कोरोना महामारी के बाद प्राण चिकित्सा की बढ़ती अनिवार्यता

किशोर कुमार

प्राणायाम आध्यात्मिक जीवन के साथ ही स्वस्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है। शरीर के सारे अंग अपना काम तभी सही तरह से करें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें नियमित रूप से ऑक्सीजन युक्त खून की पूर्ति होती रहे। पर यह काम तभी संभव हो पाता है जब दिल और फेफड़े स्वस्थ्य होते हैं। कोरोनाकाल की घटना याद होगी कि चिकित्सकों की सलाह पर हम सब ब्रेथ होल्डिंग एक्सरसाइज करने लगे थे। कोई तीस सेकेंड तक श्वास रूका रह जाता था तो समझ लेते थे कि फेफड़ा स्वस्थ्य है। पर मौजूदा समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं जिस तेजी बढ़ी हैं, मानव स्वास्थ्य को खतरा भी उतनी ही तेजी से बढा है। यूं तो इस संकट से उबरने के लिए खान-पान और रहन-सहन से लेकर कई स्तरों पर एहतियात बरतने की जरूरत है। पर प्राणायाम की शक्ति ऐसी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।  

विश्व विख्यात वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन के बारे में तो हम जानते ही हैं। मांसपेशियों के दर्द से परेशान थे। इलाज के लिए दुनिया के अनेक भागों में गए। पर राहत न मिली। तभी उन्हें दक्षिण भारतीय योगगुरू बीके सुंदरराज आयंगार के बारे में पता चला। चलने-फिरने से लगभग लाचार होने के बावजूद मेनुहिन सात घंटे की यात्रा तय करके आयंगार की शरण में पहुंच गए थे। अपनी व्यथा बताई। आयंगार ने योगोपचार शुरू किया तो कम समय में ही बड़ी राहत मिल गई थी।

मेनुहिन योग और आयंगार के दीवाने हो गए। योग के प्रति लगाव ऐसा हुआ कि शीर्षासन तक करने लगे। बात जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने मेनुहिन को अपने सामने शीर्षासन करने की चुनौती दी। इसलिए कि उन्हें शायद खबरों पर यकीन नहीं था। मेनुहिन ने चुटकी बजाते शीर्षासन कर दिखाया। इससे नेहरू जी इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने भी शीर्षासन करके दिखा दिया। यह घटना भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनी थी। इसके साथ ही बीकेएस आयंगार की कीर्ति दुनिया भर में फैल गई थी। वे मेनुहिन के आग्रह पर इंग्लैंड गए और जल्दी ही यूरोपीय देशों में छा गए थे।

यह प्रसंग जानने के बाद किसी को भी सहज उत्सुकता होगी कि आखिर हठयोगी आयंगार ने ऐसा कौन-सा जादू किया होगा। अब तक उनकी जितनी भी पुस्तकें पढ़ी है, किसी में इस बात का खुलासा नहीं है। आयंगार की चर्चित पुस्तक “लाइट ऑन प्राणायाम” में येहुदी मेनुहिन द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पढ़ी तो लगा कि आसनों के साथ ही प्राणायाम का जादू था कि वे इतनी जल्दी रोग मुक्त हो गए थे। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है – “प्राणायाम वायु-संचालन की एक क्रिया है, जो पृथ्वी पर जीवन का निर्धारण करती है। यह वस्तुत: आइंस्टाइन के पदार्थ और ऊर्जा के सिद्धांत को संपूर्णता प्रदान करता है। साथ ही उसे मानव के लिए व्यवहारिक बनाता है।“ कई महीनों की खोज के बाद आखिर एक तस्वीर भी हाथ लगी, जिसमें आयंगार के सामने मेनुहिन नाड़ी शोधन प्राणायाम करता दिख रहा है।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती प्राणायाम के संदर्भ में कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो योगी कुंभक के साथ अपने हाथों से उसकी टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने से योगी के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं। वैदिक सिद्धांतों के मुताबिक भी गायत्री मंत्र का जप करते हुए पूरक, रेचक और कुंभक बेहद ताकतवर होता है।

