चिकित्सा जगत की नजर में सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा विकसित योगनिद्रा और महर्षि महेश योगी द्वारा विकसित ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन यानी भवातीत ध्यान के बाद सूर्य नमस्कार ही एक ऐसी योग पद्धति है, जिसके चिकित्सकीय प्रभावों पर दुनिया भर में सर्वाधिक वैज्ञानिक शोध किए गए हैं। योगियों को तो पहले से ज्ञान था कि सूर्य नमस्कार मानव तन-मन के लिए अमृत समान है। सौ दुखों की एक दवा है। पर कोराना महामारी के बाद चिकित्सा विज्ञानियों ने भी इसके महत्व को शिद्दत से स्वीकार किया। नतीजा है कि चिकित्सा विज्ञानियों के साथ ही दवा बनाने वाली कंपनियां भी अपने सामुदायिक विकास मद के धन का उपयोग योग विशेष तौर से सूर्य नमस्कार के चिकित्सकीय प्रभावों को जानने के लिए कर रही हैं।

यह सुखद है कि वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर दुनिया भर में योग की स्वीकार्यता बढ़ाने में चिकित्सा विज्ञानी महती भूमिका निभा रहे है। उनके सद्प्रयासों का ही परिणाम है कि सबको बात समझ में आने लगी है कि यह विद्या केवल और केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए ही नहीं है, बल्कि इसका अपना विज्ञान है और यह तन-मन को स्वस्थ्य रखने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। योगविद्या के स्थापित संस्थानों में तो तन-मन पर योग के चिकित्सकीय प्रभावों को जानने के लिए प्रयोगशाला हैं ही, चिकित्सा शिक्षा संस्थानों में भी योग की अहमियत को समझते हुए प्रयोगशालाएं बनाई जा चुकी हैं। दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में इसके लिए अलग विभाग ही है। भारत, अमेरिका और जर्मनी से लेकर दुनिया भर के अनेक चिकित्सा शोधशालाओं में सूर्य नमस्कार सहित योग की विभिन्न विधियों और उसके विभिन्न आयामों पर लगातार शोध कार्य किए जा रहे हैं।  

हाल ही सतत चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में सर्वाधिक लोकप्रिय बेव मैगजिन सीएमई इंडिया ने अग्रणी हेल्थकेयर कंपनी यूएसवी इंडिया के साथ मिलकर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया था। इसमें कलकत्ता के प्रसिद्ध चिकित्सक़ डॉ शंबो एस समजदार ने मुंबई स्थित लीलावती अस्पताल के एंडोक्रिनोलॉजिस्ट डॉ शशांक आर जोशी की प्रेरणा से गहन वैज्ञानिक शोध के नजीतों को सप्रमाण प्रस्तुत करके साबित किया कि टाइप 2 मधुमेह की रोकथाम में सूर्यनमस्कार योग किस तरह प्रभावी है। लगातार किए जा रहे वैज्ञानिक शोधों का नतीजा यह है कि मधुमेह और हृदय रोग के अलावा अनेक छोटी-बड़ी बीमारियों जैसे मुँहासे, फोड़े-फुंसियाँ, रक्ताल्पता, गठिया, सिरदर्द, दमा तथा फेफड़े की अन्य विकृतियाँ, पाचन संस्थान की व्याधियाँ जैसे अपच व कब्ज, गुर्दे संबंधी व्याधियाँ, यकृत की क्रियाशीलता में कमी, निम्न रक्तचाप, मिर्गी, त्वचा की बीमारियाँ (एक्जिमा, सोरायसिस, सफेद दाग), सामान्य सर्दी-जुकाम से बचाव, अन्तःस्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म, मानसिक व्याधियाँ (जैसे-चिंता, अवसाद, विक्षिप्त, मनोविकृति) आदि बीमारियों से ग्रस्त मरीजों पर भी सूर्य नमस्कार के व्यापक प्रभावों का पता चल चुका है।  

ऐसे में समझा जा सकता है कि भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को इतना अहमियत क्यों दे रही है। दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है। एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है।

बीते साल ही आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए गए थे। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की गई थी। जी20 शिखर सम्मेलन के बहाने भी हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल कहते हैं कि सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं है, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहे तो यह यौगिक अमृत बन जाता है। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

सूर्यनमस्कार को लेकर बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्यनमस्कार के अभ्यासियों को इनमें से कोई भी पुस्तक का अध्ययन जरूर करना चाहिए। इससे योगाभ्यास के दौरान ज्यादा स्पष्टता रहती है और पर्याप्त लाभ मिल पाता है। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

हाल के दिनों में जो लोग धार्मिक आधार पर या किसी अन्य कारणों से इस योगाभ्यास को लेकर फिर से विवाद खड़े करने लगे हैं, उन्हें वैज्ञानिक शोधों से मिले नतीजों के आधार पर समझना होगा कि सूर्य नमस्कार कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यौगिक अमृत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग का फैलता क्षितिज और बढ़ता सम्मान

किशोर कुमार

भारत में पिछले एक दशक के दौरान सरकारी स्तर पर योग को जितनी अमहमित मिली, वह अभूतपूर्व है। सन् 2014 में योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुर्नस्थापित करने के बाद से भारत सरकार अक्सर ऐसे फैसले लेती है, जिनसे न केवल योगियों और योग संस्थानों का सम्मान बढ़ता है, बल्कि योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार भी होता है। 75वें गणतंत्र दिवस के मौके पर भी दुनिया ने देखा कि “योग से सिद्धि” झांकी और फ्रांस में वैदिक योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार करने वाले 100 वर्षीय योग गुरू चार्लोट चोपिन और भारतीय मूल के फ्रांसीसी योगाचार्य 79 वर्षीय किरण व्यास को पद्मश्री से नवाज कर किस तरह योग को अहमियत दी गई। इतना ही नहीं, देश के विभिन्न राज्यों के 291 योग प्रशिक्षकों को सपरिवार गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए न्योता गया था, जो देश भर में जमीनी स्तर पर योग के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान देते हैं।

पहले बात पद्मश्री से सम्मानित योगियों की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते साल जुलाई में जब फ्रांस गए थे तो पेरिस में प्रसिद्ध फ्रांसीसी योग शिक्षक सुश्री चार्लोट चोपिन से मुलाकात की थी। फिर ट्वीट करके सुश्री चोपिन की भारतीय योग व अध्यात्म के प्रति गहरी आस्था और फ्रांस में योग को बढ़ावा देने के लिए उनके अभूतपूर्व योगदान की सराहना की थी। सुश्री चोपिन ने श्री मोदी को बतलाया था कि फ्रांस में योग कितना समृद्ध हुआ है। साथ ही बतलाया कि योग खुशी ला सकता है और समग्र कल्याण को बढ़ावा दे सकता है, ये बातें फ्रांस के लोगों के लिए अब सैद्धांतिक बातें नहीं रह गईं हैं।

