मुद्रा योग का असर ऐसा कि छा गए थे आयंगार

किशोर कुमार

यौगिक और आध्यात्मिक विषयों को लेकर अलग कुछ जानने की उत्सुकता बड़े-बुजुर्गों में तो होती ही है। पर ऐसे ही सवाल किशोर वय के लड़के-लड़कियां करने लगें तो इसे बड़े बदलाव का संकेत माना जाना चाहिए। मेरे मैसेज बाक्स में ऐसे लड़के-लड़कियों के सवालो की संख्या बढ़ती जा रही है। कोरोना महामारी का शिकार होने के बाद कई अन्य शारीरिक-मानसिक समस्यों से घिरी एक अठारह साल की लड़की का सवाल है कि क्या योग मुद्राओं में इतनी शक्ति है कि वह इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने या उसे कम करने में मदद कर सके? उपलब्ध दस्तावेजों और योगियों से विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बता सकूं कि मुद्राओं का विज्ञान बड़ा ही शक्तिशाली है। तभी मुद्रा चिकित्सा की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है।

इंग्लैंड के मशहूर वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन का नाम योग की दुनिया में भी बड़ा ही जाना-पहचाना है। वे अनिद्रा की तात्कालिक समस्या को लेकर योग साधना के विश्वविख्यात उपासक और योगाचार्य बीकेएस आयंगार के पास गए थे। आयंगार ने मुद्रा योग की शक्ति का कमाल दिखाया और मेनुहिन को अनिद्रा से मुक्ति मिल गई थी। आज यह प्रसंग ऐसे समय में आया है, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। योग व अध्यात्म को लेकर बच्चों मन में उठते सवाल और नेहरू जी-येहुदी मेनुहिन प्रसंग के कारण इस दिवस प्रासंगिक बन पड़ा है।

नेहरूजी-मेनुहिन का प्रसंग बड़ा रोचक है। बीकेएस आयंगार के यौगिक उपचार से मेनुहिन अनिद्रा के साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त हो गए तो बात नेहरू जी के कानों तक पहुंची। वे खुद ही अनेक कठिन योग साधनाएं किया करते थे। पर मेनुहिन जैसी बीमारियों से ग्रसित थे, उसमें योग का ऐसा चमत्कारिक असर हुआ होगा, यह मानना शायद कठिन जान पड़ा होगा। उन्होंने मेनुहिन को अपने निवास स्थान तीनमूर्ति भवन में बुलाया और शीर्षासन करने की चुनौती दी। मेनुहिन ने सहजता से ऐसा कर दिखाया। नेहरू जी इतने प्रभावित और उत्साहित हुए थे कि खुद भी शीर्षासन कर बैठे थे। यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। देश-विदेश के अखबारों की सुर्खियां बनी और योग गुरू बीकेएस आयंगार रातों-रात दुनिया भर में मशहूर हो गए थे।    

सवाल है कि येहुदी मेनुहिन को आखिर कौन-सी यौगिक क्रियाएं करवाई गई थी? दरअसल, मेनुहिन कोहनी के हाइपरेक्स्टेंशन से पीड़ित थे। ब्रेंकियल आर्टरी गंभीर रूप से प्रभावित हो गई थी। न्यूरो कार्डियोलॉजी से संबंधित मामला होने के कारण असहनीय दर्द के साथ ही अन्य संभावित खतरे भी परेशान करने वाले थे। कई-कई दिनों तक सो नहीं पाते थे। मेनुहिन भारत के दौरे आए तो आयंगार ने उन्हें शवासन की स्थिति में षण्मुखी मुद्रा करवाई। आमतौर पर इस मुद्रा का अभ्यास पद्मासन या सिद्धासन में कराया जाता है। पर आयंगार ने मेनुहिन के मामले में बिल्कुल अलग विधि अपनाई। नतीजा हुआ कि पांच मिनट भी नहीं बीते और मेनुहिन एक घंटे तक बेसुध सोए रहे। जो काम नींद की दवाएं नहीं पा रही थी और कई-कई रातें जगकर बितानी होती थी, वह काम पांच मिनटों के अभ्यास में हो गया था। मेनुहिन की नींद खुली तो उन्हें खुशी का ठिकाना न रहा। वे पहले सुनते थे, अब खुद ही भारतीय योग-शक्ति के गवाह बन चुके थे।

हठयोग में आसन और प्राणायाम के बाद मुद्रा योग प्रमुख है। यह प्राणिक ऊर्जा नियंत्रण का यह विज्ञान शास्त्र-सम्मत और  विज्ञान-सम्मत है। तभी रोगोपचार के तौर पर मुद्रा योग भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों में लोकप्रिय है। साठ के दशक के प्रारंभ में गोल्डी लिप्सन ने अपनी पुस्तक “रिजुवेनेशन थ्रू योगा” में योग मुद्राओं के बारे में लिखा था कि यह उंगलियों का व्यायाम भर है। पर परहसंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1969 में आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध नामक पुस्तक लिखी तो पश्चिमी देशों में भी मुद्रा योग को स्वतंत्र विद्या के तौर पर मानने का आधार बना था। अब तो मुद्रा चिकित्सा पर पुस्तकों की भरमार है।

सवाल है कि मुद्रा विज्ञान शरीर पर किस तरह काम करता है? आयुर्वेद में कहा गया है कि मनुष्य में पंच महाभूत यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्वों के असंतुलन के कारण बीमारियां होती हैं। योगशास्त्र के मुताबिक मनुष्य की उंगलियों में इन तत्वों के गुण हैं। इसलिए जब मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है तो निश्चित बिंदुओं पर दबाव पड़ते ही शरीर के सुप्त ऊर्जा केंद्र मुख्यत: मेरूदंड के चक्र सक्रिय हो जाते हैं। हम जानते हैं कि प्राणिक शरीर को चक्रों से ऊर्जा मिलती है। पर इस ऊर्जा का ह्रास हो जाने के विविध शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। चूंकि मुद्रा की स्थिति में उंगलियों के रास्ते इन प्राणिक ऊर्जा का प्रवाह बाहर की तरफ नहीं हो पाता है। इसलिए वह ऊर्जा शरीर के पांच कोशों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश को स्पंदित करती है। इससे स्वस्थ होने की क्षमता विकसित होती है। हठयोग प्रदीपिका में भी इसके महत्व का प्रतिपादन है। कहा गया है कि ब्रह्म-द्वार के मुख पर सोती हुई देवी (कुंडलिनी) को जगाने के लिए पूर्ण प्रयास के साथ मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए।  

अब जानते हैं कि मेनुहिन पर शवासन में षण्मुखी मुद्रा क्यों इतना असरदार साबित हुई होगी। षण्मुखी मतलब सप्त द्वार। यानी दो आखें, दो कान, दो नासिकाएं और एक मुंह। इस मुद्रा में ये सभी द्वार बंद हो जाते हैं। प्राण विद्या की यह तकनीक हाथों और उंगलियों से उत्सर्जित ऊर्जा चेहरे की स्नायुओं और पेशियों को उत्प्रेरित और शिथिल करती है। नतीजतन इससे एक साथ कुछ हद तक शांभवी मुद्रा, योनि मुद्रा और प्रत्याहार का फल मिलने लगता है। पेशियों व तंत्रिकाओं पर दबाव कम होते और आंतरिक सजगता बढ़ती है। न्यूरो कार्डियोलॉजी के मरीजों के मामले में शवासन की अवस्था में पेरिकार्डियन का विस्तार होता है। इससे हृदय के दाहिनी एट्रियम का फैलाव बढ़ जाता है। इससे रक्तचाप कम जाता है। इससे गजब की विश्रांति मिलती है। ऐसे में मेनुहिन का चैन से सो जाना लाजिमी ही था। इस एक उदाहरण से मुद्रा योग की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नवरात्रि

शक्ति की आराधना और मंत्रयोग

किशोर कुमार

नवरात्रि और दुर्गापूजा का समय है। इसलिए इस बार आदि शक्ति माता की आकृति, प्रकृति और गुणों के आलोक में मंत्र-योग की बात। हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? इस सवाल का विश्लेषण से पहले कुछ वेदसम्मत बातें। क्षीरसागर में सहस्त्र फणों वाले शेषनाग के शरीर रुपी शय्या पर शयन करते भगवान विष्णु को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर आते ही अकेलापन खलने लगा। मन में भाव आया – “एकोहं बहुस्याम।” यानी एक से अनेक हो जाऊं। तब भगवान विष्णु ने शक्ति का आह्वान किया। तभी उनके नाभि कमल से ब्रह्मा पैदा हो सके थे। यानी सृष्टि का आरंभ आदि शक्ति से हुआ। पुराणों में कथा है कि देव दानवों से पराजित होते गए तो प्रजापति से रक्षा की गुहार लगाई। प्रजापति ने सभी तैंतीस कोटि देवताओं की सभा करके उनसे अपनी शक्ति व तेज का एक अंश देने को कहा। ये शक्तियां महाशक्ति बन गईं और तेज सूर्य से भी ज्यादा बलवान। इससे ही शक्तिस्वरूपा दुर्गा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने आसुरी शक्तियों का संहार किया।

मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती में श्लोक है – “या देवी सर्व भूतेषु, शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम:।” यानी देवी दुर्गा, जो सभी जीवों में ऊर्जा के रूप में मौजूद हैं और सभी जीवों का कल्याण करने वाली हैं, उन्हें बारंबार नमस्कार है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शक्ति, जिसे देवी, भगवती या और कुछ भी कहा जाए, के तीन स्वरूप होते हैं – हितकारी, विनाशकारी औऱ सृजनकारी। अब हमारी आराधना के तरीकों पर निर्भर है कि उनसे शक्ति या देवी के कौन-से स्वरूप जागृत हो जाएंगे। इसी संदर्भ में एक कथा है। देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछ लिया कि विभिन्न देवताओं के लिए कौन-सी साधना अभीष्ट है? जबाव में शिवजी ने अनेक मार्ग बतलाए और कहा – “किसी भी मार्ग से लक्ष्य तक पहुंच सकती हो।“ पर वर्तमान युग में आम आदमी के लिए मार्ग का चयन करना क्या आसान है? स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि देवी को शाक्य तंत्र के अंतर्गत माना जाता है और तंत्र के अंतर्गत सभी पूजाओं का वर्गीकरण किया हुआ है। मंत्र, क्रिया औऱ उपचार के पहलुओं को विशुद्ध होना चाहिए। इसलिए कि ये प्रक्रियाएं मस्तिष्क, भावना औऱ चित्त को प्रभावित करती हैं। फास्ट फूड की तरह फल मिलने लगता है। पर थोड़ी भी लापरवाही से चित्त पर नकारात्मक प्रभाव होता है।

नवरात्रि के समय में दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती में हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं। “देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

कोरोना महामारी का असर फिलहाल कम जरूर है। पर उसकी मार उनलोगों पर भी है, जो संक्रमित नहीं हुए थे। नतीजतन, मानसिक बीमारियों का असर हर तरफ दिखता है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदि शक्ति की मंत्रो से आराधना का मानसिक स्तर पर व्यापक असर होना है। स्पेन के वैज्ञानिको ने बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस निरंजनानंद सरस्वती के मार्ग-दर्शन में मंत्रों के प्रभाव पर अध्ययन किया था। उसके प्रभाव चौंकाने वाले थे। अनेक उत्तेजित लोगों की उत्तेजना शांत हो गई थी, सजगता का विकास हुआ और चेतना का विस्तार हुआ। यह तो एक उदाहरण है। देश-विदेश में कम से कम दो सौ से ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययनों से मंत्रों के प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

किसी अनजान के प्रति सहज आकर्षण मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए : परमहंस योगानंद

पुनर्जन्म होता है, इसके उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइसेंज (नीमहांस) के वरीय मनोचिकित्सक डॉ सतवंत के पसरीचा सन् 1974 से ही पूर्व जन्म की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने अब तक पांच सौ से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि पांच साल तक की उम्र के सत्तर फीसदी बच्चों को पूर्वजन्म की घटनाएं याद थी। पर आठ साल या किसी मामले में दस साल की उम्र होते-होते पूर्वजन्म की यादें धूमिल हो जाती थीं। इन घटनाओं से योगशास्त्र के संचित कर्मों वाले सिद्धांत की पुष्टि होती है।

क्या पुनर्जन्म होता है और क्या पूर्व जन्म के संचित कर्मों की हमारे मौजूदा जीवन में कोई भूमिका होती है? इन सवालों को लेकर सदियों से मंथन किया जाता रहा है। हिंदू और इसाई से लेकर अनेक धर्मों में शास्त्रसम्मत तरीके से इन सवालों के पक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान इन सवालों के पक्ष में दिए जाने वाले कई तर्कों से असहमत नहीं है। बल्कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यदि पुनर्जन्म होता है और यौगिक विधियों के जरिए अवचेतन शक्तियों को जागृत करके संचित कर्मों का विकास संभव है तो अच्छे संचित कर्मों का विकास करके अपने जीवन को खुशनुमा क्यों न बनाया जाए।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि अवचेतन शक्तियों को जागृत करके अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास करना संभव है। दूसरी तरफ आम आदमी योग की बदौलत स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदित कर सकता है और लोकप्रियता का शिखर छू सकता है। अनेक बार हम सब अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि यात्रा के दौरान सामने की सीट पर बैठे किसी अपरिचित के प्रति सहज आकर्षण होता है। इसके उलट किसी को देखकर अच्छा भाव उत्पन्न नहीं होता। इस तरह की घटनाएं सबके जीवन में कहीं भी, कभी भी और किसी रूप में घटित होती ही है। कई बार कोई ऐसा व्यक्ति मदद के लिए खड़ा हो जाता है, जिससे अपेक्षा न थी। पर सजगता के अभाव में हम इस बात पर मनन नहीं कर पातें कि ऐसा क्यों होता है।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। कहते थे कि ऐसे संकेतों से मिले सूत्रों की पहचान कर जीवन को उन्नत बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा। पर इसके साथ ही कहते थे कि दिव्य आकर्षण और सामान्य आकर्षण में भेद करने का विवेक होना चाहिए। इसलिए कि सामान्य आकर्षण का आधार दूषित इच्छाएं और स्वार्थी कार्य होते हैं।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि या योग की भाषा में आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। नतीजतन, संचित कर्मों के आधार पर जिसमें जैसा बीज होगा, उस अनुपात में उसका बेहतर तरीके से प्रतिभा का विकास होगा। यदि संचित कर्म सही नहीं है तो उसका क्षय भी किया जा सकेगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि संचित कर्म जीवन में किस तरह फलित होता है। इस संदर्भ में स्वामी जी से ही जुड़े एक वाकए की चर्चा यहां प्रासंगिक है। सत्संग के दौरान उनसे किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए संचित कर्मों का केवल विकास करना होता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने फ्रांस रेडियो को दिए साक्षात्कार में कहा था – “मृत्यु केवल प्रस्थान है। जब भौतिक शरीर मर जाता है, सूक्ष्म और कारण शरीर, जीवात्मा या आपका अपना व्यक्तित्व एक साथ भौतिक शरीर को छोड़ देते हैं। तब आपकी कामनाओं और कर्मों की पूर्ति के लिए वे एक नया शरीर प्राप्त करते हैं।“ यानी पिछले जन्म में आप योगी रहे हैं तो इस जन्म में आपकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उसी तरफ होगी। सिर्फ अवचेतन के तल तक पहुंच बनाकर इस प्रतिभा की पहचान और उसका विकास करना होता है। हम सब व्यवहार रूप में भी देखते हैं कि एक ही माता-पिता की चार संतानों की एक ही परिवेश में परिवरिश होने के बावजूद उनकी प्रतिभाएं, उनकी प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं। योगी इसे संचित कर्मों का ही नतीजा मानते हैं।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि संचित कर्मों में सफलता और विफलता के सूत्र छिपे हुए हैं और उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से कोरोनाकाल में विपदाओं के मध्य स्वर्णिम भविष्य के लिए एक अवसर भी उपस्थित हुआ है। विश्वसनीय दवा के अभाव में लोगों को देशज चिकित्सा पद्धतियों खासतौर से योग से बड़ी आश्वस्ति मिली। अनेक लोग खुद को संकट से बाहर निकालने में सफल हुए। स्वस्थ्य लोग स्वस्थ्य बने रहें, इसलिए योग करते रहे। अब योगाभ्यास को उच्चतर स्तर पर ले जाने का वक्त आ गया है। यदि योग को स्वास्थ्य तक सीमित न रखकर उसके अगले स्तर के अभ्यासों की बदौलत आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया जाए या कम से कम आज्ञा चक्र को ही जागृत करने का प्रयास किया जाए तो अवचेतन के अच्छे गुणों का विकास करना आसान होगा, जो सुखद और आनंदमय जीवन की कुंजी है। योगियों के मुताबिक, इस काम के लिए प्रत्याहार, धारणा व ध्यान की क्रमिक साधना फलदायी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

बिहार योग : ऐसे फैलती है सुगंधित पुष्प की खुशबू

सुगंधित पुष्प अपना प्रचार खुद करता है। यह शाश्वत सत्य बिहार योग या सत्यानंद योग के मामले में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। बिहार योग चार महीनों के भीतर दूसरी बार चर्चा में है। पहले योगनिद्रा के कारण चर्चा में था। अब यौगिक कैप्सूल और गुरूकुल शिक्षा पद्धति को लेकर चर्चा में है। दोनों ही बार चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। वैसे तो बिहार योग की उपस्थिति एक सौ से ज्यादा देशों में है और जर्मनी में योग शिक्षा का आधार ही बिहार योग है। पर अपने देश में चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती रही।  परिस्थितियां बदलीं तो बिहार के सुदूरवर्ती मुंगेर जिले में उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर खिले योग रूपी फूल की खुशबू का अहसास सहज ही हुआ। उसी का नतीजा है कि बीते साल बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान का प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला तो इसके एक साल पहले यानी सन् 2017 में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। यही नहीं, केंद्र सरकार देश में योग के संवर्द्धन के लिए जिन चार योग संस्थानों की सहायता ले रही है, उनमें बिहार योग विद्यालय भी है।        

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आधुनिक युग के जरूरतों को ध्यान में रखकर बिहार योग या सत्यानंद योग पद्धति से तैयार योग कैप्सूल में क्या खास दिखा कि वे खुद उसके दीवाने हुए और उसके बारे में देशवासी भी जानें, इसकी जरूरत समझी? इस सवाल पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले योग की परंपरा और आध्यात्मिक चेतना के विकास से सबंधित कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके जरिए “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर देशवासियों के बीच बड़ा संदेश गया।

प्रधानमंत्री के खुद का जीवन योगमय है और योग को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पुनर्स्थापित करने में उनका योगदान सर्वविदित है। उन्होंने “फिट इंडिया मूवमेंट” के कार्यक्रम में चर्चा के लिए फिटनेस की दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया तो गुरूकुल परंपरा वाले संस्थान के संन्यासी से बात करना न भूले। उन्होंने इसके लिए स्वामी शिवध्यानम सरस्वती के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया, जो योग की गौरवशाली परंपरा वाले संस्थान बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के शिष्य हैं और जिन्होंने आईआईटी, दिल्ली जैसे संस्थान से उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद चेतना के उच्चतर विकास के लिए अलग मार्ग चुन लिया था। प्रधानमंत्री का यह कदम कोई अकारण नहीं रहा होगा। नई शिक्षा नीति में कई मामलों में गुरूकुल परंपरा की झलक दिखाई गई है। वे युवापीढ़ी को जरूर यह बताना चाहते होंगे कि गुरूकुल परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या का प्रभाव कैसा होता है।

स्वामी शिवध्यानम सरस्वती ने प्रधानमंत्री के सवालों का जबाव देते हुए स्वामी शिवानंद सरस्वती की गुरू-शिष्य परंपरा और बिहार योग परंपरा का वर्णन इस तरह किया कि नवीन और प्राचीन गुरूकुल परंपरा में एकरूपता की झांकी प्रस्तुत हो गई। अनेक लोगों को हैरानी हुई होगी कि आधुनिक जमाने में भी ऐसा गुरूकुल है। स्वामी शिवध्यानम उन्नत गुरू-शिष्य परंपरा के न होतें तो उनके पास एक मौका था कि प्रधानमंत्री के समाने खुले मंच पर अपनी पीठ खुद थपथपा सकते थे। पर गुरूकुल योग विद्या का असर देखिए कि उन्होंने अपनी योग परंपरा के तीन मुख्य संतों स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के आदर्शों की चर्चा करते हुए आश्रम के अपने अनुभव को इस तरह साझा किया कि आदर्श गुरू-शिष्य परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या को लेकर नईपीढी के बीच सकारात्मक संदेश गया। 

बिहार योग-सत्यानंद योग एक ऐसी परंपरा है, जिसमें शास्त्रीय और अनुभवात्मक ज्ञान और आधुनिक दृष्टिकोण का समन्वय है। इसमें योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। तमिलनाडु में जन्मे और पेशे से चिकित्सक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सत्यानंद सरस्वती जैसे शिष्य को आगे करके योग विद्या की ऐसी गंगा-जमुनी बहाई कि आज दुनिया के लोग उसमें डुबकी लगाकर आनंदमय जीवन जी रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के बाद स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस महायज्ञ को आगे बढ़ा रहे हैं।  

अब योग कैप्सूल की बात। विश्वव्यापी कोरोना वायरस का तांडव अपने देश में भी शुरू हुआ तो केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार करवाए थे। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान ने 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए, नवयुवतियों के लिए, गर्भवती महिलाओँ के लिए, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए औऱ चालीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किए। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक जमाने के लोगों की जीवन-पद्धति और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कई साल पहले कुछ योग विधियां बतलाई थी, जिसके समन्वित रूप को योग कैप्सूल कहा था। प्रधानमंत्री को स्वामी निरंजन का योग कैप्सूल भा गया। शायद इसकी मुख्य वजह इसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान और योगनिद्रा का समावेश होना है, जिनके कारण शारीरिक व मानसिक बीमारियां दूर ही रहती हैं। 

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के योग कैप्सूल कुछ इस तरह है – सुबह उठते ही महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र ग्यारह बार पाठ और दुर्गाजी के बत्तीस नामों का तीन बार पाठ। पहला मंत्र शारीरिक व मानसिक आरोग्य के लिए, दूसरा जीवन में बौद्धिक व भावनात्मक प्रतिभा की जागृति के लिए और तीसरा मंत्र जीवन से क्लेश व दु:ख की निवृत्ति एवं संयम व समरसता की प्राप्ति के लिए है। दैनिक चर्या के बाद पांच आसनों यथा तड़ासन, तिर्यक तड़ासन, कटि चक्रासन, सूर्य नमस्कार और सर्वांगासन का अभ्यास। इसके बाद नाड़ी शोधन और भ्रामरी प्राणायामों का अभ्यास। शाम को काम-काज से निवृत्त होने के बाद योगनिद्रा और रात को सोने से पहले दस मिनट मन को एकाग्र करने के लिए धारणा का अभ्यास। इसे ध्यान भी कहा जा सकता है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “स्वामी निरंजन का व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है और वह आज की पीढ़ी के अनुरूप सोच सकते हैं।” स्वामी निरंजन अपने गुरू की कसौटी पर खरे उतरे। उनका यौगिक कैप्सूल योग साधना की एक ऐसी पद्धति है, जिसे अपनाने वाले अपने जीवन में बदलाव स्पष्ट रूप से देखने लगे हैं। देश-विदेश के लाखों लोग इस पद्धति को अपना कर निरोगी जीवन जी रहे हैं। योग विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है। बाइबिल का प्रथम वाक्य है – “आरंभ में केवल शब्द था और वह शब्द ही ईश्वर था।“ भारतीय दर्शन के मुताबिक वह शब्द कुछ और नहीं, बल्कि “ॐ” था। ॐ मंत्र तीन ध्वनियों से मिलकर बना है – अ, उ और म। इनमें प्रत्येक ध्वनि के स्पंदन की आवृत्ति अलग-अलग होती है, जिससे चेतना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ॐ नमः शिवाय कई नादो का समुच्य है। गायत्र मंत्र में चौबीस ध्वनियां हैं। मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। इसकी सहायता से अपनी बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर पुन: चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है।  

अनेक लोग किसी देवी-देवता को स्मरण करके मंत्रों का जप करते हैं। पर विदेशी लोग जब इन्हीं मंत्रों के जप करते हैं तो उनके मन में तो हमारे किसी देवी-देवता का रूप नहीं होता। फिर भी वे लाभान्वित होते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि मंत्रों की साधना करते वक्त किसी भी विषय़ पर मन को एकाग्र करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। मन को खुलकर अभिव्यक्त होने देना चाहिए। मंत्र विज्ञान प्राचीन काल से विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से प्रयोग में था। इस विज्ञान की ओर अधुनिक विज्ञानियों की नजर गई है और इसका पुनरूत्थान किया जा रहा है। उन्हें पता चल गया है कि मंत्रों की शक्ति से ही प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित किया जा सकता है। आने वाले समय में मंत्रों का उपयोग एक वैज्ञानिक उपकरण के रूप में उसी तरह होगा, जिस तरह मौजूदा समय में लेजर या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का उपयोग प्रकृति के गहनतर आयामों को जानने के लिए किया जाता है।  

जहां तक योगनिद्रा की बात है तो प्रत्याहार की शक्तिशाली और मौजूदा समय में प्रचलित विधि स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देन है। उन्होंने तंत्रशास्त्र से इस विद्या को हासिल करके इतना सरल, किन्तु असरदार बनाया कि आज दुनिया भर में इसका उपयोग मानसिक बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों तक के उपचार में हो रहा है। दरअसल यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति का एक व्यवस्थित तरीका है। गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है। मन की सजगता और शिथिलीकरण के लिए यह अचूक विधि मानी जाती है।

अब योग विधियों को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और उनके नतीजों की बात। बिहार योग विद्यालय ने स्पेन के बार्सिलोना स्थित अस्पताल में शल्य चिकित्सा कराने पहुंचे तनावग्रस्त मरीजों पर मंत्र के प्रभावों पर शोध किया। ऐसे सभी मरीजों को एक कमरे में बैठाकर बार-बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करने को कहा गया था। ईईजी और अन्य चिकित्सा उपकरणों के जरिए देखा गया कि मंत्रोचारण से भय, घबराहट और चंचलता के लिए जिम्मेदार बीटा तरंगें कम होती गईं औऱ अल्फा तरंगों की वृद्धि होती गई। स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है।

अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योगनिद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योगनिद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योगनिद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रेडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोंटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी का जीनव-काल योगनिद्रा के अभ्यास से काफी बढ़ गया था।

इन दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि आधुनिक युग में योग कैप्सूल को जीवन-पद्धति में शामिल किया जाना कितना लाभप्रद है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री चाहते हैं लोग योग कैप्सूल को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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