नई सदी के योगधर्म की राह दिखता सत्यानंद योग

बिहार योग विद्यालय उस सुगंधित पुष्प की तरह है, जिसकी खुशबू सर्वत्र फैल रही है। उसकी विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इसे पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के महासमाधि दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख।

किशोर कुमार

इस सदी का योग-दर्शन क्या हो? इस सवाल को लेकर भारत ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन से प्रभावित विद्वान दुनिया भर में बहस कर रहे हैं। इस बीच पूरी दुनिया में योग विद्या की दिशा-दशा तय करने के लिए एक बार फिर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय ने राह दिखाई है। इस योग संस्थान के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से सत्यानंद योग परंपरा के अनुरूप अगले पचास वर्षों के लिए योग विद्या का जो लक्ष्य और तदनुरूप उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, वह शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत तो है ही, इस युग की जरूरतों के अनुरूप भी साबित होगा। ठीक वैसे ही, जैसे सत्यानंद योग का यौगिक लक्ष्य बीते पचास वर्षों में फलीभूत हुआ था।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सन् 1960 में ही कहा था – “योग विश्व की संस्कृति बनेगा और भारत पूरे विश्व को राह दिखाएगा।“ कालांतर में ऐसा हुआ भी। संयुक्त राष्ट्र के 177 सदस्य देशों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा की गई। दुनिया भर में योग को स्वीकृति मिल गई। तब जरूरी हो गया कि योग और अध्यात्म की पावन भूमि भारत भविष्य के लिए योग का रोडमैप तैयार करे। वह बताए कि योग के उच्चतम पायदान पर कदम बढ़ाते हुए वास्तविक लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले पचास वर्षों के लिए योग-विद्या की दिशा-दशा क्या होगी।

नौ वर्षों तक परिवाज्रक जीवन और कठिन साधनाओं के बाद साठ के दशक में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पचास वर्षों के लिए योग की दिशा तय की थी। उसे देश-विदेश में बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिली थी। इसलिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के बाद जाहिर है कि परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से इस पुनित कार्य की उम्मीद की जा रही थी। पर जो लोग सत्यानंद योग परंपरा के बारे में जानते हैं, वे इस बात से चौंके नहीं कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस दायित्व के निर्वहन के लिए जमीनी अभ्यास सन् 2013 से ही शुरू कर दिया था। पांच-छह वर्षों की कड़ी साधनाओं की अनुभूतियों और योगानुरागियों के फीडबैक के आधार पर अब अगले पचास वर्षों में योग को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए दिशा-दशा तय करके उस पर अमल भी किया जाने लगा है।

कमाल यह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती ने समन्वित योग की जैसी परिकल्पना की थी और उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उस परिकल्पना को विज्ञानसम्मत तरीके से व्यावहारिक रूप देकर योगानुरागियों का जीवन खुशनुमा बनाने का जो संकल्प लिया था, थोड़े अंतर से उसी समन्वित योग के वृहत्तर स्वरूप को अगले पचास वर्षों के लिए उपयुक्त समझा गया है। ताकि योगानुरागियों का आध्यत्मिक उत्थान हो और वे अनुभव कर सकें कि मन के पीछे की शक्ति क्या है। यानी मौजूदा समय में समन्वित योग शिक्षा के स्वरूप को व्यापक बनाया गया है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग के साथ ही शास्त्र में वर्णित कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, स्वरयोग, नादयोग आदि को मिलाकर समन्वित योग की शिक्षा देनी शुरू की थी। पर उसे उस समय की जरूरतों के लिहाज से सरल रखा था।

इस सदी के लिहाज से प्रस्तुत छह खंडों वाले योग-चक्र में हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग शामिल है। अष्टांग योग को अलग से जगह नहीं दी गई है। इसलिए कि सत्यानंद योग पद्धति में माना गया है कि अष्टांगयोग का संबंध योग के सभी छह चक्रों से है। हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध ये पांच उप अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि मिलाकर आठ उप अंग राजयोग के हैं। इसी तरह क्रियायोग के उप अंग प्रत्याहार, धारणा और ध्यान हैं। ज्ञानयोग के तहत भी सात उप अंग बनाए गए हैं। वे हैं – शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुर्यगा। अपरा भक्ति और परा भक्ति भक्तियोग के उप अंग हैं। कर्मयोग में आत्म शुद्धि, अकर्त्ताभाव और नैश्कर्म सिद्धि साधना शामिल हैं। बिहार योग पद्धति के तहत अब सभी छह योग-चक्रों के सभी उप अंगों की गहनतम शिक्षा दी जाएगी। मतलब यह कि यदि कोई हठयोग ही जानना चाहे तो उसे उसके सभी पांच उप अंगों को जानना अनिवार्य होगा। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर नई-नई योग विधियां बनाने का काम पूर्ववत जारी रखा जाना है।

वसंत पंचमी के दिन इस गौरवशाली विश्व विख्यात और पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित संस्थान की स्थापना के 58 साल पूरे हो जाएंगे। शास्त्रसम्मत, विज्ञानसम्मत और दूरगामी सोच के तहत तय मानदंडों का ही नतीजा है कि यह अपनी स्थापना काल से ही योग विद्या के मामले में टेंड सेटर की भूमिका में है। इस संदर्भ में बेंगलुरू स्थित योग विश्वविद्यालय स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के उपकुलपति डॉ एचआर नगेंद्र का वक्तव्य गौरतलब है – “मैं जब पहली बार बिहार योग विद्यालय के संपर्क में आया था तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी की कार्यशैली देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। मैंने देखा कि किस प्रकार वे योग के माध्यम से आश्रम आने वाले लोगों को रूपांतरित कर रहे थे। मैंने इस पद्धति को अपने संस्थान में लागू कर दिया। सच तो यह है कि पूज्य गुरूओं स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने जिस प्रणाली का विकास किया, उसे हमने अपना लिया।“

