मन का दीप जले तो बने बात

किशोर कुमार

अयोध्या के भव्य दीपोत्सव पर सबकी नजर है। इस बार राम की पैड़ी पर इक्कीस लाख दीप जलाने का कीर्तिमान जो स्थापित होना है। हम सब जानते हैं कि दीपावाली की शुरूआत कैसे हुई थी और उसी दिन लक्ष्मी पूजन का विधान कैसे चल निकला। कार्तिक अमावस्या को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्जवलित करके खुशी का इजहार किया था। उसके बाद से ही दीपावली मनाई जाने लगी थी। और, इंद्र को धन-संपदा के मद में चूर मानते हुए दुर्वासा ऋषि ने श्रॉप दे दिया था कि लक्ष्मी जी की कृपा खत्म हो जाए तो लक्ष्मी पूजन की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। इसलिए श्रॉप मिलते ही लक्ष्‍मी पाताल लोक चली गईं तो सर्वत्र हाहाकार मच गया था। तब लक्ष्मी जी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया गया। कार्तिक मास की कृष्‍ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्‍या के दिन लक्ष्‍मी बाहर आईं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्‍या पर माता लक्ष्‍मी की पूजा होती है।    

इस पूरे घटनाक्रम को आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि दीपावली का उद्देश्य केवल दीयों और मोमबत्तियों से घर-आंगण को प्रकाशित करना भर नहीं है। यह उत्सव संदेश देता है कि हम सब खुद में व्याप्त अंतः ज्योति के दर्शन करें। यह अंतः ज्योति और कुछ नहीं, उस निराकार प्रभु का प्रकाश-स्वरूप ही है। दीप संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है दीप्यते दीपयति वा स्वं परं चेति। अर्थात् जो खुद प्रकाशित है और दूसरों को भी प्रकाशित करने में सक्षम है। वेद-वेदांग में इसे आत्मा का स्वरूप कहा गया है। श्रीराम भी ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे। इसलिए उनके चरण रज जहां भी पड़े, वहां की धरती धन्य होती गई, लोग धन्य होते गए। यही है सत्वगुण का प्रभाव। पर आम मानव के रूप में हम सब कैसे हैं? श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।।

आखिर श्रीराम को वनवास तो केकैयी के लोभ – मोह की वजह से ही हुआ था। अर्जुन को भी तो विषाद ही हो गया था। देखा न कि श्रीकृष्ण को उन्हें विषादमुक्त करने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। अपने आस-पास भी देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मानव पीड़ित है, अवसादग्रस्त है, तो इसकी वजह स्पष्ट है कि भौतिक प्रगति भी हमारे अशांत मन को सांत्वना प्रदान करने में सक्षम नहीं है। जैसे नमक या चीनी को पानी में मिलाते ही उसका स्वरूप बदल जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रभावों में आते ही सामान्य मानव का गुण-धर्म भी बदलते रहता है। ऐसी प्रक्रियाओं को आधुनिक विज्ञान के आलोक में जर्मनी के महान वैज्ञानिक रुडोल्फ जूलियस इमानुएल क्लॉसियस ने एंट्रॉपी कहा। पर हमारे संत-महात्मा वैदिककाल से गुणों और रसों के आधार पर इस परिवर्तन की विशद व्याख्या करते रहे हैं। सार एक ही कि विश्व में हर चीज़ विकृति की तरफ जाती है। पर संत-महात्मा इस स्थिति से उबरने के उपाय भी बतलाते रहे हैं, जिन्हें योग की भाषा में तरह-तरह से व्याख्या की गई है।

पर पहले एक प्रचलित कथा। यह कथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में कही जाती रही है तो ओशो ने इसे  शेख फरीद के संदर्भ में कहा। कथा चाहे किसी से संबंधित हो, पर इसका भाव आंखें खोलने वाला है। एक संत सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जा रहे थे। तभी उनके एक शिष्य ने सवाल कर दिया – ईश्वर कहां है और कैसा है? संत ने शिष्य से कहा कि नदी साथ चलो, सब कुछ पता चल जाएगा। वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी संत ने मजबूती से शिष्य का गला पकड़ लिया। शिष्य के प्राण अटक गए। थोड़ी देर बाद संत ने उसे मुक्त किया तो उसने राहत की सांस ली। पर बेहद नाराज हुआ। संत ने कहा, नाराजगी बाद में निकाल लेना। पहले यह बताओ को श्वांस अटका था तो मन में क्या ख्याल आ रहा था? शिष्य ने उत्तर दिया,

ख्याल? शिष्य ने कहा,  न कोई ख्याल था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। तब संत ने कहा – जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है। पर हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। इसलिए कि हरदम बहिर्यात्रा चलती रहती है। और बहिर्मन और अंतर्मन में सामंजस्य बैठे बिना मन का दीप कैसे जले? जीवन से अंधेरा  कैसे छंटे? इसलिए हम वृहदारण्यकोनिषद् की प्रार्थना “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय……” तो दोहराते रहते हैं और जीवन का अंधकार छंटने का नाम ही नहीं लेता।

