महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक आयाम

किशोर कुमार

पृथ्वी के किसी न किसी भू-भाग पर परमाणु संपन्न शक्तियां आमने-सामने हो जाती हैं और मानवता पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसे में जरा सोचिए कि वह कौन-सी शक्ति है, जिसकी ऊर्जा बार-बार सृष्टि को विनाश से बचाती है? समुद्र मंथन हुआ था तो अमृत के दावेदार सभी थे। विष पीने के लिए भला कौन तैयार होता? ऐसे में आदियोगी को आगे आना पड़ा। उन्होंने विषपान किया। पर कलियुग में कौन विषपान करे? भगवान शिव आदिगुरू हैं, प्रथम गुरू हैं। उन्हीं से योग शुरू होता है और उन्हीं से गुरू-शिष्य की परंपरा शुरू होती है। जहां कहीं भी योग है, अध्यात्म है और गुरू-शिष्य की परंपरा है, उन सबके मूल में आदिगुरू शिव ही हैं। इसलिए मानना होगा कि उनकी ऊर्जा सर्वत्र है और वही विनाश-लीला से मानवता को बचाती है।

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें तो शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, उन सबका संबंध मनुष्य की जीवन एवं उसकी चेतना से है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती शिव-शक्ति के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कहते थे कि मनुष्य के शरीर के परे, उसके मन और बुद्धि के परे एक वस्तु और है, जिसे आत्मा या चेतना कहते हैं। चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए हमें किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के भीतर दो विपरीत शक्तियां और दो समानार्थी शक्तियां काम करती हैं। विपरीत शक्तियों में एक दिव्य शक्ति है और दूसरी आसुरी। इन दोनों के बीच जो संघर्ष चलता है, उसे ही समझाने के लिए देवासुर संग्राम की कहानी का आश्रय लेना पड़ता है।

तंत्रशास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरूष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरूष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरूष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीर-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।  

कथा के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बतलाई थी, जो योगशास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इस बात को शांभवी मुद्रा के बारे में उपलब्ध कथा से समझा जा सकता है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। साथ ही योग के लिहाज से महाशिवरात्रि की अहमियत को भी समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

योगविद्या को लेकर लोगों का दृष्टिकोण बदला है। जो योग शिक्षक-प्रशिक्षक समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बेहतर देने की स्थिति में होगा, वही प्रतिस्पर्द्धा में टिका रह पाएगा। कुछ भी नहीं चलेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीते एक दशक में फटाफट योग की संस्कृति विकसित की गई। फास्ट फूड की तरह। इससे योगाभ्यासियों और योगविद्या में अपना कैरियर देखने वालों का बड़ा अहित हुआ। पर यह सत्य है कि समस्या चाहे जैसी भी हो, उससे उबरने का सूत्र भी उसी में निहित होता हैं। भारत में ऐसे योगियों की कमी नहीं , जिन्होंने विपरीत परिस्थियों में राह बनाई थी और अपनी बौध्दिक व आध्यात्मिक क्षमता का विकास करके योगविद्या को समृद्ध किया।

कोरोना महामारी के बाद भारत में योग का कारोबार ऊंची उड़ान भर रहा है। उद्योग परिसंघों की रिपोर्टों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कोरोबार सौ बिलियन का हो चुका है, जो वेलनेस सेक्टर के कुल कारोबार का चालीस फीसदी है। योग के मुख्यत: दो पक्ष हैं। एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक। कारोबार की बात हो रही है तो जाहिर है कि लौकिक पक्ष खासतौर से उपचारात्मक पक्ष की बात है। आम जन के बीच योग के चिकित्सीय पक्ष को लेकर समझ बढ़ने और कोविड-19 की दवा की अनुपलब्धता की वजह से योग कारोबार को पंख लगा। दूसरी तरफ अगले शैक्षणिक सत्र से स्कूलों में भी योग शारीरिक शिक्षा का एक अंग बनने वाला है। दूसरे देशों में भारतीय योगाचार्यों की मांग पहले से है। जाहिर है कि योग के क्षेत्र में रोजगार के बड़े अवसर हैं। चुनौती बस योग शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है।  

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा न होने का ही नतीजा है कि कोरोनाकाल से पहले योग व्यवसाय से जीवन-यापन करने वाले लगभग 70 फीसदी योग प्रशिक्षक या तो बेरोजगार हैं या कोई अन्य व्यवसाय में लगे हुए हैं। कोई समोसा बेच रहा है तो कोई स्वास्थ्य सबंधी उत्पादों का वितरक बना हुआ है। इनमें ऐसे योग प्रशिक्षक भी शामिल हैं, जो हठयोग सीखाने में तो सक्षम हैं। पर संप्रेषण या तकनीकी दक्षता के अभाव में स्वर्णिम अवसर गंवाने को मजबूर हैं। यह इस बात का द्योतक है कि योग शिक्षा देने के तरीकों में खोट है। वरना योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच प्रशिक्षित योगाचार्यों का बेरोजगार रह जाना भला कैसे संभव था? योग के नाम पर कुछ भी और किसी भी तरह परोसने की प्रवृत्ति के कारण ऐसी स्थिति बनी है, जबकि गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा समय की मांग है।

योग परंपरा के संन्यासी दृढ़ता के साथ कहते रहे हैं कि बच्चे जब सात-आठ साल हो जाएं तो कुछ यौगिक क्रियाएं शुरू करानी चाहिए। क्यों? क्या शरीर स्वस्थ्य रहे, इसलिए? नहीं। हमारी परंपरा में योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रही। योगाभ्यास इसलिए कराया जाता था कि कम उम्र में पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की गति धीमी की जा सके। ऐसा होने से पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रहेगी। बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी। स्कूलों के योग शिक्षकों को ऐसे परिणाम हासिल करने के लिए उपयुक्त योगाभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पर वे सक्षम न हुए तो शिक्षित-प्रशिक्षित बेरोजागरो की फौज ही खड़ी होगी।  

शीर्षासन के बड़े-बड़े फायदे हैं। मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति बढ़ती है तो नाड़ी-तंतुओं का बेहतर पोषण होता है। शरीर से विषाक्त द्रव्य निष्कासित होता हैं। इससे मानसिक शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि होती है। पर साथ ही चेतावनी भी दी जाती है कि उच्च रक्तचाप और स्लिप डिस्क वाले मरीज इस आसन से दूर रहें। पर सिद्ध संतों की बात निराली होती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पास एक व्यक्ति आया। वह उच्च रक्तचाप की समस्या से परेशान था। स्वामी जी ने कहा, शीर्षासन करो। उसने वैसा ही किया और समस्या दूर हो गई। यह ठीक है कि सामान्य योग प्रशिक्षकों से ऐसे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वे तो मजबूत इच्छा-शक्ति और शास्त्रसम्मत शिक्षा से ही योग के वास्तविक परिणाम हासिल कर ही सकते हैं।

सवाल है कि योग शिक्षा कैसी हो कि योग शिक्षक-प्रशिक्षक गुणवान बन सकें? इस संदर्भ में स्वामी सत्यानंद सरस्वती से ही जुड़ा एक अन्य प्रसंग गौरतलब है। वे ऋषिकेश के अपने गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के योग प्रचार संबंधी मिशन पर निकलने से पहले तक योग के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। उनका मार्ग तो संन्यास का था। पर गुरू ने कह दिया कि जाओ, योग का प्रचार करों। ऐसा करने के लिए शक्तिपात के जरिए शक्ति दी। स्वामी सत्यानंद ने विचार किया कि घर-घर योग सीखाने से बेहतर है कि योग शिक्षक तैयार करो और ऐसा शिक्षक, जो हठयोग और राजयोग तक ही सीमित न रहे। उसे समग्र योग यानी कर्मयोग, ज्ञानयोग, मंत्रयोग, लययोग आदि का भी ज्ञान हो। उन्होंने योगविद्या को अष्टांग योग तक सीमित नहीं रखा। उनका मानना था कि अष्टांग योग राजयोग का अंग नहीं है। यह तो समस्त योगमार्गों का अंग है। जैसे, प्रत्याहार का अभ्यास राजयोग, क्रियायोग, कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, लययोग, नादयोग या किसी भी योग में किया जाता है। आज यदि योग शिक्षा के मामले में ऐसा दृष्टिकोण हो तो भारत के योगाचार्यों की पूरी दुनिया में तूती बोलेगी।

रही बात इच्छा-शक्ति की तो इस संदर्भ में आयंगार योग के जनक और हठयोग के विश्व प्रसिद्ध योगाचार्य बीकेएस आयंगार से सीख लेनी चाहिए। वे मामूली पढ़-लिख पाए थे। किशोरावस्था तक अंग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल नहीं था। पर आधुनिक योग के पितामह के रूप में मशहूर टी कृष्णामाचार्य की दृष्टि पड़ी तो उनकी ऊर्जा का दिशांतरण हुआ। किशोरावस्था में ही पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब में बतौर योग प्रशिक्षक नौकरी मिल गई। जब जीवन पटरी पर आने लगा तो नौकरी छूट गई। सवारी के नाम पर साइकिल थी। वे अपने जीविकोपार्जन के लिए दूर-दूर जाकर लोगों को योग सीखाते और खुद की उन्नति के लिए साधनाएं करते थे। उन्हें समझ में आ गया कि लोगों की तात्कालिक जरूरतें क्या हैं और दूरगामी परिणामों के लिए क्या करना होगा। इन बातों को ध्यान में रखकर अपने को उनके अनुरूप ढाला और हठयोग के पितामह बन गए।

इन तमाम बातों के मद्देनजर सरकार को भी गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा के लिए असरदार कार्य-नीति तैयार करनी होगी। संसद का बजट सत्र चल रहा है। आगामी शैक्षणिक सत्र को ध्यान में रखकर असरदार नीति बनाई जा सकती है। ताकि योग शिक्षको-प्रशिक्षकों के साथ ही छात्रों आम अन्य योग साधकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके। यदि स्कूलों में योग शिक्षा को फिजिकल एडुकेशन का हिस्सा न बनाकर स्वतंत्र विषय बना दिया जाए तो बड़ी बात होगी। योग शिक्षकों का एक बड़ा समूह इसकी मांग कर भी रहा है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

जब परमहंस माधवदास की हालत रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी

मुंबई से शुरू होकर दुनिया अनेक देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” ने अपने संस्थापक योगेंद्र जी के सपनों को साकार करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। 100 साल से भी ज्यादा पुराने इस संस्थान में यौगिक विधियों से विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार के लिए अनेक शोध-कार्य किए गए। इनमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों की भी सहभागिता रही। पर हाल के वर्षों में हृदय रोगियों को यौगिक क्रियाओं से पुरानी अवस्था में ले जाने संबंधी शोध कमाल के साबित हुए हैं। बेहतर योग शिक्षा के मामले में धाक् ऐसी जमी है कि 21 देशों के छात्र एक ही छत के नीचे योग विद्या हासिल कर रहे हैं। यह पहला योग संस्थान है, जिसे भारत सरकार के क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से मान्यता मिली । योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संस्थान को प्रधानमंत्री योग पुरस्कार से सम्मानित किया ।   

ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स दादाभाई नरौजी के दामाद और पेशे से अभियंता होमी डाडिना शारीरिक रूप से अशक्त हो गए थे। न धन की कमी थी, न प्रभाव कम था। दुनिया का बेहतरीन इलाज उपलब्ध था। पर बात नहीं बन पा रही थी। मुंबई विश्व विद्यालय के कुलपति आरपी मसानी को बात समझ में आ गई थी कि योगाचार्य के रूप में तेजी से उभर रहे मणिभाई हरिभाई देसाई की प्रतिभा असाधारण है। लिहाजा उन्होंने मणिभाई को होमी डाडिना से मिलवाया। डाडिना तो स्वस्थ्य हुए ही, उनके साथ ही अनेक लोगों को बीमारियों से मुक्ति मिल गई। इसके साथ ही भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” की स्थापना की बुनियाद पड़ गई और कम समय में मणिभाई योगेन्द्र जी के नाम से दुनिया में मशहूर हो गए थे।

भृगुसंहिता में कहा गया है कि नियति का निर्माण पहले “काल” में होता है। यानी घटना पहले “काल” में घटती है। उसके बाद अंतरिक्ष में। फिर “देश” में। योगेंद्र जी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगा मानों पटकथा पहले लिख दी गई हो। उनके पिता हरिभाई देसाई अपने लाडले को सिविल सर्विस में देखना चाहते थे। दो कारणों से ऐसा भरोसा बना था। पहला तो यह कि अमलसाड इंग्लिश स्कूल में मणिभाई की गिनती मेघावी छात्रों में होती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने नियमों में बदलाव करके सिविल सेवा भारतीयों के लिए खोल दिया था। पत्नी के परलोक गमन के कारण बेटे के सहारे जिंदगी जीना चाहते थे। पर मणिभाई तो योगी बनकर जन्मे थे। सो सिविल सर्विस में जाने की बात कौन कहे, कालेजी पढाई भी रास नहीं आई थी। अवचेतन का आध्यात्मिक संस्कार प्रकट होने लगा तो महान योगी परमहंस माधवदास जी का सानिध्य मिल गया।

बंगाल में जन्मे परमहंस माधवदास जी के शिष्य तो कई थे। पर उनकी मणिभाई पर विशेष कृपा थी। साथ खिलाते और साथ साधना कराते थे। जिस तरह नरेन (स्वामी विवेकानंद) को देखते ही रामकृष्ण परमहंस की आंखों में आंसू आ गए थे और बरबस ही बोल पड़े थे, “नरेन तू आ गया। मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था।“ लगभग वैसा ही मणिभाई के साथ हुआ था। कहते हैं न कि हर गुरू को योग्य शिष्य की तलाश होती है। मणिभाई परमहंस माधवदास के पास पास पहुंचे तो उनकी भी स्थिति कुछ रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी। दूसरी तरफ योग्य गुरू की दृष्टि पड़ते ही मणिभाई के भीतर का संत भाव प्रकट हो गया। वे आश्रम में बीमारियों से मुक्ति के लिए आए लोगों का स्वतंत्र रूप से यौगिक उपचार करने लगे थे। वस्त्र धौती कराते हुए एक महिला की जान पर बन आई थी। पर लोगों ने देखा कि मणिभाई ने कठिन समय में भी कितनी कुशलता से स्थिति को संभाला लिया था और महिला स्वस्थ हो घर लौटी थी।

कोमल हृदय वाले मणिभाई की योग-दृष्टि स्पष्ट थी। वे स्वामी विवेकानंद और उनके वेदांत दर्शन से बेहद प्रभावित थे। पर योगविद्या का प्रथमत: उपयोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए करना चाहते थे। वे जानते थे कि धार्मिक कारणों और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों के कारण हाशिए पर डाल दी गई योगविद्या को को पीड़ित मानवता की सेवा करते हुए ही पुनर्स्थापित किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में हठयोग की कुछ विधियां खेलकूद के तौर पर जीवित थीं। सामाजिक स्थिति को देखते हुए मणिभाई को लगा कि अष्टांग योग को मूल रूप में स्वीकार्यता दिलाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर मुख्य चौरासी आसनों में से तेरह आसनों का चयन किया और अलग-अलग बीमारियों के लिहाज से उन्हें प्राणायाम से जोड़कर नई योग विधियां तैयार की। इसके अलावा हठयोग के शुद्धिकरण की कुछ क्रियाओं का समावेश किया। फिर इन योग विधियों की वैज्ञानिकता को प्रमाणित किया किया तो लोगों को बात सहज ही समझ में आई। 

मणिभाई को आश्रम से बाहर योगोपचार के लिए जो पहला मरीज मिला था, वह कोई और नहीं, बल्कि होमी डाडिना ही थे। डाडिना स्वस्थ हुए और मणिभाई से इतने प्रभावित हुए कि अपने ही घर का एक हिस्सा योग केंद्र चलाने के लिए दे दिया। योग केंद्र पर होने वाले खर्चों की जिम्मेवारी भी खुद ही ले ली। सन् 1918 का 25 दिसंबर था। पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम थी। उसी दिन मुंबई के पास वर्सोवा में “द योगा इंस्टीच्यूट” का श्रीगणेश हो गया। चूंकि खर्च अकेले डाडिना वहन कर रहे थे, इसलिए मणिभाई ने योग प्रशिक्षण और योगोपचार बिल्कुल मुफ्त कर दिया। बेहतर नतीजे मिलने लगे तो ख्याति विदेशों तक फैल गई। अमेरिका से, यूरोप से लोग आने लगे। जगह कम पड़ गई। अमेरिकी चाहते थे कि ऐसा केंद्र उनके देश में भी खुले। जिस तरह इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन बीकेएस आयंगार के दीवाने बनकर उन्हें पश्चिमी दुनिया में पहुंचा दिया था। लगभग उसी तरह डाडिना मणिभाई को लेकर अमेरिका गए और वहां योग केंद्र स्थापित करने में मदद की।

मणिभाई अमेरिका से लौटे तो सन् 1923 में अपना नाम बदल लिया। अब वे योगेंद्र जी बन गए। इसका कारण तो ज्ञात नहीं। पर इसके बाद उन्होंने योग विद्या को जनोपयोगी बनाने के लिए अपने अध्ययनों और शोधों के आधार पर कई सुधारवादी कदम उठाए। योग साधना से महिलाओं को जोड़ा। कई शोध प्रबंध लिखे। इस तरह उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हठयोग को प्रभावशाली बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी अतुलनीय योगदान का नतीजा है कि “द योगा इंस्टीच्यूट” बीते सौ सालों में कई देशों में भी पांव पसार चुका है। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा की बदौलत ही यह संस्थान प्रधानमंत्री पुस्कार का हकदार बना। कोरोनाकाल में खासतौर से लॉकडाउन के दौरान लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए इसके प्रशंसनीय कार्यों से लाखों लोग लाभान्वित हुए। आज जबकि योग सबकी जरूरत बन चुका है और योगविद्या रोजगार या स्वरोजगार के लिए अहम बन गई है, योगेंद्र जी के कार्यों, उनके आदर्शों से नई पीढी को बेहतर प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

योगियों के अमृत मंथन से निकला सूर्य नमस्कार!

किसके दिमाग की उपज है सूर्य नमस्कार, जिसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं? आम धारणा है कि सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।  

किशोर कुमार

इस बार सूर्य नमस्कार की बात। हठयोग की एक ऐसी शक्तिशाली विद्या की बात, जो प्राचीन काल में हठयोग का हिस्सा नहीं था। पर उसकी क्रियाएं मौजूद थीं और सूर्य उपासना मानव की आंतरिक अभिव्यक्तियों का एक अत्यंत सहज रूप थी। इनका समन्वय करके बनाई गई योग विधि ही आधुनिक युग का सूर्य नमस्कार है। मंत्र योग के बाद शायद यह इकलौती योग विधि है, जिसका धार्मिक वजहों से विवादों से नाता बना रहता है। बावजूद लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। योग विज्ञानी इसे मानव शरीर में सूर्य की ऊर्जाओं को व्यवस्थित करने का बेहतरीन तरीका मानते हैं, जिनसे हमारा जीवन संचालित है। इसकी सत्यता का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान होने लगे तो विज्ञान को भी इसकी अहमियत स्वीकारनी पड़ी है।

जीवन-शक्ति प्रदायक इस योग विधि से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा होगी। इसके पहले जानते हैं कि जिस सूर्य नमस्कार को अपने आप में पूर्ण योग साधना माना जाता, उसे मौजूदा स्वरूप कब और कहां मिला? आसनों के समूह को एक साथ किसने गूंथा? इसे लोकप्रियता किसने दिलाई? वैसे तो सूर्योपासना आदिकाल से की जाती रही है। सूर्योपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता है, वह शक्तिशाली, क्रियाशील, बुद्धिमान और दीर्घजीवी होता है। पर योग के आयामों पर शोध करने वाले अमेरिकी मानव विज्ञानी जोसेफ एस अल्टर की पुस्तक “योगा इन मॉडर्न इंडिया” के मुताबिक सूर्य नमस्कार 19वीं शताब्दी से पहले किसी भी हठयोग शास्त्र का हिस्सा नहीं था। इस बात की पुष्टि स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका और महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता से भी होती है। यहां तक कि हठयोग के लिए ख्यात नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ के गोरक्षशतक में भी सूर्य नमस्कार का उल्लेख नहीं है। फिर यह वजूद में आया कैसे?

श्रुति व स्मृति के आधार पर उपलब्ध दस्तावेजों और अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका प्रतिदिन अभ्यास किया करते थे। वे सूर्य के उपासक थे और सूर्योदय के साथ ही सूर्य को प्रणाम करके योगासन करते थे। माना जाता है कि वही कालांतर में सूर्य नमस्कार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वैदिक काल से चली आ रही सूर्य उपासना समर्थ रामदास के जीवन का हिस्सा इस तरह बनी थी कि उन्होंने अपनी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में इसकी महिमा का बखान करने के लिए एक अध्याय ही लिख दिया था। हालांकि उनकी पुस्तक में कहीं भी आसनों के समूह को सूर्य नमस्कार नहीं कहा गया है। पर मैसूर और औंध प्रदेश में लगभग एक ही काल-खंड में जिस तरह सूर्य नमस्कार लोकप्रिय होने लगा था, उससे ऐसा लगता है कि समर्थ रामदास ने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया होगा।

विख्यात योगी की कहानी, सद्गुरू जग्गी वासुदेव की जुबानी

कर्नाटक के योग शिक्षक थे – राघवेंद्र राव। वे रोज 1008 बार सूर्य नमस्कार करते थे। जब नब्बे साल के हुए तो 108 बार सूर्य नमस्कार करने लगे थे। यह कटौती अपनी आध्यात्मिक साधना के कारण कर दी थी। वे बेहतरीन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। नब्ज छू कर बता देते थे कि अगले 10-15 वर्षों में किस तरह की बीमारी हो सकती है। उनका आश्रम था, जहां प्रत्येक सोमवार की सुबह से शाम तक मरीज देखते थे। इसके लिए रविवार की शाम को ही आश्रम पहुंच जाते थे। उनकी एक और खास बात थी। गंभीर से गंभीर मरीज को चुटकुला सुनाकर खूब हंसाते थे। इससे मरीजों से भरे आश्रम में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था।
उनके समर्पण की एक दास्तां यादगार रह गई। वे एक बार अपने दो साथियों के साथ आश्रम से 75 किमी की दूरी पर फंस गए। दरअसल, ट्रेन रद्द हो गई थी। आश्रम हर हाल में पहुंचना था। रात्रि में ट्रेन के अलावा दूसरा कोई साधन न था। लिहाजा उन्होंने 83 साल की उम्र में फैसला किया कि रेलवे टैक पर दौड़ते हुए आश्रम पहुंचेंगे। ताकि सुबह-सुबह मरीजों का इलाज कर सकें। ऐसा ही हुआ। वे चार बजे सुबह आश्रम पहुंच गए और समय से मरीजों को देखने के लिए उपलब्ध हो गए। उनके दो साथी अगले दिन ट्रेन से आश्रम पहुंचे तो राघवेंद्र राव की दास्तां सुनाई। वे 106 वर्षों तक जीवित रहे और प्राण त्यागने के दिन तक योग सिखाते रहे।

योग साहित्य के ज्यादातर जानकार बताते है कि देश की आजादी से पहले औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ था। पर इस बात के भी सबूत हैं कि भवानराव श्रीनिवासराव के प्रचार से कोई दो दशक पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। भवानराव श्रीनिवासराव ने 1920 के आसपास सूर्य नमस्कार का प्रचार शुरू किया था, जबकि टी कृष्णामाचार्य की पुस्तक व्यायाम प्रदीपिका का प्रकाशन 1896 में हो चुका था, जिसमें सूर्य नमस्कार के आसनों की विस्तार से चर्चा है।   बीकेएस अयंगर और के पट्टाभि जोइस टी कृष्णामाचार्य के ही शिष्य थे। इन बातों का उल्लेख नॉर्मन ई सोजमन की पुस्तक “द योग ट्रेडिशन ऑफ मैसूर पैलेस” में है। कैनेडियन नागरिक सोजमन संस्कृत व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन तथा योग के प्रशिक्षण के लिए कोई 14 वर्षों तक भारत में रहे। उसके मुताबिक मैसूर के राजा कृष्णराज वाडियार हिमालय के योगी राममोहन ब्रह्मचारी के शिष्य कृष्णामाचार्य से बेहद प्रभावित थे।

