नववर्ष : नई आशाओं और नए संकल्पों का दिवस

किशोर कुमार      

हम अपनी मान्यताओं के आधार पर किसी भी दिवस को नववर्ष के रूप में मना लें, पर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से खुद में बदलाहट का संकल्प लेकर तदनुरूप दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास नहीं कर पाएं तो समझिए कि यह दिवस व्यर्थ गया। हम इंद्रियों का दास बने रहकर भौतिक सुखों यथा मदिरा-मांस व नाना प्रकार की अपसंस्कृतियों के पीछे ही भागते रह गए तो इस दिवस को वर्ष के बाकी दिवसों से भी बदत्तर समझिए। नववर्ष की सार्थकता तब है, जब हम शराब के साथ नहीं, बल्कि परमात्मा की उपस्थिति महसूस करते हुए जश्न मनाएंगे। सिर्फ वाईफाई से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद से पूछकर जश्न मनाएंगे कि मैं कौन हूं?  मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? तब जीवन रूपांतरित होगा और नववर्ष सार्थक हो जाएगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे महान संत के गुरू और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक  स्वामी शिवनांद सरस्वती नववर्ष पर अपने शिष्यों से कहते थे – नववर्ष में एक नवीन जीवन प्रारम्भ कीजिए। अपने दोषों-दुर्बलताओं पर धैर्यपूर्वक विजय प्राप्त करिए। एक सच्चे साधक और योगी बनने का दृढ संकल्प करिए। नववर्ष आपके सामने एक नवीन पुस्तिका की भाँति होना चाहिए। इस पुस्तिका के एक नूतन पृष्ठ पर प्रेम एवं एकत्व के सन्देश को अंकित कीजिए। इस पृष्ठ पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखिए – केवल प्रेम द्वारा ही घृणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा मानव की सेवा ईश्वर की आराधना है। अपने समक्ष उच्च प्रेम, भ्रातृत्व, करुणा एवं क्षमा के आदर्श को सदैव रखिए। अपने प्रत्येक शब्द एवं कर्म में इन आदर्शों को अभिव्यक्त करिए तथा इस नववर्ष को एक दिव्य नवीन युग के अवतरण का माध्यम बनाइए।

पर ये उपलब्धियां कैसे हासिल होंगी? महान योगियों और महापुरूषों के जीवन का संदेश है कि धैर्य रखिए और सद्गुणों के विकास के लिए इच्छा-शक्ति को प्रबल कीजिए। फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों करने का प्रयास कीजिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि तन जितना घूमता रहे उतना ही स्वस्थ रहता है और मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ रहता है। पर हमारा जीवन प्राय: इसके उलट होता है। ऐसे में सद्गुणों के विकास के लिए एकाग्रता और इच्छा-शक्ति प्रबल करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जब मन एकाग्र नहीं होता है तो हम अधीर बने रहते हैं। यहां तक की प्रभु की कृपा के लिए भी शॉर्टकट खोजते रहते हैं। फिर तो प्रेम, सेवा, करूणा आदि की बातें भी बेमानी हो जाती हैं। नतीजतन, हमारे जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों की प्रबलता बनी रह जाती है।

नए वर्ष में जीवन कहां से शुरू करें कि सद्गुणों का विकास हो सके? स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शिक्षा है कि बात यम-नियम से शुरू हो तो सबसे अच्छा। वरना, प्रारंभ शंखप्रक्षालन से कीजिए।  हठयोग में यह अतिश्रेष्ठ क्रिया है। इसके द्वारा शरीर के भीतर की अशुद्धियाँ, पुराने मल का संचय बहिष्कृत किया जाता है। उसी तरह मन को निर्मल करने हेतु मन का शंखप्रक्षालन आवश्यक है। शारीरिक शंखप्रक्षालन में पहले कष्ट होता है, उन कष्टों से विजय प्राप्त करके ही स्वस्थ, रोगरहित, हल्के शरीर की प्राप्ति होती है। इसी तरह मन में वासनाओं की गन्दगी भरी पड़ी है। कुसंस्कारों, दुर्विचारों एवं वासनाओं का पुंज ही तो है यह मन। यह गन्दगी न्यूनाधिक रूप में सबके भीतर विद्यमान है। आप इसे जान भी कैसे सकेंगे? इस हेतु योगशास्व में एक उत्तम क्रिया है, जिसे अनार्मौन कहा जाता है। शंखप्रक्षालन में नमक और पानी का जो कार्य है, वही कार्य अन्तमौन में मंत्र-जप का है। मंत्र-जप के साथ जीवन की गहराई से विचार उठते हैं। भले-बुरे, जैसे भी हों, अच्छे के लिए होते हैं। इन्हें भीतरी सफाई का लक्षण मानिए। मंत्रों की बड़ी महिमा है। मंत्रों की परिभाषा में कहा गया है कि मंत्र वह शक्ति है, जो मन के उसके बंधनों से स्वतंत्र कर देती है।

इन यौगिक क्रियाओं से इच्छा-शक्ति प्रबल बनाने और आध्यात्मिक उन्नति की जमीन तैयार हो जाती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद ने सन् 1944 में नववर्ष के लिए दिए गए अपने संदेश में कहा था कि उनकी सफलता का रहस्य इच्छा-शक्ति ही थी। वे इसी इच्छा-शक्ति की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि भाग्य वैसा है, जैसा आप इसे बनाते हैं। पर यदि हमारी इच्छा अनुचित है या प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है तो बात कैसे बनेगी। ध्यान रहे कि जीवन में ईश्वर का सच्चा पुत्र बनने की अपेक्षा एक करोड़पति बनने का प्रयास करना वास्तव में बहुत अधिक कठिन है। ईश्वर ने करोड़पति नहीं, बल्कि अपने जैसा बनने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दे रखी है। और जब आप देवत्व पर अधिकार करते हैं तो प्रत्येक वस्तु आपकी हो जाती है।

इसलिए शंखप्रक्षालन और अंतर्मौन से योगमय जीवन की जमीन तैयार हो जाए तो निष्काम कर्मयोग का साधक बनाना जीवन को रूपांतरित करने के लिए श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, योग में स्थित रहकर, सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहते हुए फलों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्म करते रहो। यह मानसिक समता ही योग कहलाता है। योगी कहते हैं कि यह अवस्था ध्यान की अवस्था या उससे भी बढ़कर है। श्रीकृष्ण द्वितीय अध्याय के इस सूत्र की महत्ता बारहवें अध्याय में बतलाते हैं। वे कहते है कि अभ्यास योग से ज्ञान योग उत्तम है। ज्ञान योग से ध्यान योग उत्तम है और ध्यान योग से कर्मफल का त्याग उत्तम है। क्यों? इसलिए कि कर्मफल के त्याग से तत्क्षण शांति उपलब्ध हो जाती है। जीवन रूपातंरित हो जाता है।   

नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए हमें शांति से बैठकर आत-निरीक्षण करने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन को रूपातंरित करने वाले नए संकल्प लेनी चाहिए। हमारे गुरूजी कहते थे कि यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। कुछ नहीं हूं का भाव है अहंकार रहित होने का भाव है, जो निष्काम कर्मयोग से प्राप्त होता है। उसी की बुनियाद पर सुखद, समृद्ध और आनंदमय जीवन का महल खड़ा होता है। नववर्ष की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार //

आज आषाद माह की पूर्णिमा को हम सब मनाते तो हैं गुरू पूर्णिमा के रूप में। पर शिष्यों के लिए इसकी अहमियत ज्यादा है। क्यों? क्योंकि गुरू की पूर्णिमा हो चुकी होती है। तभी तो हम उन्हें गुरू, ब्रह्म या साक्षात् ईश्वर के रूप में पूजते हैं। पूर्णिमा तो शिष्यों की होनी है। तभी गुरू इस मौके पर हमारी आसक्ति की जंजीर को तोड़कर संसार के बंधन से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह दिन शिष्यों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सवाल है कि शिष्य के तौर पर हम सब क्या करें कि गुरू पूर्णिमा सार्थक बन जाए? हम जिस गुरू से जुड़ने जा रहे हैं, वह गुरू समर्थ है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें और यदि गुरू उच्च कोटि के संत हैं तो उनके साथ हमारा संबंध कैसा होना चाहिए? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें निश्चित रूप से मंथन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद को शिष्य धर्म की कसौटी पर कसे बिना गुरू पूर्णिमा जैसा स्वर्णिम अवसर भी अर्थहीन हो जाएगा। उत्सव हम भले मना लेंगे। पर हमारे जीवन में किसी तरह का बदलाव नामुमकिन होगा।

शिष्यों के लिए गुरू पूर्णिमा कितने महत्व का है, यह आदिगुरू शिव और सप्त ऋषियों की कथा से स्पष्ट है।  शिव जी का हिमालय में ध्यानमग्नावस्था में अवतरित होना साधना मार्ग में आगे बढ़ रहे हिमालय के सात ब्रहम्चारियों के लिए किसी दैवीय संयोग से कम न था। उन्हें इस अवतारी महापुरूष में गुरू तत्व दिखा। उधर, अंतर्यामी शिवजी का ध्यान टूटा तो उन साधकों की इच्छा समझते देर न लगी। शिवजी ने उन्हें शिष्य की पात्रता हासिल करने के लिए कुछ साधनाएं बता दी। कोई 84 वर्षों की साधना के बाद जब वे शिष्य बनने के पात्र हो गए तो शिवजी ने आषाद महीने की पूर्णिमा के दिन उन साधकों को ज्ञान उपलब्ध कराया था। उसी दिन आदियोगी आदिगुरू बने और सात शिष्य कालांतर में सप्तऋषि कहलाए, जिनके नाम थे वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इस तरह सप्तऋषियों की पूर्णिमा हो गईं और आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन उत्सव का दिन बन गया।

इस कथा से साबित होता है कि शिष्य तभी बना जा सकता है, जब हममें इसकी पात्रता होगी। पर पहले समझिए कि पात्रता क्यों जरूरी है। कुंडलिनी तंत्र के मुताबिक, हमारे शरीर के अन्दर एक प्रमुख चक्र है, जिसे हम ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। कुछ लोग इसे गुरु-चक्र भी कहते हैं। इसका स्थान भूमध्य के पीछे जहाँ सुषुम्ना समाप्त होती है, वहीं है। इसकी एक अपनी विशेषता है। साधना के सिलसिले में ज्यों-ज्यों साधक की बाह्य चेतना अचेत होती जाती है, उसी अनुपात में यह चक्र जगता जाता है। एक ओर मन, बुद्धि, चित्त और इन्द्रियों का लोप होते जाता है, तथा दूसरी ओर इष्ट देव का चित्र स्पष्ट होता जाता है और इसके साथ ही साथ आज्ञा चक्र जाग्रत होता जाता है। ज्योंहि इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई कि वह अन्दर गया। ध्यान की अवस्था में उन्हीं का आज्ञा चक्र जाग्रत होता है, जिनकी इन्द्रियाँ कम चंचल हैं और मन एक हद तक शांत तथा अनासक्त है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका आज्ञा चक्र ध्यान के बाहर भी जाग्रत रहता है, पर ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। ध्यान की अवस्था में जब आदेश ग्रहण करने वाली प्रत्येक इन्द्रिय सो जाती है, तब यही आज्ञा चक्र गुरु का सूक्ष्म आदेश ग्रहण करता है।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं। अब सवाल है कि शिष्य में किस तरह की पात्रता होनी चाहिए? सभी गुरूजन एक ही बात कहते हैं कि निष्कपटता, श्रद्धा और आज्ञाकारिता ये तीन बातें शिष्यत्व की पहली शर्त है। पर इन गुणों का विकास भी तभी होगा, जब हम अष्टांग योग की प्रारंभिक साधना यम-नियम का पालन करना करना सीख जाएंगे। पूर्व में इसी कॉलम में यम-नियम पर विस्तार से लेख प्रकाशित हो चुका है। यम-नियम के बिना आध्यात्मिक प्रगति हो नहीं सकती। महर्षि पिप्पलाद ने भी प्रश्नकर्त्ताओं को पहले यम-नियम का पालन करने को ही कहा था।  