गुजरात में जन्मे और पले-बढ़े फ्रांसीसी योगी किरण व्यास की अनेक उपलब्धियों में एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि उनके कारण ही यूनेस्को तक योग की पहुंच बन पाई थी। इसकी भी मजेदार कहानी है। उन दिनों श्री व्यास यूनेस्को में शैक्षणिक क्षेत्र में काम करते थे। यूनेस्को के महानिदेक थे अमादौ-महतर एम’बो। कुछ खास मेहमानों के लिए एम’बो के घर डिनर पार्टी रखी गई तो एम’बो की पत्नी के विशेष आग्रह पर किरण व्यास भी उस पार्टी में शरीक हुए। पर उनके मन में यह सवाल बना रहा कि दिग्गजों की पार्टी में उन जैसे सामान्य कर्मचारी को क्यों न्योता गया था? रहा न गया तो पार्टी के बाद मन की बात जाहिर कर दी। श्रीमती एम’बो ने जो कुछ कहा, उससे योग विद्या की शक्ति का पता चलता है। उन्होंने कहा कि आप पास होते हैं तो एम’बो कठिन परिस्थितियों में भी बहुत शांत महसूस करते हैं, और खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं। किरण व्यास ने उन्हें बताया कि शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे योगाभ्यास करते हैं। इस पर श्रीमती एम’बो ने उसने पूछा कि योग क्या है? जब उन्होंने योग विद्या के बारे में बताया तो एम’बो दंपति बेहद प्रभावित हुए और इस तरह यूनेस्को मुख्यालय में योग शिक्षा की बुनियाद पड़ गई थी।

अब बात योग से सिद्धि की। महान योगी श्रीराम शर्मा आचार्य कहा करते थे कि साधना का अर्थ है अपने आपे को साधना और इसका क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे-गढ़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसंपन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्म-सम्मान क्यों गँवाया जाए? और भारत तो अलौकिक प्रतिभा संपन्न योगियों की ही भूमि है। हम सबने पढ़ा है, सुना है तैलंग स्वामी के बारे में। उन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था। उनसे जुड़ी चमत्कारिक कहानियों का उल्लेख बनारस गजेटियर में भी है। अपने योग बल से 280 वर्षों तक एक ही शरीर धारण किए रहे। लाइलाज बीमारियां उनकी दृष्टि पड़ते ही ठीक हो जाती थी। काशी राजा के अंग्रेज अधिकारी ने नाव से यात्रा करते समय तैलंग स्वामी को गांगाजी में जल के सतह पर पद्मासन लगाए देखा तो उन्हें अपनी नाव में बैठाकर कुछ बात करनी चाही। नाव में सवार होने के कुछ क्षण बाद ही स्वामी जी ने अफसर से देखने के लिए उसकी तलवार मांगी। पर तलवार गंगा जी में गिर गई। जाहिर है कि अफसर बेहद नाराज हुआ। तब स्वामी जी ने गांगा जी में हाथ डाला और उनकी हाथ में तीन तलवारें आ गईं। स्वामी जी ने कहा, इनमें से जो तुम्हारी हो उसे पहचान कर ले लो। यह चमत्कार देख कर अफसर तो भौचक्का रह गया और अपने अपराध के लिए क्षमा मांग ली थी।  

गणतंत्र दिवस समारोह में योग से जिस सिद्धि की बात कही गई थी, निश्चित रूप से उनका अभिप्राय ऐसी सिद्धियों से नहीं था। किसी भी युग में ऐसी सिद्धियां हर किसी के वश की बात रही भी नहीं होगी। जिस  सिद्धि की बात की गई, वह स्वस्थ्य काया और शारीरिक-मानसिक संतुलन के संदर्भ में थी। हम सब ने योगबल का जादू देखा भी कि फौजी महिलाएं किस तरह कठिनतम काम आसानी से कर पा रही थीं। गणतंत्र दिवस समारोह के लिए कई-कई दिनों तक अभ्यास होता है। इस अभ्यास के दौरान भी योगाभ्यास अनिवार्य रूप से शामिल था। संदेश यही दिया गया कि आधुनिक युग में सबके लिए योग जरूरी है। ताकि काया स्वस्थ रहे और शारीरिक-मानसिक संतुलन बना रहे, जो श्रेष्ठ भारत के सपने को साकार करने के लिए बेहद जरूरी है।  

यह सुखद है कि केंद्र सरकार ने योगासन को खेल विधा के रूप में भी मान्यता दी है और इसे प्राथमिकता श्रेणी में रखा है। योग को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। कई विश्वविद्यालयों ने पाठ्यक्रम में योग को शामिल कर लिया है। आयुष मंत्रालय ने वन-स्टॉप स्वास्थ्य समाधान के रूप में नमस्ते योग ऐप प्रस्तुत कर चुका है, जो लोगों को योग से संबंधित जानकारियों, कार्यक्रमों और योग कक्षाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाता है। इसी तरह, योग का लाभ दुनिया भर में पहुंचाने के लिए वाई-ब्रेक और डब्ल्यूएचओ-एम योगा भी लॉन्च किया गया है। देश भर में आयुष स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र खोले गए हैं। योग इन केंद्रों का महत्वपूर्ण हिस्सा है और शिक्षक/प्रशिक्षक योग को जमीनी स्तर तक ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

भारतीय योग विद्या को बढ़ावा देने और योग का सम्मान करने की दिशा में भारत सरकार जिस तरह आगे बढ़कर काम कर रही है, वह प्रशंसनीय है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ऐसे मिलेगा शक्तिशाली योग विज्ञान का अधिकतम लाभ

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती //

योग को चार भागों में बांटा गया है। एक भौतिक शरीर के लिए, दूसरा प्राण-शक्ति के लिए, तीसरा विश्राम और चौथा ध्यान। योग का मतलब क्या है? इसका अर्थ है शारीरिक मुद्रा, श्वास लेने के व्यायाम, विश्राम और ध्यान, ये योग के चार भाग हैं।

अब, पहला क्या है? इसे शारीरिक आसन यानी हठ योग आसन कहा जाता है। किसी विशेष शारीरिक मुद्रा को धारण करने से मानव ग्रंथियां प्रभावित होती हैं। शरीर में कई ग्रंथियां हैं, जो शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। जैसे, थायरॉयड ग्रंथि, थाइमस ग्रंथि, अधिवृक्क, अग्न्याशय, आदि। यदि इनमें असंतुलन हो तो शारीरिक और मानसिक रोग हो जाते हैं।

आपने छोटे लड़के-लड़कियों को मिर्गी के दौरे से पीड़ित देखा होगा। यह ग्रंथि संबंधी असंतुलन के कारण होता है। योग आसनों के अभ्यास से ग्रंथियों के स्राव में संतुलन लाया जा सकता है। अगर शरीर का तंत्रिका तंत्र कमजोर हो तो व्यक्ति को कई तरह की परेशानियां होती हैं। आपने बहुत से लोगों को हिस्टीरिया से भी पीड़ित देखा होगा। बहुत से लोग नर्वस ब्रेकडाउन या नर्वस डिप्रेशन से पीड़ित हैं। हठ योग में कुछ ऐसे तरीके हैं, जिनसे तंत्रिका तंत्र को मजबूत किया जा सकता है।

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हठ योग से कई बीमारियों को पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है। यह बहुत ही प्रभावी प्रणाली है। इसलिए आवश्यक है कि सभी को हठयोग का अभ्यास करना चाहिए। यदि आप एक या दो या तीन महीने की अवधि के लिए हठ योग का अभ्यास करते हैं, तो आप पाएंगे कि आप ऊर्जावान हो रहे हैं।

दूसरा है प्राणायाम। यानी श्वास लेने का योग। इसमें आप इस तरह से श्वास लेते हैं कि अधिक प्राण, जीवनी शक्ति ग्रहण करते हैं। इस शरीर को प्राण-शक्ति का आधार मिलना जरूरी है। यदि प्राण-शक्ति की मात्रा कम हो तो आदमी कमजोर हो जाता है। इसलिए शरीर में अधिक प्राण-शक्ति के लिए आपको प्राणायाम का अभ्यास जरूर करना चाहिए।

