नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्यों न भाए भारत!

किशोर कुमार //

आध्यात्मिक गुरू और तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को भारत भूमि से इतना लगाव क्यों है? क्यों कहते हैं कि प्राण भी निकले तो भारत भूमि पर ही। ऐसे सवाल आते ही प्राय: राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती है। उनका आध्यात्मिक पक्ष गौण हो जाता है। पर सोचने की बात है कि जब दलाई लामा भारत आए थे, तो क्या उस समय उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था? राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचे तो कहना होगा कि विकल्प था। पर आध्यात्मिक नजरिए मंथन करें तो कहना होगा कि भारत भूमि को छोड़कर ऐसी कोई भूमि नहीं थी, जहां उनकी आध्यात्मिक विचारधारा पल्लवित-पोषित हो सकती थी।

क्यों? बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे – “धरती पर भारत ही इकलौता देश है, जिसके पास सृष्टि के आरंभ से दु:खों के विनाश, पूर्ण आनंद और शांति की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रणाली है। उसे पता है कि वह कौन-सा केंद्र है, जिस पर जीवन का नाटक खेला जा रहा है। वह अपनी अंतर्यात्रा की विलक्षण शक्ति की बदौलत उस वैदांतिक सत्य से साक्षात्कार करता रहा है।“ सच है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, जन्म का प्रयोजन क्या है और मृत्यु के पश्चात कहां जाऊंगा जैसे प्रश्न हमारी पुण्य भूमि पर खड़े किए गए और अंतर्यात्रा में उनके उत्तर मिल भी गए। संतो को इस बात की शिद्दत से अनुभूति होती रही है कि मानव को कुछ बनाने की जरूरत नहीं; क्योंकि वह जो भी हो सकता है, वह अभी हैं। सिर्फ धूल की परतों के कारण उसे इस सत्य से साक्षात्कार नहीं हो पता। धूल हटते ही उसका मूल स्वरूप प्रकट हो जाएगा। योग और अध्यात्म धूल हटाने की वैज्ञानिक विधि है।

दूसरी तरफ, तमाम वैज्ञानिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद पश्चिमी दुनिया के लिए यह बात आज भी पहेली ही है। जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री और दार्शनिक इमानुएल कॉट ने नैतिक शुद्धता और कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धांत लिखा। प्राणि तत्ववेत्ता डॉ हैकेल ने “द रिड्स ऑफ द यूनिवर्स” नामक पुस्तक लिखकर उस सिद्धांत को विस्तार दिया। मूर्धन्य साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका अनुवाद किया था। पर यह विचार वेदांत के आसपास भी नहीं पहुंच सका। फिर जर्मनी के ही दार्शनिक आर्थर सोपेनहाइवर ने आगे की बात की। पर बात नहीं बन पाई। अंत में उन्होंने उपनिषदों की चर्चा करते हुए ईमनदारी से स्वीकारा कि संसार के इन अत्युत्तम ग्रंथों से कुछ विचार अपने ग्रंथों में लिए हैं। वे भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को मानते थे और स्वयं को बौद्धधर्मी कहते थे। उन्होंने जीवन के आखिरी समय में कहा था – “मेरे जीवन में उपनिषदों से शान्ति मिली है; मृत्यु के समय भी उनसे ही शान्ति मिलेगी।”  

खैर, कहते हैं न कि फलदार वृक्ष झुका हुआ होता है। भारत की मूल प्रकृति भी कुछ ऐसी ही है। इतनी प्रचुर आध्यात्मिक संपदा होने के कारण इस देश में धार्मिक सहिष्णुता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। तभी दलाई लामा कल भी मानते थे और आज भी मानते हैं कि भारत में सभी धर्मों का सम्मान है। रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत से और भी स्पष्टता आ जाती है। वे कहते थे – “जरूरी चीज है छत तक पहुंचना। तुम पत्थर की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो, बांस की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो या फिर रस्सी से भी चढ़कर जा सकते हो। इसी तरह परमात्मा को किसी भी मार्ग से प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म के मार्ग सत्य है।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हमने विभिन्न धर्मों के जितने भी संत-महात्माओं को जाना, उन सभी की उपलब्धियां और सिद्धियां समान थीं। यहां तक कि आध्यात्मिक अनुभूतियां भी समान थीं।

सर्व धर्म समभाव की ऐसी मिसाल भला और कहां मिलेगी? तभी दलाई लामा जैसे आध्यात्मिक गुरू को अध्यात्मशास्त्र की ब्रह्म या आत्मा की अवधारणा से इत्तेफाक न होने के बावजूद भारत की भूमि मातृभूमि जैसी जान पड़ती है। वैसे, दलाई लामा की कहानी तो इस युग की कहानी है। हजारों साल पहले ईसा मसीह भी आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए भारत ही तो आए थे। आध्यात्मिक पुस्तकों यथा भविष्य पुराण और लद्दाख के हेमीस मठ के अभिलेखों जैसे अनेक अभिलेखों से यह तथ्य प्रमाणित है कि ईसा मसीह ने कोई बारह वर्षों तक भारत में रहकर संन्यासी जीवन व्यतीत किया था। इसी तरह सत्रहवीं शताब्दी के यहूदी संत सरमद ईरान में जन्मे-पले थे। भारत तो व्यापार करने आए थे। पर भारतीय संतों का सानिध्य मिला तो आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त हो गया था।

खैर, आधुनिक युग में भी दलाई लामा इकलौते आध्यात्मिक गुरू नहीं हैं, जिन्हें भारत बेहद आकर्षित करता है। विदेशी आध्यात्मिक गुरूओ की फेहरिस्त लंबी है, जो भारत के संतों से विशिष्ट आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद या तो भारत के हो कर रह गए या स्वदेश वापसी के बावजूद मानसिक तौर पर भारत में ही रह गए। कैलिफोर्निया के सैन डिएगो में जन्मे और पले-पढ़े आचार्य मंगलानंद ऐसे ही आध्यात्मिक गुरू हैं। भारत की महानतम संत आनंदमयी मॉ से मिले तो दीक्षा लेने के लिए ब्याकुल हो गए थे। दीक्षित हुए तो ऐसे रूपांतरित हुए कि ओंकारेश्वर में ही रहकर कर्मयोग साधना में तल्लीन हैं। आस्ट्रेलिया के चिकित्सा स्वामी शंकरदेव सरस्वती भी वर्षों बिहार में रहे और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के सानिध्य में आध्यात्मिक साधना करते रहे। उनकी पुस्तक “रोग औऱ निरोग” सर्वाधिक चर्चित है। अब आस्ट्रेलिया में रहकर भी बिहार या सत्यानंद योग का ही प्रचार करते हैं। “सूरत शब्द योग” से हम सबको परिचित कराने वाले डॉ.जूलियन फिलीप मैथ्यू जॉनसन अमेरिका के ईसाई परिवार में जन्मे शल्य चिकित्सक थे। पर जब अध्यात्म की तरफ झुकाव हुआ तो सीधे भारत आ गए। यहां वे राधास्वामी सत्संग ब्यास के तत्कालीन प्रमुख सतगुरू महाराज सावन सिंह जी की संगति में वर्षों रहे। आध्यात्मिक अनुभूतियां हुईं तो कई यौगिक विधियों को सुगम बनाकर प्रस्तुत किया। उनसे संबंधित पुस्तकें लिखीं।   

अब तो विदेशों के आम युवा भी भारत की यौगिक व आध्यात्मिक शक्तियों से प्रभावित होकर शांति की तलाश में खींचे चले आ रहे हैं। सन् 2019 में प्रयागराज के कुंभ में इसका भव्य नजारा दिखा था। बड़ी संख्या में युवाओं ने संतो से आशीर्वाद लेकर आध्यात्मिक यात्रा शुरू की थी। समाचार एजेंसी एएनआई ने इस खबर को प्रमुखता से प्रसारित किया था। दरअसल, आज अमेरिका या यूरोप में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ अब तो विदेशी वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। इसलिए विदेशी युवाओं को भारत की आजमायी हुई यौगिक व आध्यात्मिक जीवन-शैली रास आ रही है।

कोई सवाल कर सकता है कि इतनी आध्यात्मिक संपदा के बावजूद खुद भारतीयों में अभारतीय संस्कार क्यों अंकुरित होने लगा, जो पश्चिमी जगत के लिए अशांति का कारण है?  इसे एक कथा से समझिए। मगध की राजधानी राजगृह में भगवान बुद्ध के सत्संग में प्रतिदिन भाग लेने वाले एक व्यक्ति को यह जानने की उत्सुकता हुई कि निर्वाण-प्राप्ति पर प्रवचन सुनने वालों में कितने लोग उस पथ पर चलते होंगे? भगवान बुद्ध ने उस व्यक्ति की भावना समझते हुए कहा – तुम तो वैशाली के हो, जो परम वैभवशाली नगर है और वहां जाने की चाहत बहुतों को होती होगी। उनमें से कोई तुमसे वहां जाने का मार्ग पूछता होगा तो तुम खुशी-खुशी बता भी देते होगे। पर क्या कभी सोचा कि उनमें से कितने लोग वहां गए? वैसे ही मैंने निर्वाण नामक जिस सुंदर नगर के दर्शन किए थे, वहां का पता जिज्ञासुओं को बता देता हूं। अब वहां तक जाना न जाना उनके संकल्प पर निर्भर है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ये है भक्तियोग का जमाना !

IIकिशोर कुमारII

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हाल ही मनाया गया। हम सबने देखा कि कसरती स्टाइल के कथित हठयोग की नहीं, बल्कि समग्र योग की स्वीकार्यता दुनिया भर में तेजी से बढ़ती जा रही है। इनमें कर्मयोग और भक्तियोग भी शामिल हैं। जाहिर है कि बौद्धिक युग में भक्ति, भाव—साधना के मार्ग की तलाश शुरू है। ऐसे में राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का हाथ में श्रीमद्भगवतगीता लिए मौजूदा राष्ट्रपति से मिलने के निहितार्थ को समझा जा सकता है। श्रीमती मुर्मू तर्कशील महिला और कॉलेज की व्याख्याता रही हैं। पर विपत्तियों के पहाड़ इस कदर टूटते रहे कि बच्चों से लेकर पति तक असमय ही कालकलवित हो गए। यदि आध्यात्मिक अभिरूचि न होती और योग का सहारा न मिला होता तो कर्मयोगी की तरह शून्य से शिखर तक की यात्रा शायद मुश्किल होती। अब जबकि उनके हाथों में श्रीमद्भगवतगीता है तो यह सबके लिए बड़ा संदेश है कि कलियुग में जीवन की नैया हंसी-खुशी किस तरह पार लग सकती है।

भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ उनके इस वकतव्य के कोई सात दशक बीतते-बीतते पूर्वी देशों के वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार रहे हैं। इसलिए कि बुद्धि से जो—जो आशाएं बांधी गई थीं, वे सभी असफल हो गई हैं। जो हासिल करना था, वह बुद्धि से नहीं हासिल हुआ और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है। पश्चिमी देशों में तो काफी पहले ऐसी धारणा बलवती होने लगी थी। ओशो कहते थे कि आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, हम जो पढ़ रहे हैं, उससे क्या होगा? क्या मिल जाएगा? और पिताओ व गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। आज पश्चिम में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं।

बर्ट्रेड रसेल बीसवीं शदी के प्रख्यात दार्शनिक, महान गणितज्ञ और शांति के अग्रदूत थे। इन्हें मानवता से प्रेम था और वे जीवनपर्यंत युद्ध, परमाणविक परीक्षण एवं वर्णभेद का विरोध में लड़ते रहे। जंगल में गए थे तो जीवन में पहली बार आदिवासियों को पूरी तन्मयता से नाचते देखा। लौटकर अपनी डायरी में लिखा – काश! वैसा नृत्य मैं भी कर पाता। मैं अपनी सारी बुद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हूं। अगर चांदनी रात में वैसा ही उन्मुक्त गीत मैं भी गा सकने में सक्षम होता। यह किसी तरह से महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भले न हो, करना. बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना जटिल है।   

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं।

संतों का मानना है कि आध्यात्मिक चेतना का विकास ही मनुष्य की नियति है। निम्न वासनाओं और कामनाओं के दायरे में सीमित रहना हमारी नियति नहीं है। महर्षि अरविंद का इस विषय पर सुंदर और तार्किक व्याख्यान है। वे कहते थे कि आने वाले युग में दिव्य चेतना मानव जीवन में अवश्य प्रकट होगी। कोई चाहे, न चाहे, मगर यह होकर रहेगा। यही मानवता की निर्धारित नियति है। शायद यही कारण है कि आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा है। वे बौद्धिकता व तार्किकता को पार कर आध्यात्मिक आयाम के प्रवेश-द्वार पर खड़े दिखते हैं। इस बात को ऐसे समझिए।  