इन्हीं विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इस संस्थान को पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “गुरूकुल में प्राचीन और आधुनिक विचारों का समन्वय करके ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो विश्व-बंधुत्व व वसुधैव-कुटुंबकम् के भावों को पोषित करता हो। इसलिए कि सत्यम्, शिवम् व सुंदरम् को प्रकट करना ही योगानुरागियों के जीवन का आदर्श उद्देश्य है।“  उम्मीद है कि नया योग-चक्र इन कसौटियों पर खरा उतरेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे तो प्रतिभावान होंगे बच्चे

सावन का महीना योग के आदिगुरू शिवजी को प्रिय है तो इस बार लेख की शुरूआत उनसे जुड़ी एक कथा से। फिर योग विद्या की बात। कथा है कि चंद्रमा का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष की सत्ताई कन्याओं से हुआ था। पर चंद्रदेव केवल रोहिणी प्यार करते थे। बाकी छब्बीस बहनों को यह बात नागवार गुजरने लगी तो बात प्रजापति दक्ष तक पहुंची। उन्होंने इस मामले में दखल तो दी। पर बात नहीं बनी। इससे क्रोधित होकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि उसका शरीर क्षय रोग से गल जाएगा। श्राप का असर दिखने लगा तो स्वर्गलोक में हाहाकार मच गया। स्वर्ग का देवता रोग से गल जाए तो हड़कंप मच जाना लाजिमी था।

खैर, बात ब्रह्मा जी तक पहुंची। उन्होंने चंद्रदेव को सुझाव दिया कि प्रभास तीर्थ क्षेत्र जाएं। वहां शिवलिंग की स्थापना करके आरोग्यवर्द्धक महामृत्युंजय मंत्र की साधना करें। भगवान मृत्युंजय प्रसन्न हुए तो स्वयं प्रकट होकर रोग का उपचार करेंगे। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। महादेव प्रकट हुए और आशीर्वाद दिया कि रोग से मुक्ति मिल जाएगी। पर उनका शरीर पंद्रह दिनों तक घटेगा और पंद्रह दिन बढ़ेगा। रोग से मुक्ति मिल जाने से प्रसन्न चंद्रमा ने महादेव से प्रार्थना की कि वे उसके आराध्य बनकर उसी विग्रह में प्रवेश कर जाएं, जिसकी उसने आराधना की थी। आदियोगी ने बात मान ली औऱ विग्रह में प्रवेश कर गए। कालांतर में वही स्थान सोमनाथ के रूप में मशहूर हुआ और आदियोगी वहां सोमेश्वर कहलाए। हम सब जानते हैं कि सोमनाथ मंदिर गुजरात के प्रभास पाटन में अवस्थित है। इस कथा से महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति का पता चलता है।

वेदों में कहा गया है कि ऋषियों की ध्यान की सूक्षमावस्था में अनहद नाद की अनुभूति हुई। इसे ही मंत्र कहा गया, जो बेहद शक्तिशाली है। मानव के मेरूदंड में मुख्यत: छह चक्र होते हैं। उनमें अलग-अलग रंगों की पंखुड़ियां अलग-अलग संख्या में होती हैं। उन सब पर संस्कृत में एक-एक स्वर व व्यंजन अक्षर होता है। सभी चक्रों के बीज मंत्र भी होते हैं। जैसे आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है। मंत्र भी इन्हीं अक्षरों से बने होते हैं। इसलिए ॐ मंत्र का सीधा प्रभाव आज्ञा चक्र पर होता है। इस चक्र के जागृत होने से प्रतिभा का विकास होता है। अंतर्दृष्टि मिलती है।

कुछ शताब्दियों पहले तक अनुष्ठान करके आठ साल की उम्र से ही बच्चों को मंत्रों खासतौर से ॐ और गायत्री मंत्र का जप करने को कहा जाता था। वे बच्चे बड़े होकर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा शांतिपूर्ण जीवन जीते थे। योग से नाता टूटने का कुप्रभाव देखिए कि कोरोनाकाल में बड़ों के साथ ही बच्चे भी अवसादग्रस्त हो रहे हैं। अनेक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों से भी महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र के साथ ही ॐ नम: शिवाय और न जाने कितने ही मंत्रों के मानव शरीर पर होने वाले सकारात्मक प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी आदि आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक संत मंत्रों के प्रभावों से जनकल्याण करते रहे हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 1994 में बाल योग मित्र मंडल बनाकर बच्चों के योग को बड़ा फलक प्रदान किया था। उन्होंने संभवत: पुराने समय में बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर चायदानी आसन विकसित किया और बार-बार ऐसा करते हुए बच्चे उब न जाएं, इसलिए इसके साथ बाल गीत जोड़कर मनोरंजक बना दिया था। इस आसन में बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए दाहिए पैर को पीछे करके हाथ से पकड़ना होता है। बाईं केहुनी को मोड़कर हाथ को सामने करने के बाद कलाई को नीचे की ओर झुकाना होता है। ताकि पोज चायदानी की टोटी जैसा बन जाए। इस स्थिति में देर तक रहने से पैरों में शक्ति आती है और एकाग्रता का विकास होता है।

योगशास्त्र में भी कहा गया है कि बच्चे जब आठ साल के हो जाएं तभी आसन और प्राणायाम के अभ्यास शुरू कराए जाने चाहिए। यदि सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्रणायाम, भ्रामरी प्राणायाम व गायत्री मंत्र के जप के साथ ही योगनिद्रा बच्चों के दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। दुनिया भर में इस बात को लेकर एक हजार से ज्यादा शोध किए जा चुके हैं। इसलिए संशय की कोई गुंजाइश नहीं है।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है।