शिष्यत्व की ये योग्यताएं हासिल करने वाला शिष्य ही गुरू की खोज करने में समर्थ हो पता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरू का चयन करते समय देखो कि वह गुरू शिष्य की कसौटी पर कितना खरा है। यदि खरा है तो वह निश्चित रूप से समर्थ गुरू है। मैंने इसी बात को ध्यान में रखकर तो गुरू की खोज की थी। अब सवाल है कि गुरू के साथ हमारा संबंध कैसा हो? स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक पथ पर पहला कदम है, निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा। गुरु सेवा अमर आनन्द की अट्टालिका की नींव है। विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा इसके स्तम्भ हैं। ऊपर की इमारत अनन्त आनन्द है। गुरु सेवा ईश्वर की पूजा है। गुरु सेवा तथा गुरु के प्रति आत्मसमर्पण हृदय के द्वार खोलता है, चेतना का विस्तार करता है तथा आत्मा को गहराई प्रदान करता है। जो आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-भाव के साथ गुरु-सेवा करता है, वही सच्चा शिष्य है। गुरु-सेवा में आप जितनी अधिक शक्ति लगाएंगे, उतनी ही अधिक दैनिक शक्ति का संचार होगा।

इस तरह गुरू पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा प्रारब्ध चाहे जैसा भी हो, यदि हम सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने को तैयार हैं तो हमारे लिए अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा खुल सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्य-धर्म के निर्वहन का संकल्प लेने का दिन है। रस्मी तौर पर केवल गुरू का गुणगान करने से बात बनने वाली नहीं। गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगियों के महायोगी स्वामी शिवानंद सरस्वती

दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित अप्पय्य दीक्षितार कुल में जन्मे और परदेश में अपनी चिकित्सा की धाक् जमाने वाले कुप्पू स्वामी पर किसी अदृश्य शक्ति का ऐसा जादू चला कि वे तमाम भौतिक सुखों को त्याग कर कठिन साधानाओं की बदौलत स्वामी शिवानंद सरस्वती बन गए थे। उनमें अद्भुत योग-शक्तियां थीं। वे एक ही समय अलग-अलग देशों में कई शरीर धारण कर सकते थे और खेचड़ी मुद्रा का प्रयोग करके हवा में उड़ सकते थे। पर वे इसे आत्म-ज्ञानियों के लिए मामूली बात मानते थे। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि संन्यास मार्ग पर चलने वाले ज्यादातर साधकों की साधना मामूली सिद्धियों तक ही सीमित रह जाती है। 20वीं सदी के उस महान संत की 136वीं जयंती (8 सितंबर 1887) पर प्रस्तुत है यह आलेख।     

किशोर कुमार

स्वामी विवेकानंद सन् 1893 में जब अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में योग और वेदांत दर्शन का अलख जगा रहे थे। तब भविष्य में आध्यात्मिक आंदोलन को गति देने के लिए दिव्य-शक्ति वाले कई संत भारत की धरती पर भौतिक शरीर धारण करके विभिन्न परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती उनमें प्रमुख थे।

पेशे से इस मेडिकल प्रैक्टिशनर की मलाया में काम करते हुए न जाने कौन-सी शक्ति जागृत हुई कि वे वैरागी बनकर भारत में नगर-नगर डगर-डगर भ्रमण करने लगे थे। ऋषिकेश पहुंचने पर उनकी यह यात्रा पूरी हुई थी, जब वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के दर्शन हो गए और उनसे दीक्षा मिल गई। फिर तो परिस्थितियां ऐसी बनी कि वहीं जम गए। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति की आभा फैल गई और देखते-देखते पूरी दुनिया में छा गए थे। उनके पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि वे न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। हालांकि स्वामी विश्वानंद सरस्वती को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। इसलिए कि दीक्षा देने के बाद वे कभी नहीं दिखे। कहां से आए थे और कहां गए, कुछ भी पता नहीं चला। भक्तगण मानते हैं कि किसी आलौकिन शक्ति ने दीक्षा देने के लिए भौतिक शरीर धारण किया था।

स्वामी शिवानंद सरस्वती असीमित यौगिक शक्तियां थी। पर वे यौगिक साधनाओं की बदौलत चमत्कार दिखाने के विरूद्ध थे। केवल पीड़ित मानवता की सेवा करने और अपने शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसा काम कर देते थें, जिन्हें आम आदमी चमत्कार मानता था। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर के अस्पताल में भर्ती उनके एक शिष्य की हालत खराब थी। दूसरी तरफ कुआलालामपुर में ऐसी ही स्थिति में एक अन्य शिष्य था। इन दोनों शिष्यों द्वारा बतलाए गए समय और तिथि के मुताबिक स्वामी शिवानंद ने एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए थे और दोनों ही स्वस्थ होकर घर लौट गए थे। आस्ट्रिया में अपना शरीर त्याग चुके स्वामी ओंकारानंद ने अपनी पुस्तक में इन घटनाओं का जिक्र किया है। वे इस वाकए के वक्त स्वामी शिवानंद सरस्वती की छत्रछाया में साधनारत थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ भी एक चमत्कारिक घटना हुई थी। वे कुंभ स्नान के लिए हरिद्वार जाना चाहते थे। पर स्वामी शिवानंद सरस्वती ने उन्हें इसके लिए इजाजत न दी। स्वामी सत्यानंद सन्यास मार्ग पर नए-नए थे। उन्होंने कल का काम आज ही निबटा लिया और अपने गुरू को बताए बिना कुंभ के मेले में चले गए। गंगा में नहाते वक्त लंगोट पानी की धारा में बह गया। पहनने के लिए दूसरा कुछ भी नहीं था। ऐसे संकट में गुरू कृपा का ही सहारा था। गंगा किनारे निर्वस्त्र बैठकर गुरू का स्मरण कर रहे थे। तभी आश्रम का एक संन्यासी वस्त्र लिए पहुंच गया। स्वामी सत्यानंद उस वस्त्र को धारण कर वापस आश्रम पहुंचे ही थे कि स्वामी शिवानंद जी से सामना हो गया। उन्होंने हंसते हुए पूछा, कहो सत्यानंद कपड़े के बिना बहुत कष्ट हो गया? स्वामी जी को समझते देर न लगी कि यह चमत्कार गुरू की अवमानना का प्रतिफल था। उन्होंने क्षमा याचना करते हुए संकल्प लिया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़ा वाकया अनेक लोगों को पता होगा। वह एक ऐसा प्रसंग है, जिससे डॉ कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया था। डॉ कलाम ने अपनी पुस्तक “विंग्स ऑफ फायर” में खुद ही उस घटना का जिक्र किया था। हुआ यह कि डॉ.कलाम का मेडिकल के आधार पर वायुसेना के पायलट पद के लिए चयन नहीं हो सका। जब परीक्षा परिणाम आया था, उस समय वे देहरादून में ही थे। मायूस डॉ कलाम के पैर सहसा शिवानंद आश्रम की तरफ बढ़ गए। जब आश्रम पहुंचे तो स्वामी शिवानंद का प्रवचन चल रहा था। वे वहां बैठ गए। प्रवचन समाप्त होने के बाद वे स्वामी जी के पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उनसे कहा, तुम्हें देश की अगुआई करनी है। इन छोटी बातों से हतोत्साहित होने का कोई औचित्य नहीं। डॉ. कलाम की कल्पना से परे थीं ये बातें। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

ये सारी घटनाएं उनकी अद्भुत योग-शक्ति का प्रतिफलन थी। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत पद्मभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। पहमहंस योगानंद अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने के वक्त वहां मौजूद नहीं थे। काफी दूर थे। पर उनके गुरू भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे।

स्वामी शिवानंद जी के साथ भी अद्भुत घटना हुई थी। वे जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तो वहां ऐसा शक्तिशाली ऊर्ध्वगामी आकर्षण बना कि उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। ताकि वह जमीन पर रह सकें। आम आदमी को लग सकता है कि ये घटनाएं किसी सिद्धि के परिणाम हैं। पर ऐसा नहीं है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है।

स्वामी शिवानंद स्वयं भी कहते थे और अपनी पुस्तकों में उल्लेख भी किया कि योग में इतनी शक्ति है कि कोई शरीर के भार को कम करके पल भर में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूर जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अंदर की ओर मोड़ कर उससे पश्च नासाद्वार को बंद कर वायु में उड़ान भरी जा सकती है। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगाकर अल्प समय में पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। योगी संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मन प्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षण मानसिक भ्रमण करके जान सकते हैं। परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने अपने एक बीमार भक्त को इन्ही विधियों की बदौलत इंग्लैंड में दर्शन दिया था। दृष्टि या स्पर्श मात्र से अथवा मंत्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार किया जा सकता है। एक ही शर्त है कि साधना उच्च कोटि की होनी चाहिए।

इसके साथ ही वे कहते थे कि सिद्धियों से युक्त होना किसी महात्मा की महानता की पहचान नहीं है, न ही इससे प्रमाणित होता है कि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है। सद्गुरू किसी चमत्कार अथवा सिद्धि का प्रदर्शन तभी करते हैं, जब उन्हें जिज्ञासुओं को प्रोत्साहित करने और उनके हृदय में अतीन्द्रिय शक्तियों में विश्वास पैदा कराने की जरूरत होती है। आत्मज्ञानी गुरूओं के लिए ये सिद्धियां प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई जैसी होती हैं। दुर्भाग्यवश यह संसार नकली गुरूओं से भर गया है। वे निष्कपट व भोले लोगों का शोषण करते हैं और उन्हें अज्ञान के अंधेरे गर्त्त में डालते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती पर बनी यह डक्यूमेंटरी दूरदर्शन की प्रस्तुति है।

शायद यही वजह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती आध्यात्मिक प्रणेताओं द्वारा पंथ या संप्रदाय की स्थापना के विरूद्ध थे। वे कहते थे कि भारत अद्वैत दर्शन की पवित्र भूमि है। यहां दत्तात्रेय, शंकराचार्य एवं वामदेव जैसे महात्मा अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक और स्वामी दयानंद जैसी उदारमना एवं उदात्त आत्माएं भी भारत भूमि की ही थीं। ये संन्यासी कभी अपना पंथ या संप्रदाय स्थापित करने के पक्ष में नहीं रहे। पर उन संतों के नाम पर मयूरपंख लगाए कौए भी पंथ या संप्रदाय बनाते दिखते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती स्वर साधना को योग विद्या और ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण आधार मानते थे। वे कहते थे कि जो स्वर साधना नहीं जानता, उसकी ज्योतिष विद्या अधूरी है। योग के क्षेत्र में भी यही बात लागू है। वे कहते थे कि साधु-संन्यासी या ज्योतिष आदमी को देखकर ही ऐसी बातें कह देते हैं, जो कालांतर में सही साबित होती हैं। लोग इन्हें चमत्कार मानने लगते हैं। पर वे स्वर साधना के कमाल होते हैं। यदि ज्योतिष या संत की सूर्य नाड़ी काम कर रही हो और प्रश्नकर्ता नीचे या पीछे या दाईं ओर खड़ा हो तो दावे के साथ प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यानी यदि प्रश्न है कि फलां काम होगा या नहीं तो इसका उत्तर है – काम होगा और तय मानिए कि यह बात सौ फीसदी सही निकलेगी। स्त्री कि मासिक शौच के अनंतर पांचवें दिन यदि पति की सूर्य नाड़ी तथा पत्नी की चंद्र नाड़ी चल रही हो तो उस समय उनका प्रसंग पुत्र उत्पन्न करेगा। जब सूर्य नाड़ी चलते समय का योगासन ज्यादा फलदायी होता है

स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और मरीज ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

योगासनों की बारीकियों का अवलोकन करते स्वामी शिवानंद सरस्वती

स्वामी शिवानंद सरस्वती में वेदांत के अध्ययन और अभ्यास के लिए समर्पित जीवन जीने की तो स्वाभाविक व जन्मजात प्रवृत्ति थी ही, गरीबों की सेवा के प्रति तीब्र रूचि ने उन्हें संन्यास की ओर प्रवृत्त किया था। उन्होंने सन् 1932 में ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम, सन् 1936 में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी और 1948 में योग-वेदांत फारेस्ट एकाडेमी की स्थापना की थी। इन्ही संस्थाओं के जरिए लोगों को योग और वेदांत में प्रशिक्षित किया और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। आज भी ये संस्थाएं स्वामी शिवानंद सरस्वती के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु में जन्में बीसवीं सदी के इस महानतम संत को शत्-शत् नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

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