संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है, साधु प्रकारांतर से परोपकार ही करते हैं : स्वामी शिवानंद सरस्वती

कुंभ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दशनामी संप्रदाय के अखाड़ों का होता है। ये अखाड़े आदिगुरु शंकराचार्य की महान परम्परा की याद दिलाते हैं। आदि शंकर ने विभिन्न पंथों में बंटे संत समाज को संगठित किया था। ताकि आध्यात्मिक शक्तियों की बदौलत भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की जा सके। पर उन्हें जल्दी ही महसूस हुआ कि केवल शास्त्र से बात नहीं बनने वाली, शस्त्र की भी जरूरत होगी। तब उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के तहत अखाड़ों की स्थापना की। फिलहाल देश में कुल तेरह अखाड़े हैं। इनमें सात दशनामी परंपरा के शैव मत वाले, चार वैष्णव मत वाले और दो उदासीन मत वाले हैं। पर नागा संन्यासी शैव मत वाले अखाड़ों में ही बनाए जाते हैं। इस लेख में योग के आलोक में साधु-संन्यासियों के योगदान और उनके जीवन से जुड़े तथ्यों की पड़ताल करने की कोशिश है।    

साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं, उनका कोई नगर नहीं, राजधानी नहीं….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं। पर ये लड़ाकू साधु-संन्यासी अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें। उन्हें धूल चटा देते हैं….। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को ये बातें बेहद परेशान करती थीं। वे कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से वे कांप जाते थे। उनके सिपाही भी भयभीत रहने लगे थे। ”वंदे मातरम्…” गीत के रचयिता कवि-उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास “आनंदमठ” में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का यह वृतांत बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत है।

कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के जिस जमात को हम देखते हैं, वे अंग्रेजों, उसके पहले मुगलों और न जाने कितने ही विदेशी आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाले उन साधु-संन्यासियों की परंपरा वाले ही तो हैं। लगभग बाइस सौ साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षार्थ संत समाज को संगठित किया था। अतीत के झरोखे से झांककर देखने से पता चलता है कि आदि शंकर ने साधु-संन्यासियों की फौज तैयार न की होती तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखना असंभव हो गया होता। यह जरूर है कि कालांतर में परिस्थितियां बदलती गईं तो साधु-संन्यासियों की भूमिकाएं भी बदलती गईं। पर इसके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। तभी अक्सर उनके बारे में कई सवाल खड़े किए जाते हैं। यथा अखाड़ों के नागा साधुओं और अन्य साधु-संन्यासियों की आधुनिक युग में क्या उपयोगिता है? कुंभ के बाद पहाड़ों में कंपा देने वाली सर्दियों के दौरान खुले बदन या कम कपड़ों में किस तरह जीवित रह जाते हैं? वे वहां करते क्या हैं और क्या खाकर जिंदा रहते हैं? उनकी अदम्य शक्ति का स्रोत क्या है? जो साधु-संन्यासी पहाड़ों में नहीं रहतें, वे आश्रमों में क्या करते होंगे? आदि आदि।

आईए, योग-शक्ति के आलोक में इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया कि हिमालय और जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासियों की वर्तमान समय में क्या उपयोगिता रह गई है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, “ये साधु-संन्यासी आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत होते हैं, सिद्धांत के पक्के होते हैं। मानवता के कल्याण के लिए अपने साधना स्थल से ही हमलोगों आदेश देते हैं। उनके आदेशों का पालन करने के बाद हमलोग भी वहीं चले जाते हैं।“ परमहंस योगानंद कहते थे, “जो संतजन बाह्य स्तर पर कार्य नहीं करते, वे भी अपने विचारों एवं पवित्र स्पंदनों द्वारा जगत् का आत्मज्ञानहीन मनुष्यों द्वारा अथक किए गए लोकोपकारी कार्यों से कहीं अधिक बढ़कर हित करते हैं। महात्माजन अपने-अपने ढंग से और प्राय: कड़वे विरोध झेलकर अपने समकालीन लोगों को प्रेरित करने तथा उन्नत करने का नि:स्वार्थ प्रयास करते रहते हैं।

