स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज

किशोर कुमार

दुनिया भर के लोगों में धर्मानुकूल आचरण की शिक्षा प्रसारित करने वाले और भगवान स्वामिनारायण के पांचवें आध्यात्मिक उत्तराधिकारी प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में जो सुना और पढ़ा, उसके आधार पर उनकी उपलब्धियों की झांकी भी नहीं मिल सकती। ऐसा इसलिए कि वे तो उस हिमशैलों की तरह थे, जिनका थोड़ा-सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है। शेष भाग पानी में ही डूबा रहता है। अलौकिक दृष्टि वाले उस दिव्यात्मा के जन्मशताब्दी वर्ष पर अहमदाबाद में एक महीना तक चलने वाला भव्य समारोह का आयोजन किया गया है। उसमें स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज की उपलब्धियों को व्यापक फलक पर प्रस्तुत करने की कोशिश है। पर, वहां भी कुछ शेष रह गया है।

श्रीमद्भगवत गीता के ज्ञान में ब्रह्म विद्या, ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों और योग शास्त्रों का ज्ञान छिपा हुआ है। पर क्या कोई भी दावे के साथ कह सकता है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो संदेश दिए थे, उसके वास्तविक भाव और अर्थ पूरी समग्रता से फलां भाष्य में है? शायद किसी भाष्यकार संत ने भी कभी इस बात का दावा न किया होगा। महान संतों के मामले में भी कुछ ऐसी ही बातें लागू होती हैं। प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियां कितनी उच्च कोटि की थी, इसकी झलक पूर्व राष्ट्रपति ड़ॉ एपीजे अब्दुल कलाम की पुस्तक आरोहण – प्रमुखस्वामीजी के साथ मेरा आध्यात्मिक सफर में उद्धृत दृष्टांतों से मिल जाती है। इसी तरह प्रमुखस्वामी महाराज की प्रेरणा से बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामिनारायण (बीएपीएस) संस्था के जरिए वैदिक उपासना हेतु दिल्ली के भव्य अक्षरधाम मंदिर निर्माण का मामला हो, जो भारतीय शिल्प व वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, या फिर धार्मिक व सांस्कृतिक वैविध्य के रक्षण व प्रोत्साहन की बात, कहना होगा कि धर्म का भारतीय प्रतिमान पूरी तरह प्रस्तुत हुआ।  

महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है, सर्वेषां य: सवहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले।। महर्षि अरविंद घोष, जिनकी 150वीं जयंती मनाई जा रही है, ने लिखा है कि इस श्लोक में संतों के सिद्धावस्था में किए गए कर्मयोग का उद्घोष है। श्लोक में जाजले शब्द उसके लिए है, जिसने धर्म के वास्तविक स्वरूप को जाना तथा मन, कर्म और वाणी से सबका हित करता है, जो सभी का नित्य स्नेही है। श्रीमद्भगवत गीता से लेकर भगवान स्वामिनारायण तक ने भक्तों-संतों के कुछ लक्षण बतलाए हैं। कहना चाहिए कि प्रमुखस्वामी महाराज इन सभी कसौटियों पर खरे थे। उनमें ताउम्र कामना रहित भक्ति नित्य-निरंतर बनी रही। उन्होंने सदैव सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया: को ध्येय वाक्य मानते व्यक्ति के विकास के लिए आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए सुनिश्चित किया कि वर्गभेद मिटे, राष्ट्र निर्माण के लिए बालकों व युवकों का परिपोषण व प्रशिक्षण मिले। जन्मशताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में ठीक ही कहा कि उनके विचार शाश्वत हैं, सार्वभौमिक हैं। उनका एक ही संदेश होता था कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य सेवा ही होना चाहिए।

भावी पीढ़ियां धर्मानुकूल कैसे रहें, प्रमुखस्वामी महाराज को ऐसी शिक्षा विरासत में मिली थी। प्रमुखस्वामी महाराज के बचपन का नाम शांतिलाल था। उनकी माता दीवालीबाई और पिता मोतीभाई गुजरात के बड़ोदरा जिले के चाणसद गांव में खेती-किसानी करके जीवन जीते थे। पर उनके भगवत् प्रेम में कोई कमी न थी। इस तरह पूर्व जन्मों के अच्छे संस्कार और शैशवावस्था से ही माता-पिता से मिले संस्कार का असर हुआ कि शांतिलाल में बाल्यावस्था से ही प्रवज्या योग के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होने लगे थे। उन्हें संतों का सत्संग खूब रास आता था। सुगंधित पुष्प की तरह उनके भगवत् प्रेम की खुशबू फैली तो स्वामिनारायण परंपरा के तत्कालीन प्रमुख शास्त्रीजी महाराज की दृष्टि उन पर गई। शांतिलाल जब दस साल के हुए तो उन्हें एक दिन शास्त्रीजी महाराज का पत्र मिला। उसमें लिखा था – साधु बनने के लिए आ जाओ। शांतिलाल ने भी बिना देर किए गृहत्याग दिया और शास्त्रीजी महाराज के हृदय के दुलारे बनकर संत परंपरा की अनमोल कड़ी में जुड़ गए थे।

