स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग की शुद्धता बनाए ऱखने का संकल्प लें


किशोर कुमार

भारत एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। नौंवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग सत्र का नेतृत्व करेंगे। यह वही मंच है जहां प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल पहले पहली बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के वार्षिक आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इस बार के आयोजन का थीम है – वसुधैव कुटुम्बकम’, जो हमारे सनातन धर्म का मूल मंत्र रहा है। हमारा दर्शन है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है। इसी अवधारणा की वजह से भारत लंबे समय तक विश्व गुरू बना रहा। भारत में सामर्थ्य है कि वह फिर से विश्व गुरू बन सकता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भले भारत की पहल पर दुनिया भर में मनाया जाना लगा है। पर हमें इस बात को याद रखना होगा कि हमारे संतों और योगियों ने इसके लिए पृष्ठभूमि पहले से तैयार कर रखी थी। तभी दुनिया ने हमारी बातों को गंभीरता से लिया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस तो 2015 से मनाया जा रहा है। पर भारत में पहली बार विश्व योग सम्मेलन सन् 1953 में ऋषिकेश में हुआ था। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसके लिए पहल की थी। ‘योग तथा विश्व धर्म संसद” उस योग सम्मेलन का थीम था। इसके माध्यम से पहली बार योग के सिद्धांतों, विचारधाराओं तथा विधियों को जनसाधारण्य के सामने लाया गया था। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों की जानकारी, समझ और अनुभव प्रदान करना था।

इस आयोजन के बीस साल बाद यानी 1973 में परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने दूसरे विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया था। पचास से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने भारत आए थे। इस आयोजन का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी स्तर पर योग का प्रचार-प्रसार करना था। उनका मानना था कि साधारण योग शिक्षकों की बजाय योग केवल उन्हीं लोगों के द्वारा सिखाया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन में योग को आत्मसात् और सिद्ध किया हो। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आने वाले भविष्य में ऐसे हजारों-लाखों ‘किताबी योग शिक्षक’ आ जाएँगे जो किसी किताब में से कुछ आसनों के चित्र देखकर योग सिखाना शुरू कर देंगे और अपने आपको योग शिक्षक कहेंगे। आज देश के कोने-कोने में तो क्या, सारे विश्व में यही होता दिखाई दे रहा है। इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संन्यासियों को योग की शिक्षा देनी प्रारम्भ की थी। सन् 1973 के सम्मेलन के बाद योग आन्दोलन सारे विश्व में दावानल की तरह फैल गया और दुनिया के कोने-कोने में योग केन्द्र, आश्रम और शिक्षक तैयार होने लगे। योग प्रचार के साथ-साथ योग अनुसंधान तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग के प्रयोग भी किए जाने लगे।

यह सुखद है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती द्वारा विश्व योग सम्मेलन की शुरू की गई परंपरा आज भी कायम है। अब बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। अब तो कई अन्य भारतीय संगठन भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग सम्मेलन करने लगे हैं। इसका असर विश्वव्यापी है। साठ और सत्तर के दशक में बल्गेरिया एक साम्यवादी देश था, जहाँ योग और अध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं था। आज बल्गेरिया में बड़ी संख्या में लोग योग साधना करते हैं। स्वामी योगभक्ति सरस्वती का एक आलेख हाल ही पढ़ा था। उसके मुताबिक फ्रांस में भारतीय योग पद्धति लोकप्रियता के शिखर पर है। वहां की सरकार बच्चों की योग शिक्षा को लेकर काफी सजग और सतर्क रहती है। इसके लाभ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे हैं। योगनिद्रा साधना सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से होती है।

विश्व योग सम्मेलनों से यौगिक अनुसंधानों को भी काफी बढ़ावा मिला है। विज्ञान समझने का प्रयास करता है और योग अनुभव दिलाता है। विज्ञान के द्वारा हम यह जान पाते हैं कि योग की उपयोगिता इस जीवन में क्या है और योग के द्वारा हम जान पाते हैं कि हम अपने जीवन को एक सुन्दर उद्यान में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। बीते पाचास-साठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो यौगिक अनुसंधानों के मामले में खासतौर से कैवल्यधाम, लोनावाला और बिहार योग विद्यालय के काम उल्लेखनीय हैं। एक तरफ स्वामी कुवल्यानंद योग अनुसन्धान द्वारा योग की व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर रहे तो दूसरी तरफ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी काम को विश्वव्यापी फलक प्रदान किया। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत में विश्व गुरु बनने के गुण मौजूद हैं।

भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। रूद्रयामल तंत्र से पता चलता है कि पार्वती ने भगवान शंकर से प्रश्न किया था, ‘इस संसार में बहुत कष्ट है, रोग, व्याधि, अशान्ति और अराजकता है। मनुष्य दुःख के वातावरण में जन्म लेता है, दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सुख प्राप्ति के लिए जीवन पर्यन्त दुःख से संघर्ष करता है और अंत में दुःख के वातावरण मृत्यु को प्राप्त करता है। क्या इस संसार में, इस जीवन में दुःख से मुक्ति सम्भव है?’ जबाव में शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी। वही योग शिक्षा हमारी थाती है।