हठयोग के प्रख्यात गुरू बीकेएस आयंगार ने भी कहा है – “प्राणायाम मनुष्य के शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है। साथ ही योग के चक्र की धुरी है। तभी इसे महातपस या ब्रह्मविद्या कहा जाता है।“ आमतौर पर प्राणायाम की तीन-चार विधियां ही प्रचलित हैं। पर इसकी और भी विधियां हैं। उज्जायी, अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, सूर्यभेदन, शीतकारी, शीतली, भस्त्रिका, कपालभाति, भस्त्रिका, भ्रामरी, नाड़ी शोधन आदि। इन विधियों की भी कई उप विधियां या अवस्थाएं हैं। नाड़ी शोधन और कपालभाति पर कई अनुसंधान हो चुके हैं। प्राणायाम के रहस्यों पर से जैसे-जैसे पर्दा उठ रहा है, उसको देखते हुए आने वाले समय में यह हठयोग से इत्तर एक स्वतंत्र विषय बन जाए तो हैरानी न होगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। प्राणायाम से नाड़ी मंडल में संतुलन बना और मस्तिष्क केंद्रों की खतरनाक क्षतिकारक प्रतिक्रिया नियंत्रित हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहेवियरल हेल्थ एंड एलाइड साइंसेज, भोपाल और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने किशोरवय के छात्रों की आक्रमकता पर कपालभाति के प्रभाव का अध्ययन किया है। इसका नतीजा है कि योग की यह क्रिया आक्रमकता पर काबू पाने में बेहद प्रभावी है। पतंजलि योग अनुसंधान संस्थान ने भी कपालभाति में काफी काम किया है। हालांकि कलापभाति को लेकर विवाद भी पुराना है कि यह प्राणायाम है या शोधन-क्रिया। पर इसे व्यापक रूप से प्राणायाम का हिस्सा माना जा चुका है।

प्राणायाम के महत्व का अंदाज इस बात से भी लगा सकते हैं कि ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। वे केवल और केवल प्राणायाम करते हैं। समय की मांग है कि प्राणायाम साधना को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

शक्ति की उपासना औऱ निरोगी काया

किशोर कुमार

मौका शारदीय नवरात्रि का है तो बात उसी आलोक में होनी है। इसलिए इस लेख में बात मुख्यत: दुर्गा सप्तशती और मंत्रयोग की करेंगे। साथ ही जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।

हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं। राजा सुरथ की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त भूमंडल के मालिक राजा सुरथ शत्रुओं के साथ संग्राम में परास्त हो गए तो राजमहल छोड़ वन में चले गए थे। वहां उन्होंने मेधा ऋषि का आश्रम देखा जहां हिंसक जीव भी शांति से रह रहे थे। राजा ने मुनि से अपना कष्ट बताया तो मुनि ने उन्हें देवी की शरण में जाने को कहा। वर्षों की मंत्र साधना के बाद जगदंबा राजा पर प्रसन्न हुईं और उन्हें उनका राज्य वापस मिल गया था।  

वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। प्रारंभिक दिनों में आध्यात्मिक साधना के लिए घर से निकल तो गए। पर कहां जाएं और कौन-सी साधना करें, यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया। तभी उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया। इसके साथ ही वे शतचंडी के अनुष्ठान में जुट गए थे। दुर्गा सप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। इस साधना से मिली अनुभूतियों से लाखों लोग लाभान्वित होते रहे। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके।

आध्यात्मिक जगत में माना जाता है कि पूर्व जन्मों के संचित कर्म, नैतिक नीतियों से विचलन, आस्तिकता का अभाव आदि मानव के समक्ष ऐसी-ऐसी समस्याएं खड़ी करते हैं कि उनका समाधान आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं होता। विक्रमादित्य के अग्रज और महान नीतिकार भार्तृहरि ने अपने लोकप्रिय ग्रंथ वैराग्य शतक में साफ-साफ कहा था – भोगे रोग भयं। यानी भोग में रोग का भय है। नैतिक वर्जनाओं की अवलेहना हुई नहीं कि रोग प्रकट हो जाएंगे। पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों को इन बातों पर भरोसा न था। उन्हें बात अटपटी लगती थी कि नैतिक नीतियों से विचलन या आस्तिकता में कभी भला बीमारियों की वजह किस तरह बन सकते हैं। पर चीजें तेजी से बदली और सिद्ध संतों की अनुभूतियों को चिकित्सा विज्ञानी भी प्रकारांतर से स्वीकारने लगे। एरिक फ्रॉम जर्मनी के बड़े मनोवैज्ञानिक थे। उनकी पुस्तक “मैन फॉर हिमसेल्फ” बेहद लोकप्रिय हुई। उसमें उन्होंने स्वीकारा कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों व भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। अब तो इन विषयों पर बड़े-बड़े शोध हुए और निदान के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा।

