जब परमहंस माधवदास की हालत रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी

मुंबई से शुरू होकर दुनिया अनेक देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” ने अपने संस्थापक योगेंद्र जी के सपनों को साकार करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। 100 साल से भी ज्यादा पुराने इस संस्थान में यौगिक विधियों से विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार के लिए अनेक शोध-कार्य किए गए। इनमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों की भी सहभागिता रही। पर हाल के वर्षों में हृदय रोगियों को यौगिक क्रियाओं से पुरानी अवस्था में ले जाने संबंधी शोध कमाल के साबित हुए हैं। बेहतर योग शिक्षा के मामले में धाक् ऐसी जमी है कि 21 देशों के छात्र एक ही छत के नीचे योग विद्या हासिल कर रहे हैं। यह पहला योग संस्थान है, जिसे भारत सरकार के क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से मान्यता मिली । योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संस्थान को प्रधानमंत्री योग पुरस्कार से सम्मानित किया ।   

ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स दादाभाई नरौजी के दामाद और पेशे से अभियंता होमी डाडिना शारीरिक रूप से अशक्त हो गए थे। न धन की कमी थी, न प्रभाव कम था। दुनिया का बेहतरीन इलाज उपलब्ध था। पर बात नहीं बन पा रही थी। मुंबई विश्व विद्यालय के कुलपति आरपी मसानी को बात समझ में आ गई थी कि योगाचार्य के रूप में तेजी से उभर रहे मणिभाई हरिभाई देसाई की प्रतिभा असाधारण है। लिहाजा उन्होंने मणिभाई को होमी डाडिना से मिलवाया। डाडिना तो स्वस्थ्य हुए ही, उनके साथ ही अनेक लोगों को बीमारियों से मुक्ति मिल गई। इसके साथ ही भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” की स्थापना की बुनियाद पड़ गई और कम समय में मणिभाई योगेन्द्र जी के नाम से दुनिया में मशहूर हो गए थे।

भृगुसंहिता में कहा गया है कि नियति का निर्माण पहले “काल” में होता है। यानी घटना पहले “काल” में घटती है। उसके बाद अंतरिक्ष में। फिर “देश” में। योगेंद्र जी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगा मानों पटकथा पहले लिख दी गई हो। उनके पिता हरिभाई देसाई अपने लाडले को सिविल सर्विस में देखना चाहते थे। दो कारणों से ऐसा भरोसा बना था। पहला तो यह कि अमलसाड इंग्लिश स्कूल में मणिभाई की गिनती मेघावी छात्रों में होती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने नियमों में बदलाव करके सिविल सेवा भारतीयों के लिए खोल दिया था। पत्नी के परलोक गमन के कारण बेटे के सहारे जिंदगी जीना चाहते थे। पर मणिभाई तो योगी बनकर जन्मे थे। सो सिविल सर्विस में जाने की बात कौन कहे, कालेजी पढाई भी रास नहीं आई थी। अवचेतन का आध्यात्मिक संस्कार प्रकट होने लगा तो महान योगी परमहंस माधवदास जी का सानिध्य मिल गया।

बंगाल में जन्मे परमहंस माधवदास जी के शिष्य तो कई थे। पर उनकी मणिभाई पर विशेष कृपा थी। साथ खिलाते और साथ साधना कराते थे। जिस तरह नरेन (स्वामी विवेकानंद) को देखते ही रामकृष्ण परमहंस की आंखों में आंसू आ गए थे और बरबस ही बोल पड़े थे, “नरेन तू आ गया। मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था।“ लगभग वैसा ही मणिभाई के साथ हुआ था। कहते हैं न कि हर गुरू को योग्य शिष्य की तलाश होती है। मणिभाई परमहंस माधवदास के पास पास पहुंचे तो उनकी भी स्थिति कुछ रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी। दूसरी तरफ योग्य गुरू की दृष्टि पड़ते ही मणिभाई के भीतर का संत भाव प्रकट हो गया। वे आश्रम में बीमारियों से मुक्ति के लिए आए लोगों का स्वतंत्र रूप से यौगिक उपचार करने लगे थे। वस्त्र धौती कराते हुए एक महिला की जान पर बन आई थी। पर लोगों ने देखा कि मणिभाई ने कठिन समय में भी कितनी कुशलता से स्थिति को संभाला लिया था और महिला स्वस्थ हो घर लौटी थी।

कोमल हृदय वाले मणिभाई की योग-दृष्टि स्पष्ट थी। वे स्वामी विवेकानंद और उनके वेदांत दर्शन से बेहद प्रभावित थे। पर योगविद्या का प्रथमत: उपयोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए करना चाहते थे। वे जानते थे कि धार्मिक कारणों और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों के कारण हाशिए पर डाल दी गई योगविद्या को को पीड़ित मानवता की सेवा करते हुए ही पुनर्स्थापित किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में हठयोग की कुछ विधियां खेलकूद के तौर पर जीवित थीं। सामाजिक स्थिति को देखते हुए मणिभाई को लगा कि अष्टांग योग को मूल रूप में स्वीकार्यता दिलाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर मुख्य चौरासी आसनों में से तेरह आसनों का चयन किया और अलग-अलग बीमारियों के लिहाज से उन्हें प्राणायाम से जोड़कर नई योग विधियां तैयार की। इसके अलावा हठयोग के शुद्धिकरण की कुछ क्रियाओं का समावेश किया। फिर इन योग विधियों की वैज्ञानिकता को प्रमाणित किया किया तो लोगों को बात सहज ही समझ में आई। 

मणिभाई को आश्रम से बाहर योगोपचार के लिए जो पहला मरीज मिला था, वह कोई और नहीं, बल्कि होमी डाडिना ही थे। डाडिना स्वस्थ हुए और मणिभाई से इतने प्रभावित हुए कि अपने ही घर का एक हिस्सा योग केंद्र चलाने के लिए दे दिया। योग केंद्र पर होने वाले खर्चों की जिम्मेवारी भी खुद ही ले ली। सन् 1918 का 25 दिसंबर था। पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम थी। उसी दिन मुंबई के पास वर्सोवा में “द योगा इंस्टीच्यूट” का श्रीगणेश हो गया। चूंकि खर्च अकेले डाडिना वहन कर रहे थे, इसलिए मणिभाई ने योग प्रशिक्षण और योगोपचार बिल्कुल मुफ्त कर दिया। बेहतर नतीजे मिलने लगे तो ख्याति विदेशों तक फैल गई। अमेरिका से, यूरोप से लोग आने लगे। जगह कम पड़ गई। अमेरिकी चाहते थे कि ऐसा केंद्र उनके देश में भी खुले। जिस तरह इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन बीकेएस आयंगार के दीवाने बनकर उन्हें पश्चिमी दुनिया में पहुंचा दिया था। लगभग उसी तरह डाडिना मणिभाई को लेकर अमेरिका गए और वहां योग केंद्र स्थापित करने में मदद की।

मणिभाई अमेरिका से लौटे तो सन् 1923 में अपना नाम बदल लिया। अब वे योगेंद्र जी बन गए। इसका कारण तो ज्ञात नहीं। पर इसके बाद उन्होंने योग विद्या को जनोपयोगी बनाने के लिए अपने अध्ययनों और शोधों के आधार पर कई सुधारवादी कदम उठाए। योग साधना से महिलाओं को जोड़ा। कई शोध प्रबंध लिखे। इस तरह उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हठयोग को प्रभावशाली बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी अतुलनीय योगदान का नतीजा है कि “द योगा इंस्टीच्यूट” बीते सौ सालों में कई देशों में भी पांव पसार चुका है। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा की बदौलत ही यह संस्थान प्रधानमंत्री पुस्कार का हकदार बना। कोरोनाकाल में खासतौर से लॉकडाउन के दौरान लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए इसके प्रशंसनीय कार्यों से लाखों लोग लाभान्वित हुए। आज जबकि योग सबकी जरूरत बन चुका है और योगविद्या रोजगार या स्वरोजगार के लिए अहम बन गई है, योगेंद्र जी के कार्यों, उनके आदर्शों से नई पीढी को बेहतर प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

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