प्राणायाम और सुरों की देवी लता मंगेशकर

किशोर कुमार

आमतौर पर प्राणायाम की चर्चा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होती है। कोरोनाकाल में प्राणायाम की चर्चा कुछ ज्यादा ही हुई, जो बेहद जरूरी थी। पर अब समय आ गया है कि शक्तिशाली प्राणायाम की चर्चा को थोड़ा विस्तार मिलना चाहिए। पर पहले भारत रत्न स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर की बात, जो कोरोना संक्रमण से लंबी लड़ाई के बाद देवलोक गमन कर चुकी हैं। स्वर की इस देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

किसी भी गायक के जीवन में समग्र योग और खासतौर से प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लता मंगेशकर ने अपने करियर के प्रारंभिक दिनों में ही इस बात को भलिभांति समझा था। वह खुद ही कहती रही हैं कि प्राणायाम की शक्ति के कारण ही गाने में कहां सांस लेनी है और कहां छोड़नी है, इसका शुद्धता से निर्वहन करना संभव हो सका। कई गानों में तो श्रोताओं को पता भी नहीं चल पाता कि मैंने कहां सांस भरा और कहां छोड़ दिया। “अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी….तुमपे मरना है ज़िंदगी अपनी…ओ ओ, अब तो है तुमसे…” राग मांड में गाया गया फिल्म “अभिमान” का यह गीत श्वास-प्रश्वास की बारीकियों की साधना का बेहतरीन उदाहरण है। प्राणायाम को साधे बिना शायद सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग करना मुश्किल ही होता, जो इस कठिन राग की मांग है।  

योगशास्त्र मानता हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत नाद योग की मूल प्रक्रिया का विकसित स्तर है। शास्त्रीय गायन में ब्रह्म नाद एक स्थिति होती है, जिसे नाद योग से प्राप्त किया जाता है। दरअसल, श्वास और ऊर्जा का संयोग ही नाद है। मानव शरीर में प्राणमय कोष या ऊर्जा शरीर के बड़े मायने हैं। इसमें बहत्तर हजार नाड़ियाँ होती हैं, जो ऊर्जा मार्ग हैं और जिनमें से हो कर ऊर्जा सारे शरीर में बहती है। ये नाड़ियाँ, मानवीय शारीरिक व्यवस्था में 114 स्थानों या केंद्रों या चक्रों पर एक दूसरे से मिलती हैं, और फिर से बंट जाती हैं। इसलिए, नाड़ियों को शुद्ध करने और ऊर्जा केंद्रों को सक्रिय करने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। चूंकि गायन में सुर की निरंतरता श्वास पर निर्भर करती है, इसलिए गायकों के लिए प्राणायाम साधना बड़े महत्व की हो जाती है।  

भारतीय सनातन परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। योगशास्त्र के मुताबिक प्राण का संबंध मन से, संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का संबंध जीवात्मा से और जीवात्मा का विश्वात्मा से रहता है। तभी ऋषियों के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे प्राण-वायु के तरंगों पर नियंत्रण करके विश्व प्राण पर अधिकार पाने का रहस्य जान जाते थे। इस तरह वे एक सर्वव्यापक शक्ति को वश में कर लेते थे, जिसे विद्युत-शक्ति, चुंबकीय शक्ति, गुरूतत्व शक्ति और विचार शक्ति जैसी सभी शक्तियों का स्रोत कहा जाना चाहिए। इसलिए प्राणायाम ही नहीं, समग्र योग को रोग-मुक्ति से आगे की बात माना गया है। पर जैसे ही आगे की बात यानी आध्यात्मिक अनुभूति की अनंत यात्रा की बात आती है, तो मान लिया जाता है कि यह संसार से विरक्ति की बात हो गई।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसंग उल्लेखनीय है। कहते हैं कि जब महर्षि दयानंद ने अपने गुरू से आज्ञा मांगी कि वे हिमालय में जाकर तपस्या करना चाहते हैं तो गुरू ने मना कर दिया और कहा, “तुम चौराहे पर ही खड़े रहो। इसलिए कि जो दीपक चौराहे पर जलता रहता है, वह चारो ओर से आने वाले लोगों के मार्ग को प्रकाशित करता है। अपने प्रकाश को हिमालय के किसी कंदरा में बंद मत करो।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिकता और सांसारिकता जीवन के दो पंख होते हैं। जीवन में सुख, संपदा, शांति और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय जरूरी होता है। तभी जीवन में पूर्णता आती है और यही योगशास्त्र का विषय़ भी है।