प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियों की झांकी डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के संस्मरण से मिलती है। उन्होंने “आरोहण” में लिखा हैं कि 11 मार्च 2014 को प्रमुखस्वामी महाराज से मिला था। उसी रात में आदतन सोने से पहले एक पुस्तक पढ रहा था। तभी मेरा मन किसी उच्चावस्था में चला गया। तब मैं न तो सोया था, न जगा। उसी दौरान स्पष्ट संदेश मिलने लगे – ‘उठो, ओ प्रसन्न अजनबी। तुमने अपना लक्ष्य पा लिया है,’ मैंने एक आवाज़़ सुनी। ‘मैं कहाँ हूँ?’ मैंने पूछा। ‘स्वर्ग में।’ ‘और धरती?’ ‘वह तुम्हारे पीछे है।’ ‘मुझे यहाँ कौन लाया?’ ‘वही, जिससे तुम आज मिले।’ ‘आप कौन हैं?’ ‘मैं वही हूँ।’ ‘तो क्या आप प्रमुख स्वामीजी हैं? लेकिन आप बोलते हैं, वो तो आज नहीं बोले।’

‘पर वह मुस्कुराये तो।’ ‘क्यों?’ ‘ताकि हमारी दुनिया में मुस्कुराहट लाई जा सके। तुम ही वह धन्य व्यक्ति हो जिनके हाथों में मैं एक पवित्र किताब देना चाहता हूँ, जो दुनिया के लिए लिखी जाए।’ ‘कौन-सी किताब?’ ‘वह किताब, जो मानवता को शब्दों की भूलभुलैया से बाहर का रास्ता दिखा सके।’ ‘पर मैं ही क्यों?’ ‘सिर्फ़ तुम ही ऐसा कर सकते हो, क्योंकि तुम सही देखते हैं और सही बोलते हैं। तुम सिर्फ़ मुझे देखते हो और सिर्फ़ मेरी बात ही बोलते हो।’ ‘क्या व्यक्त करना है?’ ‘कि दुनिया की मुस्कुराहट खो गई है। इसने ख़ुद को ‘मैं’ और ‘मेरे’ की गाँठों में बन्द कर लिया है। दुनिया बन्दि‍शों और बाड़ों में बँट गई है। चारों तरफ ‘मैं’ के खम्भे खड़े हैं और हेठी लोगों को बाँट रही है। मानवता पीड़ित है और जार-जार हो चुकी है। कलाम, इन बाधाओं को तोड़ने और लोगों को जोड़ने के लिए लिखो, और ‘मैं’ द्वारा उत्पन्न किये गए हर बँटवारे को हटा दो। ऊपर उठो, ‘आरोहण’ लिखो।….और इस तरह “आरोहण” जैसा विशिष्ट पुस्तक हम सबके लिए उपलब्ध हो सका।

महात्मा गांधी ने अलबर्ट आइंस्टीन के बारे में कहा था – भविष्य की पीढ़ी शायद ही यह विश्वास करे कि हाड़-मांस से बना यह व्यक्ति क्या कभी धरती पर था भी? भविष्य में प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में भी ऐसी ही धारणा बन जाए, तो हैरानी न होगी। जन्मशताब्दी के मौके पर उस महान संत को सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नवरात्रि

शक्ति की आराधना और मंत्रयोग

किशोर कुमार

नवरात्रि और दुर्गापूजा का समय है। इसलिए इस बार आदि शक्ति माता की आकृति, प्रकृति और गुणों के आलोक में मंत्र-योग की बात। हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? इस सवाल का विश्लेषण से पहले कुछ वेदसम्मत बातें। क्षीरसागर में सहस्त्र फणों वाले शेषनाग के शरीर रुपी शय्या पर शयन करते भगवान विष्णु को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर आते ही अकेलापन खलने लगा। मन में भाव आया – “एकोहं बहुस्याम।” यानी एक से अनेक हो जाऊं। तब भगवान विष्णु ने शक्ति का आह्वान किया। तभी उनके नाभि कमल से ब्रह्मा पैदा हो सके थे। यानी सृष्टि का आरंभ आदि शक्ति से हुआ। पुराणों में कथा है कि देव दानवों से पराजित होते गए तो प्रजापति से रक्षा की गुहार लगाई। प्रजापति ने सभी तैंतीस कोटि देवताओं की सभा करके उनसे अपनी शक्ति व तेज का एक अंश देने को कहा। ये शक्तियां महाशक्ति बन गईं और तेज सूर्य से भी ज्यादा बलवान। इससे ही शक्तिस्वरूपा दुर्गा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने आसुरी शक्तियों का संहार किया।

मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती में श्लोक है – “या देवी सर्व भूतेषु, शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम:।” यानी देवी दुर्गा, जो सभी जीवों में ऊर्जा के रूप में मौजूद हैं और सभी जीवों का कल्याण करने वाली हैं, उन्हें बारंबार नमस्कार है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शक्ति, जिसे देवी, भगवती या और कुछ भी कहा जाए, के तीन स्वरूप होते हैं – हितकारी, विनाशकारी औऱ सृजनकारी। अब हमारी आराधना के तरीकों पर निर्भर है कि उनसे शक्ति या देवी के कौन-से स्वरूप जागृत हो जाएंगे। इसी संदर्भ में एक कथा है। देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछ लिया कि विभिन्न देवताओं के लिए कौन-सी साधना अभीष्ट है? जबाव में शिवजी ने अनेक मार्ग बतलाए और कहा – “किसी भी मार्ग से लक्ष्य तक पहुंच सकती हो।“ पर वर्तमान युग में आम आदमी के लिए मार्ग का चयन करना क्या आसान है? स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि देवी को शाक्य तंत्र के अंतर्गत माना जाता है और तंत्र के अंतर्गत सभी पूजाओं का वर्गीकरण किया हुआ है। मंत्र, क्रिया औऱ उपचार के पहलुओं को विशुद्ध होना चाहिए। इसलिए कि ये प्रक्रियाएं मस्तिष्क, भावना औऱ चित्त को प्रभावित करती हैं। फास्ट फूड की तरह फल मिलने लगता है। पर थोड़ी भी लापरवाही से चित्त पर नकारात्मक प्रभाव होता है।

नवरात्रि के समय में दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती में हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं। “देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

कोरोना महामारी का असर फिलहाल कम जरूर है। पर उसकी मार उनलोगों पर भी है, जो संक्रमित नहीं हुए थे। नतीजतन, मानसिक बीमारियों का असर हर तरफ दिखता है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदि शक्ति की मंत्रो से आराधना का मानसिक स्तर पर व्यापक असर होना है। स्पेन के वैज्ञानिको ने बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस निरंजनानंद सरस्वती के मार्ग-दर्शन में मंत्रों के प्रभाव पर अध्ययन किया था। उसके प्रभाव चौंकाने वाले थे। अनेक उत्तेजित लोगों की उत्तेजना शांत हो गई थी, सजगता का विकास हुआ और चेतना का विस्तार हुआ। यह तो एक उदाहरण है। देश-विदेश में कम से कम दो सौ से ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययनों से मंत्रों के प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है, साधु प्रकारांतर से परोपकार ही करते हैं : स्वामी शिवानंद सरस्वती

कुंभ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दशनामी संप्रदाय के अखाड़ों का होता है। ये अखाड़े आदिगुरु शंकराचार्य की महान परम्परा की याद दिलाते हैं। आदि शंकर ने विभिन्न पंथों में बंटे संत समाज को संगठित किया था। ताकि आध्यात्मिक शक्तियों की बदौलत भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की जा सके। पर उन्हें जल्दी ही महसूस हुआ कि केवल शास्त्र से बात नहीं बनने वाली, शस्त्र की भी जरूरत होगी। तब उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के तहत अखाड़ों की स्थापना की। फिलहाल देश में कुल तेरह अखाड़े हैं। इनमें सात दशनामी परंपरा के शैव मत वाले, चार वैष्णव मत वाले और दो उदासीन मत वाले हैं। पर नागा संन्यासी शैव मत वाले अखाड़ों में ही बनाए जाते हैं। इस लेख में योग के आलोक में साधु-संन्यासियों के योगदान और उनके जीवन से जुड़े तथ्यों की पड़ताल करने की कोशिश है।    

साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं, उनका कोई नगर नहीं, राजधानी नहीं….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं। पर ये लड़ाकू साधु-संन्यासी अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें। उन्हें धूल चटा देते हैं….। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को ये बातें बेहद परेशान करती थीं। वे कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से वे कांप जाते थे। उनके सिपाही भी भयभीत रहने लगे थे। ”वंदे मातरम्…” गीत के रचयिता कवि-उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास “आनंदमठ” में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का यह वृतांत बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत है।

कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के जिस जमात को हम देखते हैं, वे अंग्रेजों, उसके पहले मुगलों और न जाने कितने ही विदेशी आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाले उन साधु-संन्यासियों की परंपरा वाले ही तो हैं। लगभग बाइस सौ साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षार्थ संत समाज को संगठित किया था। अतीत के झरोखे से झांककर देखने से पता चलता है कि आदि शंकर ने साधु-संन्यासियों की फौज तैयार न की होती तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखना असंभव हो गया होता। यह जरूर है कि कालांतर में परिस्थितियां बदलती गईं तो साधु-संन्यासियों की भूमिकाएं भी बदलती गईं। पर इसके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। तभी अक्सर उनके बारे में कई सवाल खड़े किए जाते हैं। यथा अखाड़ों के नागा साधुओं और अन्य साधु-संन्यासियों की आधुनिक युग में क्या उपयोगिता है? कुंभ के बाद पहाड़ों में कंपा देने वाली सर्दियों के दौरान खुले बदन या कम कपड़ों में किस तरह जीवित रह जाते हैं? वे वहां करते क्या हैं और क्या खाकर जिंदा रहते हैं? उनकी अदम्य शक्ति का स्रोत क्या है? जो साधु-संन्यासी पहाड़ों में नहीं रहतें, वे आश्रमों में क्या करते होंगे? आदि आदि।

आईए, योग-शक्ति के आलोक में इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया कि हिमालय और जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासियों की वर्तमान समय में क्या उपयोगिता रह गई है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, “ये साधु-संन्यासी आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत होते हैं, सिद्धांत के पक्के होते हैं। मानवता के कल्याण के लिए अपने साधना स्थल से ही हमलोगों आदेश देते हैं। उनके आदेशों का पालन करने के बाद हमलोग भी वहीं चले जाते हैं।“ परमहंस योगानंद कहते थे, “जो संतजन बाह्य स्तर पर कार्य नहीं करते, वे भी अपने विचारों एवं पवित्र स्पंदनों द्वारा जगत् का आत्मज्ञानहीन मनुष्यों द्वारा अथक किए गए लोकोपकारी कार्यों से कहीं अधिक बढ़कर हित करते हैं। महात्माजन अपने-अपने ढंग से और प्राय: कड़वे विरोध झेलकर अपने समकालीन लोगों को प्रेरित करने तथा उन्नत करने का नि:स्वार्थ प्रयास करते रहते हैं।

साधु-संन्यासियों की सूक्ष्म शक्ति की बात भी कोई कपोल-कल्पना नहीं है। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में हठयोगी थे साधु हरिदास। खेचरी मुद्रा सिद्ध थे। महाराज उनकी यौगिक शक्तियों की परीक्षा लेना चाहते थे। लिहाजा महाराजा की इच्छानुसार उन्होंने महाराजा और कुछ विदेशी चिकित्सकों की उपस्थिति में चालीस दिनों के लिए भू-समाधि ले ली। उन्हें सही तरीके से मिट्टी से ढ़क दिया गया। कुछ दिनों बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पर जब चालीस दिन पूरे हुए तो साधु हरिदास के निर्देशानुसार मिट्टी हटाकर उनकी गर्दन की हड्डियों पर गाय के घी से मालिश कर दिया गया तो वे इस तरह उठ खड़े हुए थे, मानों कुछ समय के लिए ध्यान साधना में बैठे रहे हों। बिल्कुल तरोताजा थे। उनकी सूक्ष्म शक्तियों की कई मिसालें दी जाती हैं, जिनका उल्लेख फ्रांस सरकार के दस्तावेजों में भी है। परमहंस योगानंद ने अपने परमगुरू और सिद्ध संन्यासी लाहिड़ी महाशय के बारे में लिखा है कि वे अपने दाह-संस्कार के दूसरे दिन प्रात: दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने पुनरूज्जीवित परन्तु रूपांतरित शरीर में फिर से प्रकट हुए थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के मामले में भी उनके कई विदेशी शिष्यों का ऐसा ही अनुभव रहा है।

यह निर्विवाद है कि सनातन काल से सभ्यता और सांस्कृति बरकरार रखकर मानवता का कल्याण करने में योगियों व संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। उनकी अलौकिक शक्तियां हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। इसे इस तरह समझिए। जापान में समुराई नामक समुदाय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। इस समुदाय के ज्यादातर लोग सेना में जाते थे। पर पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे उनकी शारीरिक शक्ति और कल्पना-शक्ति ऐसी हो जाती थी कि उनके सामने दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा-चक्र को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान-चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है।

पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि जंगलों और पहाड़ों में साधना करने वाले साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। वैसे तो जंगलों और पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से सब कुछ मौजूद होता है। इनमें सौर-शक्ति प्रमुख है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रोटीनयुक्त रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल की बदौलत सौर-शक्ति को कैद करना संभव हो पाता है, जो जीवन दायिनी है। अपामार्ग या चिरचिटा जंगलो और पहाड़ों में उपलब्ध होता है। इसके बीज में इतनी शक्ति है कि कोई बिना अन्न ग्रहण किए एक सप्ताह से ज्यादा समय गुजार सकता है। पर ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे।

हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, योग के सामान्य साधको को भी सलाह दी जाती है कि यदि हृदय रोग, उच्च रक्तचाप व मिर्गी के रोगी न हो तो सूर्यभेद प्राणायाम करें। शरीर में गर्मी पैदा हो जाएगी। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता।

उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे, “संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। एक साधु के लिए साधना की अंतिम परिणति सेवा होती है, समाधि नहीं।” आखाड़ों से जुड़े साधु-संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

किसी अनजान के प्रति सहज आकर्षण मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए : परमहंस योगानंद

पुनर्जन्म होता है, इसके उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइसेंज (नीमहांस) के वरीय मनोचिकित्सक डॉ सतवंत के पसरीचा सन् 1974 से ही पूर्व जन्म की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने अब तक पांच सौ से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि पांच साल तक की उम्र के सत्तर फीसदी बच्चों को पूर्वजन्म की घटनाएं याद थी। पर आठ साल या किसी मामले में दस साल की उम्र होते-होते पूर्वजन्म की यादें धूमिल हो जाती थीं। इन घटनाओं से योगशास्त्र के संचित कर्मों वाले सिद्धांत की पुष्टि होती है।

क्या पुनर्जन्म होता है और क्या पूर्व जन्म के संचित कर्मों की हमारे मौजूदा जीवन में कोई भूमिका होती है? इन सवालों को लेकर सदियों से मंथन किया जाता रहा है। हिंदू और इसाई से लेकर अनेक धर्मों में शास्त्रसम्मत तरीके से इन सवालों के पक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान इन सवालों के पक्ष में दिए जाने वाले कई तर्कों से असहमत नहीं है। बल्कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यदि पुनर्जन्म होता है और यौगिक विधियों के जरिए अवचेतन शक्तियों को जागृत करके संचित कर्मों का विकास संभव है तो अच्छे संचित कर्मों का विकास करके अपने जीवन को खुशनुमा क्यों न बनाया जाए।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि अवचेतन शक्तियों को जागृत करके अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास करना संभव है। दूसरी तरफ आम आदमी योग की बदौलत स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदित कर सकता है और लोकप्रियता का शिखर छू सकता है। अनेक बार हम सब अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि यात्रा के दौरान सामने की सीट पर बैठे किसी अपरिचित के प्रति सहज आकर्षण होता है। इसके उलट किसी को देखकर अच्छा भाव उत्पन्न नहीं होता। इस तरह की घटनाएं सबके जीवन में कहीं भी, कभी भी और किसी रूप में घटित होती ही है। कई बार कोई ऐसा व्यक्ति मदद के लिए खड़ा हो जाता है, जिससे अपेक्षा न थी। पर सजगता के अभाव में हम इस बात पर मनन नहीं कर पातें कि ऐसा क्यों होता है।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। कहते थे कि ऐसे संकेतों से मिले सूत्रों की पहचान कर जीवन को उन्नत बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा। पर इसके साथ ही कहते थे कि दिव्य आकर्षण और सामान्य आकर्षण में भेद करने का विवेक होना चाहिए। इसलिए कि सामान्य आकर्षण का आधार दूषित इच्छाएं और स्वार्थी कार्य होते हैं।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि या योग की भाषा में आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। नतीजतन, संचित कर्मों के आधार पर जिसमें जैसा बीज होगा, उस अनुपात में उसका बेहतर तरीके से प्रतिभा का विकास होगा। यदि संचित कर्म सही नहीं है तो उसका क्षय भी किया जा सकेगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि संचित कर्म जीवन में किस तरह फलित होता है। इस संदर्भ में स्वामी जी से ही जुड़े एक वाकए की चर्चा यहां प्रासंगिक है। सत्संग के दौरान उनसे किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए संचित कर्मों का केवल विकास करना होता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने फ्रांस रेडियो को दिए साक्षात्कार में कहा था – “मृत्यु केवल प्रस्थान है। जब भौतिक शरीर मर जाता है, सूक्ष्म और कारण शरीर, जीवात्मा या आपका अपना व्यक्तित्व एक साथ भौतिक शरीर को छोड़ देते हैं। तब आपकी कामनाओं और कर्मों की पूर्ति के लिए वे एक नया शरीर प्राप्त करते हैं।“ यानी पिछले जन्म में आप योगी रहे हैं तो इस जन्म में आपकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उसी तरफ होगी। सिर्फ अवचेतन के तल तक पहुंच बनाकर इस प्रतिभा की पहचान और उसका विकास करना होता है। हम सब व्यवहार रूप में भी देखते हैं कि एक ही माता-पिता की चार संतानों की एक ही परिवेश में परिवरिश होने के बावजूद उनकी प्रतिभाएं, उनकी प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं। योगी इसे संचित कर्मों का ही नतीजा मानते हैं।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि संचित कर्मों में सफलता और विफलता के सूत्र छिपे हुए हैं और उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से कोरोनाकाल में विपदाओं के मध्य स्वर्णिम भविष्य के लिए एक अवसर भी उपस्थित हुआ है। विश्वसनीय दवा के अभाव में लोगों को देशज चिकित्सा पद्धतियों खासतौर से योग से बड़ी आश्वस्ति मिली। अनेक लोग खुद को संकट से बाहर निकालने में सफल हुए। स्वस्थ्य लोग स्वस्थ्य बने रहें, इसलिए योग करते रहे। अब योगाभ्यास को उच्चतर स्तर पर ले जाने का वक्त आ गया है। यदि योग को स्वास्थ्य तक सीमित न रखकर उसके अगले स्तर के अभ्यासों की बदौलत आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया जाए या कम से कम आज्ञा चक्र को ही जागृत करने का प्रयास किया जाए तो अवचेतन के अच्छे गुणों का विकास करना आसान होगा, जो सुखद और आनंदमय जीवन की कुंजी है। योगियों के मुताबिक, इस काम के लिए प्रत्याहार, धारणा व ध्यान की क्रमिक साधना फलदायी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगियों के अमृत मंथन से निकला सूर्य नमस्कार!

