रानी पर भगवान की कृपा इसलिए बरसी कि वह इसके पात्र थीं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं, हमें याद रखना होगा कि श्रद्धा और विश्वास ही धन है। आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए इसी धन की जरूरत होती है। आध्यात्मिक उपलब्धियां ही जीवन को अर्थपूर्ण बनाती है। इसलिए होली हमें आत्म-निरीक्षण का अवसर देती है। यह त्योहार हमें प्रेरित करता है कि सत्वगुणों का विकास करके प्रेम की गंगा ऐसे बहाओ कि मानवता को कलंकित करती आसुरी प्रवृत्तियों के लिए जीवन में कोई स्थान न रह जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति की शक्ति और रामकृष्ण परमहंस

किशोर कुमार //

सभी जानते हैं कि उन्नीसवीं सदी के महान संत रामकृष्ण परमहंस काली मां के परम भक्त थे। माता की छोटी मूर्ति सदैव अपने पास रखते थे और कहते कि इसी में पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है। किसी विदेशी नागरिक को स्वाभाविक रूप से बात अटपटी लगी तो उसने कहा, क्या इसे साबित किया जा सकता है? परमहंस जी ने कहा कि इंसानों के अंदर जो शक्ति है, उससे अलग एक और शक्ति है, जिसे हम कॉस्मिक एनर्जी कहते हैं। जब हम इसे महसूस करते हैं, तब ही आप इसे हासिल कर सकते हैं। देखो न, सूर्य तो पृथ्वी से कितना बड़ा है। पर दिखता छोटा है। क्यों? इसलिए कि वह हमसे दूर है। जो काली मां से दूर हैं, उसे भी काली मां की विराटता का पता नहीं चलता। मैं करीब हूं तो उनका विराट स्वरूप देखता हूं। और जो देखता हूं, वही कहता हूं।

आपने सुना होगा, अध्यात्म ज्ञान के मार्तण्ड व युग पुरूष संत ज्ञानेष्वर से जुड़ा एक प्रसिद्ध प्रसंग। पंडितों ने उन्हें चुनौती दी थी कि यदि तुममे और पास खड़े भैंसे में एक ही आत्मा है, तो क्या यह भैंस भी वेद मंत्र पढेगा? ज्ञानदेव ने चुपचाप भैंसे के पास जाकर भैंस की पीठ थपथपाई, और कहा हे देवता, आप इन पंडितों के सामने वेद मंत्र का उच्चारण करें। अचानक भैंसा मानव की वाणी में मंत्र बोलने लगा था। रामकृष्ण परमहंस की भी अनुभूति थी कि आत्मा एक है, जो विविध रूपों में भासित होता है। इसलिए उन्होंने अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद को अद्वैतवादी बनाया। पर जन सामान्य को सदैव अद्वैतवाद की ही शिक्षा देते रहे। वे मुख्यत: नारद भक्ति की शिक्षा देते थे। कहते थे कि कलियुग में इसी शिक्षा से उद्धार होगा। भगवत् प्रेम के गूढ़ार्थ बताने के लिए नारद मुनि ने चौरासी सूत्र दिए थे। उन्हें ही नारद भक्ति सूत्र कहा गया है। परमहंस जी कहते थे कि भक्ति में छलांग लगाओ, राख गायब हो जाएगा, फूल ही फूल दिखने लगेगा। यह कोई सैद्धांतिक नहीं, अनुभव की बात है।

परमहंस जी कहते कि यह भक्ति किसी प्रार्थना स्थल पर जाने जैसी नहीं है। यह भक्ति वैज्ञानिक है, आंतरिक ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने की बात है। यह मार्ग भी उतना ही मजबूत है कि इच्छानुकूल फल देने में सक्षम बना देगा। रामकृष्ण परहंस के जीवन का एक अद्भुत प्रसंग है। मानव जाति के इतिहास में वे अकेले व्यक्ति थें, जिन्होंने सभी धर्मों के मार्ग से सत्य तक जाने की चेष्टा की और सभी धर्मों से उसी शिखर को पा लिया। ईश्वर अल्लाह तेरो नाम तो अनेक लोग जपते रहे हैं। पर उन्होंने अनुभव से जान लिया है कि ईश्वर एक है। उल्लेख है कि जब वे इस्लाम की साधना करते थे तो वे ठीक मुसलमान फकीर हो गए थे। वे भूल गये राम-कृष्ण और ‘अल्लाहू-अल्लाहू’ की आवाज लगाने लगे थे, कुरान की आयतें सुनने लगे थे।

