जेलों में योग की अहमियत

किशोर कुमार

आठवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के लिए उल्टी गिनती शुरू है। इस बार का थीम है – योगा फॉर ह्यूमैनिटी। इस थीम के मद्देनजर जेलों के कैदियों पर भी फोकस है। योगोत्सव की तैयारियों के लिहाज से कैदियों को योगाभ्यास कराया जा रहा है। वैसे, कैदियों के लिए योग की अनिवार्यता पर लंबे समय से बहस होती रही है। कैदियों के लिए योगाभ्यास क्यों जरूरी है? क्या इससे जीवन के प्रति उनके नजरिए में कोई बदलाव हो पाता है?  क्या उनके पुनर्वास में योग की कोई भूमिका होती है?… इस तरह के सवाल किए जाते रहे हैं। इस लेख में इन्हीं संदर्भों में बात होनी है। पर पहले एक रोचक प्रसंग।

ओशो को अमेरिकी सरकार ने ओक्लाहोमा जेल में बंद कर दिया था। ओशो जब तक जेल में रहे, कैदियों को ध्यान का अभ्यास कराते रहे। कैदियों को उनका सत्संग इतना भाया कि वे बदले-बदले से दिखने लगे थे। जेलर भी खासा प्रभावित था। ओशो जब जेल से रिहा हुए तो जेलर ने अपनी भावनाएं कुछ ऐसे व्यक्त की – आपका जेल रहना मेरे जीवन का अनूठा अनुभव रहा। कैदियों की दशा बदल गई है। दूसरी तरफ मैंने आप जैसे किसी कैदी को जेल आते-जाते इतना प्रसन्न नहीं देखा था। आखिर इसका राज क्या है? ओशो ने  कहा कि उनका यही तो जुर्म है कि वे लोगो को प्रसन्न रहने का राज बतला रहे थे। सरकार को बात इसलिए नहीं भायी कि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। यहां तक कि आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के बल पर तुम्हारी छाती पर सवार हैं, वे नहीं चाहते कि जानो कि तुम कौन हो। ओक्लाहोमा जेल के तत्कालीन जेलर की आत्मकथा में इन बातों का उल्लेख है।

खैर, अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में योग का डंका बज रहा है। जेल भी इससे अछूते नहीं हैं। देश में सबसे पहले दिल्ली के तिहाड़ जेल के सभी कैदियों के लिए योगाभ्यास को अनिवार्य बनाया गया था। यह पहल खूंखार कैदियों को खुदकुशी से रोकने के लिए की गई थी। अब इस जेल के सभी कैदियों के योग को अनिवार्य बनाया जा चुका है। इसका असर हुआ कि देश के प्राय: सभी जेलों में कैदियों को प्राथमिकता के आधार पर योगाभ्यास कराया जाने लगा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कैदी प्रशिक्षण पाकर खुद ही बेहतरीन योग प्रशिक्षक बन गए। सरकार सजा पूरी कर चुके ऐसे कैदियों को आयुष केंद्रों में बतौर योग प्रशिक्षक बहाल करे तो उनके पुनर्वास में बड़ी मदद मिल सकती है।    

योग के प्रभावों के लेकर लखनऊ स्थित जिला कारागार का मामला ताजा-ताजा है। वहां प्रयाग आरोग्यम केन्द्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल कैदियों को लगातार तीन दिनों तक न केवल उदाहरणों के जरिए योग विधियों की अहमियत बताते रहे, बल्कि उन्होंने उन विधियों का अभ्यास करवा कर कैदियों पर गहरा प्रभाव डाला। आसन, प्राणायाम और योगनिद्रा से कैदियों के अशांत मन को सांत्वना मिली। अब वे योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाने को उत्सुक हैं। श्री शुक्ल कहते हैं कि योगाभ्यास का असर हुआ कि कैदियों के आचार-विचार बदल गए थे। उनकी आक्रमकता पहले जैसी नहीं रही। पूर्व में जिन कैदियों ने योग में रूचि नहीं दिखाई थी, वे भी योगनिद्रा के प्रभावों से चमत्कृत होकर बार-बार योगनिद्रा करना चाहते थे।

