अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नई सदी के योगधर्म की राह दिखता सत्यानंद योग

बिहार योग विद्यालय उस सुगंधित पुष्प की तरह है, जिसकी खुशबू सर्वत्र फैल रही है। उसकी विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इसे पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के महासमाधि दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख।

किशोर कुमार

इस सदी का योग-दर्शन क्या हो? इस सवाल को लेकर भारत ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन से प्रभावित विद्वान दुनिया भर में बहस कर रहे हैं। इस बीच पूरी दुनिया में योग विद्या की दिशा-दशा तय करने के लिए एक बार फिर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय ने राह दिखाई है। इस योग संस्थान के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से सत्यानंद योग परंपरा के अनुरूप अगले पचास वर्षों के लिए योग विद्या का जो लक्ष्य और तदनुरूप उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, वह शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत तो है ही, इस युग की जरूरतों के अनुरूप भी साबित होगा। ठीक वैसे ही, जैसे सत्यानंद योग का यौगिक लक्ष्य बीते पचास वर्षों में फलीभूत हुआ था।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सन् 1960 में ही कहा था – “योग विश्व की संस्कृति बनेगा और भारत पूरे विश्व को राह दिखाएगा।“ कालांतर में ऐसा हुआ भी। संयुक्त राष्ट्र के 177 सदस्य देशों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा की गई। दुनिया भर में योग को स्वीकृति मिल गई। तब जरूरी हो गया कि योग और अध्यात्म की पावन भूमि भारत भविष्य के लिए योग का रोडमैप तैयार करे। वह बताए कि योग के उच्चतम पायदान पर कदम बढ़ाते हुए वास्तविक लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले पचास वर्षों के लिए योग-विद्या की दिशा-दशा क्या होगी।

नौ वर्षों तक परिवाज्रक जीवन और कठिन साधनाओं के बाद साठ के दशक में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पचास वर्षों के लिए योग की दिशा तय की थी। उसे देश-विदेश में बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिली थी। इसलिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के बाद जाहिर है कि परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से इस पुनित कार्य की उम्मीद की जा रही थी। पर जो लोग सत्यानंद योग परंपरा के बारे में जानते हैं, वे इस बात से चौंके नहीं कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस दायित्व के निर्वहन के लिए जमीनी अभ्यास सन् 2013 से ही शुरू कर दिया था। पांच-छह वर्षों की कड़ी साधनाओं की अनुभूतियों और योगानुरागियों के फीडबैक के आधार पर अब अगले पचास वर्षों में योग को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए दिशा-दशा तय करके उस पर अमल भी किया जाने लगा है।

कमाल यह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती ने समन्वित योग की जैसी परिकल्पना की थी और उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उस परिकल्पना को विज्ञानसम्मत तरीके से व्यावहारिक रूप देकर योगानुरागियों का जीवन खुशनुमा बनाने का जो संकल्प लिया था, थोड़े अंतर से उसी समन्वित योग के वृहत्तर स्वरूप को अगले पचास वर्षों के लिए उपयुक्त समझा गया है। ताकि योगानुरागियों का आध्यत्मिक उत्थान हो और वे अनुभव कर सकें कि मन के पीछे की शक्ति क्या है। यानी मौजूदा समय में समन्वित योग शिक्षा के स्वरूप को व्यापक बनाया गया है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग के साथ ही शास्त्र में वर्णित कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, स्वरयोग, नादयोग आदि को मिलाकर समन्वित योग की शिक्षा देनी शुरू की थी। पर उसे उस समय की जरूरतों के लिहाज से सरल रखा था।

इस सदी के लिहाज से प्रस्तुत छह खंडों वाले योग-चक्र में हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग शामिल है। अष्टांग योग को अलग से जगह नहीं दी गई है। इसलिए कि सत्यानंद योग पद्धति में माना गया है कि अष्टांगयोग का संबंध योग के सभी छह चक्रों से है। हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध ये पांच उप अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि मिलाकर आठ उप अंग राजयोग के हैं। इसी तरह क्रियायोग के उप अंग प्रत्याहार, धारणा और ध्यान हैं। ज्ञानयोग के तहत भी सात उप अंग बनाए गए हैं। वे हैं – शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुर्यगा। अपरा भक्ति और परा भक्ति भक्तियोग के उप अंग हैं। कर्मयोग में आत्म शुद्धि, अकर्त्ताभाव और नैश्कर्म सिद्धि साधना शामिल हैं। बिहार योग पद्धति के तहत अब सभी छह योग-चक्रों के सभी उप अंगों की गहनतम शिक्षा दी जाएगी। मतलब यह कि यदि कोई हठयोग ही जानना चाहे तो उसे उसके सभी पांच उप अंगों को जानना अनिवार्य होगा। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर नई-नई योग विधियां बनाने का काम पूर्ववत जारी रखा जाना है।

वसंत पंचमी के दिन इस गौरवशाली विश्व विख्यात और पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित संस्थान की स्थापना के 58 साल पूरे हो जाएंगे। शास्त्रसम्मत, विज्ञानसम्मत और दूरगामी सोच के तहत तय मानदंडों का ही नतीजा है कि यह अपनी स्थापना काल से ही योग विद्या के मामले में टेंड सेटर की भूमिका में है। इस संदर्भ में बेंगलुरू स्थित योग विश्वविद्यालय स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के उपकुलपति डॉ एचआर नगेंद्र का वक्तव्य गौरतलब है – “मैं जब पहली बार बिहार योग विद्यालय के संपर्क में आया था तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी की कार्यशैली देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। मैंने देखा कि किस प्रकार वे योग के माध्यम से आश्रम आने वाले लोगों को रूपांतरित कर रहे थे। मैंने इस पद्धति को अपने संस्थान में लागू कर दिया। सच तो यह है कि पूज्य गुरूओं स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने जिस प्रणाली का विकास किया, उसे हमने अपना लिया।“

इन्हीं विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इस संस्थान को पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “गुरूकुल में प्राचीन और आधुनिक विचारों का समन्वय करके ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो विश्व-बंधुत्व व वसुधैव-कुटुंबकम् के भावों को पोषित करता हो। इसलिए कि सत्यम्, शिवम् व सुंदरम् को प्रकट करना ही योगानुरागियों के जीवन का आदर्श उद्देश्य है।“  उम्मीद है कि नया योग-चक्र इन कसौटियों पर खरा उतरेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

इस मर्ज की दवा है योग

भारत में मधुमेह पर पहली बार वैज्ञानिक शोध करने वाले परमहंस सत्यानंद सरस्वती कहते थे, “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा। योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। यदि दवाओं के साथ योग का समन्वय किया जाए तो यह मधुमेह के निदान में एक शक्तिशाली क्रिया होगी।”

किशोर कुमार

एक तरफ कोरोना की मार तो दूसरी तरफ कहर बरपाता मधुमेह। योग की जन्मभूमि में यह हाल है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से भी पता चल चुका है कि मधुमेह से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। सफलता की कहानियां भरी पड़ी हैं कि किस तरह समन्वित योग यानी षट्कर्म, आसन, प्राणायाम और सजगता के नियमित अभ्यासों से दो महीनों के भीतर प्राकृतिक रूप से शरीर में इंसुलिन बनने लगा और इंसुलिन के इंजेक्शन से मुक्ति मिल गई। बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.7 करोड़ लोग इस बीमारी के शिकार हैं। इतना ही नहीं, वैश्विक पैमाने पर हर छठा भारतीय व्यक्ति इस रोग की गिरफ्त में हैं। यह चिंताजनक है।

पूरे देश में आजकल बहस चल रही है कि बीमरियों के इलाज में कौन-सी पैथी बेहतर या कारगर। पर विशेषज्ञ जानते हैं कि हर पैथी, हर उपचारात्मक विधियों की सीमाएं हैं। यह बात योग के साथ भी लागू है। हम जानते हैं कि योग विशुद्ध रूप से रोग-निवारण की पद्धति नहीं है। तभी मधुमेह के यौगिक उपचार के दौरान भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति की दवाओं की जरूरत बनी रहती है। पर यह भी सत्य है कि अनेक मामलों में यौगिक क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की सीमाओं को लांघ जाती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही कहा था – “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा।“  वे बार-बार कहते थे कि योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं।

तभी उन्होंने सत्तर के दशक में उड़ीसा में संबलपुर के बुर्ला स्थित मेडिकल कालेज के साथ मिलकर मधुमेह से बचाव के लिए यौगिक अनुसंधान किया था। इसके नतीजे ऐसे रहे कि चिकित्सा विज्ञान भी चौंका। साबित हुआ कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सहायता लेकर चालीस दिनों के यौगिक अभ्यास से इंसुलिन लेने वाले मधुमेह रोगियों को पहले इंसुलिन से और बाद में मधुमेह से ही मुक्ति मिल सकती है। बिहार योग की इस पद्धति से बड़ी संख्या में मधुमेह रोगी स्वस्थ्य होने लगे तो भारत के विभिन्न योग संस्थानों से लेकर विदेशों में भी इस पद्धति को मधुमेह रोगियों पर आजमाया गया। विवेकानंद योग केंद्र के प्रमुख एचआर नगेंद्र ने अपने कन्याकुमारी स्थित केंद्र में सबसे पहले 15 मधुमेह रोगियों पर यौगिक प्रभावों को देखा और पाया कि इंसुनिल पर निर्भर मरीज ठीक हो गए थे। झारखँड के बोकारो इस्पात संयंत्र में एके श्रीवास्तव नाम के एक वास्तुविद हुआ करते थे। उनका मधुमेह इतना गंभीर था कि एक दिन में 40-50 यूनिट इंसुलिन लेना पड़ता था। यौगिक उपायों से दवाओं पर निर्भरता कम होती गई और कुछ महीनों बाद से ब्लड शुगर सामान्य हो गया था।

योग पब्लिकेशन ट्रस्ट ने इन अध्ययनों के आधार पर सन् 1977 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी – “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ आस्थमा एंड डायबेट्स।” उसमें बताया गया कि मधुमेह के मरीजों को प्रारंभिक एक महीना हर सप्ताह तक कौन-सी यौगिक क्रियाएं करनी हैं और दवाओं व भोजन का प्रबंधन किस प्रकार करना है? इसके बाद बिना दवा लिए रक्त शर्करा यानी ब्लड शुगर सामान्य हो जाने के बाद किन योग विधियों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेना है। शुद्धिकरण की क्रियाओं में शंखप्रक्षालन तथा कुंजल व नेति; आसनों में पश्चिमोत्तानासन, अर्द्ध मत्स्येंद्रासन, भुंजगासन, धनुरासन, सर्वांगासन और हलासन; प्राणायामो में नाड़ी शोधन, भ्रामरी और भस्त्रिका और ध्यान के अभ्यासों में योगनिद्रा व अजपाजप करने की सलाह दी गई है। पर साप्ताहिक अभ्यास में पवनमुक्तासन (सत्यानंद योग पद्धति) पर बल दिया गया है। ऐसा इसलिए कि कभी योगाभ्यास नहीं करने वाले मरीजों को योग करने योग्य तैयार किया जा सके। वैसे यह आसन वातरोग, गठिया, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग के मरीजों को काफी फायदा पहुंचाता है।                                                    