किसके दिमाग की उपज है सूर्य नमस्कार, जिसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं? आम धारणा है कि सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।  

किशोर कुमार

इस बार सूर्य नमस्कार की बात। हठयोग की एक ऐसी शक्तिशाली विद्या की बात, जो प्राचीन काल में हठयोग का हिस्सा नहीं था। पर उसकी क्रियाएं मौजूद थीं और सूर्य उपासना मानव की आंतरिक अभिव्यक्तियों का एक अत्यंत सहज रूप थी। इनका समन्वय करके बनाई गई योग विधि ही आधुनिक युग का सूर्य नमस्कार है। मंत्र योग के बाद शायद यह इकलौती योग विधि है, जिसका धार्मिक वजहों से विवादों से नाता बना रहता है। बावजूद लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। योग विज्ञानी इसे मानव शरीर में सूर्य की ऊर्जाओं को व्यवस्थित करने का बेहतरीन तरीका मानते हैं, जिनसे हमारा जीवन संचालित है। इसकी सत्यता का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान होने लगे तो विज्ञान को भी इसकी अहमियत स्वीकारनी पड़ी है।

जीवन-शक्ति प्रदायक इस योग विधि से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा होगी। इसके पहले जानते हैं कि जिस सूर्य नमस्कार को अपने आप में पूर्ण योग साधना माना जाता, उसे मौजूदा स्वरूप कब और कहां मिला? आसनों के समूह को एक साथ किसने गूंथा? इसे लोकप्रियता किसने दिलाई? वैसे तो सूर्योपासना आदिकाल से की जाती रही है। सूर्योपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता है, वह शक्तिशाली, क्रियाशील, बुद्धिमान और दीर्घजीवी होता है। पर योग के आयामों पर शोध करने वाले अमेरिकी मानव विज्ञानी जोसेफ एस अल्टर की पुस्तक “योगा इन मॉडर्न इंडिया” के मुताबिक सूर्य नमस्कार 19वीं शताब्दी से पहले किसी भी हठयोग शास्त्र का हिस्सा नहीं था। इस बात की पुष्टि स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका और महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता से भी होती है। यहां तक कि हठयोग के लिए ख्यात नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ के गोरक्षशतक में भी सूर्य नमस्कार का उल्लेख नहीं है। फिर यह वजूद में आया कैसे?

श्रुति व स्मृति के आधार पर उपलब्ध दस्तावेजों और अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका प्रतिदिन अभ्यास किया करते थे। वे सूर्य के उपासक थे और सूर्योदय के साथ ही सूर्य को प्रणाम करके योगासन करते थे। माना जाता है कि वही कालांतर में सूर्य नमस्कार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वैदिक काल से चली आ रही सूर्य उपासना समर्थ रामदास के जीवन का हिस्सा इस तरह बनी थी कि उन्होंने अपनी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में इसकी महिमा का बखान करने के लिए एक अध्याय ही लिख दिया था। हालांकि उनकी पुस्तक में कहीं भी आसनों के समूह को सूर्य नमस्कार नहीं कहा गया है। पर मैसूर और औंध प्रदेश में लगभग एक ही काल-खंड में जिस तरह सूर्य नमस्कार लोकप्रिय होने लगा था, उससे ऐसा लगता है कि समर्थ रामदास ने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया होगा।