प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक और राजनयिक अप्पा साहेब पंत पूर्व औंध प्रदेश के राजा भवानराव श्रीनिवासराव के ही पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता पर एक पुस्तक लिखी थी – ऐन अनयूजुअल राजा। उसमें सूर्य नमस्कार के प्रचार के बारे में विस्तार से चर्चा है। इसमें मुताबिक, औंध से सटे मिराज राज्य, जो अब महाराष्ट्र का हिस्सा है, के राजा की सलाह पर भवानराव श्रीनिवासराव नियमित रूप से सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने लगे थे। उन्हें प्रारंभिक दिनों से ही खेलकूद के प्रति गहरी अभिरूचि तो थी ही, जर्मन बॉडी बिल्डर और शोमैन यूजेन सैंडो से भी खासे प्रभावित थे। जब उन्हें इसके लाभ दिखने लगे तो दीवानगी बढ़ गई। नतीजतन, उन्होंने न केवल देश से बाहर भी सूर्य नमस्कार का प्रचार किया, बल्कि अखबारों में लेख लिखे और मराठी में एक पुस्तक भी लिख डाली, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था। उसका नाम है – “द टेन प्वाइंट वे टू हेल्थ।“ इसे 1923 में इंग्लैंड के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया था।

हरियाणा के संदीप आर्य सबसे ज्यादा समय तक सूर्य नमस्कार करने का वर्ल्ड रिकार्ड बना चुके हैं। उन्होंने बीते साल लखनऊ में आयोजित वर्ल्ड योगा चैंपियनशिप में 36 घंटे 21 मिनट तक सूर्य नमस्कार करके अपना ही रिकार्ड तोड दिया था। इसके पहले 17 घंटे 30 मिनट तक सूर्य नमस्कार का वर्ल्ड रिकार्ड उन्हीं के नाम था। वे अपनी इन उपलब्धियों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से सम्मानित हो चुके हैं।  

हम सब जानते हैं कि सूर्य नमस्कार में मुख्यत: सात मुद्राएं होती हैं। पांच मुद्राओं की पुनरावृत्ति होती है। इस तरह बारह मुद्राएं हो गईं। आध्यात्मिक गुरू और ईशा फाउंडेशन के प्रमुख सद्गुरू जग्गी वासुदेव के कहते हैं कि ऐसा होना महज संयोग नहीं है। सूर्य का चक्र लगभग सवा बारह साल का होता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही बारह आसनों की श्रृंखला बनाई गई। ताकि हमारे शरीर के चक्रों का सौर चक्र से तालमेल हो सके। बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक युग की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह योग विधियों को मिलाकर यौगिक कैप्सूल तैयार किया। समझा जाता है सूर्य नमस्कार भी कुछ ऐसे ही विचारों की देन है। इन्हें योगियों का अमृत मंथन कहना समीचीन होगा। सच तो यह है कि बेहद असरदार योग विधि मानव जाति के लिए अमृत से कम नहीं है।

बीते सप्ताह उपनयन संस्कार के वक्त बच्चों को दी जाने वाली योग शिक्षाओं की चर्चा की गई थी। उनमें सूर्य नमस्कार प्रमुख था। विभिन्न अनुसंधानों के नतीजों से साबित हो चुका है कि योग की यह प्रभावशाली विधि अंत:स्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनमें शरीर की सबसे महत्वपूर्ण पीयूषिका ग्रंथि शामिल है। सूर्य नमस्कार इस ग्रंथि के क्रिया-कलापों का नियमन करने वाले हॉइपोथैलेमस को उद्दीप्त करता है। इस कॉलम में पीनियल ग्रंथि की बार-बार चर्चा हुई है। सूर्य नमस्कार से उसके क्षय होने की प्रक्रिया भी मंद पड़ती है। मासिक धर्म संबंधी अनियमितताओं और उससे उत्पन्न तनावों से मुक्ति दिलाने में यह योगासन बेहद प्रभावकारी है। रीढ़ के रोगों से बचाव के लिए यह सबसे उत्तम विधि मानी जाती है।

कई व्याधियों में सूर्य नमस्कार बेहद प्रभावी है। वे हैं – अंत:स्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म व रोग निवृत्ति संबंधी समस्याएं, दमा व फेफड़े की विकृतियां, पाचन संस्थान की व्याधियां, निम्न रक्तचाप, मिर्गी व मधुमेह, मानसिक व्याधियां, गठिया, गुर्दे संबंधी व्याधियां, यकृत की क्रियाशीलता में कमी, सामान्य सर्दी-जुकाम से बचाव आदि। मतलब यह कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में संतुलन लाने के लिए यह लाभदायक है। यदि किसी का ऊर्जा संस्थान असंतुलित है तो व्याधियों से मुक्त रह पाना नामुमकिन है।  

पंचमढ़ी का सूर्य नमस्कार पार्क

स्वास्थ्य खासतौर से कैलोरी को लेकर सतर्क लोग आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक तथा आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर के एक शोध के नतीजों से सूर्य नमस्कार के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। शोध के मुताबिक, 30 मिनट में भारोत्तोलन से 199 कैलोरी, टेनिस से 232 कैलोरी, बास्केटबाल से 265 कैलोरी, बीच वॉलीबाल से 265 कैलोरी, फुटबॉल से 298 कैलोरी, 24 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से साइकिल चलाने से 331 कैलोरी, पर्वतारोहण से 364 कैलोरी, दौड़ने से 414 कैलोरी (यदि रफ्तार 12 किमी प्रति घंटा हो) और सूर्य नमस्कार से 417 कैलोरी का उपयोग होता है। सूर्य नमस्कार के 12 सेट 12 से 15 मिनट में 288 शक्तिशाली योग आसनो के समान है।

सूर्य नमस्कार के मामले में एक खास बात यह है कि धार्मिक आधार पर विवाद होने के बावजूद थोड़े संशोधनों के साथ इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में इसका सकारात्मक प्रभाव होता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा। पाकिस्तान के प्रमुख योग गुरू शमशाद हैदर खुद ही हजारों लोगो को एक साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराते हैं। केवल “ऊँ” की जगह “अल्लाह हू” बोलते हैं। वे मानते हैं कि योग का कोई धर्म नहीं होता।

यह सच है कि मानव जिन पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है, उनका भला क्या धर्म हो सकता है। मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने के उपायों का भी कोई धर्म नहीं हो सकता। सूर्य नमस्कार शरीर की आंतरिक रहस्यपूर्ण प्रणालियों पर नियंत्रण प्राप्त करने और उनके बीच सामंजस्य लाने का एक सशक्त साधन है। यौगिक अमृत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

खेल बिगाड़ते योग के नीम हकीम

आसनो में भुजंगासन को सर्वरोग विनाशनम् कहा गया है। दुनिया के अनेक भागों में इस पर अनुसंधान हुआ तो पता चला कि इसके लाभों के बारे में हम जितना जानते रहे हैं, वह काफी कम है। इस आसन से शरीर के अंगों को नियंत्रित करने वाला तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम दुरूस्त रहता है। यही नहीं, इसका शक्तिशाली प्रभाव शरीर के सात में से चार चक्रों स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र और विशुद्धि चक्र पर भी पड़ता है। यानी प्राणायाम के कुछ फायदे भी मिल जाते हैं। पर कल्पना कीजिए कि हर्निया, पेप्टिक अल्सर, आंतों की टीबी, हाइपर थायराइड,  कार्पल टनल सिंड्रोम या फिर रीढ़ की हड्डी के विकारों से लंबे समय से ग्रस्त व्यक्ति या कोई गर्भवती यह आसन कर ले तो क्या होगा?  लेने के देने पड़ जाएंगे। अस्पताल जाना पड़ जाएगा।

आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि आखिर इस तरह की बात क्यों की जा रही है। हम सभी जानते हैं कि नेशनल लॉकडाउन के कारण सर्वत्र लाइव योग सत्रों की धूम है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के योग संस्थानों से लेकर शहर और मुह्ल्ले तक के योगाचार्यों और योग प्रशिक्षकों की ओर से लाइव योग सत्र आयोजित किए जा रहे हैं। योगाभ्यासियों को ऐसी सुविधा पहले कभी नहीं थी। संकटकाल में योग संस्थानों, योगाचार्यों और योग प्रशिक्षकों का यह बहुमूल्य योगदान है। पर इसका दूसरा पक्ष डरावना है। अनेक स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण का अभाव स्पष्ट रूप से दिख रहा है। सोशल मीडिया पर लाइव होने वाले योग प्रशिक्षकों को आमतौर पर विभिन्न प्रकार के आसनों व प्राणायामों के लाभों की ही चर्चा करते देखा जाता है। वे जोखिमों की चर्चा या तो नहीं करते या चलते-चलाते करते हैं। योग के क्रमिक अभ्यासों के मामले में भी समझौता किया जाता है। एक दृष्टांत से इस बात को समझा जा सकता है।

विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई दो सौ योग शिक्षकों का इंटरव्यू हुआ तो हैरान करने वाली बात यह हुई कि मात्र पांच योग शिक्षक ही ऐसे थे जो मानदंड के अनुरूप थे। यानी वे कठिन आसनों के साथ ही अच्छे प्रकार से योग की कक्षा ले सकते थे। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद की शासकीय परिषद के सदस्य डॉ. वरुण वीर ने इस बात का खुलासा किया तो योग विद्या के मर्म को समझने वालों के चेहरे पर बल पड़ जाना स्वाभाविक था। दरअसल डॉ वीर ने खुद ही इन योग शिक्षकों का इंटरव्यू लिया था। ऐसी स्थिति इसलिए बनी कि कायदा-कानूनों को ताक पर रखकर चलाए जाने वाले योग प्रशिक्षण संस्थानों से दो-चार महीनों का प्रशिक्षण लेने वाले योग प्रशिक्षक बन बैठे थे। आम जनता में योग के प्रति जाकरूकता की कमी का लाभ उन्हें मिल रहा था। वाणिज्यिक मानकों पर कसा गया तो असलियत सामने आ गई थी।

केंद्र सरकार ने आयुष मंत्रालय के जरिए सूरत को बदलने की कोशिश की है। योगाचार्यों या योग प्रशिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए सन् 2018 में योग सर्टिफिकेशन बोर्ड बनाया गया। इसकी परीक्षा का स्वरूप नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट के छोटे भाई की तरह है। नए और पुराने सभी योग प्रशिक्षक या शिक्षक बोर्ड की परीक्षा देकर प्रमाण-पत्र हासिल कर सकते हैं। योग संस्थानों का प्रमाणन भी किया जा रहा है। हालांकि यह काम प्राथमिक स्तर का है। आयुष मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अब तक कुल 9796 योग शिक्षकों और प्रशिक्षकों को बोर्ड से प्रमाणित किया जा चुका हैं। पर प्रैक्टिश करने वाले योग प्रशिक्षकों और शिक्षकों की संख्या तो कई गुणा ज्यादा है। जाहिर है कि गुणवत्तापूर्ण योग का प्रचार-प्रसार और प्रशिक्षण अभी भी दूर की कौड़ी है।

हठयोग के प्रतिपादकों महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम के साथ ही देश के प्रख्यात योगियों के शोध प्रबंधों पर गौर फरमाएं और योगाभ्यास करते लोगों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि योगकर्म में कैसी-कैसी गलतियां की जा रही हैं। मसलन, हठयोग में सबसे पहला है षट्कर्म। इसके बाद का क्रम है – आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। यदि कोई योगाभ्यासी षट्कर्म की कुछ जरूरी क्रियाएं भी नहीं करता तो आगे के योगाभ्यासों में बाधा आएगी या अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। इसी तरह प्राणायाम का अभ्यास किए बिना प्रत्याहार व धारणा के अभ्यासों से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे में ध्यान लगने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हठयोग के बाद राजयोग की बारी आती है, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। उसमें खासतौर से आसनों का नियम बदल जाता है। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि अनेक योग प्रशिक्षक हठयोग के अभ्यासक्रम को तो बदलते ही हैं, राजयोग के साथ घालमेल भी कर देते हैं। जबकि हठयोग में गयात्मक अभ्यास होते हैं और राजयोग में इसके विपरीत। जहां तक सावधानियों की बात है तो धनुरासन को ही ले लीजिए। यह भुजंगासन और शलभासन से मेल खाता हुआ आसन है। इन तीनों में कई समानताएं हैं। लाभ के स्तर पर भी और सावधानियों के स्तर पर भी। इस आसन से जब मेरूदंड लचीला होता है तो तंत्रिका तंत्र का व्यवधान दूर हो जाता है। पर हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, हार्निया, कोलाइटिस और अल्सर के रोगियों के लिए यह आसन वर्जित है।

प्राणायामों के बारे में योग शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि इसे आसनों के बाद और शुद्धि क्रियाएं करके किया जाना चाहिए। पहले नाड़ी शोधन फिर कपालभाति और अंत में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाना चाहिए। नाड़ी शोधन के लिए भी शर्त है। यदि सिर में दर्द हो या किन्हीं अन्य कारणों से मन बेचैन हो तो वैसे में यह अभ्यास कष्ट बढ़ा देगा। उसी तरह हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी, हर्निया और अल्सर के मरीज यदि कपालभाति करेंगे तो हानि हो जाएगी। जिनके फुप्फुस कमजोर हों, उच्च या निम्न रक्त दबाव रहता हो, कान में संक्रमण हो, उन्हें भस्त्रिका प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। हृदय रोगियों को तो भ्रामरी प्राणायाम में भी सावधानी बरतनी होती है। उन्हें बिना कुंभक के यह अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।

पर इन तमाम योग विधियों और उनसे संबंधित सावधानियों की अवहेलना हर तरफ देखी जा सकती है। यदि योग प्रशिक्षकों की गुणवत्ता का सवाल न होता तो मौजूदा संकट के समय योगाचार्यों के श्रम और योग की शक्ति से राष्ट्र को कई गुणा ज्यादा लाभ हो रहा होता। बहरहाल, उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए योगाभ्यासियों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए योग की क्रियाओं को किसी भी तरह कर लेने से बात बनने वाली नहीं। तमाम परिश्रम पर पानी फिर जा सकता है। दांव उल्टा पड़ जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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