जब वे सखी-संप्रदाय की साधना करने लगे तो उनमें स्त्रियों के सारे गुण प्रकट हो गए थे। आवाज बदल गई, चलने का तरीका बदल गया और यहां तक कि शरीर का बनावट तक बदल गया था। मासिक धर्म का चक्र शुरू हो गया था। सखी-संप्रदाय की मान्यता है कि परमेश्वर ही पुरुष है, बाकी सब स्त्रियां हैं। परमेश्वर कृष्ण है, बाकी सब उसकी सखियां हैं। इसलिए सखी-संप्रदाय का पुरुष भी अपने को स्त्री ही मान कर चलता है। लेकिन जो घटना रामकृष्ण के जीवन में घटी, वह अपवाद था। सखी-संप्रदाय के ही कई लोग कृष्ण को पति मानते हुए उनकी मूर्ति को लेकर बिस्तर पर सो जाते थे। पर अनुभूति नहीं मिल पाती थी। पर रामकृष्ण परमहंस के मन में यह भावना इतनी प्रगाढ़ हुई कि मैं स्त्री हूं, सब कुछ बदल गया था।

इस प्रसंग से साबित होता है कि मनुष्य जैसा दिखाई देता है उससे कहीं अधिक है। रामकृष्ण परमहंस की चेतना की तो बात ही क्या है। उनके जीवन की एक अन्य अद्भुत घटना से इस बात को समझिए। महान योगी तोतापुरी ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि उनमें सारे गुण मौजूद हैं। एक कमी है कि भावनात्मक ऊर्जा के स्तर पर सजगता का विकास नहीं हो पाया है। यह काम हो जाए तो वे चरम को छू सकते हैं। एक आसान विधि है, जिसके अभ्यास से जागरूकता शक्तिशाली हो जाएगी। रामकृष्ण मान गए। पर इस विधि से भी काली के ही दर्शन होते थे।

तोतापुरी ने दूसरी युक्ति निकाली। कहा, ‘अब काली दिखें, तो तलवार से उनके टुकड़े कर दीजिएगा।’ परमहंस जी ने पूछा, ‘मुझे तलवार कहां से मिलेगी?’ तोतापुरी ने जवाब दिया, ‘वहीं से, जहां से आप काली को लाते हैं। यानी मानसिक तल पर ही सब कुछ होना था। परमहंस जी फिर काली दे दर्शन पाकर परमानंद में डूबने ही वाले थे, कि तोतापुरी ने शीशे के टुकड़े से उनके माथे पर एक गहरा चीरा लगा दिया। परमहंस जी ने उसी समय अपनी कल्पना में तलवार बनाई और काली के टुकड़े कर दिए, इस तरह वह मां और मां से मिलने वाले परमानंद से मुक्त हो गए। अब वह वास्तव में एक परमहंस और पूर्ण ज्ञानी बन गए थे।

रामकृष्ण परमहंस की चेतना इतनी ठोस थी कि वह जिस रूप की इच्छा करते थे, वह उनके लिए एक हकीकत बन जाती थी। यह भक्ति की शक्ति थी। यूं कहें कि उनकी तमाम शक्तियों के मूल में भक्ति ही थी। तभी बंगाल महापंडित केशवचंद्र सेन का समूचा तर्क औपचारिक शिक्षा से कोसो दूर रहे परमहंस जी सामने गिर गया था। दरअसल, परमहंस जी की ख्याति जब दूर-दूर तक फैल गई तो बंगाल महापंडित केशवचंद्र सेन की उनसे शास्त्रार्थ करने की इच्छा बलवती हो गई। विद्वता और तार्किकता अद्वितीय थी। मेधा बड़ी प्रखर थी। बंगाल में शायद ही कोई विद्वान हो जिसे वे अपनी तर्क-शक्ति से हरा न चुके थे। मन में विचार आया कि वे रामकृष्ण जैसे अपढ़ को तो चुटकी बजाते हरा देंगे। महापंडित पद्मनाभ जैसा ही भाव आ गया।

संत कबीर के समकालीन पद्मनाभ को अहंकार था कि वे शास्त्रार्थ में किसी को भी पराजित कर सकते हैं। अनेक बैलगाड़ियों पर ग्रंथ भरकर काशी चले थे, वहां के पंडितों को पराजित करने। पंडितों ने सामना करा दिया संत कबीर से। उस कबीर से, जिनकी उद्घोषणा है कि “मसि-कागद तौ छुओ नहिं, कलम गही ना हाथ।” और कहानी सबको ज्ञात है कि संत कबीर ने जब सवाल किया कि इतने सारे ग्रंथ पढ़कर समझे या समझ कर पढ़े, तो महापंडित पद्मनाभ उलझ गए। उलझने वाली बात ही थी। यदि समझ पहले से थी तो पढ़े क्यों और समझ कर पढ़े तो किताब को समझा होगा, परमात्मा को नहीं। पद्मनाभ को जवाब न सूझा था और पराजित हो गए थे। ऐसा ही कुछ हुआ केशवचंद्र सेन के साथ। वे पराजित हो गए थे।     

रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को तर्क से नहीं हराया जा सकता, क्योंकि रामकृष्ण जैसे व्यक्ति का आधार ही तर्क पर नहीं होता। केशवचंद्र ने तर्क पर तर्क दिये और रामकृष्ण उठ—उठकर उनको छाती से लगा लें! और कहें, ‘क्या गजब की बात कही! वाह! वाह! अहा! आनंद आ गया!’ केशवचंद्र ने कहां, ‘वह कैसे?’ परमहंस जी ने कहा कि ऐसी प्रतिभा मनुष्य में है, तो जरूर इस जगत के स्रोत में महाप्रतिभा होनी ही चाहिए, नहीं तो तुममें प्रतिभा कहां से आती? जब फूल खिलते हैं, तो उसका अर्थ है कि जमीन गंध से भरी होगी। तुम्हारी गंध को देखकर ही ईश्वर प्रमाणित होता है!’ केशवचंद्र का सिर झुक गया और चरण पर गिर पड़े थे।

तो परमहंस जी आमलोगों के लिए देशकाल को ध्यान में रखते हुए भक्ति की शिक्षा देते थे। अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद को अद्वैत की शिक्षा दी तो आमलोगों द्वैत की, मुख्यत: नारद भक्ति की शिक्षा दी। इसलिए कि नारद मुनि ने शाण्डियल्य भक्ति सूत्र की तरह ज्ञान प्रधान भक्ति की बात नहीं की है। उन्होंने भाव प्रधान भक्ति समझाई और कहा कि परमेश्वर की भक्तिमय सेवा से इंद्रियां और मन माया के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा का द्वार खुल जाता है। प्रसिद्ध पुराण कथा भी है। कलियुग में भक्ति देवी के दोनों पुत्रों ज्ञान व वैराग्य का उद्धार भक्ति के प्रभाव से ही हो पाया था। इससे भी भक्ति की श्रेष्ठता का पता चलता है। परमहंस जी की 188वीं जयंती पर सादर नमन। उनकी शिक्षाएं पूरी मानव जाति को आलोकित करती रहेंगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

शिवरात्रि : योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान

किशोर कुमार //

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है। विज्ञान भैरव तंत्र में बताई गई कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

महाशिवरात्रि का त्यौहार भारत के आध्यात्मिक उत्सवों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है। आखिर यह रात इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और हम इसका लाभ जनसामान्य कैसे उठा सकते हैं? पर पहले समझिए शिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है।

चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए ऋषियों को किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ा। राम-रावण युद्ध और देवासुर संग्राम को भी इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। तंत्र शास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरुष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरुष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरुष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का सही मार्ग है। इसलिए गुरूजन कहते हैं कि ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीरे-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

मीराबाई का एक पद है, “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते हुए कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति जन्मो की वृत्तियों के ही प्रतीक हैं। आधी रात की साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।

सद्गुरू जग्गी वासुदेव शिवरात्रि का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार स्थित होता है कि मनुष्य भीतर ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की और जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है। इस समय का उपयोग करने के लिए, इस परंपरा में, हम एक उत्सव मनाते हैं, जो पूरी रात चलता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले – आप अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए – निरंतर जागते रहते हैं।

अब सवाल है कि यौगिक व आध्यात्मिक लाभ किस विधि प्राप्त करें? विज्ञान भैरव तंत्र के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बताई थी, जो योग शास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इसी संवाद में शांभवी मुद्रा की बात भी आती है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी ने एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। योग शास्त्र में कहा गया है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। अब आधुनिक विज्ञान भी यही बात कह रहा है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस मुद्रा पर शोध हुआ। पता चला कि शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरोनल रीसाइक्लिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कुल 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

न्यूरोसाइंस के दृष्टिकोण से, शिव को मानसिक शांति, स्थिरता, और मेधा शक्ति का प्रतीक, जबकि शक्ति को मानसिक गतिशीलता, उत्साह, और उत्कृष्टता का प्रतीक माना जा सकता है। इन दोनों का योग करके कोई भी व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकता है। पार्वती जी को बताई गई अन्य विधियां भी कम शक्तिशाली नहीं। विज्ञान भैरव तंत्र की 22वीं विधि तो डायनेटिक्स और साइंटोलॉजी के रूप में अमेरिका सहित अनेक देशों में विख्यात हो चुकी है। इस बारे में विस्तार से फिर कभी। पर हमसे कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

वर दे, वीणावादिनी वर दे !

किशोर कुमार//

महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” की कालजयी कविता “वर दे, वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे…..” हमारी प्रार्थना बन चुकी है। सच कहिए तो हर भारतीय के मन में यही भाव होता है कि प्राचीन भारत का गौरव और वैभव फिर से लौटे और भारत फिर विश्व गुरू बन जाए। पर यह तो तभी संभव है जब हमारी राष्ट्रभक्ति, संकल्प-शक्ति और पराक्रम के साथ माता सरस्वती की कृपा भी होगी। इस कृपा के लिए बसंत पंचमी के मौके पर की गई प्रार्थना बुद्धि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों को सन्मार्ग दिखाने वाली साबित होगी।

