महर्षि अरविंद : स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी

किशोर कुमार //

श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही पलायनवादी कैसे हो गए? अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में क्यों बैठ गए? एक सच्चा योगी के लिए इस तरह पलायन उचित है? आपने तो श्रीमद्भगवतगीता का सुंदर भाष्य लिखा है। क्या आपको स्मरण नहीं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पलायन न करने की शिक्षा दी थी? क्या आपको लगता हैं कि अब करने के लिए कुछ नहीं बचा? श्री अरविंद ने जवाब में बस इतना ही कहा था, “मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है।“

इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद देश के हालात बदले, परिस्थितियां बदलीं। देश आजाद हुआ और वह अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। दूसरी तरफ श्री अरविंद की 150वीं जयंती पर देश भर में न जाने कितने ही आयोजन हुए। स्वतंत्रता संग्राम और योग व अध्यात्म के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया गया। समय का पहिया घूमता गया और अब हम फिर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस और श्री अरविंद की जयंती मनाने के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी के मन में सहज सवाल हो सकता है कि श्री अरविंद ने ऐसा क्या किया था जो स्वाधीनता संग्राम में उनकी सीधी भागीदारी से बढ़कर था? वैसे, आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही सवाल करेंगी और इस पर चिंतन-मनन आध्यात्मिक आंदोलन को गति देकर प्रकारांतर से देश की सेवा करना होगा।

ओशो जब अपने शिष्यों को बता रहे थे कि धर्म और अध्यात्म से किस तरह राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, तो किसी शिष्य ने श्री अरविंद को लेकर सवाल कर दिया। वही सवाल पूछा जो हर पीढ़ी के लिए नया सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। ओशो प्रत्युत्तर में कहा था कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे। भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसके बारे में कोई लिखता भी नहीं।

सच है कि महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य स्थूल प्रयासों के पीछे सूक्ष्म प्रयास भी कार्यरत था। महर्षि अरविंद के योगदान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसलिए कि आत्मिक जागृति व उत्थान के बिना पूर्ण रूप से राष्ट्र की सेवा लगभग असंभव हो जाता है। निःस्वार्थ, सद्भावना और सकारात्मक ऊर्जा रखने वाले जितने भी अग्रणी और महान सेनानियों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि इन सबके पीछे अध्यात्म की शक्ति ही काम कर रही थी। महर्षि अरविंद ने भी अपने आध्यात्मिक बल से स्वतंत्रता संग्राम को प्राणवान बनाया था। स्वयं महर्षि अरविंद ने कहा था कि यह पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा।

जब देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो गया, तो महर्षि अरविंद ने उस दिन संदेश दिया था- ‘…अगस्त 15, 1947, स्वतंत्र भारत का जन्मदिन और दैवीय इच्छा से यह मेरा जन्मदिन भी है। आज देश स्वतंत्र जरूर हुआ है, पर भारतीयों को आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी बाकी है, जो कि भारत की एकता, अखण्डता, पुनरुत्थान और मानव सभ्यता की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। भविष्य में पूरी दुनिया भारत के आध्यात्मिक उपहार से पोषित हो सके तो बड़ी बात होगी। मानव की चेतना के जागरण और उसके आंतरिक विकास से ही सार्वभौमिक विकास संभव है। मैं आशा करता हूँ कि भारत आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा! वन्दे मातरम्।‘

हम जानते हैं कि अपने देश में हजार से ज्यादा वर्षों तक आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे है। पर उनके बीच कोई समन्वय नहीं बन पाया। महर्षि अरविंद कहते थे कि दरअसल, साधु-संतों ने वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति को लक्ष्य मान लिया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का संबंध-विच्छेद कर लिया। इसकी तात्कालिक वजह थी। उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा, जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाए रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा।

