अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हृदय रोग से मुक्त रखता है उष्ट्रासन

किशोर कुमार

इस बार बात उष्ट्रासन की। हम जानते हैं कि योगासन कमर-तोड़ मेहनत या कसरत नहीं, बल्कि प्राण-शक्ति के उचित वहन और अभिसरण के साथ सात्विक कर्म की तरह अभ्यास किया जाए तो स्वास्थ्य, शांति, मनोबल और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। जिस तरह कर्म के तीन आधार होते हैं – मन वचन और शरीर, उसी तरह इसकी श्रेणियां होती हैं। यथा, सात्विक राजसिक और तामसिक। त्रिगुण कर्म की व्यवस्था और व्याख्या श्रीमद्भगवतगीता में सुंदर तरीके से की गई है। रावण, कुंभकर्ण और विभीषण का प्रसंग तो हम सब जानते ही हैं। तीनों ने घोर तपस्या की थी, योगसाधना की थी। पर रावण का तप राजसिक, कुंभकर्ण का तप तामसिक और विभीषण का तप सात्विक था। परिणाम यह हुआ कि रावण की वासनाएं असीमित थी। कुंभकर्ण नींद में ही रहता था, जबकि विभीषण अपनी सात्विक तपस्या की बदौलत श्रीराम का स्नेह पाने में सफल हो गया था।

उष्ट्रासन ऐसा योगासन है, जिसका अभ्यास सात्विक गुणों का विकास करके किया जाए तो अनाहत चक्र के जागरण में बड़ी मदद मिलती है। अनाहत चक्र भक्ति का केंद्र है। इसे अजपा जप द्वारा आसानी से जागृत किया जाता है। पर उष्ट्रासन अपजा के पहले उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। गुरूजनों का अनुभव है कि अनाहत चक्र में चेतना का स्तर उठते ही योग साधक प्रारब्ध के सहारे नहीं, बल्कि अपनी इच्छानुसार जीवन जीने में सक्षम हो जाता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अनाहत का संबंध हृदय से है, जो आजीवन लयबद्ध तरीके से स्पंदित और तरंगित होता रहता है। जब तक चेतना अनाहत के नीचे के चक्रों में केंद्रित होती है, तब तक व्यक्ति भाग्यवादी बना रहता है। प्रारब्ध की बदौलत उसके जीवन की गाड़ी बढ़ती रहती है। पर जब चेतना मणिपुर चक्र से होकर आगे बढ़ जाती है तो व्यक्ति जीवन की कुछ परिस्थितियों का सामना करने में पूरी तरह सक्षम हो जाता है। उसमें बहुत हद तक प्रारब्ध बदलने तक की क्षमता विकसित हो जाती है।   

उपरोक्त तथ्यों से उष्ट्रासन की महत्ता का पता चलता है। यानी यह योगासन शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से तो मुक्ति तो दिलाता ही है, आध्यात्मिक विकास में इसकी बड़ी भूमिका है। श्रीश्री रविशंकर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इस योगासन के लाभ बताते हुए कहते है कि इसके अभ्यास से पाचन शक्ति बढ़ती है। फेफड़ा स्वस्थ्य व मज़बूत बनाता है। पीठ व कंधों को मजबूती मिलती है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द से छुटकारा मिलता है। रीढ़ की हड्डी में लचीलेपन एवं मुद्रा में सुधार आता है और मासिक धर्म की परेशानी से राहत मिलती है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती दावे के साथ कहते हैं कि कोई स्वस्थ्य व्यक्ति इस आसन को नियमपूर्वक करता रहे तो उसे जीवन में कभी हृदय रोग होगा ही नहीं। इस लिहाज से हृदय रोगियों के लिए भी यह बेहद उपयोगी आसन है। ऐसा इसलिए कि योगाभ्यासी जब यह आसन करते हुए पीछे की ओर झुकता है और हाथों को पीछे ले जाकर दोनों पैरों के सहारे टिकाता है तो हृदय से निकलने वाली सभी रक्त वाहिकाओं का विस्तार होता है। नतीजतन, चर्बी की मात्रा बढ़ जाने से जिनकी धमनियां अवरूद्ध हो चुकी हैं और वे इस वजह से नाना प्रकार की समस्याएँ झेल रहे है, उन्हें उष्ट्रासन से काफी लाभ होता है।