मधुमेह की रोकथाम में शंखप्रक्षालन और कुंजल क्रियाओं की बड़ी भूमिका होती है। आमतौर पर अंतड़ियों में कचरा और मल भरा रहता है उसके भीतरी दीवारों पर इकट्ठा होता जाता है। यह सूखता जाता है और अति कठोर होता जाता है। यह खून को विषाक्त बनाता है। इन यौगिक क्रियाओं से अन्न पथ की पूर्ण सफाई हो जाती है और अधिक ग्लुकोज का उपभोग न किया जाए तो ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित रखने में मदद मिलती है। कुंजल क्रिया से अधिक मात्रा में खाए हुए भोजन और शरीर में सड़े भोजन से बचाव होता है। मधुमेह में तंत्रिका तंत्र को क्षति होती है। डायबिटिक पेरिफेरल न्यूरोपैथी इसी वजह से होती है। आसन का प्रभाव यह है कि तंत्रिका आवेगों और ग्रंथि क्षेत्रों में रक्त के समुचित वितरण हो जाता है। इससे मधुमेह से संबंधित अवयवों की क्रियाएं समायोजित होती हैं। प्राणायाम से शरीर के उन भागों में ऊर्जा पहुंचने लगती है, जहां इसकी कमी की वजह से रोग में इजाफा हो रहा होता है। मस्तिष्क से ले कर पैक्रियाज तक को फायदा पहुंचता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग शिक्षा और अनुसंधान केन्द्र, पुदुचेरी के अध्यक्ष योगाचार्य डॉ. आनंद बालयोगी भवनानी के मुताबिक इन्स और विन्सेन्ट की एक व्यापक समीक्षा में योग से कई जोखिम सूचकों में लाभदायक बदलाव पाए गए। जैसे ग्लूकोस सहिष्णुता, इंसुलिन संवेदनशीलता, लिपिड प्रोफाइल, एन्थ्रोपोमेट्रिक विशेषताओं, रक्तचाप, ऑक्सीडेटिव तनाव,  कोग्यूलेशन प्रोफाइल, सिम्पेथेटिक एक्टिवेशन और पलमोनरी फंक्शन में इसे काफी फायदेमंद पाया गया। योगाभ्‍यास से मधुमेह के रखरखाव और उसकी रोकथाम में सहायता होती है तथा उच्‍च रक्‍तचाप और डिसलिपिडेमिया जैसी परिस्थितियों से बचाव होता है। लंबे समय तक योगाभ्‍यास करने से इन्‍सुलिन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है और शरीर के वजन या कमर के घेरे तथा इन्‍सुलिन संवेदनशीलता के बीच का नकारात्‍मक संबंध घट जाता है। 

गौर करने लायक बात यह है कि मधुमेह केवल जीवन-शैली से जुड़ी बीमारी नहीं रही, बल्कि प्रदूषण इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के साथ ही प्रदूषित भोज्य पदार्थ इसकी जड़ में हैं। विश्वव्यापी शोधों से यह बात साबित हो चुकी है। पश्चिम के अनेक देश इस दिशा ठोस काम कर रहे हैं। पर भारत में इस दिशा में काम होना बाकी है। रिसर्च सोसाइटी फॉर डायबिटीज इन इंडिया ने इस दिशा में पहल की है। इस संगठन के झारखंड चैप्टर के अध्यक्ष डॉ एनके सिंह ने अध्ययनों के बाद विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसे सरकार को सौंपा जा चुका है। जाहिर है कि मधुमेह से बचना है तो योगमय जीवन तो अपना ही होगा। साथ ही रसायनयुक्त भेज्य पदार्थों से भी बचना होगा।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अभी मधुमेह का रामबाण इलाज नहीं ढ़ूंढ़ पाया है। इसुलिन ही सहारा है। पर योगमय जीवन हो तो इंसुलिन पर से निर्भरता समाप्त भी हो जा सकती है। हमने देखा कि कोरोना संक्रमण के कारण मधुमेह के मरीजों पर किस तरह कहर बरपा। यह सिलासिला आज भी जारी है। यदि हमारे जीवन में योग के लिए थोड़ी भी जगह होती तो मधुमेह रोगियों के लिए कोरोना महामारी इतनी बड़ी चुनौती न बनी होती।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

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