आज योग आज भले ही एक विश्वव्यापी शब्द बन गया है। पर अपवादों के छोड़ दें तो उसकी पहचान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सिमट कर रह गई है। जीवन को परिवर्तित करने, पल्लवित करने, सुधारने की प्रक्रिया के रूप में कुछ परंपरागत योग संस्थान ही काम कर पा रहे हैं। संत कबीर एक दो नहीं, बल्कि चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब बचपन से ही सुनते-समझते आए हैं। घट-घट में बैठे राम की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है। पर तीसरे और चौथे राम की तो चर्चा तक नहीं होती। आमतौर पर न कोई बतलाता है और न ही हम जानने की कोशिश करते हैं कि जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? योग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हम वर्षों से आसन और प्राणायाम में ही उलझे हुए हैं।

इतनी प्राचीन किन्तु सर्वशक्तिशाली विद्या को सीमित दायरे में रखना आत्मघाती होगा। हमें आसन और प्राणायाम से आगे की बात करनी होगी। योग की समग्रता और शुद्धता पर ध्यान देना होगा। तभी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की सार्थकता होगी और तभी भारत विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होकर वसुधैव कुटुंबकम् के मंत्र को सार्थक कर पाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हे सत्यानंद! आपको शत्-शत् नमन!

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती क्या फिर भौतिक शरीर धारण कर चुके हैं? यानी, उनका पुनर्जन्म हो चुका है? हम कैसे पहचानेंगे उन्हें? इस तरह के न जाने कितने ही सवाल उस महान संत के अनुयायियों के जेहन में अक्सर कौंधते रहते हैं। और ऐसा अकारण ही नहीं है। जन्मशताब्दी वर्ष पर इसी आलोक में प्रस्तुत है यह आलेख।

कोई चौदह साल पहले 5 दिसंबर 2009 को महासमाधि लेने से पहले स्वामी जी स्वयं भक्तों से कहते थे कि रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा में हूं। मिलते ही चला जाऊंगा। फिर भावुक होते आयुयायियों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए मजाक करते और पूछते, मैं नया शरीर धारण करके आऊंगा तो कैसे पहचानोगे? जबाव में कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। स्वामी जी सबकी बातें सुनते और मुस्कुराते रहते। पर देखते-देखते महाप्रस्थान का दिन आ ही गया। स्वामी जी ने आसन ग्रहण किया और शिष्यों से कहा, रिटर्न टिकट मिल चुका है, मैं चला….और भौतिक शरीर को त्याग दिया था।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में विज्ञान के आलोक में योग का अलख जगाने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने समाधि न ली होती तो आज से कोई तीन दिन बाद ही शिष्यगण अपने प्रिय गुरू की उपस्थिति में उनकी 100वीं जयंती मनाते। उनका जन्म मौजूदा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सन् 1923 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस साल यह तिथि 8 दिसंबर को है। यानी महासमाधि दिवस और जयंती के बीच का अंतराल मात्र तीन दिन।

आध्यात्मिक साधना के आलोक में तर्क करने पर मन में सहज सवाल उठेगा कि संन्यासी की अंतिम इच्छा तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना होता है। फिर परमहंस जी महासमाधि के लिए रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा क्यों करते रहे? जबाव पहले से मौजूद है। परमहंस जी ने महाप्रयाण से पहले ही कहा था, योग का उत्तम ज्ञान बताना प्रथम उत्तम दान है। इससे अज्ञान मिटता है और क्लेष दूर होते हैं। रोगी को दवा-दारू देना द्वितीय उत्तम दान है और भूखे को भोजन देना तृतीय उत्तम दान है। सभी इस महान कर्तव्य का पालन करें, इसके लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। मेरे हिस्से का काम शेष रह गया है। इसलिए रिटर्न टिकट लेकर जा रहा हूं। आऊंगा जरूर।

किस रूप में आएंगे? परमहंस जी कहते, मेरी इच्छा होगी कि एक ऐसी स्त्री के गर्भ से जन्म लूं, जो तथाकथित छोटी जाति की हो। उस परिवार में जन्म लेकर अपने माता-पिता को उपदेश दूंगा। साथ ही मजदूरों और मेहतरो को भी, जो मेरे आसपास होंगे। ताकि वे भी अच्छे संस्कारों को आत्मसात् कर सकें। यही है बोधिसत्व। बोधिसत्व के रूप में भगवान बुद्ध ने अनेक जन्मों में अवतार लिया, पशु के घर, भिक्षुओं के परिवार में, साहूकारो और राजा के घर। उन्होंने सभी जगह धर्म की शिक्षा दी। साधुओं और महात्माओं का यही आदर्श होना चाहिए। संत नामदेव वंचितों की तरह जीते रहे और अमर हो गए।

परमहंस जी अपने अनुयायियों से कहते, तुमलोग भी चाहते हो कि इस शरीर को छोड़ने के बाद फिर से नया शरीर धारण करूं। पर यह तय है कि तुम्हारा बेटा बनकर पैदा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी होगी। इसलिए कि तुमलोग भौतिक सुख चाहते हो और मैं कहूंगा, नहीं मां, मैं मात्र एक लंगोटी पहनूंगा। मैं गीता-रामायण और श्रीमद्भागवतम् की शिक्षा दूंगा। जीवन जीने की कला सिखाऊंगा और अन्य कौशल भी, जिनकी जीवन में आवश्यकता है। जैसे, मवेशियों की देखभाल कैसे की जाए, खेती कैसे की जाए, गन्ने कैसे उगाए जाएं, बैंक खाते में सावधि जमा कैसे करें। आदि आदि। इसलिए भगवान से कहना कि प्रभु, ऐसा बालक दो जो घर में योग भी लाए और भोग भी। योग का मतलब ऊंचे विचार, ज्ञान का विचार, भगवान का विचार और भोग का मतलब है लड़का-लड़की, धन-दौलत आदि। हर काम देश-काल को ध्यान में रखकर होना चाहिए। इस युग में योग और भोग दोनों जरूरी है।

परमहंस जी के गुरू और बीसवीं सदी के महानतम संत ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जब कहा था, जाओ सत्यानंद, योग का प्रचार करो, तो  स्वामी सत्यानंद सरस्वती बड़ी उलझन में पड़ गए थे। “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास” वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत होने लगी थी। वे तो संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए योग का न तो प्रशिक्षण लिया था और न ही उसमें कोई रूचि थी। उलझन इसी बात से थी। गुरू तो सिद्ध संत थे। उन्हें अपने शिष्य के मन की उलझन समझते देर न लगी थी। इसलिए पास बुलाया और सिर पर हाथ रखा। शक्तिपात हो गया। फिर एक रूपए आठ आने दिए औऱ फिर दोहराया, जाओ, योग का प्रचार करो। तुम जिस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो, उसके लिए अभी बीस साल प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक समय का सदुपयोग करो।

परमहंस जी परकाया प्रवेश विद्या में सिद्धहस्त थे। वे अनुयायियों से पूछते थे, यह शरीर किसका है? फिर इसका उत्तर भी देते थे। कहते, यह स्वामी सत्यानंद का शरीर है। मैंने (आत्मा) ने इस शरीर को किराए पर लिया है। अपने आध्यात्मिक तत्व को बांटने के लिए। जब तक हूं, इस शरीर में वास कर रहा हूं। पर मैं इस शरीर को छोड़ भी सकता हूं। तुम मुझे स्वामी सत्यानंद के रूप में जानते हो। किन्तु यथार्थ में मैं स्वामी सत्यानंद नहीं भी हो सकता हूं। बीस वर्षों तक, एक सिद्ध आत्मा ने, जिसका मैंने आह्वान किया था, इस शरीर में निवास किया। जब मैं अठारह वर्षों का था तो एक तांत्रिक योगिनी से मिला था। उन्होंने ही मुझे अन्य चीजों के अलावा आवाह्न विज्ञान की शिक्षा दी थी। यह शिक्षा तांत्रिक पद्धति का एक अंग है। वे जानती थीं कि मुझे आवाह्न विज्ञान की शिक्षा इसलिए जरूरी है, ताकि मैं इस आत्मा का आवाह्न अपने गुरू के आदेश की पूर्ति के लिए कर सकूं।

उस विद्या से मिली अलौकिक शक्ति का ही प्रतिफल है कि कई दशकों से बिहार योग या सत्यानंद योग की खुशबू सुगंधित पुष्प की तरह सर्वत्र फैल रही है। जाहिर है कि परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने गुरू के मिशन को बखूबी पूरा किया। बीस वर्षों के भीतर न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में योग और उसकी वैज्ञानिकता पर उल्लेखनीय कार्य करके अपने द्वारा बिहार के एक छोटे-से शहर मुंगेर में गंगा के तट पर स्थापित बिहार योग विद्यालय को दुनिया के मानचित्र पर ला खड़ा कर दिया। फिर तो दुनिया के अनेक देशों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” को कहना पड़ा कि भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय का स्थान प्रथम है।

जब संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने का उचित समय आया तो परमहंस जी सन् 1989 में मुंगेर को सदा के लिए छोड़कर दैव कृपा से झारखंड के देवघर जिले के रिखिया गांव में धुनी रमाने पहुंच गए थे। वहां उन्होंने सेवा, प्रेम और दान को अपने आध्यात्मिक जीवन का आधार बनाया था। वे कहते थे कि सेवा आध्यात्मिक जीवन का पहला, प्रेम दूसरा और दान तीसरा पाठ है। इसके बाद ही आत्म-शुद्धि, ध्यान और ईश्वर-साक्षात्कार का नंबर आता है।

दुनिया भर में योग-अध्यात्म को मिल रही गति और भक्तियुग के आने के संकेतों से अनुयायियो को भरोसा होने लगा है कि परमहंस जी का अवतरण हो चुका है। इसलिए कि रिखिया में उन्हें ऐसी ही दुनिया की झलक मिल रही थी। उन्हें ऐसे ही जगत के निर्माण में अपने हिस्से का काम करने के लिए नवजीवन चाहिए था। परमहंस जी किस रूप में आए या आएंगे, थोड़ी देर के लिए इन बातों को छोड़ भी दें, तो यह निर्विवाद है कि उनकी शिक्षाएं मानव जीवन के उत्थान में उत्प्रेरक का काम कर रही है, करती रहेगी। आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक संत को उनकी जन्मशती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अध्यात्म में प्रवेश के यौगिक मंत्र

