अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुरू का स्पर्श मिलते ही चिकित्सक बन गया कर्मयोगी

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

कोरोनाकाल में मधुमेह, उच्च रक्तचाप और दमा जैसी बीमारियां घातक साबित हुई हैं। भारत में कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान का श्रीगणेश हो चुका है। बावजूद सबको पता है कि जानलेवा संक्रमण से पूरी तरह मुक्ति मिलने में समय लगेगा। इसलिए दमा-मधुमेह के मरीज नाना प्रकार की आशंकाओं से घिरे रहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। पर आस्ट्रेलिया के चिकित्सक से योगी बने डा.शंकरदेव सरस्वती की कहानी से निश्चित ही बेहतर राह मिलेगी और नई आशा का संचार होगा। 

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

इस घटना से उनके जीवन में ऐसा मोड़ आया और योग के प्रति ऐसा अनुराग हुआ स्वामी सत्यानंद सरस्वती के शिष्य बन बैठे। इसके बाद अपने गुरू के निर्देशन में मानव शरीर पर योग के प्रभावों पर शोध-कार्यों में इतने तल्लीन हुए कि मुंगेर में ही दस साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था। भारत की योग-शक्ति का ही कमाल है कि डा. स्वामी शंकरदेव जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। अमेरिकी लेखक औऱ पत्रकार पॉल ब्रंटन की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। वे तो “जादू-टोने के देश” के मामले में पश्चिमी दुनिया के नजरिए को पुष्ट करना चाहते थे। पर रमण महर्षि से आंखें मिलीं तो उनके ही होकर रह गए थे।

खैर, डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती को दमा के कारण फेफड़ों औऱ कंठ में काफी तकलीफ रहती थी। श्वसन-क्रिया अवरूद्ध होने जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी तो चिकित्सकों ने टॉंसिल और एडिनॉइड ग्रंथियां तक निकाल दी। पर बात न बनी थी। दुनिया के कुछ बड़े चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एलर्जी उनके दमा की मुख्य वजह है। इसका इलाज भी बेकार गया। इस बीच डॉ शंकरदेव की शारीरिक दुर्बलत बढ़ती गई और विषादग्रस्त हो गए। योगोपचार के लिए बिहार योग विद्याय पहुंचे तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उन्हें सबसे पहले ध्यान साधान में लगा दिया। आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी के निर्देशन में ध्यान लगा तो अंतर्रात्मा से एक ऐसी सच्ची दास्तां निकल कर बाहर आई, जो उनके बचपन में वास्तव में घटी थी। उन्होंने गुरूजी से सारी बातें साझा की तो पता चला कि दमा और बाद में मधुमेह की वजह बचपन की वही घटना थी।

डॉ स्वामी शंकरदेव ने खुद ही अपनी अनेक पुस्तकों में जिक्र किया है – “उनका परिवार आर्थिक रूप से मजबूत नहीं था। माता-पिता को नौकरी करनी होती थी और उनका पालन-पोषण एक मेड करती थी। उन्हें जो भोजन पसंद नहीं होता था, वह उसे जबर्दस्ती खिलाती थी। इस क्रम में मारती-पीटती भी थी।“  स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अनुभवों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हुए थे कि मानसिक आघात अचेतन भावों को जन्म देते हैं और भविष्य में व्यवहार को प्रेरित करते हैं। नकारात्मक विचार मानसिक तनाव बढ़ाते हैं। ये स्थितियां भी लंबे समय में दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों को जन्म देती हैं। इसी अनुभव के आधार पर डॉ शंकरदेव को दमा और मधुमेह को ध्यान में रखते हुए यौगिक क्रियाएं बतलाई गईं और वे बीते चालीस सालों से स्वस्थ्य जीवन जी रहे हैं और दूसरों के लिए भी स्वस्थ्य जीवन जीने का आधार प्रदान करते रहते हैं।  

डॉ स्वामी शंकरदेव के बचपन की घटना यह समझने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि बाल्यावस्था में माता-पिता की कितनी अमहमियत होती है। कनाडा मूल के अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ एरिक बर्न की मानव संबधों के मनोविज्ञान पर एक चर्चित पुस्तक है – गेम्स पीपुल प्ले। उसमें भी डॉ स्वामी शंकरदेव जैसी ही कहानी है। एक माता-पिता ने अपनी बेटी पर उसकी इच्छा विरूदध पढ़ाई पढ़ने का दबाव बनाया। फिर सफलता की उम्मीद पालकर बड़े-बड़े सपने संयोए। उधर कुंठित लड़की दमा की मरीज बन गई। माता-पिता को जब तक समझ में बात आई, तब तक लड़की का जीवन तबाह हो चुका था। डॉ एरिक बर्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि माता-पिता के इस तरह के व्यवहार से बाल-मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है।