खैर, बात हो रही थी प्राणायाम की। श्रीमद्भागवतगीता के महात्म्य में लिखा है कि प्राणायाम साधना की शक्ति ऐसी है कि साधक के इस जन्म के तो क्या, पूर्व जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रश्नोपनिषद में प्रसंग है कि महर्षि पिप्पलाद से एक शिष्य ने पूछा कि प्राण कहां से उत्पन्न होता है? महर्षि पिप्पलाद ने इसके उत्तर में कहा था कि आत्मा से ही प्राण पैदा होता है। योगीजन कहते रहे हैं कि प्राण ही सूर्य का रूप है। सूर्य जब अपने आप को खींच लेता है तो प्राणी रूप आदि विभिन्न गुणों से हीन होकर मुक्त हो जाता है।

उपनिषद की ही कथा है, बड़ी प्रचलित कथा है कि शरीर के सभी अभिमानी देवताओं ने अपने-अपने वश की हुई इंद्रियों द्वारा विचार कराया कि उन सबमें श्रेष्ठ कौन है? आकाश, वायु, अग्नि, वाणी, मन, चक्षु आदि सभी ने अपनी-अपनी महिमा का बखान करते हुए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की। जब प्राण की बारी आई और उसने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की तो किसी को भरोसा न हुआ। तब प्राण शरीर छोड़कर जाने लगा। इससे तुरंत ही सभी इंद्रियां नष्ट होने लगीं। तब सबको प्राण की श्रेष्ठता का अहसास हुआ। वैदिक ग्रंथों में चर्चा है कि जिसने प्राण-तत्व को जान लिया, उसने वेद को जान लिया। तभी वेदांत सूत्र में उल्लेख है कि श्वास-प्रश्वास ही परब्रह्म है।

योग ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाकर उस पर मन केंद्रित करते हुए विधि-सम्मत श्वास-प्रश्वास से एक अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इसी शक्ति की बदौलत आत्मोन्नति के साथ ही खुद का और दूसरो का भी कष्ट निवारण किया जा सकता है। इसी प्राण के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है, जो एक पूर्ण वैज्ञानिक विद्या है। पर प्राणायाम की वृहत्तर साधना के परिणाम आज के जमाने के लिहाज से चमत्कार जैसे ही जान पड़ते हैं। शिव स्वरोदय प्राण-शक्ति के चमत्कारिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रंथ है। इसी विद्या की बदौलत योगी शुभ-अशुभ फलों की भविष्यवाणी करते रहे हैं। साथ ही जन कल्याण के लिए बताते रहे हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण-वायु का प्रवाह किस तरह कराया जाए कि जीवन सुखमय रहे।

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में विभूतिपाद के तीसरे पाद के 37वें और 50वें सूत्र में सिद्धियों के गुण-दोष का निरूपण मिलता है। पर जब इन सिद्धियों का दुरूपयोग किया जाने लगा तो योगियों ने गृहस्थों के लिए प्राणायाम साधना को रोगोपचार तक सीमित रहने दिया। वरना ऋषि-मुनि कहते रहे हैं कि जिसने कुंभक, जो सही मायने में प्राणायाम है, को साध लिया, वह तीनों लोकों में चाहे कुछ भी कर सकता है। ऐसी है प्राणायाम की शक्ति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

शक्ति इतनी कि जीवन में चार चांद लगा दे यह प्राणायाम

इस कॉलम में बात शुरू हुई थी प्रतिभा के विकास के लिए उपनयन संस्कार के यौगिक आयामो की महत्ता को लेकर और उस कड़ी में यह तीसरा आलेख है – यह बताने के लिए कि आज्ञा चक्र, जिसका पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों से अन्योन्याश्रय संबंध है, बच्चों में मामूली रूप से भी उदीप्त रहे तो मस्तिष्क ज्यादा क्रियाशील रहेगा और प्रतिभा का विकास बेहतर तरीके से हो सकेगा। तब केवल डिग्रियां हासिल करने तक बात सीमित नहीं रहेगी। जीवन को सृजनात्मक तरीके से जीने की राह बन सकती है। योग विज्ञानी कहते हैं कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से होनी चाहिए। अब तक हुए शोधों से भी इस बात की पुष्टि होती है। सच है कि यदि हम बेहतर राष्ट्र का निर्माण चाहते हैं तो इस दिशा में कदम बढ़ाना ही होगा। योग बच्चों के लिए बड़े महत्व का है।  

बच्चों के उपनयन संस्कार के समय सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा देने की परंपरा रही है। बीते अंक में सूर्य नमस्कार की बात हुई थी। इस बार नाड़ी शोधन प्राणायाम की बात। पर इसके पहले आज्ञा चक्र के उदीप्त होने से मिलने वाली अतीन्द्रिय शक्तियों के चमत्कारों की बात। थिओडोर “टेड” जुड सीरियोस अमेरिका में एक साधारण व्यक्ति था। पर उसकी अतीन्द्रिय शक्तियां असाधारण थीं। सन् 2006 में परलोक सिधारने से पहले कोई चार दशकों तक अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों की बदौलत ऐसे-ऐसे काम किए कि अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बन गया था। उसे केंद्र में रखकर योग की शक्ति और शारीरिक संरचना में सूक्ष्म व भौतिक अस्तित्वविहीन चक्रों के चमत्कारिक प्रभावों पर कई फिल्में बनीं। “द अमेजिंग वर्ल्ड ऑफ साइकिक फेनोमेना” नामक कोई नब्बे मिनटों की एक डक्यूमेंट्री भी काफी लोकप्रिय हुई, जो टेड के जीवन पर आधारित है।

मजेदार यह कि टेड सेरियोस न तो वैज्ञानिक था औऱ न ही आध्यात्मिक। सामान्य व्यक्ति था। उसे न तो पीनियल ग्रंथि का ज्ञान था न ही आज्ञा चक्र का। अतीन्द्रिय शक्तियों यानी साइकिक पावर्स के बारे में पढ़ा भर था। प्राचीन काल के वैज्ञानिक संतों की माने तो बिना यौगिक क्रियाओं के भी कई लोगों की कुंडलिनी जागृत होती है। पूर्व जन्म के संचित संस्कार के उभर आने से ऐसा होता है। टेड सेरियोस के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह हजारो मील दूर की घटनाओं को न केवल देख-सुन सकता था, बल्कि उसकी आंखें कैमरे की तरह उस घटना को कैद करने में सक्षम थीं। आंख की उन तस्वीरों को कैमरे में ट्रांसफर करके उसका प्रिंट लिया जा सकता था। वह हजारो किलोमीटर दूर के भी जिस किसी वस्तु का ध्यान करता था, उसका प्रतिबिंब उसकी आंखों में बन जाता था। यह न तो सम्मोहन का कमाल होता था और न ही फोटोग्राफी की कोई ट्रिक।

अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अति मानवीय चेतना संबंधी शोध करने वाली संस्था इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च की उपाध्यक्ष पालिन ओहलर और वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों व बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में टेड सेरियोस ने ऐसे कई कारनामे कर दिखाए तो तहलका मच गया। इस घटना से एक साल पहले यानी सन् 1962 में टेड सेरियोस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। उसे उस नक्शे के आधार पर कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पनिक चित्र उतारने को कहा गया। टेड सेरियोस ने फटाफट दो चित्र बना डाले। उनके बारे में तहकीकात की गई तो पता चला कि वे फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने-ए-आम के मानसिक चित्र थे। श्रीमद्भगवतगीता में संजय की दिव्य-दृष्टि के बारे में तो हम सब जानते ही हैं। वह तो सैकड़ों किलो मीटर दूर बैठकर कुरूक्षेत्र के युद्ध का आंखो देखा हाल ऐसा बयां करते जा रहा था मानों उसकी आंखों के सामने क्लोज सर्किट टीवी लगा हो। यह बात कई लोगों को कपोल-कल्पना लग सकती है। पर ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं, जो इस युग में घटित हुए।