//किशोर कुमार//

अध्यात्म क्या है और इसमें प्रवेश कैसे करें? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आसान नहीं होते। पर पारंपरिक ज्ञान के प्रवर्तक और सिद्ध योगी महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय और विश्व योगपीठ की ओर से योग साधना शिविरों का आयोजन किया गया तो उसका प्रतिपाद्य विषय ही यही था। नतीजा हुआ कि नई दिल्ली और इंदौर में आयोजित तीन दिवसीय योग साधना शिविरों में जिज्ञासुओं की भीड़ उमर पड़ी। वे जानना चाहते थे कि अध्यात्म में प्रवेश करने की विधियां क्या हो सकती हैं।

वैसे तो अध्यात्म की विशद् व्याख्या अन्य ग्रंथों के अलावा श्रीमद्भागवत गीता में है। पर संक्षेप में कहें तो अध्यात्म का अर्थ है स्वयं को जानना। यानी मैं कौन हूं। पर यह निर्विवाद है कि मन का प्रबंधन और समग्र मानसिक चेतना के विकास के बिना स्वयं को जानना संभव नहीं है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर, मन और आत्मा को साथ-साथ विकसित होना चाहिए। इसलिए कि भौतिक व आध्यात्मिक जीवन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैसे भी भौतिक अस्तित्व और आध्यात्मिक जीवन का सदैव साथ रहा है। तभी दुनिया भर में भौतिकतावाद हावी होने के बावजूद आध्यात्मिक जीवन के लिए युवा पीढ़ी की स्वप्रेरित व ऐच्छिक खोज और आध्यात्मिक साधनाओं की सहज स्वीकृति इस युग की सुखद घटना है। उन्हें सही दिशा मिले तो बड़ी बात होगी।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के इन्हीं दिव्य विचारों के आलोक में उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से और स्वामी शिवराजानंद सरस्वती के निर्देशन में जिज्ञासुओं को अध्यात्म में प्रवेश कराने के लिहाज से योग साधना शिविरों का आयोजन किया गया था। अध्यात्म में प्रवेश की यौगिक तैयारियों के मद्देनजर मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार, भुजंगासन आदि तो कराए ही गए। पर मुख्य रूप से योगनिद्रा, काया स्थैर्यम और अंतर धारणा के अभ्यास कराए गए। साथ ही प्राणायाम की तीन विधियों के अभ्यास भी कराए गए। वे थे नाड़ी शोधन, अनुलोम विलोम और भ्रामरी।

अनेक लोग चौंकते हैं कि नाड़ी शोधन और अनुलोम विलोम की चर्चा अलग-अलग क्यों की जा रही है, जबकि दोनों एक ही है। पर यह सच नहीं है। हद तो यह है कि टीवी चैनलों पर कार्यक्रम देने वाले कुछ योगी भी इन दोनों प्राणायामों के बीच भेद नहीं कर पातें। योग साधना शिविरों में जिज्ञासुओं ने जाना कि नाड़ी शोधन और अनुलोम विलोम किस तरह सर्वथा भिन्न है। हम सब जानते हैं कि प्राणायाम के चार पक्ष हैं। पहला, पूरक यानी श्वास को अंदर लेना, रेचक यानी श्वास बाहर छोड़ना, अंतर्कुंभक यानी श्वास को अंदर रोकना और बहिर्कुंभक यानी श्वास को बाहर रोकना।

स्वामी शिवराजानंद सरस्वती ने जिज्ञासुओं को बताया कि नाड़ी शोधन में हाथ की उंगलियों का उपयोग किया जाता है। तर्जनी व मध्यमा उंगलियां भ्रूमध्य पर टिकी होती हैं और अंगूठा व अनामिका उंगलियों से बारी-बारी से नासिकाओं को दबाकर उनके श्वास-प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है। दूसरी तरफ अनुलोम विलोम है तो श्वास प्रवाह को नियंत्रित करने का ही अभ्यास। पर विधि अलग है। इसमें उंगलियों की कोई भूमिका नहीं है। यह मानसिक क्रिया है। मन निर्देश देता है कि श्वास खींचना है, रोकना है और छोड़ देना है। नाड़ी शोधन प्राणायाम के विपरीत इस योगाभ्यास के लिए कोई समय सीमा नहीं होती। इसे घंटो किया जा सकता है। पर यह सध जाए तो ध्यान की अवस्था में पहुंचा सकती है।

वैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि पीनियल ग्रंथि, आज्ञा-चक्र और अतीन्द्रिय शक्ति के विकास में नाड़ी शोधन प्राणायाम की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन तब जब योगाभ्यास के समय तर्जनी और मध्यमा उंगलियां भ्रूमध्य पर रहे। दरअसल, शरीर की मुख्य तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन आज्ञा चक्र में होता है। योगियों का मानना है कि पीनियल ग्रंथि का आज्ञा चक्र से निकट संबंध है। यह अंतर्ज्ञान का क्षेत्र है। इसलिए भ्रूमध्य पर उंगलियों का दबाव होता है तो आज्ञा चक्र सक्रिय होता है और पीनियल ग्रंथि भी प्रभावित होती है, जो बुद्धि और अंतर्दृष्टि के कारक होते हैं। इस तरह नाड़ी शोधन प्राणायाम से अंत:स्रावी संस्थानों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इड़ा और पिंगला नाड़ियां संतुलित हो जाती हैं और अन्य नाड़ियां भी शुद्ध हो जाती हैं। भ्रामरी प्राणायाम में भी मस्तिष्क के पीनियल केंद्र, पिट्यूटरी केंद्र सभी भ्रमर जैसी आवाज से प्रभावित होते हैं। अध्यात्म में प्रवेश दिलाने की योग साधनाओं में यह प्राणायाम बड़े महत्व का है।

पर शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उत्थान में योगनिद्रा, काया स्थैर्यम और अंतर धारणा जैसी उच्चतर साधनाएं अध्यात्म में प्रवेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती हैं। परमहंस सत्यानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित योगनिद्रा पर वर्षों पहले जापान में शोध हुआ था। उससे पता चला था कि गहरी निद्रा में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान में अल्फा तरंगे निकलती हैं। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगें परस्पर बदलती रहती है। इसका मतलब यह हुआ कि पूरे अभ्यास काल में साधक की चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। बीटा और थीटा की यह अदला-बदली ही योगनिद्रा का रहस्य है। योगनिद्रा की तरह काया स्थैर्यम भी प्रत्याहार की क्रिया है। इस अभ्यास से शरीर स्थिर हो जाता है और मन को शांति का अनुभव होता है। ध्यान में प्रवेश के लिए इस साधना का बड़ा महत्व है।     

श्रीमद्भागवत गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिनका मन उच्छृंखल है, उनके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन होता है। समझने वाली बात है कि जिसकी चेतना ही नियंत्रण में न हो, वह योग में पूर्णता कैसे प्राप्त कर सकता है। परन्तु कृष्ण आगे कहते हैं कि जिनका मन संयमित है वे उचित विधियों से प्रयास करके आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। वे इसी बात को दूसरे तरीके से भी समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी प्रकार जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्म तत्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है। इस तरह समझा जा सकता है कि अध्यात्म में प्रवेश हेतु मन का प्रबंधन कितना जरूरी है। इसलिए योग साधना शिवरों में प्राणायाम से लेकर प्रत्याहार और धारणा की जो भी विधियां बताई गईं, वे मन का प्रबंधन करके अंतींद्रिय शक्तियों को स्पंदित करने वाले हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

बालयोग और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के संदेश

किशोर कुमार

आधुनिक योग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के जन्मदिवस और बालयोग दिवस की शुभकामनाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव और संयुक्त राष्ट्र संघ की सहमति के बाद भले सन् 2015 से प्रति वर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाने लगा है। पर इसका बीजारोपण दो दशक पहले यानी 1995 में हो चुका था। उसी वर्ष बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के जन्मदिवस को बालयोग दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया था। तब से वह सिलसिल अनवरत जारी है। कोरोनाकाल में जब बड़ी संख्या में बच्चे मानसिक पीड़ाओं से दो चार हो रहे हैं और उनकी बौद्धिक क्षमता में ह्रास होने की प्रबल संभावना बनी हुई है, ऐसे में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के प्रसंग और बालयोग दिवस की महत्ता और भी बढ़ गई है।  

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पीछे बाल्यावस्था में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने पिताजी की गोद में। बगल में हैं अम्मा जी।

आद्य गुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौते सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में जरिए मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अनुपम उपहार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग परंपरा से बेहद प्रभावित हैं। कुछ साल पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने उनसे पूछा था कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी। खैर, सन् 1960 में मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के राजनांदगांव में जन्में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बाल्यावस्था में ही अपने गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में चले गए थे। प्रारंभ में उन्हें गायत्री मंत्र, सूर्य नमस्कार और नाड़ी शोधन प्राणायाम की शिक्षा मिली और इसके साथ योगमय जीवन की आधारशिला पड़ गई थी।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के सबल कंधों पर जब बिहार योग परंपरा की जिम्मेवारी आई तो उन्होंने समन्वित योग के प्रचार-प्रसार के गुरूत्तर कार्य के साथ ही बच्चों के योगमय जीवन पर बहुत जोर दिया। इसे व्यापकता प्रदान करने के लिए सात बच्चों को लेकर बालयोग मित्र मंडल का गठन किया। इसी बालयोग मित्र मंडल के तत्वावधान में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का जन्मदिवस बालयोग दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इस संगठन का उद्देश्य संस्कार की प्राप्ति, स्वावलंबन और राष्ट्र-संस्कृति प्रेम को बढ़ावा देना है। वैसे, भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था। ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। आधुनिक विज्ञान के लिहाज से मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिए बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। अन्य कई व्याधियां भी प्रकट होने लगती हैं।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है। ये बातें वैज्ञानिक अध्ययनों से भी साबित हो चुकी हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते। इस लिहाज से स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का जीवन और बालयोग दिवस के संदेश बड़े महत्व के हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योगनिद्रा और स्वामी सत्यानंद सरस्वती