साधु-संन्यासियों की सूक्ष्म शक्ति की बात भी कोई कपोल-कल्पना नहीं है। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में हठयोगी थे साधु हरिदास। खेचरी मुद्रा सिद्ध थे। महाराज उनकी यौगिक शक्तियों की परीक्षा लेना चाहते थे। लिहाजा महाराजा की इच्छानुसार उन्होंने महाराजा और कुछ विदेशी चिकित्सकों की उपस्थिति में चालीस दिनों के लिए भू-समाधि ले ली। उन्हें सही तरीके से मिट्टी से ढ़क दिया गया। कुछ दिनों बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पर जब चालीस दिन पूरे हुए तो साधु हरिदास के निर्देशानुसार मिट्टी हटाकर उनकी गर्दन की हड्डियों पर गाय के घी से मालिश कर दिया गया तो वे इस तरह उठ खड़े हुए थे, मानों कुछ समय के लिए ध्यान साधना में बैठे रहे हों। बिल्कुल तरोताजा थे। उनकी सूक्ष्म शक्तियों की कई मिसालें दी जाती हैं, जिनका उल्लेख फ्रांस सरकार के दस्तावेजों में भी है। परमहंस योगानंद ने अपने परमगुरू और सिद्ध संन्यासी लाहिड़ी महाशय के बारे में लिखा है कि वे अपने दाह-संस्कार के दूसरे दिन प्रात: दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने पुनरूज्जीवित परन्तु रूपांतरित शरीर में फिर से प्रकट हुए थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के मामले में भी उनके कई विदेशी शिष्यों का ऐसा ही अनुभव रहा है।

यह निर्विवाद है कि सनातन काल से सभ्यता और सांस्कृति बरकरार रखकर मानवता का कल्याण करने में योगियों व संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। उनकी अलौकिक शक्तियां हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। इसे इस तरह समझिए। जापान में समुराई नामक समुदाय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। इस समुदाय के ज्यादातर लोग सेना में जाते थे। पर पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे उनकी शारीरिक शक्ति और कल्पना-शक्ति ऐसी हो जाती थी कि उनके सामने दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा-चक्र को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान-चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है।

पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि जंगलों और पहाड़ों में साधना करने वाले साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। वैसे तो जंगलों और पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से सब कुछ मौजूद होता है। इनमें सौर-शक्ति प्रमुख है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रोटीनयुक्त रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल की बदौलत सौर-शक्ति को कैद करना संभव हो पाता है, जो जीवन दायिनी है। अपामार्ग या चिरचिटा जंगलो और पहाड़ों में उपलब्ध होता है। इसके बीज में इतनी शक्ति है कि कोई बिना अन्न ग्रहण किए एक सप्ताह से ज्यादा समय गुजार सकता है। पर ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे।

हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, योग के सामान्य साधको को भी सलाह दी जाती है कि यदि हृदय रोग, उच्च रक्तचाप व मिर्गी के रोगी न हो तो सूर्यभेद प्राणायाम करें। शरीर में गर्मी पैदा हो जाएगी। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता।

उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे, “संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। एक साधु के लिए साधना की अंतिम परिणति सेवा होती है, समाधि नहीं।” आखाड़ों से जुड़े साधु-संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