घेरंड संहिता में बतलाए गए कुल 32 आसनों में उष्ट्रासन का महत्वपूर्ण स्थान है। महर्षि घेरंड ने उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है – अधोमुख लेटें और दोनों पांवों को पलटकर पीठ पर टिका ले। पांवों को हाथों से पकड़कर मुख और पांवों से दृढ़तापूर्वक सिकोड़ लें। यह उष्ट्रासन कहलाता है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक “आसन प्राणायाम मुद्रा बंध” में बतलाया गया है कि यह आसन पाचन और प्रजनन प्रणालियों के लिए लाभदायक है। आमाशय और आंतों में खिंचाव पैदा करके कब्ज दूर करता है। पीठ का पीछे झुकना कशेरूकाओं को लोच प्रदान करता है और मेरूदंड, झुके कंधे और कुबड़ेपन में लाभ दिलाता है। शरीर की आकृति में सुधार आता है। गर्दन का अग्रभाग पूरा खिंच जाता है, जिससे उस क्षेत्र के अंगों को शक्ति मिलती है र थाइराइड ग्रंथि नियंत्रित होती है। दमा से पीड़ित रोगी को इससे लाभ होता है।

घेरंड संहिता के भाष्य में परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि अभ्यासी श्वास रोककर सिर पीछे ले जाते हैं तो मस्तिष्क में खून का दबाव अधिक होने से कई बार चक्कर आने लगता है। ऐसे में सिर को सीधा ही रखना चाहिए और अभ्यासक्रम में कुछ दिनों बाद उसे पीछे ले जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि आसन करते समय सामान्य श्वास ही लिया जाना चाहिए। गहरी श्वास लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसिलए कि छाती पहले से ही पूरी तरह फैली हुई होती है। आमाशय, गले, मेरूदंड औऱ सामान्य श्वास के प्रति सजग रहकर स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान एकाग्र किया जाना चाहिए। हर योग साधना की तरह इसमें भी कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी जाती है। मसलन, उष्ट्रासन करके खड़े होते समय एड़ियों के बीच कमर की चौड़ाई जितनी दूरी होनी चाहिए। उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों को यह योगाभ्यास या तो नहीं करना चाहिए या फिर उचित मार्ग-दर्शन लेना चाहिए।   

कुछ समय पहले पुणे स्थित भारतीय विद्यापीठ के आयुर्वेदिक कालेज और श्रीगंगानगर आर्युवेदिक कालेज के शोधार्थियों ने कमर के निचले हिस्से के दर्द और गर्दन दर्द में उष्ट्रासन के प्रभावों का अध्ययन किया था। उसके मुताबिक, 26.67 फीसदी व्यक्तियों ने चिह्नित प्रतिक्रिया दिखाई, 36.67 फीसदी ने मध्यम प्रतिक्रिया दिखाई और 36.66 फीसदी ने हल्की प्रतिक्रिया दिखाई। अलग-अलग प्रभावों की वजहें थीं। पर इतना तय हुआ कि उष्ट्रासन इन बीमारियों में अपना असर दिखाता है।

प्रसिद्ध योगाचार्य और आयंगार योग के जनक बीकेएस आयंगार सात्विक योग साधना पर बहुत जोर देते थे। वे कहते थे कि योगासनों की साधना का भी सात्विक होना आवश्यक है। स्वास्थ्य, शांति और तीव्र बुद्धि की प्राप्ति के लिए विशुद्ध हेतु से किया गया आसन-तपस अंतर्रात्मा से मिलने के लिए है। इस धारणा को मन में रखने पर मार्ग आसान और सुस्पष्ट हो जाता है। उष्ट्रासन के मामले में भी यही बात लागू है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

बिहार योग : ऐसे फैलती है सुगंधित पुष्प की खुशबू

सुगंधित पुष्प अपना प्रचार खुद करता है। यह शाश्वत सत्य बिहार योग या सत्यानंद योग के मामले में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। बिहार योग चार महीनों के भीतर दूसरी बार चर्चा में है। पहले योगनिद्रा के कारण चर्चा में था। अब यौगिक कैप्सूल और गुरूकुल शिक्षा पद्धति को लेकर चर्चा में है। दोनों ही बार चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। वैसे तो बिहार योग की उपस्थिति एक सौ से ज्यादा देशों में है और जर्मनी में योग शिक्षा का आधार ही बिहार योग है। पर अपने देश में चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती रही।  परिस्थितियां बदलीं तो बिहार के सुदूरवर्ती मुंगेर जिले में उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर खिले योग रूपी फूल की खुशबू का अहसास सहज ही हुआ। उसी का नतीजा है कि बीते साल बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान का प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला तो इसके एक साल पहले यानी सन् 2017 में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। यही नहीं, केंद्र सरकार देश में योग के संवर्द्धन के लिए जिन चार योग संस्थानों की सहायता ले रही है, उनमें बिहार योग विद्यालय भी है।        