इसलिए हम प्रार्थना करें कि हे परा और अपरा विद्या की स्वामिनी माता सरस्वती, आप इस धरा पर रश्मियां बिखेर कर  हमें इतनी शक्ति दीजिए कि हम निरंतर सीखने और सभी की भलाई के लिए अपनी समझ व ज्ञान के अनुप्रयोग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नवीनीकृत कर सकें। हमें वैदिक ग्रंथों और संत-महात्माओं से पता चलता है कि जब भी दैवी शक्तियां इस धरा पर अपनी ऊर्जा बिखेरती हैं, तो सुपात्रों का निर्माण होता है। सुमधुर सामूहिक धुन जागृत होते हैं। सभ्यता के श्रेष्ठतम तराने झंकृत होते हैं। इससे सामाजिक प्राणियों में सद्भावना आता है, सुसंस्कृत सभ्य समाज का निर्माण होता है। इससे जगत का कल्याण होता है! महान सरस्वती सभ्यता भी तो इन्हीं विशिष्ट गुणों के लिए याद की जाती है।

हे वाग्देवी, हमें ज्ञात है कि विशाल सरस्वती नदी आपकी ही एक रूप थी। चूंकि आप ज्ञान, संगीत और रचनात्मकता की देवी हैं, इस वजह से वह नदी सभी जीवों के लिए बेहद कल्याणकारी थी। हे विद्यारूपा मां, आपका नदी स्वरूप विलुप्त प्राय: हो जाने के कारण महान हड़प्पा सभ्यता का पतन हो गया। सनातन संस्कृति और मानवता को बड़ा नुकसान हुआ। हमें इस बात का भान है कि जिस तरह गंगा और अन्य महत्वपूर्ण नदियों के किनारे मौजूदा भारतीय सभ्यता का रची-बसी है, उसी तरह सरस्वती नदी के प्रभाव क्षेत्र में भी महान सिंधु-सरस्वती सभ्यता थी, जो शिक्षा-संस्कृति और धन संपदा के मामले में बेहद समृद्ध थी। तभी जो भी विदेशी आक्रांता हमें लूटने आते थे, यहां का वैभव देखकर यहीं जम जाते थे और हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर राजसत्ता पर काबिज हो जाते थे।

आधुनिक युग में प्राचीनकाल में वैभवशाली भारत की चर्चा मात्र से जले-भुने लोग नैरेटिव सेट करने में जुटे रहें कि सरस्वती नदी और सरस्वती सभ्यता की कथाएं काल्पनिक हैं। पर सत्य कहां पराजित होती है। अपके वाहन हंस की तरह इसरो और नासा के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों के आधार पर दूध और पानी का भेद कर दिया है। सप्रमाण बता दिया है कि आज का घग्गर-हकरा नदी कुछ और नहीं, बल्कि सरस्वती नदी के ही अवशेष हैं। वैसे, अपनी जड़ों से जुड़े लोगों को आपके अस्तित्व को लेकर कभी संशय न था। हमें तो प्रयागराज स्थित संगम में एक नाविक भी बताता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन-स्थल कौन-सा है। हे मां भारती! आपकी कृपा और अपने अल्प ज्ञान की बदौलत हम श्रुति और स्मृति के आधार पर वैदिक ज्ञान को काफी हद तक संरक्षित करते आए हैं। इसलिए सरस्वती नदी घाटी सभ्यता की बातें भी मौखिक परंपरा के रूप में संरक्षित है।

हे वेदमाता! पुरातत्वविदों की खुदाई से पता चल चुका है कि उस काल में भी योग विद्या बेहद समृद्ध और सर्वग्राह्य थी। विभिन्न योग मुद्राओं वाली टेराकोटा मूर्तियां इस बात की गवाही दे रही हैं। यह आपकी महिमा का ही प्रतिफल था। आपकी मुद्राओं से मानव जीवन को धन्य बनाने के संदेश मिलते हैं। आपका कमल रूपी आसन में ज्ञान मुद्रा में होना संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक है। योगी बताते हैं कि ज्ञान मुद्रा बुद्धिमत्ता, स्मरण-शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि कराने वाली है। हमारे जीवन की जितनी भी क्रियाएं और विचार हैं, उनका सृजनात्मक नाद रूप ही इस जगत में सर्वत्र है। दोनों हाथों से वीणा धारण करना इसी बात का प्रतीक है। पुस्तक सर्वज्ञानमय स्वरूप का प्रतीक है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी की स्तुति में कोई चौहत्तर श्लोक हैं। उनसे पता चलता है कि सरस्वती नदी को बुद्धि, विवेक और अंतर्ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता था।

हे शास्त्ररूपिणी! हमें वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि आप प्रकृति को वाणी देने के लिए वसंत पंचमी के दिन अवतरित हुई और विविध रूप धारण करके सबका कल्याण करती रहीं। हम क्षमाप्रार्थी हैं कि अपनी ही कमजोरियों के कारण अपनी गौरवशाली संस्कृति से कटते गए और गोस्वामी तुलसीदास उक्ति “सकल पदारथ एहि जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं… को चरितार्थ करते रहे। पर हे मां, हमें सुबुद्धि दीजिए कि अब सर जॉन रिसले जैसों की दाल गलने न पाए। वह कहता था कि भारत की जातीय व्यवस्था भारतीयों को उनकी जड़ों से जुड़ने नहीं देगी। उसने इसी भावना से भारत में पहली बार सन् 1872 में जाति आधारित जनगणना करवाई थी। इसका परिणाम हुआ कि हम बिखर गए और उपनिवेशवादी बलशाली हो गए। आपकी शिक्षाओं से हमें इस बात का अहसास हो चला है कि आत्मभाव ही ऐसे विध्वंसक प्रयासों की काट है। और यह योग विद्या से प्राप्त होगा।