सवाल है कि यह प्रार्थना फलित हो कैसे कि जीवन सुख-समृद्धि से भर जाए? योग में उपाय अनेक बतलाए गए हैं। पर महर्षि पतंजलि के एक सूत्र को भी जीवन में उतार लिया जाए तो बता बन जाए। महर्षि पतंजलि का सूत्र है – विशोका वा ज्योतिष्यती। यानी शोकातीत आलोक की अवस्था मन को नियंत्रित कर सकती है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की हैं – “नाद या भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित कर शांत अंतर्ज्योति की कल्पना करते हुए मन को स्थिर और नियंत्रित किया जा सकता है। अन्तर्ज्योति अत्यन्त शान्त, अविक्षुब्ध, निश्चल और प्रशांत होती है, इसमें तीखा प्रकाश नहीं होता है। गहन ध्यान में इसका अनुभव किया जा सकता है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। उनमें से एक है भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित करना, दूसरी है नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करना।“ तो आईए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे मन का दीप जलाकर खुद को समृद्ध बनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

चौंकिए मत, यह योगनिद्रा का कमाल है!

किशोर कुमार //

महर्षि पतंजलि ने जिस अष्टांग योग से दुनिया का परिचय कराया था, जिसका पांचवां अंग है प्रत्याहार। प्रत्याहार यानी इंद्रियों पर संयम। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी प्रत्याहार से आज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक शक्तिशाली विधि विकसित की थी, जिसे आज हम “योगनिद्रा” के रूप में जानते हैं। आज का विषय वही योगनिद्रा है और इसकी एक खास वजह भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 13-14 जुलाई को फ्रांस में थे। भारतीय मूल के लोग स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री मोदी से मिलने खिंचे चले गए थे। उनमें एक उत्साही युवक ने प्रधानमंत्री से पूछ लिया – आप हर रोज बीस घंटे काम करते हैं, इसका राज क्या है? लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के दौरान जाहिर है कि प्रधानमंत्री के पास इतना वक्त नहीं रहा होगा कि वे खड़े होकर उस यौगिक क्रिया के बारे में बतलाते, जिनकी बदौलत वे तीन-चार घंटे सो कर भी तरोताजा बने रहते हैं। इसलिए वे उस युवक का हाथ थपथपाते हुए आगे बढ़ गए थे। पर भारत के कुछ बुद्धिजीवियों को यह बात नागवार गुजरी। आखिर मोदी निरूत्तर क्यों हो गए? शायद तीन-चार घंटे ही नींद लेने वाली बात सही नहीं है।

कुछ साल पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो उनकी पुत्री इवांका ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था, जैसा कि फ्रांस में किया गया। उन्होंने ट्वीट करके पूछा था कि इतने ऊर्जावान होने का राज क्या है? प्रत्युत्तर में मोदी ने कहा था कि बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा निर्देशित “योगनिद्रा” का नियमित अभ्यास करता हूं। तब इवांका ट्रंप ने कहा था कि वे भी इस योगविधि का अभ्यास करेंगी। इस संवाद को जानने-समझने के बाद  कहना होगा कि या तो विरोध करने के लिए बाल की खाल निकाली जा रही है या फिर योगनिद्रा की शक्ति पर ही संशय है।          

बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे – बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी कई विज्ञानसम्मत बातें भी चमत्कार प्रतीत होने लगती हैं। ओशो रेल से जुड़े एक रोचक प्रसंग सुनाते थे – इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

हालांकि योगनिद्रा कोई नई योगविद्या तो है नहीं। दुनिया भर की एक हजार से ज्यादा प्रयोगशालाओं में शोध किया जा चुका है। सच तो यह है कि योगनिद्रा प्रत्याहार की एक ऐसी विधि है, जिसके लाभों की फेहरिस्त लंबी हैं। एक लाभ तो यही है कि पांच-छह घंटे सोने जितना शारीरिक-मानसिक आराम नहीं मिलता, उससे ज्यादा आराम ढाई-तीन घंटों की योगनिद्रा में मिल जाता है। इसलिए कि योगनिद्रा के दौरान व्यक्ति की स्थिति जागृत और स्वप्न के बीच वाली होती है। योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर पहली बार वर्षों पहले जापान में शोध किया गया था। शोधकर्त्ता डॉ हिरोशी मोटोयामा ने देखा था कि योगनिद्रा के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। इससे योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। इस वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक प्रत्याहार में इतनी शक्ति है कि इड़ा और पिंगला नाड़ियों को अवरूद्ध कर मस्तिष्क से उनका संबंध विच्छेद किया जा सकता है। इस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राय: सुषुप्तावस्था में रहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करना आसान हो जाता है। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। शोधों से पता चला है कि मनुष्य जब निद्रित रहता है, उस समय उसका मन बहुत ग्रहणशील रहता है। इसके अतिरिक्त उसकी श्रवण, दृष्टि और ज्ञान की शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि स्थूल इन्द्रियों का बन्धन नहीं रहता। यह ज्ञान अर्जन के लिए आदर्श स्थिति होती है। साथ ही स्नायविक, मानसिक और भावनात्मक तनावों मुक्ति मिल जाती है, जो अनेक बीमारियों की वजह बनी होती हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आपबीती सुनाई थी कि योगनिद्रा जीवन को किस तरह रूपांतरित कर देती है। वर्षों पहले की बात है। स्वामी जी इंग्लैंड में थे और उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। लंदन विश्वविद्यालय में बायोफीडबैक विषय पर शोध पूर्व संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। उसमें योग विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार रखने के लिए बिहार योग विद्यालय को निमंत्रण था। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लंदन में थे ही तो चले गए अपने संस्थान का प्रतिनिधित्व करने। पहले तो अन्य वक्ताओं ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पर वक्तव्य पूरा हुआ तो सभी दंग रह गए थे। इसलिए कि जिस विषय पर अभी शोध होना था, स्वामी जी उसके परिणामों की बात कर गए थे। चिकित्सा वैज्ञानिकों से रहा न गया। पूछ लिया – आपको इस विषय की इतनी गहन जानकारी कैसे हुई? पता चला कि स्वामी जी ने तो मंच से उतना ही कहा था, जितना उन्हें सपने में उनके गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बतलाया था। यह चमत्कार कैसे हुआ? स्वामी निरंजन कहते हैं कि यह योगनिद्रा का परिणाम है। दरअसल, उन्होंने अपने गुरू से सारी शिक्षाएं योगनिद्रा में ही पाई थी।     