धर्म, अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शिक्षा को अपनी अंतर्दृष्टि से नए आयाम देने वाले जिड्डू कृष्णमूर्ति की यह बात आज भी प्रासंगिक है कि पहले की शिक्षा ऐसी न थी कि बच्चे यंत्रवत, संवेदनशून्य, मंदमति और असृजनशील बनते। आज हमारा समाज शिक्षित है। पर कई मूल्यों को खो चुका है। नतीजा है कि योग शास्त्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर योग की महिमा जानने के बावजूद हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

सच है कि नए भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी जड़ता टूटेगी और बच्चों का जीवन योगमय होगा। शिक्षा में योग के समावेश को लेकर सरकार अपना काम कर रही है। हमें भी अपने हिस्से का काम करना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

विज्ञान के लिए चुनौती है ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की सूक्ष्म शक्तियां

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त महाराज कई मायनों में अनूढे थे। शवासन की अवस्था में भौतिक रूप से समाज के बीच होते हुए भी चेतना के स्तर पर किसी और लोक में चले जाते थे। तब ऐसा लगता मानों वे कोई बड़े ऋषि हैं, जो तपस्वियों को संबोधित कर रहे हैं। वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसी शास्त्रसम्मत बातें करते थे। कठिन यौगिक साधनाओं की बात करते और अपने एक खास शिष्य महानंद के सवालों का जबाव भी देतें। हैरतंगेज बात यह कि महानंद की आवाज भी महाराज के मुख से ही निकलती थी। दोनों की आवाज अलग-अलग होने से आसानी से पहचान हो जाती थी। तुरीयावस्था कितनी देर बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं होता था। पर इस अवस्था से बाहर होते ही अति सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें न लिखना आता था, न पढ़ना। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्तियां अब भी रहस्यमय ही हैं।    

योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। पुनर्जन्म, परकाया प्रवेश और एक ही काया को कई स्थानों पर उपस्थित कर देने के भी उदाहरण हैं। अक्षर ज्ञान न होते हुए भी शास्त्रों का ज्ञान होने के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। योग की बदौलत मिलने वाली इन शक्तियों का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया जाता रहा है। परं पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, तुरीयावस्था में वह ज्ञान प्रकट करना और दो लोगों के बीच का संवाद एक ही मुख से उच्चारित होना इस युग के लिए दुर्लभ बात है। गाजियाबाद जिले के एक गांव में अति सामान्य परिवार मे जन्मे ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ऐसे ही दुर्लभ संयोग की देन थे। 

कृष्णदत्त जी बेपढ़ थे। यौगिक साधनाओं से दूर-दूर का वास्ता न था। पर शवासन में होते ही कई युगों में मौजूद रहे देवतुल्य ऋषियों जैसी बातें करने लगते थे। वेद और उपनिषद की बातें, शुद्ध संस्कृत शब्दों के उच्चारण के साथ धाराप्रवाह बोलते जाते थे। योग के शास्त्रीय पक्षों पर खूब बोलते थे। यौगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शरीर के चक्रों की वैज्ञानिक बातें करते थे। पर शवासन से उठते ही एक ऐसा व्यक्ति होते थे, जिसका शास्त्रीय ज्ञान से दूर-दूर का नाता न होता था। अनेक विश्लेषणों के आधार पर माना गया कि वे जागृत चक्रों के साथ पूर्व जन्मों के ऋषियों वाले वैदिक ज्ञान के साथ जन्मे थे।

शवासन में जब उनकी अतीन्द्रिय शक्तियां (साइकिक पावर्स) जागृत होती थीं तो ऐसा लगता था कि वे इस लोक में नहीं हैं। वे कभी सत्ययुग की तो कभी त्रेतायुग तो कभी द्वापर युग की बात करने लगते। कलियुग की प्राचीन बातें भी करते थे। कई बार उनकी आवाज और बोलने का अंदाज बदल जाता था। विश्लेषण से पता चला कि वे जब महानंद नाम के अपने किसी शिष्य के साथ वार्तालाप कर रहे होते थे तब ऐसी स्थिति बनती थी। यानी गुरू-शिष्य की आवाज एक ही भौतिक शरीर से निकलती थी। उनका मुख उस स्पीकर की तरह हो जाता था, जिससे जुड़ी माइक में जो भी बोलता है, उसकी आवाज सुनाई देती है।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अवचेतन मन से नाता जुड़ते ही ऐसे बोलने लगतें मानों वे नहीं, किसी ऋषि की आत्मा बोल रही हो। एक बार अचानक बोल पड़े – “पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा जाओ, लघु मस्तिष्क में प्रवेश कर जाओ। मैने बारह वर्षों तक अनुष्ठान करके लघु मस्तिष्क को दृष्टिपात किया तो ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर वाली प्रतिभाएं मेरे समीप आने लगी। इसके पश्चात् पूज्यपाद के चरणों में विद्यमान हो गया। मैंने कहा कि प्रभु! मैं लघु मस्तिष्क मे चला गया हूँ। मैं लघु मस्तिष्क में सूर्यों की गणना करता रहा, लघु मस्तिष्क में पृथ्वियों की गणना करता रहा, सौर मण्डलों में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं अनन्तमयी ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं विचित्र-सा अनुभव करने लगा हूं। मुझे और मार्ग में प्रवेश कराइए।….”