इस वायरस की दवा वैक्सीन नहीं, योग है

कोरोनाकाल में सेक्स की लत बड़ी समस्या बनकर उभरी है। अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल मौजूदा संकट को अवसर के रूप में तब्दील करने में करना था। पर ऊर्जा का अपव्यय हो गया। कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर यानी बाध्यकारी यौन व्यवहार चिंता का विषय बन गया। रामचरित मानस में एक प्रसंग है, लक्ष्मण जी कहते हैं – काहु न कोउ सुख -दु:ख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता यानी कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी संचित कर्मों के फल मिलने की बात प्रकारांतर से स्वीकार करते हैं। पर साथ ही कहते हैं कि हमारे कर्मों के कारण जो सुख-दु:ख निर्मित होता है, मौजूदा जीवन में उसका असर कितना होगा, यह इस बात पर निर्भर होता है कि हम किसी भी समस्या का समाधान कितनी तत्परता से और कितने सूझ-बूझ के साथ करते हैं। हम सब दैनिक जीवन में ऐसा महसूस भी करते हैं। पर हमारे दिमाग में यदि कोई ऐसा वायरस है, जो सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देता है तो विश्वव्यापी संकट का कुप्रभाव ज्यादा गहरा होने से कौन रोक सकता है?  

सिद्धासन, सिद्धयोनि आसान और मूलबंध। इन यौगिक क्रियाओं की बात आते ही ऐसा लगता है मानो आध्यात्मिक जागरण की बात शुरू होने वाली है। पर नहीं, इस बार आध्यात्मिक जागरण की बात हाशिए पर है। बात एक ऐसी महामारी की होनी है, जो कोरोना से कम खतरनाक नहीं है। फर्क इतना कि कोरोना वायरस का खौफ है। पर इस वायरस से लोगों को प्रेम हो गया है। यह है सेक्स अडिक्शन यानी सेक्स की लत। जी हां, आपने सही सुना। पूरे लॉकडाउन के दौरान ज्यादातर लोगों ने घरों में दुबक कर कोरोना वायरस से अपना बचाव करने का तो भरपूर इंतजाम किया। पर इस वायरस से मन-मंदिर को बीमार होने दिया। ज्यादातर मामलों में इसकी परिणति कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर के रूप में हुई। हालात ऐसे बने हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को भी इसकी चिंता करनी पड़ गई है।

जानकर हैरानी होगी कि भारत लॉकडाउन के दौरान अश्लील वेबसाइट्स के ट्राफिक के मामले में अमेरिका और इंग्लैंड के बाद तीसरे स्थान पर था। सरकार ने साढ़े तीन हजार अश्लील बेवसाइट्स को प्रतिबंधित कर दिया। बावजूद भारत कनाडा को पछाड़कर तीसरे पायदान पर पहुंच गया। महिलाओ ने भी इस मामले में पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ दिए। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक अश्लील वेबसाइट्स पर जाने वालों में तीस फीसदी महिलाएं थीं। चिंताजनक बात यह कि बच्चों की भी ऐसी वेबसाइट्स तक पहुंच बनी। संकट काल में शरीर की ऊर्जा का उपयोग सकारात्मक कार्यों के लिए करना था। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। महर्षि पतंजलि ने कहा है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध: यानी चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। कोरोना संकट आया और मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ने लगी तो योगाचार्यों ने ध्यान साधना पर काफी जोर दिया। ताकि चित्त वृत्तियों का निरोध हो सके। मन-मंदिर को विश्रांत किया जा सके। तब किसी ने सोचा भी न था कि दूसरी तरह का मनसिक रोग भी खतरनाक रूप लेगा।

इस वायरस का इलाज योग से ही संभव है। पुरूषों के लिए सिद्धासन, महिलाओं के लिए सिद्धयोनि आसान और सबके लिए मूलबंध असरदार साबित होंगे। पहले आमतौर पर इन यौगिक क्रियाओं को केवल और केवल ब्रह्मचर्य धारण करने वालों, आध्यात्मिक साधकों के लिए ही उपयुक्त माना जाता था। कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और बिहार योग विद्याल के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सररस्वती ने सिद्धासन, सिद्धयोनि आसन को लेकर भ्रांतियां दूर की। इसके साथ ही स्वामी सत्यानंद सररस्वती ने मूलबंध पर विस्तृत शोध करके पुस्तक लिखी तो योग विद्या मानो फिर से परिभाषित हो गई। देश-विदेश में अनेक शोध किए गए तो गृहस्थों के लिए भी इनकी उपयोगिता साबित हुई।

स्वामी कुवल्यानंद की योगासन पर लिखी गई एक पुस्तक में सिद्धासन को लेकर उनकी अवधारणा की बड़ी स्पष्टता के साथ व्याख्या है। एक बात बता दूं कि स्वामी कुवल्यानंद बड़े वैज्ञानिक योगी थे और अपने शरीर को प्रयोगशाला की तरह उपयोग में लाया करते थे। उनकी बातें विज्ञान की कसौटी पर कसी हुई होती हैं। खैर, उन्होनें अपनी पुस्तक में कहा है – “योग संबंधी कुछ देशी पुस्तकों में उल्लेख है कि सिद्धासन या सिद्धयोनि आसन से काम-शक्ति पर अहितकर प्रभाव पड़ता है। पर मेरी नजर में ऐसा एक भी मामला नहीं आया। हां, यह जरूर है कि योग्य योगाचार्य से मार्ग-दर्शन लेकर ही अधिकतम एक घंटे तक इन आसनों का अभ्यास किया जाना चाहिए।“ 

पहले मूलबंध के फायदे समझते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक “मूलबंध-द मास्टर की” के मुताबिक मूलबंध अन्य योग-क्रियाओं की तरह केवल एक क्रिया मात्र नहीं है। कुंडलिनी जागरण में इसका बड़ा महत्व है। यह शरीर और मन को विश्रांत करने की शक्तिशाली विधि है। तभी सिजोफ्रेनिया के मरीजों को भी काफी लाभ मिलता है। यदि शरीर स्वस्थ है तो परानुकंपी व तंत्रिका-तंत्र की क्रियाशीलता बढती है। साथ ही श्वसन गति, हृदय गति और रक्तचाप नियंत्रित होता है। ऐसा अल्फा, बीटा, थीटा जैसे मानसिक तरंगों के स्थिर हो जाने के कारण होता है। यौन समस्याओं के समाधान और स्वस्थ यौन संबंधों को बनाए रखने व उनके संपोषण में अहम् भूमिका को कई स्तरों पर परखा जा चुका है। टेस्टोस्टेरोन स्राव व शुक्र निर्माण नियंत्रित होने से कमोत्तेजना शांत होती है। महिलाओं की रजोनिवृत्ति के बाद की समस्याओं का समाधान भी होता है।

बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने घेरंड संहिता के अपने भाष्य में मूलबंध की चर्चा करते हुए उसका नाड़ियों पर प्रभाव का विश्लेषण कुछ इस तरह किया है – प्राचीन काल की यह गुप्त विद्या इतनी शक्तिशाली है कि इससे वृद्धावस्था नष्ट होती है। यानी वृद्धावस्था को अधिक समय तक टालना संभव हो पाता है। यदि मूलाधार चक्र को मेरूदंड के निचले भाग में स्थित मानें तो मस्तिष्क के भीतर भी एक ऐसा केंद्र होता है जो मूलाधार के स्पंदन से प्रभावित होकर जाग्रत होता है। नाड़ियों से होकर संवेदना मस्तिष्क तक जाती है औऱ मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को जाग्रत करती है, जिसका संबंध मूलाधार से है। इसी काऱण शरीर के निचले भाग में अपान वायु के प्रवाह की दिशा भी बदल जाती है। प्राण-शक्ति का संरक्षण होता है और लंबी आयु मिलती है। मूलबंध से ऐसी शक्ति मिलती है कि इससे चाहे तो पूरी तरह ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं और चाहें तो भौतिक संबंध बना सकते हैं। यानी इस मामले में सब कुछ अपने नियंत्रण में और इंद्रियों के दास बने रहने से मुक्ति।