विख्यात योगी की कहानी, सद्गुरू जग्गी वासुदेव की जुबानी

कर्नाटक के योग शिक्षक थे – राघवेंद्र राव। वे रोज 1008 बार सूर्य नमस्कार करते थे। जब नब्बे साल के हुए तो 108 बार सूर्य नमस्कार करने लगे थे। यह कटौती अपनी आध्यात्मिक साधना के कारण कर दी थी। वे बेहतरीन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। नब्ज छू कर बता देते थे कि अगले 10-15 वर्षों में किस तरह की बीमारी हो सकती है। उनका आश्रम था, जहां प्रत्येक सोमवार की सुबह से शाम तक मरीज देखते थे। इसके लिए रविवार की शाम को ही आश्रम पहुंच जाते थे। उनकी एक और खास बात थी। गंभीर से गंभीर मरीज को चुटकुला सुनाकर खूब हंसाते थे। इससे मरीजों से भरे आश्रम में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था।
उनके समर्पण की एक दास्तां यादगार रह गई। वे एक बार अपने दो साथियों के साथ आश्रम से 75 किमी की दूरी पर फंस गए। दरअसल, ट्रेन रद्द हो गई थी। आश्रम हर हाल में पहुंचना था। रात्रि में ट्रेन के अलावा दूसरा कोई साधन न था। लिहाजा उन्होंने 83 साल की उम्र में फैसला किया कि रेलवे टैक पर दौड़ते हुए आश्रम पहुंचेंगे। ताकि सुबह-सुबह मरीजों का इलाज कर सकें। ऐसा ही हुआ। वे चार बजे सुबह आश्रम पहुंच गए और समय से मरीजों को देखने के लिए उपलब्ध हो गए। उनके दो साथी अगले दिन ट्रेन से आश्रम पहुंचे तो राघवेंद्र राव की दास्तां सुनाई। वे 106 वर्षों तक जीवित रहे और प्राण त्यागने के दिन तक योग सिखाते रहे।

योग साहित्य के ज्यादातर जानकार बताते है कि देश की आजादी से पहले औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ था। पर इस बात के भी सबूत हैं कि भवानराव श्रीनिवासराव के प्रचार से कोई दो दशक पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। भवानराव श्रीनिवासराव ने 1920 के आसपास सूर्य नमस्कार का प्रचार शुरू किया था, जबकि टी कृष्णामाचार्य की पुस्तक व्यायाम प्रदीपिका का प्रकाशन 1896 में हो चुका था, जिसमें सूर्य नमस्कार के आसनों की विस्तार से चर्चा है।   बीकेएस अयंगर और के पट्टाभि जोइस टी कृष्णामाचार्य के ही शिष्य थे। इन बातों का उल्लेख नॉर्मन ई सोजमन की पुस्तक “द योग ट्रेडिशन ऑफ मैसूर पैलेस” में है। कैनेडियन नागरिक सोजमन संस्कृत व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन तथा योग के प्रशिक्षण के लिए कोई 14 वर्षों तक भारत में रहे। उसके मुताबिक मैसूर के राजा कृष्णराज वाडियार हिमालय के योगी राममोहन ब्रह्मचारी के शिष्य कृष्णामाचार्य से बेहद प्रभावित थे।

प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक और राजनयिक अप्पा साहेब पंत पूर्व औंध प्रदेश के राजा भवानराव श्रीनिवासराव के ही पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता पर एक पुस्तक लिखी थी – ऐन अनयूजुअल राजा। उसमें सूर्य नमस्कार के प्रचार के बारे में विस्तार से चर्चा है। इसमें मुताबिक, औंध से सटे मिराज राज्य, जो अब महाराष्ट्र का हिस्सा है, के राजा की सलाह पर भवानराव श्रीनिवासराव नियमित रूप से सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने लगे थे। उन्हें प्रारंभिक दिनों से ही खेलकूद के प्रति गहरी अभिरूचि तो थी ही, जर्मन बॉडी बिल्डर और शोमैन यूजेन सैंडो से भी खासे प्रभावित थे। जब उन्हें इसके लाभ दिखने लगे तो दीवानगी बढ़ गई। नतीजतन, उन्होंने न केवल देश से बाहर भी सूर्य नमस्कार का प्रचार किया, बल्कि अखबारों में लेख लिखे और मराठी में एक पुस्तक भी लिख डाली, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था। उसका नाम है – “द टेन प्वाइंट वे टू हेल्थ।“ इसे 1923 में इंग्लैंड के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया था।

हरियाणा के संदीप आर्य सबसे ज्यादा समय तक सूर्य नमस्कार करने का वर्ल्ड रिकार्ड बना चुके हैं। उन्होंने बीते साल लखनऊ में आयोजित वर्ल्ड योगा चैंपियनशिप में 36 घंटे 21 मिनट तक सूर्य नमस्कार करके अपना ही रिकार्ड तोड दिया था। इसके पहले 17 घंटे 30 मिनट तक सूर्य नमस्कार का वर्ल्ड रिकार्ड उन्हीं के नाम था। वे अपनी इन उपलब्धियों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से सम्मानित हो चुके हैं।  

हम सब जानते हैं कि सूर्य नमस्कार में मुख्यत: सात मुद्राएं होती हैं। पांच मुद्राओं की पुनरावृत्ति होती है। इस तरह बारह मुद्राएं हो गईं। आध्यात्मिक गुरू और ईशा फाउंडेशन के प्रमुख सद्गुरू जग्गी वासुदेव के कहते हैं कि ऐसा होना महज संयोग नहीं है। सूर्य का चक्र लगभग सवा बारह साल का होता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही बारह आसनों की श्रृंखला बनाई गई। ताकि हमारे शरीर के चक्रों का सौर चक्र से तालमेल हो सके। बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक युग की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह योग विधियों को मिलाकर यौगिक कैप्सूल तैयार किया। समझा जाता है सूर्य नमस्कार भी कुछ ऐसे ही विचारों की देन है। इन्हें योगियों का अमृत मंथन कहना समीचीन होगा। सच तो यह है कि बेहद असरदार योग विधि मानव जाति के लिए अमृत से कम नहीं है।

बीते सप्ताह उपनयन संस्कार के वक्त बच्चों को दी जाने वाली योग शिक्षाओं की चर्चा की गई थी। उनमें सूर्य नमस्कार प्रमुख था। विभिन्न अनुसंधानों के नतीजों से साबित हो चुका है कि योग की यह प्रभावशाली विधि अंत:स्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनमें शरीर की सबसे महत्वपूर्ण पीयूषिका ग्रंथि शामिल है। सूर्य नमस्कार इस ग्रंथि के क्रिया-कलापों का नियमन करने वाले हॉइपोथैलेमस को उद्दीप्त करता है। इस कॉलम में पीनियल ग्रंथि की बार-बार चर्चा हुई है। सूर्य नमस्कार से उसके क्षय होने की प्रक्रिया भी मंद पड़ती है। मासिक धर्म संबंधी अनियमितताओं और उससे उत्पन्न तनावों से मुक्ति दिलाने में यह योगासन बेहद प्रभावकारी है। रीढ़ के रोगों से बचाव के लिए यह सबसे उत्तम विधि मानी जाती है।

कई व्याधियों में सूर्य नमस्कार बेहद प्रभावी है। वे हैं – अंत:स्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म व रोग निवृत्ति संबंधी समस्याएं, दमा व फेफड़े की विकृतियां, पाचन संस्थान की व्याधियां, निम्न रक्तचाप, मिर्गी व मधुमेह, मानसिक व्याधियां, गठिया, गुर्दे संबंधी व्याधियां, यकृत की क्रियाशीलता में कमी, सामान्य सर्दी-जुकाम से बचाव आदि। मतलब यह कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में संतुलन लाने के लिए यह लाभदायक है। यदि किसी का ऊर्जा संस्थान असंतुलित है तो व्याधियों से मुक्त रह पाना नामुमकिन है।  

पंचमढ़ी का सूर्य नमस्कार पार्क

स्वास्थ्य खासतौर से कैलोरी को लेकर सतर्क लोग आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक तथा आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर के एक शोध के नतीजों से सूर्य नमस्कार के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। शोध के मुताबिक, 30 मिनट में भारोत्तोलन से 199 कैलोरी, टेनिस से 232 कैलोरी, बास्केटबाल से 265 कैलोरी, बीच वॉलीबाल से 265 कैलोरी, फुटबॉल से 298 कैलोरी, 24 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से साइकिल चलाने से 331 कैलोरी, पर्वतारोहण से 364 कैलोरी, दौड़ने से 414 कैलोरी (यदि रफ्तार 12 किमी प्रति घंटा हो) और सूर्य नमस्कार से 417 कैलोरी का उपयोग होता है। सूर्य नमस्कार के 12 सेट 12 से 15 मिनट में 288 शक्तिशाली योग आसनो के समान है।

सूर्य नमस्कार के मामले में एक खास बात यह है कि धार्मिक आधार पर विवाद होने के बावजूद थोड़े संशोधनों के साथ इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में इसका सकारात्मक प्रभाव होता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा। पाकिस्तान के प्रमुख योग गुरू शमशाद हैदर खुद ही हजारों लोगो को एक साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराते हैं। केवल “ऊँ” की जगह “अल्लाह हू” बोलते हैं। वे मानते हैं कि योग का कोई धर्म नहीं होता।

यह सच है कि मानव जिन पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है, उनका भला क्या धर्म हो सकता है। मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने के उपायों का भी कोई धर्म नहीं हो सकता। सूर्य नमस्कार शरीर की आंतरिक रहस्यपूर्ण प्रणालियों पर नियंत्रण प्राप्त करने और उनके बीच सामंजस्य लाने का एक सशक्त साधन है। यौगिक अमृत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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