तीसरा है विश्राम। यह सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। डॉक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, गृहिणियां, राजनेता काम के बोझ से लगातार तनाव में रहते हैं। शाम ढ़लते-ढ़लते थक जाते हैं। इतने थके हुए होते हैं कि सो नहीं पा पाते हैं। नतीजतन, अनेक लोग शराब का सेवन करने लगते हैं। लेकिन कुछ समय बाद वह भी काम नहीं करती। फिर वे ट्रैंक्विलाइज़र लेते हैं। कुछ समय बाद वह काम नहीं करता। फिर वे ज्यादा शक्ति वाला ट्रैंक्विलाइज़र लेते हैं। उन सबसे बात नहीं बनती और फिर हृदय रोग या तंत्रिका तंत्र रोग आदि बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। योग में विश्राम की ताकतवर विधि है। इसके लिए नींद की जरूरत नहीं। बस, आरामदेह स्थान पर लेट जाना होता है और मानसिक रूप से प्रत्याहार का कोई अभ्यास करना होता है। इससे  दस मिनटों के भीतर साधक तनाव-मुक्त हो जाता है।

चौथा खंड ध्यान है। मन को स्थिर और एकाग्र कैसे करें, इसके लिए इन्हीं बातों को जानना जरूरी होता है। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो उस समय मन स्थिर नहीं होता है। मन भटक रहा होता है। ऐसे में, अपने मन को एक बिंदु पर केंद्रित करना होता है। जब एक बार मन किसी बिंदु पर केंद्रित होने लगता हैं, तो आप ध्यान में होने लगते हैं। सबसे कठिन ध्यान ही है। लेकिन एक बार जब आप जान जाते हैं कि ध्यान कैसे करना है, तो जीवन खुशनुमा बन जाता है। मन बहुत शक्तिशाली है, लेकिन जब उसकी चंचलता कम होती जाती है तो ध्यान घटित होने लगता है। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य की किरणें जब पृथ्वी पर पड़ती हैं तो कमजोर हो जाती हैं। लेकिन जब एक बारीक लेंस द्वारा उसे केंद्रित किया जाता है तो वह किसी भी चीज को जलाने में सक्षम होती हैं। इसी तरह, जब मन बिखरा हुआ होता है तो वह किसी भी काम में असमर्थ होता है। लेकिन जब वही मन ध्यान द्वारा एकाग्र होता है तो वह शक्तिशाली हो जाता है।

योग में एकाग्रता की कई प्रणालियाँ हैं। आप अपने मन को श्वास पर, ध्वनि पर या शरीर के किसी भी क्रिया पर केंद्रित करके एकाग्र कर सकते हैं। किसी विशेष प्रतीक पर केंद्रित करके भी मन को एकाग्र कर सकते हैं। लेकिन सबसे आसान जो मैं आपको बता सकता हूं वह है अपने मन को श्वास पर केंद्रित करना।

योग की पद्धतियां पूरी तरह वैज्ञानिक हैं और यह जरूरी है कि आप किसी योग्य शिक्षक से ही योग सीखें। एक सक्षम शिक्षक का मतलब है कि वह स्वयं योगमय जीवन जीता हो और विज्ञान को जानता हो। तभी वह आपको बता सकता है कि आपको कौन-से अभ्यास करने चाहिए। यदि आप साइटिका या स्लिप्ड डिस्क से पीड़ित हैं, तो योग शिक्षक को पता होना चाहिए कि आपको कौन-से अभ्यास करने या नहीं करने चाहिए। योग पुस्तक पढ़कर नहीं, बल्कि किसी योग्य शिक्षक से सीखना चाहिए।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

आध्यात्मिक चिकित्सा और ध्यान

किशोर कुमार //

रयुहो ओकावा जापानी आध्यात्मिक चिकित्सा विज्ञानी हैं। उनकी कई पुस्तकें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। किसी ने उनसे पूछ लिया कि सीनाइल डिमेंशिया से पीड़ित एक बुजुर्ग की याददाश्त और अन्य महत्वपूर्ण दिमागी काम करने की क्षमता नष्ट होती जा रही है। ऐसे में क्या ध्यान से इस प्रक्रिया को पलटना संभव है? ओकावा का उत्तर था कि सीनाइल डिमेंशिया का मरीज खुद तो ध्यान नहीं कर सकता। पर ध्यान में इतनी शक्ति है कि कोई दूसरा व्यक्ति उस मरीज की तस्वीर मन में बिठाकर विचार लाए कि मरीज ठीक हो रहा है और यह अभ्यास लंबे समय तक जारी रखा जाए तो इसके अद्भुत परिणाम मिलेंगे। फीडबैक यह है कि लोगों को ऐसे ध्यान में भी परिणाम मिलते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती बीसवीं सदी के महान योगी थे। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और रोगी ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

आध्यात्मिक चिकित्सा का आधार ही है मंत्र और ध्यान। यह कोई रहस्य नहीं है, बल्कि सर्वविदित है कि ध्यान में वह शक्ति है कि जीवन में शांति, प्रसन्नता और शक्ति के द्वार खुल सकते हैं। दुनिया भर में हुए प्रयोगों और उन प्रयोगों के आधार पर विकसित प्रणालियों से सिद्ध हो चुका है कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विपरीत नहीं है। इसलिए अब वैज्ञानिक रीति से भी योग की बात होने लगी है।

ओशो कहते थे कि यह जो मनुष्य नाम का रोग है, इस रोग को सोचने, समझने, हल करने के दो उपाय किए गए हैं। एक है औषधि और दूसरा है ध्यान। ये दोनों एक ही रोग की चिकित्सा पद्धतियां हैं। औषधिशास्त्र एक-एक रोग को आणविक मानता रहा है। ध्यान मनुष्य को ‘ऐज ए होल’ बीमार मानता है, एक-एक रोग को नहीं। ध्यान मनुष्य के व्यक्तित्व को बीमार मानता है। धीरे-धीरे औषधिशास्त्र ने भी कहना शुरू किया है कि बीमारी का इलाज मत करो, बीमार का इलाज करो।

यह सर्वविदित है कि ध्यान में वह शक्ति है कि जीवन में शांति, प्रसन्नता और शक्ति के द्वार खुल सकते हैं। दुनिया भर में हुए प्रयोगों और उन प्रयोगों के आधार पर विकसित प्रणालियों से सिद्ध हो चुका है कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विपरीत नहीं है। इसलिए अब वैज्ञानिक रीति से भी योग की बात होने लगी है। दुनिया भर में ध्यान की नित नई विधियां विकसित की जा रही हैं। पर यह भी सत्य है कि ध्यान में सफलता कम ही लोगों को मिल पाती है। वजह? सिद्ध योगी कहते हैं कि हम ककहरा जाने बिना स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए लाइन में लग जाते हैं।

