महर्षि अरविंद : स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी

किशोर कुमार //

श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही पलायनवादी कैसे हो गए? अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में क्यों बैठ गए? एक सच्चा योगी के लिए इस तरह पलायन उचित है? आपने तो श्रीमद्भगवतगीता का सुंदर भाष्य लिखा है। क्या आपको स्मरण नहीं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पलायन न करने की शिक्षा दी थी? क्या आपको लगता हैं कि अब करने के लिए कुछ नहीं बचा? श्री अरविंद ने जवाब में बस इतना ही कहा था, “मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है।“

इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद देश के हालात बदले, परिस्थितियां बदलीं। देश आजाद हुआ और वह अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। दूसरी तरफ श्री अरविंद की 150वीं जयंती पर देश भर में न जाने कितने ही आयोजन हुए। स्वतंत्रता संग्राम और योग व अध्यात्म के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया गया। समय का पहिया घूमता गया और अब हम फिर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस और श्री अरविंद की जयंती मनाने के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी के मन में सहज सवाल हो सकता है कि श्री अरविंद ने ऐसा क्या किया था जो स्वाधीनता संग्राम में उनकी सीधी भागीदारी से बढ़कर था? वैसे, आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही सवाल करेंगी और इस पर चिंतन-मनन आध्यात्मिक आंदोलन को गति देकर प्रकारांतर से देश की सेवा करना होगा।

ओशो जब अपने शिष्यों को बता रहे थे कि धर्म और अध्यात्म से किस तरह राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, तो किसी शिष्य ने श्री अरविंद को लेकर सवाल कर दिया। वही सवाल पूछा जो हर पीढ़ी के लिए नया सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। ओशो प्रत्युत्तर में कहा था कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे। भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसके बारे में कोई लिखता भी नहीं।

सच है कि महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य स्थूल प्रयासों के पीछे सूक्ष्म प्रयास भी कार्यरत था। महर्षि अरविंद के योगदान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसलिए कि आत्मिक जागृति व उत्थान के बिना पूर्ण रूप से राष्ट्र की सेवा लगभग असंभव हो जाता है। निःस्वार्थ, सद्भावना और सकारात्मक ऊर्जा रखने वाले जितने भी अग्रणी और महान सेनानियों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि इन सबके पीछे अध्यात्म की शक्ति ही काम कर रही थी। महर्षि अरविंद ने भी अपने आध्यात्मिक बल से स्वतंत्रता संग्राम को प्राणवान बनाया था। स्वयं महर्षि अरविंद ने कहा था कि यह पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा।

जब देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो गया, तो महर्षि अरविंद ने उस दिन संदेश दिया था- ‘…अगस्त 15, 1947, स्वतंत्र भारत का जन्मदिन और दैवीय इच्छा से यह मेरा जन्मदिन भी है। आज देश स्वतंत्र जरूर हुआ है, पर भारतीयों को आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी बाकी है, जो कि भारत की एकता, अखण्डता, पुनरुत्थान और मानव सभ्यता की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। भविष्य में पूरी दुनिया भारत के आध्यात्मिक उपहार से पोषित हो सके तो बड़ी बात होगी। मानव की चेतना के जागरण और उसके आंतरिक विकास से ही सार्वभौमिक विकास संभव है। मैं आशा करता हूँ कि भारत आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा! वन्दे मातरम्।‘

हम जानते हैं कि अपने देश में हजार से ज्यादा वर्षों तक आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे है। पर उनके बीच कोई समन्वय नहीं बन पाया। महर्षि अरविंद कहते थे कि दरअसल, साधु-संतों ने वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति को लक्ष्य मान लिया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का संबंध-विच्छेद कर लिया। इसकी तात्कालिक वजह थी। उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा, जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाए रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा।

पर जब परिस्थितियां बदली, तब तक वे भूल चुके थे कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है। इसलिए अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, इस पूर्णता का प्रयोजन इसमें था कि इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाए तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें। खैर, यह सुखद है कि हमने महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती ऐसे समय में मनाई, जब दुनिया के कोने-कोने में भारतीय योग और अध्यात्म का डंका सुनाई देने लगा था। विभिन्न स्तरों पर विज्ञानसम्मत तरीके से वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। पर चिंताजनक बात यह है कि साधनाओं में योग-समन्वय का घोर अभाव दिखता है। कोई हठयोग में जुटा हुआ है तो जीवन से राजयोग गायब है। यही हाल बाकी योग पद्धतियों के मामलों में भी है। हालात ऐसे ही रहे तो आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हो जाएगी, जिसकी चिंता महर्षि अरविंद सदैव किया करते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सतत यौगिक व आध्यात्मिक साधना की दिव्य ऊर्जा के सूक्ष्म प्रभाव, असंख्य बलिदानों और निष्काम योगदानों से हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। पर इस बाह्य स्वराज से संतुष्ट हो जाने का कोई औचित्य नहीं। आंतरिक स्वराज का स्वप्न अभी अधूरा है और जैसा कि श्री अरविंद कहते थे कि पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा। इसलिए समन्वित योग साधना समय की जरूरत है। इसके बल पर ही भारत दुनिया भर के लिए आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा और यही महर्षि अरविंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्री अरविंद : आध्यात्मिक आंदोलन के ध्वजवाहक

किशोर कुमार

अपना देश आज एक तरफ आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो दूसरी ओर 150वीं जयंती पर आध्यात्मिक नेता, योगी और युगावतार महर्षि अरविंद को भी राष्ट्र याद कर रहा है, उन्हें नमन कर रहा है। स्वाधीनता आंदोलन में श्री अरविंद की भूमिका का उल्लेख इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में है। इस बात को रास बिहार बोस और सुभाष चंद्र बोस के वकतव्यों से समझा जा सकता है। रास बिहारी बोस ने टोक्यो से अपने रेडियो प्रसारण में उन क्रांतिवीरों को नमन किया था, जिनकी प्रेरक पुकार भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। उन्होंने ऐसे क्रांतिवीरों में श्री अरविंद का नाम प्रमुखता से लिया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी आजादी के इस निडर समर्थक के बड़े प्रशंसक थे।

पर इस लेख में उस महान स्वतंत्र्य वीर के आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा। युवापीढ़ी को जानना चाहिए कि इस महान स्वतंत्र्य वीर का जीवन-दर्शन क्यों बदला और उसकी भारतीय जनमानस की चेतना के विकास में कितनी बड़ी भूमिका रही। पर पहले एक उनसे जुड़ा एक रोचक प्रसंग। श्री अरविंद से किसी ने पूछ लिया कि आप भारत की स्‍वतंत्रता के संघर्ष में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे। फिर अचानक आप पलायनवादी कैसे हो गए कि सब छोड़कर आप पुदुचेरी में आँखें बंद करके बैठ गए? क्‍या आप सोचते है कि करने को कुछ नहीं बचा, या करने योग्‍य कुछ नहीं है? श्री अरविंद ने इसका जबाव कुछ यूं दिया था, “मैं पहले जो कर रहा था वह अपर्याप्त था। अब जो कर रहा हूं वह पर्याप्त है। जब मैं करने में लगा था तब मुझे पता नहीं था कि कर्म तो बहुत ऊपर-ऊपर है। उससे दूसरों को नहीं बदला जा सकता। दूसरों को बदलना हो तो स्वयं के भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है। स्वयं को जाने बिना कोई भी आंदोलन, कोई भी अभियान अधूरा है।“

यह बात थोड़ा ठीक से समझ लेने की है। वरना लगेगा कि श्री अरविंद वाकई पलायन कर गए थे। फिर तो यह समझना भी मुश्किल होगा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरू क्यों कहा था। दरअसल, प्रसिद्ध अलीपुर बम केस श्री अरविंद के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ था। उस केस में उन्हें एक साल के लिए अलीपुर सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया था। तब उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन किया था। उन्हें उसी दौरान भगवद् अनुभूतियां प्राप्त हुई थीं। यही टर्निंग प्वाइंट रहा। आत्म-दर्शन ज्यादा ही स्पष्ट हो गया। उनका जीवन बदल गया। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवन-रक्त है। यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध एवं सशक्त बना रहे तो सब कुछ ठीक है। सामाजिक, राजनीतिक, चाहे जिस किसी तरह की ऐहिक त्रुटियां हो, यदि खून शुद्ध है तो सब सुधर जाएंगे।  

श्री अरविंद ने पुडुचेरी में आश्रम बनाकर अपनी साधना के साथ प्रकारांर से इसी एजेंडे पर काम किया। वे पुडुचेरी गए तो थे अंग्रेजों के उत्पीड़न से बचने के लिए। पर आध्यात्मिक अनुभूतियां ऐसी हुईं कि योग औऱ अध्यात्म के जरिए आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के लिए जुट गए थे। उनका दर्शन योग व आधुनिक विज्ञान का समन्वय हो गया। फलत: मानवता के कल्याण के लक्ष्य पर आधारित समन्वित योग की गंगा-जमुनी बहने लगी। मानवीय चेतना शक्ति के विकास में इसकी गुरूत्तर भूमिका बन गई। वे मस्तिष्क को ‘छठी ज्ञानेन्द्रिय’ मानते थे और कहते थे कि शिक्षा की सार्थकता तभी है जब हम इसका सदुपयोग करना जान लेंगे। इसका परिणाम होगा कि जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों का साहसपूर्वक सामना करने की शक्ति आएगी।

वैदिक युग से कहा जाता रहा है कि मानव जीवन का उद्देश्य सत् चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति है। इन बातों के आलोक में श्री अरविंद की आध्यात्मिक अनुभूतियां इतनी बलवती हुईं कि वे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सत् चित्त एवं आनन्द के महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग एवं ध्यानयोग द्वारा प्राप्त किया सकता है। उन्होंने अपने ग्रंथ “गीता प्रबंध” में इस बात को विस्तार देते हुए लिखा – गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र ग्रंथ नहीं है। यह आध्यात्मिक जीवन का ग्रंथ है। वास्तव में यह ग्रंथ मूलत: योगशास्त्र है। यह जिस योग का उपदेश करता है, उसकी व्यावहारिक पद्धति का व्याख्यान भी इसी में है। इसमें जो तात्विक विचार आए हैं, वे इसके योग की व्यावहारिक व्याख्या करने के लिए ही लिए गए हैं। इसमें ज्ञान और भक्ति के भवन को कर्म की नींब पर खड़ा किया गया है और कर्म को भी जो कर्म की परिसमाप्ति है, उस ज्ञान में ऊपर उठाकर रखा गया है। कर्म का पोषण उस भक्ति द्वारा किया गया है जो कर्म की प्राण है और जहां से कर्म उद्भूत होते हैं।

यह सुखद है कि 150वीं जन्म शताब्दी वर्ष में श्री अरविंद की शिक्षाओं से जन मानस को प्रेरित करने के लिए विभिन्न स्तरों पर अनेक कार्यक्रम चलाए गए। भारत सरकार की पहल पर 12 से 15 अगस्त तक देश भर की 75 जेलों में आध्यात्मिक कार्यक्रम चलाए जा रहे है। ताकि श्री अरबिंद के दर्शन को अपनाकर कैदियों के जीवन में बदलाव लाया जा सके। इसके लिए केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से श्री अरविंद के जुड़ाव को ध्यान में रखते हुए देश भर में 75 जेलों की पहचान की थी। बीते चार दिनों से इन जेलों में कैदियों के बीच श्री अरबिंदो के दर्शन का व्याख्यान के साथ ही उन्हें योग और ध्यान के अभ्यास कराए जा रहे हैं। रामकृष्ण मिशन, पतंजलि, आर्ट ऑफ लिविंग, ईशा फाउंडेशन और सत्संग फाउंडेशन 23 राज्यों में योग, ध्यान और जेल के कैदियों को श्री अरविंद की शिक्षाओं को प्रदान करने में जुटे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही कहा था देश भर की जेलों को महर्षि अरबिंदो के जीवन पर कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए ताकि कैदियों को एक नई यात्रा शुरू करने में सक्षम बनाया जा सके।

हम सब ऐसे देश में जन्में और पले-बढ़े हैं, जहां ज्ञान मानव जाति के आरंभ से ही भरा हुआ रखा है। पर वैदिककाल जैसी ग्रहणशीलता और धारदार मेधा के बावजूद हमारा उच्चकोटि का ज्ञान तामसिक भार से दबा हुआ है। आइए, आज हम सब संकल्प लें कि संसार को आध्यात्मिकता, राष्ट्र को राजनीति चेतना और समाज को समन्वय की संस्कृति का ज्ञान देने वाले श्री अरविंद के जीवन से प्रेरणा लेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ये है भक्तियोग का जमाना !

IIकिशोर कुमारII

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हाल ही मनाया गया। हम सबने देखा कि कसरती स्टाइल के कथित हठयोग की नहीं, बल्कि समग्र योग की स्वीकार्यता दुनिया भर में तेजी से बढ़ती जा रही है। इनमें कर्मयोग और भक्तियोग भी शामिल हैं। जाहिर है कि बौद्धिक युग में भक्ति, भाव—साधना के मार्ग की तलाश शुरू है। ऐसे में राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का हाथ में श्रीमद्भगवतगीता लिए मौजूदा राष्ट्रपति से मिलने के निहितार्थ को समझा जा सकता है। श्रीमती मुर्मू तर्कशील महिला और कॉलेज की व्याख्याता रही हैं। पर विपत्तियों के पहाड़ इस कदर टूटते रहे कि बच्चों से लेकर पति तक असमय ही कालकलवित हो गए। यदि आध्यात्मिक अभिरूचि न होती और योग का सहारा न मिला होता तो कर्मयोगी की तरह शून्य से शिखर तक की यात्रा शायद मुश्किल होती। अब जबकि उनके हाथों में श्रीमद्भगवतगीता है तो यह सबके लिए बड़ा संदेश है कि कलियुग में जीवन की नैया हंसी-खुशी किस तरह पार लग सकती है।

भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ उनके इस वकतव्य के कोई सात दशक बीतते-बीतते पूर्वी देशों के वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार रहे हैं। इसलिए कि बुद्धि से जो—जो आशाएं बांधी गई थीं, वे सभी असफल हो गई हैं। जो हासिल करना था, वह बुद्धि से नहीं हासिल हुआ और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है। पश्चिमी देशों में तो काफी पहले ऐसी धारणा बलवती होने लगी थी। ओशो कहते थे कि आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, हम जो पढ़ रहे हैं, उससे क्या होगा? क्या मिल जाएगा? और पिताओ व गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। आज पश्चिम में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं।

बर्ट्रेड रसेल बीसवीं शदी के प्रख्यात दार्शनिक, महान गणितज्ञ और शांति के अग्रदूत थे। इन्हें मानवता से प्रेम था और वे जीवनपर्यंत युद्ध, परमाणविक परीक्षण एवं वर्णभेद का विरोध में लड़ते रहे। जंगल में गए थे तो जीवन में पहली बार आदिवासियों को पूरी तन्मयता से नाचते देखा। लौटकर अपनी डायरी में लिखा – काश! वैसा नृत्य मैं भी कर पाता। मैं अपनी सारी बुद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हूं। अगर चांदनी रात में वैसा ही उन्मुक्त गीत मैं भी गा सकने में सक्षम होता। यह किसी तरह से महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भले न हो, करना. बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना जटिल है।   

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं।

संतों का मानना है कि आध्यात्मिक चेतना का विकास ही मनुष्य की नियति है। निम्न वासनाओं और कामनाओं के दायरे में सीमित रहना हमारी नियति नहीं है। महर्षि अरविंद का इस विषय पर सुंदर और तार्किक व्याख्यान है। वे कहते थे कि आने वाले युग में दिव्य चेतना मानव जीवन में अवश्य प्रकट होगी। कोई चाहे, न चाहे, मगर यह होकर रहेगा। यही मानवता की निर्धारित नियति है। शायद यही कारण है कि आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा है। वे बौद्धिकता व तार्किकता को पार कर आध्यात्मिक आयाम के प्रवेश-द्वार पर खड़े दिखते हैं। इस बात को ऐसे समझिए।  

जब-जब रथयात्रा का समय आता है, मीडिया में जगन्नाथ मंदिर से जुड़े रहस्यों की चर्चा होती ही है। जैसे, मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत उड़ता है। मंदिर पर लगा वजनी सुदर्शन चक्र को शहर के किसी भी हिस्से से देखा जाए तो सीधा ही दिखता है। मंदिर के गुंबद की बात कौन कहे, आसपास भी कोई पक्षी नहीं फटकती। सूर्य चाहे पूरब में रहे, मध्य में रहे या पश्चिम में, मंदिर के सबसे ऊंचे गुंबद की भी परछाई नहीं बनती। मंदिर के मुख्य द्वार सिम्हद्वारम् के पास तो समुद्र की गर्जना सुनाई देती है। पर मंदिर में कदम रखते ही, आवाज आनी बंद हो जाती है। आदि आदि। आज के युवाओं को इस सूचना मात्र में रूचि नहीं है। वे इसके पीछे का विज्ञान जानना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर नजर डालिए तो अनेक युवा यह जानने को आतुर दिखते हैं कि पुरी में जगन्नाथ मंदिर के गुंबद का ध्वज हवा की विपरीत दिशा में क्यों फहराते रहता है और नरसिंह स्वामी पोटेशियम साइनाइड खा कर भी जिंदा कैसे रह गए थे? 

बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी. वी. रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए थे। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ था। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

अब सवाल है कि हमारी बदलती सोच क्या भक्ति युग के आगमन की आहट है? सिद्ध संतों की आत्मानुभूतियों और यौगिक अनुसंधानों की दिशा-दशा इस बात की गवाही दे रही है। संकेतों के आधार पर कहना होगा कि इस शताब्दी में भक्ति भावना और भक्तियोग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

: News & Archives