पर यदि बच्चे पर किसी प्रकार का दबाव नहीं हो तो उसका प्रतिफल क्या होता है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती जब छह-सात साल के थे तो मुंगेर आश्रम में रहने के लिए गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बुलावा आ गया था। मुंगेर पहुंचे तो कुछ समय गुजारने के बाद गुरूजी से पूछ लिया, किस तरह की योग साधना करनी है? परमहंस जी ने कहा, विचार करो, करना क्या है? स्वामी निरंजनानंद आश्रम के बुजुर्ग संन्यासियों को आंखें बाद करके जप में तल्लीन देखते थे। पर उनकी रूचि इसमें बिल्कुल नहीं थी। लिहाजा उन्होंने तय किया कि योग के द्वारा अपने जीवन को प्रतिभा से युक्त करेंगे, सही तरीके से, रचनात्मक तरीके से। उन्होंने जैसा चाहा था, कालांतर में वैसा ही परिणाम मिला। गुरूजी ने उन्हें कभी नहीं कहा कि योग के माध्यम से भगवान की तलाश करो, बल्कि उनका व्यवहार इस मामले में उस शिक्षक की तरह रहा, जो निर्धारित पाठ्यक्रम को अपने छात्रों को पढ़ाता भर है। वह तय नहीं करता कि अमुक पुस्तक पढ़नी है और अमुक नहीं।

खैर, डॉ शंकरदेव अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि योगाभ्यास से विकसित सजगता के माध्यम से रोग के लक्षण ही नहीं, रोग को ही सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने योग रिसर्च फाउंडेशन के लिए दमा और मधुमेह पर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रस्तुत करते हुए मन की अवस्थाओं की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उनके मुताबिक – हमारा शरीर थल जैसा, मन समुद्र जैसा और भावनाएं समुद्री किनारा जैसा है। जब मन रूपी समुद्र अशांत होता है तो किनारे पर चोट करता है और उसे काटकर सागर तल में ले जाता है। दूसरी तरफ, शांत समुद्र के किनारे सुरक्षित रहते हैं। यही बात हमारे मन , हमारी चित्त पर लागू है। शांत चित्त में रोगोपचार की शक्ति रहती है। इसलिए मन को शांत किए बिना कोई भी योगोपचार कारगर नहीं हो पाता। प्रत्याहार की क्रियाओं का महत्व सबसे अधिक इसलिए होता है। प्रत्याहार में योगनिद्रा ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी को सम्मोहित भी किया जा सकता है।

ओशो भी अपने शिष्यों को सजगता के अभ्यास का जादू बताते हुए कहते थे कि इससे किसी को सम्‍मोहित कर दिया जाए और तब पूछा जाए कि एक जनवरी उन्‍नीस सौ पचास में अपने क्‍या किया? तो वह सुबह से सांझ तक का ब्‍यौरा इस तरह बता देगा, जैसे अभी वह एक जनवरी सामने से गुजर रही है। वह यह भी बता देगा कि एक जनवरी को सुबह जो चाय पी थी, उसमे थोड़ी शक्‍कर कम थी। यह भी बता देगा की जिस आदमी ने उसे चाय दी थी, उस आदमी के शरीर से पसीने की बदबू आ रही थी। इतनी छोटी बातें बता देगा कि जो जूता उसने पहना हुआ था, वह उसके पैर काट रहा था। मतलब यह कि सम्मोहन की अवस्‍था में किसी के भी भीतर की स्‍मृति को बाहर लाया जा सकता है।

अब जानते हैं कि डॉ स्वामी शंकरदेव मन की खास अवस्था में पहुंच कर बीमारियों की वजह जान गए थे, बचपन की घटनाओं का दृश्य दिख गया था, तो उनकी दमा और अन्य बीमारियां किन योग विधियों से दूर हो गई थीं। उन्होंने गुरू के निर्देशानुसार शुद्धिकरण की तीन क्रियाएं कुंजल-क्रिया, नेति-क्रिया व शंखप्रक्षालन, आसनों में श्वास की सजगता के साथ शवासन, सूर्य नमस्कार व भुजंगासन, प्राणायामों में नाड़ी शोधन, कुंभक के साथ भस्त्रिका व भ्रामरी और अंत में उज्जायी के साथ जपाजप व योगनिद्रा का अभ्यास किया। ये योग क्रियाएं ही कई मर्ज की दवा बन गईं। दमा और मधुमेह से लेकर उच्च रक्तचाप तक पर विजय प्राप्त हो गया था। डॉ. स्वामी शंकरदेव सरस्वती की दास्तां कोरोनाकाल में भी दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए प्रेरक है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद की गोली न बनाएं इन योग विधियों को