किशोर कुमार

चार दिनों बाद ही यानी 24 दिसंबर को बीसवीं सदी के महानतम संत परमहसं स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 98वी जयंती है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसके परिणामों से दुनिया भर के लोगों को अवगत कराने वाले इस महानतम योगी ने योगनिद्रा के रूप में दुनिया को अनुपम उपहार दिया था, जिसकी बदौलत असंख्य लोगों के मन का प्रबंधन और बीमारियों से मुक्ति पाना संभव हो पा रहा है। सच है कि योगनिद्रा एक ऐसी यौगिक विधि है, जिसके अभ्यास से बुरी आदतों या मनोवृत्तियों को ठीक किया जा सकता है। एक दशक पूर्व उस महान संत द्वारा अपनी महासमाधि से पूर्व योगनिद्रा पर केंद्रित सत्संग का सार प्रस्तुत है। आप सब लाभान्ति होइए।

योगनिद्रा को प्रत्याहार की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा गया है, क्योंकि यह शिथिलीकरण की एक क्रिया भी है। शिथिलीकरण में भी एक मनोविज्ञान निहित है। शिथिल होने का मतलब पैरों को फैला कर सो जाना नहीं होता। मनोविज्ञान मानता है, और हो सकता है आप लोग भी इस बात को मानें कि निद्रा में विश्राम की स्थिति नहीं रहती। निद्रा की अवस्था में भी तनाव की स्थिति रहती है। इसके पीछे एक ही कारण है कि आज तक हम लोग स्वयं को शिक्षा नहीं दे पाए हैं कि कब मन की तनावपूर्ण अवस्था से सम्बन्ध-विच्छेद करना है और कब शान्त अवस्था से सम्बन्ध जोड़ना है ।

योगनिद्रा में यही से शिक्षा आरम्भ होती है कि धीरे-धीरे अपनी शारीरक और मानसिक अवस्थाओं को पहचान कर, शारीरीक तनावों प्रति जागरूक हो, मन को एक बिन्दु में केन्द्रित करके हम विश्राम की स्थिति को प्राप्त करें। उस विश्राम की स्थिति में एक नए, सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। योगनिद्रा अभ्यास शनैः शनैः मनुष्य की सजगता को चेतन से अवचेतन और अवचेतन से अचेतन स्तर तक ले जाते हैं। अब दूसरा प्रश्न उठता है, ‘मनुष्य के मन को कैसे समझें?’ जाग्रत अवस्था में हमें बहुत प्रकार के अनुभव मिलते हैं जो हमारे विचार, व्यवहार और कर्म को प्रभावित करते हैं ।अवचेतन और अचेतन में भी इनका असर दिखलाई देता हैं। इन्हीं प्रतिक्रियाओं कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, और तदनुसार कर्म होते हैं। हमलोगों का मन हमेशा धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा के सदृश रहता है, जो सुखद परिस्थिति में भी तनी रहती है और दुःखद में भी । योगनिद्रा के द्बारा यह प्रयास किया जाता है कि परिस्थिति के प्रभाव से हमारे मन में जो तनी हुई प्रत्यंचा है, उसके प्रति सजग होकर हम उसे ढीला कर दें ।

आप किसी सत्संग या रामायण कथा में जाएँगें, पन्द्रह-बीस मिनट के बाद नींद आने लगेगी। किन्तु किसी क्लब या पार्टी में जाएँगें तो आधी रात तक एकदम जमे हुए रहेंगे। विषय भोग के पीछे जाने का कारण मन सजग रहता है और ऊबता नहीं। जहाँ मन शान्त हुआ, ऊब लगने लगती है, आँखों बन्द हो जाती हैं। यह मन का स्वाभाविक रूप है। इसी में आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना है। योगनिद्रा में लेटते ही खर्राटे शुरू हो जाता हैं। या बहुत बार होता है कि हम एकदम सजग रहते हैं, सोते नहीं है, लेकिन कहीं सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जब हम फिर से सजग होते हैं तो देखते हैं कि अरे, अभी हम शरीर की दाहिनी तरफ धूम रहे थे और अब यहाँ कल्पना कर रहे हैं कि सूर्य देखो, चन्द्रमा देखो । यह अन्तराल कैसे आ गया?

यह अनुभव तब होते हैं जब मन शांत होता है, क्योंकि जिन इन्द्रियों के साथ मन का सम्पर्क हमेशा रहता है, चाहे वह कर्मेन्द्रिय हो, चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो, चाहे बुद्धि हो, या चित्त हो, उनके साथ अगर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाए तो तन्द्रा की अवस्था अवश्य आएगी। स्वप्न की अवस्था में अगर आप जानें कि मैं सोच रहा हूँ या मैं स्वप्न देख रहा हूँ तो आप जान लेना कि अब हम योगनिद्रा का अभ्यास करने के लिए तैयार हो रहे हैं । हस तैयारी में अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । यह स्थिति स्वतः उत्पन्न होती है। जिन्हें योगनिद्रा के प्रारंभिक अभ्यास सिद्ध हो जाते हैं, वे चार धंटे की निद्रा को चालीस मिनट या एक धंटे में पूरा कर सकते हैं। इतिहास में महात्माओं या विचारकों या बड़ी-बड़ी हस्तियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने योगनिद्रा के अभ्यास को सिद्ध किया है । गाँधीजी के बारे में मालूम है । दो मिनट आँख बन्द करते, फिर एकदम तैयार । नेपोलियन के बारे में सुनते हैं कि वह धोड़े पर बैठे-बैठे सो जाता था, और फिर लड़ाई के लिए तैयार।

योगनिद्रा चेतना को जाग्रत करने का एक तरीका है। इसमें जो अनुभव होते हैं, निद्रा आती है, उस समय थोड़ा संधर्ष तो करना पड़ता है । मानसिक अनुशासन के अभाव में यह आवश्यक होता है कि हम प्रारंभ में थोड़ा संधर्ष करें । लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास होता जाएगा, संधर्ष नहीं करना पड़ेगा । मन विचारशून्य हो जाता  है, समयान्तराल हो जाता है । एक बार अगर न सोने की आदत हो गया तो जल्दी ही गाड़ी पकड़ में आ जाएगी । योगनिद्रा में मन बहुत ग्रहणशील और संवेदनशील हो जाता है । बच्चों की संकल्पशक्ति, ग्रहणशक्ति और प्रतिभा बढ़ाने के लिए यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है, और बच्चों को आप चाहे किसी विषय की शिक्षा योगनिद्रा में दे सकते हैं । योगनिद्रा ही एक ऐसी विधि है जिसमें ‘हिस्ट्री ज्योग्राफी बड़ी बेवफा, रात को पढ़ा सवेरे सफा’ वाला हिसाब नहीं होता ।

योगनिद्रा कहती है ‘सो के पढ़ा और सबेरे रखा,’ क्योंकि इसमें ग्रहणशीलता इतनी तीव्र हो जाती कि कुछ भूल ही नहीं सकते हैं। जवानों के लिए अच्छी चीज है, क्योंकि जीवन में भागदौड़ की शुरुआत जवानी में होती है। जैसे-जैसे आज विभिन्न उत्तरदायित्वों को ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे तनावमुक्त रह कर सही प्रकार से अपनी क्षमता का उपयोग करना – यही सिखलाना योगनिद्रा का उद्देश्य हो जाता है। बड़ों के लिए अच्छा अभ्यास है ताकि वे स्वयं को शांत, संयम और संतुलित रख सकें, ताकि रक्तचाप की शिकायत न हो, किसी परिस्थिति में दिल का दौरा नहीं पड़े, मन शान्त रहे । बुजुर्गों के लिए भी अच्छी चीज है, सोने को मिलता है। अतः सभी दृष्टिकोणों से, सभी वर्गों के लिए, सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए, योगनिद्रा का अभ्यास बहुत उपयोगी है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नई सदी के योगधर्म की राह दिखता सत्यानंद योग

बिहार योग विद्यालय उस सुगंधित पुष्प की तरह है, जिसकी खुशबू सर्वत्र फैल रही है। उसकी विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इसे पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के महासमाधि दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख।

किशोर कुमार

इस सदी का योग-दर्शन क्या हो? इस सवाल को लेकर भारत ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन से प्रभावित विद्वान दुनिया भर में बहस कर रहे हैं। इस बीच पूरी दुनिया में योग विद्या की दिशा-दशा तय करने के लिए एक बार फिर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय ने राह दिखाई है। इस योग संस्थान के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से सत्यानंद योग परंपरा के अनुरूप अगले पचास वर्षों के लिए योग विद्या का जो लक्ष्य और तदनुरूप उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, वह शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत तो है ही, इस युग की जरूरतों के अनुरूप भी साबित होगा। ठीक वैसे ही, जैसे सत्यानंद योग का यौगिक लक्ष्य बीते पचास वर्षों में फलीभूत हुआ था।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सन् 1960 में ही कहा था – “योग विश्व की संस्कृति बनेगा और भारत पूरे विश्व को राह दिखाएगा।“ कालांतर में ऐसा हुआ भी। संयुक्त राष्ट्र के 177 सदस्य देशों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा की गई। दुनिया भर में योग को स्वीकृति मिल गई। तब जरूरी हो गया कि योग और अध्यात्म की पावन भूमि भारत भविष्य के लिए योग का रोडमैप तैयार करे। वह बताए कि योग के उच्चतम पायदान पर कदम बढ़ाते हुए वास्तविक लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले पचास वर्षों के लिए योग-विद्या की दिशा-दशा क्या होगी।

नौ वर्षों तक परिवाज्रक जीवन और कठिन साधनाओं के बाद साठ के दशक में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पचास वर्षों के लिए योग की दिशा तय की थी। उसे देश-विदेश में बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिली थी। इसलिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के बाद जाहिर है कि परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से इस पुनित कार्य की उम्मीद की जा रही थी। पर जो लोग सत्यानंद योग परंपरा के बारे में जानते हैं, वे इस बात से चौंके नहीं कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस दायित्व के निर्वहन के लिए जमीनी अभ्यास सन् 2013 से ही शुरू कर दिया था। पांच-छह वर्षों की कड़ी साधनाओं की अनुभूतियों और योगानुरागियों के फीडबैक के आधार पर अब अगले पचास वर्षों में योग को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए दिशा-दशा तय करके उस पर अमल भी किया जाने लगा है।

कमाल यह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती ने समन्वित योग की जैसी परिकल्पना की थी और उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उस परिकल्पना को विज्ञानसम्मत तरीके से व्यावहारिक रूप देकर योगानुरागियों का जीवन खुशनुमा बनाने का जो संकल्प लिया था, थोड़े अंतर से उसी समन्वित योग के वृहत्तर स्वरूप को अगले पचास वर्षों के लिए उपयुक्त समझा गया है। ताकि योगानुरागियों का आध्यत्मिक उत्थान हो और वे अनुभव कर सकें कि मन के पीछे की शक्ति क्या है। यानी मौजूदा समय में समन्वित योग शिक्षा के स्वरूप को व्यापक बनाया गया है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग के साथ ही शास्त्र में वर्णित कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, स्वरयोग, नादयोग आदि को मिलाकर समन्वित योग की शिक्षा देनी शुरू की थी। पर उसे उस समय की जरूरतों के लिहाज से सरल रखा था।

इस सदी के लिहाज से प्रस्तुत छह खंडों वाले योग-चक्र में हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग शामिल है। अष्टांग योग को अलग से जगह नहीं दी गई है। इसलिए कि सत्यानंद योग पद्धति में माना गया है कि अष्टांगयोग का संबंध योग के सभी छह चक्रों से है। हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध ये पांच उप अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि मिलाकर आठ उप अंग राजयोग के हैं। इसी तरह क्रियायोग के उप अंग प्रत्याहार, धारणा और ध्यान हैं। ज्ञानयोग के तहत भी सात उप अंग बनाए गए हैं। वे हैं – शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुर्यगा। अपरा भक्ति और परा भक्ति भक्तियोग के उप अंग हैं। कर्मयोग में आत्म शुद्धि, अकर्त्ताभाव और नैश्कर्म सिद्धि साधना शामिल हैं। बिहार योग पद्धति के तहत अब सभी छह योग-चक्रों के सभी उप अंगों की गहनतम शिक्षा दी जाएगी। मतलब यह कि यदि कोई हठयोग ही जानना चाहे तो उसे उसके सभी पांच उप अंगों को जानना अनिवार्य होगा। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर नई-नई योग विधियां बनाने का काम पूर्ववत जारी रखा जाना है।

वसंत पंचमी के दिन इस गौरवशाली विश्व विख्यात और पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित संस्थान की स्थापना के 58 साल पूरे हो जाएंगे। शास्त्रसम्मत, विज्ञानसम्मत और दूरगामी सोच के तहत तय मानदंडों का ही नतीजा है कि यह अपनी स्थापना काल से ही योग विद्या के मामले में टेंड सेटर की भूमिका में है। इस संदर्भ में बेंगलुरू स्थित योग विश्वविद्यालय स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के उपकुलपति डॉ एचआर नगेंद्र का वक्तव्य गौरतलब है – “मैं जब पहली बार बिहार योग विद्यालय के संपर्क में आया था तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी की कार्यशैली देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। मैंने देखा कि किस प्रकार वे योग के माध्यम से आश्रम आने वाले लोगों को रूपांतरित कर रहे थे। मैंने इस पद्धति को अपने संस्थान में लागू कर दिया। सच तो यह है कि पूज्य गुरूओं स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने जिस प्रणाली का विकास किया, उसे हमने अपना लिया।“

इन्हीं विलक्षणताओं की वजह से इंग्लैंड सहित यूरोप और अमेरिका के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” ने इस संस्थान को पहले स्थान पर ऱखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चयनित चार योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय भी है। इसकी श्रेष्ठता को देखते हुए उसे प्रधानमंत्री पुरस्कार के योग्य समझा गया। “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर कार्यक्रम हुआ तो वहां भी बिहार योग पद्धति छाई रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के यौगिक कैप्सूल की अहमियत बताते हुए देशवासियों से इसे अपनाने की अपील कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए भी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में निर्देशित योगनिद्रा योग बेहतर लगता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “गुरूकुल में प्राचीन और आधुनिक विचारों का समन्वय करके ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो विश्व-बंधुत्व व वसुधैव-कुटुंबकम् के भावों को पोषित करता हो। इसलिए कि सत्यम्, शिवम् व सुंदरम् को प्रकट करना ही योगानुरागियों के जीवन का आदर्श उद्देश्य है।“  उम्मीद है कि नया योग-चक्र इन कसौटियों पर खरा उतरेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives