पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे तो प्रतिभावान होंगे बच्चे

सावन का महीना योग के आदिगुरू शिवजी को प्रिय है तो इस बार लेख की शुरूआत उनसे जुड़ी एक कथा से। फिर योग विद्या की बात। कथा है कि चंद्रमा का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष की सत्ताई कन्याओं से हुआ था। पर चंद्रदेव केवल रोहिणी प्यार करते थे। बाकी छब्बीस बहनों को यह बात नागवार गुजरने लगी तो बात प्रजापति दक्ष तक पहुंची। उन्होंने इस मामले में दखल तो दी। पर बात नहीं बनी। इससे क्रोधित होकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि उसका शरीर क्षय रोग से गल जाएगा। श्राप का असर दिखने लगा तो स्वर्गलोक में हाहाकार मच गया। स्वर्ग का देवता रोग से गल जाए तो हड़कंप मच जाना लाजिमी था।

खैर, बात ब्रह्मा जी तक पहुंची। उन्होंने चंद्रदेव को सुझाव दिया कि प्रभास तीर्थ क्षेत्र जाएं। वहां शिवलिंग की स्थापना करके आरोग्यवर्द्धक महामृत्युंजय मंत्र की साधना करें। भगवान मृत्युंजय प्रसन्न हुए तो स्वयं प्रकट होकर रोग का उपचार करेंगे। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। महादेव प्रकट हुए और आशीर्वाद दिया कि रोग से मुक्ति मिल जाएगी। पर उनका शरीर पंद्रह दिनों तक घटेगा और पंद्रह दिन बढ़ेगा। रोग से मुक्ति मिल जाने से प्रसन्न चंद्रमा ने महादेव से प्रार्थना की कि वे उसके आराध्य बनकर उसी विग्रह में प्रवेश कर जाएं, जिसकी उसने आराधना की थी। आदियोगी ने बात मान ली औऱ विग्रह में प्रवेश कर गए। कालांतर में वही स्थान सोमनाथ के रूप में मशहूर हुआ और आदियोगी वहां सोमेश्वर कहलाए। हम सब जानते हैं कि सोमनाथ मंदिर गुजरात के प्रभास पाटन में अवस्थित है। इस कथा से महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति का पता चलता है।

वेदों में कहा गया है कि ऋषियों की ध्यान की सूक्षमावस्था में अनहद नाद की अनुभूति हुई। इसे ही मंत्र कहा गया, जो बेहद शक्तिशाली है। मानव के मेरूदंड में मुख्यत: छह चक्र होते हैं। उनमें अलग-अलग रंगों की पंखुड़ियां अलग-अलग संख्या में होती हैं। उन सब पर संस्कृत में एक-एक स्वर व व्यंजन अक्षर होता है। सभी चक्रों के बीज मंत्र भी होते हैं। जैसे आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है। मंत्र भी इन्हीं अक्षरों से बने होते हैं। इसलिए ॐ मंत्र का सीधा प्रभाव आज्ञा चक्र पर होता है। इस चक्र के जागृत होने से प्रतिभा का विकास होता है। अंतर्दृष्टि मिलती है।

कुछ शताब्दियों पहले तक अनुष्ठान करके आठ साल की उम्र से ही बच्चों को मंत्रों खासतौर से ॐ और गायत्री मंत्र का जप करने को कहा जाता था। वे बच्चे बड़े होकर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा शांतिपूर्ण जीवन जीते थे। योग से नाता टूटने का कुप्रभाव देखिए कि कोरोनाकाल में बड़ों के साथ ही बच्चे भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं। अनेक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों से भी महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र के साथ ही ॐ नम: शिवाय और न जाने कितने ही मंत्रों के मानव शरीर पर होने वाले सकारात्मक प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी आदि आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक संत मंत्रों के प्रभावों से जनकल्याण करते रहे हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 1994 में बाल योग मित्र मंडल बनाकर बच्चों के योग को बड़ा फलक प्रदान किया था। उन्होंने संभवत: पुराने समय में बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर चायदानी आसन विकसित किया और बार-बार ऐसा करते हुए बच्चे उब न जाएं, इसलिए इसके साथ बाल गीत जोड़कर मनोरंजक बना दिया था। इस आसन में बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए दाहिए पैर को पीछे करके हाथ से पकड़ना होता है। बाईं केहुनी को मोड़कर हाथ को सामने करने के बाद कलाई को नीचे की ओर झुकाना होता है। ताकि पोज चायदानी की टोटी जैसा बन जाए। इस स्थिति में देर तक रहने से पैरों में शक्ति आती है और एकाग्रता का विकास होता है।

योगशास्त्र में भी कहा गया है कि बच्चे जब आठ साल के हो जाएं तभी आसन और प्राणायाम के अभ्यास शुरू कराए जाने चाहिए। यदि सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्रणायाम, भ्रामरी प्राणायाम व गायत्री मंत्र के जप के साथ ही योगनिद्रा बच्चों के दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। दुनिया भर में इस बात को लेकर एक हजार से ज्यादा शोध किए जा चुके हैं। इसलिए संशय की कोई गुंजाइश नहीं है।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है।

धर्म, अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शिक्षा को अपनी अंतर्दृष्टि से नए आयाम देने वाले जिड्डू कृष्णमूर्ति की यह बात आज भी प्रासंगिक है कि पहले की शिक्षा ऐसी न थी कि बच्चे यंत्रवत, संवेदनशून्य, मंदमति और असृजनशील बनते। आज हमारा समाज शिक्षित है। पर कई मूल्यों को खो चुका है। नतीजा है कि योग शास्त्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर योग की महिमा जानने के बावजूद हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

सच है कि नए भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी जड़ता टूटेगी और बच्चों का जीवन योगमय होगा। शिक्षा में योग के समावेश को लेकर सरकार अपना काम कर रही है। हमें भी अपने हिस्से का काम करना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

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