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आधुनिक युग के जरूरतों को ध्यान में रखकर बिहार योग या सत्यानंद योग पद्धति से तैयार योग कैप्सूल में क्या खास दिखा कि वे खुद उसके दीवाने हुए और उसके बारे में देशवासी भी जानें, इसकी जरूरत समझी? इस सवाल पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले योग की परंपरा और आध्यात्मिक चेतना के विकास से सबंधित कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके जरिए “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर देशवासियों के बीच बड़ा संदेश गया।

प्रधानमंत्री के खुद का जीवन योगमय है और योग को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पुनर्स्थापित करने में उनका योगदान सर्वविदित है। उन्होंने “फिट इंडिया मूवमेंट” के कार्यक्रम में चर्चा के लिए फिटनेस की दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया तो गुरूकुल परंपरा वाले संस्थान के संन्यासी से बात करना न भूले। उन्होंने इसके लिए स्वामी शिवध्यानम सरस्वती के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया, जो योग की गौरवशाली परंपरा वाले संस्थान बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के शिष्य हैं और जिन्होंने आईआईटी, दिल्ली जैसे संस्थान से उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद चेतना के उच्चतर विकास के लिए अलग मार्ग चुन लिया था। प्रधानमंत्री का यह कदम कोई अकारण नहीं रहा होगा। नई शिक्षा नीति में कई मामलों में गुरूकुल परंपरा की झलक दिखाई गई है। वे युवापीढ़ी को जरूर यह बताना चाहते होंगे कि गुरूकुल परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या का प्रभाव कैसा होता है।

स्वामी शिवध्यानम सरस्वती ने प्रधानमंत्री के सवालों का जबाव देते हुए स्वामी शिवानंद सरस्वती की गुरू-शिष्य परंपरा और बिहार योग परंपरा का वर्णन इस तरह किया कि नवीन और प्राचीन गुरूकुल परंपरा में एकरूपता की झांकी प्रस्तुत हो गई। अनेक लोगों को हैरानी हुई होगी कि आधुनिक जमाने में भी ऐसा गुरूकुल है। स्वामी शिवध्यानम उन्नत गुरू-शिष्य परंपरा के न होतें तो उनके पास एक मौका था कि प्रधानमंत्री के समाने खुले मंच पर अपनी पीठ खुद थपथपा सकते थे। पर गुरूकुल योग विद्या का असर देखिए कि उन्होंने अपनी योग परंपरा के तीन मुख्य संतों स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के आदर्शों की चर्चा करते हुए आश्रम के अपने अनुभव को इस तरह साझा किया कि आदर्श गुरू-शिष्य परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या को लेकर नईपीढी के बीच सकारात्मक संदेश गया। 

बिहार योग-सत्यानंद योग एक ऐसी परंपरा है, जिसमें शास्त्रीय और अनुभवात्मक ज्ञान और आधुनिक दृष्टिकोण का समन्वय है। इसमें योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। तमिलनाडु में जन्मे और पेशे से चिकित्सक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सत्यानंद सरस्वती जैसे शिष्य को आगे करके योग विद्या की ऐसी गंगा-जमुनी बहाई कि आज दुनिया के लोग उसमें डुबकी लगाकर आनंदमय जीवन जी रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के बाद स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस महायज्ञ को आगे बढ़ा रहे हैं।  

अब योग कैप्सूल की बात। विश्वव्यापी कोरोना वायरस का तांडव अपने देश में भी शुरू हुआ तो केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार करवाए थे। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान ने 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए, नवयुवतियों के लिए, गर्भवती महिलाओँ के लिए, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए औऱ चालीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किए। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक जमाने के लोगों की जीवन-पद्धति और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कई साल पहले कुछ योग विधियां बतलाई थी, जिसके समन्वित रूप को योग कैप्सूल कहा था। प्रधानमंत्री को स्वामी निरंजन का योग कैप्सूल भा गया। शायद इसकी मुख्य वजह इसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान और योगनिद्रा का समावेश होना है, जिनके कारण शारीरिक व मानसिक बीमारियां दूर ही रहती हैं। 