इतिहास के पन्ने ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा कुछ खास नहीं थी। पर अतीन्द्रिय शक्तियां ऐसी थी कि उनके सामने बड़े-बड़े ज्ञानी भी पानी भरते थे। अमेरिका का विलियम पॉवेल लीयर पढ़ा-लिखा कुछ खास नहीं था। उसने अपना जीवन चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के तौर पर शुरू किया था। पर वह अपने दफ्तर में लोगों को बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बात करते सुनता तो उसे ऐसा लगता था कि मानो इसके बारे में वह पहले भी सुन रखा है। उसने अवचेतन मन की बातें योग के जरिए चेतन तल पर लाने की ठानी। नतीजतन, उसका जीवन बदल गया। उसने बैटरी एलिमिनेटर का भी आविष्कार किया। 8-ट्रैक कारतूस और एक ऑडियो टेप सिस्टम विकसित किया। बाद में जेट बनाने लगा। उसकी इन उपलब्धियों से अवाक् “लॉस एंजलिस टाइम्स” के प्रथम संपादक डिग्बी डायल, जिनकी सन् 2017 में मृत्यु हो गई, ने विलियम पॉवेल लीयर का इंटरव्यू किया तो अमेरिका में तहलका मच गया। उसने बताया कि अतीन्द्रिय शक्ति जागृत होने के बाद उसे दिशा मिलने लगी और क्षमता का विकास हुआ। यही उसकी सफलता का राज है। 

मन पर हो रहे अध्ययनों से साबित हुआ है कि वह एक ऐंटेना या रेडियो के समान है, जो समस्वरित होता है तो अचानक किसी ऐसे केंद्र से जुड़ जाता है, जहां की बातें मानस पटल पर आ जाती हैं। जब तरंग संयोजक क्षीण होता है तो उस केंद्र से संपर्क करना मुश्किल होता है। आत्मा या अतीन्द्रिय भौतिक चीज नहीं, जिसे देखा जा सके। इसका स्वरूप अनुभव ही होता है। अनेक देशों की सेना आधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग किए बिना विचारों के संप्रेषण की संभावनाओं पर काम कर रही है। नासा अंतरिक्ष में भेजे गए वैज्ञानिकों से विचारों के संप्रेषण के जरिए संबंध बनाने, यहां तक कि उनकी चिकित्सा करने तक की संभावनाओं पर काम कर रहा है। इस काम में पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती भी शामिल हैं।

सोवियत संघ की सेना ने अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रभाव जानने के लिए सबसे पहले मादा खरगोश पर प्रयोग किया था। एक मादा खरगोश को रिसर्च सेंटर में रखा गया। उसके माथे पर इलेक्ट्रोड्स लगा दिए गए। ताकि उसके मानसिक तरंगों की मानिटरिंग की जा सके। उसके आठ बच्चों को समुद्री मार्ग से सैकड़ो किलोमीटर दूर ले जाया गया। वहां उस पर जैसे ही वार किया गया, रिसर्च सेंटर में रखी गई खरगोश विचलित हो उठी। उसके मस्तिष्क पर तीब्र आवृत्ति वाली तरंगे उत्पन्न होने लगीं। इससे साबित हुआ कि जानवरों में भी भावनात्मक संबंध होता है। मानव पर अतीन्द्रिय शक्ति का असर तो अक्सर देखने को मिलता है। कोई बच्चा दूर देश में गंभीर रूप से बीमार होता है और इधर उसकी मां की अतीन्द्रिय शक्ति उस समय मामूली रूप से भी सक्रिय होती है तो उसके मन में तरंग उठता है और किसी अनिष्ट की आशंका से मन विचलित हो उठता है।

दरअसल, शरीर की मुख्य तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन आज्ञा चक्र में होता है। योगियों का मानना है कि पीनियल ग्रंथि का आज्ञा चक्र से निकट संबंध है। यह अंतर्ज्ञान के क्षेत्र है। इसलिए आज्ञा चक्र को जागृत करने के किसी भी उपाय से पीनियल ग्रंथि भी प्रभावित होता है। विज्ञान साबित कर चुका है कि आमतौर पर मस्तिष्क के दस में से एक भाग ही सही तरीके से काम करता है। शेष नौ भाग सुषुप्तावस्था में होता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस बात की व्याख्या कुछ ऐसे करते थे – मस्तिष्क का क्रियाशील भाग तो इड़ा और पिंगला की शक्ति से काम करता है। पर शेष नौ भागों में केवल पिंगला की ही शक्ति मिलती है। पिंगल जीवन है और इड़ा चेतना। यदि कोई व्यक्ति जीवित हो और वह सोचने में असमर्थ हो तो यही कहा जाएगा कि उसमें प्राण-शक्ति तो है, किन्तु मनस शक्ति नहीं है। यही स्थिति मस्तिष्क के निष्क्रिय हिस्से की होती है। उसमें प्राण तो होता है, किन्तु मनस शक्ति नहीं होती।

योग से संबंधित अतीन्द्रिय पक्षों पर सोवियत संघ की दो महिला मनोवैज्ञानिकों शीला ओस्ट्रांडेर और लिन्न श्रोएडर ने सत्तर के दशक में ही एक पुस्तक लिखी थी – “साइकिक डिस्कवरीज बिहाइंड द आयरन कर्टेन।“ इसके बाद तो दुनिया भर में इस विषय पर सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जो अनुसंधानों पर आधारित हैं। ज्यादातर पुस्तकों में अतीन्द्रिय शक्तियों को टेलीपैथी या टेलीसाइकिक्स बताते हुए व्याख्या की हैं। भारत के योग रिसर्च फाउंडेशन ने दुनिया के कई देशों के साथ मिलकर इस विषय पर अध्ययन किया। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अध्ययन के नतीजों की व्याख्या की है। उनके मुताबिक, पंचमहाभूतों में एक होता है आकाश तत्व। उसी में अग्नि तत्व व्याप्त होता है, जिस तेज या ऊर्जा कहते हैं। आदमी जो भी कर्म या विचार करता है, उसका स्पंदन वायुमंडल के द्वारा आकाश तत्व में फैलता है। ठीक वैसे ही जैसे पानी में पत्थर फेंकने पर तरंगें उत्पन्न होती हैं। यदि कोई व्यक्ति या यंत्र उन स्पंदनों को पकड़ने में सक्षम है तो वह जान सकता है कि उन स्पंदनों के मूल में कौन से विचार हैं। इसे ही टेलीपैथी कहते हैं। पर उसी स्पंदन को चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में ग्रहण कर एक रूप दिया जाता है तो जो हो रहा है या अतीत में जो हुआ उसे अंतर्दृष्टि से स्पष्ट रूप से देखने की शक्ति मिल जाती है। इसे कहते हैं दिव्य-दृष्टि। जिस प्रकार एक तरंग का रूप परिवर्तित होने से हम दूर के दृश्यों और आवाज को टेलीविजन पर देख-सुन पाते हैं। उसी तरह योग की परंपरा में कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी सहायता से तृतीय नेत्र को जागृत किया जा सकता है। इससे पदार्थ, नाम और रूप को देखने वाली दृष्टि अतीन्द्रिय दृष्टि में बदल जाती है। उन्हीं उपायों में एक है नाड़ी शोधन प्राणायाम।

आधुनिक विज्ञान से उलट तंत्र शास्त्र के मुताबिक मस्तिष्क छह भागों में विभक्त है और उनकी अलग-अलग शक्तियां होती हैं। उन्हीं शक्तियों में एक है अतीन्द्रिय शक्ति। हम सब अनुभव करते हैं कि कोई आदमी किसी विषय में प्रखर होता है तो कोई किसी विषय में। इसकी वजह ये शक्तियां ही होती हैं। योग साधक हों या प्रतिभा के विकास के आकांक्षी छात्र, आज्ञा चक्र उनके लिए काफी मायने रखता है। चक्र साधना का प्रवेश द्वार ही आज्ञा चक्र को माना जाता है। उसे साधे बिना बाकी चक्रों की साधना दुष्कर होता है। आम आदमी विशेष रूप से छात्रों के आज्ञा चक्र के जागृत रहने से चेतना का रूपांतरण होता है और बुद्धि प्रखर होती है। दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं का आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील होता है। इसलिए वे अधिक सूक्ष्म, संवेदनशील और ग्रहणशील होती हैं। नतीजतन, घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाती है। पर छात्रों के मामले में यौगिक अभ्यासों की बदौलत आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील रहने से पीनियल ग्रंथि और उससे जुड़ी पिट्यूटरी आदि ग्रंथियां स्वस्थ रहती हैं तो प्रतिभा का समुचित विकास होता है।

दूसरी तरफ, अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। नतीजतन, प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पता। नाड़ी शोधन प्राणायाम का अंत:स्रावी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।

योग शास्त्र के मुताबिक, प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है सुषुम्ना नाड़ी को जगाना। कुंभक यानी श्वास अधिक समय तक रोकने के अभ्यास से तो इसमें सफलता मिलती ही है, एक नाक से श्वास लेने औऱ दूसरे से छोड़ देने की क्रिया से भी सुषुम्ना को जागृत करना संभव है। पर यह तभी संभव है जब श्वास अधिक लंबा, गहरा होगा। यदि अभ्यास करके पंद्रह सेकेंड में श्वास लेना और उतनी देरी में छोड़ना संभव हुआ तो जीवन में क्रांतिकारी बदलाव संभव है। इसलिए कि मूलाधार चक्र में माया का आवरण ओढ़कर चिर निद्रा में सोई सुषुम्ना शक्ति जागृत होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है तो सामान्य लोगों को स्वस्थ्य काया मिलती है, प्रतिभा का विकास होता है। पर आध्यात्मिक लोगों के मामले में जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। इन तथ्यों के आलोक में बच्चों को आठ साल की उम्र से ही नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास कराने के फायदों को समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

कोरोना महामारी से दो-चार होते हृदय रोगी

योगनिद्रा में हाइपोथैलेमस ग्रंथि परानुकंपी नाड़ी संस्थान द्वारा दिल तक पहुंचने वाले विद्युत फाइबर्स को तनाव दूर करने के संकेत भेजती है। परिणाम स्वरूप दिल की धड़कन, रक्तचाप और हृदय की पेशियों पर पड़ने वाला भार कम हो जाता है। हृदय को राहत मिलती है। जो हृदय रोगी विभिन्न प्रकार के योगासन न करने की स्थिति में हों, उन्हें नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ ही योगनिद्रा का अभ्यास जरूर करना चाहिए।

कोविड-19 वैसे तो मुख्यत: श्वसन तंत्र को प्रभावित करने वाला संक्रमण है। पर इससे  हृदय रोगियों पर खासा कहर बरपा है। चिकित्सक और चिकित्सा शोध संस्थान की ओर से हृदय रोगियों को कोविड-19 के आलोक में बार-बार चेतावनी दी जाती रही है। दूसरी तरफ प्रमुख योग संस्थानों के संन्यासियो व योगाचार्यों ने बताया कि कोरोनाकाल में किस तरह के योगाभ्यास किए जाएं कि विश्वव्यापारी महामारी से बचाव हो सके। बावजूद मैं व्यक्तिगत रूप से अनेक हृदय रोगियों को जानता हूं, जिन्हें चेतावनियों और सलाहों को नजरंदाज करना भारी पड़ गया। एक सज्जन की जान तो बच गई। पर योग को जीवन पद्धति बनाने की मजबूरी है। मजबूरी इसलिए कि उन्हें संक्रमित होने से पहले तक योग की विधियां खासतौर से हृदय रोग के मामले में महत्वहीन जान पड़ती थी। अब जीवन भर के लिए योग ही सहारा है। 

हृदय रोग से बचाव में योग की भूमिका पर दुनिया भर में अनुसंधान किए जाते रहे हैं। अपने देश में सरकार के स्तर पर तो योग अनुसंधान पर काफी देर से काम शुरू हुआ। पर बिहार योग विद्यालय और कैवल्यधाम, लोनावाला के साथ ही स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान ने विभिन्न चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर खासतौर से हृदय रोग पर काफी काम किया। कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उनके शिष्य स्वामी दिगंबर जी ने तो अपने शरीर पर ही कई शोध कर डाले। यह सर्वविदित है कि स्वामी दिगंबर जी ने अनुसंधानों के लिए अपने शरीर का इतना इस्तेमाल किया कि बीमार पड़ गए। पर प्राय: सभी शोधों के नतीजें योग के पक्ष में रहे।   

योग में उपचार के तीन पक्ष माने गए हैं – चिकित्सात्मक, रक्षात्मक और संवर्द्धक। मनुष्य रोगी है तो उसकी चिकित्सा होती है और वह स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। यदि इस बात का अहसास है कि भविष्य में शारीरिक या मानसिक पीड़ाएं हो सकती हैं और उस स्थिति से बचने के लिए कोई उपाय कर लिया जाए तो यह हुआ रक्षात्मक। संवर्द्धनात्मक उपाय वह है कि हमें कोई समस्या तो नहीं होती। पर हम स्वस्थ्य हैं और स्वस्थ्य बने रहें, इसके लिए उपाय करते रहते हैं। यानी संतुलित आहार और नियमित योगाभ्यास। पर कैवल्यधाम के सीईओ डॉ सुबोध तिवारी कहते हैं – “आदमी योगशालाओं में हमेशा चिकित्सा के लिए ही आता है, रक्षा के लिए नहीं। इसलिए कि वह सोचता है कि मैं स्वस्थ्य हूं, मुझे क्या होना है। नतीजा होता है कि शरीर की ऊर्जा और सामर्थ्य का दुरूपयोग होने से तन-मन बीमार हो जाता है।“  

सच है कि कोरानाकाल में हृदय रोग से बचाव के लिए अनेक यौगिक उपाय सुझाए गए थे। यह जानते हुए कि हृदय रोगियों के लिए कोरोना संक्रमण घातक है, अनेक लोग लापरवाह बने रह गए। नतीजा है कि कोरोना संक्रमण से पहले जहां भारत में तीन मिलियन लोग हृदयाघात से काल के गाल में समां जाते थे। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इस साल एक मिलियन का इजाफा होने की संभावना बनी हुई है। योगाचार्यों की मानें तो दो तरह के लोग हैं जो योग से दूर रहते हैं। कुछ लोग तो लापरवाह होते हैं और योग की महत्ता को समझते हुए भी उस पर अमल नहीं करते। पर दूसरी श्रेणी के लोग वे हैं, जिन्हें योग की वैज्ञानिकता पर ही संदेह है। ऐसे लोग ज्यादा खतरा मोल लेते हैं।  

हाल ही हुए कुछ अध्ययनों के निष्कर्षों से साफ है कि योग का हृदय रोगियों पर कितना सकारात्मक असर होता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि योग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोगों से ग्रस्त मरीजों में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। “योगा केयर” नाम से मरीजों के अनुकूल एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया था। उसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल किया गया। पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। नतीजा आशाजनक रहा। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम की विधियों को अपनाने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था। 

यौन क्रियाओं का हृदय से सीधा संबंध स्थापित सत्य है। इसके लाभ-हानि पर चर्चा होती रहती है। पर हानि से बचाव का कोई यौगिक उपचार है? इस सवाल पर चर्चा कम ही हुई। विभिन्न स्तरों पर हुए शोधों से साबित हो चुका है कि हृदय को खास परिस्थियों की वजह से होने वाली हानि से बचाव में योग कारगर है। उस योग का नाम है – सिद्धासन। गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा शोधित “सिद्धासन” को विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसा गया और हर बार खरा साबित हुआ। नतीजतन, सिद्धासन हृदय रोग से बचाव के लिए अनुशंसित योगाभ्यासों में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि नाड़ी शोधन प्राणायाम और कुछ सावधानियों के साथ यह योगाभ्यास पुरूषों और महिलाओं को समान रूप से लाभ पहुंचाता है।

योग क्रियाओं के अभ्यासों के प्रभावों पर अब तक जितने भी अनुसंधान किए गए हैं, देश में या देश से बाहर, लगभग सभी के परिणाम योग के पक्ष में रहे। साबित हुआ कि हृदय मंडल, श्वसन मंडल और अंतस्रावी मंडलों पर यौगिक क्रियाओं के सकारात्मक प्रभाव होते हैं। मैंने अपने लेखों में बार-बार योगनिद्रा की चर्चा की है। यह हृदय रोग के लिए भी रामबाण है।

योगनिद्रा में हाइपोथैलेमस ग्रंथि परानुकंपी नाड़ी संस्थान द्वारा दिल तक पहुंचने वाले विद्युत फाइबर्स को तनाव दूर करने के संकेत भेजती है। परिणाम स्वरूप दिल की धड़कन, रक्तचाप और हृदय की पेशियों पर पड़ने वाला भार कम हो जाता है। हृदय को राहत मिलती है। जो हृदय रोगी विभिन्न प्रकार के योगासन न करने की स्थिति में हों, उन्हें नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ ही योगनिद्रा का अभ्यास जरूर करना चाहिए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

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