भक्तिकाल के महान संत अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ उर्फ रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा है – “रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजै डारि। जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥“ हम सब बोलचाल में इसी बात को कहते भी हैं कि जहां सुई की जरूरत है, वहां तलवार का क्या काम? पश्चिम के दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने लॉ ऑफ इंस्ट्रुमेंट कहा। पर अब्राहम मास्लो की व्याख्या सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुई – यदि आपके पास केवल और केवल हथौड़ा ही है तो आप हर वस्तु को कील समझने लगते हैं। गुरूत्तर उद्देश्य वाली योग विद्या के साथ व्यवहार रूप में ऐसा ही हो रहा है। प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा की जिन विधियों का उपयोग शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य और चेतना के विकास के लिए होना चाहिए था, उनका इस्तेमाल नींद की गोलियों की तरह किया जा रहा है। यानी सुई का काम तलवार से।

ऑस्ट्रेलियाई सेना के ब्रिगेडियर ओलिवर डेविड जैक्सन की एक प्रचलित कहानी है। साठ के दशक में उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के बीच युद्ध चरम पर था। ब्रिगेडियर डेविड की अगुआई में आस्ट्रेलियाई सेना दक्षिणी वियतनाम की तरफ से जंग-ए-मैदान में थी। दुश्मनों ने एक रात आस्ट्रेलियाई सेना की एक टुकड़ी के सभी जवानों पर एक साथ वार करके उन्हें मौत की नींद सुला दी। ब्रिगेडियर डेविड खुद किसी तरह बच गए। पर उस हृदयविदारक घटना इतने द्रवित हुए कि हृदयाघात हो गया। अस्पताल ले जाया गया। उन्होंने वहां एक साधु को देखा तो पूछा लिया, “आप यहां क्या कर रहे हैं?” उत्तर मिला, “मैं मरीजों को योगाभ्यास कराता हूं।“ ब्रिगेडियर डेविड ने अगला सवाल किया, “क्या मैं योग की बदौलत फिर से युद्ध के मैदान में खड़ा हो सकता हूं?”  इसके बाद जो हुआ, उससे उनका जीवन बदल गया। वे “योगनिद्रा” की बदौलत स्वस्थ हो गए और युद्ध के मैदान में जा खड़े हुए थे।

चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हो चुका है कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है। जरा सोचिए, इतनी प्रभावशाली योग विद्या का इस्तेमाल हम अपने संपूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य के लिए न करके केवल नींद के लिए करते हैं तो इसे क्या कहा जाए?  मेरे कई जानने वाले उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, अवसाद आदि गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। मैं जब उनसे पूछता हूं कि आप योगनिद्रा का नियमित अभ्यास करते हैं तो जबाव होता है कि हां, जब नींद नहीं आती है तो उसका प्रयोग कर लेता हूं। तुरंत ही नींद आ जाती है।

योगनिद्रा की तरह ही अजपा जप एक महान योग विधि है। इस पर भी दुनिया भर में अध्ययन किया गया। सिलसिला अब भी जारी है। इस योग विधि में शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव इन तीनों को एक साथ ही दूर कर देने की असीम शक्ति है। ऐसे में इसके सामान्य अभ्यास से ही नींद आ जाना मामूली बात है। पर जीवन में ऐसी उथल-पुथल मची रहती है कि हम इस बात पर विचार नहीं करते कि नींद क्यों नहीं आती है और क्या नींद न आने के कारणों का इलाज इस योग विधि से संभव है? नतीजा होता है कि हम छोटे लाभों के लिए बड़ा अवसर गंवा देते हैं और समस्या बढ़ती चली जाती है।

“अजपा जप” प्राणायाम और धारणा के बीच का उच्चतर योग कर्म है। यह जब सिद्ध होता है तो बिना जप किए जप होने लगता है। अंतर्ध्वनि खुद प्रकट हो जाती है। रामायण में प्रसंग है कि जब हनुमान जी सीती जी की खोज में जंगलों में भटक रहे थे तो उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। वह नींद में था। पर उसके मुख से राम नाम का मंत्र निकल रहा था। तब हनुमान जी अपने इष्ट श्रीराम को याद कर आराधना करते हैं। कहते हैं – हे प्रभु, ऐसी अवस्था मुझे भी प्राप्त हो जाए। उस राम नाम का संबंध श्रीराम से नहीं था। शास्त्रों में उल्लेख है और परंपरागत योग के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते भी हैं कि कृष्ण और राम नाम वाले तमाम मंत्र कृष्ण भगवान और मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के जन्म से पहले भी थे। खैर, अजपा जप में प्रयुक्त मंत्र की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि यह आधुनिक युग की अनेक बीमारियों की एक दवा हो सकती है। आध्यात्मिक चेतना का विकास तो होता ही है।

भ्रामरी प्राणायाम भी बेहद शक्तिशाली प्राणायाम है। पर इसका ज्यादातर प्रयोग नींद के लिए किया जाने लगा है। यह सच है कि यदि नींद न आ रही हो और इस प्राणायाम का अभ्यास कर लिया जाए तो नींद आने की संभावना प्रबल हो जाती है। पर भ्रामरी प्राणायाम का इसे बाईप्रोडक्ट कह सकते हैं। इस प्राणायाम में दम इतना कि अमेरिका के येल स्कूल ऑल मेडिसिन में अध्ययन हुआ तो पता चला कि यह त्वचा कैंसर से मुक्ति दिलाने में मददगार है। दरअसल, इससे पीनियल ग्रंथि उदीप्त होता है तो मिलेनिन का बनना बंद हो जाता है, जो त्वचा कैंसर की प्रमुख वजह है। योगशास्त्र में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र कहते हैं, जो मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने में सहायक है। इसलिए बच्चों को विशेष तौर से यह योगाभ्यास करने की सलाह दी जाती है। ताकि बौद्धिक विकास हो और जीवन में स्पष्टता आए।

योग की कोई विधि एलोपैथिक दवा नहीं कि किसी रोग की वजह से दर्द हुआ और एक दर्दनाशक टैबलेट खाकर उससे अस्थाई मुक्ति पा ली। शारीरिक स्वास्थ्य के संदर्भ में योग का पहला उद्देश्य तो है कि मानव शरीर रोगग्रस्त हो ही नहीं। यदि रोग हो ही गया और आधुनिक चिकित्सा पद्धति से रोग का कारण पता लगाकर  आयुर्वेदिक आहार के साथ समुचित योगाभ्यास कमाल का असर दिखाता है। कुल मिलाकर बात इतनी कि नींद क्यों नहीं आती, इसकी पड़ताल करके उससे मुक्ति पाने के लिए योग कर्म होना चाहिए। तभी योग की सार्थकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अनेक बीमारियों की एक दवा – “अजपा जप” योग

किशोर कुमार //

अजपा जप योग को लेकर विश्व के अनेक शोध संस्थानों में हुए शोधों के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। साबित हो चुका है कि यह योग साधना अनिद्रा के शिकार मरीजों के लिए ट्रेंक्विलाइजर है तो हृदय रोगियों के लिए कोरेमिन। यदि सामान्य कारणों से सिर में दर्द है तो यह दर्द निवारक दवा का भी काम करता है। हिस्टीरिया और उच्च रक्तचाप के मरीजों पर इसका सकारात्मक प्रभाव है। पर सबसे चमकारिक असर है मोटापे की वजह से उत्पन्न बीमारियों के मामलों में है। अनुसंधानों से साबित हो चुका है कि अजपा जप योग मनुष्य के शरीर की चर्बी को डीकार्बोनाइजेशन करके जला देता है। मनुष्य के शरीर की चर्बी जलने से जिन प्रमुख गंभीर बीमारियों से मुक्ति मिलती हैवे हृदयकिडनीडायबिटीजऔर ब्लड प्रेशर से संबंधित हैं।

योग-निद्रा” योग के बाद अजपा जप” एक ऐसी सरल मगर बेहद महत्वपूर्ण योग साधना हैजो आध्यात्मिक चेतना के विकास के साथ ही घातक बीमारियों से मुक्ति दिलाने में मददगार है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इस योग पर देश-विदेश के अनेक शोध संस्थानो के साथ अपने अनुसंधान के परिणामों के आधार पर कहा था – अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती हैवह स्वस्थ्यप्रसन्नशांतसौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है।

कुछ बीमारियां ऐसी भी हैंजिनका चिकित्सा शास्त्र में उपाय नहीं है। जैसेमानसिक विकार यानी वैमनस्यईर्ष्या आदि। योग-निद्रा की तरह ही अजपा की क्रिया मनोकायिक है। अजपा जप मन को नियंत्रित करता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुका है कि बीमारियों का कारण प्राय: मानसिक होता है। इसलिए योग विज्ञान दवाओं से पहले मन के उपचार पर बल देता है। अजपा जप शक्ति केंद्रों का भंडारगृह यानी सुषुम्ना नाड़ी में गर्मी पैदा करता है। इसके साथ ही बीमारियों पर वार शुरू हो जाता है।

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती जोर देकर कहते हैं कि अजपा का प्रयोग चिकित्सा की एक विधि के रूप में होना चाहिए। वह इस विधि का अनेक बार प्रयोग कर चुके हैं और हर बार आशातीत सफलता मिली। वह खुद भी और उनके गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती भी यह मानते रहे हैं कि प्राणमय कोश और मनोमय कोश के विकारों को दूर करने में एलोपैथिकआयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाएं असमर्थ हैं। इनका अचूक इलाज तो यौगिक क्रियाओं के जरिए ही होगा। खासतौर से अजपा के जरिए।

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