आदिशक्ति की लीलाकथा और दुर्गासप्तशती

किशोर कुमार //

नवसंवत्सर की शुरूआत ही देवी की आराधना से होगी। सृष्टि की रचना देवी से हुई थी। ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीकात्मक रूप भी वे ही हैं। उपनिषद में कहा गया है कि पराशक्ति ईश्वर की परम शक्ति है। यही विविध रूपों में प्रकट है। आत्मज्ञानी संत प्राचीनकाल से कहते रहे हैं कि देवी या शक्ति सभी कामनाओं, ज्ञान और क्रियाओं का मूलाधार है। अब वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि प्रत्येक वस्तु शुद्ध अविनाशी ऊर्जा है। यह कुछ और नहीं, बल्कि उस दैवी शक्ति का एक रूप मात्र है, जो अस्तित्व के प्रत्येक रूप में मौजूद है। नवरात्रि के दौरान हम उसी देवी की आराधना करेंगे कि वे हमें तामसिक गुणों से मुक्ति दिलाकर सात्विक गुणों के विकास की दिशा में अग्रसर करें।  

शक्ति की आराधना सृष्टि के आरंभ से ही होती आई है। तभी सृष्टि के प्रारंभ में समाज स्त्री प्रधान था। वैदिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। पर, सभ्यता के विकास के साथ नाना प्रकार के विकारों के कारण समाज का स्वरूप बदला और पुरूष की प्रधानता हो गई। पर, संतजन कहते हैं कि जैसे-जैसे आंतरिक जागरण होगा, हमें शक्ति की महत्ता समझ में आने लगेगी और यह अवश्यंभावी है। खैर, नवरात्रों के दौरान दुर्गा सप्तशती के मंत्रों से वातारण गूंजायमान होगा। मंत्रों की शक्ति आंतरिक उत्थान का संवाहक बनेगी। देवी महात्म्य से हमें योगमय जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी।

हम सब जानते हैं कि दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण की सबसे बड़ी देन है। इसमें कुल सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के चरित का वर्णन किया गया है। वैसे तो सामान्य जनों के लिए दुर्गासप्तशती पूजा-पाठ का एक ग्रंथ है। पर मंत्र विज्ञान के आलोक में व्याख्या हो तो पता चलता है कि यह हमारे आंतरिक जागरण का अद्भुत ग्रंथ है। शास्त्रों में शक्ति की महिमा जगह-जगह मिलती है। श्रुति और स्मृति आधारित ग्रंथों में भिन्नता दिखती है। पर अर्थ नहीं बदलता। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में इस शक्ति से संबंधित स्तवन मिलते हैं। उनमें इस शक्ति को समग्र सृष्टि की मूल परिचालिका बतलाकर विश्व जननी के रूप में स्तुति की गई है। इस शक्ति के द्वारा अनेक मौकों पर देवताओं को त्राण मिला और तभी से देवी सर्वविद्या के रूप में पूजित होती आ रही हैं।

देवी के नौ स्वरूपों में प्रथम शैलपुत्री है, जो प्रकृति की प्रतीक हैं। यानी प्रकृति की आराधना से नवरात्रों की शुरूआत होती है। देवी भागवत और अथर्ववेद में देवी स्वयं कहती हैं – मैं ही सृष्टि, मैं ही समष्टि, मैं ही ब्रह्म, मैं ही परब्रहा, मैं ही जड़, मैं ही चेतन, मैं ही स्थल, मैं ही विशाल, मैं ही निद्रा, मैं ही चेतना हूं। मेरे से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है और मैं ही इसके काल का कारण बनूंगी। मेरे से पृथक कोई नहीं। मैं सबसे पृथक हूं। कितना सुखद है कि संसार को आलोकित करने वाली, गुणों को अभिव्यक्ति देने वाली, काल को वश में करने वाली, मानवमात्र का हित करने वाली शक्ति स्वरूपा मां की लीलाओं में छिपे संदेशों को समझते हुए योगबल द्वारा आंतरिक जागरण करने का बेहतरीन अवसर मिलने वाला है।

नवरात्रों के दौरान प्रथम तीन दिनों तक देवी मां की आराधना भयंकर दुर्गा शक्ति के रूप में की जाती है। यह अपनी समस्त अशुद्धियों, दोषों, दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए शक्ति प्राप्त करने का अवसर होता है। इसके लिए दुर्गा सप्तशती परायण के साथ ही अष्टांग योग के यम-नियम की साधना श्रेष्ठ है। जब दुर्गुणों को नष्ट करने के बाद देवी मां की आराधना महालक्ष्मी के रूप में करके सद्गुणों का विकास करने की बारी होती है।  इससे दैवी संपदा का अक्षय भंडार प्राप्त होता है। अंतिम तीन दिन देवी मां की आराधना महासरस्वती के रूप में की जाती है, जो दैवी ज्ञान और ब्रहाज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। उनकी वीणा श्रेष्ठ महावाक्यों और प्रणव के स्वरों को हृदय में जगाती हैं। वह परम नाद का ज्ञान देती हैं और आत्मज्ञान प्रदान करती हैं।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

सच है कि मंत्रयोग का अपना स्वतंत्र विज्ञान है। शब्द तत्व की ऋषियों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द से सूक्ष्म जगत में जो हलचल मचती है, उसी का उपयोग मंत्र विज्ञान में किया गया है। ऋषियों ने इसी विद्या पर सबसे अधिक खोजें की थीं। तभी यह विद्या इतनी लोकप्रिय हो पाई थी कि जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता था। जल की वर्षा करने वाले वरूणशास्त्र, भयंकर अग्नि उगलने वाले आग्नेयास्त्र, संज्ञा शून्य बनाने वाले सम्मोहनशास्त्र, समुद्र लांघना, पर्वत उठाना, नल की तरह पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना आदि अनेकों अद्भुत कार्य इसी मंत्र शक्ति से किए जाते थे।

कालांतर में कर्मकांडों की वजह से शक्ति की उपासना के साथ कई विसंगतियां जुड़ती गईं। बलि प्रथा इसका जीवंत उदाहरण है। बलि देनी है अपने अंतर्मन में छिपे अवगुणों की। हथियार है यम-नियम। पर हम भटक गए और बलि देने लगे पशुओं की। संतों की वाणी है कि कलियुग में शस्त्र नहीं, शास्त्र से द्वारा जीत हासिल की जा सकती है। इसलिए कि तलवार से तलवार शांत नहीं होती। दुर्गा सप्तशती की साधना का अंतिम लक्ष्य है – जीवन में श्रेय और प्रेय का आविर्भाव। हमारी साधना का संकल्प भी यही होना चाहिए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

होली : परमानंद का सतरंगी उत्सव

किशोर कुमार //

रंग है, गुलाल है। मस्ती है, आनंद है। सतरंगी उत्सव है, उल्लास का महोत्सव है। तभी ब्रज की मस्ती भरी होली हो, महाराष्ट्र की मटकी होली हो या कोई अन्य होली, सभी का अंतर्निहित भाव एक है। वह है – बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव। शास्त्रों में उल्लेख है और संत-महात्मा अपने अनुभवों के आधार पर कहते रहे हैं कि सात्विक गुणों में अभिवृद्धि होती है तो अंतर्मन में प्रेम और श्रद्धा का दीपक जलता है। ऐसे मन में ही आनंद का आविर्भाव होता है और जीवन उत्सव बन जाता है।