इस संदर्भ में एक मजेदार प्रसंग है। सुविख्यात आयुर्विज्ञानी और तटशिला के स्नातक रहे महाभिषक आर्य जीवक की चिकित्सा अचूक मानी जाती थी। सम्राट बिंबसार तक उनके बड़े प्रशंसक थे। पर एक बार समस्या खड़ी हो गई। उनके पास एक ऐसा मरीज आया, जिसकी जन्म से एक आंख खुलती नहीं थी। इलाज के सारे उपाय निष्फल हो चुके थे। महाभिषक आर्य जीवक जल्दी ही समझ गए कि भगवत्त कृपा के बिना बात बनने वाली नहीं। वे अपने गुरू महास्थविर रेवत को पूरी बात बताई, जो भगवान तथागत के समर्थ शिष्य थे। गुरू रेवत ने अपनी आंखें बंद की। पर कुछ सेंकेंड बाद ही हंसी छूट गई। दरअसल उन्हें ज्ञात हो गया था कि बीमारी की वजह क्या है। उन्होंने महाभिषक आर्य जीवक से कहा कि उस रोगी की समस्या शारीरिक नहीं, मानसिक है। उसने अपने पूर्व जन्म में नैतिक नीति की अवहेलना की थी। इससे वह मानसिक ग्रंथि का शिकार हो गया। भगवान बुद्ध के पास जाओ। उनकी प्रेम की उष्मा से रोगी को मनोग्रंथि से मुक्ति मिलेगी। ऐसा ही हुआ। इसके बाद इस बात की प्रतिष्ठापना हुई कि नैतिकता की नीति स्वस्थ्य के लिए श्रेष्ठ है। उस पर चलने वाला निरोगी काया का मालिक होगा।

अनादि काल से कहा जाता रहा है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसा हो जाते हैं। बींसवी सदी के महान योगी स्वामी शिवानंद सरस्वती अपने बीमार शिष्यों से कहते थे कि सोचो कि तुम स्वस्थ हो। तुम्हे कोई रोग नहीं है। यह उपचार बेहद कारगर साबित होता था। दरअसल, विश्वास फलदायी साबित होता था। किसी भी साधना में, किसी भी उपचार विधि के मामले में यही बात लागू है। यदि आस्था व विश्वास न होगा तो बात नहीं बनेगी। गुरूजनों का अनुभव है कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है। इसके सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। मंत्रों की वैज्ञानिकता पर हम बात करते रहे हैं। इस लेख में इतना ही। नवरात्रि की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मानवता के लिए योग, ख्याल अच्छा है

किशोर कुमार

योग की स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहब की दीवारें

किशोर कुमार

आजादी की 75वीं वर्षगांठ को आजादी के अमृत महोत्सव के तौर पर मनाते हुए सूर्य नमस्कार की अहमियत को भी समझा जाना देश के उज्जवल भविष्य के लिए गहरा और बेहतरीन संदेश है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। यानी सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े की कामना के पीछे मुख्य रूप से योगबल की ही बात है। पर देश पर लगातार विदेशियों के आक्रमण के दौरान आत्मविश्वास खो देने वालों का मिजाज ऐसा बना कि अपनी ही गौरवशाली प्राचीन संस्कृति पर प्रसन्नतापूर्वक आक्षेप करने लगे। कुछ मजहब के नाम पर तो कुछ दास मानसिकता के कारण। यह सुखद है कि राष्ट्रवादी ताकतों के केंद्रीय भूमिका में आते ही ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग हाशिए पर जा रहे हैं। तभी सूर्य नमस्कार के विरोध को तवज्जो नहीं मिल रही है।   

अगले 20 फरवरी 2022 तक आयोजित योगामृत महोत्सव में 75 करोड़ सूर्य नमस्कार का लक्ष्य रखा गया है। निश्चित रूप से योगामृत महोत्सव जन-सामान्य को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिहाज से बेहद उपयोगी साबित होगा। इस बार यह आयोजन ऐसे वक्त में होना है, जब अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले महर्षि महेश योगी की जयंती (12 जनवरी) भी है। इन दोनों महान योगियों को नमन, जिनके यौगिक मंत्रों की अहमियत सर्वकालिक है।

भारत की योग विद्या को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए हमारे ऋषि-मुनि अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत में स्वामी विवेकानंद ने विस्मृत योग विद्या को फिर से दुनिया के सामने उपस्थित किया और महर्षि महेश योगी ने अपने भावातीत ध्यान के जरिए देश का मान बढ़ाया। पर उन्हें इस काम में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। जब यूरोपीय विद्वान बीएम लेजर लैजरियो कह देते कि फलां योग विधि उपयोगी है तो उनकी बातों को पूर्वी देशों के लोग भी मानने को तैयार हो जाते। पर भारतीय ऋषियों को योग विधियों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर बताना पड़ता था।

योग विद्या के जानकार बताते है कि आजादी से पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। पर औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार को विदेशों में लोकप्रियता मिली थी। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सूर्य नमस्कार की वैज्ञानिकता पर पुस्तक लिखी तो मानों मजहब की दीवारें दुनिया भर में गिरने लगीं। लोगों ने अनुभव किया कि समग्रता में योग और उसका अंग सूर्य नमस्कार विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। फिर तो इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा दुराग्रह नहीं रहा। 

भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। कुछ साल पहले ही उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।

वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चुकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।

जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था। तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।

अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।

पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मुद्रा योग का असर ऐसा कि छा गए थे आयंगार

किशोर कुमार

यौगिक और आध्यात्मिक विषयों को लेकर अलग कुछ जानने की उत्सुकता बड़े-बुजुर्गों में तो होती ही है। पर ऐसे ही सवाल किशोर वय के लड़के-लड़कियां करने लगें तो इसे बड़े बदलाव का संकेत माना जाना चाहिए। मेरे मैसेज बाक्स में ऐसे लड़के-लड़कियों के सवालो की संख्या बढ़ती जा रही है। कोरोना महामारी का शिकार होने के बाद कई अन्य शारीरिक-मानसिक समस्यों से घिरी एक अठारह साल की लड़की का सवाल है कि क्या योग मुद्राओं में इतनी शक्ति है कि वह इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने या उसे कम करने में मदद कर सके? उपलब्ध दस्तावेजों और योगियों से विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बता सकूं कि मुद्राओं का विज्ञान बड़ा ही शक्तिशाली है। तभी मुद्रा चिकित्सा की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है।

इंग्लैंड के मशहूर वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन का नाम योग की दुनिया में भी बड़ा ही जाना-पहचाना है। वे अनिद्रा की तात्कालिक समस्या को लेकर योग साधना के विश्वविख्यात उपासक और योगाचार्य बीकेएस आयंगार के पास गए थे। आयंगार ने मुद्रा योग की शक्ति का कमाल दिखाया और मेनुहिन को अनिद्रा से मुक्ति मिल गई थी। आज यह प्रसंग ऐसे समय में आया है, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। योग व अध्यात्म को लेकर बच्चों मन में उठते सवाल और नेहरू जी-येहुदी मेनुहिन प्रसंग के कारण इस दिवस प्रासंगिक बन पड़ा है।

नेहरूजी-मेनुहिन का प्रसंग बड़ा रोचक है। बीकेएस आयंगार के यौगिक उपचार से मेनुहिन अनिद्रा के साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त हो गए तो बात नेहरू जी के कानों तक पहुंची। वे खुद ही अनेक कठिन योग साधनाएं किया करते थे। पर मेनुहिन जैसी बीमारियों से ग्रसित थे, उसमें योग का ऐसा चमत्कारिक असर हुआ होगा, यह मानना शायद कठिन जान पड़ा होगा। उन्होंने मेनुहिन को अपने निवास स्थान तीनमूर्ति भवन में बुलाया और शीर्षासन करने की चुनौती दी। मेनुहिन ने सहजता से ऐसा कर दिखाया। नेहरू जी इतने प्रभावित और उत्साहित हुए थे कि खुद भी शीर्षासन कर बैठे थे। यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। देश-विदेश के अखबारों की सुर्खियां बनी और योग गुरू बीकेएस आयंगार रातों-रात दुनिया भर में मशहूर हो गए थे।    

सवाल है कि येहुदी मेनुहिन को आखिर कौन-सी यौगिक क्रियाएं करवाई गई थी? दरअसल, मेनुहिन कोहनी के हाइपरेक्स्टेंशन से पीड़ित थे। ब्रेंकियल आर्टरी गंभीर रूप से प्रभावित हो गई थी। न्यूरो कार्डियोलॉजी से संबंधित मामला होने के कारण असहनीय दर्द के साथ ही अन्य संभावित खतरे भी परेशान करने वाले थे। कई-कई दिनों तक सो नहीं पाते थे। मेनुहिन भारत के दौरे आए तो आयंगार ने उन्हें शवासन की स्थिति में षण्मुखी मुद्रा करवाई। आमतौर पर इस मुद्रा का अभ्यास पद्मासन या सिद्धासन में कराया जाता है। पर आयंगार ने मेनुहिन के मामले में बिल्कुल अलग विधि अपनाई। नतीजा हुआ कि पांच मिनट भी नहीं बीते और मेनुहिन एक घंटे तक बेसुध सोए रहे। जो काम नींद की दवाएं नहीं पा रही थी और कई-कई रातें जगकर बितानी होती थी, वह काम पांच मिनटों के अभ्यास में हो गया था। मेनुहिन की नींद खुली तो उन्हें खुशी का ठिकाना न रहा। वे पहले सुनते थे, अब खुद ही भारतीय योग-शक्ति के गवाह बन चुके थे।

हठयोग में आसन और प्राणायाम के बाद मुद्रा योग प्रमुख है। यह प्राणिक ऊर्जा नियंत्रण का यह विज्ञान शास्त्र-सम्मत और  विज्ञान-सम्मत है। तभी रोगोपचार के तौर पर मुद्रा योग भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों में लोकप्रिय है। साठ के दशक के प्रारंभ में गोल्डी लिप्सन ने अपनी पुस्तक “रिजुवेनेशन थ्रू योगा” में योग मुद्राओं के बारे में लिखा था कि यह उंगलियों का व्यायाम भर है। पर परहसंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1969 में आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध नामक पुस्तक लिखी तो पश्चिमी देशों में भी मुद्रा योग को स्वतंत्र विद्या के तौर पर मानने का आधार बना था। अब तो मुद्रा चिकित्सा पर पुस्तकों की भरमार है।

सवाल है कि मुद्रा विज्ञान शरीर पर किस तरह काम करता है? आयुर्वेद में कहा गया है कि मनुष्य में पंच महाभूत यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्वों के असंतुलन के कारण बीमारियां होती हैं। योगशास्त्र के मुताबिक मनुष्य की उंगलियों में इन तत्वों के गुण हैं। इसलिए जब मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है तो निश्चित बिंदुओं पर दबाव पड़ते ही शरीर के सुप्त ऊर्जा केंद्र मुख्यत: मेरूदंड के चक्र सक्रिय हो जाते हैं। हम जानते हैं कि प्राणिक शरीर को चक्रों से ऊर्जा मिलती है। पर इस ऊर्जा का ह्रास हो जाने के विविध शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। चूंकि मुद्रा की स्थिति में उंगलियों के रास्ते इन प्राणिक ऊर्जा का प्रवाह बाहर की तरफ नहीं हो पाता है। इसलिए वह ऊर्जा शरीर के पांच कोशों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश को स्पंदित करती है। इससे स्वस्थ होने की क्षमता विकसित होती है। हठयोग प्रदीपिका में भी इसके महत्व का प्रतिपादन है। कहा गया है कि ब्रह्म-द्वार के मुख पर सोती हुई देवी (कुंडलिनी) को जगाने के लिए पूर्ण प्रयास के साथ मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए।  

अब जानते हैं कि मेनुहिन पर शवासन में षण्मुखी मुद्रा क्यों इतना असरदार साबित हुई होगी। षण्मुखी मतलब सप्त द्वार। यानी दो आखें, दो कान, दो नासिकाएं और एक मुंह। इस मुद्रा में ये सभी द्वार बंद हो जाते हैं। प्राण विद्या की यह तकनीक हाथों और उंगलियों से उत्सर्जित ऊर्जा चेहरे की स्नायुओं और पेशियों को उत्प्रेरित और शिथिल करती है। नतीजतन इससे एक साथ कुछ हद तक शांभवी मुद्रा, योनि मुद्रा और प्रत्याहार का फल मिलने लगता है। पेशियों व तंत्रिकाओं पर दबाव कम होते और आंतरिक सजगता बढ़ती है। न्यूरो कार्डियोलॉजी के मरीजों के मामले में शवासन की अवस्था में पेरिकार्डियन का विस्तार होता है। इससे हृदय के दाहिनी एट्रियम का फैलाव बढ़ जाता है। इससे रक्तचाप कम जाता है। इससे गजब की विश्रांति मिलती है। ऐसे में मेनुहिन का चैन से सो जाना लाजिमी ही था। इस एक उदाहरण से मुद्रा योग की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंत्रयोग की शक्ति, अवसाद से मुक्ति

कलियुग के लिए मंत्र और संकीर्त्तन लाभकारी

किशोर कुमार

बात मंत्र योग की। कोरोनाकाल के दौरान आधुनिक योग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग साधकों को सलाह दी कि वे सुबह-सुबह नींद खुलने के बाद सबसे पहले ग्यारह बार महामृत्युंजय मंत्र, ग्यारह बार गायत्री मंत्र और तीन बार दुर्गाजी के बत्तीस नामों का जप अनिवार्य रूप से करें। इसके फायदे तो असीमित हैं। पर फिलहाल, विविध कारणों से मन में उठने वाला तूफान शांत होगा। चेतना शुद्ध होगी और एकाग्रता का मार्ग प्रशस्त होगा। सच है कि मेरी जानकारी में ही मानसिक रूप से बीमार हो चुके अनेक साधकों पर इन मंत्रों का ऐसा चमत्कारिक प्रभाव हुआ कि उनकी रिकवरी से चिकित्सक भी हैरान हैं।