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि पूरे मनोयोग से और नियमित प्रत्याहार की शक्तिशाली साधना करने वाले किस तरह रूपांतरित हो जाते हैं। मौजूदा बड़े राजनेताओं में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी घोषित तौर से प्रत्याहार की साधना करते हैं। तभी वे दोनों चौबीस घंटो में बमुश्किल तीन-चार घंटे ही नींद लेकर भी ऊर्जावान व संयमित बने रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम और सुरों की देवी लता मंगेशकर

किशोर कुमार

आमतौर पर प्राणायाम की चर्चा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होती है। कोरोनाकाल में प्राणायाम की चर्चा कुछ ज्यादा ही हुई, जो बेहद जरूरी थी। पर अब समय आ गया है कि शक्तिशाली प्राणायाम की चर्चा को थोड़ा विस्तार मिलना चाहिए। पर पहले भारत रत्न स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर की बात, जो कोरोना संक्रमण से लंबी लड़ाई के बाद देवलोक गमन कर चुकी हैं। स्वर की इस देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

किसी भी गायक के जीवन में समग्र योग और खासतौर से प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लता मंगेशकर ने अपने करियर के प्रारंभिक दिनों में ही इस बात को भलिभांति समझा था। वह खुद ही कहती रही हैं कि प्राणायाम की शक्ति के कारण ही गाने में कहां सांस लेनी है और कहां छोड़नी है, इसका शुद्धता से निर्वहन करना संभव हो सका। कई गानों में तो श्रोताओं को पता भी नहीं चल पाता कि मैंने कहां सांस भरा और कहां छोड़ दिया। “अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी….तुमपे मरना है ज़िंदगी अपनी…ओ ओ, अब तो है तुमसे…” राग मांड में गाया गया फिल्म “अभिमान” का यह गीत श्वास-प्रश्वास की बारीकियों की साधना का बेहतरीन उदाहरण है। प्राणायाम को साधे बिना शायद सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग करना मुश्किल ही होता, जो इस कठिन राग की मांग है।  

योगशास्त्र मानता हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत नाद योग की मूल प्रक्रिया का विकसित स्तर है। शास्त्रीय गायन में ब्रह्म नाद एक स्थिति होती है, जिसे नाद योग से प्राप्त किया जाता है। दरअसल, श्वास और ऊर्जा का संयोग ही नाद है। मानव शरीर में प्राणमय कोष या ऊर्जा शरीर के बड़े मायने हैं। इसमें बहत्तर हजार नाड़ियाँ होती हैं, जो ऊर्जा मार्ग हैं और जिनमें से हो कर ऊर्जा सारे शरीर में बहती है। ये नाड़ियाँ, मानवीय शारीरिक व्यवस्था में 114 स्थानों या केंद्रों या चक्रों पर एक दूसरे से मिलती हैं, और फिर से बंट जाती हैं। इसलिए, नाड़ियों को शुद्ध करने और ऊर्जा केंद्रों को सक्रिय करने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। चूंकि गायन में सुर की निरंतरता श्वास पर निर्भर करती है, इसलिए गायकों के लिए प्राणायाम साधना बड़े महत्व की हो जाती है।  

भारतीय सनातन परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। योगशास्त्र के मुताबिक प्राण का संबंध मन से, संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का संबंध जीवात्मा से और जीवात्मा का विश्वात्मा से रहता है। तभी ऋषियों के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे प्राण-वायु के तरंगों पर नियंत्रण करके विश्व प्राण पर अधिकार पाने का रहस्य जान जाते थे। इस तरह वे एक सर्वव्यापक शक्ति को वश में कर लेते थे, जिसे विद्युत-शक्ति, चुंबकीय शक्ति, गुरूतत्व शक्ति और विचार शक्ति जैसी सभी शक्तियों का स्रोत कहा जाना चाहिए। इसलिए प्राणायाम ही नहीं, समग्र योग को रोग-मुक्ति से आगे की बात माना गया है। पर जैसे ही आगे की बात यानी आध्यात्मिक अनुभूति की अनंत यात्रा की बात आती है, तो मान लिया जाता है कि यह संसार से विरक्ति की बात हो गई।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसंग उल्लेखनीय है। कहते हैं कि जब महर्षि दयानंद ने अपने गुरू से आज्ञा मांगी कि वे हिमालय में जाकर तपस्या करना चाहते हैं तो गुरू ने मना कर दिया और कहा, “तुम चौराहे पर ही खड़े रहो। इसलिए कि जो दीपक चौराहे पर जलता रहता है, वह चारो ओर से आने वाले लोगों के मार्ग को प्रकाशित करता है। अपने प्रकाश को हिमालय के किसी कंदरा में बंद मत करो।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिकता और सांसारिकता जीवन के दो पंख होते हैं। जीवन में सुख, संपदा, शांति और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय जरूरी होता है। तभी जीवन में पूर्णता आती है और यही योगशास्त्र का विषय़ भी है।

खैर, बात हो रही थी प्राणायाम की। श्रीमद्भागवतगीता के महात्म्य में लिखा है कि प्राणायाम साधना की शक्ति ऐसी है कि साधक के इस जन्म के तो क्या, पूर्व जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रश्नोपनिषद में प्रसंग है कि महर्षि पिप्पलाद से एक शिष्य ने पूछा कि प्राण कहां से उत्पन्न होता है? महर्षि पिप्पलाद ने इसके उत्तर में कहा था कि आत्मा से ही प्राण पैदा होता है। योगीजन कहते रहे हैं कि प्राण ही सूर्य का रूप है। सूर्य जब अपने आप को खींच लेता है तो प्राणी रूप आदि विभिन्न गुणों से हीन होकर मुक्त हो जाता है।

उपनिषद की ही कथा है, बड़ी प्रचलित कथा है कि शरीर के सभी अभिमानी देवताओं ने अपने-अपने वश की हुई इंद्रियों द्वारा विचार कराया कि उन सबमें श्रेष्ठ कौन है? आकाश, वायु, अग्नि, वाणी, मन, चक्षु आदि सभी ने अपनी-अपनी महिमा का बखान करते हुए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की। जब प्राण की बारी आई और उसने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की तो किसी को भरोसा न हुआ। तब प्राण शरीर छोड़कर जाने लगा। इससे तुरंत ही सभी इंद्रियां नष्ट होने लगीं। तब सबको प्राण की श्रेष्ठता का अहसास हुआ। वैदिक ग्रंथों में चर्चा है कि जिसने प्राण-तत्व को जान लिया, उसने वेद को जान लिया। तभी वेदांत सूत्र में उल्लेख है कि श्वास-प्रश्वास ही परब्रह्म है।

योग ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाकर उस पर मन केंद्रित करते हुए विधि-सम्मत श्वास-प्रश्वास से एक अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इसी शक्ति की बदौलत आत्मोन्नति के साथ ही खुद का और दूसरो का भी कष्ट निवारण किया जा सकता है। इसी प्राण के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है, जो एक पूर्ण वैज्ञानिक विद्या है। पर प्राणायाम की वृहत्तर साधना के परिणाम आज के जमाने के लिहाज से चमत्कार जैसे ही जान पड़ते हैं। शिव स्वरोदय प्राण-शक्ति के चमत्कारिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रंथ है। इसी विद्या की बदौलत योगी शुभ-अशुभ फलों की भविष्यवाणी करते रहे हैं। साथ ही जन कल्याण के लिए बताते रहे हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण-वायु का प्रवाह किस तरह कराया जाए कि जीवन सुखमय रहे।

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में विभूतिपाद के तीसरे पाद के 37वें और 50वें सूत्र में सिद्धियों के गुण-दोष का निरूपण मिलता है। पर जब इन सिद्धियों का दुरूपयोग किया जाने लगा तो योगियों ने गृहस्थों के लिए प्राणायाम साधना को रोगोपचार तक सीमित रहने दिया। वरना ऋषि-मुनि कहते रहे हैं कि जिसने कुंभक, जो सही मायने में प्राणायाम है, को साध लिया, वह तीनों लोकों में चाहे कुछ भी कर सकता है। ऐसी है प्राणायाम की शक्ति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

महर्षि पतंजलि और योग की पराकाष्ठा

पातंजल योग सहित राजयोग मन का विज्ञान माना जाता है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व के भीतरी पक्षों की खोजबीन कर अंतर्निहित ज्ञान और ऊर्जा का उद्घाटन करता है। यह मानसिक अनुशासन का विज्ञान है, जिसमें मन को एकाग्र करने की अनेक विधियां हैं। महर्षि पतंजलि स्वयं अपनी योग पद्धति को मन की वृत्तियों के निरोध का विज्ञान कहते हैं। पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती के मुताबिक, उनकी पद्धति सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शन से भिन्न दिखती है। वे भक्तियोग के मार्ग पर चलने वालों के लिए ईश्वर की अवधारणा को साधना के एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

संत कबीर ने ठीक ही कहा था, चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। पर कोरोनाकाल में संकट इतना गहरा है कि मनुष्य में चिंता के कारण रोग, प्रमाद, मंदता, संशय जैसे विकारों की श्रृंखला लंबी होती जा रही है। ऐसे में अशांति और अवसाद को आश्रय मिलना लाजिमी ही है। योगशास्त्र में मानसिक अशांति के लक्षण और उससे निजात पाने के उपायों पर व्यापक चर्चा है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ऐसे विकारों का मुक्तिदाता योग ही है।

श्रीमद्भगवतगीता का महल तो अर्जुन के विषाद की बुनियाद पर ही खड़ा है। पर कोरोनाकाल में आम लोगों का विषाद और उसके परिणाम अलग हैं। इस विषाद, इसके परिणाम और इससे मुक्ति के उपायों पर महर्षि पतंजलि का काम अद्वितीय है। उन्होंने अपने योगसूत्रों के जरिए गागर में सागर भर दिया है। वे कहते है कि रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि विक्षेप से हमारी आंतरिक ऊर्जा का लयात्मक ढंग बदल जाता है और बेचैनी शुरू हो जाती है। बेचैनी लगातार बनी रहे तो नाना प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग प्रकट होते हैं।  

महर्षि पतंजलि इस स्थिति से उबरने के लिए जो तीन सूत्र देते हैं, वे मन के प्रबंधन के लिए यौगिक उपायों की बुनियाद बनते हैं। इनमें पहला सूत्र है – अथ योगानुसाशनम्। यानी योग एक व्यवस्था है, अनुशासन है और इसका आधार है – यम और नियम। यम से उनका अभिप्राय स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देने से है। इसे आत्म—संयम भी कह सकते हैं। सच है कि यदि हमने अपने जीवन की शुरूआत इस तरह कर दी, जो विपरीत दिशाओं में गति करती हो, तो बात बिगड़ेगी ही। इसी तरह जीवन में सुनिश्चित नियमन न रहे तो भी बात बिगड़ेगी। इसलिए नियमन जरूरी है। जैसे, सत्य का धारण करते हुए सत्कर्मों से जो भी फल मिले उसी से संतोष रहना। ताकि जीवन खुशनुमा हो जाए। यह पांच नियमों में से दो नियम के सार हैं। तभी योगी कहते हैं कि बच्चों को यम-नियम के साथ ही योग शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे बच्चों के जीवन में नया विहान होगा और जग सुधरेगा।

महर्षि पतंजलि ने एक सूत्र के जरिए इस बात को ज्यादा स्पष्ट किया है। मसलन, योगानुशासन का परिणाम क्या होना है। इसके प्रत्युत्तर में  वे कहते हैं – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होगा। जब हम सिनेमा घर में फिल्म देख रहे होते हैं तो पर्दे पर प्रेक्षेपित चलचित्र मन मोह लेता है। जहां स्क्रीन के सिवा कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ घटित होता दिखता है। हालात ऐसे बनते हैं कि हम अपने आप को कुछ घंटों के लिए भूल जाते हैं। अलग ही दुनिया में जीने लगते हैं। ओशो कहते हैं कि जो कुछ सिनेमा घर में घटित हो रहा होता है, मनुष्य के भीतर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पा‌र्श्व-भूमि में है, जिसे अचेतन कहते हैं। इस अचेतन में संग्रहीत वृत्तियां, वासनाएं, संस्कार चित्त के परदे पर प्रक्षेपित होते रहते हैं। यह चित्त-वृत्तियों का प्रवाह प्रतिक्षण बिना विराम चलता रहता है। चेतना दर्शक है, साक्षी है। वह इस वृत्ति-चित्रों के प्रवाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है। इस अज्ञान से जागना चित्त-वृत्तियों के निरोध है।

सवाल फिर भी रह जाता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध होने से क्या होगा? तब महर्षि पतंजलि सूत्र देते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही सिनेमा हॉल में फिल्म खत्म होने के बाद जो भ्रम टूटा था और स्वयं के होने का अहसास हुआ था, वैसे ही जीवन से भ्रांतियां दूर होंगी। योग सध जाएगा। आत्म-साक्षात्कार होगा। स्वंय को जान पाएंगे। महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को ही योग कहा है। हालांकि इसमें दो मत नहीं कि मौजूदा समय में संकटग्रस्त लोगों का लक्ष्य योग-साधना का उच्चतर परिणाम पाना शायद ही होगा। पर शरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए चित्तवृत्तियों के निरोध की दिशा में थोड़े यौगिक उपाय भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं। चिंता या तनाव से मुक्ति पाने की राह आसान हो जाएगी। फिर तो नकारात्मक चिंता सकारात्मक चिंता में बदल जाएगी। तब हम चिंता नहीं, चिंतन भी नहीं, बल्कि मनन करने लगेंगे। ऐसे में जाहिर है कि हमारे ईर्द-गिर्द ही उपलब्ध उपाय घुप्प अंधेरे में दीपक बनकर मार्ग प्रशस्त कर देंगे।

योग में तनावों से मुक्ति की व्यापक संभावनाएं विद्यमान हैं। योगशास्त्र की मान्यता है कि सभी बीमारियों की जड़ें शरीर और मन में होती हैं। इसलिए किसी बीमारी का यौगिक उपचार करना हो तो योगी हठयोग और राजयोग की विधियां बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम उतना ही बतलाया, जिससे सजगता का विकास करके मन को एकाग्र करने में मदद मिले। उनका कहना है कि आसन ऐसा हो कि शरीर को सुख मिले, आराम मिले। तभी उन्होने कहा – स्‍थिरसुखमासनम्। यानी स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है। और प्राणायाम? वे कहते हैं – प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। यानी रेचक और कुंभक के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे ही हम नाड़ी शोधन प्राणायाम के रूप में जानते हैं। शरीर को ऊर्जावान बनाने और उसे संतुलित रखने में इस योग विधि की बड़ी भूमिका है। शारीरिक व्याधियों को दूर करने से लेकर आध्यात्मिक चेतना के विकास तक में यह बड़े महत्व का होता है।