आखिर योगनिद्रा क्या है? जागृत और स्वप्न के बीच जो स्थिति होती है, उसे ही योगनिद्रा कहते है। जब हम सोने जाते हैं तो चेतना इन दोनों स्तरों पर काम कर रही होती है। हम न नींद में होते हैं और जगे होते हैं। यानी मस्तिष्क को अलग करके अंतर्मुखी हो जाते हैं। पर एक सीमा तक बाह्य चेतना भी बनी रहती है। इसकी वजह यह है कि हम योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान अनुदेशक से मिलने वाले निर्देशों को सुनते हुए मानसिक रूप से उनका अनुसरण भी करते रहते हैं। ऐसा नहीं करने से सजगता अचेतन में चली जाती है और मन निष्क्रिय हो जाता है। फिर गहरी निद्रा घेर लेती है, जिसे हम सामान्य निद्रा कहते हैं।

कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर दुनिया भर में कई स्तरों पर अध्ययन किए गए। पता चला कि कैदियों के शरीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूपांतरण में योग की बड़ी भूमिका होती है। कैदियों में अनिद्रा एक आम समस्या है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में अनिद्रा पर योगनिद्रा के प्रभावों पर हाल ही शोध किया गया। वैसे, वर्षों पूर्व जापान में भी योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर शोध किया गया था। उसके जरिए जानकारी इकट्ठी की गई कि साधारण निद्रा और योगनिद्रा की अवस्था में मस्तिष्क की तरंगें किस तरह काम करती हैं। इस अध्ययन की अगुआई डॉ हिरोशी मोटोयामा ने की थी। उन्होंने देखा कि गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। यही नहीं, योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साबित हुआ कि योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

स्वीडेन के यूनिवर्सिटी वेस्ट के स्वास्थ्य विभाग ने स्वीडिश कैदी सुधार सर्विसेज के साथ मिलकर 152 कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर कोई दस सप्ताह तक अध्ययन किया। इस दौरान कुछ आसनों के साथ मुख्यत: योगनिद्रा का अभ्यास कराने के बाद हिंसक कैदी भी सामान्य व्यवहार करने लगे थे। यूनिवर्सिटी वेस्ट के अध्ययनकर्त्ता केरेक्स ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि मन को स्वस्थ्य बनाने की यह विधि चमत्कारिक है। अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि योगाभ्यास से कैदियों के सामान्यत: फिर से आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है। इस अध्ययन का पूरा वृतांत ब्रिटेन के अखबार “द गार्डियन” में प्रकाशित हुआ है।

इन उदाहरणों से जेलों में योग की अहमियत का पता चलता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग और स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस अगले महीने ही है। उसे व्यापक स्तर पर मनाने की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं। जोर इस बात पर है कि शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। योग के जरिए ईश्वरानुभूति की बात आम आदमी के संदर्भ में बेमानी प्रतीत होती है, इसलिए यह मुद्दा गौण प्राय: ही है। पर बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती और योग की कुछ अन्य परंपराओं के साधक सदैव योग का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-दर्शन मानते रहे हैं। आज भी स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती, स्वामी नित्यानंद आदि योग परंपराओं में योग का महान लक्ष्य ईश्वरानुभूति ही माना जाता है।  

चिन्मय मिशन के लिहाज से मई बड़े महत्व का है। इसलिए इस लेख में बात स्वामी चिन्मयानंद जी की और योग से संबंधित उनके कुछ विचार। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, हिन्दू धर्म व संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म कोई 106 साल पहले इसी महीने में हुआ था। उनके महानिर्वाण के भी कोई तीन दशक बीत चुके हैं। पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी उनके जीवनकाल में थी। योग-दर्शन पर व्याख्यान करते हुए वे ऐसी उपमा देतें थे कि बात लोगों के जेहन में उतरती चली जाती थी। उन्होंने प्राणायाम की चर्चा करते हुए कहा था कि यह सर्वविदित है कि इसका उद्देश्य इंद्रिय संयम है। यदि प्राणायाम का अभ्यास बिना वैराग्य भाव के किया जाए तो यह बच्चों का एक व्यायाम मात्र रह जाता है। जैसे एक मछुआरा श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में गोता लगाता है, उसी प्रकार लोग कुंभक व पूरक का अभ्यास शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए करते हैं, ताकि विषय भोगों का अधिक समय तक आनंद ले सकें। प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य यह कदापि नहीं होना चाहिए।

