योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मन का दीप जले तो बने बात

किशोर कुमार

अयोध्या के भव्य दीपोत्सव पर सबकी नजर है। इस बार राम की पैड़ी पर इक्कीस लाख दीप जलाने का कीर्तिमान जो स्थापित होना है। हम सब जानते हैं कि दीपावाली की शुरूआत कैसे हुई थी और उसी दिन लक्ष्मी पूजन का विधान कैसे चल निकला। कार्तिक अमावस्या को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्जवलित करके खुशी का इजहार किया था। उसके बाद से ही दीपावली मनाई जाने लगी थी। और, इंद्र को धन-संपदा के मद में चूर मानते हुए दुर्वासा ऋषि ने श्रॉप दे दिया था कि लक्ष्मी जी की कृपा खत्म हो जाए तो लक्ष्मी पूजन की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। इसलिए श्रॉप मिलते ही लक्ष्‍मी पाताल लोक चली गईं तो सर्वत्र हाहाकार मच गया था। तब लक्ष्मी जी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया गया। कार्तिक मास की कृष्‍ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्‍या के दिन लक्ष्‍मी बाहर आईं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्‍या पर माता लक्ष्‍मी की पूजा होती है।    

इस पूरे घटनाक्रम को आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि दीपावली का उद्देश्य केवल दीयों और मोमबत्तियों से घर-आंगण को प्रकाशित करना भर नहीं है। यह उत्सव संदेश देता है कि हम सब खुद में व्याप्त अंतः ज्योति के दर्शन करें। यह अंतः ज्योति और कुछ नहीं, उस निराकार प्रभु का प्रकाश-स्वरूप ही है। दीप संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है दीप्यते दीपयति वा स्वं परं चेति। अर्थात् जो खुद प्रकाशित है और दूसरों को भी प्रकाशित करने में सक्षम है। वेद-वेदांग में इसे आत्मा का स्वरूप कहा गया है। श्रीराम भी ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे। इसलिए उनके चरण रज जहां भी पड़े, वहां की धरती धन्य होती गई, लोग धन्य होते गए। यही है सत्वगुण का प्रभाव। पर आम मानव के रूप में हम सब कैसे हैं? श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।।

आखिर श्रीराम को वनवास तो केकैयी के लोभ – मोह की वजह से ही हुआ था। अर्जुन को भी तो विषाद ही हो गया था। देखा न कि श्रीकृष्ण को उन्हें विषादमुक्त करने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। अपने आस-पास भी देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मानव पीड़ित है, अवसादग्रस्त है, तो इसकी वजह स्पष्ट है कि भौतिक प्रगति भी हमारे अशांत मन को सांत्वना प्रदान करने में सक्षम नहीं है। जैसे नमक या चीनी को पानी में मिलाते ही उसका स्वरूप बदल जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रभावों में आते ही सामान्य मानव का गुण-धर्म भी बदलते रहता है। ऐसी प्रक्रियाओं को आधुनिक विज्ञान के आलोक में जर्मनी के महान वैज्ञानिक रुडोल्फ जूलियस इमानुएल क्लॉसियस ने एंट्रॉपी कहा। पर हमारे संत-महात्मा वैदिककाल से गुणों और रसों के आधार पर इस परिवर्तन की विशद व्याख्या करते रहे हैं। सार एक ही कि विश्व में हर चीज़ विकृति की तरफ जाती है। पर संत-महात्मा इस स्थिति से उबरने के उपाय भी बतलाते रहे हैं, जिन्हें योग की भाषा में तरह-तरह से व्याख्या की गई है।

पर पहले एक प्रचलित कथा। यह कथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में कही जाती रही है तो ओशो ने इसे  शेख फरीद के संदर्भ में कहा। कथा चाहे किसी से संबंधित हो, पर इसका भाव आंखें खोलने वाला है। एक संत सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जा रहे थे। तभी उनके एक शिष्य ने सवाल कर दिया – ईश्वर कहां है और कैसा है? संत ने शिष्य से कहा कि नदी साथ चलो, सब कुछ पता चल जाएगा। वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी संत ने मजबूती से शिष्य का गला पकड़ लिया। शिष्य के प्राण अटक गए। थोड़ी देर बाद संत ने उसे मुक्त किया तो उसने राहत की सांस ली। पर बेहद नाराज हुआ। संत ने कहा, नाराजगी बाद में निकाल लेना। पहले यह बताओ को श्वांस अटका था तो मन में क्या ख्याल आ रहा था? शिष्य ने उत्तर दिया,

ख्याल? शिष्य ने कहा,  न कोई ख्याल था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। तब संत ने कहा – जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है। पर हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। इसलिए कि हरदम बहिर्यात्रा चलती रहती है। और बहिर्मन और अंतर्मन में सामंजस्य बैठे बिना मन का दीप कैसे जले? जीवन से अंधेरा  कैसे छंटे? इसलिए हम वृहदारण्यकोनिषद् की प्रार्थना “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय……” तो दोहराते रहते हैं और जीवन का अंधकार छंटने का नाम ही नहीं लेता।

