किशोर कुमार
इस बार बात उष्ट्रासन की। हम जानते हैं कि योगासन कमर-तोड़ मेहनत या कसरत नहीं, बल्कि प्राण-शक्ति के उचित वहन और अभिसरण के साथ सात्विक कर्म की तरह अभ्यास किया जाए तो स्वास्थ्य, शांति, मनोबल और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। जिस तरह कर्म के तीन आधार होते हैं – मन वचन और शरीर, उसी तरह इसकी श्रेणियां होती हैं। यथा, सात्विक राजसिक और तामसिक। त्रिगुण कर्म की व्यवस्था और व्याख्या श्रीमद्भगवतगीता में सुंदर तरीके से की गई है। रावण, कुंभकर्ण और विभीषण का प्रसंग तो हम सब जानते ही हैं। तीनों ने घोर तपस्या की थी, योगसाधना की थी। पर रावण का तप राजसिक, कुंभकर्ण का तप तामसिक और विभीषण का तप सात्विक था। परिणाम यह हुआ कि रावण की वासनाएं असीमित थी। कुंभकर्ण नींद में ही रहता था, जबकि विभीषण अपनी सात्विक तपस्या की बदौलत श्रीराम का स्नेह पाने में सफल हो गया था।
उष्ट्रासन ऐसा योगासन है, जिसका अभ्यास सात्विक गुणों का विकास करके किया जाए तो अनाहत चक्र के जागरण में बड़ी मदद मिलती है। अनाहत चक्र भक्ति का केंद्र है। इसे अजपा जप द्वारा आसानी से जागृत किया जाता है। पर उष्ट्रासन अपजा के पहले उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। गुरूजनों का अनुभव है कि अनाहत चक्र में चेतना का स्तर उठते ही योग साधक प्रारब्ध के सहारे नहीं, बल्कि अपनी इच्छानुसार जीवन जीने में सक्षम हो जाता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अनाहत का संबंध हृदय से है, जो आजीवन लयबद्ध तरीके से स्पंदित और तरंगित होता रहता है। जब तक चेतना अनाहत के नीचे के चक्रों में केंद्रित होती है, तब तक व्यक्ति भाग्यवादी बना रहता है। प्रारब्ध की बदौलत उसके जीवन की गाड़ी बढ़ती रहती है। पर जब चेतना मणिपुर चक्र से होकर आगे बढ़ जाती है तो व्यक्ति जीवन की कुछ परिस्थितियों का सामना करने में पूरी तरह सक्षम हो जाता है। उसमें बहुत हद तक प्रारब्ध बदलने तक की क्षमता विकसित हो जाती है।
उपरोक्त तथ्यों से उष्ट्रासन की महत्ता का पता चलता है। यानी यह योगासन शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से तो मुक्ति तो दिलाता ही है, आध्यात्मिक विकास में इसकी बड़ी भूमिका है। श्रीश्री रविशंकर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इस योगासन के लाभ बताते हुए कहते है कि इसके अभ्यास से पाचन शक्ति बढ़ती है। फेफड़ा स्वस्थ्य व मज़बूत बनाता है। पीठ व कंधों को मजबूती मिलती है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द से छुटकारा मिलता है। रीढ़ की हड्डी में लचीलेपन एवं मुद्रा में सुधार आता है और मासिक धर्म की परेशानी से राहत मिलती है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती दावे के साथ कहते हैं कि कोई स्वस्थ्य व्यक्ति इस आसन को नियमपूर्वक करता रहे तो उसे जीवन में कभी हृदय रोग होगा ही नहीं। इस लिहाज से हृदय रोगियों के लिए भी यह बेहद उपयोगी आसन है। ऐसा इसलिए कि योगाभ्यासी जब यह आसन करते हुए पीछे की ओर झुकता है और हाथों को पीछे ले जाकर दोनों पैरों के सहारे टिकाता है तो हृदय से निकलने वाली सभी रक्त वाहिकाओं का विस्तार होता है। नतीजतन, चर्बी की मात्रा बढ़ जाने से जिनकी धमनियां अवरूद्ध हो चुकी हैं और वे इस वजह से नाना प्रकार की समस्याएँ झेल रहे है, उन्हें उष्ट्रासन से काफी लाभ होता है।
घेरंड संहिता में बतलाए गए कुल 32 आसनों में उष्ट्रासन का महत्वपूर्ण स्थान है। महर्षि घेरंड ने उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है – अधोमुख लेटें और दोनों पांवों को पलटकर पीठ पर टिका ले। पांवों को हाथों से पकड़कर मुख और पांवों से दृढ़तापूर्वक सिकोड़ लें। यह उष्ट्रासन कहलाता है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “आसन प्राणायाम मुद्रा बंध” में बतलाया गया है कि यह आसन पाचन और प्रजनन प्रणालियों के लिए लाभदायक है। आमाशय और आंतों में खिंचाव पैदा करके कब्ज दूर करता है। पीठ का पीछे झुकना कशेरूकाओं को लोच प्रदान करता है और मेरूदंड, झुके कंधे और कुबड़ेपन में लाभ दिलाता है। शरीर की आकृति में सुधार आता है। गर्दन का अग्रभाग पूरा खिंच जाता है, जिससे उस क्षेत्र के अंगों को शक्ति मिलती है र थाइराइड ग्रंथि नियंत्रित होती है। दमा से पीड़ित रोगी को इससे लाभ होता है।
घेरंड संहिता के भाष्य में परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि अभ्यासी श्वास रोककर सिर पीछे ले जाते हैं तो मस्तिष्क में खून का दबाव अधिक होने से कई बार चक्कर आने लगता है। ऐसे में सिर को सीधा ही रखना चाहिए और अभ्यासक्रम में कुछ दिनों बाद उसे पीछे ले जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि आसन करते समय सामान्य श्वास ही लिया जाना चाहिए। गहरी श्वास लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसिलए कि छाती पहले से ही पूरी तरह फैली हुई होती है। आमाशय, गले, मेरूदंड औऱ सामान्य श्वास के प्रति सजग रहकर स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान एकाग्र किया जाना चाहिए। हर योग साधना की तरह इसमें भी कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी जाती है। मसलन, उष्ट्रासन करके खड़े होते समय एड़ियों के बीच कमर की चौड़ाई जितनी दूरी होनी चाहिए। उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों को यह योगाभ्यास या तो नहीं करना चाहिए या फिर उचित मार्ग-दर्शन लेना चाहिए।
कुछ समय पहले पुणे स्थित भारतीय विद्यापीठ के आयुर्वेदिक कालेज और श्रीगंगानगर आर्युवेदिक कालेज के शोधार्थियों ने कमर के निचले हिस्से के दर्द और गर्दन दर्द में उष्ट्रासन के प्रभावों का अध्ययन किया था। उसके मुताबिक, 26.67 फीसदी व्यक्तियों ने चिह्नित प्रतिक्रिया दिखाई, 36.67 फीसदी ने मध्यम प्रतिक्रिया दिखाई और 36.66 फीसदी ने हल्की प्रतिक्रिया दिखाई। अलग-अलग प्रभावों की वजहें थीं। पर इतना तय हुआ कि उष्ट्रासन इन बीमारियों में अपना असर दिखाता है।
प्रसिद्ध योगाचार्य और आयंगार योग के जनक बीकेएस आयंगार सात्विक योग साधना पर बहुत जोर देते थे। वे कहते थे कि योगासनों की साधना का भी सात्विक होना आवश्यक है। स्वास्थ्य, शांति और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति के लिए विशुद्ध हेतु से किया गया आसन-तपस अंतर्रात्मा से मिलने के लिए है। इस धारणा को मन में रखने पर मार्ग आसान और सुस्पष्ट हो जाता है। उष्ट्रासन के मामले में भी यही बात लागू है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)