होली से जुड़ी जितनी भी कथाएं हैं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मायने एक ही है। इसलिए होलिकादहन का गूढ़ार्थ समझे बिना यह महान उत्सव वैसा ही जान पड़ता है, जैसे आत्माविहीन शरीर। पुराण कथा तो सबको पता ही है। दैत्यराजा हिरण्यकश्यप भगवान शिव से अमरता का मिले वरदान से इतना अहंकारी हो गया था कि देवताओं में भी त्राहिमाम मच गया था। कोई ईश्वर की प्रार्थना करे, यह उसे गंवारा न था। पुत्र प्रह्लाद भी अपवाद न था। इसलिए उसने प्रह्लाद की जान लेने के लिए न जाने कितने ही यत्न किए। अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर अग्नि में भस्म कर देते तक की कोशिश की।

आचार्य रजनीश ने इस प्रसंग को बड़े ही तर्कपूर्ण ढ़ंग से प्रस्तुत किया था। वे बड़े दार्शनिक थे, मनोवैज्ञानिक थे। उनकी कल्पनाशीलता कमाल की थी। बोलते थे तो ऐसे मानों आंखों देखा हाल बयां कर रहे हों। तो होली का मौका था और अपने शिष्यों को बता रहे थे – हिरण्यकश्यप प्रहलाद के सामने कमजोर मालूम होने लगा होगा। आनंद के सामने दु:ख सदा कमजोर हो जाता है। दु:ख नकार है। आनंद विधायक ऊर्जा का आविर्भाव है। दु:ख में कभी कोई फूल खिले हैं? कांटे ही लगते हैं। प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्यप का कांटा लज्जा से भर गया होगा, ईर्ष्या से जल गया होगा। प्रहलाद के भगवान के नाम पर गाए गए गीत उसे बहुत बेचैन करने लगे होंगे। उसकी सांसें घुटने लगीं। फिर तो उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है नकार को, नास्तिक को, निर्बल-दुर्बल को – मिटा दो इसे। यानी विध्वंस।

पर भक्त प्रह्लाद का बाल-बांका क्यों न हुआ? ओशो बताते हैं – प्रहलाद ने अपनी श्रद्धा-भक्ति में अवरोध न आने दिया। उसे पहाड़ से फेंका, पानी में डुबाया, आग में जलाया। पर परमात्मा पर विश्वास डोला नहीं और न ही पिता के प्रति दुर्भावना पैदा न हुई। यदि दुर्भावना भी आ गई होती तो तत्क्षण आस्तिक की मौत हो गई होती और वह जलकर भस्म हो गया होता। जीसस ने भी तो ऐसा ही किया था। सूली लगी थी और परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – इन सभी को माफ कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं। ये नासमझ हैं। इसलिए कहता हूं कि संशय रहित भक्ति में बड़ी शक्ति है। ऐसे भक्त को सूली पर लटका कर या आग में जलाकर मारना असंभव है।  

आज के संदर्भ में देखें तो लगेगा कि हमारे भीतर भी तो हर पल, हर क्षण देव-दानवों के बीच संघर्ष चलते रहता है। और अंतर्मन में जो घटित होता है, वही भौतिक जगत में अनाचार, अत्याचार की घटनाओं कारण बनता है। मनुष्य त्रिगुणातीत है। उसकी स्थिति एक जैसी कभी नहीं रहती। सत्व, रजस और तमस गुणों की मात्रा में कमी-बेशी होती रहती है। परिणाम भी गुण के अनुरूप ही मिलने लगते हैं। ऐसे में अखंड श्रद्धा और विश्वास कैसे पनपे? फिर तो मन संदेह से भरा रहेगा। ऐसे मन से अभीष्ट की सिद्धि असंभव ही है। इन गुणों का विकास तो सात्विक गुणों की छांव में होता है। श्रीरामचरितमानस के सती पार्वती प्रसंग में कथा है। रजस गुणी दक्ष की बेटी थीं सती। देखा कि शिव जी भगवान श्रीराम को सच्चिदानंद कहते हुए अभिवादन कर रहे हैं तो मन संदेह से भर गया। सोचने लगीं कि विरह में तपता हुआ मनुष्य भला सच्चिदानंद कैसे हो सकता है? पर अगला जन्म पार्वती के रूप में हुआ तो मन में संशय के लिए कोई जगह न रह गई थी। प्रक्रियाओं से गुजरकर रूपांतरित हो चुकी थीं।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – हे अर्जुन, तुम नित्य सत्व में स्थित रहो। अब परमज्ञानी अर्जुन भी नित्य सत्व में स्थित न रह सके थे तो आम आदमी की क्या बिसात? मेरे गुरूदेव परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि तुम्हारे लिए इसका मतलब यह हुआ कि काम कुछ भी करते रहे। पर भावना शुद्ध रखने की कोशिश करनी है। तभी मन से संशय दूर रहेगा और संकल्पों में दृढ़ता आएगी। चेतना का विकास करके भावनाओं को परिशुद्ध करने के लिए ही योगविद्या है। यहां योगविद्या से तात्पर्य केवल आसन-प्राणायाम नहीं है। राक्षसों की सबसे बड़ी कमजोरी क्रूरता है तो मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी कृपणता है। इसलिए, सेवा और परमार्थ की जरूरत है। इनमें ऐसी शक्ति है कि जीवन पूरी तरह रूपांतरित हो जाए। कृपणता के रहते सत्वगुणों का विकास संभव नहीं है। फिर श्रद्धा व भक्ति दूर की कौड़ी हो जाएगी और असुरों का साम्राज्य कायम रह जाएगा।          

होली का संबंध श्री कृष्ण और राधा रानी की प्रेम कहानी से भी जुड़ा है। पुराण कथा है कि श्री कृष्ण खुद तो काले-नीले थे और राधा रानी के गोरे रंग को देखकर माता से बार-बार सवाल करते कि मैं क्यों काला? यशोदा माता ने कहा कि जो रंग पसंद हो राधा को लगा दो। फिर क्या था। श्रीकृष्ण ने राधा रानी को अपने ही रंग में रंग दिया था। कालांतर में यही दिवस होली का दिन हो गया। इस प्रसंग को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो बात बड़ी अर्थपूर्ण लगेगी। राधा रानी पर भगवान की कृपा इसलिए बरसी कि वह इसके पात्र थीं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं, हमें याद रखना होगा कि श्रद्धा और विश्वास ही धन है। आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए इसी धन की जरूरत होती है। आध्यात्मिक उपलब्धियां ही जीवन को अर्थपूर्ण बनाती है। इसलिए होली हमें आत्म-निरीक्षण का अवसर देती है। यह त्योहार हमें प्रेरित करता है कि सत्वगुणों का विकास करके प्रेम की गंगा ऐसे बहाओ कि मानवता को कलंकित करती आसुरी प्रवृत्तियों के लिए जीवन में कोई स्थान न रह जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