अब सिद्धासन और सिद्धयोनि आसनों की बात। आधुनिक योग की आयंगार शैली के जनक बीकेएस आयंगार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “लाइन ऑन योगा” में 84 लाख आसनों में सिद्धासन को महत्वपूर्ण माना है। अय्यंगार के मुताबिक, “ सिद्ध के समान आसन नहीं, केवल के समान कुंभक नहीं, खेचड़ी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय (मन की लयता) नहीं।“ योग के अनेक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि प्राचीनकाल में भी जितने भी सिद्ध योगी हुए, प्राय: सिद्धासन में बैठकर ही साधना किया करते थे। जापान में इस आसन की लोकप्रियता इतनी हुई है कि उसके आधार पर दारूमा डॉल्स बनाए जाने लगे। उस खिलौने की खासियत है कि उसे चाहे जिस तरह भी रख दें, सिद्धासन की मुद्रा में बैठ जाएगा। ऐसा उसमें भरे गए पारे के कारण होता है। अब तो हृदय रोग के अनेक चिकित्सक हृदय कार्यों में स्थिरता लाने के लिए सिद्धासन करने की सलाह देने लगे हैंं।

हम जानते हैं कि गुरूत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी प्राण-शक्ति को नीचे की तरफ खींचती है। पर मेरूदंड, रीढ़ औऱ मस्तिष्क एक सीध में रहे और मूलबंध व प्राणायाम के कारण प्राण-शक्ति ऊर्ध्वगामी हो जाती है। शरीर के दो छोर हैं – नीचे है मूलाधार। इसे काम-केंद्र कह सकते हैं और ऊपर है सहस्रार। योगशास्त्र में कहा गया है कि जानवरों के लिए मूलाधार चक्र श्रेष्ठ होता है। पर मानव के लिए यह सबसे निचला पायदान है। ज्यादातर लोगों के जीवन पर इस चक्र का खासा प्रभाव होता है। लिहाजा, बिना किसी प्रयास के काम-शक्ति उपलब्ध होती है। प्राण-शक्ति का ह्रास होते रहता है। योग साधना करके ही शक्ति संचय हो पाता है। इसलिए योग प्राणिक ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने की बात करता है। जब सिद्धासन में शरीर पर गुरूत्वाकर्षण का प्रभाव कम होता है तो इस प्रयास में सफलता मिलने लगती है।        

वैज्ञानिकों ने सिद्धासन के अभ्यासियों का अध्ययन किया तो पाया कि उनके शरीर से ऊर्जा का ह्रास बहुत ही कम हो रहा था। ऊर्जा का ज्यादा भाग शरीर में ही संरक्षित हो रहा था। ऐसा इसलिए भी कि इस साधना से स्वत: मूलबंध लग रहा था। सिद्धयोनि आसन के लाभ भी सिद्धासन जैसे ही दिखे।आमतौर पर योगासनों के दौरान गुरूत्वाकर्षण के कारण शरीर से काफी मात्रा में ऊर्जा का ह्रास होता है। सिद्धासन में बैठे लोगों में मामले में पाया गया कि ऊर्जा शरीर के भीतर एक वार्तुल में घूमती रहती थी। वर्तुल पूरा होते ही यह चक्राकार घूमने लगती थी।

योग विज्ञानियों के मुताबिक, ऊर्जा ऊपर की तरफ उठने से स्वाभाविक रूप से कामवासना को लेकर मन में विचार उठने बंद होते हैं। मन-मस्तिष्क उच्चतम स्तर पर काम करने लगता है। चूंकि शरीर के सभी चक्र स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। इसलिए मूलबंध का भी परिणाम देने वाले सिद्धासन में बैठकर प्राणायाम किया जए तो मूलाधार चक्र का जागरण होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका असर सहस्रास चक्र तक होता है, जिसे परम चेतना का स्थान माना जाता है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि केवल सिद्धासन की साधना भी इस तरह की जाए कि मूलबंध लग जाए तो सेक्स अडिक्शन और कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर से मुक्ति मिल जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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