मंत्र यानी चेतना की ध्वनि। इस पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले बीसवीं सदी के महान संत स्वामी रामतीर्थ से जुड़ा एक प्रसंग। वे अपने जापान प्रवास के दौरान राजमहल में ठहरे हुए थे। उनकी नजर चिनार के पेड़ पर गई, जो गमले में किसी इनडोर प्लांट की तरह दिख रहा था। आमतौर पर चिनार का पेड़ पचास-साठ फीट से भी ज्यादा लंबा होता है। पर गमले वाला चिनार का पेड़ बमुश्कि बारह इंच लंबा रहा होगा। वहां राजमहल का एक कर्मचारी खड़ा था। स्वामी जी ने पूछा, यह चिनार का पेड़ है या कुछ और? कर्मचारी ने उत्तर दिया, स्वामी जी, यह चिनार का पेड़ ही है। कोई दो सौ साल पुराना है। दरअसल, इस पेड़ की तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए यह बढ़ता नहीं है। यह सुनते ही स्वामी रामतीर्थ सहसा बोल पड़े, लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। मानव जाति की तीन जड़ें हैं – विचार, आचरण व व्यक्तित्व। ये तीन ज़ड़े काटी जा चुकी हैं। तभी वह जिंदा तो है, पर उन्नति नहीं कर पा रहा।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। कहा गया है – मननात् त्रायते इति मंत्र: यानी मंत्र वह है, जो मन को मुक्त कर देता है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद, स्पंदन या ध्वनि जुड़ी होती है। उसे ही मंत्र कहते हैं। हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

जरा सोचिए कि यदि मानव जाति की तीन जड़े, जिसकी बात स्वामी रामतीर्थ ने की थी, न काट दी गई होतीं तो शक्तिशाली सर्वव्यापी मंत्रयोग के रहते उसके लाभों से वंचित रहने का कोई औचित्य था? शास्त्रों में शरीर के तीन प्रकार बतलाए गए हैं – स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर का संबंध जागृत अवस्था से है। सूक्ष्म शरीर का संबंध स्वप्न से और कारण शरीर का संबंध सुषुप्ति से है। अंतर्मन में इतना कोलाहल है कि स्थूल शरीर को ही वश में करना संभव नहीं हो पाता। फिर सूक्ष्म शरीर कैसे नियंत्रित हो? तभी योग साधनाओं में आशातीत सफलता नहीं मिलती। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि रोज पांच मिनट तक एक ही मंत्र जो जपते जाओ। देखना, इससे एकाग्रता प्राप्त होगी और अपने अंदर जाने और स्वयं को जानने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

बीते सप्ताह इसी कॉलम में स्वास्थ्य के लिए योग की चर्चा के दौरान कुछ लोगों की राय थी कि योग का उद्देश्य शिव-शक्ति का मिलन है और उसका उपयोग उसी के लिए होना चाहिए। पर आधुनिक युग से संत इस बात की वकालत करते हुए भी योग के सामाजिक उपयोग पर जोर देते रहे हैं। महर्षि पतंजलि ने भी कहा है – हेयं दु:खमनागतम्। यानी योग-शक्ति से भावी दु:ख का परिहार किया जा सकता है। रोग प्रतिरोधक दवा की तरह भविष्य में आने वाले दु:खों का निवारण किया जा सकता है। पर यह काम कैसे हो? इसका जबाव तो पहले ही दिया जा चुका है। पर श्रीमद्भागवतम् की एक प्रसंग की चर्चा यहां बेहद प्रासंगिक है। महाराज परीक्षित शुकदेव गोस्वामी से प्रश्न करते हैं – हे महर्षि, कलियुग में मनुष्य स्वयं को इस युग की गंदगी से कैसे दूर रख सकते हैं? प्रत्युत्तर में शुकदेव गोस्वामी सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और अंत में कलियुग के विशेष गुण बताते हुए कहते हैं कि उस युग में मंत्र साधना और भगवान की लीलाओं का श्रवण–कीर्तन ही फलदायी होगा।      

यह सुखद है कि कोरोनाकाल में मंत्रों की शक्ति से बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित हो रहे हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि अनेक मामलों में धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं मंत्रयोग साधना में बाधक नहीं बन रहीं। स्पेन के बार्सिलोना शहर की यह खबर चर्चा का विषय़ बनी कि वहां के अस्पताल में आपरेशन के लिए भर्ती हुए मरीज ओम् मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम करते हैं। रोमन कैथोलिक धर्मावलंबियों के देश में ओम् मंत्रोच्चारण के साथ प्राणायाम या ध्यान करने की बात भारतीय सोच के लिहाज से अटपटी लग सकती है। पर वे इसे विज्ञानसम्मत कार्य मानते हैं।

बार्सिलोना के अलावा भी भारत सहित दुनिया के अनेक हिस्सों में श्वास-प्रश्वास के साथ मंत्रों के मन पर प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन हो चुका है। उनसे साबित हुआ कि इस योगाभ्यास से सेरोटोनिन न्यूरोट्रांसमीटर सक्रिय होता है और हमारे मस्तिष्क में “अमिगडला” के रूप में डर का जो केंद्र होता है, उसकी सक्रियता सामान्य स्तर पर आ जाती है। अपने देश में कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस भी कुछ ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचा है। इन परिणामों से स्पष्ट है कि विज्ञानसम्मत मंत्रयोग की शक्ति अवसाद से मुक्ति दिलाने में सक्षम है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग को लाभकारी बनाने में रोल मॉडल बने सरकार

किशोर कुमार

यह सच है कि भौतिक युग में जो विद्या लाभकारी नहीं होती, उसके बचे रहने की संभावना धूमिल होती जाती है। इसलिए योग लाभकारी पेशा बना रहे और सरकार इस काम में महती भूमिका निभाए, यह समय की मांग है। राष्ट्रीय आयुष मिशन भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है और योग उसका एक घटक विषय है। इस लिहाज से योग के बेहतर भविष्य को लेकर उम्मीद बंधती है। पर राज्य सरकारों की जैसी दिशा-दशा है, वह न केवल हैरान करने वाली है, बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठापित योग के शानदार करियर के चमकते विकल्प पर सवालिया निशान भी है।

हाल ही मेरी नजर एक विज्ञापन पर गई थी, जिसका प्रकाशन उत्त्तर प्रदेश के बरेली के क्षेत्रीय आयुर्वेदिक व यूनानी अधिकारी ने कराया था। वह विज्ञापन राष्ट्रीय आयुष मिशन के तहत हेल्थ एवं वेलनेस सेंटरों के लिए योग प्रशिक्षकों की अस्थाई तौर पर नियुक्ति के लिए है। कोरोनाकाल में, जहां नौकरियों का टोटा है, वहां अस्थाई नियुक्तियों के विज्ञापन भी राहत देने वाले होने चाहिए थे। पर विज्ञापन पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि राज्य में राष्ट्रीय आयुष मिशन को जमीन पर उतारने के लिए जिन लोगों ने योजना बनाई होगी, उनमें योग को लेकर निश्चित रूप से व्यापक दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव होगा। चिंताजनक बात यह है कि देश के कुछ अन्य राज्यों में भी योग प्रशिक्षकों की बहाली के लिए लगभग समान नीति अपनाई जानी है।

विज्ञापन के मुताबिक, प्रत्येक हेल्थ एवं वेलनेस सेंटर पर दो योग प्रशिक्षक तैनात होंगे, एक महिला व एक पुरूष। उनकी योग्यता योग व नेचुरोपैथी विषय से स्नातक तक की हो तो सबसे अच्छा। पर भारत सरकार के योग सर्टिफिकेशन बोर्ड के प्रमाण-पत्रधारक भी इस पद के योग्य होंगे। रोज एक घंटे की कक्षा लेनी होगी। जहां तक मानदेय की बात है तो पुरूष प्रशिक्षक को आठ हजार रूपए और महिला प्रशिक्षक को पांच हजार रूपए दिया जाएगा। अब यहां दो बातें उभर कर सामने आती हैं, जिन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पहला तो यह कि महिला और पुरूष के मानदेय में भेदभाव क्यों? यदि ऐसा भेदभाव सरकार ही करेगी तो निजी क्षेत्र में इस ट्रेंड को कैसे रोका जा सकेगा? फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छोटी-सी दिखने वाली इस बात का असर बहुआयामी होगा।

हम माताओं से अपेक्षा करते हैं कि उनका आचरण राधा के अनुकूल हो। हृदय में भक्ति का दीप जले। मीरा जैसी पवित्रता और सरलता हो। वह आदर्श माता और पत्नी बने। हम योग की सैद्धांतिक शिक्षा देते समय हम बड़े गर्व से वैदिककालीन ऋषिकाओं गार्गी से लेकर मैत्रेयी तक के गौरवशाली अतीत को याद भी करते हैं। छात्रों को बतलाते हैं कि कृष्ण-अर्जुन संवाद से जिस तरह श्रीमद्भगवतगीता का जन्म हुआ था। उसी तरह याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद के कारण ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ की ऋचाओं का निर्माण हुआ। यानी वैदिक ग्रंथों को प्रमाण मानते हुए आधुनिक युग में तदनुरूप महिला-पुरूषों में समानता की बात करते हैं। पर व्यवहार रूप में महिलाओं के हितों की बात आते ही मानक बदल जाए तो इसे न न्यायसंगत कहा जाएगा और न ही योगसम्मत। योग हमें मन, कर्म और वचन में एकरूपता की शिक्षा देता है।   

वैसे, जितना मानदेय तय किया गया है, वह पुरूष योग प्रशिक्षकों को भी उत्साहित करने वाला नहीं है। योग को लेकर लोगों में जागरूकता आने के बाद समर्थ योग प्रशिक्षकों के पास काम की कमी नहीं रही। ऑनलाइन कारोबार ऐसा बढ़ा है कि प्रतिदिन एक घंटा क्लास लेकर भी ज्यादा धन अर्जित करने के रास्ते बन गए हैं। ऐसे में समर्थ योग शिक्षक वेलनेस सेंटरों से जुड़ेंगे, यह बड़ा सवाल है? यदि समर्थ प्रशिक्षक न जुड़े तो बेहतर स्वास्थ्य के लिए समग्र योग का सपना कैसे साकार होगा? योग की महत्ता क्या है, अब यह शायद बताने की जरूरत नही रही। अब तो विमर्श इस बात को लेकर होता है या होना चाहिए कि योग लोगों की जीवन-शैली का हिस्सा किस तरह बने और योग प्रशिक्षकों की भूमिकाएं क्या हों? इसलिए कि खासतौर से कोरोना महामारी फैलने के बाद सिद्ध हो चुका है कि लोगों को स्वस्थ्य बनाए रखने या दवाओं पर निर्भरता कम करने में योग की बड़ी भूमिका है। जाहिर है कि समर्थ योग शिक्षकों और प्रशिक्षकों की भूमिकाएं अहम् हो गई हैं।

लखनऊ स्थित प्रयाग आरोग्यम् केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल की इस बात में दम है कि यदि सरकार योग को सचमुच बढावा देना चाहती है तो उसे योग्यता के आधार पर मानदेय तय करना चाहिए। स्नातक योग प्रशिक्षकों का मानदेय कम से कम बीस हजार रूपए प्रति माह निर्धारित किया जाना चाहिए। यह अजीब है कि डेढ़ दो लाख रूपए खर्च करके स्नातक या स्नातकोत्तर की योग शिक्षा ग्रहण करने वालों औऱ सर्टिफिकेट कोर्स करने वालों को सरकार एक ही तराजू पर तौल रही है। राज्य सरकारों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि केंद्रीय विद्यालयों में अनुबंध के आधार पर बहाल किए गए योग प्रशिक्षकों को बतौर मानदेय साढ़े बाइस हजार रूपए दिए जाते हैं। दूसरी बात कि योग प्रशिक्षक जब विद्यालयों या समुदायों के बीच प्रशिक्षण देने जाएंगे, तो घंटा भर समय देने की बात बेमानी होगी। व्यवहार रूप में आधा दिन कब बीतेगा, पता ही न चलेगा।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती नब्बे के दशक में ही कहा करते थे – “अगली शताब्दी में लोगों की समस्याओं की जड़ में परेशानी या तनाव होंगे। जैसी समस्याओं से अमेरिका और जापान जूझ रहा है, वैसी ही समस्याओं से भारत के लोगों खासतौर से महानगरों में रहने वाले लोगों को जूझना होगा। ऐसे में योग लाभकारी पेशा बन जाएगा। पर याद रखना कि जो विद्या लाभकारी या अर्थकारी नहीं होगी, वह जीवित नहीं रह सकेगी।“  परमहंस जी जैसा कहते थे, वह समय आ चुका है। अब योग का पेशा अन्य पेशों की तरह लाभकारी बने, यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा।   

मर्यादा पुरूषोत्त्तम श्रीराम और महान योगी श्रीकृष्ण तो हर युग में असंख्य युवाओं के रॉल मॉडल बनते हैं। पर भारत की भूमि पर सम्राट अशोक और चंद्रगुप्त मौर्य जैसे प्रतापी राजा भी हुए, जो इतिहास में अमर हो गए। उनकी यश की गाथा सबकी जुबान पर होती है और उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने की सिफारिश भी की जाती है। लोकतंत्र में राजा सरकार ही होती है। इसलिए उसे योग के मामले में भी ऐसा मानक स्थापित करना चाहिए, जिससे अन्य नियोक्ता प्रेरित हो सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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