कृष्णदत्त जी के ज्यादातर प्रवचनों की वॉयस रिकार्डिंग की जा चुकी है। शवासन अवस्था वाले कृष्णदत्त जी महाराज शांत स्वभाव वाले ज्ञानी ऋषि की तरह होते थे। वहीं उनका शिष्य महानंद बेहद आक्रामक होता था। ऐसा लगता था कि महानंद की आत्मा कलियुग के किसी काल-खंड की यादों के साथ उपस्थित होती थी, जिसे समाज की विकृतियां बेचैन रखती थीं। तभी कृष्णदत्त जी जब किसी अन्य युगों की बात कर रहे होते थे तो वह दखल देता और कहता, गुरूदेव, आपकी बात कोई नहीं समझेगा, आप इस युग के लिहाज से बोलिए। एक और चौंकाने वाली बात यह कि कृष्णदत्तजी जब मुनिवरो शब्द का प्रयोग करते हुए संबोधन शुरू करते तो ऐसा लगता था कि वे अन्य युगों के मुनियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कभी महाभारतकालीन घटनाओं का आंखो देखा हाल बयां करने लगते तो कभी राजा दशरथ के लिए श्रृंगी ऋषि के पुत्रेष्टि यज्ञ का। योग की शक्तियों का बखान तो अक्सर करते थे।

धरती पर ऐसे संतों की कमी नहीं रही, जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था। पर वे शास्त्रसम्मत बातें, विज्ञानसम्मत बातें करते थे। कबीर पर तो न जाने कितने ही शोध होते रहते हैं। पर उसी कबीर ने अपने बारे में कहा था – “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यी नहीं हाथ।“ इतनी पुरानी बात छोड़ भी दें तो चित्रकूट की धरती एक संत थे। नाम था परमहंस परमानंद। प्रसिद्ध थे। लेकिन एक बार उनके हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी तो अजीब संकट खड़ा हो गया। इसलिए कि अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं था। शिष्यों को नाम लिखने का अभ्यास कराना पड़ा था। पर सन् 1969 में शरीर त्यागने से पहले धर्म की रूढ़ीवादी प्रथाओं पर चोट करते रहे और अपनी अलौकिक शक्तियों से जन-कल्याण करते रहे। वेदों और उपनिषदों के वैज्ञानिक व व्यवहारिक ज्ञान की बाते करते थे।

पुनर्जन्म होता है, इसके भी कई उदाहरण हैं। धनबाद में कोयला खदान मालिक की पत्नी को तीन जन्मों की बातें याद थीं। इससे उनका जीवन आशांत होता जा रहा था। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में जाने के बाद राहत मिली थी। स्वामी सत्यानंद जी की पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। पूर्व जन्म की बात गीता में भी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन! तेरे औऱ मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूं….।” शरीर से ऊर्जा और चेतना को पृथक करके महीनों बाद उसे संयुक्त करने के भी उदाहरण हैं। इस संदर्भ में राजा रणजीत सिंह के दरबार के साधु हरीदास का नाम उल्लेखनीय है। फ्रांस और यूरोप के चिकित्सकों ने साधु हरीदास की इस शक्ति का चिकित्सीय परीक्षण किया था और पाया कि मृत शरीर कई महीनों बाद जीवित हो उठता था। परमहंस योगानंद ने विदेशी चिकित्सकों की फाइलों तक पहुंच बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया था। संतों के सूक्ष्म रूप से एक ही साथ एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं वाले स्थानों पर उपस्थिति के भी उदाहरण हैं। ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़े ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका के टेड सीरियो की अतीन्द्रिय शक्ति ऐसी थी कि उसकी आंखें हजारो मील दूर की तस्वीरें लेने में सक्षम थी।         

परमहंस योगानंद कहा करते थे कि महान संत मृत्युलोक में कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाते हैं तो उन्हें दोबारा जन्म लेना होता है। शास्त्रों के मुताबिक कुछ ऋषि किसी श्राप के कारण भी मृत्युलोक मे जन्म लेते हैं, कर्मफल भुगतने के लिए। जो ऋषि मृत्युलोक में भौतिक शरीर धारण करते हैं उनके तुरीयावस्था में चले जाने का उल्लेख भी योगशास्त्र की पुस्तकों में मिलता है। उसके मुताबिक तुरीयावस्था के अनुभव देवलोक के अनुभव माने जाते हैं। जैसे, अमुक ऋषि स्वर्गलोक पहुंच गए, वहां विष्णुजी से उनका साक्षात्कार हुआ, फिर लक्ष्मीजी या शिवजी से साक्षात्कार हुआ आदि आदि। कृष्णदत्त जी भी अक्सर ऐसी ही बातें किया करते थे।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अब शरीर त्याग चुके हैं। उनके अनुयायी उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मानते हुए उनके संदेशों को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते रहते हैं। श्रृंगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान कृष्णदत्त जी महाराज की रिकार्ड की गई बातों को पुस्तकाकार देकर उनके संदेशों को प्रचारित करता है। डॉ कृष्णावतार और उनके सहयोगी पूरी तल्लीनता से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। पर कृष्णदत्त जी महाराज की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्ति को आधुनिक विज्ञान के लिहाज से सही-सही परिभाषित किया जाना बाकी है। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस के साथ उसकी कार्य-प्रणाली पर हुए शोधों से चेतना की कई परतें खुली हैं। सेक्रल प्लेक्सस तंत्रिका तंतुओं यानी नर्वस सिस्टम का नेटवर्क होता है, जो शरीर के निचले अंगों पेल्विस और लोअर लिंब को त्वचा और मांसपेशियों की आपूर्ति करता है। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस का एक दूसरे सें गहरा नाता है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि चेतना की उपस्थिति और इससे जुड़े अन्य मामलों में थैलेमस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अब तक मानव चेतना के विस्तार संबंधी जो सूत्र मिल रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लगता है कि भविष्य में चेतना के किसी खास स्तर पर कृष्णदत्त जी की खास अवस्था प्राप्त कर लेने के रहस्यों का भेद मिल ही जाएगा।