पर जब परिस्थितियां बदली, तब तक वे भूल चुके थे कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है। इसलिए अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, इस पूर्णता का प्रयोजन इसमें था कि इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाए तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें। खैर, यह सुखद है कि हमने महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती ऐसे समय में मनाई, जब दुनिया के कोने-कोने में भारतीय योग और अध्यात्म का डंका सुनाई देने लगा था। विभिन्न स्तरों पर विज्ञानसम्मत तरीके से वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। पर चिंताजनक बात यह है कि साधनाओं में योग-समन्वय का घोर अभाव दिखता है। कोई हठयोग में जुटा हुआ है तो जीवन से राजयोग गायब है। यही हाल बाकी योग पद्धतियों के मामलों में भी है। हालात ऐसे ही रहे तो आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हो जाएगी, जिसकी चिंता महर्षि अरविंद सदैव किया करते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सतत यौगिक व आध्यात्मिक साधना की दिव्य ऊर्जा के सूक्ष्म प्रभाव, असंख्य बलिदानों और निष्काम योगदानों से हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। पर इस बाह्य स्वराज से संतुष्ट हो जाने का कोई औचित्य नहीं। आंतरिक स्वराज का स्वप्न अभी अधूरा है और जैसा कि श्री अरविंद कहते थे कि पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा। इसलिए समन्वित योग साधना समय की जरूरत है। इसके बल पर ही भारत दुनिया भर के लिए आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा और यही महर्षि अरविंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नई सदी के योगधर्म की राह दिखता सत्यानंद योग

बिहार योग विद्यालय उस सुगंधित पुष्प की तरह है, जिसकी खुशबू सर्वत्र फैल रही है। उसकी विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इसे पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के महासमाधि दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख।

किशोर कुमार

इस सदी का योग-दर्शन क्या हो? इस सवाल को लेकर भारत ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन से प्रभावित विद्वान दुनिया भर में बहस कर रहे हैं। इस बीच पूरी दुनिया में योग विद्या की दिशा-दशा तय करने के लिए एक बार फिर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय ने राह दिखाई है। इस योग संस्थान के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से सत्यानंद योग परंपरा के अनुरूप अगले पचास वर्षों के लिए योग विद्या का जो लक्ष्य और तदनुरूप उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, वह शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत तो है ही, इस युग की जरूरतों के अनुरूप भी साबित होगा। ठीक वैसे ही, जैसे सत्यानंद योग का यौगिक लक्ष्य बीते पचास वर्षों में फलीभूत हुआ था।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सन् 1960 में ही कहा था – “योग विश्व की संस्कृति बनेगा और भारत पूरे विश्व को राह दिखाएगा।“ कालांतर में ऐसा हुआ भी। संयुक्त राष्ट्र के 177 सदस्य देशों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा की गई। दुनिया भर में योग को स्वीकृति मिल गई। तब जरूरी हो गया कि योग और अध्यात्म की पावन भूमि भारत भविष्य के लिए योग का रोडमैप तैयार करे। वह बताए कि योग के उच्चतम पायदान पर कदम बढ़ाते हुए वास्तविक लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले पचास वर्षों के लिए योग-विद्या की दिशा-दशा क्या होगी।

नौ वर्षों तक परिवाज्रक जीवन और कठिन साधनाओं के बाद साठ के दशक में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पचास वर्षों के लिए योग की दिशा तय की थी। उसे देश-विदेश में बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिली थी। इसलिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के बाद जाहिर है कि परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से इस पुनित कार्य की उम्मीद की जा रही थी। पर जो लोग सत्यानंद योग परंपरा के बारे में जानते हैं, वे इस बात से चौंके नहीं कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस दायित्व के निर्वहन के लिए जमीनी अभ्यास सन् 2013 से ही शुरू कर दिया था। पांच-छह वर्षों की कड़ी साधनाओं की अनुभूतियों और योगानुरागियों के फीडबैक के आधार पर अब अगले पचास वर्षों में योग को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए दिशा-दशा तय करके उस पर अमल भी किया जाने लगा है।

कमाल यह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती ने समन्वित योग की जैसी परिकल्पना की थी और उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उस परिकल्पना को विज्ञानसम्मत तरीके से व्यावहारिक रूप देकर योगानुरागियों का जीवन खुशनुमा बनाने का जो संकल्प लिया था, थोड़े अंतर से उसी समन्वित योग के वृहत्तर स्वरूप को अगले पचास वर्षों के लिए उपयुक्त समझा गया है। ताकि योगानुरागियों का आध्यत्मिक उत्थान हो और वे अनुभव कर सकें कि मन के पीछे की शक्ति क्या है। यानी मौजूदा समय में समन्वित योग शिक्षा के स्वरूप को व्यापक बनाया गया है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग के साथ ही शास्त्र में वर्णित कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, स्वरयोग, नादयोग आदि को मिलाकर समन्वित योग की शिक्षा देनी शुरू की थी। पर उसे उस समय की जरूरतों के लिहाज से सरल रखा था।

इस सदी के लिहाज से प्रस्तुत छह खंडों वाले योग-चक्र में हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग शामिल है। अष्टांग योग को अलग से जगह नहीं दी गई है। इसलिए कि सत्यानंद योग पद्धति में माना गया है कि अष्टांगयोग का संबंध योग के सभी छह चक्रों से है। हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध ये पांच उप अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि मिलाकर आठ उप अंग राजयोग के हैं। इसी तरह क्रियायोग के उप अंग प्रत्याहार, धारणा और ध्यान हैं। ज्ञानयोग के तहत भी सात उप अंग बनाए गए हैं। वे हैं – शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुर्यगा। अपरा भक्ति और परा भक्ति भक्तियोग के उप अंग हैं। कर्मयोग में आत्म शुद्धि, अकर्त्ताभाव और नैश्कर्म सिद्धि साधना शामिल हैं। बिहार योग पद्धति के तहत अब सभी छह योग-चक्रों के सभी उप अंगों की गहनतम शिक्षा दी जाएगी। मतलब यह कि यदि कोई हठयोग ही जानना चाहे तो उसे उसके सभी पांच उप अंगों को जानना अनिवार्य होगा। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर नई-नई योग विधियां बनाने का काम पूर्ववत जारी रखा जाना है।

वसंत पंचमी के दिन इस गौरवशाली विश्व विख्यात और पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित संस्थान की स्थापना के 58 साल पूरे हो जाएंगे। शास्त्रसम्मत, विज्ञानसम्मत और दूरगामी सोच के तहत तय मानदंडों का ही नतीजा है कि यह अपनी स्थापना काल से ही योग विद्या के मामले में टेंड सेटर की भूमिका में है। इस संदर्भ में बेंगलुरू स्थित योग विश्वविद्यालय स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के उपकुलपति डॉ एचआर नगेंद्र का वक्तव्य गौरतलब है – “मैं जब पहली बार बिहार योग विद्यालय के संपर्क में आया था तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी की कार्यशैली देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। मैंने देखा कि किस प्रकार वे योग के माध्यम से आश्रम आने वाले लोगों को रूपांतरित कर रहे थे। मैंने इस पद्धति को अपने संस्थान में लागू कर दिया। सच तो यह है कि पूज्य गुरूओं स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने जिस प्रणाली का विकास किया, उसे हमने अपना लिया।“

इन्हीं विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इस संस्थान को पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “गुरूकुल में प्राचीन और आधुनिक विचारों का समन्वय करके ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो विश्व-बंधुत्व व वसुधैव-कुटुंबकम् के भावों को पोषित करता हो। इसलिए कि सत्यम्, शिवम् व सुंदरम् को प्रकट करना ही योगानुरागियों के जीवन का आदर्श उद्देश्य है।“  उम्मीद है कि नया योग-चक्र इन कसौटियों पर खरा उतरेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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