क्रिसमस, धर्मों की सारभूत एकता और स्वामी सत्यानंद

किशोर कुमार //

दुनिया भर में क्रिसमस की धूम है तो दूसरी तरफ धर्मों की सारभूत एकता का संदेश देता झारखंड के देवघर जिला स्थित रिखियापीठ आज आधी रात के बाद ही बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 100वीं जयंती का गवाह बनने जा रहा है। यही वह पीठ है, जहां से इस महान योगी ने कई दशकों तक सेवा, प्रेम और दान की सैद्धांतिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी दी थी। आश्रम परिसर में क्राइस्ट कुटीर की स्थापना करके अपनी अनुभूतियों के आधार पर संदेश दिया था कि धर्मों में सारभूत एकता है। इस बात को वैदिक ग्रंथों के आधार पर सिद्ध भी किया था।  

आज जब क्रिश्चियन ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में डूबे हुए हैं, तो बाबाजी, संत युक्तेश्वर गिरि, परमहंस योगानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक अपनी-अपनी अनुभूतियों के आधार पर धर्मों में सारभूत एकता की जो बात कहते रहे हैं, उसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम …। दुनिया भर के सिद्ध संत इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – …. सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह प्रकारांतर से एक ही है।   

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ” महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।      

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। उन देशों में सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? ईसाई धर्मावलंबियों के बीच भारत के परंपरागत योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई? “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाए। यही समय की मांग है। मेरी क्रिसमस! नमो नारायण।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

योग : अभी लंबी दूरी तय करनी है

किशोर कुमार

अब यह तथ्य विज्ञानसम्मत है और सर्वमान्य भी कि हृदयरोग से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। हमें ज्ञात हो चुका है कि तनाव, अवसाद और हृदयाघात ये तीन क्रमबद्ध स्टेशनों की तरह हैं। तनाव रूपी स्टेशन से एक बार निर्बाध यात्रा शुरू हुई तो हृदयाघात तक पहुंचना लगभग तय हो जाता है। इसलिए विकसित देशों में योग की लोकप्रियता चरम पर है। पश्चिम के उन देशों में भी योग की स्वीकार्यता बढ़ी है, जहां योगाभ्यास वर्जित था। पर भारत में योग की कितनी स्वीकार्यता बढ़ी? अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस करीब है और सर्वत्र योगोत्सवों की धूम है। पर क्या हम स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से योगाभ्यास के मामले में अमेरिका जैसे विकसित देश की बराबरी कर पा रहे हैं? शायद नहीं।

इस तथ्य को पुख्ता ढंग से प्रस्तुत करने के लिए हमे अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों के आधिकारिक आंकड़े तो सर्वत्र मिल जाते हैं। पर भारत में ऐसे आंकड़ों का टोटा है। इसलिए कि इस मामले में व्यापक स्तर पर काम शैशवावस्था में है। अलबत्ता आयुष मंत्रालय ने अपने अभियान “नियंत्रित मधुमेह भारत” के तहत जो अध्ययन करवाया था, उससे भारत में योगाभ्यासियों की संख्या का मोटा अनुमान लगाना संभव हो सका है। कोई 1,62,330 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि 11.8 फीसदी लोग ही नियमित रूप से योगाभ्यास करते हैं। इनमें उत्तर भारत में योगाभ्यास करने वालों की संख्या सर्वाधिक है। दूसरी तरफ अमेरिकी योग अलायंस की रिपोर्ट के मुताबिक 34 फीसदी लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं। इसलिए योग प्रशिक्षकों की संख्या और योग का कारोबार भी अमेरिका में तेजी से बढ़ा है। वैसे, भारत के योगियों ने कभी नहीं चाहा कि योग कारोबार बने। बिहार योग विद्यालय से लेकर रमण महर्षि के आश्रम तक की शिक्षा ऐसी ही रही है।

इसमें दो मत नहीं कि हृदय रोग गैर-संचारी रोगों की श्रेणी में मृत्यु दर का प्रमुख कारण बन गया हैं। इस स्थिति से बचाव के लिए योग की प्रभावशाली विधियां मौजूद होने के बावजूद बीमारी का बेलगाम होते जाना चिंताजनक है। सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी  की पहल पर दिल्ली के वर्द्धमान महावीर मेडिकल कालेज एवं सफदरजंग अस्पताल के मनोविज्ञान विभाग में कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर योग के प्रभाव पर अनुसंधान हुआ है। इस अनुसंधान का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किस योगाभ्यास से हृदय को ऐसी स्थिति में लाया जाए ताकि धमनियों में रक्त संचार सुगमता से होता रहे। उम्मीद है कि इस अनुसंधान से संबंधित रिपोर्ट जल्दी ही जारी होगी।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि योग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोगों से ग्रस्त मरीजों में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। लगातार 48 महीनों तक चले इस अध्ययन में अस्पताल में दाखिल अथवा डिस्चार्ज हो चुके चार हजार हृदय रोगियों को शामिल किया गया था। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया।

पीएचएफआई की इस परियोजना को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और मेडिकल रिसर्च काउंसिल – यूके ने प्रायोजित किया था। अध्ययन रिपोर्ट अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के शिकागो में हुई बैठक में जारी की गई थी। अध्ययन के लिए “योगा केयर” नाम से मरीजों के अनुकूल एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया था। उसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल किया गया। पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। नतीजा आशाजनक रहा। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम की विधियों को अपनाने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

यौन क्रियाओं का हृदय से सीधा संबंध स्थापित सत्य है। इसके लाभ-हानि पर चर्चा होती रहती है। पर हानि से बचाव का कोई यौगिक उपचार है? इस सवाल पर चर्चा कम ही हुई। जबकि विभिन्न स्तरों पर हुए शोधों से साबित हो चुका है कि हृदय को खास परिस्थियों की वजह से होने वाली हानि से बचाव में योग कारगर है। उस योग का नाम है – सिद्धासन। गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा शोधित “सिद्धासन” को विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसा गया और हर बार खरा साबित हुआ। नतीजतन, सिद्धासन हृदय रोग से बचाव के लिए अनुशंसित योगाभ्यासों में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि कुछ सावधानियों के साथ यह योगाभ्यास पुरूषों और महिलाओं को समान रूप से लाभ पहुंचाता है।

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद अपनी एक चर्चित पुस्तक “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि तनाव और अवसाद के लक्षण दिखते ही श्वास की सजगता का अभ्यास शुरू कर दिया जाए तो समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। पर समस्या योग के असर को लेकर नहीं है, बल्कि इसके अभ्यास को लेकर है। योग व्यापक स्तर पर जीवन का हिस्सा बनेगा तभी बनेगी बात।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग और स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस अगले महीने ही है। उसे व्यापक स्तर पर मनाने की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं। जोर इस बात पर है कि शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। योग के जरिए ईश्वरानुभूति की बात आम आदमी के संदर्भ में बेमानी प्रतीत होती है, इसलिए यह मुद्दा गौण प्राय: ही है। पर बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती और योग की कुछ अन्य परंपराओं के साधक सदैव योग का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-दर्शन मानते रहे हैं। आज भी स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती, स्वामी नित्यानंद आदि योग परंपराओं में योग का महान लक्ष्य ईश्वरानुभूति ही माना जाता है।  

चिन्मय मिशन के लिहाज से मई बड़े महत्व का है। इसलिए इस लेख में बात स्वामी चिन्मयानंद जी की और योग से संबंधित उनके कुछ विचार। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, हिन्दू धर्म व संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म कोई 106 साल पहले इसी महीने में हुआ था। उनके महानिर्वाण के भी कोई तीन दशक बीत चुके हैं। पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी उनके जीवनकाल में थी। योग-दर्शन पर व्याख्यान करते हुए वे ऐसी उपमा देतें थे कि बात लोगों के जेहन में उतरती चली जाती थी। उन्होंने प्राणायाम की चर्चा करते हुए कहा था कि यह सर्वविदित है कि इसका उद्देश्य इंद्रिय संयम है। यदि प्राणायाम का अभ्यास बिना वैराग्य भाव के किया जाए तो यह बच्चों का एक व्यायाम मात्र रह जाता है। जैसे एक मछुआरा श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में गोता लगाता है, उसी प्रकार लोग कुंभक व पूरक का अभ्यास शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए करते हैं, ताकि विषय भोगों का अधिक समय तक आनंद ले सकें। प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य यह कदापि नहीं होना चाहिए।

स्वामी चिन्मयानंद जी ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की थी कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती जीवन पर्यंत वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुटे रहे। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने। उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई। इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ। एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। ज्ञान यज्ञ में बत्ती बुझ गई। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग की शक्ति से बेअसर होगा बुढ़ापे का असर

किशोर कुमार //

यह निर्विवाद है कि जो आया है सो जाएगा। पर बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक या मानसिक समस्याएं कम से कम हो, ऐसी भला किसकी चाहत न होगी। पर योगमय जीवन के प्रति सजगता के अभाव में समय के साथ ही जिंदगी बोझ बनती चली जाती है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की “एल्डरली इन इंडिया 2021” रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बुजुर्ग आबादी (60 वर्ष और उससे अधिक आयु) मौजूदा 138 मिलियन से बढ़कर सन् 2031 तक 194 मिलियन पहुंचने का अनुमान है। यानी एक दशक में 41 फीसदी की वृद्धि। इसके साथ ही चिंताजनक पहलू यह है कि बुर्जुर्गों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की दर भी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में बढ़ती उम्र के साथ ही योगमय जीवन की शुरूआत करने पर बल दिया जा रहा है। अनेक शोध नतीजों के आधार पर बतलाने की कशिश की जा रही है कि इस विश्वव्यापी समस्या का वास्तविक समाधान योग में ही सन्निहित है।   

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के सैन डिएगो स्कूल और नेशनल स्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहांस) का अध्ययन ताज-ताजा है। इन अध्ययनों के मुताबिक कुछ खास तरह के योगाभ्यास से शरीर के बायोलॉजिकल बदलाव को धीमा कर देता है। नतीजतन, शरीर और मन पर बढती उम्र के कुप्रभावों बहुत हद तक मुक्ति मिल जाती है। वैसे प्राचीन योग-शास्त्र के जानकारों के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। योग-शास्त्र की मान्यता पुरानी है कि बुढापे की क्रिया को रोकने के लिए क्षय होने वाली कोशिका के बदले नई कोशिका उत्पन्न की जा सकती है। किसी मामले में ऐसा संभव न हो सका तो उसकी मरम्मत तो हो ही सकती है। तभी परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “व्यक्ति का योगमय जीवन हो तो सामान्य प्रत्याशित आयु सीम डेढ़ सौ वर्षों की है।“ 

आइए, पहले हम जानते हैं कि हमारे शरीर में बायोलॉजिक परिर्वतन कब और कैसे होता है। चिकित्सकीय शोध के मुताबिक हमारे शरीर का डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक अम्ल यानी डीएनए के भीतर एक विशेष प्रकार का जैविक तत्व होता है, जिसे टेलीमीयर कहते हैं। यह जितनी तेजी से छोटा होगा, उतनी तेजी से बुढापा आएगी और बीमारियां लाएगी। दरअसल, टेलीमीयर सभी प्राणियों की कोशिकाओं में पाया जाने वाला तंतु रूपी पिंड क्रोमोज़ोम का रक्षा कवच है। डीएनए से बना क्रोमोजोम ही सभी आनुवांशिक गुणों को निर्धारित व संचारित करने का काम करता है। इसके सिरों पर मौजूद टेलीमीयर जैविक तत्वों की सुरक्षा करता है और कोशिकाओं के तेज़ी से कोशिकाओं के क्षय होने से बचाता है।

टेलीमीयर के सिकुड़ने या छोटा होने से बुढ़ापा आने के साथ ही हृदय रोग,  मधुमेह और कैंसर जैसी घातक बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। एम्स के ऐनाटॉमी डिपार्टमेंट की डॉक्टर रीमा दादा के मुताबिक उनके अध्ययन में 96 लोगों को शामिल किया गया था। उन सभी के डीएन डैमेज मार्कर, स्ट्रेस मार्कर, एंटीबॉक्सीडेंट क्षमता और टेलीमीयर मार्कर देखे गए। फिर नियमित रूप से तीन महीनों तक योग कराया गया। इसके बाद उनकी जांच की गई। पता चला कि उम्र बढ़ने के सभी कारकों पर लगाम लग चुका था। डॉ रीमा दादा के मुताबिक, डीएनए को डैमेज करने में स्ट्रेस एक महत्वपूर्ण कारण होता है। योग करने से स्ट्रेस के लेवल में कमी आती है। लिहाजा योगभ्यासों के कारण डीएनए डैमेज करने वाले मार्कर कम हो गए। वहीं, टेलीमीयर की लंबाई बढ़ गई। बीडीएनएफ भी बढ़ गया, इससे सोचने-समझने की क्षमता बढ़ गई। ब्लड प्रेशर नियंत्रण में आ गया और भूलने की बीमारी बेहद कम कई।

आसन, प्राणायाम और ध्यान की अनेक विधियां बुढापे के असर को कम करके लंबी आयु प्रदान करने में मददगार है। पर इस लेख में ध्यान की एक ऐसी विधि की चर्चा करूंगा जो, अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों में बेहद लोकप्रिय है। वह है डायनेटिक्स। यह ध्यान की कोई नई विधि नहीं है, बल्कि हमारे योगशास्त्र में उल्लिखित प्रतिक्रमण के सिद्धांत पर ही आधारित है। इस बात को एक उदाहरण से समझिए। आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? मानस दर्शन होते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

ओशो ने भी इस योग विधि को हर उम्र के लोगों खासतौर से बुजुर्गों के लिए जरूरी माना। वे कहते थे कि प्रतिक्रमण एक चमत्कारिक विधि है। अगर तुम पीछे लौटकर अपने मन की गांठें खोलो तो तुम धीरे— धीरे उस पहले क्षण को पकड़ सकते हो जब यह रोग शुरू हुआ था। उस क्षण को पकड़कर तुम्हें पता चलेगा कि यह रोग अनेक मानसिक घटनाओं और कारणों से निर्मित हुआ है। प्रतिक्रमण से वे कारण फिर से प्रकट हो जाते हैं। इस प्रतिक्रमण से अनेक रोगों की ग्रंथियां टूट जाती हैं और अंततः रोग विदा हो जाते हैं। जिन ग्रंथियों को तुम जान लेते हो वे ग्रंथियां विसर्जित हो जाती हैं और उनसे बने रोग समाप्त हो जाते हैं। यह विधि गहरे रेचन की विधि है। अगर तुम इसे रोज कर सको तो तुम्हें एक नया स्वास्थ्य और एक नई ताजगी का अनुभव होगा।

डायनेटिक्स वाले कहते हैं कि सारे रोग अतीत के अवशेष हैं—तलछट। अगर हम अपने अतीत में लौट सकें, अपने जीवन को फिर से खोलकर देख लें, तो उसी देखने में बहुत से रोग विदा हो जाएंगे। और यह बात बहुत से प्रयोगों से सही सिद्ध हो चुकी है। भारतीय योगी कहते हैं कि योगनिद्रा, अजपा जप और अंतर्मौन जैसी यौगिक साधनाएं प्रतिक्रमण का सौ फीसदी लाभ दिलाने में मददगार है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

प्राणायाम और सुरों की देवी लता मंगेशकर

किशोर कुमार

आमतौर पर प्राणायाम की चर्चा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होती है। कोरोनाकाल में प्राणायाम की चर्चा कुछ ज्यादा ही हुई, जो बेहद जरूरी थी। पर अब समय आ गया है कि शक्तिशाली प्राणायाम की चर्चा को थोड़ा विस्तार मिलना चाहिए। पर पहले भारत रत्न स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर की बात, जो कोरोना संक्रमण से लंबी लड़ाई के बाद देवलोक गमन कर चुकी हैं। स्वर की इस देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

किसी भी गायक के जीवन में समग्र योग और खासतौर से प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लता मंगेशकर ने अपने करियर के प्रारंभिक दिनों में ही इस बात को भलिभांति समझा था। वह खुद ही कहती रही हैं कि प्राणायाम की शक्ति के कारण ही गाने में कहां सांस लेनी है और कहां छोड़नी है, इसका शुद्धता से निर्वहन करना संभव हो सका। कई गानों में तो श्रोताओं को पता भी नहीं चल पाता कि मैंने कहां सांस भरा और कहां छोड़ दिया। “अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी….तुमपे मरना है ज़िंदगी अपनी…ओ ओ, अब तो है तुमसे…” राग मांड में गाया गया फिल्म “अभिमान” का यह गीत श्वास-प्रश्वास की बारीकियों की साधना का बेहतरीन उदाहरण है। प्राणायाम को साधे बिना शायद सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग करना मुश्किल ही होता, जो इस कठिन राग की मांग है।  

योगशास्त्र मानता हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत नाद योग की मूल प्रक्रिया का विकसित स्तर है। शास्त्रीय गायन में ब्रह्म नाद एक स्थिति होती है, जिसे नाद योग से प्राप्त किया जाता है। दरअसल, श्वास और ऊर्जा का संयोग ही नाद है। मानव शरीर में प्राणमय कोष या ऊर्जा शरीर के बड़े मायने हैं। इसमें बहत्तर हजार नाड़ियाँ होती हैं, जो ऊर्जा मार्ग हैं और जिनमें से हो कर ऊर्जा सारे शरीर में बहती है। ये नाड़ियाँ, मानवीय शारीरिक व्यवस्था में 114 स्थानों या केंद्रों या चक्रों पर एक दूसरे से मिलती हैं, और फिर से बंट जाती हैं। इसलिए, नाड़ियों को शुद्ध करने और ऊर्जा केंद्रों को सक्रिय करने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। चूंकि गायन में सुर की निरंतरता श्वास पर निर्भर करती है, इसलिए गायकों के लिए प्राणायाम साधना बड़े महत्व की हो जाती है।  

भारतीय सनातन परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। योगशास्त्र के मुताबिक प्राण का संबंध मन से, संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का संबंध जीवात्मा से और जीवात्मा का विश्वात्मा से रहता है। तभी ऋषियों के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे प्राण-वायु के तरंगों पर नियंत्रण करके विश्व प्राण पर अधिकार पाने का रहस्य जान जाते थे। इस तरह वे एक सर्वव्यापक शक्ति को वश में कर लेते थे, जिसे विद्युत-शक्ति, चुंबकीय शक्ति, गुरूतत्व शक्ति और विचार शक्ति जैसी सभी शक्तियों का स्रोत कहा जाना चाहिए। इसलिए प्राणायाम ही नहीं, समग्र योग को रोग-मुक्ति से आगे की बात माना गया है। पर जैसे ही आगे की बात यानी आध्यात्मिक अनुभूति की अनंत यात्रा की बात आती है, तो मान लिया जाता है कि यह संसार से विरक्ति की बात हो गई।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसंग उल्लेखनीय है। कहते हैं कि जब महर्षि दयानंद ने अपने गुरू से आज्ञा मांगी कि वे हिमालय में जाकर तपस्या करना चाहते हैं तो गुरू ने मना कर दिया और कहा, “तुम चौराहे पर ही खड़े रहो। इसलिए कि जो दीपक चौराहे पर जलता रहता है, वह चारो ओर से आने वाले लोगों के मार्ग को प्रकाशित करता है। अपने प्रकाश को हिमालय के किसी कंदरा में बंद मत करो।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिकता और सांसारिकता जीवन के दो पंख होते हैं। जीवन में सुख, संपदा, शांति और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय जरूरी होता है। तभी जीवन में पूर्णता आती है और यही योगशास्त्र का विषय़ भी है।

खैर, बात हो रही थी प्राणायाम की। श्रीमद्भागवतगीता के महात्म्य में लिखा है कि प्राणायाम साधना की शक्ति ऐसी है कि साधक के इस जन्म के तो क्या, पूर्व जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रश्नोपनिषद में प्रसंग है कि महर्षि पिप्पलाद से एक शिष्य ने पूछा कि प्राण कहां से उत्पन्न होता है? महर्षि पिप्पलाद ने इसके उत्तर में कहा था कि आत्मा से ही प्राण पैदा होता है। योगीजन कहते रहे हैं कि प्राण ही सूर्य का रूप है। सूर्य जब अपने आप को खींच लेता है तो प्राणी रूप आदि विभिन्न गुणों से हीन होकर मुक्त हो जाता है।

उपनिषद की ही कथा है, बड़ी प्रचलित कथा है कि शरीर के सभी अभिमानी देवताओं ने अपने-अपने वश की हुई इंद्रियों द्वारा विचार कराया कि उन सबमें श्रेष्ठ कौन है? आकाश, वायु, अग्नि, वाणी, मन, चक्षु आदि सभी ने अपनी-अपनी महिमा का बखान करते हुए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की। जब प्राण की बारी आई और उसने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की तो किसी को भरोसा न हुआ। तब प्राण शरीर छोड़कर जाने लगा। इससे तुरंत ही सभी इंद्रियां नष्ट होने लगीं। तब सबको प्राण की श्रेष्ठता का अहसास हुआ। वैदिक ग्रंथों में चर्चा है कि जिसने प्राण-तत्व को जान लिया, उसने वेद को जान लिया। तभी वेदांत सूत्र में उल्लेख है कि श्वास-प्रश्वास ही परब्रह्म है।

योग ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाकर उस पर मन केंद्रित करते हुए विधि-सम्मत श्वास-प्रश्वास से एक अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इसी शक्ति की बदौलत आत्मोन्नति के साथ ही खुद का और दूसरो का भी कष्ट निवारण किया जा सकता है। इसी प्राण के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है, जो एक पूर्ण वैज्ञानिक विद्या है। पर प्राणायाम की वृहत्तर साधना के परिणाम आज के जमाने के लिहाज से चमत्कार जैसे ही जान पड़ते हैं। शिव स्वरोदय प्राण-शक्ति के चमत्कारिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रंथ है। इसी विद्या की बदौलत योगी शुभ-अशुभ फलों की भविष्यवाणी करते रहे हैं। साथ ही जन कल्याण के लिए बताते रहे हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण-वायु का प्रवाह किस तरह कराया जाए कि जीवन सुखमय रहे।

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में विभूतिपाद के तीसरे पाद के 37वें और 50वें सूत्र में सिद्धियों के गुण-दोष का निरूपण मिलता है। पर जब इन सिद्धियों का दुरूपयोग किया जाने लगा तो योगियों ने गृहस्थों के लिए प्राणायाम साधना को रोगोपचार तक सीमित रहने दिया। वरना ऋषि-मुनि कहते रहे हैं कि जिसने कुंभक, जो सही मायने में प्राणायाम है, को साध लिया, वह तीनों लोकों में चाहे कुछ भी कर सकता है। ऐसी है प्राणायाम की शक्ति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

योग की स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहब की दीवारें

किशोर कुमार

आजादी की 75वीं वर्षगांठ को आजादी के अमृत महोत्सव के तौर पर मनाते हुए सूर्य नमस्कार की अहमियत को भी समझा जाना देश के उज्जवल भविष्य के लिए गहरा और बेहतरीन संदेश है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। यानी सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े की कामना के पीछे मुख्य रूप से योगबल की ही बात है। पर देश पर लगातार विदेशियों के आक्रमण के दौरान आत्मविश्वास खो देने वालों का मिजाज ऐसा बना कि अपनी ही गौरवशाली प्राचीन संस्कृति पर प्रसन्नतापूर्वक आक्षेप करने लगे। कुछ मजहब के नाम पर तो कुछ दास मानसिकता के कारण। यह सुखद है कि राष्ट्रवादी ताकतों के केंद्रीय भूमिका में आते ही ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग हाशिए पर जा रहे हैं। तभी सूर्य नमस्कार के विरोध को तवज्जो नहीं मिल रही है।   

अगले 20 फरवरी 2022 तक आयोजित योगामृत महोत्सव में 75 करोड़ सूर्य नमस्कार का लक्ष्य रखा गया है। निश्चित रूप से योगामृत महोत्सव जन-सामान्य को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिहाज से बेहद उपयोगी साबित होगा। इस बार यह आयोजन ऐसे वक्त में होना है, जब अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले महर्षि महेश योगी की जयंती (12 जनवरी) भी है। इन दोनों महान योगियों को नमन, जिनके यौगिक मंत्रों की अहमियत सर्वकालिक है।

भारत की योग विद्या को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए हमारे ऋषि-मुनि अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत में स्वामी विवेकानंद ने विस्मृत योग विद्या को फिर से दुनिया के सामने उपस्थित किया और महर्षि महेश योगी ने अपने भावातीत ध्यान के जरिए देश का मान बढ़ाया। पर उन्हें इस काम में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। जब यूरोपीय विद्वान बीएम लेजर लैजरियो कह देते कि फलां योग विधि उपयोगी है तो उनकी बातों को पूर्वी देशों के लोग भी मानने को तैयार हो जाते। पर भारतीय ऋषियों को योग विधियों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर बताना पड़ता था।

योग विद्या के जानकार बताते है कि आजादी से पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। पर औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार को विदेशों में लोकप्रियता मिली थी। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सूर्य नमस्कार की वैज्ञानिकता पर पुस्तक लिखी तो मानों मजहब की दीवारें दुनिया भर में गिरने लगीं। लोगों ने अनुभव किया कि समग्रता में योग और उसका अंग सूर्य नमस्कार विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। फिर तो इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा दुराग्रह नहीं रहा। 

भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। कुछ साल पहले ही उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।

वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चुकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।

जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था। तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।

अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।

पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगनिद्रा और स्वामी सत्यानंद सरस्वती

किशोर कुमार

चार दिनों बाद ही यानी 24 दिसंबर को बीसवीं सदी के महानतम संत परमहसं स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 98वी जयंती है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसके परिणामों से दुनिया भर के लोगों को अवगत कराने वाले इस महानतम योगी ने योगनिद्रा के रूप में दुनिया को अनुपम उपहार दिया था, जिसकी बदौलत असंख्य लोगों के मन का प्रबंधन और बीमारियों से मुक्ति पाना संभव हो पा रहा है। सच है कि योगनिद्रा एक ऐसी यौगिक विधि है, जिसके अभ्यास से बुरी आदतों या मनोवृत्तियों को ठीक किया जा सकता है। एक दशक पूर्व उस महान संत द्वारा अपनी महासमाधि से पूर्व योगनिद्रा पर केंद्रित सत्संग का सार प्रस्तुत है। आप सब लाभान्ति होइए।

योगनिद्रा को प्रत्याहार की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा गया है, क्योंकि यह शिथिलीकरण की एक क्रिया भी है। शिथिलीकरण में भी एक मनोविज्ञान निहित है। शिथिल होने का मतलब पैरों को फैला कर सो जाना नहीं होता। मनोविज्ञान मानता है, और हो सकता है आप लोग भी इस बात को मानें कि निद्रा में विश्राम की स्थिति नहीं रहती। निद्रा की अवस्था में भी तनाव की स्थिति रहती है। इसके पीछे एक ही कारण है कि आज तक हम लोग स्वयं को शिक्षा नहीं दे पाए हैं कि कब मन की तनावपूर्ण अवस्था से सम्बन्ध-विच्छेद करना है और कब शान्त अवस्था से सम्बन्ध जोड़ना है ।

योगनिद्रा में यही से शिक्षा आरम्भ होती है कि धीरे-धीरे अपनी शारीरक और मानसिक अवस्थाओं को पहचान कर, शारीरीक तनावों प्रति जागरूक हो, मन को एक बिन्दु में केन्द्रित करके हम विश्राम की स्थिति को प्राप्त करें। उस विश्राम की स्थिति में एक नए, सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। योगनिद्रा अभ्यास शनैः शनैः मनुष्य की सजगता को चेतन से अवचेतन और अवचेतन से अचेतन स्तर तक ले जाते हैं। अब दूसरा प्रश्न उठता है, ‘मनुष्य के मन को कैसे समझें?’ जाग्रत अवस्था में हमें बहुत प्रकार के अनुभव मिलते हैं जो हमारे विचार, व्यवहार और कर्म को प्रभावित करते हैं ।अवचेतन और अचेतन में भी इनका असर दिखलाई देता हैं। इन्हीं प्रतिक्रियाओं कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, और तदनुसार कर्म होते हैं। हमलोगों का मन हमेशा धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा के सदृश रहता है, जो सुखद परिस्थिति में भी तनी रहती है और दुःखद में भी । योगनिद्रा के द्बारा यह प्रयास किया जाता है कि परिस्थिति के प्रभाव से हमारे मन में जो तनी हुई प्रत्यंचा है, उसके प्रति सजग होकर हम उसे ढीला कर दें ।

आप किसी सत्संग या रामायण कथा में जाएँगें, पन्द्रह-बीस मिनट के बाद नींद आने लगेगी। किन्तु किसी क्लब या पार्टी में जाएँगें तो आधी रात तक एकदम जमे हुए रहेंगे। विषय भोग के पीछे जाने का कारण मन सजग रहता है और ऊबता नहीं। जहाँ मन शान्त हुआ, ऊब लगने लगती है, आँखों बन्द हो जाती हैं। यह मन का स्वाभाविक रूप है। इसी में आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना है। योगनिद्रा में लेटते ही खर्राटे शुरू हो जाता हैं। या बहुत बार होता है कि हम एकदम सजग रहते हैं, सोते नहीं है, लेकिन कहीं सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जब हम फिर से सजग होते हैं तो देखते हैं कि अरे, अभी हम शरीर की दाहिनी तरफ धूम रहे थे और अब यहाँ कल्पना कर रहे हैं कि सूर्य देखो, चन्द्रमा देखो । यह अन्तराल कैसे आ गया?

यह अनुभव तब होते हैं जब मन शांत होता है, क्योंकि जिन इन्द्रियों के साथ मन का सम्पर्क हमेशा रहता है, चाहे वह कर्मेन्द्रिय हो, चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो, चाहे बुद्धि हो, या चित्त हो, उनके साथ अगर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाए तो तन्द्रा की अवस्था अवश्य आएगी। स्वप्न की अवस्था में अगर आप जानें कि मैं सोच रहा हूँ या मैं स्वप्न देख रहा हूँ तो आप जान लेना कि अब हम योगनिद्रा का अभ्यास करने के लिए तैयार हो रहे हैं । हस तैयारी में अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । यह स्थिति स्वतः उत्पन्न होती है। जिन्हें योगनिद्रा के प्रारंभिक अभ्यास सिद्ध हो जाते हैं, वे चार धंटे की निद्रा को चालीस मिनट या एक धंटे में पूरा कर सकते हैं। इतिहास में महात्माओं या विचारकों या बड़ी-बड़ी हस्तियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने योगनिद्रा के अभ्यास को सिद्ध किया है । गाँधीजी के बारे में मालूम है । दो मिनट आँख बन्द करते, फिर एकदम तैयार । नेपोलियन के बारे में सुनते हैं कि वह धोड़े पर बैठे-बैठे सो जाता था, और फिर लड़ाई के लिए तैयार।

योगनिद्रा चेतना को जाग्रत करने का एक तरीका है। इसमें जो अनुभव होते हैं, निद्रा आती है, उस समय थोड़ा संधर्ष तो करना पड़ता है । मानसिक अनुशासन के अभाव में यह आवश्यक होता है कि हम प्रारंभ में थोड़ा संधर्ष करें । लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास होता जाएगा, संधर्ष नहीं करना पड़ेगा । मन विचारशून्य हो जाता  है, समयान्तराल हो जाता है । एक बार अगर न सोने की आदत हो गया तो जल्दी ही गाड़ी पकड़ में आ जाएगी । योगनिद्रा में मन बहुत ग्रहणशील और संवेदनशील हो जाता है । बच्चों की संकल्पशक्ति, ग्रहणशक्ति और प्रतिभा बढ़ाने के लिए यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है, और बच्चों को आप चाहे किसी विषय की शिक्षा योगनिद्रा में दे सकते हैं । योगनिद्रा ही एक ऐसी विधि है जिसमें ‘हिस्ट्री ज्योग्राफी बड़ी बेवफा, रात को पढ़ा सवेरे सफा’ वाला हिसाब नहीं होता ।

योगनिद्रा कहती है ‘सो के पढ़ा और सबेरे रखा,’ क्योंकि इसमें ग्रहणशीलता इतनी तीव्र हो जाती कि कुछ भूल ही नहीं सकते हैं। जवानों के लिए अच्छी चीज है, क्योंकि जीवन में भागदौड़ की शुरुआत जवानी में होती है। जैसे-जैसे आज विभिन्न उत्तरदायित्वों को ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे तनावमुक्त रह कर सही प्रकार से अपनी क्षमता का उपयोग करना – यही सिखलाना योगनिद्रा का उद्देश्य हो जाता है। बड़ों के लिए अच्छा अभ्यास है ताकि वे स्वयं को शांत, संयम और संतुलित रख सकें, ताकि रक्तचाप की शिकायत न हो, किसी परिस्थिति में दिल का दौरा नहीं पड़े, मन शान्त रहे । बुजुर्गों के लिए भी अच्छी चीज है, सोने को मिलता है। अतः सभी दृष्टिकोणों से, सभी वर्गों के लिए, सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए, योगनिद्रा का अभ्यास बहुत उपयोगी है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मुद्रा योग का असर ऐसा कि छा गए थे आयंगार

किशोर कुमार

यौगिक और आध्यात्मिक विषयों को लेकर अलग कुछ जानने की उत्सुकता बड़े-बुजुर्गों में तो होती ही है। पर ऐसे ही सवाल किशोर वय के लड़के-लड़कियां करने लगें तो इसे बड़े बदलाव का संकेत माना जाना चाहिए। मेरे मैसेज बाक्स में ऐसे लड़के-लड़कियों के सवालो की संख्या बढ़ती जा रही है। कोरोना महामारी का शिकार होने के बाद कई अन्य शारीरिक-मानसिक समस्यों से घिरी एक अठारह साल की लड़की का सवाल है कि क्या योग मुद्राओं में इतनी शक्ति है कि वह इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने या उसे कम करने में मदद कर सके? उपलब्ध दस्तावेजों और योगियों से विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बता सकूं कि मुद्राओं का विज्ञान बड़ा ही शक्तिशाली है। तभी मुद्रा चिकित्सा की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है।

इंग्लैंड के मशहूर वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन का नाम योग की दुनिया में भी बड़ा ही जाना-पहचाना है। वे अनिद्रा की तात्कालिक समस्या को लेकर योग साधना के विश्वविख्यात उपासक और योगाचार्य बीकेएस आयंगार के पास गए थे। आयंगार ने मुद्रा योग की शक्ति का कमाल दिखाया और मेनुहिन को अनिद्रा से मुक्ति मिल गई थी। आज यह प्रसंग ऐसे समय में आया है, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। योग व अध्यात्म को लेकर बच्चों मन में उठते सवाल और नेहरू जी-येहुदी मेनुहिन प्रसंग के कारण इस दिवस प्रासंगिक बन पड़ा है।

नेहरूजी-मेनुहिन का प्रसंग बड़ा रोचक है। बीकेएस आयंगार के यौगिक उपचार से मेनुहिन अनिद्रा के साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त हो गए तो बात नेहरू जी के कानों तक पहुंची। वे खुद ही अनेक कठिन योग साधनाएं किया करते थे। पर मेनुहिन जैसी बीमारियों से ग्रसित थे, उसमें योग का ऐसा चमत्कारिक असर हुआ होगा, यह मानना शायद कठिन जान पड़ा होगा। उन्होंने मेनुहिन को अपने निवास स्थान तीनमूर्ति भवन में बुलाया और शीर्षासन करने की चुनौती दी। मेनुहिन ने सहजता से ऐसा कर दिखाया। नेहरू जी इतने प्रभावित और उत्साहित हुए थे कि खुद भी शीर्षासन कर बैठे थे। यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। देश-विदेश के अखबारों की सुर्खियां बनी और योग गुरू बीकेएस आयंगार रातों-रात दुनिया भर में मशहूर हो गए थे।    

सवाल है कि येहुदी मेनुहिन को आखिर कौन-सी यौगिक क्रियाएं करवाई गई थी? दरअसल, मेनुहिन कोहनी के हाइपरेक्स्टेंशन से पीड़ित थे। ब्रेंकियल आर्टरी गंभीर रूप से प्रभावित हो गई थी। न्यूरो कार्डियोलॉजी से संबंधित मामला होने के कारण असहनीय दर्द के साथ ही अन्य संभावित खतरे भी परेशान करने वाले थे। कई-कई दिनों तक सो नहीं पाते थे। मेनुहिन भारत के दौरे आए तो आयंगार ने उन्हें शवासन की स्थिति में षण्मुखी मुद्रा करवाई। आमतौर पर इस मुद्रा का अभ्यास पद्मासन या सिद्धासन में कराया जाता है। पर आयंगार ने मेनुहिन के मामले में बिल्कुल अलग विधि अपनाई। नतीजा हुआ कि पांच मिनट भी नहीं बीते और मेनुहिन एक घंटे तक बेसुध सोए रहे। जो काम नींद की दवाएं नहीं पा रही थी और कई-कई रातें जगकर बितानी होती थी, वह काम पांच मिनटों के अभ्यास में हो गया था। मेनुहिन की नींद खुली तो उन्हें खुशी का ठिकाना न रहा। वे पहले सुनते थे, अब खुद ही भारतीय योग-शक्ति के गवाह बन चुके थे।

हठयोग में आसन और प्राणायाम के बाद मुद्रा योग प्रमुख है। यह प्राणिक ऊर्जा नियंत्रण का यह विज्ञान शास्त्र-सम्मत और  विज्ञान-सम्मत है। तभी रोगोपचार के तौर पर मुद्रा योग भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों में लोकप्रिय है। साठ के दशक के प्रारंभ में गोल्डी लिप्सन ने अपनी पुस्तक “रिजुवेनेशन थ्रू योगा” में योग मुद्राओं के बारे में लिखा था कि यह उंगलियों का व्यायाम भर है। पर परहसंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1969 में आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध नामक पुस्तक लिखी तो पश्चिमी देशों में भी मुद्रा योग को स्वतंत्र विद्या के तौर पर मानने का आधार बना था। अब तो मुद्रा चिकित्सा पर पुस्तकों की भरमार है।

सवाल है कि मुद्रा विज्ञान शरीर पर किस तरह काम करता है? आयुर्वेद में कहा गया है कि मनुष्य में पंच महाभूत यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्वों के असंतुलन के कारण बीमारियां होती हैं। योगशास्त्र के मुताबिक मनुष्य की उंगलियों में इन तत्वों के गुण हैं। इसलिए जब मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है तो निश्चित बिंदुओं पर दबाव पड़ते ही शरीर के सुप्त ऊर्जा केंद्र मुख्यत: मेरूदंड के चक्र सक्रिय हो जाते हैं। हम जानते हैं कि प्राणिक शरीर को चक्रों से ऊर्जा मिलती है। पर इस ऊर्जा का ह्रास हो जाने के विविध शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। चूंकि मुद्रा की स्थिति में उंगलियों के रास्ते इन प्राणिक ऊर्जा का प्रवाह बाहर की तरफ नहीं हो पाता है। इसलिए वह ऊर्जा शरीर के पांच कोशों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश को स्पंदित करती है। इससे स्वस्थ होने की क्षमता विकसित होती है। हठयोग प्रदीपिका में भी इसके महत्व का प्रतिपादन है। कहा गया है कि ब्रह्म-द्वार के मुख पर सोती हुई देवी (कुंडलिनी) को जगाने के लिए पूर्ण प्रयास के साथ मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए।  

अब जानते हैं कि मेनुहिन पर शवासन में षण्मुखी मुद्रा क्यों इतना असरदार साबित हुई होगी। षण्मुखी मतलब सप्त द्वार। यानी दो आखें, दो कान, दो नासिकाएं और एक मुंह। इस मुद्रा में ये सभी द्वार बंद हो जाते हैं। प्राण विद्या की यह तकनीक हाथों और उंगलियों से उत्सर्जित ऊर्जा चेहरे की स्नायुओं और पेशियों को उत्प्रेरित और शिथिल करती है। नतीजतन इससे एक साथ कुछ हद तक शांभवी मुद्रा, योनि मुद्रा और प्रत्याहार का फल मिलने लगता है। पेशियों व तंत्रिकाओं पर दबाव कम होते और आंतरिक सजगता बढ़ती है। न्यूरो कार्डियोलॉजी के मरीजों के मामले में शवासन की अवस्था में पेरिकार्डियन का विस्तार होता है। इससे हृदय के दाहिनी एट्रियम का फैलाव बढ़ जाता है। इससे रक्तचाप कम जाता है। इससे गजब की विश्रांति मिलती है। ऐसे में मेनुहिन का चैन से सो जाना लाजिमी ही था। इस एक उदाहरण से मुद्रा योग की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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