योगवशिष्ठ में उल्लेख है कि वशिष्ठ मुनि श्रीराम को पूरक, कुंभक और रेचक को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि यह जो प्राणायाम है, ओंकार के उच्चारण के साथ परम कल्याणकारी है। आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी नाड़ी शोधन प्राणायाम की महत्ता बार-बार सिद्ध की जाती रही है। हमारे शरीर में मुख्यत: तीन नाड़ियां होती हैं – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना तो सुषुप्त नाड़ी है। इसे योगी योगबल से जागृत करते हैं। पर बाकी दो नाड़ियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो शारीरिक बीमारियां प्रकट होती हैं। मनोऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए कि इन बाधाओं का असर शरीर की अन्य नाड़ियों पर भी होता है। जाहिर है कि शारीरिक व मानसिक व्याधियों के लिहाज से नाड़ी शोधन प्राणायाम बड़े महत्व का है। कोरोनाकाल में सुखासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम जैसे चंद यौगिक क्रियाओं के अभ्यास से भी हमारी शारीरिक व मानसिक स्थिति ऐसी बनी रह सकती है कि हम किसी भी समस्या का मुकाबल धैर्य और विवेक के साथ कर सकें।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी कुवलयानंद : योग की महिमा को पुनर्स्थापित करने वाले महायोगी

बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग विधियों पर शोध करके यौगिक चिकित्सा का अलख जगाने वाले स्वामी कुवलयानंद के गुजरे पांच दशक से ज्यादा बीत चुके हैं। पर उनकी ज्ञान-गंगा का प्रवाह अनवरत जारी है। उन्होंने जब योग-मार्ग पर यात्रा शुरू की थी तो योग साधु-संतों तक ही सीमित था और गृहस्थों के बीच उसको लेकर नाना प्रकार की भ्रांतियां थीं। उन्होंने जब आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साबित कर दिया कि यह विश्वसनीय विज्ञान है तो देश-विदेश के लोग बरबस ही उस ओर आकृष्ट हुए। एक तरफ महात्मा गांधी ने उनकी योग विद्या का लाभ लिया तो दूसरी तरफ मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर देश-विदेश की कई हस्तियां स्वामी कुवलयानंद के कैवल्यधाम आश्रम पहुंच गईं थीं।

कैवल्यधाम, लोनावाला आश्रम प्रयोगशाल का दृश्य

गुजरात में 30 अगस्त 1883 को जन्मे उस वैज्ञानिक योगी की 137वीं जयंती पर शत्-शत् नमन। वे आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। यह जानने के लिए कि मानव शरीर पर योग किस तरह काम करता है। उन्होंने इन प्रयोगों के लिए खुद की प्रयोगशाला बनाई। प्रयोग सफल होने लगे तो अपनी संस्था कैवल्यधाम के लिए दावे के साथ पंचलाइन लिखा – “यह यौगिक अनुसंधान को को समर्पित वह संस्था है, जहां योग परंपरा और विज्ञान का मिलन होता है।“ वाकई, उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू और यौगिक अनुसंधान के लिए समर्पित कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलता गया। महाराष्ट्र में मुंबई-पुणे मार्ग पर अवस्थित लोनावाला में उनकी संस्था का मुख्यालय ही अब लगभग 170 एकड़ भू-भाग में फैल चुका है।

स्वामी कुवलयानंद का कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं। इससे इस संस्था का स्वरूप किसी विश्वविद्यालय जैसा प्रतीत होता है। यौगिक अनुसंधान इस संस्था की आत्मा रही है। इसे जीवंत बनाए रखने के लिए आज भी कोशिशें जारी हैं। इसके लिए स्वतंत्र विभाग है। उसे कैवल्यधाम योग अनुसंधान संस्थान के नाम से जाना जाता है। यौगिक अनुसंधानों पर आधारित पुस्तकों व अन्य यौगिक साहित्य की रचना और उनके प्रकाशन के लिए अलग समृद्ध विभाग है। योग शिक्षा के लिए गोरधनदास सेकसरिया कॉलेज ऑफ़ योग एंड कल्चरल सिंथेसिस है। श्रीमती अमोलकदेवी तीरथराम गुप्ता यौगिक अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र योग व प्राकृतिक चिकित्सा का महत्वपूर्ण केंद्र है। इनके अलावा भी योग विज्ञान को समृद्ध बनाने वाली कई गतिविधियां चलती रहती हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल ही स्वामी कुवलयानंद सहित आयुष के 12 मास्टर हिलर्स के नाम डाक टिकट जारी किया था।

