योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कोरोना महामारी के बाद प्राण चिकित्सा की बढ़ती अनिवार्यता

किशोर कुमार

प्राणायाम आध्यात्मिक जीवन के साथ ही स्वस्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है। शरीर के सारे अंग अपना काम तभी सही तरह से करें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें नियमित रूप से ऑक्सीजन युक्त खून की पूर्ति होती रहे। पर यह काम तभी संभव हो पाता है जब दिल और फेफड़े स्वस्थ्य होते हैं। कोरोनाकाल की घटना याद होगी कि चिकित्सकों की सलाह पर हम सब ब्रेथ होल्डिंग एक्सरसाइज करने लगे थे। कोई तीस सेकेंड तक श्वास रूका रह जाता था तो समझ लेते थे कि फेफड़ा स्वस्थ्य है। पर मौजूदा समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं जिस तेजी बढ़ी हैं, मानव स्वास्थ्य को खतरा भी उतनी ही तेजी से बढा है। यूं तो इस संकट से उबरने के लिए खान-पान और रहन-सहन से लेकर कई स्तरों पर एहतियात बरतने की जरूरत है। पर प्राणायाम की शक्ति ऐसी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।  

विश्व विख्यात वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन के बारे में तो हम जानते ही हैं। मांसपेशियों के दर्द से परेशान थे। इलाज के लिए दुनिया के अनेक भागों में गए। पर राहत न मिली। तभी उन्हें दक्षिण भारतीय योगगुरू बीके सुंदरराज आयंगार के बारे में पता चला। चलने-फिरने से लगभग लाचार होने के बावजूद मेनुहिन सात घंटे की यात्रा तय करके आयंगार की शरण में पहुंच गए थे। अपनी व्यथा बताई। आयंगार ने योगोपचार शुरू किया तो कम समय में ही बड़ी राहत मिल गई थी।

मेनुहिन योग और आयंगार के दीवाने हो गए। योग के प्रति लगाव ऐसा हुआ कि शीर्षासन तक करने लगे। बात जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने मेनुहिन को अपने सामने शीर्षासन करने की चुनौती दी। इसलिए कि उन्हें शायद खबरों पर यकीन नहीं था। मेनुहिन ने चुटकी बजाते शीर्षासन कर दिखाया। इससे नेहरू जी इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने भी शीर्षासन करके दिखा दिया। यह घटना भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनी थी। इसके साथ ही बीकेएस आयंगार की कीर्ति दुनिया भर में फैल गई थी। वे मेनुहिन के आग्रह पर इंग्लैंड गए और जल्दी ही यूरोपीय देशों में छा गए थे।

यह प्रसंग जानने के बाद किसी को भी सहज उत्सुकता होगी कि आखिर हठयोगी आयंगार ने ऐसा कौन-सा जादू किया होगा। अब तक उनकी जितनी भी पुस्तकें पढ़ी है, किसी में इस बात का खुलासा नहीं है। आयंगार की चर्चित पुस्तक “लाइट ऑन प्राणायाम” में येहुदी मेनुहिन द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पढ़ी तो लगा कि आसनों के साथ ही प्राणायाम का जादू था कि वे इतनी जल्दी रोग मुक्त हो गए थे। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है – “प्राणायाम वायु-संचालन की एक क्रिया है, जो पृथ्वी पर जीवन का निर्धारण करती है। यह वस्तुत: आइंस्टाइन के पदार्थ और ऊर्जा के सिद्धांत को संपूर्णता प्रदान करता है। साथ ही उसे मानव के लिए व्यवहारिक बनाता है।“ कई महीनों की खोज के बाद आखिर एक तस्वीर भी हाथ लगी, जिसमें आयंगार के सामने मेनुहिन नाड़ी शोधन प्राणायाम करता दिख रहा है।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती प्राणायाम के संदर्भ में कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो योगी कुंभक के साथ अपने हाथों से उसकी टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने से योगी के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं। वैदिक सिद्धांतों के मुताबिक भी गायत्री मंत्र का जप करते हुए पूरक, रेचक और कुंभक बेहद ताकतवर होता है।

हठयोग के प्रख्यात गुरू बीकेएस आयंगार ने भी कहा है – “प्राणायाम मनुष्य के शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है। साथ ही योग के चक्र की धुरी है। तभी इसे महातपस या ब्रह्मविद्या कहा जाता है।“ आमतौर पर प्राणायाम की तीन-चार विधियां ही प्रचलित हैं। पर इसकी और भी विधियां हैं। उज्जायी, अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, सूर्यभेदन, शीतकारी, शीतली, भस्त्रिका, कपालभाति, भस्त्रिका, भ्रामरी, नाड़ी शोधन आदि। इन विधियों की भी कई उप विधियां या अवस्थाएं हैं। नाड़ी शोधन और कपालभाति पर कई अनुसंधान हो चुके हैं। प्राणायाम के रहस्यों पर से जैसे-जैसे पर्दा उठ रहा है, उसको देखते हुए आने वाले समय में यह हठयोग से इत्तर एक स्वतंत्र विषय बन जाए तो हैरानी न होगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। प्राणायाम से नाड़ी मंडल में संतुलन बना और मस्तिष्क केंद्रों की खतरनाक क्षतिकारक प्रतिक्रिया नियंत्रित हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहेवियरल हेल्थ एंड एलाइड साइंसेज, भोपाल और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने किशोरवय के छात्रों की आक्रमकता पर कपालभाति के प्रभाव का अध्ययन किया है। इसका नतीजा है कि योग की यह क्रिया आक्रमकता पर काबू पाने में बेहद प्रभावी है। पतंजलि योग अनुसंधान संस्थान ने भी कपालभाति में काफी काम किया है। हालांकि कलापभाति को लेकर विवाद भी पुराना है कि यह प्राणायाम है या शोधन-क्रिया। पर इसे व्यापक रूप से प्राणायाम का हिस्सा माना जा चुका है।

प्राणायाम के महत्व का अंदाज इस बात से भी लगा सकते हैं कि ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। वे केवल और केवल प्राणायाम करते हैं। समय की मांग है कि प्राणायाम साधना को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकाने वाली बात न रही। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर के भौगोलिक स्थितियों का बयान ऐसे कर दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ बता रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी, जिसके परीक्षण के बाद बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।     

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह सक्रिय किया जा सकता है? गायत्री जयंती इस साल 31 मई को मनाई गई। यह लेख उसी आलोक में होगी। वैसे, गायत्री विद्या इतना व्यापक है कि इसके किसी भी पक्ष को ले लीजिए, यदि ज्ञान है तो मोटे-मोटे ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। इसकी व्यापकता का अंदाज इस बात से लगा सकते हैं कि वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता है तो गायत्री उपनिषद है, गायत्री संहिता है तो गायत्री तंत्रम है। गायत्री रामायण है तो गायत्री सहस्रनाम है। गायत्री चालीसा है तो गायत्री हृदयम है। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था –गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है।

हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। गायत्री मंत्र के जरिए हम जो प्रार्थना करते हैं, उसका भाव होता है – उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे। कालांतर में तथ्यों के आधार पर यह विचार बलवती होता गया कि मनुष्य गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। 

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत ऊं नाद का प्रतीक है। सृजन के क्रम में इस ध्वनि का विकास होता गया। इस तरह कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैदिक सिद्धांतों में गायत्री को प्राण की इष्ट देवी कहा गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। योग शास्त्र में आज्ञा-चक्र को सक्रिय करने के लिए अनेक विधियां बतलाई गई हैं। यह सच है कि उनमें से किसी भी विधि से आज्ञा-चक्र को सक्रिय किया जा सकता है। पर इस मामले में गायत्री मंत्र की शक्ति अद्भुत है। इस मंत्र के सभी 24 अक्षरों के अलग-अलग देवता हैं और उन अक्षरों के उच्चारण का कुंडलिनी चक्रों पर प्रभाव होता है। जैसे, जब हम तत् का उच्चारण करते हैं तो इसके देवता गणेश हैं, जो सफलता शक्ति प्रदान करने वाले हैं।

जैसे हनुमान जी का उपनयन संस्कार हुआ था, वैसे ही भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

गायत्री उपासना से आध्यात्मिक उपलब्धियों के साथ ही भौतिक उपलब्धियां मिलने के भी उदाहरण भरे-पड़े हैं। आधुनिक विज्ञान ने गायत्री मंत्र की वैज्ञानिकता और मानव की चेतना के विकास में उसके महत्व का बार-बार उजागर किया है। गायत्री जयंती पर यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो यह बड़ी उपलब्धि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद की गोली न बनाएं इन योग विधियों को

भक्तिकाल के महान संत अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ उर्फ रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा है – “रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजै डारि। जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥“ हम सब बोलचाल में इसी बात को कहते भी हैं कि जहां सुई की जरूरत है, वहां तलवार का क्या काम? पश्चिम के दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने लॉ ऑफ इंस्ट्रुमेंट कहा। पर अब्राहम मास्लो की व्याख्या सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुई – यदि आपके पास केवल और केवल हथौड़ा ही है तो आप हर वस्तु को कील समझने लगते हैं। गुरूत्तर उद्देश्य वाली योग विद्या के साथ व्यवहार रूप में ऐसा ही हो रहा है। प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा की जिन विधियों का उपयोग शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य और चेतना के विकास के लिए होना चाहिए था, उनका इस्तेमाल नींद की गोलियों की तरह किया जा रहा है। यानी सुई का काम तलवार से।

ऑस्ट्रेलियाई सेना के ब्रिगेडियर ओलिवर डेविड जैक्सन की एक प्रचलित कहानी है। साठ के दशक में उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के बीच युद्ध चरम पर था। ब्रिगेडियर डेविड की अगुआई में आस्ट्रेलियाई सेना दक्षिणी वियतनाम की तरफ से जंग-ए-मैदान में थी। दुश्मनों ने एक रात आस्ट्रेलियाई सेना की एक टुकड़ी के सभी जवानों पर एक साथ वार करके उन्हें मौत की नींद सुला दी। ब्रिगेडियर डेविड खुद किसी तरह बच गए। पर उस हृदयविदारक घटना इतने द्रवित हुए कि हृदयाघात हो गया। अस्पताल ले जाया गया। उन्होंने वहां एक साधु को देखा तो पूछा लिया, “आप यहां क्या कर रहे हैं?” उत्तर मिला, “मैं मरीजों को योगाभ्यास कराता हूं।“ ब्रिगेडियर डेविड ने अगला सवाल किया, “क्या मैं योग की बदौलत फिर से युद्ध के मैदान में खड़ा हो सकता हूं?”  इसके बाद जो हुआ, उससे उनका जीवन बदल गया। वे “योगनिद्रा” की बदौलत स्वस्थ हो गए और युद्ध के मैदान में जा खड़े हुए थे।

चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हो चुका है कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है। जरा सोचिए, इतनी प्रभावशाली योग विद्या का इस्तेमाल हम अपने संपूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य के लिए न करके केवल नींद के लिए करते हैं तो इसे क्या कहा जाए?  मेरे कई जानने वाले उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, अवसाद आदि गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। मैं जब उनसे पूछता हूं कि आप योगनिद्रा का नियमित अभ्यास करते हैं तो जबाव होता है कि हां, जब नींद नहीं आती है तो उसका प्रयोग कर लेता हूं। तुरंत ही नींद आ जाती है।

योगनिद्रा की तरह ही अजपा जप एक महान योग विधि है। इस पर भी दुनिया भर में अध्ययन किया गया। सिलसिला अब भी जारी है। इस योग विधि में शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव इन तीनों को एक साथ ही दूर कर देने की असीम शक्ति है। ऐसे में इसके सामान्य अभ्यास से ही नींद आ जाना मामूली बात है। पर जीवन में ऐसी उथल-पुथल मची रहती है कि हम इस बात पर विचार नहीं करते कि नींद क्यों नहीं आती है और क्या नींद न आने के कारणों का इलाज इस योग विधि से संभव है? नतीजा होता है कि हम छोटे लाभों के लिए बड़ा अवसर गंवा देते हैं और समस्या बढ़ती चली जाती है।

“अजपा जप” प्राणायाम और धारणा के बीच का उच्चतर योग कर्म है। यह जब सिद्ध होता है तो बिना जप किए जप होने लगता है। अंतर्ध्वनि खुद प्रकट हो जाती है। रामायण में प्रसंग है कि जब हनुमान जी सीती जी की खोज में जंगलों में भटक रहे थे तो उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। वह नींद में था। पर उसके मुख से राम नाम का मंत्र निकल रहा था। तब हनुमान जी अपने इष्ट श्रीराम को याद कर आराधना करते हैं। कहते हैं – हे प्रभु, ऐसी अवस्था मुझे भी प्राप्त हो जाए। उस राम नाम का संबंध श्रीराम से नहीं था। शास्त्रों में उल्लेख है और परंपरागत योग के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते भी हैं कि कृष्ण और राम नाम वाले तमाम मंत्र कृष्ण भगवान और मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के जन्म से पहले भी थे। खैर, अजपा जप में प्रयुक्त मंत्र की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि यह आधुनिक युग की अनेक बीमारियों की एक दवा हो सकती है। आध्यात्मिक चेतना का विकास तो होता ही है।

भ्रामरी प्राणायाम भी बेहद शक्तिशाली प्राणायाम है। पर इसका ज्यादातर प्रयोग नींद के लिए किया जाने लगा है। यह सच है कि यदि नींद न आ रही हो और इस प्राणायाम का अभ्यास कर लिया जाए तो नींद आने की संभावना प्रबल हो जाती है। पर भ्रामरी प्राणायाम का इसे बाईप्रोडक्ट कह सकते हैं। इस प्राणायाम में दम इतना कि अमेरिका के येल स्कूल ऑल मेडिसिन में अध्ययन हुआ तो पता चला कि यह त्वचा कैंसर से मुक्ति दिलाने में मददगार है। दरअसल, इससे पीनियल ग्रंथि उदीप्त होता है तो मिलेनिन का बनना बंद हो जाता है, जो त्वचा कैंसर की प्रमुख वजह है। योगशास्त्र में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र कहते हैं, जो मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने में सहायक है। इसलिए बच्चों को विशेष तौर से यह योगाभ्यास करने की सलाह दी जाती है। ताकि बौद्धिक विकास हो और जीवन में स्पष्टता आए।

योग की कोई विधि एलोपैथिक दवा नहीं कि किसी रोग की वजह से दर्द हुआ और एक दर्दनाशक टैबलेट खाकर उससे अस्थाई मुक्ति पा ली। शारीरिक स्वास्थ्य के संदर्भ में योग का पहला उद्देश्य तो है कि मानव शरीर रोगग्रस्त हो ही नहीं। यदि रोग हो ही गया और आधुनिक चिकित्सा पद्धति से रोग का कारण पता लगाकर  आयुर्वेदिक आहार के साथ समुचित योगाभ्यास कमाल का असर दिखाता है। कुल मिलाकर बात इतनी कि नींद क्यों नहीं आती, इसकी पड़ताल करके उससे मुक्ति पाने के लिए योग कर्म होना चाहिए। तभी योग की सार्थकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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