राजयोग के सूत्रधार महर्षि पतंजलि से लेकर योग के अनेक ग्रंथों का मोटे तौर पर सार यही है कि ध्यान जीवन की महानतम कला है। पर यह सीखी नहीं जा सकती। शक्तिपात हो जाए तो बात अलग है। जे कृष्णमूर्ति बीसवीं सदी के महान दार्शनिक थे। मस्तिष्क की प्रकृति, ध्यान, मानवीय सम्बन्ध, समाज में सकारात्मक परिवर्तन आदि विषयों पर उनका मौलिक दर्शन था। वे कहते थे, ध्यान की कोई प्रणाली ध्यान नहीं है। सजगता का अभ्यास किया जा सकता है, जिसे योग की भाषा में प्रत्याहार कहते हैं।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की एक चर्चित पुस्तक है – ध्यान तंत्र के आलोक में। ध्यान के प्रारम्भिक अभ्यासियों के लिए एक स्पष्ट एवं बोधगम्य पुस्तक है। इसका उद्देश्य है अभ्यासी के समक्ष संभावनाओं के द्वारा खोलना, आवश्यक तैयारी की जानकारी देना और साथ-ही ध्यान का अनुभव प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक विधियों से अवगत कराना। प्रत्याहार के आधारभूत अभ्यासों, जैसे, योगनिद्रा अजपाजप, त्राटक, क्रियाओं मंत्र जप, के विभित्र अभ्यासों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए, इस पुस्तक में ध्यान के उच्च अभ्यासियों के लिए आवश्यक बुनियाद भी रखी गई है।

दुनिया भर में मन के प्रबंधन पर जो शोध हुए हैं, उनमें से कई शोधों का बारीक से अध्ययन करने का मौका मिला है। उन सभी शोधों के लिए प्रकारांतर से प्रत्याहार और कुछ मामलों में धारणा की विधियों को ही उपयोग में लाया गया था। यानी चेतना को अंतर्मुखी और एकाग्र बनाने का अभ्यास कराकर आधुनिक चिकित्सकीय विधियों से पता लगाया गया कि मन की प्रतिक्रिया पहले और बाद की कैसी होती है। बीटा और थीटा तरंगों की प्रतिक्रयाएं किस तरह की होती हैं। पर इन योग विधियों को कहा गया मेडिटेशन, ध्यान। ऐसी बातों से ही भ्रम की स्थिति बनती है।

योगनिद्रा, अंतर्मौन, अजपा जप और त्राटक या फिर इनसे ही मिलती-जुलती विधियों पर सैकड़ों अध्ययन किए जा चुके हैं। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर अध्ययनों के नतीजे पहले के अध्ययनों के नतीजों जैसे ही है। इससे मानसिक पीड़ा झेल रहे लोगों को “ध्यान” को लेकर आश्वस्ति मिली है। मुख्य रूप से हार्वर्ड य़ूनिवर्सिटी, द यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स और येल यूनिवर्सिटी में अध्ययन किए गए। देखा गया कि अवसाद के दौरान मन में किस तरह के उपद्रव होते हैं और ध्यान साधना से उन पर काबू पाना क्यों आसान होता है। यह सर्वविदित है कि मानव तंत्रिका तंत्र का मन से सीधा संबंध है। अध्ययन के दौरान देखा गया कि ध्यान के अभ्यासों के दौरान मस्तिष्क के ग्रे पदार्थ की मात्रा में परिवर्तन होता है। इसका सीधा असर मस्तिष्क के “मी सेंटर” पर पड़ता है। उसकी गतिविधि कम हो जाती है, जो अवसाद के कारण बढ़ गई होती है।

निष्कर्ष यह कि मन अशांत है तो ध्यान सधेगा नहीं। जिस उद्देश्य से ध्यान करने की जरूरत महसूस की जा रही है, उसके लिए प्रत्याहार और उसके बाद धारणा की विधियां उपयुक्त हैं। वे ध्यान जैसे हैं और ध्यान के छोटे भाई हैं। बैठकर अंतर्मौन, अजपा जप, त्राटक जैसे सजगता व एकाग्रता के अभ्यास न कर पाने की स्थिति हो और मुद्राओँ में विशेष रूप से शांभवी मुद्रा का अभ्यास भी न सध पा रहा हो तो शवासन में “योगनिद्रा” से भी कमाल के परिणाम मिलेंगे। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग की शक्ति से बेअसर होगा बुढ़ापे का असर

किशोर कुमार //

यह निर्विवाद है कि जो आया है सो जाएगा। पर बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक या मानसिक समस्याएं कम से कम हो, ऐसी भला किसकी चाहत न होगी। पर योगमय जीवन के प्रति सजगता के अभाव में समय के साथ ही जिंदगी बोझ बनती चली जाती है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की “एल्डरली इन इंडिया 2021” रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बुजुर्ग आबादी (60 वर्ष और उससे अधिक आयु) मौजूदा 138 मिलियन से बढ़कर सन् 2031 तक 194 मिलियन पहुंचने का अनुमान है। यानी एक दशक में 41 फीसदी की वृद्धि। इसके साथ ही चिंताजनक पहलू यह है कि बुर्जुर्गों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की दर भी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में बढ़ती उम्र के साथ ही योगमय जीवन की शुरूआत करने पर बल दिया जा रहा है। अनेक शोध नतीजों के आधार पर बतलाने की कशिश की जा रही है कि इस विश्वव्यापी समस्या का वास्तविक समाधान योग में ही सन्निहित है।   

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के सैन डिएगो स्कूल और नेशनल स्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहांस) का अध्ययन ताज-ताजा है। इन अध्ययनों के मुताबिक कुछ खास तरह के योगाभ्यास से शरीर के बायोलॉजिकल बदलाव को धीमा कर देता है। नतीजतन, शरीर और मन पर बढती उम्र के कुप्रभावों बहुत हद तक मुक्ति मिल जाती है। वैसे प्राचीन योग-शास्त्र के जानकारों के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। योग-शास्त्र की मान्यता पुरानी है कि बुढापे की क्रिया को रोकने के लिए क्षय होने वाली कोशिका के बदले नई कोशिका उत्पन्न की जा सकती है। किसी मामले में ऐसा संभव न हो सका तो उसकी मरम्मत तो हो ही सकती है। तभी परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “व्यक्ति का योगमय जीवन हो तो सामान्य प्रत्याशित आयु सीम डेढ़ सौ वर्षों की है।“ 

आइए, पहले हम जानते हैं कि हमारे शरीर में बायोलॉजिक परिर्वतन कब और कैसे होता है। चिकित्सकीय शोध के मुताबिक हमारे शरीर का डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक अम्ल यानी डीएनए के भीतर एक विशेष प्रकार का जैविक तत्व होता है, जिसे टेलीमीयर कहते हैं। यह जितनी तेजी से छोटा होगा, उतनी तेजी से बुढापा आएगी और बीमारियां लाएगी। दरअसल, टेलीमीयर सभी प्राणियों की कोशिकाओं में पाया जाने वाला तंतु रूपी पिंड क्रोमोज़ोम का रक्षा कवच है। डीएनए से बना क्रोमोजोम ही सभी आनुवांशिक गुणों को निर्धारित व संचारित करने का काम करता है। इसके सिरों पर मौजूद टेलीमीयर जैविक तत्वों की सुरक्षा करता है और कोशिकाओं के तेज़ी से कोशिकाओं के क्षय होने से बचाता है।