स्वामी चिन्मयानंद जी ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की थी कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती जीवन पर्यंत वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुटे रहे। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने। उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई। इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ। एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। ज्ञान यज्ञ में बत्ती बुझ गई। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम और सुरों की देवी लता मंगेशकर

किशोर कुमार

आमतौर पर प्राणायाम की चर्चा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होती है। कोरोनाकाल में प्राणायाम की चर्चा कुछ ज्यादा ही हुई, जो बेहद जरूरी थी। पर अब समय आ गया है कि शक्तिशाली प्राणायाम की चर्चा को थोड़ा विस्तार मिलना चाहिए। पर पहले भारत रत्न स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर की बात, जो कोरोना संक्रमण से लंबी लड़ाई के बाद देवलोक गमन कर चुकी हैं। स्वर की इस देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

किसी भी गायक के जीवन में समग्र योग और खासतौर से प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लता मंगेशकर ने अपने करियर के प्रारंभिक दिनों में ही इस बात को भलिभांति समझा था। वह खुद ही कहती रही हैं कि प्राणायाम की शक्ति के कारण ही गाने में कहां सांस लेनी है और कहां छोड़नी है, इसका शुद्धता से निर्वहन करना संभव हो सका। कई गानों में तो श्रोताओं को पता भी नहीं चल पाता कि मैंने कहां सांस भरा और कहां छोड़ दिया। “अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी….तुमपे मरना है ज़िंदगी अपनी…ओ ओ, अब तो है तुमसे…” राग मांड में गाया गया फिल्म “अभिमान” का यह गीत श्वास-प्रश्वास की बारीकियों की साधना का बेहतरीन उदाहरण है। प्राणायाम को साधे बिना शायद सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग करना मुश्किल ही होता, जो इस कठिन राग की मांग है।  

योगशास्त्र मानता हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत नाद योग की मूल प्रक्रिया का विकसित स्तर है। शास्त्रीय गायन में ब्रह्म नाद एक स्थिति होती है, जिसे नाद योग से प्राप्त किया जाता है। दरअसल, श्वास और ऊर्जा का संयोग ही नाद है। मानव शरीर में प्राणमय कोष या ऊर्जा शरीर के बड़े मायने हैं। इसमें बहत्तर हजार नाड़ियाँ होती हैं, जो ऊर्जा मार्ग हैं और जिनमें से हो कर ऊर्जा सारे शरीर में बहती है। ये नाड़ियाँ, मानवीय शारीरिक व्यवस्था में 114 स्थानों या केंद्रों या चक्रों पर एक दूसरे से मिलती हैं, और फिर से बंट जाती हैं। इसलिए, नाड़ियों को शुद्ध करने और ऊर्जा केंद्रों को सक्रिय करने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। चूंकि गायन में सुर की निरंतरता श्वास पर निर्भर करती है, इसलिए गायकों के लिए प्राणायाम साधना बड़े महत्व की हो जाती है।  

भारतीय सनातन परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। योगशास्त्र के मुताबिक प्राण का संबंध मन से, संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का संबंध जीवात्मा से और जीवात्मा का विश्वात्मा से रहता है। तभी ऋषियों के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे प्राण-वायु के तरंगों पर नियंत्रण करके विश्व प्राण पर अधिकार पाने का रहस्य जान जाते थे। इस तरह वे एक सर्वव्यापक शक्ति को वश में कर लेते थे, जिसे विद्युत-शक्ति, चुंबकीय शक्ति, गुरूतत्व शक्ति और विचार शक्ति जैसी सभी शक्तियों का स्रोत कहा जाना चाहिए। इसलिए प्राणायाम ही नहीं, समग्र योग को रोग-मुक्ति से आगे की बात माना गया है। पर जैसे ही आगे की बात यानी आध्यात्मिक अनुभूति की अनंत यात्रा की बात आती है, तो मान लिया जाता है कि यह संसार से विरक्ति की बात हो गई।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसंग उल्लेखनीय है। कहते हैं कि जब महर्षि दयानंद ने अपने गुरू से आज्ञा मांगी कि वे हिमालय में जाकर तपस्या करना चाहते हैं तो गुरू ने मना कर दिया और कहा, “तुम चौराहे पर ही खड़े रहो। इसलिए कि जो दीपक चौराहे पर जलता रहता है, वह चारो ओर से आने वाले लोगों के मार्ग को प्रकाशित करता है। अपने प्रकाश को हिमालय के किसी कंदरा में बंद मत करो।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिकता और सांसारिकता जीवन के दो पंख होते हैं। जीवन में सुख, संपदा, शांति और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय जरूरी होता है। तभी जीवन में पूर्णता आती है और यही योगशास्त्र का विषय़ भी है।

खैर, बात हो रही थी प्राणायाम की। श्रीमद्भागवतगीता के महात्म्य में लिखा है कि प्राणायाम साधना की शक्ति ऐसी है कि साधक के इस जन्म के तो क्या, पूर्व जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रश्नोपनिषद में प्रसंग है कि महर्षि पिप्पलाद से एक शिष्य ने पूछा कि प्राण कहां से उत्पन्न होता है? महर्षि पिप्पलाद ने इसके उत्तर में कहा था कि आत्मा से ही प्राण पैदा होता है। योगीजन कहते रहे हैं कि प्राण ही सूर्य का रूप है। सूर्य जब अपने आप को खींच लेता है तो प्राणी रूप आदि विभिन्न गुणों से हीन होकर मुक्त हो जाता है।

उपनिषद की ही कथा है, बड़ी प्रचलित कथा है कि शरीर के सभी अभिमानी देवताओं ने अपने-अपने वश की हुई इंद्रियों द्वारा विचार कराया कि उन सबमें श्रेष्ठ कौन है? आकाश, वायु, अग्नि, वाणी, मन, चक्षु आदि सभी ने अपनी-अपनी महिमा का बखान करते हुए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की। जब प्राण की बारी आई और उसने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की तो किसी को भरोसा न हुआ। तब प्राण शरीर छोड़कर जाने लगा। इससे तुरंत ही सभी इंद्रियां नष्ट होने लगीं। तब सबको प्राण की श्रेष्ठता का अहसास हुआ। वैदिक ग्रंथों में चर्चा है कि जिसने प्राण-तत्व को जान लिया, उसने वेद को जान लिया। तभी वेदांत सूत्र में उल्लेख है कि श्वास-प्रश्वास ही परब्रह्म है।

योग ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाकर उस पर मन केंद्रित करते हुए विधि-सम्मत श्वास-प्रश्वास से एक अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इसी शक्ति की बदौलत आत्मोन्नति के साथ ही खुद का और दूसरो का भी कष्ट निवारण किया जा सकता है। इसी प्राण के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है, जो एक पूर्ण वैज्ञानिक विद्या है। पर प्राणायाम की वृहत्तर साधना के परिणाम आज के जमाने के लिहाज से चमत्कार जैसे ही जान पड़ते हैं। शिव स्वरोदय प्राण-शक्ति के चमत्कारिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रंथ है। इसी विद्या की बदौलत योगी शुभ-अशुभ फलों की भविष्यवाणी करते रहे हैं। साथ ही जन कल्याण के लिए बताते रहे हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण-वायु का प्रवाह किस तरह कराया जाए कि जीवन सुखमय रहे।

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में विभूतिपाद के तीसरे पाद के 37वें और 50वें सूत्र में सिद्धियों के गुण-दोष का निरूपण मिलता है। पर जब इन सिद्धियों का दुरूपयोग किया जाने लगा तो योगियों ने गृहस्थों के लिए प्राणायाम साधना को रोगोपचार तक सीमित रहने दिया। वरना ऋषि-मुनि कहते रहे हैं कि जिसने कुंभक, जो सही मायने में प्राणायाम है, को साध लिया, वह तीनों लोकों में चाहे कुछ भी कर सकता है। ऐसी है प्राणायाम की शक्ति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगनिद्रा और स्वामी सत्यानंद सरस्वती

किशोर कुमार

चार दिनों बाद ही यानी 24 दिसंबर को बीसवीं सदी के महानतम संत परमहसं स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 98वी जयंती है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसके परिणामों से दुनिया भर के लोगों को अवगत कराने वाले इस महानतम योगी ने योगनिद्रा के रूप में दुनिया को अनुपम उपहार दिया था, जिसकी बदौलत असंख्य लोगों के मन का प्रबंधन और बीमारियों से मुक्ति पाना संभव हो पा रहा है। सच है कि योगनिद्रा एक ऐसी यौगिक विधि है, जिसके अभ्यास से बुरी आदतों या मनोवृत्तियों को ठीक किया जा सकता है। एक दशक पूर्व उस महान संत द्वारा अपनी महासमाधि से पूर्व योगनिद्रा पर केंद्रित सत्संग का सार प्रस्तुत है। आप सब लाभान्ति होइए।

योगनिद्रा को प्रत्याहार की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा गया है, क्योंकि यह शिथिलीकरण की एक क्रिया भी है। शिथिलीकरण में भी एक मनोविज्ञान निहित है। शिथिल होने का मतलब पैरों को फैला कर सो जाना नहीं होता। मनोविज्ञान मानता है, और हो सकता है आप लोग भी इस बात को मानें कि निद्रा में विश्राम की स्थिति नहीं रहती। निद्रा की अवस्था में भी तनाव की स्थिति रहती है। इसके पीछे एक ही कारण है कि आज तक हम लोग स्वयं को शिक्षा नहीं दे पाए हैं कि कब मन की तनावपूर्ण अवस्था से सम्बन्ध-विच्छेद करना है और कब शान्त अवस्था से सम्बन्ध जोड़ना है ।

योगनिद्रा में यही से शिक्षा आरम्भ होती है कि धीरे-धीरे अपनी शारीरक और मानसिक अवस्थाओं को पहचान कर, शारीरीक तनावों प्रति जागरूक हो, मन को एक बिन्दु में केन्द्रित करके हम विश्राम की स्थिति को प्राप्त करें। उस विश्राम की स्थिति में एक नए, सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। योगनिद्रा अभ्यास शनैः शनैः मनुष्य की सजगता को चेतन से अवचेतन और अवचेतन से अचेतन स्तर तक ले जाते हैं। अब दूसरा प्रश्न उठता है, ‘मनुष्य के मन को कैसे समझें?’ जाग्रत अवस्था में हमें बहुत प्रकार के अनुभव मिलते हैं जो हमारे विचार, व्यवहार और कर्म को प्रभावित करते हैं ।अवचेतन और अचेतन में भी इनका असर दिखलाई देता हैं। इन्हीं प्रतिक्रियाओं कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, और तदनुसार कर्म होते हैं। हमलोगों का मन हमेशा धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा के सदृश रहता है, जो सुखद परिस्थिति में भी तनी रहती है और दुःखद में भी । योगनिद्रा के द्बारा यह प्रयास किया जाता है कि परिस्थिति के प्रभाव से हमारे मन में जो तनी हुई प्रत्यंचा है, उसके प्रति सजग होकर हम उसे ढीला कर दें ।

आप किसी सत्संग या रामायण कथा में जाएँगें, पन्द्रह-बीस मिनट के बाद नींद आने लगेगी। किन्तु किसी क्लब या पार्टी में जाएँगें तो आधी रात तक एकदम जमे हुए रहेंगे। विषय भोग के पीछे जाने का कारण मन सजग रहता है और ऊबता नहीं। जहाँ मन शान्त हुआ, ऊब लगने लगती है, आँखों बन्द हो जाती हैं। यह मन का स्वाभाविक रूप है। इसी में आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना है। योगनिद्रा में लेटते ही खर्राटे शुरू हो जाता हैं। या बहुत बार होता है कि हम एकदम सजग रहते हैं, सोते नहीं है, लेकिन कहीं सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जब हम फिर से सजग होते हैं तो देखते हैं कि अरे, अभी हम शरीर की दाहिनी तरफ धूम रहे थे और अब यहाँ कल्पना कर रहे हैं कि सूर्य देखो, चन्द्रमा देखो । यह अन्तराल कैसे आ गया?

यह अनुभव तब होते हैं जब मन शांत होता है, क्योंकि जिन इन्द्रियों के साथ मन का सम्पर्क हमेशा रहता है, चाहे वह कर्मेन्द्रिय हो, चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो, चाहे बुद्धि हो, या चित्त हो, उनके साथ अगर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाए तो तन्द्रा की अवस्था अवश्य आएगी। स्वप्न की अवस्था में अगर आप जानें कि मैं सोच रहा हूँ या मैं स्वप्न देख रहा हूँ तो आप जान लेना कि अब हम योगनिद्रा का अभ्यास करने के लिए तैयार हो रहे हैं । हस तैयारी में अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । यह स्थिति स्वतः उत्पन्न होती है। जिन्हें योगनिद्रा के प्रारंभिक अभ्यास सिद्ध हो जाते हैं, वे चार धंटे की निद्रा को चालीस मिनट या एक धंटे में पूरा कर सकते हैं। इतिहास में महात्माओं या विचारकों या बड़ी-बड़ी हस्तियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने योगनिद्रा के अभ्यास को सिद्ध किया है । गाँधीजी के बारे में मालूम है । दो मिनट आँख बन्द करते, फिर एकदम तैयार । नेपोलियन के बारे में सुनते हैं कि वह धोड़े पर बैठे-बैठे सो जाता था, और फिर लड़ाई के लिए तैयार।

योगनिद्रा चेतना को जाग्रत करने का एक तरीका है। इसमें जो अनुभव होते हैं, निद्रा आती है, उस समय थोड़ा संधर्ष तो करना पड़ता है । मानसिक अनुशासन के अभाव में यह आवश्यक होता है कि हम प्रारंभ में थोड़ा संधर्ष करें । लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास होता जाएगा, संधर्ष नहीं करना पड़ेगा । मन विचारशून्य हो जाता  है, समयान्तराल हो जाता है । एक बार अगर न सोने की आदत हो गया तो जल्दी ही गाड़ी पकड़ में आ जाएगी । योगनिद्रा में मन बहुत ग्रहणशील और संवेदनशील हो जाता है । बच्चों की संकल्पशक्ति, ग्रहणशक्ति और प्रतिभा बढ़ाने के लिए यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है, और बच्चों को आप चाहे किसी विषय की शिक्षा योगनिद्रा में दे सकते हैं । योगनिद्रा ही एक ऐसी विधि है जिसमें ‘हिस्ट्री ज्योग्राफी बड़ी बेवफा, रात को पढ़ा सवेरे सफा’ वाला हिसाब नहीं होता ।

योगनिद्रा कहती है ‘सो के पढ़ा और सबेरे रखा,’ क्योंकि इसमें ग्रहणशीलता इतनी तीव्र हो जाती कि कुछ भूल ही नहीं सकते हैं। जवानों के लिए अच्छी चीज है, क्योंकि जीवन में भागदौड़ की शुरुआत जवानी में होती है। जैसे-जैसे आज विभिन्न उत्तरदायित्वों को ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे तनावमुक्त रह कर सही प्रकार से अपनी क्षमता का उपयोग करना – यही सिखलाना योगनिद्रा का उद्देश्य हो जाता है। बड़ों के लिए अच्छा अभ्यास है ताकि वे स्वयं को शांत, संयम और संतुलित रख सकें, ताकि रक्तचाप की शिकायत न हो, किसी परिस्थिति में दिल का दौरा नहीं पड़े, मन शान्त रहे । बुजुर्गों के लिए भी अच्छी चीज है, सोने को मिलता है। अतः सभी दृष्टिकोणों से, सभी वर्गों के लिए, सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए, योगनिद्रा का अभ्यास बहुत उपयोगी है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

जब परमहंस माधवदास की हालत रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी

मुंबई से शुरू होकर दुनिया अनेक देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” ने अपने संस्थापक योगेंद्र जी के सपनों को साकार करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। 100 साल से भी ज्यादा पुराने इस संस्थान में यौगिक विधियों से विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार के लिए अनेक शोध-कार्य किए गए। इनमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों की भी सहभागिता रही। पर हाल के वर्षों में हृदय रोगियों को यौगिक क्रियाओं से पुरानी अवस्था में ले जाने संबंधी शोध कमाल के साबित हुए हैं। बेहतर योग शिक्षा के मामले में धाक् ऐसी जमी है कि 21 देशों के छात्र एक ही छत के नीचे योग विद्या हासिल कर रहे हैं। यह पहला योग संस्थान है, जिसे भारत सरकार के क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से मान्यता मिली । योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संस्थान को प्रधानमंत्री योग पुरस्कार से सम्मानित किया ।   

ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स दादाभाई नरौजी के दामाद और पेशे से अभियंता होमी डाडिना शारीरिक रूप से अशक्त हो गए थे। न धन की कमी थी, न प्रभाव कम था। दुनिया का बेहतरीन इलाज उपलब्ध था। पर बात नहीं बन पा रही थी। मुंबई विश्व विद्यालय के कुलपति आरपी मसानी को बात समझ में आ गई थी कि योगाचार्य के रूप में तेजी से उभर रहे मणिभाई हरिभाई देसाई की प्रतिभा असाधारण है। लिहाजा उन्होंने मणिभाई को होमी डाडिना से मिलवाया। डाडिना तो स्वस्थ्य हुए ही, उनके साथ ही अनेक लोगों को बीमारियों से मुक्ति मिल गई। इसके साथ ही भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” की स्थापना की बुनियाद पड़ गई और कम समय में मणिभाई योगेन्द्र जी के नाम से दुनिया में मशहूर हो गए थे।

भृगुसंहिता में कहा गया है कि नियति का निर्माण पहले “काल” में होता है। यानी घटना पहले “काल” में घटती है। उसके बाद अंतरिक्ष में। फिर “देश” में। योगेंद्र जी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगा मानों पटकथा पहले लिख दी गई हो। उनके पिता हरिभाई देसाई अपने लाडले को सिविल सर्विस में देखना चाहते थे। दो कारणों से ऐसा भरोसा बना था। पहला तो यह कि अमलसाड इंग्लिश स्कूल में मणिभाई की गिनती मेघावी छात्रों में होती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने नियमों में बदलाव करके सिविल सेवा भारतीयों के लिए खोल दिया था। पत्नी के परलोक गमन के कारण बेटे के सहारे जिंदगी जीना चाहते थे। पर मणिभाई तो योगी बनकर जन्मे थे। सो सिविल सर्विस में जाने की बात कौन कहे, कालेजी पढाई भी रास नहीं आई थी। अवचेतन का आध्यात्मिक संस्कार प्रकट होने लगा तो महान योगी परमहंस माधवदास जी का सानिध्य मिल गया।

बंगाल में जन्मे परमहंस माधवदास जी के शिष्य तो कई थे। पर उनकी मणिभाई पर विशेष कृपा थी। साथ खिलाते और साथ साधना कराते थे। जिस तरह नरेन (स्वामी विवेकानंद) को देखते ही रामकृष्ण परमहंस की आंखों में आंसू आ गए थे और बरबस ही बोल पड़े थे, “नरेन तू आ गया। मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था।“ लगभग वैसा ही मणिभाई के साथ हुआ था। कहते हैं न कि हर गुरू को योग्य शिष्य की तलाश होती है। मणिभाई परमहंस माधवदास के पास पास पहुंचे तो उनकी भी स्थिति कुछ रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी। दूसरी तरफ योग्य गुरू की दृष्टि पड़ते ही मणिभाई के भीतर का संत भाव प्रकट हो गया। वे आश्रम में बीमारियों से मुक्ति के लिए आए लोगों का स्वतंत्र रूप से यौगिक उपचार करने लगे थे। वस्त्र धौती कराते हुए एक महिला की जान पर बन आई थी। पर लोगों ने देखा कि मणिभाई ने कठिन समय में भी कितनी कुशलता से स्थिति को संभाला लिया था और महिला स्वस्थ हो घर लौटी थी।

कोमल हृदय वाले मणिभाई की योग-दृष्टि स्पष्ट थी। वे स्वामी विवेकानंद और उनके वेदांत दर्शन से बेहद प्रभावित थे। पर योगविद्या का प्रथमत: उपयोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए करना चाहते थे। वे जानते थे कि धार्मिक कारणों और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों के कारण हाशिए पर डाल दी गई योगविद्या को को पीड़ित मानवता की सेवा करते हुए ही पुनर्स्थापित किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में हठयोग की कुछ विधियां खेलकूद के तौर पर जीवित थीं। सामाजिक स्थिति को देखते हुए मणिभाई को लगा कि अष्टांग योग को मूल रूप में स्वीकार्यता दिलाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर मुख्य चौरासी आसनों में से तेरह आसनों का चयन किया और अलग-अलग बीमारियों के लिहाज से उन्हें प्राणायाम से जोड़कर नई योग विधियां तैयार की। इसके अलावा हठयोग के शुद्धिकरण की कुछ क्रियाओं का समावेश किया। फिर इन योग विधियों की वैज्ञानिकता को प्रमाणित किया किया तो लोगों को बात सहज ही समझ में आई। 

मणिभाई को आश्रम से बाहर योगोपचार के लिए जो पहला मरीज मिला था, वह कोई और नहीं, बल्कि होमी डाडिना ही थे। डाडिना स्वस्थ हुए और मणिभाई से इतने प्रभावित हुए कि अपने ही घर का एक हिस्सा योग केंद्र चलाने के लिए दे दिया। योग केंद्र पर होने वाले खर्चों की जिम्मेवारी भी खुद ही ले ली। सन् 1918 का 25 दिसंबर था। पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम थी। उसी दिन मुंबई के पास वर्सोवा में “द योगा इंस्टीच्यूट” का श्रीगणेश हो गया। चूंकि खर्च अकेले डाडिना वहन कर रहे थे, इसलिए मणिभाई ने योग प्रशिक्षण और योगोपचार बिल्कुल मुफ्त कर दिया। बेहतर नतीजे मिलने लगे तो ख्याति विदेशों तक फैल गई। अमेरिका से, यूरोप से लोग आने लगे। जगह कम पड़ गई। अमेरिकी चाहते थे कि ऐसा केंद्र उनके देश में भी खुले। जिस तरह इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन बीकेएस आयंगार के दीवाने बनकर उन्हें पश्चिमी दुनिया में पहुंचा दिया था। लगभग उसी तरह डाडिना मणिभाई को लेकर अमेरिका गए और वहां योग केंद्र स्थापित करने में मदद की।

मणिभाई अमेरिका से लौटे तो सन् 1923 में अपना नाम बदल लिया। अब वे योगेंद्र जी बन गए। इसका कारण तो ज्ञात नहीं। पर इसके बाद उन्होंने योग विद्या को जनोपयोगी बनाने के लिए अपने अध्ययनों और शोधों के आधार पर कई सुधारवादी कदम उठाए। योग साधना से महिलाओं को जोड़ा। कई शोध प्रबंध लिखे। इस तरह उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हठयोग को प्रभावशाली बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी अतुलनीय योगदान का नतीजा है कि “द योगा इंस्टीच्यूट” बीते सौ सालों में कई देशों में भी पांव पसार चुका है। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा की बदौलत ही यह संस्थान प्रधानमंत्री पुस्कार का हकदार बना। कोरोनाकाल में खासतौर से लॉकडाउन के दौरान लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए इसके प्रशंसनीय कार्यों से लाखों लोग लाभान्वित हुए। आज जबकि योग सबकी जरूरत बन चुका है और योगविद्या रोजगार या स्वरोजगार के लिए अहम बन गई है, योगेंद्र जी के कार्यों, उनके आदर्शों से नई पीढी को बेहतर प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

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