सवाल है कि यह प्रार्थना फलित हो कैसे कि जीवन सुख-समृद्धि से भर जाए? योग में उपाय अनेक बतलाए गए हैं। पर महर्षि पतंजलि के एक सूत्र को भी जीवन में उतार लिया जाए तो बता बन जाए। महर्षि पतंजलि का सूत्र है – विशोका वा ज्योतिष्यती। यानी शोकातीत आलोक की अवस्था मन को नियंत्रित कर सकती है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की हैं – “नाद या भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित कर शांत अंतर्ज्योति की कल्पना करते हुए मन को स्थिर और नियंत्रित किया जा सकता है। अन्तर्ज्योति अत्यन्त शान्त, अविक्षुब्ध, निश्चल और प्रशांत होती है, इसमें तीखा प्रकाश नहीं होता है। गहन ध्यान में इसका अनुभव किया जा सकता है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। उनमें से एक है भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित करना, दूसरी है नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करना।“ तो आईए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे मन का दीप जलाकर खुद को समृद्ध बनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आयुष शिखर सम्मेलन : योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों का महाकुंभ

किशोर कुमार //

वेदों में आचार, व्यवहार, आध्यात्मिक जीवन, ज्योतिष आदि जीवन के विविध आयाम हैं तो स्वास्थ्य – चिकित्सा भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। सच कहिए तो चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों की जड़ें वेदों में निहित है। चिकित्सा की जितनी भी पारंपरिक प्रणालियों से हम सब वाकिफ हैं, उन सबका संबंध किसी न किसी देवता से माना गया है। वेद ग्रंथों में इसका उल्लेख जगह-जगह मिलता है। जैसे, चरक संहिता हो या सुश्रुत संहिता, दोनों में ब्रह्मा जी को ही प्रथम उपदेष्टा माना गया है। इसी तरह भगवान शिव आदियोगी तो हैं हीं, ऋग्वेद में उनका वर्णन एक चिकित्सक के रूप में भी मिलता है। अश्विनी कुमार तो देवताओं के चिकित्सक ही थे। इसी तरह सूर्य, सोम, वरूण आदि देवताओं का भी उल्लेख है।   

यह सुखद है कि भारतीय चिकित्सा की इन पारंपरिक प्रणालियों का विज्ञानसम्मत तरीके से संवर्द्धन करके उन्हें जनोपयोगी बनाने के लिए कोशिशें की जा रही हैं। सरकार पूर्व की मन:स्थिति से बाहर निकल कर इन विद्याओं के विकास के लिए गंभीर पहल कर रही है। पर इसके साथ ही एक सवाल भी है कि क्या उनका वास्तविक संवर्द्धन केवल सरकार के भरोसे संभव है? इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से ही इन विद्याओं के संवर्द्धन औऱ प्रसार में योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की भूमिका राजसत्ता से गुरूत्तर रही है। चिकित्सा की ये प्रणालियां आधुनिक युग की विशिष्ट मांग है। इसलिए जरूरी है कि गैर सरकारी स्तर पर भी वैज्ञानिक तरीके से इन विद्याओं का संवर्द्धन और प्रसार किया जाए।

इस बात को विस्तार देने से पहले स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक बहुप्रचारित प्रसंग। कन्याकुमारी स्थित समुद्र के तट पर पत्थर का एक टीला है। आजकल उसे विवेकानंद रॉक मेमोरियल कहा जाता है। शिव पुराण की कथा है कि माता पार्वती का पुण्याक्षी कन्याकुमारी के रूप मे जन्म हुआ था। बड़ी हुईं तो शिव जी से विवाह के लिए उसी रॉक पर बैठकर तपस्या की थी। स्वामी विवेकानंद अमेरिका में आयोजित विश्व धर्मसभा में भाग लेने जाने से पहले कन्याकुमारी गए तो समुद्र में तैरकर उसी रॉक पर जा पहुंचे थे। तीन दिनों तक लगातार तपस्या की। वहीं उन्हें प्रेरणा मिली थी कि भविष्य में जीनव का लक्ष्य क्या होना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए क्या करना है।     

हम जानते हैं कि किसी भी साधना में या व्यापक बदलाव के लिए क्रांति-बीज बोने हेतु शब्द का और स्थान का बड़ा महत्व होता है। योगियों ने समान रूप से महसूस किया कि दीर्घकालीन मानवी गतिविधियां स्थानीय तरंगों की प्रकृति को अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल देती है। दरअसल, जिस धरती पर पुण्य-कार्य होता है, वहां व्यापक रूप से सकारात्मक ऊर्जा तरंगों की प्रधानता होती है। आज भी कन्याकुमारी में उच्च चेतना के धरातल पर सकारात्मक ऊर्जा का सतत् प्रवाह स्पष्ट महसूस किया जाता है। यह सुखद है कि उसी धरती से चिकित्सा की पारंपरिक भारतीय प्रणालियों के संवर्द्धन और प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शंखनाद होने जा रहा है। तीन दिनों का अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन 27 – 29 जनवरी को होना है, जिसे योगियों, चिकित्सा विज्ञानियों और अनुंसधानकर्त्ताओं का महाकुंभ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। ऐसे में जाहिर है कि सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण स्थान से गुणीजन संदेश देंगे, भविष्य के लिए कुछ बेहतर करने की ठान लेंगे तो उसका असर दूर तक होगा।

अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन का उद्देश्य आयुष चिकित्सा प्रणालियों  यथा आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के विविध आयामों पर गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान और अर्थपूर्ण शैक्षणिक संवाद को बढ़ावा देना है। ताकि आयुष सेवाएं असरदार, विज्ञान की कसौटी पर खरी, किफायती और जनसुलभ बन सके। बात योग की करें तो इस शिखर सम्मेलन की गंभीरता का अंदाज इससे लगता है कि इसमें आसन, प्राणायाम से आगे की बात होनी है। मंथन इस बात को लेकर होनी है कि देश में बढ़ती मनोदैहिक बीमारियों के लिए योग की विधियों का समायोजन किस प्रकार किया जाए कि वे वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य हों। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के अंतर्संबधों को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित करके उसे जनसुलभ किस प्रकार बनाया जाए। आदि आदि।    

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग के विभिन्न पक्षों पर जितना शोध मौजूदा समय में हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह योग विज्ञान के लिए स्वर्णिम काल है। पश्चिमी देशों में शोध का फलक भारत की तुलना में कई गुणा बड़ा है। दो कारणो से। पहला तो यह कि उनके पास बुनियादी ढ़ांचा हमसे कहीं ज्यादा है। दूसरा यह कि वे जान गए हैं कि दुनिया में ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जो शरीर, मन और चेतना के विकास के लिए एक साथ काम कर सके। बावजूद, मानव जीवन के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां उनकी पहुंच नहीं बन पाई है। वे जीवन की कई घटनाओं के कारण और परिणाम के बीच संबंध जोड़ पाने में असमर्थ हैं।

पश्चिम के वैज्ञानिको के लिए आज भी यह रहस्य पूरी तरह सुलझा नहीं है कि संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वान रहे आचार्य देवसेन को जिस पुस्तक को पढ़ने में सात दिन लग गए थे, उसी पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने महज आधा घंटा में किस तरह कंठस्थ कर लिया था। आचार्य देवसेन ने अपने संस्मरण में लिखा है – “मैंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि आपने आधा घंटा में पूरा किताब कैसे याद कर लिया? तो उन्होंने उत्तर दिया,  ‘जब तुम शरीर द्वारा अध्ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते, तो तुम किताब से सीधे—सीधे जुड़ते हो तुम्हारी चेतना सीधे—सीधे स्पर्श करती है। तब आधा घंटा भी पर्याप्त होता है।“

हम जानते हैं कि योग की एक प्राचीन संस्कृति रही है। पर कालांतर में यह संन्यासियों और योगियों तक ही सिमट कर रह गई।  स्वामी रामतीर्थ के एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। स्वामी जी ने जापान के राजमहल में छोटे-से चिनार का पेड़ गमले में देखा तो हैरान रह गए। उन्हें यह जानकर और भी हैरानी कि वह पेड़ ढ़ाई सौ साल पुराना था। उन्होंने पूछा, “पेड़ जिंदा है क्या?” उन्हें बताया गया कि पेड़ जिंदा तो है, पर बढ़ नहीं सकता। इसलिए कि इसके नीचे की तीन जड़ें काटी जा चुकी हैं। यह सुनकर स्वामी रामतीर्थ ने कहा – लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। उसकी भी तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए वह जिंदा तो है। पर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहा है।

सवाल है कि जड़ें किसने काटी? इस पर फिर कभी। बहरहाल, हमें भारतीय संतों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी बदौलत समृद्ध योग की परंपरा बची रह गई। पर योग के मनीषियों के लिए यह चिंता का सबब बना हुआ कि दुनिया भर में फैले योग के अनेक कारोबारी अज्ञानता के कारण या व्यवसाय को आकर्षक बनाने के लिए योग विद्या के स्वरूप को विकृत कर दे रहे हैं। स्पष्टत: समय की मांग है कि हमें अपनी समृद्ध परंपरा को संरक्षित रखते हुए उसे उसी रूप में जनता तक पहुंचाने के लिए केवल सरकार के भरोसे नहीं रहकर गैर सरकारी स्तर पर ईमानदार कोशिशें करनी होगी। इस लिहाज से भी कन्याकुमारी में आयोजति अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन की महत्ता बढ़ जाती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives