चौंकिए मत, यह योगनिद्रा का कमाल है!

किशोर कुमार //

महर्षि पतंजलि ने जिस अष्टांग योग से दुनिया का परिचय कराया था, जिसका पांचवां अंग है प्रत्याहार। प्रत्याहार यानी इंद्रियों पर संयम। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी प्रत्याहार से आज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक शक्तिशाली विधि विकसित की थी, जिसे आज हम “योगनिद्रा” के रूप में जानते हैं। आज का विषय वही योगनिद्रा है और इसकी एक खास वजह भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 13-14 जुलाई को फ्रांस में थे। भारतीय मूल के लोग स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री मोदी से मिलने खिंचे चले गए थे। उनमें एक उत्साही युवक ने प्रधानमंत्री से पूछ लिया – आप हर रोज बीस घंटे काम करते हैं, इसका राज क्या है? लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के दौरान जाहिर है कि प्रधानमंत्री के पास इतना वक्त नहीं रहा होगा कि वे खड़े होकर उस यौगिक क्रिया के बारे में बतलाते, जिनकी बदौलत वे तीन-चार घंटे सो कर भी तरोताजा बने रहते हैं। इसलिए वे उस युवक का हाथ थपथपाते हुए आगे बढ़ गए थे। पर भारत के कुछ बुद्धिजीवियों को यह बात नागवार गुजरी। आखिर मोदी निरूत्तर क्यों हो गए? शायद तीन-चार घंटे ही नींद लेने वाली बात सही नहीं है।

कुछ साल पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो उनकी पुत्री इवांका ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था, जैसा कि फ्रांस में किया गया। उन्होंने ट्वीट करके पूछा था कि इतने ऊर्जावान होने का राज क्या है? प्रत्युत्तर में मोदी ने कहा था कि बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा निर्देशित “योगनिद्रा” का नियमित अभ्यास करता हूं। तब इवांका ट्रंप ने कहा था कि वे भी इस योगविधि का अभ्यास करेंगी। इस संवाद को जानने-समझने के बाद  कहना होगा कि या तो विरोध करने के लिए बाल की खाल निकाली जा रही है या फिर योगनिद्रा की शक्ति पर ही संशय है।          

बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे – बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी कई विज्ञानसम्मत बातें भी चमत्कार प्रतीत होने लगती हैं। ओशो रेल से जुड़े एक रोचक प्रसंग सुनाते थे – इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

हालांकि योगनिद्रा कोई नई योगविद्या तो है नहीं। दुनिया भर की एक हजार से ज्यादा प्रयोगशालाओं में शोध किया जा चुका है। सच तो यह है कि योगनिद्रा प्रत्याहार की एक ऐसी विधि है, जिसके लाभों की फेहरिस्त लंबी हैं। एक लाभ तो यही है कि पांच-छह घंटे सोने जितना शारीरिक-मानसिक आराम नहीं मिलता, उससे ज्यादा आराम ढाई-तीन घंटों की योगनिद्रा में मिल जाता है। इसलिए कि योगनिद्रा के दौरान व्यक्ति की स्थिति जागृत और स्वप्न के बीच वाली होती है। योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर पहली बार वर्षों पहले जापान में शोध किया गया था। शोधकर्त्ता डॉ हिरोशी मोटोयामा ने देखा था कि योगनिद्रा के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। इससे योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। इस वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक प्रत्याहार में इतनी शक्ति है कि इड़ा और पिंगला नाड़ियों को अवरूद्ध कर मस्तिष्क से उनका संबंध विच्छेद किया जा सकता है। इस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राय: सुषुप्तावस्था में रहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करना आसान हो जाता है। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। शोधों से पता चला है कि मनुष्य जब निद्रित रहता है, उस समय उसका मन बहुत ग्रहणशील रहता है। इसके अतिरिक्त उसकी श्रवण, दृष्टि और ज्ञान की शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि स्थूल इन्द्रियों का बन्धन नहीं रहता। यह ज्ञान अर्जन के लिए आदर्श स्थिति होती है। साथ ही स्नायविक, मानसिक और भावनात्मक तनावों मुक्ति मिल जाती है, जो अनेक बीमारियों की वजह बनी होती हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आपबीती सुनाई थी कि योगनिद्रा जीवन को किस तरह रूपांतरित कर देती है। वर्षों पहले की बात है। स्वामी जी इंग्लैंड में थे और उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। लंदन विश्वविद्यालय में बायोफीडबैक विषय पर शोध पूर्व संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। उसमें योग विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार रखने के लिए बिहार योग विद्यालय को निमंत्रण था। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लंदन में थे ही तो चले गए अपने संस्थान का प्रतिनिधित्व करने। पहले तो अन्य वक्ताओं ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पर वक्तव्य पूरा हुआ तो सभी दंग रह गए थे। इसलिए कि जिस विषय पर अभी शोध होना था, स्वामी जी उसके परिणामों की बात कर गए थे। चिकित्सा वैज्ञानिकों से रहा न गया। पूछ लिया – आपको इस विषय की इतनी गहन जानकारी कैसे हुई? पता चला कि स्वामी जी ने तो मंच से उतना ही कहा था, जितना उन्हें सपने में उनके गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बतलाया था। यह चमत्कार कैसे हुआ? स्वामी निरंजन कहते हैं कि यह योगनिद्रा का परिणाम है। दरअसल, उन्होंने अपने गुरू से सारी शिक्षाएं योगनिद्रा में ही पाई थी।     

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि पूरे मनोयोग से और नियमित प्रत्याहार की शक्तिशाली साधना करने वाले किस तरह रूपांतरित हो जाते हैं। मौजूदा बड़े राजनेताओं में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी घोषित तौर से प्रत्याहार की साधना करते हैं। तभी वे दोनों चौबीस घंटो में बमुश्किल तीन-चार घंटे ही नींद लेकर भी ऊर्जावान व संयमित बने रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

अनिद्रा से मुक्ति दिलाएंगी ये योग विधियां

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद अनिद्रा की समस्या से पीड़ित और अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती तादाद स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। जब बच्चे अनिद्रा की शिकायत करने लगें और तनावग्रस्त हो जाएं तो मान लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के लिए यह चिंता का विषय है। इसलिए कि इस समस्या का सीधा संबंध हमारी अर्थ-व्यवस्था से भी है। मेलाटोनिन हार्मोन का न बनना अनिद्रा की सबसे बड़ी वजह है। पर अनिद्रा की समस्या दूर हो जाए तो स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। भारत के योगी सदियों से बतलाते रहे हैं कि प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन के उत्पादन में किसी कारण से बाधा आती है तो उसका यौगिक समाधान है। पर मेलोटोनिन स्राव के लिए दवा तैयार करने वाली कंपनियों का धंधा जिस तरह चमका है, वह चिंताजनक है। इसलिए कि इसके परिणाम अधिक घातक होने वाले हैं।

महाभारत की एक कथा इस संदर्भ में प्रासंगिक है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे। कहा था, क्यों आपस में झगड़ने पर आमादा हो? पांच राज्य नहीं, तो पांच गांव ही दे दो। दुर्योधन तैयार न हुआ तो श्रीकृष्ण ने उसे राजधर्म की याद दिलाई। इसके प्रत्युत्तर में दुर्योधन ने जो कहा, वह गौर करने लायक है। वह कहता है – “राजधर्म क्या है, मैं जानता हूं। पर उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। अधर्म क्या है, मैं उसको भी जानता हूं। पर अधर्मों से अपने को दूर नहीं रख पाता। पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति है, जो मेरे भीतर बैठकर पापकर्म कराती है।“ श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि तमोगुणी व्यक्ति बड़ा ही अहंकारी होता है, अज्ञानी होता है। उसमें “मैं” की भावना प्रबल होती है। इस वजह से सज्जनों की बातों से राजी होने को तैयार नहीं होता, बल्कि इसके उलट काम करता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानसिक शांति से ही मैपन छूटेगा, अहंकार टूटेगा, तमोगुण मिटेगा और जीवन सुखमय होगा। इसके लिए उपाय एक ही है और वह है – अभ्यास योगेन तत: मामिच्छाप्तुं धनंजय। यानी योगाभ्यास।

आज के संदर्भ में हम सबकी स्थिति भी कुछ दुर्योधन जैसी ही हो गई है। तभी यौगिक उपायों का ज्ञान होते हुए भी हम सब दवाओं के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इसके कुपरिणाम तक झेलने को तैयार हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि अनिद्रा दूर करने वाला कृत्रिम मेलाटोनिन कुछ समय बाद अनिद्रा का ही कारण बन जाता है। अठारहवीं सदी के लखनवी शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा था – “दिल के आइने में हैं तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।“ हम सब भी नजरिया बदल लें तो बात बन जाएगी। योगाभ्यास से प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन का उत्पादन होने लगेगा। इसके विस्तार में जाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर मेलाटोनिन हार्मोन होता क्या है? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीयूष या पीनियल ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉर्मोन बनना बंद हो जाता है तो अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके उलट यदि मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होते रहता है तो अनिद्रा की समस्या आती ही नहीं। अब तो यह भी पता चल चुका है कि इंफ्लूएंजा जैसी संक्रामक बीमारी के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है। टी-सेल्स श्वेत रक्त-कोशिकाएं होती हैं, जो कि हमारी इम्युनिटी में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। ये ऐंटीबॉडी रिलीज करती हैं, जिससे वायरस मरता है। जब हम रात्रि में कमरे की लाइटें बंद करके विश्राम करते हैं तो मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। यदि कमरे में रोशनी रही तो इस कार्य में बाधा आती है। मेलाटोनिन का स्राव जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी ही गहरी होती है। चार घंटों की नींद भी आठ घंटों की नींद जैसी जान पड़ती है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य दुरूस्त रहता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है।

शास्त्रों में भी नींद की महत्ता बतलाई गई है। भविष्य पुराण, पदंम पुराण और मनुस्मृति में बतलाया गया है कि रात्रि में विश्राम की तैयारी किस तरह हो कि गहरी नींद आए। पर यदि नींद में बाधा है तो योग के साथ ही मंत्रों की अहमियत भी बतलाई गई है। कहा गया है कि “या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः“ मंत्र का नींद से संबंध है। इस मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करने से निद्रा में व्यवधान खत्म होता है। पर मंत्रयोग हो या योग की कोई अन्य विधि, लाभ तो तभी होगा, जब हम अनुशासित जीवन-शैली के लिए तैयार रहेंगे। कैफीन का सेवन करने वालों को भला कौन-सी युक्ति काम आएगी?   

खैर, जहां तक नींद के लिए यौगिक उपायों का सवाल है तो यह विज्ञानसम्मत है कि यदि योगनिद्रा, अजपा जप, भ्रामरी प्राणायाम, सोऽहं मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम आदि योग विधियों में से किसी एक का भी निरंतर अभ्यास किया जाए, तो अनिद्रा की समस्या जाती रहेगी। अवसाद से भी छुटकारा मिलेगा। चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हुआ कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है।

सत्यानंद योग पद्धति में कहा गया है कि अजपा योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है। इसी तरह भ्रामरी प्राणायाम है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि रात में नींद खुल जाए तो तीन बार विधि पूर्वक भ्रामरी प्राणायाम कीजिए, नींद आ जाएगी। इसलिए कि इससे भी मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। पर योगनिद्रा तुरंत-तुरंत के लाभ के लिए बेहद उपयोगी है। वैसे, इन योग विधियों का नींद के लिए उपयोग वैसा ही जैसे सुई का काम तलवार से लिया जाए। पर संकट गहरा है तो तलवार से ही काम लेने में ही बुद्धिमानी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

जेलों में योग की अहमियत

किशोर कुमार

आठवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के लिए उल्टी गिनती शुरू है। इस बार का थीम है – योगा फॉर ह्यूमैनिटी। इस थीम के मद्देनजर जेलों के कैदियों पर भी फोकस है। योगोत्सव की तैयारियों के लिहाज से कैदियों को योगाभ्यास कराया जा रहा है। वैसे, कैदियों के लिए योग की अनिवार्यता पर लंबे समय से बहस होती रही है। कैदियों के लिए योगाभ्यास क्यों जरूरी है? क्या इससे जीवन के प्रति उनके नजरिए में कोई बदलाव हो पाता है?  क्या उनके पुनर्वास में योग की कोई भूमिका होती है?… इस तरह के सवाल किए जाते रहे हैं। इस लेख में इन्हीं संदर्भों में बात होनी है। पर पहले एक रोचक प्रसंग।

ओशो को अमेरिकी सरकार ने ओक्लाहोमा जेल में बंद कर दिया था। ओशो जब तक जेल में रहे, कैदियों को ध्यान का अभ्यास कराते रहे। कैदियों को उनका सत्संग इतना भाया कि वे बदले-बदले से दिखने लगे थे। जेलर भी खासा प्रभावित था। ओशो जब जेल से रिहा हुए तो जेलर ने अपनी भावनाएं कुछ ऐसे व्यक्त की – आपका जेल रहना मेरे जीवन का अनूठा अनुभव रहा। कैदियों की दशा बदल गई है। दूसरी तरफ मैंने आप जैसे किसी कैदी को जेल आते-जाते इतना प्रसन्न नहीं देखा था। आखिर इसका राज क्या है? ओशो ने  कहा कि उनका यही तो जुर्म है कि वे लोगो को प्रसन्न रहने का राज बतला रहे थे। सरकार को बात इसलिए नहीं भायी कि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। यहां तक कि आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के बल पर तुम्हारी छाती पर सवार हैं, वे नहीं चाहते कि जानो कि तुम कौन हो। ओक्लाहोमा जेल के तत्कालीन जेलर की आत्मकथा में इन बातों का उल्लेख है।

खैर, अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में योग का डंका बज रहा है। जेल भी इससे अछूते नहीं हैं। देश में सबसे पहले दिल्ली के तिहाड़ जेल के सभी कैदियों के लिए योगाभ्यास को अनिवार्य बनाया गया था। यह पहल खूंखार कैदियों को खुदकुशी से रोकने के लिए की गई थी। अब इस जेल के सभी कैदियों के योग को अनिवार्य बनाया जा चुका है। इसका असर हुआ कि देश के प्राय: सभी जेलों में कैदियों को प्राथमिकता के आधार पर योगाभ्यास कराया जाने लगा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कैदी प्रशिक्षण पाकर खुद ही बेहतरीन योग प्रशिक्षक बन गए। सरकार सजा पूरी कर चुके ऐसे कैदियों को आयुष केंद्रों में बतौर योग प्रशिक्षक बहाल करे तो उनके पुनर्वास में बड़ी मदद मिल सकती है।    

योग के प्रभावों के लेकर लखनऊ स्थित जिला कारागार का मामला ताजा-ताजा है। वहां प्रयाग आरोग्यम केन्द्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल कैदियों को लगातार तीन दिनों तक न केवल उदाहरणों के जरिए योग विधियों की अहमियत बताते रहे, बल्कि उन्होंने उन विधियों का अभ्यास करवा कर कैदियों पर गहरा प्रभाव डाला। आसन, प्राणायाम और योगनिद्रा से कैदियों के अशांत मन को सांत्वना मिली। अब वे योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाने को उत्सुक हैं। श्री शुक्ल कहते हैं कि योगाभ्यास का असर हुआ कि कैदियों के आचार-विचार बदल गए थे। उनकी आक्रमकता पहले जैसी नहीं रही। पूर्व में जिन कैदियों ने योग में रूचि नहीं दिखाई थी, वे भी योगनिद्रा के प्रभावों से चमत्कृत होकर बार-बार योगनिद्रा करना चाहते थे।

आखिर योगनिद्रा क्या है? जागृत और स्वप्न के बीच जो स्थिति होती है, उसे ही योगनिद्रा कहते है। जब हम सोने जाते हैं तो चेतना इन दोनों स्तरों पर काम कर रही होती है। हम न नींद में होते हैं और जगे होते हैं। यानी मस्तिष्क को अलग करके अंतर्मुखी हो जाते हैं। पर एक सीमा तक बाह्य चेतना भी बनी रहती है। इसकी वजह यह है कि हम योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान अनुदेशक से मिलने वाले निर्देशों को सुनते हुए मानसिक रूप से उनका अनुसरण भी करते रहते हैं। ऐसा नहीं करने से सजगता अचेतन में चली जाती है और मन निष्क्रिय हो जाता है। फिर गहरी निद्रा घेर लेती है, जिसे हम सामान्य निद्रा कहते हैं।

कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर दुनिया भर में कई स्तरों पर अध्ययन किए गए। पता चला कि कैदियों के शरीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूपांतरण में योग की बड़ी भूमिका होती है। कैदियों में अनिद्रा एक आम समस्या है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में अनिद्रा पर योगनिद्रा के प्रभावों पर हाल ही शोध किया गया। वैसे, वर्षों पूर्व जापान में भी योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर शोध किया गया था। उसके जरिए जानकारी इकट्ठी की गई कि साधारण निद्रा और योगनिद्रा की अवस्था में मस्तिष्क की तरंगें किस तरह काम करती हैं। इस अध्ययन की अगुआई डॉ हिरोशी मोटोयामा ने की थी। उन्होंने देखा कि गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। यही नहीं, योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साबित हुआ कि योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

स्वीडेन के यूनिवर्सिटी वेस्ट के स्वास्थ्य विभाग ने स्वीडिश कैदी सुधार सर्विसेज के साथ मिलकर 152 कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर कोई दस सप्ताह तक अध्ययन किया। इस दौरान कुछ आसनों के साथ मुख्यत: योगनिद्रा का अभ्यास कराने के बाद हिंसक कैदी भी सामान्य व्यवहार करने लगे थे। यूनिवर्सिटी वेस्ट के अध्ययनकर्त्ता केरेक्स ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि मन को स्वस्थ्य बनाने की यह विधि चमत्कारिक है। अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि योगाभ्यास से कैदियों के सामान्यत: फिर से आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है। इस अध्ययन का पूरा वृतांत ब्रिटेन के अखबार “द गार्डियन” में प्रकाशित हुआ है।

इन उदाहरणों से जेलों में योग की अहमियत का पता चलता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग की शक्ति से बेअसर होगा बुढ़ापे का असर

किशोर कुमार //

यह निर्विवाद है कि जो आया है सो जाएगा। पर बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक या मानसिक समस्याएं कम से कम हो, ऐसी भला किसकी चाहत न होगी। पर योगमय जीवन के प्रति सजगता के अभाव में समय के साथ ही जिंदगी बोझ बनती चली जाती है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की “एल्डरली इन इंडिया 2021” रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बुजुर्ग आबादी (60 वर्ष और उससे अधिक आयु) मौजूदा 138 मिलियन से बढ़कर सन् 2031 तक 194 मिलियन पहुंचने का अनुमान है। यानी एक दशक में 41 फीसदी की वृद्धि। इसके साथ ही चिंताजनक पहलू यह है कि बुर्जुर्गों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की दर भी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में बढ़ती उम्र के साथ ही योगमय जीवन की शुरूआत करने पर बल दिया जा रहा है। अनेक शोध नतीजों के आधार पर बतलाने की कशिश की जा रही है कि इस विश्वव्यापी समस्या का वास्तविक समाधान योग में ही सन्निहित है।   

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के सैन डिएगो स्कूल और नेशनल स्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहांस) का अध्ययन ताज-ताजा है। इन अध्ययनों के मुताबिक कुछ खास तरह के योगाभ्यास से शरीर के बायोलॉजिकल बदलाव को धीमा कर देता है। नतीजतन, शरीर और मन पर बढती उम्र के कुप्रभावों बहुत हद तक मुक्ति मिल जाती है। वैसे प्राचीन योग-शास्त्र के जानकारों के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। योग-शास्त्र की मान्यता पुरानी है कि बुढापे की क्रिया को रोकने के लिए क्षय होने वाली कोशिका के बदले नई कोशिका उत्पन्न की जा सकती है। किसी मामले में ऐसा संभव न हो सका तो उसकी मरम्मत तो हो ही सकती है। तभी परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “व्यक्ति का योगमय जीवन हो तो सामान्य प्रत्याशित आयु सीम डेढ़ सौ वर्षों की है।“ 

आइए, पहले हम जानते हैं कि हमारे शरीर में बायोलॉजिक परिर्वतन कब और कैसे होता है। चिकित्सकीय शोध के मुताबिक हमारे शरीर का डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक अम्ल यानी डीएनए के भीतर एक विशेष प्रकार का जैविक तत्व होता है, जिसे टेलीमीयर कहते हैं। यह जितनी तेजी से छोटा होगा, उतनी तेजी से बुढापा आएगी और बीमारियां लाएगी। दरअसल, टेलीमीयर सभी प्राणियों की कोशिकाओं में पाया जाने वाला तंतु रूपी पिंड क्रोमोज़ोम का रक्षा कवच है। डीएनए से बना क्रोमोजोम ही सभी आनुवांशिक गुणों को निर्धारित व संचारित करने का काम करता है। इसके सिरों पर मौजूद टेलीमीयर जैविक तत्वों की सुरक्षा करता है और कोशिकाओं के तेज़ी से कोशिकाओं के क्षय होने से बचाता है।

टेलीमीयर के सिकुड़ने या छोटा होने से बुढ़ापा आने के साथ ही हृदय रोग,  मधुमेह और कैंसर जैसी घातक बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। एम्स के ऐनाटॉमी डिपार्टमेंट की डॉक्टर रीमा दादा के मुताबिक उनके अध्ययन में 96 लोगों को शामिल किया गया था। उन सभी के डीएन डैमेज मार्कर, स्ट्रेस मार्कर, एंटीबॉक्सीडेंट क्षमता और टेलीमीयर मार्कर देखे गए। फिर नियमित रूप से तीन महीनों तक योग कराया गया। इसके बाद उनकी जांच की गई। पता चला कि उम्र बढ़ने के सभी कारकों पर लगाम लग चुका था। डॉ रीमा दादा के मुताबिक, डीएनए को डैमेज करने में स्ट्रेस एक महत्वपूर्ण कारण होता है। योग करने से स्ट्रेस के लेवल में कमी आती है। लिहाजा योगभ्यासों के कारण डीएनए डैमेज करने वाले मार्कर कम हो गए। वहीं, टेलीमीयर की लंबाई बढ़ गई। बीडीएनएफ भी बढ़ गया, इससे सोचने-समझने की क्षमता बढ़ गई। ब्लड प्रेशर नियंत्रण में आ गया और भूलने की बीमारी बेहद कम कई।

आसन, प्राणायाम और ध्यान की अनेक विधियां बुढापे के असर को कम करके लंबी आयु प्रदान करने में मददगार है। पर इस लेख में ध्यान की एक ऐसी विधि की चर्चा करूंगा जो, अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों में बेहद लोकप्रिय है। वह है डायनेटिक्स। यह ध्यान की कोई नई विधि नहीं है, बल्कि हमारे योगशास्त्र में उल्लिखित प्रतिक्रमण के सिद्धांत पर ही आधारित है। इस बात को एक उदाहरण से समझिए। आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? मानस दर्शन होते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

ओशो ने भी इस योग विधि को हर उम्र के लोगों खासतौर से बुजुर्गों के लिए जरूरी माना। वे कहते थे कि प्रतिक्रमण एक चमत्कारिक विधि है। अगर तुम पीछे लौटकर अपने मन की गांठें खोलो तो तुम धीरे— धीरे उस पहले क्षण को पकड़ सकते हो जब यह रोग शुरू हुआ था। उस क्षण को पकड़कर तुम्हें पता चलेगा कि यह रोग अनेक मानसिक घटनाओं और कारणों से निर्मित हुआ है। प्रतिक्रमण से वे कारण फिर से प्रकट हो जाते हैं। इस प्रतिक्रमण से अनेक रोगों की ग्रंथियां टूट जाती हैं और अंततः रोग विदा हो जाते हैं। जिन ग्रंथियों को तुम जान लेते हो वे ग्रंथियां विसर्जित हो जाती हैं और उनसे बने रोग समाप्त हो जाते हैं। यह विधि गहरे रेचन की विधि है। अगर तुम इसे रोज कर सको तो तुम्हें एक नया स्वास्थ्य और एक नई ताजगी का अनुभव होगा।

डायनेटिक्स वाले कहते हैं कि सारे रोग अतीत के अवशेष हैं—तलछट। अगर हम अपने अतीत में लौट सकें, अपने जीवन को फिर से खोलकर देख लें, तो उसी देखने में बहुत से रोग विदा हो जाएंगे। और यह बात बहुत से प्रयोगों से सही सिद्ध हो चुकी है। भारतीय योगी कहते हैं कि योगनिद्रा, अजपा जप और अंतर्मौन जैसी यौगिक साधनाएं प्रतिक्रमण का सौ फीसदी लाभ दिलाने में मददगार है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगनिद्रा और स्वामी सत्यानंद सरस्वती

किशोर कुमार

चार दिनों बाद ही यानी 24 दिसंबर को बीसवीं सदी के महानतम संत परमहसं स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 98वी जयंती है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसके परिणामों से दुनिया भर के लोगों को अवगत कराने वाले इस महानतम योगी ने योगनिद्रा के रूप में दुनिया को अनुपम उपहार दिया था, जिसकी बदौलत असंख्य लोगों के मन का प्रबंधन और बीमारियों से मुक्ति पाना संभव हो पा रहा है। सच है कि योगनिद्रा एक ऐसी यौगिक विधि है, जिसके अभ्यास से बुरी आदतों या मनोवृत्तियों को ठीक किया जा सकता है। एक दशक पूर्व उस महान संत द्वारा अपनी महासमाधि से पूर्व योगनिद्रा पर केंद्रित सत्संग का सार प्रस्तुत है। आप सब लाभान्ति होइए।

योगनिद्रा को प्रत्याहार की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा गया है, क्योंकि यह शिथिलीकरण की एक क्रिया भी है। शिथिलीकरण में भी एक मनोविज्ञान निहित है। शिथिल होने का मतलब पैरों को फैला कर सो जाना नहीं होता। मनोविज्ञान मानता है, और हो सकता है आप लोग भी इस बात को मानें कि निद्रा में विश्राम की स्थिति नहीं रहती। निद्रा की अवस्था में भी तनाव की स्थिति रहती है। इसके पीछे एक ही कारण है कि आज तक हम लोग स्वयं को शिक्षा नहीं दे पाए हैं कि कब मन की तनावपूर्ण अवस्था से सम्बन्ध-विच्छेद करना है और कब शान्त अवस्था से सम्बन्ध जोड़ना है ।

योगनिद्रा में यही से शिक्षा आरम्भ होती है कि धीरे-धीरे अपनी शारीरक और मानसिक अवस्थाओं को पहचान कर, शारीरीक तनावों प्रति जागरूक हो, मन को एक बिन्दु में केन्द्रित करके हम विश्राम की स्थिति को प्राप्त करें। उस विश्राम की स्थिति में एक नए, सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। योगनिद्रा अभ्यास शनैः शनैः मनुष्य की सजगता को चेतन से अवचेतन और अवचेतन से अचेतन स्तर तक ले जाते हैं। अब दूसरा प्रश्न उठता है, ‘मनुष्य के मन को कैसे समझें?’ जाग्रत अवस्था में हमें बहुत प्रकार के अनुभव मिलते हैं जो हमारे विचार, व्यवहार और कर्म को प्रभावित करते हैं ।अवचेतन और अचेतन में भी इनका असर दिखलाई देता हैं। इन्हीं प्रतिक्रियाओं कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, और तदनुसार कर्म होते हैं। हमलोगों का मन हमेशा धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा के सदृश रहता है, जो सुखद परिस्थिति में भी तनी रहती है और दुःखद में भी । योगनिद्रा के द्बारा यह प्रयास किया जाता है कि परिस्थिति के प्रभाव से हमारे मन में जो तनी हुई प्रत्यंचा है, उसके प्रति सजग होकर हम उसे ढीला कर दें ।

आप किसी सत्संग या रामायण कथा में जाएँगें, पन्द्रह-बीस मिनट के बाद नींद आने लगेगी। किन्तु किसी क्लब या पार्टी में जाएँगें तो आधी रात तक एकदम जमे हुए रहेंगे। विषय भोग के पीछे जाने का कारण मन सजग रहता है और ऊबता नहीं। जहाँ मन शान्त हुआ, ऊब लगने लगती है, आँखों बन्द हो जाती हैं। यह मन का स्वाभाविक रूप है। इसी में आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना है। योगनिद्रा में लेटते ही खर्राटे शुरू हो जाता हैं। या बहुत बार होता है कि हम एकदम सजग रहते हैं, सोते नहीं है, लेकिन कहीं सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जब हम फिर से सजग होते हैं तो देखते हैं कि अरे, अभी हम शरीर की दाहिनी तरफ धूम रहे थे और अब यहाँ कल्पना कर रहे हैं कि सूर्य देखो, चन्द्रमा देखो । यह अन्तराल कैसे आ गया?

यह अनुभव तब होते हैं जब मन शांत होता है, क्योंकि जिन इन्द्रियों के साथ मन का सम्पर्क हमेशा रहता है, चाहे वह कर्मेन्द्रिय हो, चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो, चाहे बुद्धि हो, या चित्त हो, उनके साथ अगर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाए तो तन्द्रा की अवस्था अवश्य आएगी। स्वप्न की अवस्था में अगर आप जानें कि मैं सोच रहा हूँ या मैं स्वप्न देख रहा हूँ तो आप जान लेना कि अब हम योगनिद्रा का अभ्यास करने के लिए तैयार हो रहे हैं । हस तैयारी में अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । यह स्थिति स्वतः उत्पन्न होती है। जिन्हें योगनिद्रा के प्रारंभिक अभ्यास सिद्ध हो जाते हैं, वे चार धंटे की निद्रा को चालीस मिनट या एक धंटे में पूरा कर सकते हैं। इतिहास में महात्माओं या विचारकों या बड़ी-बड़ी हस्तियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने योगनिद्रा के अभ्यास को सिद्ध किया है । गाँधीजी के बारे में मालूम है । दो मिनट आँख बन्द करते, फिर एकदम तैयार । नेपोलियन के बारे में सुनते हैं कि वह धोड़े पर बैठे-बैठे सो जाता था, और फिर लड़ाई के लिए तैयार।

योगनिद्रा चेतना को जाग्रत करने का एक तरीका है। इसमें जो अनुभव होते हैं, निद्रा आती है, उस समय थोड़ा संधर्ष तो करना पड़ता है । मानसिक अनुशासन के अभाव में यह आवश्यक होता है कि हम प्रारंभ में थोड़ा संधर्ष करें । लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास होता जाएगा, संधर्ष नहीं करना पड़ेगा । मन विचारशून्य हो जाता  है, समयान्तराल हो जाता है । एक बार अगर न सोने की आदत हो गया तो जल्दी ही गाड़ी पकड़ में आ जाएगी । योगनिद्रा में मन बहुत ग्रहणशील और संवेदनशील हो जाता है । बच्चों की संकल्पशक्ति, ग्रहणशक्ति और प्रतिभा बढ़ाने के लिए यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है, और बच्चों को आप चाहे किसी विषय की शिक्षा योगनिद्रा में दे सकते हैं । योगनिद्रा ही एक ऐसी विधि है जिसमें ‘हिस्ट्री ज्योग्राफी बड़ी बेवफा, रात को पढ़ा सवेरे सफा’ वाला हिसाब नहीं होता ।

योगनिद्रा कहती है ‘सो के पढ़ा और सबेरे रखा,’ क्योंकि इसमें ग्रहणशीलता इतनी तीव्र हो जाती कि कुछ भूल ही नहीं सकते हैं। जवानों के लिए अच्छी चीज है, क्योंकि जीवन में भागदौड़ की शुरुआत जवानी में होती है। जैसे-जैसे आज विभिन्न उत्तरदायित्वों को ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे तनावमुक्त रह कर सही प्रकार से अपनी क्षमता का उपयोग करना – यही सिखलाना योगनिद्रा का उद्देश्य हो जाता है। बड़ों के लिए अच्छा अभ्यास है ताकि वे स्वयं को शांत, संयम और संतुलित रख सकें, ताकि रक्तचाप की शिकायत न हो, किसी परिस्थिति में दिल का दौरा नहीं पड़े, मन शान्त रहे । बुजुर्गों के लिए भी अच्छी चीज है, सोने को मिलता है। अतः सभी दृष्टिकोणों से, सभी वर्गों के लिए, सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए, योगनिद्रा का अभ्यास बहुत उपयोगी है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुरू का स्पर्श मिलते ही चिकित्सक बन गया कर्मयोगी

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

कोरोनाकाल में मधुमेह, उच्च रक्तचाप और दमा जैसी बीमारियां घातक साबित हुई हैं। भारत में कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान का श्रीगणेश हो चुका है। बावजूद सबको पता है कि जानलेवा संक्रमण से पूरी तरह मुक्ति मिलने में समय लगेगा। इसलिए दमा-मधुमेह के मरीज नाना प्रकार की आशंकाओं से घिरे रहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। पर आस्ट्रेलिया के चिकित्सक से योगी बने डा.शंकरदेव सरस्वती की कहानी से निश्चित ही बेहतर राह मिलेगी और नई आशा का संचार होगा। 

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

इस घटना से उनके जीवन में ऐसा मोड़ आया और योग के प्रति ऐसा अनुराग हुआ स्वामी सत्यानंद सरस्वती के शिष्य बन बैठे। इसके बाद अपने गुरू के निर्देशन में मानव शरीर पर योग के प्रभावों पर शोध-कार्यों में इतने तल्लीन हुए कि मुंगेर में ही दस साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था। भारत की योग-शक्ति का ही कमाल है कि डा. स्वामी शंकरदेव जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। अमेरिकी लेखक औऱ पत्रकार पॉल ब्रंटन की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। वे तो “जादू-टोने के देश” के मामले में पश्चिमी दुनिया के नजरिए को पुष्ट करना चाहते थे। पर रमण महर्षि से आंखें मिलीं तो उनके ही होकर रह गए थे।

खैर, डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती को दमा के कारण फेफड़ों औऱ कंठ में काफी तकलीफ रहती थी। श्वसन-क्रिया अवरूद्ध होने जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी तो चिकित्सकों ने टॉंसिल और एडिनॉइड ग्रंथियां तक निकाल दी। पर बात न बनी थी। दुनिया के कुछ बड़े चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एलर्जी उनके दमा की मुख्य वजह है। इसका इलाज भी बेकार गया। इस बीच डॉ शंकरदेव की शारीरिक दुर्बलत बढ़ती गई और विषादग्रस्त हो गए। योगोपचार के लिए बिहार योग विद्याय पहुंचे तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उन्हें सबसे पहले ध्यान साधान में लगा दिया। आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी के निर्देशन में ध्यान लगा तो अंतर्रात्मा से एक ऐसी सच्ची दास्तां निकल कर बाहर आई, जो उनके बचपन में वास्तव में घटी थी। उन्होंने गुरूजी से सारी बातें साझा की तो पता चला कि दमा और बाद में मधुमेह की वजह बचपन की वही घटना थी।

डॉ स्वामी शंकरदेव ने खुद ही अपनी अनेक पुस्तकों में जिक्र किया है – “उनका परिवार आर्थिक रूप से मजबूत नहीं था। माता-पिता को नौकरी करनी होती थी और उनका पालन-पोषण एक मेड करती थी। उन्हें जो भोजन पसंद नहीं होता था, वह उसे जबर्दस्ती खिलाती थी। इस क्रम में मारती-पीटती भी थी।“  स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अनुभवों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हुए थे कि मानसिक आघात अचेतन भावों को जन्म देते हैं और भविष्य में व्यवहार को प्रेरित करते हैं। नकारात्मक विचार मानसिक तनाव बढ़ाते हैं। ये स्थितियां भी लंबे समय में दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों को जन्म देती हैं। इसी अनुभव के आधार पर डॉ शंकरदेव को दमा और मधुमेह को ध्यान में रखते हुए यौगिक क्रियाएं बतलाई गईं और वे बीते चालीस सालों से स्वस्थ्य जीवन जी रहे हैं और दूसरों के लिए भी स्वस्थ्य जीवन जीने का आधार प्रदान करते रहते हैं।  

डॉ स्वामी शंकरदेव के बचपन की घटना यह समझने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि बाल्यावस्था में माता-पिता की कितनी अमहमियत होती है। कनाडा मूल के अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ एरिक बर्न की मानव संबधों के मनोविज्ञान पर एक चर्चित पुस्तक है – गेम्स पीपुल प्ले। उसमें भी डॉ स्वामी शंकरदेव जैसी ही कहानी है। एक माता-पिता ने अपनी बेटी पर उसकी इच्छा विरूदध पढ़ाई पढ़ने का दबाव बनाया। फिर सफलता की उम्मीद पालकर बड़े-बड़े सपने संयोए। उधर कुंठित लड़की दमा की मरीज बन गई। माता-पिता को जब तक समझ में बात आई, तब तक लड़की का जीवन तबाह हो चुका था। डॉ एरिक बर्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि माता-पिता के इस तरह के व्यवहार से बाल-मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है।

पर यदि बच्चे पर किसी प्रकार का दबाव नहीं हो तो उसका प्रतिफल क्या होता है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती जब छह-सात साल के थे तो मुंगेर आश्रम में रहने के लिए गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बुलावा आ गया था। मुंगेर पहुंचे तो कुछ समय गुजारने के बाद गुरूजी से पूछ लिया, किस तरह की योग साधना करनी है? परमहंस जी ने कहा, विचार करो, करना क्या है? स्वामी निरंजनानंद आश्रम के बुजुर्ग संन्यासियों को आंखें बाद करके जप में तल्लीन देखते थे। पर उनकी रूचि इसमें बिल्कुल नहीं थी। लिहाजा उन्होंने तय किया कि योग के द्वारा अपने जीवन को प्रतिभा से युक्त करेंगे, सही तरीके से, रचनात्मक तरीके से। उन्होंने जैसा चाहा था, कालांतर में वैसा ही परिणाम मिला। गुरूजी ने उन्हें कभी नहीं कहा कि योग के माध्यम से भगवान की तलाश करो, बल्कि उनका व्यवहार इस मामले में उस शिक्षक की तरह रहा, जो निर्धारित पाठ्यक्रम को अपने छात्रों को पढ़ाता भर है। वह तय नहीं करता कि अमुक पुस्तक पढ़नी है और अमुक नहीं।

खैर, डॉ शंकरदेव अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि योगाभ्यास से विकसित सजगता के माध्यम से रोग के लक्षण ही नहीं, रोग को ही सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने योग रिसर्च फाउंडेशन के लिए दमा और मधुमेह पर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रस्तुत करते हुए मन की अवस्थाओं की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उनके मुताबिक – हमारा शरीर थल जैसा, मन समुद्र जैसा और भावनाएं समुद्री किनारा जैसा है। जब मन रूपी समुद्र अशांत होता है तो किनारे पर चोट करता है और उसे काटकर सागर तल में ले जाता है। दूसरी तरफ, शांत समुद्र के किनारे सुरक्षित रहते हैं। यही बात हमारे मन , हमारी चित्त पर लागू है। शांत चित्त में रोगोपचार की शक्ति रहती है। इसलिए मन को शांत किए बिना कोई भी योगोपचार कारगर नहीं हो पाता। प्रत्याहार की क्रियाओं का महत्व सबसे अधिक इसलिए होता है। प्रत्याहार में योगनिद्रा ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी को सम्मोहित भी किया जा सकता है।

ओशो भी अपने शिष्यों को सजगता के अभ्यास का जादू बताते हुए कहते थे कि इससे किसी को सम्‍मोहित कर दिया जाए और तब पूछा जाए कि एक जनवरी उन्‍नीस सौ पचास में अपने क्‍या किया? तो वह सुबह से सांझ तक का ब्‍यौरा इस तरह बता देगा, जैसे अभी वह एक जनवरी सामने से गुजर रही है। वह यह भी बता देगा कि एक जनवरी को सुबह जो चाय पी थी, उसमे थोड़ी शक्‍कर कम थी। यह भी बता देगा की जिस आदमी ने उसे चाय दी थी, उस आदमी के शरीर से पसीने की बदबू आ रही थी। इतनी छोटी बातें बता देगा कि जो जूता उसने पहना हुआ था, वह उसके पैर काट रहा था। मतलब यह कि सम्मोहन की अवस्‍था में किसी के भी भीतर की स्‍मृति को बाहर लाया जा सकता है।

अब जानते हैं कि डॉ स्वामी शंकरदेव मन की खास अवस्था में पहुंच कर बीमारियों की वजह जान गए थे, बचपन की घटनाओं का दृश्य दिख गया था, तो उनकी दमा और अन्य बीमारियां किन योग विधियों से दूर हो गई थीं। उन्होंने गुरू के निर्देशानुसार शुद्धिकरण की तीन क्रियाएं कुंजल-क्रिया, नेति-क्रिया व शंखप्रक्षालन, आसनों में श्वास की सजगता के साथ शवासन, सूर्य नमस्कार व भुजंगासन, प्राणायामों में नाड़ी शोधन, कुंभक के साथ भस्त्रिका व भ्रामरी और अंत में उज्जायी के साथ जपाजप व योगनिद्रा का अभ्यास किया। ये योग क्रियाएं ही कई मर्ज की दवा बन गईं। दमा और मधुमेह से लेकर उच्च रक्तचाप तक पर विजय प्राप्त हो गया था। डॉ. स्वामी शंकरदेव सरस्वती की दास्तां कोरोनाकाल में भी दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए प्रेरक है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगनिद्रा और उज्जायी प्राणायाम के चमत्कार तो देखिए!

अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है। आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में कम रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्रम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ।

कोरोनाकाल उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए ज्यादा ही घातक साबित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक उच्च रक्तचाप से प्रभावित लोगों की मृत्यु दर 8.4 फीसदी है। अनेक अध्ययन इस बात के प्रमाण हैं कि अंग्रेजी दवाएं भले उच्च रक्तचाप से मुक्ति न दिला पाए। पर योग की कई विधियां रामबाग की तरह हैं। उनमें उज्जायी प्राणायाम और योग निद्रा प्रमुख हैं।

अपने देश में हर दस में तीन व्यक्ति उच्च रक्तचाप की चपेट में हैं। स्वस्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में होने वाली सभी मौतों में से 17.5 फीसदी मौतों और साथ ही 9.7 फीसदी अक्षमता-समायोजित जीवन वर्ष (डीएएलवाईएस) के लिए उच्च रक्तचाप जिम्मेदार है। डीएएलवाईएस कुल बीमारी के बोझ और विकलांगता, बीमारियों और प्रारंभिक मौत के कारण खो गए वर्षों को मापता है। इस बीमारी को लेकर दुनिया भर में अनुसंधान हुए और हो रहे हैं। जड़ कहां है, इसकी काफी हद तक पड़ताल की जा चुकी है।

योग रिसर्च फाउंडेशन (वाईआरएफ) और भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (भेल) के संयुक्त तत्वावधान में हुए अनुसंधान के नतीजों से पुष्टि हो चुकी है कि उज्जायी प्राणायाम और योगनिद्रा उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए बेहद फायदेमंद हैं। वाईआरएफ-भेल ने इस विषय पर अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत उच्च रक्तचाप के 48 मरीजों का चयन किया था। इनमें से इनमें से 34 मरीजों का योग ग्रुप बनाया गया और 14 मरीजों का कंट्रोल ग्रुप। भेल के भोपाल स्थित परिसर में हुए इस अनुसंधान के दौरान दोनों ही ग्रुपों के मरीज एक ही चिकित्सक की लिखी दवा लेते रहे। खानपान की एक समान रहा। फर्क इतना कि योग ग्रुप के मरीजों के लिए सप्ताह में छह दिन नब्बे मिनट तक कक्षा चलती थी।

मरीजों की औसत उम्र 55 साल थी औऱ उनमें से आधे मरीजों की फैमिली हिस्ट्री में उच्च रक्तचाप था। योग ग्रुप के मरीजों में से दस को मधुमेह और 11 को हृदय रोग था। सात मरीजों को थॉयराइड की समस्या थी। इन सबको आसनों में पवन मुक्तासन भाग एक व दो, ताड़ासन, तिर्यक् ताड़ासन, कटिचक्रासन, बद्धहस्तोत्थानासन और मार्जरी कराए जाते थे। प्राणायाम में श्वास की सजगता का अभ्यास, उदर स्वसन, नाड़ीशोधन, भ्रामरी और उज्जायी प्राणायाम तथा प्राण मुद्रा व हृदय मुद्रा का अभ्यास कराया जाता था। प्रत्याहार में कायास्थैर्यम्, अजपाजप और योग निद्रा का अभ्यास।

इन योगाभ्यासों के बेहतर नतीजे मिलने शुरू हुए तो अनुसंधानकर्ताओं की यह जानने की इच्छा हुई कि इतने सारे योगाभ्यासों में कौन-कौन से योगाभ्यास ज्यादा लाभदायक हैं। वे कई महीनों के प्रयोग के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उज्जायी प्राणायाम, नाड़ीशोधन प्राणायाम, भ्रामरी और योगनिद्रा उच्च रक्तचाप पर काबू पाने के लिए रामबाण की तरह हैं। उज्जायी प्राणायाम और योगनिद्रा के परिणाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। अनुसंधानकर्ता योग ग्रुप के मरीजों को पांच मिनट उज्जायी प्राणायाम कराते और दो मिनट विश्राम देते। इस दौरान हर मिनट रक्तचाप की जांच के दौरान देखा गया कि सिस्टोलिक यानी ऊपर वाला रीडिंग सात मिनटों में 166 से घटकर 142 हो गया। इसी तरह डायास्टोलिक यानी नीचे वाला रक्तचाप 87 से घटकर 82 हो गया था।

अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है। आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में कम रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्रम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ।

दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

उच्च रक्तचाप की वजहें कई हैं। मुंबई की विख्यात चिकित्सक रह चुकीं बिहार योग विद्याय की संन्यासी और “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कैंसर” की लेखिका डॉ. स्वामी निर्मलानंद सरस्वती का कहना है कि धमनियों के सिकुड़ जाने से उच्च रक्तचाप और हृदयरोग को सीधा निमंत्रण मिलता है। अस्वस्थ्यकर जीवन पद्धति और खानपान की वजह से आदमी मोटा होता है तो धमनियां सिकुड़ जाती है। यह काम उम्र के साथ भी होता है। कोलेस्ट्रॉल और कैल्शियम धमनियों में डिपाजिट होने से भी धमनियां सिकुड़ जाती हैं। फिर तो मधुमेह भी अपनी चपेट में ले लेता है। दरअसल उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोग – ये तीनों सगे भाई-बहनों की तरह हैं। उनके माता-पिता तनाव, मोटापा, चिड़चिड़ा स्वभाव और गलत रहन-सहन हैं। आजकल इन बीमारियों की छोटी बहन भी आ गई हैं। वह हैं – थायरॉयड।

स्पष्ट है कि उच्च रक्तचाप अपने आप में कोई बीमारी न होते हुए भी बेहद खतरनाक है, जानलेवा है। यह रोग कोई दबे पैर आता नहीं है। लंबे समय तक संकेत देते रहता है। पर अशांत मन इस आहट को भांपने नहीं देता। सजगता और सतर्कता इसके लिए बैरियर का काम कर सकती हैं।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)  

मानसिक शांति व चेतना के विकास के लिए बड़े काम का है अजपा जप

“जो लोग तनावों और समस्याओं से भरे होते हैं, उनके लिए अजपा जप बड़ा लाभकारी अभ्यास है। अध्ययन और मानसिक कार्य करने वाले भी इस विधि से काफी लाभान्वित होते हैं। जब श्वास में मंत्र जागृत होता है तो उससे पूरा शरीर आवेशित हो जाता है। नाड़ियों में संचित विषाक्त तत्व बाहर निकलते हैं तथा अनेक अवरोध, जो मानसिक बीमारियों के मूल कारण होते हैं, दूर होते हैं। दरअसल, अजपा जप में प्रयुक्त मंत्र की शक्ति से सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। इससे जब इड़ा नाड़ी तरंगित होती है तो मन सक्रिय होता है और पिंगला नाड़ी तरंगित होती है तो प्राण-शक्ति सक्रिय होती है। नतीजतन, पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। सच तो यह है कि अजपा जप क्रियायोग का आधार है। इसमें कुशलता प्राप्ति से प्रत्याहार, धारणा तथा एकाग्रता की प्राप्ति होती है। यहीं से ध्यान योग प्रारंभ होता है।“

कोरोनाकाल में मानसिक अशांति बड़ी समस्या बनकर उभरी है। इसकी वजह से कई अन्य बीमारियां जन्म ले रही हैं। हम जानते हैं कि योग बहुआयामी विज्ञान है और इसका संबंध तन, मन, भावना के साथ ही आत्मा के विकास से भी है। योग की अनेक विधियां हैं, जो मानसिक शांति के लिए बड़े काम की हैं। पर ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप योग एक ऐसी विधि है, जो सरल तो है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  

गीता में कहा गया है कि नासिका प्रदेश में प्राण व अपान में समानता रखते हुए अंदर जाने वाली औऱ बाहर आने वाली श्वास को नासिका छिद्रों में समय एवं लंबाई की दृष्टि से संतुलित रखें। समय व लंबाई में समानता होनी चाहिए। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की अगुआई में योग रिसर्च फाउंडेशन ने अजपा पर देश-विदेश में काफी शोध किए। उसके आधार पर शोध-पत्र प्रकाशित किए गए थे। उसमें कहा गया है कि अजपा शरारीरिक व मानसिक तनाव तो दूर करने की कारगर यौगिक विधि तो ही है, यह रोगोपचार, चेतना के विस्तार और संस्कारों के प्रकटीकरण का सशक्त माध्यम भी हो सकता है। संतों का वर्षों-वर्षों का अनुभव है कि ध्यान जितना गहरा होता है, उसके लिहाज से भूत और भविष्य के रिकार्ड खुलते जाते हैं। इससे पूर्व जन्म की घटनाओं की स्मृतियां प्रकट होती हैं तो भविष्य की घटनाओं की झलक भी मिलती है। योगशास्त्र की इसी आधार पर मान्यता है कि मनुष्य भविष्य के संस्कारों का बीजारोपण भी स्वयं करता है।

विभिन्न रोगों में अजपा जप के प्रयोग के नतीजे बेहद शक्तिशाली साबित होते रहे हैं। यदि इसका अभ्यास योगनिद्रा और प्राणायाम के साथ हो तो कैंसर जैसी बीमारी में फायदा होता है। इस बात के कुछ प्रमाण भी हैं। केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें नियमित योगाभ्यास के जरिए कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात मिल गई थी। उन्होंने अपने भाषण में इस बात का उल्लेख किया था, जो अखबारों की सुर्खियां बनी। एक उदाहरण आस्ट्रेलिया का है। वहां के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। उनका बचना संभव न था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। सत्यानंद योग पद्धति से उन्हें योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास कराया गया। लगभग तीन महीनों में बेहतर स्वस्थ्य के लक्षण मिलने लगे थे और कुछ महीनों बाद बिल्कुल ही ठीक हो गए थे। इसके बाद चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।   

अजपा जप योग को लेकर विश्व के अनेक शोध संस्थानों में हुए शोधों के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। उनके मुताबिक यह योग साधना अनिद्रा के शिकार मरीजों के लिए ट्रेंक्विलाइजर है तो हृदय रोगियों के लिए कोरेमिन। यदि सामान्य कारणों से सिर में दर्द है तो यह दर्द निवारक दवा का भी काम करता है। हिस्टीरिया और उच्च रक्तचाप के मरीजों पर इसका सकारात्मक प्रभाव है। पर सबसे चमकारिक असर है मोटापे की वजह से उत्पन्न बीमारियों के मामलों में है। अनुसंधानों से साबित हुआ कि अजपा जप योग मनुष्य के शरीर की चर्बी जला देता है। मनुष्य के शरीर की चर्बी जलने से जिन प्रमुख गंभीर बीमारियों से मुक्ति मिलती है, वे हृदय, किडनी, डायबिटीज, और ब्लड प्रेशर से संबंधित हैं।

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है।

कुछ बीमारियां ऐसी भी हैं, जिनका चिकित्सा शास्त्र में उपाय नहीं है। जैसे, मानसिक विकार यानी वैमनस्य, ईर्ष्या आदि। योग-निद्रा की तरह ही अजपा की क्रिया मनोकायिक है। अजपा जप मन को नियंत्रित करता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुका है कि बीमारियों का कारण प्राय: मानसिक होता है। इसलिए योग विज्ञान दवाओं से पहले मन के उपचार पर बल देता है। अजपा जप शक्ति केंद्रों का भंडारगृह यानी सुषुम्ना नाड़ी में गर्मी पैदा करता है। इसके साथ ही बीमारियों पर वार शुरू हो जाता है।

इस तरह समझा जा सकता है कि बीमारियों के लिहाज से योग-निद्रा योग के बाद अजपा जप कितनी महत्वपूर्ण योग साधना है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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