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के योग कैप्सूल कुछ इस तरह है – सुबह उठते ही महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र ग्यारह बार पाठ और दुर्गाजी के बत्तीस नामों का तीन बार पाठ। पहला मंत्र शारीरिक व मानसिक आरोग्य के लिए, दूसरा जीवन में बौद्धिक व भावनात्मक प्रतिभा की जागृति के लिए और तीसरा मंत्र जीवन से क्लेश व दु:ख की निवृत्ति एवं संयम व समरसता की प्राप्ति के लिए है। दैनिक चर्या के बाद पांच आसनों यथा तड़ासन, तिर्यक तड़ासन, कटि चक्रासन, सूर्य नमस्कार और सर्वांगासन का अभ्यास। इसके बाद नाड़ी शोधन और भ्रामरी प्राणायामों का अभ्यास। शाम को काम-काज से निवृत्त होने के बाद योगनिद्रा और रात को सोने से पहले दस मिनट मन को एकाग्र करने के लिए धारणा का अभ्यास। इसे ध्यान भी कहा जा सकता है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “स्वामी निरंजन का व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है और वह आज की पीढ़ी के अनुरूप सोच सकते हैं।” स्वामी निरंजन अपने गुरू की कसौटी पर खरे उतरे। उनका यौगिक कैप्सूल योग साधना की एक ऐसी पद्धति है, जिसे अपनाने वाले अपने जीवन में बदलाव स्पष्ट रूप से देखने लगे हैं। देश-विदेश के लाखों लोग इस पद्धति को अपना कर निरोगी जीवन जी रहे हैं। योग विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है। बाइबिल का प्रथम वाक्य है – “आरंभ में केवल शब्द था और वह शब्द ही ईश्वर था।“ भारतीय दर्शन के मुताबिक वह शब्द कुछ और नहीं, बल्कि “ॐ” था। ॐ मंत्र तीन ध्वनियों से मिलकर बना है – अ, उ और म। इनमें प्रत्येक ध्वनि के स्पंदन की आवृत्ति अलग-अलग होती है, जिससे चेतना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ॐ नमः शिवाय कई नादो का समुच्य है। गायत्र मंत्र में चौबीस ध्वनियां हैं। मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। इसकी सहायता से अपनी बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर पुन: चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है।  

अनेक लोग किसी देवी-देवता को स्मरण करके मंत्रों का जप करते हैं। पर विदेशी लोग जब इन्हीं मंत्रों के जप करते हैं तो उनके मन में तो हमारे किसी देवी-देवता का रूप नहीं होता। फिर भी वे लाभान्वित होते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि मंत्रों की साधना करते वक्त किसी भी विषय़ पर मन को एकाग्र करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। मन को खुलकर अभिव्यक्त होने देना चाहिए। मंत्र विज्ञान प्राचीन काल से विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से प्रयोग में था। इस विज्ञान की ओर अधुनिक विज्ञानियों की नजर गई है और इसका पुनरूत्थान किया जा रहा है। उन्हें पता चल गया है कि मंत्रों की शक्ति से ही प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित किया जा सकता है। आने वाले समय में मंत्रों का उपयोग एक वैज्ञानिक उपकरण के रूप में उसी तरह होगा, जिस तरह मौजूदा समय में लेजर या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का उपयोग प्रकृति के गहनतर आयामों को जानने के लिए किया जाता है।  

जहां तक योगनिद्रा की बात है तो प्रत्याहार की शक्तिशाली और मौजूदा समय में प्रचलित विधि स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देन है। उन्होंने तंत्रशास्त्र से इस विद्या को हासिल करके इतना सरल, किन्तु असरदार बनाया कि आज दुनिया भर में इसका उपयोग मानसिक बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों तक के उपचार में हो रहा है। दरअसल यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति का एक व्यवस्थित तरीका है। गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है। मन की सजगता और शिथिलीकरण के लिए यह अचूक विधि मानी जाती है।

अब योग विधियों को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और उनके नतीजों की बात। बिहार योग विद्यालय ने स्पेन के बार्सिलोना स्थित अस्पताल में शल्य चिकित्सा कराने पहुंचे तनावग्रस्त मरीजों पर मंत्र के प्रभावों पर शोध किया। ऐसे सभी मरीजों को एक कमरे में बैठाकर बार-बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करने को कहा गया था। ईईजी और अन्य चिकित्सा उपकरणों के जरिए देखा गया कि मंत्रोचारण से भय, घबराहट और चंचलता के लिए जिम्मेदार बीटा तरंगें कम होती गईं औऱ अल्फा तरंगों की वृद्धि होती गई। स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है।

अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योगनिद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योगनिद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योगनिद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रेडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोंटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी का जीनव-काल योगनिद्रा के अभ्यास से काफी बढ़ गया था।

इन दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि आधुनिक युग में योग कैप्सूल को जीवन-पद्धति में शामिल किया जाना कितना लाभप्रद है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री चाहते हैं लोग योग कैप्सूल को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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