टेलीमीयर के सिकुड़ने या छोटा होने से बुढ़ापा आने के साथ ही हृदय रोग,  मधुमेह और कैंसर जैसी घातक बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। एम्स के ऐनाटॉमी डिपार्टमेंट की डॉक्टर रीमा दादा के मुताबिक उनके अध्ययन में 96 लोगों को शामिल किया गया था। उन सभी के डीएन डैमेज मार्कर, स्ट्रेस मार्कर, एंटीबॉक्सीडेंट क्षमता और टेलीमीयर मार्कर देखे गए। फिर नियमित रूप से तीन महीनों तक योग कराया गया। इसके बाद उनकी जांच की गई। पता चला कि उम्र बढ़ने के सभी कारकों पर लगाम लग चुका था। डॉ रीमा दादा के मुताबिक, डीएनए को डैमेज करने में स्ट्रेस एक महत्वपूर्ण कारण होता है। योग करने से स्ट्रेस के लेवल में कमी आती है। लिहाजा योगभ्यासों के कारण डीएनए डैमेज करने वाले मार्कर कम हो गए। वहीं, टेलीमीयर की लंबाई बढ़ गई। बीडीएनएफ भी बढ़ गया, इससे सोचने-समझने की क्षमता बढ़ गई। ब्लड प्रेशर नियंत्रण में आ गया और भूलने की बीमारी बेहद कम कई।

आसन, प्राणायाम और ध्यान की अनेक विधियां बुढापे के असर को कम करके लंबी आयु प्रदान करने में मददगार है। पर इस लेख में ध्यान की एक ऐसी विधि की चर्चा करूंगा जो, अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों में बेहद लोकप्रिय है। वह है डायनेटिक्स। यह ध्यान की कोई नई विधि नहीं है, बल्कि हमारे योगशास्त्र में उल्लिखित प्रतिक्रमण के सिद्धांत पर ही आधारित है। इस बात को एक उदाहरण से समझिए। आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? मानस दर्शन होते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

ओशो ने भी इस योग विधि को हर उम्र के लोगों खासतौर से बुजुर्गों के लिए जरूरी माना। वे कहते थे कि प्रतिक्रमण एक चमत्कारिक विधि है। अगर तुम पीछे लौटकर अपने मन की गांठें खोलो तो तुम धीरे— धीरे उस पहले क्षण को पकड़ सकते हो जब यह रोग शुरू हुआ था। उस क्षण को पकड़कर तुम्हें पता चलेगा कि यह रोग अनेक मानसिक घटनाओं और कारणों से निर्मित हुआ है। प्रतिक्रमण से वे कारण फिर से प्रकट हो जाते हैं। इस प्रतिक्रमण से अनेक रोगों की ग्रंथियां टूट जाती हैं और अंततः रोग विदा हो जाते हैं। जिन ग्रंथियों को तुम जान लेते हो वे ग्रंथियां विसर्जित हो जाती हैं और उनसे बने रोग समाप्त हो जाते हैं। यह विधि गहरे रेचन की विधि है। अगर तुम इसे रोज कर सको तो तुम्हें एक नया स्वास्थ्य और एक नई ताजगी का अनुभव होगा।

डायनेटिक्स वाले कहते हैं कि सारे रोग अतीत के अवशेष हैं—तलछट। अगर हम अपने अतीत में लौट सकें, अपने जीवन को फिर से खोलकर देख लें, तो उसी देखने में बहुत से रोग विदा हो जाएंगे। और यह बात बहुत से प्रयोगों से सही सिद्ध हो चुकी है। भारतीय योगी कहते हैं कि योगनिद्रा, अजपा जप और अंतर्मौन जैसी यौगिक साधनाएं प्रतिक्रमण का सौ फीसदी लाभ दिलाने में मददगार है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योगियों के महायोगी स्वामी शिवानंद सरस्वती

दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित अप्पय्य दीक्षितार कुल में जन्मे और परदेश में अपनी चिकित्सा की धाक् जमाने वाले कुप्पू स्वामी पर किसी अदृश्य शक्ति का ऐसा जादू चला कि वे तमाम भौतिक सुखों को त्याग कर कठिन साधानाओं की बदौलत स्वामी शिवानंद सरस्वती बन गए थे। उनमें अद्भुत योग-शक्तियां थीं। वे एक ही समय अलग-अलग देशों में कई शरीर धारण कर सकते थे और खेचड़ी मुद्रा का प्रयोग करके हवा में उड़ सकते थे। पर वे इसे आत्म-ज्ञानियों के लिए मामूली बात मानते थे। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि संन्यास मार्ग पर चलने वाले ज्यादातर साधकों की साधना मामूली सिद्धियों तक ही सीमित रह जाती है। 20वीं सदी के उस महान संत की 136वीं जयंती (8 सितंबर 1887) पर प्रस्तुत है यह आलेख।     

किशोर कुमार

स्वामी विवेकानंद सन् 1893 में जब अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में योग और वेदांत दर्शन का अलख जगा रहे थे। तब भविष्य में आध्यात्मिक आंदोलन को गति देने के लिए दिव्य-शक्ति वाले कई संत भारत की धरती पर भौतिक शरीर धारण करके विभिन्न परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती उनमें प्रमुख थे।

पेशे से इस मेडिकल प्रैक्टिशनर की मलाया में काम करते हुए न जाने कौन-सी शक्ति जागृत हुई कि वे वैरागी बनकर भारत में नगर-नगर डगर-डगर भ्रमण करने लगे थे। ऋषिकेश पहुंचने पर उनकी यह यात्रा पूरी हुई थी, जब वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के दर्शन हो गए और उनसे दीक्षा मिल गई। फिर तो परिस्थितियां ऐसी बनी कि वहीं जम गए। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति की आभा फैल गई और देखते-देखते पूरी दुनिया में छा गए थे। उनके पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि वे न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। हालांकि स्वामी विश्वानंद सरस्वती को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। इसलिए कि दीक्षा देने के बाद वे कभी नहीं दिखे। कहां से आए थे और कहां गए, कुछ भी पता नहीं चला। भक्तगण मानते हैं कि किसी आलौकिन शक्ति ने दीक्षा देने के लिए भौतिक शरीर धारण किया था।

स्वामी शिवानंद सरस्वती असीमित यौगिक शक्तियां थी। पर वे यौगिक साधनाओं की बदौलत चमत्कार दिखाने के विरूद्ध थे। केवल पीड़ित मानवता की सेवा करने और अपने शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसा काम कर देते थें, जिन्हें आम आदमी चमत्कार मानता था। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर के अस्पताल में भर्ती उनके एक शिष्य की हालत खराब थी। दूसरी तरफ कुआलालामपुर में ऐसी ही स्थिति में एक अन्य शिष्य था। इन दोनों शिष्यों द्वारा बतलाए गए समय और तिथि के मुताबिक स्वामी शिवानंद ने एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए थे और दोनों ही स्वस्थ होकर घर लौट गए थे। आस्ट्रिया में अपना शरीर त्याग चुके स्वामी ओंकारानंद ने अपनी पुस्तक में इन घटनाओं का जिक्र किया है। वे इस वाकए के वक्त स्वामी शिवानंद सरस्वती की छत्रछाया में साधनारत थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ भी एक चमत्कारिक घटना हुई थी। वे कुंभ स्नान के लिए हरिद्वार जाना चाहते थे। पर स्वामी शिवानंद सरस्वती ने उन्हें इसके लिए इजाजत न दी। स्वामी सत्यानंद सन्यास मार्ग पर नए-नए थे। उन्होंने कल का काम आज ही निबटा लिया और अपने गुरू को बताए बिना कुंभ के मेले में चले गए। गंगा में नहाते वक्त लंगोट पानी की धारा में बह गया। पहनने के लिए दूसरा कुछ भी नहीं था। ऐसे संकट में गुरू कृपा का ही सहारा था। गंगा किनारे निर्वस्त्र बैठकर गुरू का स्मरण कर रहे थे। तभी आश्रम का एक संन्यासी वस्त्र लिए पहुंच गया। स्वामी सत्यानंद उस वस्त्र को धारण कर वापस आश्रम पहुंचे ही थे कि स्वामी शिवानंद जी से सामना हो गया। उन्होंने हंसते हुए पूछा, कहो सत्यानंद कपड़े के बिना बहुत कष्ट हो गया? स्वामी जी को समझते देर न लगी कि यह चमत्कार गुरू की अवमानना का प्रतिफल था। उन्होंने क्षमा याचना करते हुए संकल्प लिया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़ा वाकया अनेक लोगों को पता होगा। वह एक ऐसा प्रसंग है, जिससे डॉ कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया था। डॉ कलाम ने अपनी पुस्तक “विंग्स ऑफ फायर” में खुद ही उस घटना का जिक्र किया था। हुआ यह कि डॉ.कलाम का मेडिकल के आधार पर वायुसेना के पायलट पद के लिए चयन नहीं हो सका। जब परीक्षा परिणाम आया था, उस समय वे देहरादून में ही थे। मायूस डॉ कलाम के पैर सहसा शिवानंद आश्रम की तरफ बढ़ गए। जब आश्रम पहुंचे तो स्वामी शिवानंद का प्रवचन चल रहा था। वे वहां बैठ गए। प्रवचन समाप्त होने के बाद वे स्वामी जी के पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उनसे कहा, तुम्हें देश की अगुआई करनी है। इन छोटी बातों से हतोत्साहित होने का कोई औचित्य नहीं। डॉ. कलाम की कल्पना से परे थीं ये बातें। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

ये सारी घटनाएं उनकी अद्भुत योग-शक्ति का प्रतिफलन थी। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत पद्मभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। पहमहंस योगानंद अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने के वक्त वहां मौजूद नहीं थे। काफी दूर थे। पर उनके गुरू भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे।

स्वामी शिवानंद जी के साथ भी अद्भुत घटना हुई थी। वे जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तो वहां ऐसा शक्तिशाली ऊर्ध्वगामी आकर्षण बना कि उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। ताकि वह जमीन पर रह सकें। आम आदमी को लग सकता है कि ये घटनाएं किसी सिद्धि के परिणाम हैं। पर ऐसा नहीं है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है।

स्वामी शिवानंद स्वयं भी कहते थे और अपनी पुस्तकों में उल्लेख भी किया कि योग में इतनी शक्ति है कि कोई शरीर के भार को कम करके पल भर में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूर जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अंदर की ओर मोड़ कर उससे पश्च नासाद्वार को बंद कर वायु में उड़ान भरी जा सकती है। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगाकर अल्प समय में पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। योगी संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मन प्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षण मानसिक भ्रमण करके जान सकते हैं। परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने अपने एक बीमार भक्त को इन्ही विधियों की बदौलत इंग्लैंड में दर्शन दिया था। दृष्टि या स्पर्श मात्र से अथवा मंत्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार किया जा सकता है। एक ही शर्त है कि साधना उच्च कोटि की होनी चाहिए।

इसके साथ ही वे कहते थे कि सिद्धियों से युक्त होना किसी महात्मा की महानता की पहचान नहीं है, न ही इससे प्रमाणित होता है कि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है। सद्गुरू किसी चमत्कार अथवा सिद्धि का प्रदर्शन तभी करते हैं, जब उन्हें जिज्ञासुओं को प्रोत्साहित करने और उनके हृदय में अतीन्द्रिय शक्तियों में विश्वास पैदा कराने की जरूरत होती है। आत्मज्ञानी गुरूओं के लिए ये सिद्धियां प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई जैसी होती हैं। दुर्भाग्यवश यह संसार नकली गुरूओं से भर गया है। वे निष्कपट व भोले लोगों का शोषण करते हैं और उन्हें अज्ञान के अंधेरे गर्त्त में डालते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती पर बनी यह डक्यूमेंटरी दूरदर्शन की प्रस्तुति है।

शायद यही वजह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती आध्यात्मिक प्रणेताओं द्वारा पंथ या संप्रदाय की स्थापना के विरूद्ध थे। वे कहते थे कि भारत अद्वैत दर्शन की पवित्र भूमि है। यहां दत्तात्रेय, शंकराचार्य एवं वामदेव जैसे महात्मा अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक और स्वामी दयानंद जैसी उदारमना एवं उदात्त आत्माएं भी भारत भूमि की ही थीं। ये संन्यासी कभी अपना पंथ या संप्रदाय स्थापित करने के पक्ष में नहीं रहे। पर उन संतों के नाम पर मयूरपंख लगाए कौए भी पंथ या संप्रदाय बनाते दिखते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती स्वर साधना को योग विद्या और ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण आधार मानते थे। वे कहते थे कि जो स्वर साधना नहीं जानता, उसकी ज्योतिष विद्या अधूरी है। योग के क्षेत्र में भी यही बात लागू है। वे कहते थे कि साधु-संन्यासी या ज्योतिष आदमी को देखकर ही ऐसी बातें कह देते हैं, जो कालांतर में सही साबित होती हैं। लोग इन्हें चमत्कार मानने लगते हैं। पर वे स्वर साधना के कमाल होते हैं। यदि ज्योतिष या संत की सूर्य नाड़ी काम कर रही हो और प्रश्नकर्ता नीचे या पीछे या दाईं ओर खड़ा हो तो दावे के साथ प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यानी यदि प्रश्न है कि फलां काम होगा या नहीं तो इसका उत्तर है – काम होगा और तय मानिए कि यह बात सौ फीसदी सही निकलेगी। स्त्री कि मासिक शौच के अनंतर पांचवें दिन यदि पति की सूर्य नाड़ी तथा पत्नी की चंद्र नाड़ी चल रही हो तो उस समय उनका प्रसंग पुत्र उत्पन्न करेगा। जब सूर्य नाड़ी चलते समय का योगासन ज्यादा फलदायी होता है

स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और मरीज ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

योगासनों की बारीकियों का अवलोकन करते स्वामी शिवानंद सरस्वती

स्वामी शिवानंद सरस्वती में वेदांत के अध्ययन और अभ्यास के लिए समर्पित जीवन जीने की तो स्वाभाविक व जन्मजात प्रवृत्ति थी ही, गरीबों की सेवा के प्रति तीब्र रूचि ने उन्हें संन्यास की ओर प्रवृत्त किया था। उन्होंने सन् 1932 में ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम, सन् 1936 में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी और 1948 में योग-वेदांत फारेस्ट एकाडेमी की स्थापना की थी। इन्ही संस्थाओं के जरिए लोगों को योग और वेदांत में प्रशिक्षित किया और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। आज भी ये संस्थाएं स्वामी शिवानंद सरस्वती के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु में जन्में बीसवीं सदी के इस महानतम संत को शत्-शत् नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आद्य गुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

इस मर्ज की दवा है योग

भारत में मधुमेह पर पहली बार वैज्ञानिक शोध करने वाले परमहंस सत्यानंद सरस्वती कहते थे, “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा। योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। यदि दवाओं के साथ योग का समन्वय किया जाए तो यह मधुमेह के निदान में एक शक्तिशाली क्रिया होगी।”

किशोर कुमार

एक तरफ कोरोना की मार तो दूसरी तरफ कहर बरपाता मधुमेह। योग की जन्मभूमि में यह हाल है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से भी पता चल चुका है कि मधुमेह से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। सफलता की कहानियां भरी पड़ी हैं कि किस तरह समन्वित योग यानी षट्कर्म, आसन, प्राणायाम और सजगता के नियमित अभ्यासों से दो महीनों के भीतर प्राकृतिक रूप से शरीर में इंसुलिन बनने लगा और इंसुलिन के इंजेक्शन से मुक्ति मिल गई। बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.7 करोड़ लोग इस बीमारी के शिकार हैं। इतना ही नहीं, वैश्विक पैमाने पर हर छठा भारतीय व्यक्ति इस रोग की गिरफ्त में हैं। यह चिंताजनक है।

पूरे देश में आजकल बहस चल रही है कि बीमरियों के इलाज में कौन-सी पैथी बेहतर या कारगर। पर विशेषज्ञ जानते हैं कि हर पैथी, हर उपचारात्मक विधियों की सीमाएं हैं। यह बात योग के साथ भी लागू है। हम जानते हैं कि योग विशुद्ध रूप से रोग-निवारण की पद्धति नहीं है। तभी मधुमेह के यौगिक उपचार के दौरान भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति की दवाओं की जरूरत बनी रहती है। पर यह भी सत्य है कि अनेक मामलों में यौगिक क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की सीमाओं को लांघ जाती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही कहा था – “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा।“  वे बार-बार कहते थे कि योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं।

तभी उन्होंने सत्तर के दशक में उड़ीसा में संबलपुर के बुर्ला स्थित मेडिकल कालेज के साथ मिलकर मधुमेह से बचाव के लिए यौगिक अनुसंधान किया था। इसके नतीजे ऐसे रहे कि चिकित्सा विज्ञान भी चौंका। साबित हुआ कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सहायता लेकर चालीस दिनों के यौगिक अभ्यास से इंसुलिन लेने वाले मधुमेह रोगियों को पहले इंसुलिन से और बाद में मधुमेह से ही मुक्ति मिल सकती है। बिहार योग की इस पद्धति से बड़ी संख्या में मधुमेह रोगी स्वस्थ्य होने लगे तो भारत के विभिन्न योग संस्थानों से लेकर विदेशों में भी इस पद्धति को मधुमेह रोगियों पर आजमाया गया। विवेकानंद योग केंद्र के प्रमुख एचआर नगेंद्र ने अपने कन्याकुमारी स्थित केंद्र में सबसे पहले 15 मधुमेह रोगियों पर यौगिक प्रभावों को देखा और पाया कि इंसुनिल पर निर्भर मरीज ठीक हो गए थे। झारखँड के बोकारो इस्पात संयंत्र में एके श्रीवास्तव नाम के एक वास्तुविद हुआ करते थे। उनका मधुमेह इतना गंभीर था कि एक दिन में 40-50 यूनिट इंसुलिन लेना पड़ता था। यौगिक उपायों से दवाओं पर निर्भरता कम होती गई और कुछ महीनों बाद से ब्लड शुगर सामान्य हो गया था।

योग पब्लिकेशन ट्रस्ट ने इन अध्ययनों के आधार पर सन् 1977 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी – “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ आस्थमा एंड डायबेट्स।” उसमें बताया गया कि मधुमेह के मरीजों को प्रारंभिक एक महीना हर सप्ताह तक कौन-सी यौगिक क्रियाएं करनी हैं और दवाओं व भोजन का प्रबंधन किस प्रकार करना है? इसके बाद बिना दवा लिए रक्त शर्करा यानी ब्लड शुगर सामान्य हो जाने के बाद किन योग विधियों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेना है। शुद्धिकरण की क्रियाओं में शंखप्रक्षालन तथा कुंजल व नेति; आसनों में पश्चिमोत्तानासन, अर्द्ध मत्स्येंद्रासन, भुंजगासन, धनुरासन, सर्वांगासन और हलासन; प्राणायामो में नाड़ी शोधन, भ्रामरी और भस्त्रिका और ध्यान के अभ्यासों में योगनिद्रा व अजपाजप करने की सलाह दी गई है। पर साप्ताहिक अभ्यास में पवनमुक्तासन (सत्यानंद योग पद्धति) पर बल दिया गया है। ऐसा इसलिए कि कभी योगाभ्यास नहीं करने वाले मरीजों को योग करने योग्य तैयार किया जा सके। वैसे यह आसन वातरोग, गठिया, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग के मरीजों को काफी फायदा पहुंचाता है।                                                    

मधुमेह की रोकथाम में शंखप्रक्षालन और कुंजल क्रियाओं की बड़ी भूमिका होती है। आमतौर पर अंतड़ियों में कचरा और मल भरा रहता है उसके भीतरी दीवारों पर इकट्ठा होता जाता है। यह सूखता जाता है और अति कठोर होता जाता है। यह खून को विषाक्त बनाता है। इन यौगिक क्रियाओं से अन्न पथ की पूर्ण सफाई हो जाती है और अधिक ग्लुकोज का उपभोग न किया जाए तो ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित रखने में मदद मिलती है। कुंजल क्रिया से अधिक मात्रा में खाए हुए भोजन और शरीर में सड़े भोजन से बचाव होता है। मधुमेह में तंत्रिका तंत्र को क्षति होती है। डायबिटिक पेरिफेरल न्यूरोपैथी इसी वजह से होती है। आसन का प्रभाव यह है कि तंत्रिका आवेगों और ग्रंथि क्षेत्रों में रक्त के समुचित वितरण हो जाता है। इससे मधुमेह से संबंधित अवयवों की क्रियाएं समायोजित होती हैं। प्राणायाम से शरीर के उन भागों में ऊर्जा पहुंचने लगती है, जहां इसकी कमी की वजह से रोग में इजाफा हो रहा होता है। मस्तिष्क से ले कर पैक्रियाज तक को फायदा पहुंचता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग शिक्षा और अनुसंधान केन्द्र, पुदुचेरी के अध्यक्ष योगाचार्य डॉ. आनंद बालयोगी भवनानी के मुताबिक इन्स और विन्सेन्ट की एक व्यापक समीक्षा में योग से कई जोखिम सूचकों में लाभदायक बदलाव पाए गए। जैसे ग्लूकोस सहिष्णुता, इंसुलिन संवेदनशीलता, लिपिड प्रोफाइल, एन्थ्रोपोमेट्रिक विशेषताओं, रक्तचाप, ऑक्सीडेटिव तनाव,  कोग्यूलेशन प्रोफाइल, सिम्पेथेटिक एक्टिवेशन और पलमोनरी फंक्शन में इसे काफी फायदेमंद पाया गया। योगाभ्‍यास से मधुमेह के रखरखाव और उसकी रोकथाम में सहायता होती है तथा उच्‍च रक्‍तचाप और डिसलिपिडेमिया जैसी परिस्थितियों से बचाव होता है। लंबे समय तक योगाभ्‍यास करने से इन्‍सुलिन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है और शरीर के वजन या कमर के घेरे तथा इन्‍सुलिन संवेदनशीलता के बीच का नकारात्‍मक संबंध घट जाता है। 

गौर करने लायक बात यह है कि मधुमेह केवल जीवन-शैली से जुड़ी बीमारी नहीं रही, बल्कि प्रदूषण इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के साथ ही प्रदूषित भोज्य पदार्थ इसकी जड़ में हैं। विश्वव्यापी शोधों से यह बात साबित हो चुकी है। पश्चिम के अनेक देश इस दिशा ठोस काम कर रहे हैं। पर भारत में इस दिशा में काम होना बाकी है। रिसर्च सोसाइटी फॉर डायबिटीज इन इंडिया ने इस दिशा में पहल की है। इस संगठन के झारखंड चैप्टर के अध्यक्ष डॉ एनके सिंह ने अध्ययनों के बाद विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसे सरकार को सौंपा जा चुका है। जाहिर है कि मधुमेह से बचना है तो योगमय जीवन तो अपना ही होगा। साथ ही रसायनयुक्त भेज्य पदार्थों से भी बचना होगा।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अभी मधुमेह का रामबाण इलाज नहीं ढ़ूंढ़ पाया है। इसुलिन ही सहारा है। पर योगमय जीवन हो तो इंसुलिन पर से निर्भरता समाप्त भी हो जा सकती है। हमने देखा कि कोरोना संक्रमण के कारण मधुमेह के मरीजों पर किस तरह कहर बरपा। यह सिलासिला आज भी जारी है। यदि हमारे जीवन में योग के लिए थोड़ी भी जगह होती तो मधुमेह रोगियों के लिए कोरोना महामारी इतनी बड़ी चुनौती न बनी होती।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

शाम्भवी क्रिया करने वालों में तनाव को कम करने वाला हार्मोन नियंत्रण में रहता है : सद्गुरू जग्गी वासुदेव

शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

महानिर्वाण तंत्र में एक कथा है। आदियोगी शिव जी ने पार्वती जी को चित्त की एकाग्रता, मन की शांति के लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास बताया था। अवसाद की विश्वव्यापी समस्या के आलोक में अमेरिका के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस योग मुद्रा की शास्त्रसम्मत व्याख्या, उसके प्रभाव और उन प्रभावों की वैज्ञानिकता का अध्ययन किया गया तो खुद वैज्ञानिक चौंक उठे। इसलिए कि पुराण की बातें विज्ञान की कसौटी पर सच साबित होती दिखीं। शोध के दौरान भावनात्मक संतुलन, आंतरिक शांति और मानसिक स्पष्टता के अलावा मानव शरीर पर इसके कई अन्य सकारात्मक प्रभाव भी दिखे। अब तो पश्चिम का अशांत मन इसके पीछे दौड़ पड़ा है।

ईशा फाउंडेशन के संस्थापक और आध्यात्मिक गुरू सद्गुरू जग्गी वासुदेव के लिए वैज्ञानिक शोध के नतीजों से चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी। वे तो योग शास्त्र और उसकी वैज्ञानिकता को पढ़ते, समझते व अनुभव करते ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं। बात केवल महामुद्रा की जन स्वीकार्यता की थी। अनुभव बताता है कि विज्ञान जिस बात को हां कह दे, हम उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं। लिहाजा, उन्होंने शांभवी मुद्रा और प्राणायाम की विधियों को अपने अनुभवों के आधार पर शोध कर योग की एक तकनीक विकसित कर दी। नाम दिया – इनर इंजीनियरिंग। इस लेख में इन्हीं बातों का विश्लेषण है।

पहले शांभवी मुद्रा की ऐतिहासिकता और उसके परिणामों की बात। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?” शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ उन्होंने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

खैर, हठयोग की इस गुप्त महामुद्रा से लोग अनजान थे। सत्रहवीं शताब्दी के वैष्णव संत महर्षि घेरंड ने शांभवी मुद्रा की विस्तृत व्याख्या की। स्वात्माराम ने अपनी हठयोग प्रदीपिका में इसकी चर्चा की। इस तरह लोगों को इसके बारे में पता चला। आधुनिक युग के अनेक संतों ने इन दोनों ऋषियों के योग साहित्य का भाष्य लिखा। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का भाष्य सरल व  गाह्रय है। उनके मुताबिक, शांभवी मुद्रा महामुद्रा इसलिए है कि जैसा कि महर्षि घेरंड ने कहा है, उसका स्थान वेद, शास्त्र और पुराण से भी ऊपर है। जब इसे जन-कल्याण के लिए उपलब्ध कराया गया तो बताया गया कि इसका अभ्यास करते समय आंखों की गति को नियंत्रित करके उसे श्वास के साथ जोड़ लिया जाना चाहिए। सावधानी इतनी कि जिनकी आंखों की शल्य-क्रिया हुई हो या ग्लूकोमा हो तो कुशल मार्ग-दर्शन में ही इसका अभ्यास करना है।

योग रिसर्च फाउंडेशन ने कई दशक पहले शांभवी महामुद्रा पर अध्ययन कर लिया था। इसलिए बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लगातर कहते रहे कि शांभवी मुद्रा की क्रिया आज्ञा चक्र को जागृत करने की शक्तिशाली क्रिया है। दरअसल, इस क्रिया से अल्फा तरंगों में वृद्धि हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियां संतुलित ढंग से काम करती हैं। पीयूष ग्रंथि के ह्रास की रफ्तार धीमी हो जाती है। शरीर के ऊर्जा केंद्र, जिन्हें चक्र कहा जाता है, जागृत होते हैं और उनसे निकले वाली ऊर्जा, जिसे योग में प्राण-शक्ति कहा जाता है, पुन: शरीर में स्थापित हो जाती है। फलस्वरूप चेतन मन शांत होता है। रचनात्मकता व एकाग्रता बढ़ती है। अवसाद व अनिद्रा की समस्या नहीं रह जाती।

योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मौजूद प्रमुख सात चक्र वास्तव में ऊर्जा केंद्र हैं और भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए जाने जाते हैं। वे रीढ़ की हड्डी के बहुत अंत से शुरू होकर सिर के शिखर तक हैं। आत्मा, शरीर और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बनाने में इन चक्रों की बड़ी भूमिका होती है। शांभवी मुद्रा की साधना उच्च स्तर की हो तो आज्ञा चक्र के पीछे और आगे के चक्रों यथा विशुद्धि चक्र और बिंदु के बीच संपर्क बन जाता है। मन और प्राण संयत होता है। एकाग्रता और मानसिक स्थिरता आती है। तनाव, क्रोध और चिंता का निवारण हो जाता है। आंखों की पेशियां मजबूत हो जाती हैं। आज्ञा चक्र पर शांभवी मुद्रा के विशेष प्रभावों के कारण ही इसे बच्चों और छात्रों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है।

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अध्ययन के परिणाम भी प्रकारांतर से योग रिसर्च फाउंडेशन के नतीजों जैसे ही हैं। फर्क केवल भाषा का है। एक योग की भाषा है तो दूसरा विज्ञान की। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मुताबिक शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरल रिसाइकिलिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

सद्गुरू ने शांभवी महामुद्रा की वैज्ञानिकता और समय की नजाकत को ध्यान में रखकर ऑनलाइन प्रशिक्षण की तकनीक विकसित कर दी है। पर उन्होंने इसका नाम ऐसा रखा है कि सबको सहज स्वीकार्य हो जाए। वरना कई बार धार्मिक मान्यताएं आड़े आ जाती हैं। पहले नाम का फिर उसके प्रभाव का असर है कि भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में शांभवी मुद्रा पर आधारित इनर इंजीनियरिंग एक खास वर्ग के बीच धूम मचा रही है। आईआईटी और सर गंगाराम अस्पताल ने मिलकर ईईजी के जरिए ईशा योग का प्रभाव देखा है। सद्गुरू जग्गी वासुदेव वैज्ञानिक शोध के आधार पर कहते हैं कि शाम्भवी क्रिया करने वालों में कार्टिसोल (तनाव को कम करने वाला हार्मोन) नियंत्रण में रहता है।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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