कैवल्यधाम आश्रम लोनावाला की मनोरम वादियों से सटा हुआ है। लोनावाला महत्वपूर्ण पर्य़टन स्थल है। पर यह कैवल्यधाम के कारण देश-दुनिया में ज्यादा प्रसिद्ध है। इस संस्थान की मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भोपाल और राजकोट में शाखाएं हैं तो सरहद के पार फ्रांस, अमेरिका, चीन, जापान और सिंगापुर में शाखाएं हैं। शुरूआती दिनों में स्वामी कुवलयानंद का फोकस अष्टांग योग पर था, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। बाद में योग का आध्यात्मिक पक्ष और क्रियायोग भी जुड़ गया। स्वामी कुवलयानंद महर्षि पतंजलि के हवाले कहते थे कि शारीरिक व मानसिक पीड़ा एवं क्लेश की वजह न तो केवल मानसिक है, न केवल शारीरिक, बल्कि वह मनोकायिक प्रक्रिया है। इसलिए जारूरी है इससे मुक्ति पाने के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर काम हो। इसके लिए यम और नियम को उतना ही तवज्जो मिलना चाहिए, जितना आसन और प्राणायाम को मिलता है। इसमें हठयोग का भी सम्मिश्रण होना चाहिए। तभी ध्यान फलीभूत होगा और मन के पार जाने का मार्ग भी प्रशस्त हो पाएगा। स्वामी कुवलयानंद कहा करते थे कि शारीरिक आयाम योग का मात्र एक दोयम पक्ष है। योग का मुख्य लक्ष्य मानसिक और आध्यात्मिक है। अपने इस विचार के बावजूद उन्होंने समय की मांग और आध्यात्मिक साधना की तैयारियों के लिए जरूरी मामते हुए शारीरिक-मानसिक स्वस्थ्य के लिहाज से यौगिक प्रभावों पर ज्यादा अनुसंधान किया था।

स्वामी कुवलयानंद के सकारात्मक ऊर्जा-संपन्न होने की झलक कम उम्र में ही मिलने लगी थी। वह स्कूली छात्र थे तो उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। अपनी मेहनत और लगन की बदौलत छात्रवृत्ति के हकदार बने और आगे की पढ़ाई की। संस्कृत का ज्ञान तो ऐसा था मानो पूर्व जन्म का संस्कार रहा हो। इतने मेघावी छात्र को नौकरी की कमी न थी। प्रध्यापक के तौर पर नौकरी की भी। पर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रति दीवानगी ने उन्हें श्रीअरविंद और बाल गंगाधर तिलक के साथ ला खड़ा कर दिया था। वे श्रीअरविंद के आध्यात्मिक विचारों से ज्यादा ही प्रभावित हो गए थे। महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों का सैद्धांतिक ज्ञान था ही। लिहाजा वे श्रीअरविंद की तरह ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदमी स्वयं की अनुभूति तभी कर सकता है जब चित्त-वृतियों का निरोध होगा, मन शांत होगा। ऐसा व्यक्ति ही कोई रचनात्मक कार्य कर सकता है। इसी प्रेरणा से उन्होंने बड़ौदा में जुम्मादादा व्यायमशाला में प्रोफेसर राजरत्न मणिकराव से इंडियन सिस्टम ऑफ फिजिकल एजुकेशन की शिक्षा ली।

परमहंस माधवदास

“जिनकी कृपा से गूंगा भी बोलने लगता है और लंगड़ा भी पर्वत लांघ जाता है, उस परम आनंद श्रीमाधव को शतश: नमन।“

स्वामी कुवलयानंद

योग विद्या ग्रहण करते ही समाज सेवा का नया मार्ग प्रशस्त हो गया। इसे प्रारब्ध कहें या उनके संकल्प व समर्पण का नतीजा, उनकी मुलाकात बंगाल के एक ऐसे संत हो गई, जो वकालत छोड़कर भारत भ्रमण करते हुए नर्मदा के तट पर साधनारत थे। अपनी उच्चकोटि की साधना की बदौलत ईश्वर से साक्षात्कार कर लेने वाले इस संत का नाम परमहंस माधवदास था। वे विज्ञान की बातें करते थे। वे कहते थे कि भारत को लंबे समय तक पराधीन बनाकर शास्त्रों को तहस-नहस किया जा चुका है और इतिहास इस अवैज्ञानिक तरीके से लिखा जा चुका है कि नए जमाने के लोगों के लिए उस पर भरोसा करना ही मुश्किल है। इसलिए शास्त्रसम्मत बातों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर ही नई पीढ़ी को उससे लाभान्वित कराया जाना चाहिए। स्वामी कुवलयानंद अपने गुरू से बेहद प्रभावित थे। इसका अंदाज इस बात से लगता है कि वे अपना हर लेख संस्कृत की दो लाइनों के श्लोक से शुरू करते थे, जिसका भावार्थ है – “जिनकी कृपा से गूंगा भी बोलने लगता है और लंगड़ा भी पर्वत लांघ जाता है, उस परम आनंद श्रीमाधव को शतश: नमन।“

शायद यही वजह है कि वे योग विधियों के वैज्ञानिक अनुसंधान को लेकर इतने समर्पित हो गए थे। उन्होंने सबसे पहले बड़ौदा अस्पताल के साथ मिलकर अध्ययन किया था कि स्वास्थ्य लाभ में योग की क्या भूमिका हो सकती है। उसके नतीजे आशाजनक निकले। तब आध्यात्मिक रूचि वाले स्वामी कुवलयानंद ने लोनावाला में अपनी नई जिंदगी की शुरूआत अनुसंधान केंद्र खोलकर की थी। वहां उन्होंने सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किए। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे। रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर काम करने वाले प्रथम वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बसु ने स्वामी कुवलयानंद के यौगिक अनुसंधानों को देखकर कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि आप सही रास्ते पर हैं।“ मौजूदा समय में इस अनुसंधान केंद्र को भारत सरकार के वैज्ञानिक संगठनों से लेकर विश्व विद्यालायों तक से संबद्धता प्राप्त है।   

स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके थे। पंडित नेहरू को पता चला तो वे थोड़े चिंतित हुए। उन्हें डर था कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेश जाकर न बस जाएं। लिहाजा, उन्होंने आश्रम के आगंतुक रजिस्टर में लिखा, “यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा।”

कैवल्यधाम आश्रम में पंडित जवाहरलाल नेहरू।

इन शोध कार्यों को अनेक लोग शास्त्रसम्मत बातों पर अविश्वास के तौर पर देखते थे और कहते थे कि यदि योग विधियों की शास्त्रों में वर्णित बातों में सच्चाई न होती तो यौगिक उपचारों की तरफ लोगों का झुकाव कदापि नहीं होता। इसके जबाव में स्वामी कुवलयानंद ने कभी राजनीतिक बातें नही की। वे चाहते तो कह सकते थे कि विदेशी आक्रमणक्रारी और अंग्रेज शास्त्रों को या तो नष्ट कर दिया या फिर उसे गलत तरीके से परिभाषित करके जनता को गुमराह कर चुके हैं। अब आधुनिक विज्ञान के बिना पर योग विधियों को कसे बिना कोई भरोसा नहीं करेगा। उन्होंने हमेशा यही कहा कि योगाभ्यासियों की संख्या बल से योग विधियों की अमहमियत सिद्ध नहीं की जा सकती है। ऐसा किए बिना योग चिकित्सा का अनुकरण अंधविश्वास की ओर बहा ले जाएगा। इससे न योग विद्या समृद्ध होगी और न ही मानव जाति का कल्याण होगा।

स्वामी कुवलयानंद यौगिक चिकित्सा और व्यायाम के घालमेल के सख्त खिलाफ थे। वे कहते थे कि यौगिक चिकित्सा प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्याओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि एक ही बीमारी के मरीज की चिकित्सा अलग तरह से करनी पड़ सकती है। उदाहरण के लिए स्पॉडिलाइसिस के मरीजों के लिए झुकने वाला कोई भी अभ्यास वर्जित होना चाहिए। हर्निया को मरीजों से ऐसा कोई योगाभ्यास नहीं कराया जाना चहिए, जिनसे पेट दबता हो। उच्च रक्तचाप के रोगियों से केवल सेडेटीव कैरेक्टर यानी शामक प्रवृत्ति के योगाभ्यास ही करवाए जाने चाहिए। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यौगिक चिकित्सा की अपनी सीमाएं हैं। बीमारियों का पता लगाने के लिए आधुनिक चिकित्सा उपकरणों की सहायता लेने से यौगिक चिकित्सा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकती है।      

अतुल्य भारत | के.एस.एम.वाई.एम.समिति ...

यौगिक अनुसंधानों और उनके नतीजों के आलोक में यौगिक उपचारों से असाध्य बीमारियां भी ठीक होने लगी तो यौगिक चिकित्सा की विश्वसनीयता बढ़ती गई और कैवल्यधाम आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। देश-विदेशों से बड़ी-बड़ी हस्तियां यौगिक उपचार के लिए लोनावाला आने लगी थीं। भारत के प्रमुख हस्तियों में मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि को स्वामी कुवलयानंद ने योग सिखाया था। पंडित मालवीय तो लगभग एक सप्ताह तक आश्रम में रहकर ही योग साधना की थी। वे कैवल्यधाम के विश्वसनीय कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बीएचयू के साथ मिलकर कोई यौगिक परियोजना शुरू करने की इच्छा जता दी थी। इस मामले में इस संस्थान महत्व आज भी बरकरार है। मौजूदा समय में भारत सरकार का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू इस बात से प्रसन्न थे कि कुवलयानंद और कैवल्यधाम की विदेशों में भी लोकप्रियता बढ़ रही है। पर वे जब कैवल्यधाम आश्रम गए थे तो उन्हें पता चला कि स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके हैं तो पंडित नेहरू थोड़े चिंतित हुए। उन्हें डर था कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेशी संस्थानों के साथ काम करने विदेश न चले जाएं। लिहाजा, उन्होंने आश्रम छोड़ने से पहले आगंतुक रजिस्टर में अपनी चिंता जाहिर कर दी थी। उन्होंने लिखा कि यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा। पर आजादी के दीवाने कुवलयानंद विदेशी संस्थानों के मोहपाश में कहां फंसने वाले थे। वे जीवन पर्यंत भारत भूमि पर रहकर ही योग को समृद्ध बनाते रहे। 18 अप्रैल 1966 को उनका निधन हो गया था। पर योग विज्ञान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के कारण उनका नाम अमर हो गया। मानव जाति के लिए उनका कैवल्यधाम वरदान साबित हो रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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