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वैसे, कुछ घटनाओं और शरीर के चक्रो की यौगिक विवेचना से प्रतीत होता है कि शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के खास तरीके से प्रवाहित होने से कृष्णदत्त जी की चेतना पूर्व जन्मों की चेतना के साथ समस्वरित हो जाती रही होगी। योगशास्त्र के मुताबिक, शरीर के मुख्य सात चक्रों में स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण वीडियो कैमरे की तरह होता है, जो जन्म-जन्मांतर की बातों को संग्रहित करके रखता है। गणित के विद्वान श्रीनिवास रामानुजन के बारे में कौन नहीं जानता। उनसे पूछा गया कि सवाल करो नहीं कि जबाव जाहिर। यह चमत्कार कैसे होता है? उनका उत्तर था – “मैं नहीं जानता। तुम मुझसे प्रश्न करते हो तो कहीं नीचे से उत्तर आता है, सिर से नहीं।” उनके इस उत्तर से भी स्वाधिष्ठान चक्र का ही संकेत मिलता है। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान शरीर में रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोड़ पर स्थित है। इसका संबंध सेक्रल प्लेक्सस से है, जो अचेतन मन को नियंत्रित करता है।

आज्ञा चक्र को शिव का नेत्र या तीसरी आंख भी कहा जाता है। यह अतीन्द्रिय अनुभूतियों का स्थान है, जहां व्यक्ति में उसके संस्कार और मानसिक प्रवृत्तियों के अनुसार अनेकानेक सिद्धियां प्रकट होती हैं। दरअसल, यह चक्र मुख्य रूप से मन का चक्र है, जो चेतना की उच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके जागृत होने से स्वाधिस्थान चक्र की संग्रहित बातों को प्रकट करना संभव हो पाता है। यह चक्र रीढ़ की हड्डी के ऊपर और भ्रूमध्य के ठीक पीछे होता है। इसका संबंध पीनियल ग्रंथि से है। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण काम शरीर की पेशियों और काम-प्रवृत्ति को नियंत्रित करना भी है। योग साधाना में इसका बड़ा महत्व है। इतिहास गवाह है कि अनेक संत जागृत चक्रों के साथ जन्मे। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी का मामला केवल चक्रों के जागरण तक सीमित नहीं है। कई गूढ़ बातें और भी हैं, जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर परिभाषित किया जाना बाकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

इस शताब्दी का विज्ञान है भक्ति मार्ग

यह भक्ति की शताब्दी है। भक्ति भावना और भक्ति योग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका में होंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे। आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत और 20वीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को ब्रह्मलीन होने से पहले ऐसी झलक मिली थी। उन्होंने दावे के साथ कहा था कि ऐसा हो कर रहेगा और यह विध्वंस की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए शुभ है। उनके संन्यास दिवस (12 सितंबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

“अचानक मुझे नई शताब्दी की घटनाओं की झलक मिली है। इस शताब्दी में योग नेपथ्य में चला जाएगा, भक्ति की भूमिका प्रधान होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में।“ योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाले 20वीं सदी को महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती कोई तीन दशक पहले सत्संग करते हुए प्रसंग बदलकर इस बात को इस तरह कहने लगे थे, मानों उन्हें उसी क्षण 21वीं शताब्दी में भक्ति युग के आगमन की झलक मिली हो। मौजूदा समय में उनका भौतिक शरीर नहीं है। पर उनकी बात विविध रूपों में हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के संन्यास के 73 साल पूरे हो गए। उन्हें 12 सितंबर 1947 ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती ने संन्यास दीक्षा दी थी। इससे जुड़ी एक रोचक कहानी है, जो देश के विभाजन से पहले की है। वे अपने गुरू की पुस्तकों के प्रकाशन के सिलसिले में लाहौर में थे। तभी सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। दंगाइयों की ज्यादती से इतने दु:खी हुए कि संन्यास-मार्ग से अलग रास्ता बनाने की इच्छा बलवती हो गई। अपनी इच्छा गुरू को बताई और कहा कि वे कल आश्रम छोड़ देंगे। स्वामी शिवानंद ने बड़े प्यार से समझाया – “तुम जीनियस हो। विशेष प्रयोजन के लिए पैदा हुए हो। वैसे, मैं किसी को रोकता नही। पर तुम अपना जीवन बर्बाद न करो। कल तुम संन्यास ग्रहण करने वाले हो।“ वे  गुरू के शक्तिशाली शब्दों से निरूत्तर हो गए और अगले दिन यानी 12 सिंतबर को उनका पुनर्जन्म हो गया। धर्मेंद्र सिहं तयाल से स्वामी सत्यानंद सरस्वती बन गए थे।    

इस महान संत को सत्तर के दशक में योग को लेकर भी ऐसी ही झलक मिली थी। तब उन्होंने कहा था – “आने वाला समय योग का है। योग भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की संस्कृति बनेगा। प्राचीन काल में योग को जैसी वैश्विक मान्यता थी, वैसी ही मान्यता फिर मिलेगी। फर्क इतना होगा कि इस बार आधुनिक विज्ञान लोगों को आश्वस्त करेगा। वह बताएगा कि योग का वैज्ञानिक आधार है और उससे मानव का कल्याण संभव है।“ हम सब देख रहे हैं कि 21वीं सदी प्रारंभ होते-होते दुनिया भर में योग छा चुका है। वैज्ञानिक अनुसंधान का बड़ा विषय़ बना हुआ है। दुनिया का कोई भी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय या वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान नहीं बचा है, जहां योग की वैज्ञानिकता पर तरह-तरह के परिणाम हासिल करने की कवायदें नहीं की जा रही हैं। अब भक्ति योग के रूप में भक्ति काल मुहाने पर खड़ा दिख रहा है। वैज्ञानिक श्रीमद्भगवतगीता के मनोविज्ञान पर अध्ययन कर रहे हैं तो मंत्रों और संकीर्तन की वैज्ञानिकता पर भी अनुसंधान कर रहे हैं। शुरूआती नतीजे उत्साहजनक होने के कारण अनुसंधान का फलक व्यापक होता जा रहा है।

दीक्षा लेने से पहले स्वामी सत्यानंद  कॉन्वेंट स्कूल  के विद्यार्थी थे। एक दिन स्कूल जाते हुए निर्जन स्थान पर सड़क किनारे दिगंबर वेश में बैठी एक महिला ने उन्हें आवाज दी, ऐ लड़के इधर आ। फिर ग्लास देते हुए कहा, इसमें दूध ला दे। उसकी वाणी में इतनी ताकत थी कि स्वामी सत्यानंद कॉलेज जाने के बदले दूध लेकर आ गए। उस महिला को थोड़ी बात से समझ में आ गई कि लड़का आध्यात्मिक है। उसने कहा – देखो, किताबें पढ़ने से कुछ नहीं मिलने वाला, कुछ करेगा? स्वामी सत्यानंद ने कहा – मैं पिता जी से पूछकर बताऊंगा। ठीक है, जा। पर जब वापस आना तो आधी रात को आना और अकेले एवं निहत्था – उस महिला ने यह हुए उन्हें मुक्त कर दिया। स्वामी सत्यानंद ने अपने पिता से सारी बातें बताईं तो उन्होंने हामी भर दी। स्वामी सत्यानंद कहते थे कि साधना के दौरान ऐसी उच्च अनुभूतियां हुईं, जैसी कृष्ण से योशोदा को और आर्जुन को हुई होंगी। वह योगिनी कोई और नहीं, बल्कि जूना अखाड़े की सिद्ध तांत्रिक सुखमन गिरि थीं।

स्वामी सत्यानंद ने श्रीअरविंद का हवाला देते हुए कहा था कि तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। अगली शताब्दी में वैज्ञानिक इस अवरोध को दूर करेंगे। वे विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर भक्ति विज्ञान का गूढार्थ समझाएंगे। वे बताएंगे कि भक्ति मात्र एक दर्शन नहीं है, कोई धर्म नहीं है। भक्ति एक विज्ञान है, ऐसा विज्ञान जो व्यक्ति को आमूल परिवर्तित कर देता है। भक्ति व्यक्ति की विचारधारा को तथा वृत्तियों को रूपांतरित कर देती है। वे संगीत की पुनर्व्याख्या करेंगे और नाद योग की महत्ता प्रतिपादित करेंगे। वे प्रार्थना और संकीर्तन की वैज्ञानिकता समझाएंगे। तब मानव को अपनी ऊर्जा के दिशांतरण का ख्याल आएगा। इसके साथ ही आशांत मन को शांति मिलेगी। दुनिया भर में विध्वंसक गतिविधियों पर लगाम लगेगी।   

स्वामी सत्यानंद को एक दिन अचानक गुरू शिवानंद सरस्वती ने पास बुलाया। हाथ में 108 रूपए दिए, शक्तिपात विधि से क्षण भर में योगशिक्षा दी और कहा, “जाओ सत्यानंद, दुनिया को योग सिखाओ।“ आदेश मिलते ही स्वामी सत्यानंद अपने इष्ट देव के पास त्र्यंबकेश्वर चले गए। वहां ध्यान लगाकर पूछा कि शुरू कहां से करूं? उत्तर में मुंगेर की उत्तरवाहिनी गंगा और उसके किनारे का स्थान दिखा। वे बिना देर किए मुंगेर पहुंचे। फिर परिस्थियां इतनी अनुकूल होती गईं कि जिस स्थान पर बैठकर दानवीर कर्ण सोना दान किया करते थे, उसी स्थान पर बैठकर वे योग विद्या का दान करने लगे थे। यह काम बीस साल तक करते रहे। उसके बाद अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद को कमान सौंप कर चल दिए। फिर मुंगेर की ओर मुड़कर देखा तक नहीं। उनके द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय की पहचान अब दुनिया भर में है।   

प्राचीन काल में भक्ति का आधार आत्मज्ञान था और आम लोग उसे आस्था व विश्वास के रूप में स्वीकारते थे। इस शताब्दी में वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संत बताएंगे कि भक्ति का विज्ञान क्या है, यह मानव पर किस तरह काम करता है और उसकी जरूरत क्यों है। इसका मतलब हुआ कि वह समय भी आएगा, जब वैज्ञानिक अनुसंधान करके पता लगाएंगे कि मीराबाई जहर का प्याला पी गईं और उन पर उसका असर क्यों नहीं हुआ था? ईसा मसीह तीन दिनों तक सूली पर लटके होने के बावजूद जीवित कैसे रह गए थे? तैलंग स्वामी, जिन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था, कड़े पहरे में जेल में होने के बावजूद किस तरह सड़कों पर घूमते-फिरते दिख जाते थे? पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक भक्ति पर अनुसंधान करके बताएंगे कि आस्था, विश्वास और भक्ति का मानव पर किस तरह प्रभाव डालता है? भक्ति मानव मस्तिष्क के विद्युत चुंबकीय तरंगों को किस तरह प्रभावित करती है?  एंजाइमों को किस तरह प्रभावित करती है? उससे हृदयवाहिका तंत्र में किस तरह का बदलाव होता है?  शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे वैज्ञानिक भाषा में किस तरह परिभाषित किया जाए और उसे कौन-सा नाम दिया जाए? वैज्ञानिक अपने अनुसंधान का दायरा अब पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि तक ही सीमिति नहीं रखेंगे।

स्वामी सत्यानंद ने योग शास्त्रों की कई योग पद्धतियों का आधुनिक युग के लिहाज से सरलीकरण करके प्रस्तुत किया। उनके मानव पर होने वाले प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया। इसके लिए विश्व के नामचीन चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों का सहयोग लिया। फिर अपने ही संस्थान में योग अनुसंधान केंद्र स्थापित किया। वे चाहते थे योग विद्या इतनी उन्नत हो कि विद्यार्थियों को योग के शास्त्रीय ज्ञान से लेकर उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तक पता रहे। उन्हें पता रहे कि योग का सिंधु घाटी की समभ्यता से क्या संबंध है, योग का कश्मीर के शैव दर्शन से क्या संबंध है, योग में हठयोग कैसे आया, वेद व उपनिषदों में योग कहां-कहां है आदि आदि। इसलिए वैज्ञानिक आधार पर उच्च कोटि का साहित्य सृजन किया तो समन्वित योग की शिक्षा देने की व्यवस्था की। इसका असर हुआ कि दुनिया के अनेक देशों में यह शिक्षा-पद्धति लोकप्रिय हो गई।    

वैदिक काल के वैज्ञानिकों यानी हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था कि सृष्टि में छोटे अणु से लेकर विशाल आकाशगंगा तक सभी कुछ एक परमात्मा में व्याप्त है। उन्होंने इसे संस्कृत में ऐसे कहा – “अणोरणियाम् महतो महीयान्।“ वेद व्यास से लेकर महर्षि वाल्मिकी तक और उनके बाद के संत भी देश-काल को ध्यान में रखकर वेद और उपनिषदों की इस बात को समझाते रहे। वे बताते थे कि मानव के अस्तित्व के अलावा भी ब्रह्मांड में अन्य कोई अस्तित्व है, जिसका स्वरूप दिव्य है। आत्म-ज्ञानी संतों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि मनुष्य ही ब्रह्मांड की प्रतिमूर्ति है। जो बाहर है, वह भीतर भी है। आधुनिक काल में भी हम इसे अद्वैत वेदांत कहते हैं। तभी निष्कर्ष निकाला गया कि चेतना का विस्तार करके पारलौकिक चीजों से साक्षात्कार संभव है। पर तर्क की दुनिया में जीने वाले बुद्धिजीवियों को यह बात तब समझ में आई, जब अल्बर्ट आइंस्टाइन ने इसे युनिफाइड फील्ड थीयरी के रूप में परिभाषित कर दिया। इस थीयरी की मान्यता है कि ब्रह्मांड में सृष्टि का हर पदार्थ अदृश्य माध्यम के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ा है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का अंतिम सत्संग

आइंस्टाइन ने कहा था – “आंखों से दिखने वाली यह पृथकता केवल भ्रम है। असलियत में इस ब्रह्मांड में स्थित हम सभी एक ही हैं। बस, हमें अपनी अनुकंपा की सीमाओं को इतना बढ़ाना होगा कि हम सारे विश्व को अपने दायरे में समां लें।“ स्वामी सत्यानंद कहते थे कि यह अजीब बात है कि जब आइस्टाइन कहते हैं E = mc2 तो उसे परखने की जरूरत महसूस नहीं होती। यदि शास्त्रसम्मत बातें हों तो कई सवाल खड़े किए जाते हैं। पर समय बदल रहा है। इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब वैज्ञानिक भी खुले तौर पर कहेंगे कि इस विश्व और आकाश गंगा में हर जीव-जंतु जिस अदृश्य शक्ति से आपस में जुड़े हैं, वही तो परमात्मा है।   

स्वामी सत्यानंद कहते थे – “मैं विश्वास दिलाता हूं कि योग की आध्यात्मिकता को बरकरार रखूंगा। मुझे मालूम है कि किसी भी संस्था को चलाने के लिए धन की जरूरत होती है। पर यदि योग की संस्थाएं व्यापार करना शुरू करेंगी तो आध्यात्मिक ऊर्जा का पलायन हो जाएगा।“ उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ। उनकी संस्था बिहार योग विद्यालय के बीते लगभग साठ वर्षों के इतिहास पर गौर करें तो कहना होगा कि इसने न केवल आध्यात्मिक योग की परंपरा को कायम रखा, बल्कि भारतीय ऋषि परंपरा, वैदिक जीवन शैली और योग की सनातन संस्कृति को भी कायम रखा।

नई शताब्दी में बच्चे सवाल करेंगे कि आत्मा क्या है और उसका स्थान कहां है? वे ऐसा सवाल करके संन्यास की बात नहीं, बल्कि विज्ञान की बात कर रहे होंगे। उन्हें थोड़ा सरल तरीके से और थोड़ा विस्तार से बताना होगा कि भगवान बुद्ध और ईसामसीह से लेकर सुकरात, अरस्तू व प्लेटो तक की मान्यता थी कि प्रत्येक वस्तु चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य, शक्ति या ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। आधुनिक युग में वैज्ञानिक अणु, परमाणु, इलेक्टॉन, प्रोटॉन आदि की चर्चा करते हैं। बात एक ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सजीव या निर्जीव पदार्थ, चल या अचल, दृश्य या अदृश्य ऊर्जा कणों का समिश्रण हैं। सभी वस्तुओं व जीवों का मूल स्रोत एक ही है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि आत्मा सर्वव्यापक है। किसी ने स्वामी सत्यानंद से पूछा था – आत्मा कहां होती है? इसके जबाव में वे कई सवाल करते गए और खुद ही जबाव भी देते गए थे। मसलन, दूध में मक्खन कहां है? सब जगह। काठ में आग कहा है? सब जगह। बीज में वृक्ष कहां है? सब जगह। उसी तरह सृष्टि में आत्मा कहा है? सब जगह।

भक्तियोग में सेवा, प्रेम और दान आंतरिक शुद्धता के लिए अनिवार्य हैं। स्वामी सत्यानंद के जीवन में यह क्रम प्रत्यक्ष रूप से दिखता रहा। वे योग के कार्यों को पूरा करने के बाद देवघर जिले के निहायत ही पिछड़े गांव में साधना कर रहे थे तो उन्हें अंतर्रात्मा की आवाज सुनाई पड़ी थी – “सत्यानंद, मैंने जो सुविधा तुम्हें प्रदान की है, वही सुविधा तुम अपने पड़ोसियों को प्रदान करो।“  स्वामी जी मुंगेर से तो खाली हाथ निकल गए थे। पर उन्हें जैसा आदेश मिला और उन्होंने जैसा चाहा, वैसा होता गया। नतीजतन, आज देवघर जिले में रिखिया पंचायत और आसपास के इलाकों के लोगों का जीवन बदल चुका है। आश्रम की ओर से लगभग 80 हजार लोगों को जीने के सारे साधन उपलब्ध कराए जाते हैं।

इसी तरह बच्चे परमात्मा को लेकर भी सवाल करेंगे। उन्हें बताना होगा कि प्रत्येक घटना ब्रह्मांडीय चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसे लीला भी कहा जाता है। पर चेतना का बोध मनुष्य को ही हो पाता है। तभी उसके मन में सवाल आता रहा कि मैं कैसे जान जाता हूं कि यह अमुक वस्तु है? रात में मृतावस्था में होने के बावजूद जब नींद खुलती है तो कैसे पता चलता है कि मैं वही आदमी हूं? अनुसंधान करके पता लगाया गया कि इसकी वजह चेतन मन की सजगता है। फिर सवाल उठा कि यह सजगता क्या है और यह कैसे हासिल होती है? पता चला कि चेतना के पार भी कुछ है, जो हर व्यक्ति में विराजमान है। उसी की आंशिक अभिव्यक्ति है सजगता। योगियो और आत्मज्ञानियों ने योगबल व भक्ति की बदौलत चेतना के पार तक पहुंच बनाई। उन्होंने उसे परमचेतना मानते हुए व्यवस्था दी कि वही परमात्मा है। अब आधुनिक युग के वैज्ञानिक परमचेतना की गुत्थियां सुलझाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। भक्ति युग में इसी परमात्मा से साक्षात्कार की बात है, जो सुख-शांति देने में सहायक है।   

योग ने मनुष्य को भौतिकता से उठाकर आध्यात्मिकता में ला दिया है। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध ये सभी भौतिकतावादी मानव को वापस भक्ति के मार्ग में लाने के साधन थे। यदि योग आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ न हुआ होता तो मनुष्य आध्यात्मिकता की तरफ न बढ़ा होता। योग निमित्त बना है। कह सकते हैं कि योग छोटा भाई है और भक्ति बड़ी बहन है। भक्ति हमारा नैसर्गिक गुण है। केवल उसकी सजगता को विकसित करना है। भक्ति से उत्पन्न शक्ति का दिशांतरण कर दो। उसे परमात्मा में लगा दो। मन पर नियंत्रण हो जाएगा। इसके साथ ही नाना प्रकार की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। जीवन सुगम होगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती  

भारतीय संतों को तो शुरू से ही इस बात का भान था कि विभिन्न राजनैतिक कारणों से विलुप्त होती संस्कृति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। शायद यही वजह है कि स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद व स्वामी शिवानंद सरस्वती जैसे न जाने कितने ही संतो ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके अध्यात्म को जिंदा रखा। कुछ अन्य वजहों से भी आध्यात्मिक उत्थान के अभियान को बल मिला। जैसे, पॉल ब्रंटन “गुप्त भारत की खोज” करते हुए भारतीय संतों से इस तरह प्रभावित हुए कि आए थे पत्रकार के रूप में और अपने देश अमेरिका लौटे रमण महर्षि के शिष्य के रूप में। देश की आजादी से पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायधीश रहे सर जॉन वुडरफ भारतीय तंत्र विद्या से इतने प्रभावित हुए थे कि नौकरी छोड़कर तंत्र साधना करने लगे थे। बाद में योग व तंत्र-शास्त्र पर कई किताबें लिख दी। उनमें “द सर्पेंट पावर” बेहद चर्चित है। इन पुस्तकों से पश्चिमी जगत के लोगों को योग और अध्यात्म को लेकर बड़ी आश्वस्ति मिली थी।

आधुनिक युग में तेजी से लोप होती गुरू-शिष्य परंपरा के बीच स्वामी शिवानंद सरस्वती से शुरू होकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से आगे बढ़ती गुरू-शिष्य परंपरा अविस्मरणीय है। इस वजह से योग और अध्यात्म का ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला आज कायम है। अब न स्वामी शिवानंद हैं और न ही स्वामी सत्यानंद। पर उनकी ऊर्जा से योग का प्रकाश पूरी दुनिया में फैल रहा है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बिहार योग – सत्यानंद योग की परंपरा को और भी विस्तार देकर जनमानस को जीवन की नई दिशा देने में तल्लीन हैं।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि अब बहुत हो गया। हम जितना प्रयोग कर रहे हैं, दुनिया उसका उपयोग अपने विनाश के लिए कर रही है। मानव उनको विकृत कर रहे हैं, उनका दुरूपयोग कर रहे हैं। यह भोग की अतिशयता है। विकसित देशों के लोगों को भी थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है कि भोगवाद में सिवाय अशांति के कुछ हाथ नहीं लगा। पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं। यह भक्ति युग के आगमन की आहट ही तो है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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