वैश्विक आध्यात्मिकता महोत्सव का संदेश

किशोर कुमार //

योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से मार्च का महीना भारत के लिए खास है। एक तरफ योग नगरी हरिद्वार में गंगा के तट पर सप्ताह व्यापी अंतरराष्ट्रीय योग महोत्सव 15 मार्च से प्रारंभ हो चुका है तो हैदराबाद के कान्हा शांति वनम् का ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव 17 मार्च को संपन्न हो गया। इन महोत्सवों के ठीक पहले यानी 13 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस -2024 की 100 दिनों की उलटी गिनती के उपलक्ष्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में योग महोत्सव-2024, कार्यक्रम का आयोजन किया गया। हम जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रत्येक वर्ष 21 जून को मनाया जाता है और इस वर्ष 10 वां अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाएगा। इसके अलावा विभिन्न स्तरों पर योग और अध्यात्म से संबंधित दर्जन भर कार्यक्रम मार्च में ही आयोजित होने हैं।

पर इन महोत्सवों में विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव खास है। मेरा कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं कि बाकी महोत्सवों मूल्य कमतर है, बल्कि वे इतने खास हैं कि हमारे वार्षिक कैलेंडर का हिस्सा बनकर बेहद सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव बड़े महत्व का इस लिए बन पड़ा कि न केवल इसका फलक व्यापक था, बल्कि इसका संदेश भी ऐसा है, जिसकी गूंज पूरी दुनिया में लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी। ठीक वैसे ही, जैसे विश्व धर्म महासभा के नाम से सभाएँ दुनिया भर में सभाएं तो कई हुईं। पर सन् 1893 में शिकागो की विश्व धर्म महासभा यादगार रह गई। स्वामी विवेकानंद ने धर्म संसद में कहा था, “दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों खासतौर से भारत से फैला है। पर हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।“ भारत ने कोई सवा सौ साल बाद अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव के जरिए आज के परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक ज्ञान और उसके व्यावहारिक अनुप्रयोगों से दुनिया को न केवल विश्व गुरू होने का भान कराया, बल्कि सप्रमाण बताया कि मानव की आंतरिक शांति से विश्व शांति का मार्ग किस तरह प्रशस्त होगा।

हालांकि भारत के योगी अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर सदियों से अध्यात्म को विश्व शांति की कारगर दवा बतलाते। आधुनिक युग के संन्यासियों में स्वामी विवेकानंद से लेकर परमहंस योगानंद, अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, अरविंद घोष, रमण महर्षि, महर्षि महेश योगी, ओशो, ब्रह्माकुमारी, स्वामी शिवानंद सरस्वती योग परंपरा के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, श्रीराम शर्मा आचार्य आदि प्रमुख हैं, जो वेद-वेदांग और विज्ञान का आलंबन लेकर अध्यात्म की शक्ति से दुनिया को अवगत कराते रहे हैं। पर पहली बार ऐसा हुआ कि प्रत्येक वर्ष सितंबर में मनाए जाने वाले विश्व शांति दिवस से पहले ही विश्व शांति की तड़प लिए एक सौ से ज्यादा देशों के तीन सौ से ज्यादा आध्यात्मिक संस्थाओं, संगठनों के प्रतिनिधि और आध्यात्मिक व वैज्ञानिक गतिविधियों से जुड़े एक लाख से ज्यादा लोग विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में जुट गए। इसलिए कि उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है कि आध्यात्मिकता विश्व शांति के लिए रामबाण दवा हो सकती है।

इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है। किसी शिष्य ने वेदान्त के महान आचार्य और सनातन धर्म के विख्यात नेता स्वामी शिवानंद सरस्वती से पूछ लिया था कि विश्व शांति का उपाय क्या है? स्वामी जी ने कहा था, अज्ञान की निवृत्ति ही एकमात्र उपाय है। इसी निवृति से प्रेम, दान और सेवा की भावना विकसित होगी। पर प्रथमत: देश के कर्णधारों में इन गुणों का विकसित होना ज्यादा जरूरी है। इसलिए कहता हूं कि दुनिया के सभी प्रधानमंत्रियों को वेदांत और योग संबंधी शिक्षा हासिल करनी चाहिए। ऐसी शिक्षा के लिए भारत ही एकमात्र उपयुक्त स्थान है। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में चार दिनों तक विविध विषयों पर मंथन के लिए दो दर्जन से ज्यादा सत्र आयोजित किए गए थे। और खास बात यह रही कि सात-आठ दशक पूर्व स्वामी शिवानंद सरस्वती ने विश्व शांति के लिए जो एक प्रमुख दवा सुझाई थी, दुनिया भर के आध्यात्मिक गुरुओं और दार्शनिकों ने शिद्दत से महसूस किया कि उस दवा की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। यही वजह है कि महोत्सव के एक सत्र का विषय रखा गया था – रोल ऑफ स्पिरिचुअलिटी फॉर ऐन इफेक्टिव लीडर। यानी प्रभावशाली नेतृत्वकर्ता के लिए अध्यात्म की भूमिका क्या हो सकती है।

अपनी तरह का पहला एक भव्य आध्यात्मिक उत्सव का आयोजन भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने  हार्टफुलनेस के सहयोग के किया था। हार्टफुलनेस अपनी लोकप्रिय ध्यान पद्धति के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसकी खोज फतेहगढ़ के योगी लाला जी उर्फ रामचंद्र जी ने की थी। महोत्सव में आंतरिक शांति से विश्व शांति पर परिचर्चा शुरू हुई तो इसी संगठन के मौजूदा अध्यक्ष दादा जी उर्फ कमलेश पटेल ने विषय प्रवेश कराया। इसके बाद तो इस्कॉन, ब्रह्मकुमारीज, रामकृष्ण मिशन, हार्टफुलनेस, इंटरनेशनल बुद्ध कंफेडरेशन, हैदराबाद के आर्कबिशप, महाबोधि इंटरनेशनल मेडिटेशन सेंटर, लद्दाख, श्रीमद् राजचंद्र मिशन, आनंदम् धाम वृंदावन, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, दरगाह अजमेर शरीफ जी के गद्दीनसीन हाजी सैयद सलमान चिश्ती, सिडनी विश्वविद्यालय के डॉ एलिजाबेथ डेनले सहित कोई दो तीन दर्जन से ज्यादा विश्व प्रसिद्ध वक्ताओं ने अपने अनुभवों के आधार पर विचार व्यक्त किए। पूरे महोत्सव के दौरान मनुष्य की आंतरिक शांति के लिए अनेक यौगिक समाधान प्रस्तुत किए गए। पर महर्षि महेश योगी का विज्ञानसम्मत भावातीत ध्यान और लालाजी का हार्टफुलनेस ध्यान छाया रहा। महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया था। 

यदि एक लाइन में कहा जाए कि आध्यात्मिकता महोत्सव से दुनिया को क्या संदेश मिला, तो एक बेहद लोकप्रिय तमिल कविता का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।  …..जब भगवान ने पूछा कि इस दुनिया में दुर्लभ क्या है, तो ओवैयार संत ने कहा – “मनुष्य के रूप में जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही किसी का जन्म मनुष्य के रूप में हुआ हो, विकृति के बिना जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही कोई बिना किसी विकृति के पैदा हुआ हो, स्वयं और संसार का ज्ञान और कला में विशेषज्ञता प्राप्त करना दुर्लभ है। भले ही कोई इन गुणों से संपन्न हो, जरूरतमंदों को देने की आदत दुर्लभ है…..।“ यही आध्यात्मिक संदेश दुनिया को दिया गया। दानशीलता ही वह धर्मसम्मत गुण है, जिसकी बदौलत सत्व की प्राप्ति होती है, जो अध्यात्म का लक्ष्य है। योग साधनाएं इन भावनाओं के विकास में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

शिवरात्रि : योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान

किशोर कुमार //

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है। विज्ञान भैरव तंत्र में बताई गई कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

महाशिवरात्रि का त्यौहार भारत के आध्यात्मिक उत्सवों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है। आखिर यह रात इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और हम इसका लाभ जनसामान्य कैसे उठा सकते हैं? पर पहले समझिए शिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है।

चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए ऋषियों को किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ा। राम-रावण युद्ध और देवासुर संग्राम को भी इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। तंत्र शास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरुष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरुष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरुष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का सही मार्ग है। इसलिए गुरूजन कहते हैं कि ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीरे-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

मीराबाई का एक पद है, “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते हुए कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति जन्मो की वृत्तियों के ही प्रतीक हैं। आधी रात की साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।

सद्गुरू जग्गी वासुदेव शिवरात्रि का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार स्थित होता है कि मनुष्य भीतर ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की और जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है। इस समय का उपयोग करने के लिए, इस परंपरा में, हम एक उत्सव मनाते हैं, जो पूरी रात चलता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले – आप अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए – निरंतर जागते रहते हैं।

अब सवाल है कि यौगिक व आध्यात्मिक लाभ किस विधि प्राप्त करें? विज्ञान भैरव तंत्र के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बताई थी, जो योग शास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इसी संवाद में शांभवी मुद्रा की बात भी आती है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी ने एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। योग शास्त्र में कहा गया है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। अब आधुनिक विज्ञान भी यही बात कह रहा है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस मुद्रा पर शोध हुआ। पता चला कि शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरोनल रीसाइक्लिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कुल 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

न्यूरोसाइंस के दृष्टिकोण से, शिव को मानसिक शांति, स्थिरता, और मेधा शक्ति का प्रतीक, जबकि शक्ति को मानसिक गतिशीलता, उत्साह, और उत्कृष्टता का प्रतीक माना जा सकता है। इन दोनों का योग करके कोई भी व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकता है। पार्वती जी को बताई गई अन्य विधियां भी कम शक्तिशाली नहीं। विज्ञान भैरव तंत्र की 22वीं विधि तो डायनेटिक्स और साइंटोलॉजी के रूप में अमेरिका सहित अनेक देशों में विख्यात हो चुकी है। इस बारे में विस्तार से फिर कभी। पर हमसे कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गायत्री परिवार का अश्वमेघ यज्ञ

किशोर कुमार

दुनिया के झंझटों से परेशान होकर कुछ व्यक्ति एक वटवृक्ष के नीचे बैठे वार्तालाप कर रहे थे। सभी विमर्श कर रहे थे कि तपस्या से प्रभावित होकर भगवान ने दर्शन दे दिए और वर मांगने को कहा तो क्या मांगेंगे? किसी ने अन्न मांगने का सुझाव दिया तो किसी ने बल मांगने की इच्छा जताई। विशाल वटवृक्ष उनकी बातों पर ठहाका लगाता हुआ बोला- मेरी बात मानो, तुम लोगों से न तपस्या होगी, न उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी, क्योंकि यदि इतना मनोबल होता तो संसार से घबराकर न भागते। मैं बिना मांगे ही एक वरदान देता हूँ, उसका नाम है प्रेम। प्रेम की भावना विकसित करो, फिर देखो जो वस्तु चाहोगे, वहीं प्राप्त करने की क्षमता तुम्हारे अन्दर आ जाएगी। मुंबई में पांच दिनों तक चला गायत्री परिवार का विशाल अश्वमेघ महायज्ञ भी मुख्यत: प्रेम यानी प्राणि मात्र से प्रेम, राष्ट्र से प्रेम के संदेश के साथ संपन्न हो गया। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी कहना होगा कि यह महायज्ञ समयानुकूल था और तन-मन को स्वस्थ आधार देकर वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को विकासित करने के लिहाज से मील का पत्थर साबित होगा। 

भारतीय परंपरा में अश्वमेध यज्ञ का विशेष महत्व है। अश्वमेध यज्ञों के महत्व के वर्णन से वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। प्राचीन काल में, इन्हें पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करने, ईश्वर की कृपा प्राप्त करने और राष्ट्र को एकजुट करने के लिए किया जाता था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ और उस दौरान लव-कुश के युद्ध की कहानी कौन नहीं जानता। श्री राम धर्म के प्रति समर्पित थे और उन्होंने अपने राज्य के कल्याण और सुरक्षा के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यह उनका धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक था और उनके शासनकाल में धार्मिक न्याय का पालन करने का संकल्प प्रकट करता था। महाभारत का महायुद्ध समाप्त होने के बाद देश में शांति और सद्भाव का साम्राज्य स्थापित करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था।

आधुनिक युग की समस्याएँ अलग हैं तो इस यज्ञ का स्वारूप भी बदला हुआ है। कलियुग धर्माचार्यों की चिंता इस बात को लेकर होती है कि किसी विधि मानव में देवत्व का उदय होना चाहिए। ताकि आत्मवत् सर्वभूतेषु (सभी जीवित प्राणी आत्मीय हैं) और वशुधैव कुटुंबकम् (संपूर्ण पृथ्वी हमारा परिवार है) की भावना का विकास हो सके। यह तो तभी संभव होगा जब स्वस्थ शरीर, शुद्ध मन और सभ्य समाज का निर्माण होगा। गायत्री परिवार का मुंबई में 21 से 25 फरवरी तक पांच दिवसीय अश्वमेघ महायज्ञ को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विज्ञान की कसौटी पर हमें यज्ञ, हवन और मन्त्रोच्चारण के महत्व का पता चल चुका है। अश्वमेघ यज्ञ के रूप में मिनी-कुंभ में पांच दिनों के भीतर 2.4 करोड़ मंत्र-युक्त यज्ञ आहुतियों से अभूतपूर्व सकारात्मकता उत्पन्न हुई, जो आने वाले समय में देश और विशेष रूप से मुंबई शहर के लिए शांति और समृद्धि में परिलक्षित होगी।

अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा संचालित 47वां अश्वमेध महायज्ञ इस मायने में अनूठा था कि यह प्रतिभाओं के परिष्कार तथा नियोजन के साथ नशा मुक्ति को भी समर्पित था। ताकि राष्ट्र को वह ऊर्जा प्रदान हो जिससे राम राज्य की स्थापना हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि गायत्री परिवार का अश्वमेध यज्ञ, सामाजिक संकल्प का एक महा-अभियान बन चुका है। इस अभियान से जो लाखों युवा नशे और व्यसन की कैद से बचेंगे, उनकी वो असीम ऊर्जा राष्ट्र निर्माण के काम में आएगी।

इस यज्ञ की खास बात यह रही कि गायत्री परिवार ने इसे प्रचलित अनुष्ठान से अलग इसकी वैज्ञानिकता बतलाते हुए हर कार्य संपन्न कराया। नतीजा हुआ कि यज्ञ में भाग लोगों के मन में यज्ञ के परिणामों को लेकर स्पष्टता बनी रही। इससे यज्ञ ज्यादा ही प्रभावशाली बन पड़ा। जैसे, लोगों को पता था कि महायज्ञ में गायत्री मंत्रोचार के परिणाम क्या होने हैं। इसके लिए उनके समक्ष पूर्व में किए गए शोधों के नतीजे थे, जिनमें बताया गया है कि ध्वनि कंपन की शक्ति को विज्ञान के क्षेत्र में क्यों स्वीकार किया गया है और ये कंपन सूक्ष्म और ब्रह्मांडीय स्तर पर ऊर्जा क्षेत्रों में प्रवेश करके क्या परिणाम देते हैं। इसके लिए गायत्री परिवार की ओर से एक अमेरिकी वैज्ञानिक के शोध नतीजों का हवाला दिया गया। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगुल ने स्थापित किया था कि गायत्री मंत्र के पाठ से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं।

इसी तरह और भी शोध नतीजे लोगों के संज्ञान में लाए गए थे। जैसे, गायत्री परिवार के हरिद्वार स्थित ब्रह्मवर्चस अनुसंधान संस्थान में स्थापित यज्ञोपैथी प्रयोगशाला में एक यज्ञ के अनुष्ठान के दौरान मंत्रोच्चार के साथ जड़ी-बूटियों के उर्ध्वपातन के प्रभाव का अध्ययन से पता चला था कि यह पल्मोनरी टीबी से छुटकारा दिलाने के लिए बड़े महत्व का है। पल्मोनरी ट्यूबरकुलोसिस दुनिया भर में एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। अकेले भारत में हर साल लगभग अस्सी हजार नए मामले सामने आते हैं। मंत्र के बार-बार लयबद्ध जप और गहरी सांस लेने के कारण, यज्ञ के दौरान उत्पन्न औषधीय वाष्प चमत्कारिक परिणाण देता है।

लोगों ने जाना कि यज्ञ मिर्गी के मरीजों के लिए कितना फलदायी है। भारत में, लगभग 10 मिलियन लोग मिर्गी से पीड़ित हैं। चिंताजनक बात यह है कि ज्यादातर मिर्गी पीड़ितों का कभी इलाज नहीं किया जाता है। दक्षिण अफ़्रीका में पारंपरिक चिकित्सकों ने मिर्गी के मरीजों पर यज्ञों के प्रभावों का अध्ययन किया तो पाया कि यज्ञ की प्रक्रिया वांछनीय औषधीय फाइटोकेमिकल्स और अन्य स्वस्थ पोषक तत्वों के लाभों को बढ़ाती है। इससे मरीजों की रिकवरी आसान होती है।

रूस के यहूदी जीवाणु वैज्ञानिक व्लादीमीर हाफ्किन ने हैजा-रोधी टीका विकसित करके भारत में सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। गायत्री परिवार ने उनके एक शोध परिणाम के हवाला से भी यज्ञ के चिकित्सकीय प्रभावों से लोगों को अवगत कराता रहा है। डॉ. हाफकिन के मुताबिक, “घी और चीनी को मिलाकर जलाने से धुआं निकलता है जो कुछ रोगों के कीटाणुओं को मारता है और श्वास नली से संबंधित कुछ ग्रंथियों से स्राव होता है, जो हमारे दिल और दिमाग को आनंद से भर देता है।”

यज्ञ की वैज्ञानिकता ने युवावर्ग पर व्यापक प्रभाव डाला। खास बात यह रही कि महायज्ञ से आध्यात्मिक लाभ लेने वालों की संख्या ज्यादा थी। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में महायज्ञ के सकारात्मक परिणाम दिखेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

वर दे, वीणावादिनी वर दे !

किशोर कुमार//

महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” की कालजयी कविता “वर दे, वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे…..” हमारी प्रार्थना बन चुकी है। सच कहिए तो हर भारतीय के मन में यही भाव होता है कि प्राचीन भारत का गौरव और वैभव फिर से लौटे और भारत फिर विश्व गुरू बन जाए। पर यह तो तभी संभव है जब हमारी राष्ट्रभक्ति, संकल्प-शक्ति और पराक्रम के साथ माता सरस्वती की कृपा भी होगी। इस कृपा के लिए बसंत पंचमी के मौके पर की गई प्रार्थना बुद्धि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों को सन्मार्ग दिखाने वाली साबित होगी।

इसलिए हम प्रार्थना करें कि हे परा और अपरा विद्या की स्वामिनी माता सरस्वती, आप इस धरा पर रश्मियां बिखेर कर  हमें इतनी शक्ति दीजिए कि हम निरंतर सीखने और सभी की भलाई के लिए अपनी समझ व ज्ञान के अनुप्रयोग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नवीनीकृत कर सकें। हमें वैदिक ग्रंथों और संत-महात्माओं से पता चलता है कि जब भी दैवी शक्तियां इस धरा पर अपनी ऊर्जा बिखेरती हैं, तो सुपात्रों का निर्माण होता है। सुमधुर सामूहिक धुन जागृत होते हैं। सभ्यता के श्रेष्ठतम तराने झंकृत होते हैं। इससे सामाजिक प्राणियों में सद्भावना आता है, सुसंस्कृत सभ्य समाज का निर्माण होता है। इससे जगत का कल्याण होता है! महान सरस्वती सभ्यता भी तो इन्हीं विशिष्ट गुणों के लिए याद की जाती है।

हे वाग्देवी, हमें ज्ञात है कि विशाल सरस्वती नदी आपकी ही एक रूप थी। चूंकि आप ज्ञान, संगीत और रचनात्मकता की देवी हैं, इस वजह से वह नदी सभी जीवों के लिए बेहद कल्याणकारी थी। हे विद्यारूपा मां, आपका नदी स्वरूप विलुप्त प्राय: हो जाने के कारण महान हड़प्पा सभ्यता का पतन हो गया। सनातन संस्कृति और मानवता को बड़ा नुकसान हुआ। हमें इस बात का भान है कि जिस तरह गंगा और अन्य महत्वपूर्ण नदियों के किनारे मौजूदा भारतीय सभ्यता का रची-बसी है, उसी तरह सरस्वती नदी के प्रभाव क्षेत्र में भी महान सिंधु-सरस्वती सभ्यता थी, जो शिक्षा-संस्कृति और धन संपदा के मामले में बेहद समृद्ध थी। तभी जो भी विदेशी आक्रांता हमें लूटने आते थे, यहां का वैभव देखकर यहीं जम जाते थे और हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर राजसत्ता पर काबिज हो जाते थे।

आधुनिक युग में प्राचीनकाल में वैभवशाली भारत की चर्चा मात्र से जले-भुने लोग नैरेटिव सेट करने में जुटे रहें कि सरस्वती नदी और सरस्वती सभ्यता की कथाएं काल्पनिक हैं। पर सत्य कहां पराजित होती है। अपके वाहन हंस की तरह इसरो और नासा के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों के आधार पर दूध और पानी का भेद कर दिया है। सप्रमाण बता दिया है कि आज का घग्गर-हकरा नदी कुछ और नहीं, बल्कि सरस्वती नदी के ही अवशेष हैं। वैसे, अपनी जड़ों से जुड़े लोगों को आपके अस्तित्व को लेकर कभी संशय न था। हमें तो प्रयागराज स्थित संगम में एक नाविक भी बताता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन-स्थल कौन-सा है। हे मां भारती! आपकी कृपा और अपने अल्प ज्ञान की बदौलत हम श्रुति और स्मृति के आधार पर वैदिक ज्ञान को काफी हद तक संरक्षित करते आए हैं। इसलिए सरस्वती नदी घाटी सभ्यता की बातें भी मौखिक परंपरा के रूप में संरक्षित है।

हे वेदमाता! पुरातत्वविदों की खुदाई से पता चल चुका है कि उस काल में भी योग विद्या बेहद समृद्ध और सर्वग्राह्य थी। विभिन्न योग मुद्राओं वाली टेराकोटा मूर्तियां इस बात की गवाही दे रही हैं। यह आपकी महिमा का ही प्रतिफल था। आपकी मुद्राओं से मानव जीवन को धन्य बनाने के संदेश मिलते हैं। आपका कमल रूपी आसन में ज्ञान मुद्रा में होना संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक है। योगी बताते हैं कि ज्ञान मुद्रा बुद्धिमत्ता, स्मरण-शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि कराने वाली है। हमारे जीवन की जितनी भी क्रियाएं और विचार हैं, उनका सृजनात्मक नाद रूप ही इस जगत में सर्वत्र है। दोनों हाथों से वीणा धारण करना इसी बात का प्रतीक है। पुस्तक सर्वज्ञानमय स्वरूप का प्रतीक है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी की स्तुति में कोई चौहत्तर श्लोक हैं। उनसे पता चलता है कि सरस्वती नदी को बुद्धि, विवेक और अंतर्ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता था।

हे शास्त्ररूपिणी! हमें वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि आप प्रकृति को वाणी देने के लिए वसंत पंचमी के दिन अवतरित हुई और विविध रूप धारण करके सबका कल्याण करती रहीं। हम क्षमाप्रार्थी हैं कि अपनी ही कमजोरियों के कारण अपनी गौरवशाली संस्कृति से कटते गए और गोस्वामी तुलसीदास उक्ति “सकल पदारथ एहि जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं… को चरितार्थ करते रहे। पर हे मां, हमें सुबुद्धि दीजिए कि अब सर जॉन रिसले जैसों की दाल गलने न पाए। वह कहता था कि भारत की जातीय व्यवस्था भारतीयों को उनकी जड़ों से जुड़ने नहीं देगी। उसने इसी भावना से भारत में पहली बार सन् 1872 में जाति आधारित जनगणना करवाई थी। इसका परिणाम हुआ कि हम बिखर गए और उपनिवेशवादी बलशाली हो गए। आपकी शिक्षाओं से हमें इस बात का अहसास हो चला है कि आत्मभाव ही ऐसे विध्वंसक प्रयासों की काट है। और यह योग विद्या से प्राप्त होगा।

हे परम चेतना संपन्न माता सरस्वती! आपके हाथों की अक्षमाला (रूद्राक्ष) की महत्ता ही इतनी है कि ऋषियों ने अक्षमालिकोपनिषद् तक की रचना कर दी थी। इस उपनिषद् में भगवान कार्तिकेय प्रजापति को बतलाते हैं कि अक्षरमाला का प्रत्येक अक्ष (मनका) में दैवीय गुण हैं। पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि की दैवी शक्तियाँ इस अक्षमाला में समाहित हैं। समस्त विद्याओं और कलाओं का स्रोत भी यही अक्षमाला है। इन कथनों का सार यह कि ब्रह्मांड के समस्त ज्ञान-विज्ञान का स्रोत अक्षमाला ही है। 

हे हंसवाहिनी मां! आपके तेज का ही प्रतिफल है कि आपकी छाया में होने के कारण हंस भी प्रखर बुद्धि का स्वामी बन गया। तभी उसके पैंतालीस उपदेशात्मक श्लोकों वाली हंस गीता की रचना हो पाई थी, जो हमें यम-नियम सहित सर्वग्राह्य योग विद्या से परिचय कराती है। हे मां, आपका उज्जवल रंग ही प्रकाशमान ब्रह्म है। हमें योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित कीजिए। ताकि हममें नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जमाने की बुद्धि प्रकाशित हो सके। आपकी यह कृपा ही भारत के गौरव की पुर्नस्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)         

रामभक्त महर्षि योगी और राम मुद्रा

किशोर कुमार //

भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक महर्षि महेश योगी अपनी विज्ञानसम्मत यौगिक क्रियाओं ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, यौगिक उड़ान आदि के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार संबधी उनके अनुराग से भी हम सब वाकिफ हैं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में महर्षि संस्थान अहर्निश उनकी शिक्षाओं को नईपीढ़ी तक पहुंचाने में जुटे रहते हैं। पर रामभक्त के रूप में उनकी चर्चा कम ही होती है। आज महर्षि जी की पुण्यतिथि है। उन्होंने 11 जनवरी 2008 को घोषणा की कि धरती पर उनका काम पूरा हो चुका है और 5 फरवरी 2008 को नीदरलैंड में अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया था। महर्षि जी का पुण्यस्मरण करते हुए इस लेख की शुरूआत उनके जीवन की उन पहलुओं से करते हैं, जिसकी चर्चा कम ही होती है।

यह सर्वविदित हैं कि महर्षि महेश योगी ने विश्व शांति राष्ट्र की घोषणा करके नीदरलैंड और अमेरिका के कुछ भागों में राम मुद्रा चलाई थी। उनकी संस्था ‘ग्लोबल कंट्री वर्ल्ड ऑफ पीस’ ने 2002 में इस मुद्रा को जारी किया तो नीदरलैंड सरकार ने इसे कानूनी मान्यता देने में जरा भी देऱी न की थी। इससे महर्षि योगी और राम भक्तों के प्रभाव का पता चलता है। नीदरलैंड के बाद अमेरिका के आयोवा स्थित महर्षि वैदिक सिटी में भी राम मुद्रा जारी किया गया था। इतना ही नहीं, अमेरिका के कोई 35 राज्यों में श्रीराम नाम वाले बॉड्स शुरू किए गए थे। खास बात यह है कि राम मुद्राएं आज भी चलन में है। अमेरिकन इंडियन जनजाति आयवे की बहुलता वाले आयोवा के लोगों को प्रभु श्रीराम से इतना प्रेम है कि उन्हें मुद्रा की सरकार मान्यता की भी परवाह नहीं रहती। वे स्थानीय स्तर पर खरीददारी और आपसी लेन-देन के लिए इसी मुद्रा का इस्तेमाल करते हैं। उन मुद्राओं में कई भाषाओं में राम और श्रीराम की तस्वीर के नीचे राजा राम – राम ब्रह्म परमाथ रूपा लिखा होता है।

महर्षि जी की श्रीराम में अटूट श्रद्धा का ही परिणाम था कि राम मुद्रा प्रचलन में लाने का उनका संकल्प पूरा हो सका था। वे अपने जीवन में भी श्रीराम के आदर्शों को आत्मसात करने की भरपूर कोशिश करते रहे। इस बात को एक प्रसंग से समझिए। महर्षि योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के प्रिय शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। इसलिए कि वे इसके लिए सुपात्र थे। महर्षि जी के तमाम गुरू भाइयों को भी लगता था कि अगला शंकराचार्य तो महर्षि योगी ही बनेंगे।

पर गुरू ब्रह्मानंद सरस्वती के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। वे महर्षि योगी की उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के वाकिफ थे और चाहते थे कि उनके जरिए वैदिक ज्ञान का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार हो। इसलिए जब अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करनी थी तो पहले महर्षि योगी को बुलाकर आदेश दे दिया कि तुम वैदिक शिक्षा का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार करो। मतलब साफ था कि महर्षि जी शंकराचार्य नहीं बनाए जाएंगे। इसलिए कि शकराचार्यों के लिए समुद्र लंघन वर्जित माना गया गया और गुरू के आदेश पूरा करने के लिए समुद्र लंघन करना ही होता। महर्षि जी जरा भी विचलित हुए बिना गुरू आदेश को अमल में लाने के लिए निकल पड़े थे पश्चिम की ओर। जरा गौर कीजिए। श्रीराम को वनवास भेजे जाने वाले प्रसंग से यह घटना कितनी मिलती-जुलती है। श्रीराम का राजतिलक होना था और मिल गया वनवास। श्रीराम खुशी-खुशी वनगमन कर गए थे। इस कथा के गूढ़ार्थ समझने पर हमारे जीवन को उन्नत बनाने वाले कई संदेश मिलते हैं। पर क्या हम सब उन संदेशों पर विचार भी कर पातें? महर्षि योगी अपने गुरू की इच्छा को पूरा करने के लिए ताउम्र जो कुछ कर पाए थे, उससे साबित होता है कि उन पर मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की शिक्षाओं व्यापक प्रभाव था।  

हालांकि शंकराचार्य न बनाए जाने पर महर्षि जी से ईर्श्या करने वालों को आलोचना करने का एक मौका मिल गया था। कई लोग महर्षि जी से कहते कि कुछ लोग आपकी निंदा कर रहे हैं। महर्षि जी कहते, निंदा करने वालों ने तो प्रभु श्रीराम को भी नहीं छोड़ा था। पर हाथी से सीखो। उसकी विशेषता क्या है? वह हाथ जोड़ने वालों से प्रसन्न होकर उसके पास ठहरता नहीं और भौंकने वाले कुत्तो की परवाह नहीं करता। इसलिए, उसकी चाल में मस्ती बनी रहती है। संत-स्वभाव भी ऐसा ही होना चाहिए। यदि हम तमोगुणी निंदकों की परवाह करने लगे तो शिष्य धर्म का पालन कैसे हो पाएगा? एक दूसरा प्रसंग भी है। महर्षि योगी को दुनिया भर में सिद्ध संत मान लिया गया था। उसके बाद अपने देश में सत्संग दे रहे थे तो एक व्यक्ति ने पूछ लिया, महर्षि जी, आपको संत क्यों कहा जाता है? महर्षि जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ, जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है। इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं। चूंकि पहले के सभी संतों का भी ऐसा ही संदेश रहा है, इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं।”

अविभाजित मध्य प्रदेश के राजिम शहर में 12 जनवरी 1918 को जन्मे महर्षि महेश योगी ऐसे आत्मज्ञानी संत थे, जिन्होंने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर काम किया था। भावातीत ध्यान योग (ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन) जैसी योग विधियां इसके सबूत हैं। अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देशों के अखबारों में उनकी यौगिक विधियों के प्रभाव बताने वाली खबरें स्थान पाती रहती हैं। महर्षि महेश योगी ने अपने जीवनकाल में वेदों में निहित ज्ञान का अनुभव करके अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इन शिक्षाओं के प्रचार के लिए संस्थाएं स्थापित की और उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया। यह सुखद है कि उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं को फैलाने का काम बिना किसी गतिरोध के जारी है। जगह-जगह महर्षि वेद पीठ की स्थापना करके वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। यह महर्षि जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग का फैलता क्षितिज और बढ़ता सम्मान

किशोर कुमार

भारत में पिछले एक दशक के दौरान सरकारी स्तर पर योग को जितनी अमहमित मिली, वह अभूतपूर्व है। सन् 2014 में योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुर्नस्थापित करने के बाद से भारत सरकार अक्सर ऐसे फैसले लेती है, जिनसे न केवल योगियों और योग संस्थानों का सम्मान बढ़ता है, बल्कि योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार भी होता है। 75वें गणतंत्र दिवस के मौके पर भी दुनिया ने देखा कि “योग से सिद्धि” झांकी और फ्रांस में वैदिक योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार करने वाले 100 वर्षीय योग गुरू चार्लोट चोपिन और भारतीय मूल के फ्रांसीसी योगाचार्य 79 वर्षीय किरण व्यास को पद्मश्री से नवाज कर किस तरह योग को अहमियत दी गई। इतना ही नहीं, देश के विभिन्न राज्यों के 291 योग प्रशिक्षकों को सपरिवार गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए न्योता गया था, जो देश भर में जमीनी स्तर पर योग के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान देते हैं।

पहले बात पद्मश्री से सम्मानित योगियों की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते साल जुलाई में जब फ्रांस गए थे तो पेरिस में प्रसिद्ध फ्रांसीसी योग शिक्षक सुश्री चार्लोट चोपिन से मुलाकात की थी। फिर ट्वीट करके सुश्री चोपिन की भारतीय योग व अध्यात्म के प्रति गहरी आस्था और फ्रांस में योग को बढ़ावा देने के लिए उनके अभूतपूर्व योगदान की सराहना की थी। सुश्री चोपिन ने श्री मोदी को बतलाया था कि फ्रांस में योग कितना समृद्ध हुआ है। साथ ही बतलाया कि योग खुशी ला सकता है और समग्र कल्याण को बढ़ावा दे सकता है, ये बातें फ्रांस के लोगों के लिए अब सैद्धांतिक बातें नहीं रह गईं हैं।

गुजरात में जन्मे और पले-बढ़े फ्रांसीसी योगी किरण व्यास की अनेक उपलब्धियों में एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि उनके कारण ही यूनेस्को तक योग की पहुंच बन पाई थी। इसकी भी मजेदार कहानी है। उन दिनों श्री व्यास यूनेस्को में शैक्षणिक क्षेत्र में काम करते थे। यूनेस्को के महानिदेक थे अमादौ-महतर एम’बो। कुछ खास मेहमानों के लिए एम’बो के घर डिनर पार्टी रखी गई तो एम’बो की पत्नी के विशेष आग्रह पर किरण व्यास भी उस पार्टी में शरीक हुए। पर उनके मन में यह सवाल बना रहा कि दिग्गजों की पार्टी में उन जैसे सामान्य कर्मचारी को क्यों न्योता गया था? रहा न गया तो पार्टी के बाद मन की बात जाहिर कर दी। श्रीमती एम’बो ने जो कुछ कहा, उससे योग विद्या की शक्ति का पता चलता है। उन्होंने कहा कि आप पास होते हैं तो एम’बो कठिन परिस्थितियों में भी बहुत शांत महसूस करते हैं, और खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं। किरण व्यास ने उन्हें बताया कि शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे योगाभ्यास करते हैं। इस पर श्रीमती एम’बो ने उसने पूछा कि योग क्या है? जब उन्होंने योग विद्या के बारे में बताया तो एम’बो दंपति बेहद प्रभावित हुए और इस तरह यूनेस्को मुख्यालय में योग शिक्षा की बुनियाद पड़ गई थी।

अब बात योग से सिद्धि की। महान योगी श्रीराम शर्मा आचार्य कहा करते थे कि साधना का अर्थ है अपने आपे को साधना और इसका क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे-गढ़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसंपन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्म-सम्मान क्यों गँवाया जाए? और भारत तो अलौकिक प्रतिभा संपन्न योगियों की ही भूमि है। हम सबने पढ़ा है, सुना है तैलंग स्वामी के बारे में। उन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था। उनसे जुड़ी चमत्कारिक कहानियों का उल्लेख बनारस गजेटियर में भी है। अपने योग बल से 280 वर्षों तक एक ही शरीर धारण किए रहे। लाइलाज बीमारियां उनकी दृष्टि पड़ते ही ठीक हो जाती थी। काशी राजा के अंग्रेज अधिकारी ने नाव से यात्रा करते समय तैलंग स्वामी को गांगाजी में जल के सतह पर पद्मासन लगाए देखा तो उन्हें अपनी नाव में बैठाकर कुछ बात करनी चाही। नाव में सवार होने के कुछ क्षण बाद ही स्वामी जी ने अफसर से देखने के लिए उसकी तलवार मांगी। पर तलवार गंगा जी में गिर गई। जाहिर है कि अफसर बेहद नाराज हुआ। तब स्वामी जी ने गांगा जी में हाथ डाला और उनकी हाथ में तीन तलवारें आ गईं। स्वामी जी ने कहा, इनमें से जो तुम्हारी हो उसे पहचान कर ले लो। यह चमत्कार देख कर अफसर तो भौचक्का रह गया और अपने अपराध के लिए क्षमा मांग ली थी।  

गणतंत्र दिवस समारोह में योग से जिस सिद्धि की बात कही गई थी, निश्चित रूप से उनका अभिप्राय ऐसी सिद्धियों से नहीं था। किसी भी युग में ऐसी सिद्धियां हर किसी के वश की बात रही भी नहीं होगी। जिस  सिद्धि की बात की गई, वह स्वस्थ्य काया और शारीरिक-मानसिक संतुलन के संदर्भ में थी। हम सब ने योगबल का जादू देखा भी कि फौजी महिलाएं किस तरह कठिनतम काम आसानी से कर पा रही थीं। गणतंत्र दिवस समारोह के लिए कई-कई दिनों तक अभ्यास होता है। इस अभ्यास के दौरान भी योगाभ्यास अनिवार्य रूप से शामिल था। संदेश यही दिया गया कि आधुनिक युग में सबके लिए योग जरूरी है। ताकि काया स्वस्थ रहे और शारीरिक-मानसिक संतुलन बना रहे, जो श्रेष्ठ भारत के सपने को साकार करने के लिए बेहद जरूरी है।  

यह सुखद है कि केंद्र सरकार ने योगासन को खेल विधा के रूप में भी मान्यता दी है और इसे प्राथमिकता श्रेणी में रखा है। योग को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। कई विश्वविद्यालयों ने पाठ्यक्रम में योग को शामिल कर लिया है। आयुष मंत्रालय ने वन-स्टॉप स्वास्थ्य समाधान के रूप में नमस्ते योग ऐप प्रस्तुत कर चुका है, जो लोगों को योग से संबंधित जानकारियों, कार्यक्रमों और योग कक्षाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाता है। इसी तरह, योग का लाभ दुनिया भर में पहुंचाने के लिए वाई-ब्रेक और डब्ल्यूएचओ-एम योगा भी लॉन्च किया गया है। देश भर में आयुष स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र खोले गए हैं। योग इन केंद्रों का महत्वपूर्ण हिस्सा है और शिक्षक/प्रशिक्षक योग को जमीनी स्तर तक ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

भारतीय योग विद्या को बढ़ावा देने और योग का सम्मान करने की दिशा में भारत सरकार जिस तरह आगे बढ़कर काम कर रही है, वह प्रशंसनीय है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग विद्या के आलोक में श्रीराम

किशोर कुमार //

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है।

पूरा देश राममय है। हममे श्रीराम के मूल्यों का बीज तो पहले से विद्यमान है। सही पोषण भर से वह अंकुरित हो चुका है। कामना यही है कि यह अंकुरण निर्दोष रहे और फले-फूले। तभी कथा के राम से बाहर जाकर घट-घट में बैठे राम से साक्षात्कार कर अपना जीवन धन्य बना पाएंगे।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं कि रामायण की कथा जान गए, अच्छी बात है। सद्गुणों के विकास की पहली सीढ़ी है। पर यह भी जानने की कोशिश होनी चाहिए कि रामायण का रहस्य क्या है? क्या राम केवल राजपुत्र थे अथवा परब्रह्म परमेश्वर थे? उनका वास्तविक स्वरूप क्या था? संत कबीर ने कहा है – “एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा।“ जाहिर है कि हमें कथा के राम तक सीमित नहीं रहना होगा, एक पायदान आगे बढ़ना होगा। योगबल के जरिए घट-घट में बैठे राम का अन्वेषण करना होगा। ऐसा किए बिना कलियुग में रामराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हमारे गुरू परमहंस जी सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।

हम सब बचपन से पढ़ते आए हैं कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यौगिक व आध्यात्मिक विरासत होने के बावजूद समस्याए हर स्तर पर बनी रहती है। व्यक्तिगत समस्या के मूल में हमारी अति की भावना की प्रबलता है। जैसे, अति कामना, अति भोग आदि। यह जानते हुए भी अति का अंत बुरा ही होता है। रावण भी तो अति में ही मारा गया। सोने की लंका थी, अपने जमाने की विश्व सुंदरी मंदोदरी पत्नी थी। पर अति की भावना ने सीता जी का अपहरण करने को बाध्य किया। नतीजतन, सोने की लंका जल गई। इसलिए जरूरी है कि समाजा ऐसा होना चाहिए, जिस पर राम की कथाओं से सींचे हुए लोगों का प्रभाव हो। पर चित्तवृत्तियों का निरोध न हुआ तो बात कैसे बनेगी?

हम सबकी जैसी मनोदशा होती है, उसमें सीधे-सीधे आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधनाओं से बात बनने वाली नहीं। तभी अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के लिए होने वाले महायज्ञ से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यम-नियम की साधना की। यम और नियम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के पहले दो पायदान हैं। योगी इसे योग का आधार मानते हैं। इसके बिना सामान्य जनों का योग सधना मुश्किल है। हम सब देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है। इन योग साधनाओं के बाद ही उच्चतर योग साधनाओं से मन का प्रबंधन होगा और घट-घट के राम का जानना संभव हो सकेगा।

पर संत तुलसीदास जी कह गए – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नाम जप और संकीर्त्तन को छोड़कर प्राचीन काल में जितनी साधनाएँ हम लोगों को बतलाई गई, इस कलयुग में उन सबकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। राम नाम से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे स्वामी सत्यानंदजी महाराज। पर मन श्रीराम में रम गया। बात 1925 की है। उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह में एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज।

स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।  

नाम जप, संकीर्त्तन और मंत्रों की शक्ति को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारता है। महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नाम की महत्ता बतलाई थी। नतीजा हुआ कि दशरथ के राम में साक्षात् विष्णु प्रकट हो गए, जो हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। आईए, संतों द्वारा बताई गई योग सधना का क्रमिक अभ्यास करके श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में प्रकट करने का प्रयास करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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