हे परम चेतना संपन्न माता सरस्वती! आपके हाथों की अक्षमाला (रूद्राक्ष) की महत्ता ही इतनी है कि ऋषियों ने अक्षमालिकोपनिषद् तक की रचना कर दी थी। इस उपनिषद् में भगवान कार्तिकेय प्रजापति को बतलाते हैं कि अक्षरमाला का प्रत्येक अक्ष (मनका) में दैवीय गुण हैं। पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि की दैवी शक्तियाँ इस अक्षमाला में समाहित हैं। समस्त विद्याओं और कलाओं का स्रोत भी यही अक्षमाला है। इन कथनों का सार यह कि ब्रह्मांड के समस्त ज्ञान-विज्ञान का स्रोत अक्षमाला ही है। 

हे हंसवाहिनी मां! आपके तेज का ही प्रतिफल है कि आपकी छाया में होने के कारण हंस भी प्रखर बुद्धि का स्वामी बन गया। तभी उसके पैंतालीस उपदेशात्मक श्लोकों वाली हंस गीता की रचना हो पाई थी, जो हमें यम-नियम सहित सर्वग्राह्य योग विद्या से परिचय कराती है। हे मां, आपका उज्जवल रंग ही प्रकाशमान ब्रह्म है। हमें योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित कीजिए। ताकि हममें नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जमाने की बुद्धि प्रकाशित हो सके। आपकी यह कृपा ही भारत के गौरव की पुर्नस्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)         

योग विद्या के आलोक में श्रीराम

किशोर कुमार //

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है।

पूरा देश राममय है। हममे श्रीराम के मूल्यों का बीज तो पहले से विद्यमान है। सही पोषण भर से वह अंकुरित हो चुका है। कामना यही है कि यह अंकुरण निर्दोष रहे और फले-फूले। तभी कथा के राम से बाहर जाकर घट-घट में बैठे राम से साक्षात्कार कर अपना जीवन धन्य बना पाएंगे।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं कि रामायण की कथा जान गए, अच्छी बात है। सद्गुणों के विकास की पहली सीढ़ी है। पर यह भी जानने की कोशिश होनी चाहिए कि रामायण का रहस्य क्या है? क्या राम केवल राजपुत्र थे अथवा परब्रह्म परमेश्वर थे? उनका वास्तविक स्वरूप क्या था? संत कबीर ने कहा है – “एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा।“ जाहिर है कि हमें कथा के राम तक सीमित नहीं रहना होगा, एक पायदान आगे बढ़ना होगा। योगबल के जरिए घट-घट में बैठे राम का अन्वेषण करना होगा। ऐसा किए बिना कलियुग में रामराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हमारे गुरू परमहंस जी सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।

हम सब बचपन से पढ़ते आए हैं कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यौगिक व आध्यात्मिक विरासत होने के बावजूद समस्याए हर स्तर पर बनी रहती है। व्यक्तिगत समस्या के मूल में हमारी अति की भावना की प्रबलता है। जैसे, अति कामना, अति भोग आदि। यह जानते हुए भी अति का अंत बुरा ही होता है। रावण भी तो अति में ही मारा गया। सोने की लंका थी, अपने जमाने की विश्व सुंदरी मंदोदरी पत्नी थी। पर अति की भावना ने सीता जी का अपहरण करने को बाध्य किया। नतीजतन, सोने की लंका जल गई। इसलिए जरूरी है कि समाजा ऐसा होना चाहिए, जिस पर राम की कथाओं से सींचे हुए लोगों का प्रभाव हो। पर चित्तवृत्तियों का निरोध न हुआ तो बात कैसे बनेगी?

हम सबकी जैसी मनोदशा होती है, उसमें सीधे-सीधे आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधनाओं से बात बनने वाली नहीं। तभी अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के लिए होने वाले महायज्ञ से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यम-नियम की साधना की। यम और नियम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के पहले दो पायदान हैं। योगी इसे योग का आधार मानते हैं। इसके बिना सामान्य जनों का योग सधना मुश्किल है। हम सब देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है। इन योग साधनाओं के बाद ही उच्चतर योग साधनाओं से मन का प्रबंधन होगा और घट-घट के राम का जानना संभव हो सकेगा।

पर संत तुलसीदास जी कह गए – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नाम जप और संकीर्त्तन को छोड़कर प्राचीन काल में जितनी साधनाएँ हम लोगों को बतलाई गई, इस कलयुग में उन सबकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। राम नाम से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे स्वामी सत्यानंदजी महाराज। पर मन श्रीराम में रम गया। बात 1925 की है। उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह में एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज।

स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।  

नाम जप, संकीर्त्तन और मंत्रों की शक्ति को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारता है। महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नाम की महत्ता बतलाई थी। नतीजा हुआ कि दशरथ के राम में साक्षात् विष्णु प्रकट हो गए, जो हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। आईए, संतों द्वारा बताई गई योग सधना का क्रमिक अभ्यास करके श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में प्रकट करने का प्रयास करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी विवेकानंद और महर्षि महेश योगी : दो महान योगियों के यौगिक मंत्र

किशोर कुमार //

योग और अध्यात्म की दृष्टि से जनवरी महीने की बड़ी अहमियत है। अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले संत स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी महर्षि महेश योगी की जयंती इस महीने में एक ही दिन यानी 12 जनवरी को मनाई जाती है। स्वामी विवेकानंद की जयंती को युवा दिवस के रूप में तो महर्षि महेश योगी की जयंती को ज्ञान युग दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन दोनों योगियों ने सजगता के विकास के अहमियत पर काफी बल दिया है। इस लेख में उसी संदर्भ में इन दो महान संतों के विचारों का विश्लेषण किया गया है।

योगशास्त्र में ध्यान साधना की बड़ी अहमियत बतलाई गई है। संत-महात्मा भी ध्यान साधना पर बल देते रहे हैं। पर आधुनिक युग में रिसार्ट्स और पांचतारा होटलों में जिस तरह ध्यान सिखलाया जाता है, वह योगशास्त्र और हमारे महान योगियों के विचारों से मेल नहीं खाता। इसलिए ध्यान सिखाने वाले कॉरपोरेट गुरू भले मालामाल हो जाते हैं और अभ्यासियों के लिए यह स्टेटस सिंबल बनकर रह जाता है। पर भला कुछ भी नहीं होता। स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि महेश योगी तक ने सीधे ध्यान में उतरने की बात कभी नहीं की। उन्होंने ध्यान में उतरने से पहले सदैव प्रत्याहार साधना पर जोर दिया। वे अपने अनुभवों के आधार पर इस निष्कर्ष पर थे कि इस साधना के सध जाने पर ही ध्यान साधना के लिए एक्सप्रेस वे तैयार होता है। अष्टांग योग का क्रम भी कुछ इसी तरह है।     

तभी, महर्षि महेश योगी ने प्रत्याहार को अपने बहुचर्चित भावातीत ध्यान का आधार बनाया तो स्वामी विवेकानंद ने भी प्रत्याहार साधना को काफी महत्व दिया। चाहे युवा-शक्ति के अभ्युत्थान की बात हो या फिर बंगाल में 1899 में आए प्लेग से उत्पन्न पीड़ाएं, स्वामी विवेकानंद अपना अनुभव साझा करते हुए कहते थे – “सजगता की शक्ति ऐसी है कि वह ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त तो करती ही है, मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति दिलाती है। हम देखते हैं कि सभी लोग नईपीढ़ी से कहते हैं कि अच्छा बनो, विवेकशील बनो। पर बताते नहीं कि ऐसा किस तरह संभव होगा। यदि मन अपने वश में न होगा तो कोई कैसे अच्छा या विवेकशील बनेगा है? मन की सजगता की बुनियाद पर एकाग्रता का महल खड़ा होता है जो ध्यान के लिए आधार तैयार करता है। सजगता प्रत्याहार है और एकाग्रता धारणा। इन साधनाओं के लिए कई योग विधियां हैं।“

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। असर यह हुआ कि अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं के लिए भावातीत ध्यान यौगिक दवा बन गया था। ऐसा कैसे हुआ? चिकित्सा विज्ञानियों ने इसकी पड़ताल की तो वे चौंक गए थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान का विभिन्न रोगों पर होने वाले प्रभावों पर शोध किए गए। अब तक सात सौ से ज्यादा शोध-कार्य किए जा चुके हैं। तभी कोरोना महामारी फैलने के बाद अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भाया। योगनिद्रा भी प्रत्याहार की ही एक सशक्त क्रिया है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज की जरूरतों के लिहाज से विकसित करके प्रस्तुत किया था।

योगशास्त्र में कहा गया है कि इंद्रियों को अंतर्मुखी करने की कला प्रत्याहार है। चूंकि आमतौर पर सबकी चेतना बहुर्मुखी होती है और मन इंद्रियों का दास बनकर उसके इशारे पर नाच रहा होता है। इसलिए तरह-तरह की मानसिक समस्याएं खड़ी होती रहती हैं। ऐसे में हमारे लिए अपने भीतर की परमसत्ता यानी आत्मा या चेतना के अनंत पक्षों को जान पाना कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “कुछ क्षण बैठें और मन को इधर-उधर दौड़ने दें। मन सदैव बुलबुलाता रहता है। वह उस कूदते हुए बंदर के समान है। बंदर को जितना कूदना है, कूदने दें; आप केवल रुककर देखते रहिए। जब तक आप यह नहीं जानते कि आपका मन क्या कर रहा है, आप उसको नियंत्रित नहीं कर सकते। उसे लगाम दीजिए; आपके भीतर कई घृणित विचार आ सकते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आपके लिए ऐसा सोचना कैसे संभव था? परंतु आप देखेंगे कि प्रत्येक दिन मन की सनक धीरे-धीरे कम हिंसात्मक हो रही है, प्रत्येक दिन वह शांत हो रहा है।“

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग से आध्यात्मिक चेतना का समुचित विकास होता है। वैसे तो त्राटक, नादयोग,संगीत, कीर्तन आदि भी इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए बेहद प्रभावशाली हैं। पर सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र बेहद प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। यह कुछ और नहीं, बल्कि चेतना का विज्ञान है। चेतना विज्ञान की शिक्षा सार्वभौम सत्ता या चेतना के प्रत्यक्ष अनुभव से आरंभ होनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इस भ्रम को मिटा दो कि तुम दुर्बल हो। तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो। इसका अहसास हो जाएगा। बस, इंद्रियों को वश में करने का अभ्यास करो। सजगता का अभ्यास करो। बीसवीं सदी के इन दोनों ही महान योगियों को उनकी जयंती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

नववर्ष : नई आशाओं और नए संकल्पों का दिवस

किशोर कुमार      

हम अपनी मान्यताओं के आधार पर किसी भी दिवस को नववर्ष के रूप में मना लें, पर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से खुद में बदलाहट का संकल्प लेकर तदनुरूप दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास नहीं कर पाएं तो समझिए कि यह दिवस व्यर्थ गया। हम इंद्रियों का दास बने रहकर भौतिक सुखों यथा मदिरा-मांस व नाना प्रकार की अपसंस्कृतियों के पीछे ही भागते रह गए तो इस दिवस को वर्ष के बाकी दिवसों से भी बदत्तर समझिए। नववर्ष की सार्थकता तब है, जब हम शराब के साथ नहीं, बल्कि परमात्मा की उपस्थिति महसूस करते हुए जश्न मनाएंगे। सिर्फ वाईफाई से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद से पूछकर जश्न मनाएंगे कि मैं कौन हूं?  मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? तब जीवन रूपांतरित होगा और नववर्ष सार्थक हो जाएगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे महान संत के गुरू और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक  स्वामी शिवनांद सरस्वती नववर्ष पर अपने शिष्यों से कहते थे – नववर्ष में एक नवीन जीवन प्रारम्भ कीजिए। अपने दोषों-दुर्बलताओं पर धैर्यपूर्वक विजय प्राप्त करिए। एक सच्चे साधक और योगी बनने का दृढ संकल्प करिए। नववर्ष आपके सामने एक नवीन पुस्तिका की भाँति होना चाहिए। इस पुस्तिका के एक नूतन पृष्ठ पर प्रेम एवं एकत्व के सन्देश को अंकित कीजिए। इस पृष्ठ पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखिए – केवल प्रेम द्वारा ही घृणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा मानव की सेवा ईश्वर की आराधना है। अपने समक्ष उच्च प्रेम, भ्रातृत्व, करुणा एवं क्षमा के आदर्श को सदैव रखिए। अपने प्रत्येक शब्द एवं कर्म में इन आदर्शों को अभिव्यक्त करिए तथा इस नववर्ष को एक दिव्य नवीन युग के अवतरण का माध्यम बनाइए।

पर ये उपलब्धियां कैसे हासिल होंगी? महान योगियों और महापुरूषों के जीवन का संदेश है कि धैर्य रखिए और सद्गुणों के विकास के लिए इच्छा-शक्ति को प्रबल कीजिए। फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों करने का प्रयास कीजिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि तन जितना घूमता रहे उतना ही स्वस्थ रहता है और मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ रहता है। पर हमारा जीवन प्राय: इसके उलट होता है। ऐसे में सद्गुणों के विकास के लिए एकाग्रता और इच्छा-शक्ति प्रबल करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जब मन एकाग्र नहीं होता है तो हम अधीर बने रहते हैं। यहां तक की प्रभु की कृपा के लिए भी शॉर्टकट खोजते रहते हैं। फिर तो प्रेम, सेवा, करूणा आदि की बातें भी बेमानी हो जाती हैं। नतीजतन, हमारे जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों की प्रबलता बनी रह जाती है।

नए वर्ष में जीवन कहां से शुरू करें कि सद्गुणों का विकास हो सके? स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शिक्षा है कि बात यम-नियम से शुरू हो तो सबसे अच्छा। वरना, प्रारंभ शंखप्रक्षालन से कीजिए।  हठयोग में यह अतिश्रेष्ठ क्रिया है। इसके द्वारा शरीर के भीतर की अशुद्धियाँ, पुराने मल का संचय बहिष्कृत किया जाता है। उसी तरह मन को निर्मल करने हेतु मन का शंखप्रक्षालन आवश्यक है। शारीरिक शंखप्रक्षालन में पहले कष्ट होता है, उन कष्टों से विजय प्राप्त करके ही स्वस्थ, रोगरहित, हल्के शरीर की प्राप्ति होती है। इसी तरह मन में वासनाओं की गन्दगी भरी पड़ी है। कुसंस्कारों, दुर्विचारों एवं वासनाओं का पुंज ही तो है यह मन। यह गन्दगी न्यूनाधिक रूप में सबके भीतर विद्यमान है। आप इसे जान भी कैसे सकेंगे? इस हेतु योगशास्व में एक उत्तम क्रिया है, जिसे अनार्मौन कहा जाता है। शंखप्रक्षालन में नमक और पानी का जो कार्य है, वही कार्य अन्तमौन में मंत्र-जप का है। मंत्र-जप के साथ जीवन की गहराई से विचार उठते हैं। भले-बुरे, जैसे भी हों, अच्छे के लिए होते हैं। इन्हें भीतरी सफाई का लक्षण मानिए। मंत्रों की बड़ी महिमा है। मंत्रों की परिभाषा में कहा गया है कि मंत्र वह शक्ति है, जो मन के उसके बंधनों से स्वतंत्र कर देती है।

इन यौगिक क्रियाओं से इच्छा-शक्ति प्रबल बनाने और आध्यात्मिक उन्नति की जमीन तैयार हो जाती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद ने सन् 1944 में नववर्ष के लिए दिए गए अपने संदेश में कहा था कि उनकी सफलता का रहस्य इच्छा-शक्ति ही थी। वे इसी इच्छा-शक्ति की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि भाग्य वैसा है, जैसा आप इसे बनाते हैं। पर यदि हमारी इच्छा अनुचित है या प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है तो बात कैसे बनेगी। ध्यान रहे कि जीवन में ईश्वर का सच्चा पुत्र बनने की अपेक्षा एक करोड़पति बनने का प्रयास करना वास्तव में बहुत अधिक कठिन है। ईश्वर ने करोड़पति नहीं, बल्कि अपने जैसा बनने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दे रखी है। और जब आप देवत्व पर अधिकार करते हैं तो प्रत्येक वस्तु आपकी हो जाती है।

इसलिए शंखप्रक्षालन और अंतर्मौन से योगमय जीवन की जमीन तैयार हो जाए तो निष्काम कर्मयोग का साधक बनाना जीवन को रूपांतरित करने के लिए श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, योग में स्थित रहकर, सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहते हुए फलों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्म करते रहो। यह मानसिक समता ही योग कहलाता है। योगी कहते हैं कि यह अवस्था ध्यान की अवस्था या उससे भी बढ़कर है। श्रीकृष्ण द्वितीय अध्याय के इस सूत्र की महत्ता बारहवें अध्याय में बतलाते हैं। वे कहते है कि अभ्यास योग से ज्ञान योग उत्तम है। ज्ञान योग से ध्यान योग उत्तम है और ध्यान योग से कर्मफल का त्याग उत्तम है। क्यों? इसलिए कि कर्मफल के त्याग से तत्क्षण शांति उपलब्ध हो जाती है। जीवन रूपातंरित हो जाता है।   

नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए हमें शांति से बैठकर आत-निरीक्षण करने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन को रूपातंरित करने वाले नए संकल्प लेनी चाहिए। हमारे गुरूजी कहते थे कि यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। कुछ नहीं हूं का भाव है अहंकार रहित होने का भाव है, जो निष्काम कर्मयोग से प्राप्त होता है। उसी की बुनियाद पर सुखद, समृद्ध और आनंदमय जीवन का महल खड़ा होता है। नववर्ष की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्रिसमस, धर्मों की सारभूत एकता और स्वामी सत्यानंद

किशोर कुमार //

दुनिया भर में क्रिसमस की धूम है तो दूसरी तरफ धर्मों की सारभूत एकता का संदेश देता झारखंड के देवघर जिला स्थित रिखियापीठ आज आधी रात के बाद ही बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 100वीं जयंती का गवाह बनने जा रहा है। यही वह पीठ है, जहां से इस महान योगी ने कई दशकों तक सेवा, प्रेम और दान की सैद्धांतिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी दी थी। आश्रम परिसर में क्राइस्ट कुटीर की स्थापना करके अपनी अनुभूतियों के आधार पर संदेश दिया था कि धर्मों में सारभूत एकता है। इस बात को वैदिक ग्रंथों के आधार पर सिद्ध भी किया था।  

आज जब क्रिश्चियन ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में डूबे हुए हैं, तो बाबाजी, संत युक्तेश्वर गिरि, परमहंस योगानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक अपनी-अपनी अनुभूतियों के आधार पर धर्मों में सारभूत एकता की जो बात कहते रहे हैं, उसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम …। दुनिया भर के सिद्ध संत इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – …. सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह प्रकारांतर से एक ही है।   

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ” महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।      

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। उन देशों में सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? ईसाई धर्मावलंबियों के बीच भारत के परंपरागत योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई? “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाए। यही समय की मांग है। मेरी क्रिसमस! नमो नारायण।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

: News & Archives