जब-जब रथयात्रा का समय आता है, मीडिया में जगन्नाथ मंदिर से जुड़े रहस्यों की चर्चा होती ही है। जैसे, मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत उड़ता है। मंदिर पर लगा वजनी सुदर्शन चक्र को शहर के किसी भी हिस्से से देखा जाए तो सीधा ही दिखता है। मंदिर के गुंबद की बात कौन कहे, आसपास भी कोई पक्षी नहीं फटकती। सूर्य चाहे पूरब में रहे, मध्य में रहे या पश्चिम में, मंदिर के सबसे ऊंचे गुंबद की भी परछाई नहीं बनती। मंदिर के मुख्य द्वार सिम्हद्वारम् के पास तो समुद्र की गर्जना सुनाई देती है। पर मंदिर में कदम रखते ही, आवाज आनी बंद हो जाती है। आदि आदि। आज के युवाओं को इस सूचना मात्र में रूचि नहीं है। वे इसके पीछे का विज्ञान जानना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर नजर डालिए तो अनेक युवा यह जानने को आतुर दिखते हैं कि पुरी में जगन्नाथ मंदिर के गुंबद का ध्वज हवा की विपरीत दिशा में क्यों फहराते रहता है और नरसिंह स्वामी पोटेशियम साइनाइड खा कर भी जिंदा कैसे रह गए थे? 

बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी. वी. रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए थे। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ था। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

अब सवाल है कि हमारी बदलती सोच क्या भक्ति युग के आगमन की आहट है? सिद्ध संतों की आत्मानुभूतियों और यौगिक अनुसंधानों की दिशा-दशा इस बात की गवाही दे रही है। संकेतों के आधार पर कहना होगा कि इस शताब्दी में भक्ति भावना और भक्तियोग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

मित्रता दिवस और नाता पूर्व जन्मों का

मित्रता दिवस पर सभी मित्रों को बधाई। हम सब में सात्विक गुणों की अभिवृद्धि हो और पिछले जन्मों की मित्रता के विकास करने की भी दृष्टि मिले, यही कामना है।

किशोर कुमार

पूर्व जन्म की बात बचपन से सुनता था। जब पूज्य गुरू के संपर्क में आया तो पूर्व जन्म औऱ संचित कर्मों के बारे में थोड़ी समझ बनी। पर मन में यह सवाल हमेशा बना रहता था कि जब पुनर्जन्म होता है तो पूर्व जन्मों के स्नेहीजनों की पहचान किस तरह हो सकती है?

एक बार ट्रेन से यात्रा कर रहा था। त्योहार होने के कारण भीड़ काफी थी। ट्रेन खुलते ही पास ही खड़े एक युवा ने पूछा कि क्या वे थोड़ी देर मेरे बर्थ पर बैठ सकते हैं। इसे महज संयोग ही कहिए कि उस युवक को देखकर मेरे मन में सहज भी भाव प्रकट हो चुका था कि उसे अपनी सीट पर बैठ जाने को कह देना चाहिए। जाहिर है कि मैंने तुरंत ही हां में सिर हिला दिया। हम तुरंत ही काफी घुल-मिल गए। लगा था मानों वर्षों का नाता है। यह सुखद है कि ट्रेन में बना वह नाता आज बीस साल बाद बेहद प्रगाढ़ हो चुका है। कमाल यह कि हम न एक जाति के हैं औऱ न एक धर्म के हैं।

श्रीगुरू जी से इस घटना का जिक्र किया तो उनका उत्तर था कि पूर्व जन्मों का प्रेमपूर्ण नाता चुंबकीय प्रभाव पैदा करता है। यदि हम सजग हैं और सात्विक गुणों की अधिकता है तो पूर्व जन्मों के संबंधों का अहसास सहज हो जाता है और उसे विकसित करना आसान होता है।

हिंदू और इसाई सहित कई धर्मों में पूर्व जन्मों के पक्ष में शास्त्रसम्मत तरीके से तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान भी ऐसे अनेक तर्कों से सहमत दिखता है। सच तो यह है कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला या आर्ट ऑफ लिविंग पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि मानव अपनी अवचेतन शक्तियों को जागृत करके न केवल अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास कर सकता है, बल्कि सामान्य जन योगमय जीवन जी कर स्मरण शक्ति बढ़ा सकते हैं, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदमय बना सकते हैं।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे।  आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। तभी पूर्व जन्म के बेहतर गुणों का विकास हो पाएगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि जन्म-जनमांतर के कर्म जीवन में किस तरह फलित होते हैं। सत्संग के दौरान स्वामी जी से ही किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए पिछले जन्म के बेहतर गुणों का विकास करना होता है।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि जन्म-जनमांतर के बेहतर कर्मों में सफलता के सूत्र छिपे हुए हैं। उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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