योग का फैलता क्षितिज और बढ़ता सम्मान

किशोर कुमार

भारत में पिछले एक दशक के दौरान सरकारी स्तर पर योग को जितनी अमहमित मिली, वह अभूतपूर्व है। सन् 2014 में योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुर्नस्थापित करने के बाद से भारत सरकार अक्सर ऐसे फैसले लेती है, जिनसे न केवल योगियों और योग संस्थानों का सम्मान बढ़ता है, बल्कि योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार भी होता है। 75वें गणतंत्र दिवस के मौके पर भी दुनिया ने देखा कि “योग से सिद्धि” झांकी और फ्रांस में वैदिक योग विद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार करने वाले 100 वर्षीय योग गुरू चार्लोट चोपिन और भारतीय मूल के फ्रांसीसी योगाचार्य 79 वर्षीय किरण व्यास को पद्मश्री से नवाज कर किस तरह योग को अहमियत दी गई। इतना ही नहीं, देश के विभिन्न राज्यों के 291 योग प्रशिक्षकों को सपरिवार गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए न्योता गया था, जो देश भर में जमीनी स्तर पर योग के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान देते हैं।

पहले बात पद्मश्री से सम्मानित योगियों की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते साल जुलाई में जब फ्रांस गए थे तो पेरिस में प्रसिद्ध फ्रांसीसी योग शिक्षक सुश्री चार्लोट चोपिन से मुलाकात की थी। फिर ट्वीट करके सुश्री चोपिन की भारतीय योग व अध्यात्म के प्रति गहरी आस्था और फ्रांस में योग को बढ़ावा देने के लिए उनके अभूतपूर्व योगदान की सराहना की थी। सुश्री चोपिन ने श्री मोदी को बतलाया था कि फ्रांस में योग कितना समृद्ध हुआ है। साथ ही बतलाया कि योग खुशी ला सकता है और समग्र कल्याण को बढ़ावा दे सकता है, ये बातें फ्रांस के लोगों के लिए अब सैद्धांतिक बातें नहीं रह गईं हैं।

गुजरात में जन्मे और पले-बढ़े फ्रांसीसी योगी किरण व्यास की अनेक उपलब्धियों में एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि उनके कारण ही यूनेस्को तक योग की पहुंच बन पाई थी। इसकी भी मजेदार कहानी है। उन दिनों श्री व्यास यूनेस्को में शैक्षणिक क्षेत्र में काम करते थे। यूनेस्को के महानिदेक थे अमादौ-महतर एम’बो। कुछ खास मेहमानों के लिए एम’बो के घर डिनर पार्टी रखी गई तो एम’बो की पत्नी के विशेष आग्रह पर किरण व्यास भी उस पार्टी में शरीक हुए। पर उनके मन में यह सवाल बना रहा कि दिग्गजों की पार्टी में उन जैसे सामान्य कर्मचारी को क्यों न्योता गया था? रहा न गया तो पार्टी के बाद मन की बात जाहिर कर दी। श्रीमती एम’बो ने जो कुछ कहा, उससे योग विद्या की शक्ति का पता चलता है। उन्होंने कहा कि आप पास होते हैं तो एम’बो कठिन परिस्थितियों में भी बहुत शांत महसूस करते हैं, और खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं। किरण व्यास ने उन्हें बताया कि शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे योगाभ्यास करते हैं। इस पर श्रीमती एम’बो ने उसने पूछा कि योग क्या है? जब उन्होंने योग विद्या के बारे में बताया तो एम’बो दंपति बेहद प्रभावित हुए और इस तरह यूनेस्को मुख्यालय में योग शिक्षा की बुनियाद पड़ गई थी।

अब बात योग से सिद्धि की। महान योगी श्रीराम शर्मा आचार्य कहा करते थे कि साधना का अर्थ है अपने आपे को साधना और इसका क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे-गढ़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसंपन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्म-सम्मान क्यों गँवाया जाए? और भारत तो अलौकिक प्रतिभा संपन्न योगियों की ही भूमि है। हम सबने पढ़ा है, सुना है तैलंग स्वामी के बारे में। उन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था। उनसे जुड़ी चमत्कारिक कहानियों का उल्लेख बनारस गजेटियर में भी है। अपने योग बल से 280 वर्षों तक एक ही शरीर धारण किए रहे। लाइलाज बीमारियां उनकी दृष्टि पड़ते ही ठीक हो जाती थी। काशी राजा के अंग्रेज अधिकारी ने नाव से यात्रा करते समय तैलंग स्वामी को गांगाजी में जल के सतह पर पद्मासन लगाए देखा तो उन्हें अपनी नाव में बैठाकर कुछ बात करनी चाही। नाव में सवार होने के कुछ क्षण बाद ही स्वामी जी ने अफसर से देखने के लिए उसकी तलवार मांगी। पर तलवार गंगा जी में गिर गई। जाहिर है कि अफसर बेहद नाराज हुआ। तब स्वामी जी ने गांगा जी में हाथ डाला और उनकी हाथ में तीन तलवारें आ गईं। स्वामी जी ने कहा, इनमें से जो तुम्हारी हो उसे पहचान कर ले लो। यह चमत्कार देख कर अफसर तो भौचक्का रह गया और अपने अपराध के लिए क्षमा मांग ली थी।  

गणतंत्र दिवस समारोह में योग से जिस सिद्धि की बात कही गई थी, निश्चित रूप से उनका अभिप्राय ऐसी सिद्धियों से नहीं था। किसी भी युग में ऐसी सिद्धियां हर किसी के वश की बात रही भी नहीं होगी। जिस  सिद्धि की बात की गई, वह स्वस्थ्य काया और शारीरिक-मानसिक संतुलन के संदर्भ में थी। हम सब ने योगबल का जादू देखा भी कि फौजी महिलाएं किस तरह कठिनतम काम आसानी से कर पा रही थीं। गणतंत्र दिवस समारोह के लिए कई-कई दिनों तक अभ्यास होता है। इस अभ्यास के दौरान भी योगाभ्यास अनिवार्य रूप से शामिल था। संदेश यही दिया गया कि आधुनिक युग में सबके लिए योग जरूरी है। ताकि काया स्वस्थ रहे और शारीरिक-मानसिक संतुलन बना रहे, जो श्रेष्ठ भारत के सपने को साकार करने के लिए बेहद जरूरी है।  

यह सुखद है कि केंद्र सरकार ने योगासन को खेल विधा के रूप में भी मान्यता दी है और इसे प्राथमिकता श्रेणी में रखा है। योग को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। कई विश्वविद्यालयों ने पाठ्यक्रम में योग को शामिल कर लिया है। आयुष मंत्रालय ने वन-स्टॉप स्वास्थ्य समाधान के रूप में नमस्ते योग ऐप प्रस्तुत कर चुका है, जो लोगों को योग से संबंधित जानकारियों, कार्यक्रमों और योग कक्षाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाता है। इसी तरह, योग का लाभ दुनिया भर में पहुंचाने के लिए वाई-ब्रेक और डब्ल्यूएचओ-एम योगा भी लॉन्च किया गया है। देश भर में आयुष स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र खोले गए हैं। योग इन केंद्रों का महत्वपूर्ण हिस्सा है और शिक्षक/प्रशिक्षक योग को जमीनी स्तर तक ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

भारतीय योग विद्या को बढ़ावा देने और योग का सम्मान करने की दिशा में भारत सरकार जिस तरह आगे बढ़कर काम कर रही है, वह प्रशंसनीय है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है श्रीमद्भगवत गीता

तमिलनाडु के त्रिचि में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।

युवाओं और विद्यार्थियों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता की महत्ता के बारे में तो हमारे वैज्ञानिक संत सदियों से बतलाते रहे हैं। आधुनिक युग में विज्ञान भी विभिन्न प्रयोगों के जरिए इस निष्कर्ष पर है कि तेजी से अवसाद के शिकंजे में फंसती युवापीढ़ी को श्रीमद्भगवद् गीता का ज्ञान ही उस भंवर से निकालने में सक्षम है। ऐसे में दक्षिण के महान आध्यात्मिक नेता स्वामी चिद्भवानंद जी का युवाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया श्रीमद्भगवद् गीता का भाष्य समयानुकूल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस भाष्य के किंडल संस्करण का लोकापर्ण करते हुए ठीक ही कहा कि महाभारतकालीन स्थितियां और परिस्थितियां भले भिन्न थीं। पर परिणाम एक जैसे हैं। मानवता संघर्षों और चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे समय में श्रीमद्भगवद् गीता में दिखाया गया मार्ग प्रासंगिक हो जाता है।

तमिलनाडु के त्रिचि जिले में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। कर्मयोगी थे। अपने गुरू स्वामी शिवानंद की प्रेरणा से तमिलों को वैदिक ज्ञान से अवगत कराने और राज्य के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए अतुलनीय कार्य किया था। तमिलनाडु में आज भी उनके 18 आश्रमों के जरिए 80 शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग उम्र के लोगों को ध्यान में रखकर श्रीमद्भगवत गीता का बेहद शक्तिशाली भाष्य लिखा।

किंडल फार्मेट में जारी किए गए श्रीमद्भगवत गीता में बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है कि जब जीवन का पथ काले घने बादलों से अदृश्य-सा प्रतीत हो रहा होता है तब भी जीवन में नई ऊर्जा के संचार के तत्व मौजूद होते हैं और उन्हें आत्मसात करके भवसागर को पार किया जा सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के आलोक में उनकी यह बात संदेह से परे है। कल्पना कीजिए यदि अर्जुन को रणभूमि में विषाद न हुआ होता तो शक्तिशाली गीता का ज्ञान मिला होता, जो उसे ही नहीं, बल्कि सदियों से मानव जाति की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। सच कहिए तो श्रीमद्भगवत गीता ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है। यह महज ग्रंथ नहीं, बल्कि मनुष्य के नित्य जीवन को व्यवस्थित करने वाला पथ-प्रदर्शिका है। इसका मार्ग सरल है। हर उम्र, हर वर्ग के लोगों के लिए सहज ग्राह्य है। इसलिए इससे प्रेरणा लेकर कर्मयोग के जरिए चित्त-शुद्धि का द्वार खोला जाना चाहिए। जीवन के सारे बंद दरवाजे स्वत: खुलने लगेंगे।

पश्चिमी दुनिया में योग के पितामह माने जाने वाले परमहंस योगानंद ने कोई एक सौ साल पहले आज जैसी परिस्थितियों के शिकार युवाओं को संबोधित करते हुए साफ-साफ कहा था कि विकल्प नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को कुरूक्षेत्र की अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है। यह युद्ध मात्र जीतने के योग्य ही नहीं, अपितु विश्व के दिव्य नियम और आत्मा व परमात्मा के शाश्वत संबंध में है। यह एक ऐसा युद्ध है, जिसे कभी तो जीतना ही होगा। श्रीमदभगवत् गीता में इस जीत की शीघ्रतम प्राप्ति उस भक्त के लिए सुनिश्चित की गई है जो बिना हतोत्साहित हुए ध्यान-योग के दिव्य विज्ञान के अभ्यास द्वारा परमात्मा के भीतरी ज्ञान-गीत को अर्जुन की भांति सुनना सीखता है।

पर मन में उपद्रव है तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ जा सकता है? और यदि ऐसी स्थिति पाना संभव न हो तो धारणा और ध्यान का अभ्यास कैसे फलित होगा? इस संदर्भ में प्रश्नोपनिषद् का एक प्रसंग ध्यान देने योग्य है। कात्यायन ऋषि के प्रपौत्र कबंधी महर्षि पिप्पलाद के समक्ष इस विश्वास के साथ गए थे कि वे उनके मार्ग की तमाम बाधाएं दूर कर देंगे। पर उन्होंने महर्षि पतंजलि की भाषा में कहें तो पहले यम और नियम का पालन करने का आदेश देते हुए कहा कि इसके बिना उनके सवाल का जबाव नहीं मिल पाएगा। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस बात को बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है। वे कहते हैं कि यम – नियम योग का आधार है और कर्मयोग गीता का महान संदेश। विक्षिप्त और बिखरावपूर्ण मानसिकता को कर्मयोग के अभ्यास के जरिए ही अवक्रमित किया जा सकता है। पर इसके पहले हमें अपनी ऊर्जा को संतुलित करना होगा। अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को व्यवस्थित करना होगा। साथ ही अपने ऊपर थोड़ा संयम का अंकुश रखना होगा। ऐसी स्थितियों को प्राप्त करना यम-नियम का पालन करके ही संभव है। कर्मयोग भी तभी फलित होगा।

यह निर्विवाद है कि कर्मयोग जीवन पद्धति बन जाने पर आदमी बहुत हद तक सुख-दु:ख में समभाव बना रहता है। इससे चेतना का बेहतर विकास होता है। यदि संस्कारों का क्षय हुआ तो चमत्कार भी हो जाता है। इसे इस तरह समझिए। चैतन्य महाप्रभु दक्षिण में तीर्थ-यात्रा पर थे तो देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है और पास ही बैठा एक आदमी रोए जा रहा है। उन्होंने रोते हुए व्यक्ति से पूछा,” रो क्यों रहे हो?” उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिया, वह असामान्य था, आंखें खोलने वाला था। उसने कहा, “यह दु:ख के नहीं, सुख के आंसू हैं। मैं देख रहा हूं कि अर्जुन का रथ है। उसके सामने भगवान और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हैं। भगवान का साक्षात दर्शन हो रहा है।“ शायद इसलिए आध्यात्मिक गुरू कहते रहे हैं कि गीता केवल किताब से नहीं पढ़ी जाती। आसक्ति दूर होने और श्रद्धा की प्रबलता होने पर मन के पार किए गए इशारे, उसके वास्तविक आशय समझ में आने लगते हैं।

स्वामी चिद्भवानंद जी के भाष्य में भी संकटकाल में जीवन में नई ऊर्जा के संचार के लिए कोई न कोई तत्व भी मौजूद रहने की बात का आशय भी योग की इन विधियों को अपना कर भवसागर को पार करने से ही है। उनके भाष्य में अनियंत्रित मन के कुप्रभावों और मन का स्वामी बनने के सरल उपाय सुझाए गए हैं। उस पुस्तक पर मनन और तदनुरूप कर्म अवसादग्रस्त युवाओं खासतौर से विद्यार्थियों का जीवन बदल देने में सक्षम है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

जब परमहंस माधवदास की हालत रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी

मुंबई से शुरू होकर दुनिया अनेक देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” ने अपने संस्थापक योगेंद्र जी के सपनों को साकार करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। 100 साल से भी ज्यादा पुराने इस संस्थान में यौगिक विधियों से विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार के लिए अनेक शोध-कार्य किए गए। इनमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों की भी सहभागिता रही। पर हाल के वर्षों में हृदय रोगियों को यौगिक क्रियाओं से पुरानी अवस्था में ले जाने संबंधी शोध कमाल के साबित हुए हैं। बेहतर योग शिक्षा के मामले में धाक् ऐसी जमी है कि 21 देशों के छात्र एक ही छत के नीचे योग विद्या हासिल कर रहे हैं। यह पहला योग संस्थान है, जिसे भारत सरकार के क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से मान्यता मिली । योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संस्थान को प्रधानमंत्री योग पुरस्कार से सम्मानित किया ।   

ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स दादाभाई नरौजी के दामाद और पेशे से अभियंता होमी डाडिना शारीरिक रूप से अशक्त हो गए थे। न धन की कमी थी, न प्रभाव कम था। दुनिया का बेहतरीन इलाज उपलब्ध था। पर बात नहीं बन पा रही थी। मुंबई विश्व विद्यालय के कुलपति आरपी मसानी को बात समझ में आ गई थी कि योगाचार्य के रूप में तेजी से उभर रहे मणिभाई हरिभाई देसाई की प्रतिभा असाधारण है। लिहाजा उन्होंने मणिभाई को होमी डाडिना से मिलवाया। डाडिना तो स्वस्थ्य हुए ही, उनके साथ ही अनेक लोगों को बीमारियों से मुक्ति मिल गई। इसके साथ ही भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले “द योगा इंस्टीच्यूट” की स्थापना की बुनियाद पड़ गई और कम समय में मणिभाई योगेन्द्र जी के नाम से दुनिया में मशहूर हो गए थे।

भृगुसंहिता में कहा गया है कि नियति का निर्माण पहले “काल” में होता है। यानी घटना पहले “काल” में घटती है। उसके बाद अंतरिक्ष में। फिर “देश” में। योगेंद्र जी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। ऐसा लगा मानों पटकथा पहले लिख दी गई हो। उनके पिता हरिभाई देसाई अपने लाडले को सिविल सर्विस में देखना चाहते थे। दो कारणों से ऐसा भरोसा बना था। पहला तो यह कि अमलसाड इंग्लिश स्कूल में मणिभाई की गिनती मेघावी छात्रों में होती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने नियमों में बदलाव करके सिविल सेवा भारतीयों के लिए खोल दिया था। पत्नी के परलोक गमन के कारण बेटे के सहारे जिंदगी जीना चाहते थे। पर मणिभाई तो योगी बनकर जन्मे थे। सो सिविल सर्विस में जाने की बात कौन कहे, कालेजी पढाई भी रास नहीं आई थी। अवचेतन का आध्यात्मिक संस्कार प्रकट होने लगा तो महान योगी परमहंस माधवदास जी का सानिध्य मिल गया।

बंगाल में जन्मे परमहंस माधवदास जी के शिष्य तो कई थे। पर उनकी मणिभाई पर विशेष कृपा थी। साथ खिलाते और साथ साधना कराते थे। जिस तरह नरेन (स्वामी विवेकानंद) को देखते ही रामकृष्ण परमहंस की आंखों में आंसू आ गए थे और बरबस ही बोल पड़े थे, “नरेन तू आ गया। मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था।“ लगभग वैसा ही मणिभाई के साथ हुआ था। कहते हैं न कि हर गुरू को योग्य शिष्य की तलाश होती है। मणिभाई परमहंस माधवदास के पास पास पहुंचे तो उनकी भी स्थिति कुछ रामकृष्ण परमहंस जैसी ही हो गई थी। दूसरी तरफ योग्य गुरू की दृष्टि पड़ते ही मणिभाई के भीतर का संत भाव प्रकट हो गया। वे आश्रम में बीमारियों से मुक्ति के लिए आए लोगों का स्वतंत्र रूप से यौगिक उपचार करने लगे थे। वस्त्र धौती कराते हुए एक महिला की जान पर बन आई थी। पर लोगों ने देखा कि मणिभाई ने कठिन समय में भी कितनी कुशलता से स्थिति को संभाला लिया था और महिला स्वस्थ हो घर लौटी थी।

कोमल हृदय वाले मणिभाई की योग-दृष्टि स्पष्ट थी। वे स्वामी विवेकानंद और उनके वेदांत दर्शन से बेहद प्रभावित थे। पर योगविद्या का प्रथमत: उपयोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए करना चाहते थे। वे जानते थे कि धार्मिक कारणों और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों के कारण हाशिए पर डाल दी गई योगविद्या को को पीड़ित मानवता की सेवा करते हुए ही पुनर्स्थापित किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में हठयोग की कुछ विधियां खेलकूद के तौर पर जीवित थीं। सामाजिक स्थिति को देखते हुए मणिभाई को लगा कि अष्टांग योग को मूल रूप में स्वीकार्यता दिलाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर मुख्य चौरासी आसनों में से तेरह आसनों का चयन किया और अलग-अलग बीमारियों के लिहाज से उन्हें प्राणायाम से जोड़कर नई योग विधियां तैयार की। इसके अलावा हठयोग के शुद्धिकरण की कुछ क्रियाओं का समावेश किया। फिर इन योग विधियों की वैज्ञानिकता को प्रमाणित किया किया तो लोगों को बात सहज ही समझ में आई। 

मणिभाई को आश्रम से बाहर योगोपचार के लिए जो पहला मरीज मिला था, वह कोई और नहीं, बल्कि होमी डाडिना ही थे। डाडिना स्वस्थ हुए और मणिभाई से इतने प्रभावित हुए कि अपने ही घर का एक हिस्सा योग केंद्र चलाने के लिए दे दिया। योग केंद्र पर होने वाले खर्चों की जिम्मेवारी भी खुद ही ले ली। सन् 1918 का 25 दिसंबर था। पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम थी। उसी दिन मुंबई के पास वर्सोवा में “द योगा इंस्टीच्यूट” का श्रीगणेश हो गया। चूंकि खर्च अकेले डाडिना वहन कर रहे थे, इसलिए मणिभाई ने योग प्रशिक्षण और योगोपचार बिल्कुल मुफ्त कर दिया। बेहतर नतीजे मिलने लगे तो ख्याति विदेशों तक फैल गई। अमेरिका से, यूरोप से लोग आने लगे। जगह कम पड़ गई। अमेरिकी चाहते थे कि ऐसा केंद्र उनके देश में भी खुले। जिस तरह इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन बीकेएस आयंगार के दीवाने बनकर उन्हें पश्चिमी दुनिया में पहुंचा दिया था। लगभग उसी तरह डाडिना मणिभाई को लेकर अमेरिका गए और वहां योग केंद्र स्थापित करने में मदद की।

मणिभाई अमेरिका से लौटे तो सन् 1923 में अपना नाम बदल लिया। अब वे योगेंद्र जी बन गए। इसका कारण तो ज्ञात नहीं। पर इसके बाद उन्होंने योग विद्या को जनोपयोगी बनाने के लिए अपने अध्ययनों और शोधों के आधार पर कई सुधारवादी कदम उठाए। योग साधना से महिलाओं को जोड़ा। कई शोध प्रबंध लिखे। इस तरह उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हठयोग को प्रभावशाली बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी अतुलनीय योगदान का नतीजा है कि “द योगा इंस्टीच्यूट” बीते सौ सालों में कई देशों में भी पांव पसार चुका है। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा की बदौलत ही यह संस्थान प्रधानमंत्री पुस्कार का हकदार बना। कोरोनाकाल में खासतौर से लॉकडाउन के दौरान लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए इसके प्रशंसनीय कार्यों से लाखों लोग लाभान्वित हुए। आज जबकि योग सबकी जरूरत बन चुका है और योगविद्या रोजगार या स्वरोजगार के लिए अहम बन गई है, योगेंद्र जी के कार्यों, उनके आदर्शों से नई पीढी को बेहतर प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है। इसलिए कि मानसिक उथल-पुथल ज्यादा है। पर आमतौर पर ध्यान के नाम पर जो भी अभ्यास किया या कराया जाता है, वह वास्तव में ध्यान नहीं होता, ध्यान जैसा होता है। पश्चिमी देशों में अब तक तनावों पर ध्यान के प्रभावों को लेकर जितने भी अध्ययन किए गए, उन सबमें प्रत्याहार की विधियां उपयोग में लाई गईं। पर कहा गया है ध्यान। दरअसल, प्रत्याहार राजयोग की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया और ध्यान की अवस्था तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। उसके सधे बिना जो ध्यान है, उसे बगुला ध्यान कहना चाहिए। ….और बगुला ध्यान से भला मानसिक उथल-पुथल रूकना कैसे संभव है? विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

योग शास्त्र के मुताबिक, तनाव तीन प्रकार के होते हैं – स्नायविक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक। पर इन तीनों ही तनावों का असर एक दूसरे पर होता ही है। स्नायु तंत्र मस्तिष्क, हृदय और शरीर के अन्य अंगों को प्राण-शक्ति पहुंचाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में शक्ति वितरित करता है। उत्तेजना स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिसके कारण कुछ अंगों में अध्यधिक ऊर्जा भेज दी जाती है और कुछ अंग आवश्यक ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। तंत्रिका-शक्ति में उचित वितरण की कमी ही मानसिक अशांति का मूल कारण बनती है।

आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए जान-पहचाना योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

प्राणायाम ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी वजह से आंशिक रूप से नष्ट हुईं तंत्रिकाओं में प्राण-शक्ति भेजकर मानसिक अशांति के कारण नष्ट हुए उत्तकों (टिश्यूज) को पुनर्जीवित किया जा सकता है। कोरोना काल में फेफड़े को दुरूस्त रखने में प्राणायाम की भूमिकाओं से तो अब ज्यादातर लोग वाकिफ हो चुके हैं। उसका संबंध भी मन से है। स्वात्माराम की हठप्रदीपिका के मुताबिक राजयोग साधने कि लिए हठयोग अनिवार्य है।

महानिर्वाण तंत्र, रूद्रयामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों के मुताबिक शिव ही योग के आदिगुरू हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं जिससे मन काबू में आ सके।“ शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता की इनती विधियां बतलाई थी कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई थी। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है।  

ध्यान अपने ही भीतर किसी निर्जन द्वीप जैसे स्थल की खोज का मार्ग है। दुनिया के सारे धर्मों के बीच बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। वह है ध्यान। इस बात पर सबकी एक राय है कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। परमात्मा तक अगर कोई भी कभी भी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर – कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता का अनुभव किया, उसने अपने ही भीतर डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।  —-ओशो

दरअसल, अर्जुन के मन में इतना उपद्रव था कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही मुश्किल हो गया था। उसने यह बात श्रीकृष्ण को बतला दी थी। कहा – “मन बड़ा उपद्रवी, शक्तिशाली और हठी है। मन को वश में करना उतना ही कठिन है, जितना वायु को।” श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में इसका उल्लेख है। जबाव में श्रीकृष्ण ने जो कहा था, वह समग्र योग की बात है। उन्होंने यह नहीं बताया कि केवल आंखें मूंदकर बैठ जाने से ध्यान लग जाएगा और मन वश में हो जाएगा। उनके उपायों में यम-नियम की बात है तो प्राणायाम की भी बात है। परमहंस योगानंद ने लिखा है कि भारत के ऋषियों ने अपनी साधना की बदौलत यह ज्ञान हासिल कर लिया था कि श्वास पर नियंत्रण करके मन पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। वैज्ञानिक विधि से की गई यह साधना से रक्त को पर्याप्त आक्सीजन उपलब्ध होता है और कार्बन डाइऑक्साइड हट जाता है। लेकिन फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास रोक लेने से इसके उलट परिणाम मिलने लगते हैं। तब मन चंचल रहेगा और प्रत्याहार संभव नहीं।   

कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी कुवल्यानंद कहते थे कि क्लेश न तो केवल मानसिक है, न शारीरिक। वह मनोकायिक प्रक्रिया है। उससे मुक्ति पाने का सबसे उत्तम उपाय है कि उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाए। एक तरफ से यम व नियमों के द्वारा और दूसरी तरफ से आसन व प्राणायाम के द्वारा। इन क्रियाओं से मन के क्लेश पर नियंत्रण हो जाएगा तो ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों का विनाश कर देगा।    

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया है कि शारीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौराएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को व्यवस्थित करने के लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवध्यानम सरस्वती कहते हैं – प्रति  + आहार = प्रत्याहार। माया के पीछे बाह्य जगत में भटकती इंद्रियों और मन को खींचकर अपने भीतर विद्यमान चेतना, ज्ञान व आनंद के स्रोत से जोड़ देना प्रत्याहार है। राजयोग का यही मुख्य प्रयोजन है। इसलिए राजयोग के आठ अंगों में प्रत्याहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्याहार सिद्ध होता है तो शारीरिक, मानसिक औऱ भावनात्मक हर स्तर पर शांति मिलती है। मन संतुलित होता है।   

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि राजयोग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“  देखिए, विचारों का दमन किस तरह मन को विषाक्त बनाता है।

दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में योगनिद्रा का अभ्यास कराते स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? प्रत्याहार का योगनिद्रा तो शक्तिशाली है ही और भी अनेक विधियां हैं। अजपा है, अंतर्मौन है। “ऊं” मंत्र की शक्ति भी देश-विदेश में अनेक शोधों से प्रमाणित हो चुकी है। इन यौगिक विधियों को साधे बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मनोविकार का मामल उलझा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इतिहास पर गौर करने औऱ संतों के अनुभवों से साफ है कि इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना राजयोग का प्रत्याहार नहीं सधेगा। प्रत्याहार मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

बिहार योग : ऐसे फैलती है सुगंधित पुष्प की खुशबू

सुगंधित पुष्प अपना प्रचार खुद करता है। यह शाश्वत सत्य बिहार योग या सत्यानंद योग के मामले में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। बिहार योग चार महीनों के भीतर दूसरी बार चर्चा में है। पहले योगनिद्रा के कारण चर्चा में था। अब यौगिक कैप्सूल और गुरूकुल शिक्षा पद्धति को लेकर चर्चा में है। दोनों ही बार चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। वैसे तो बिहार योग की उपस्थिति एक सौ से ज्यादा देशों में है और जर्मनी में योग शिक्षा का आधार ही बिहार योग है। पर अपने देश में चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती रही।  परिस्थितियां बदलीं तो बिहार के सुदूरवर्ती मुंगेर जिले में उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर खिले योग रूपी फूल की खुशबू का अहसास सहज ही हुआ। उसी का नतीजा है कि बीते साल बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान का प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला तो इसके एक साल पहले यानी सन् 2017 में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। यही नहीं, केंद्र सरकार देश में योग के संवर्द्धन के लिए जिन चार योग संस्थानों की सहायता ले रही है, उनमें बिहार योग विद्यालय भी है।        

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आधुनिक युग के जरूरतों को ध्यान में रखकर बिहार योग या सत्यानंद योग पद्धति से तैयार योग कैप्सूल में क्या खास दिखा कि वे खुद उसके दीवाने हुए और उसके बारे में देशवासी भी जानें, इसकी जरूरत समझी? इस सवाल पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले योग की परंपरा और आध्यात्मिक चेतना के विकास से सबंधित कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके जरिए “फिट इंडिया मूवमेंट” की पहली वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर देशवासियों के बीच बड़ा संदेश गया।

प्रधानमंत्री के खुद का जीवन योगमय है और योग को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पुनर्स्थापित करने में उनका योगदान सर्वविदित है। उन्होंने “फिट इंडिया मूवमेंट” के कार्यक्रम में चर्चा के लिए फिटनेस की दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया तो गुरूकुल परंपरा वाले संस्थान के संन्यासी से बात करना न भूले। उन्होंने इसके लिए स्वामी शिवध्यानम सरस्वती के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया, जो योग की गौरवशाली परंपरा वाले संस्थान बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के शिष्य हैं और जिन्होंने आईआईटी, दिल्ली जैसे संस्थान से उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद चेतना के उच्चतर विकास के लिए अलग मार्ग चुन लिया था। प्रधानमंत्री का यह कदम कोई अकारण नहीं रहा होगा। नई शिक्षा नीति में कई मामलों में गुरूकुल परंपरा की झलक दिखाई गई है। वे युवापीढ़ी को जरूर यह बताना चाहते होंगे कि गुरूकुल परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या का प्रभाव कैसा होता है।

स्वामी शिवध्यानम सरस्वती ने प्रधानमंत्री के सवालों का जबाव देते हुए स्वामी शिवानंद सरस्वती की गुरू-शिष्य परंपरा और बिहार योग परंपरा का वर्णन इस तरह किया कि नवीन और प्राचीन गुरूकुल परंपरा में एकरूपता की झांकी प्रस्तुत हो गई। अनेक लोगों को हैरानी हुई होगी कि आधुनिक जमाने में भी ऐसा गुरूकुल है। स्वामी शिवध्यानम उन्नत गुरू-शिष्य परंपरा के न होतें तो उनके पास एक मौका था कि प्रधानमंत्री के समाने खुले मंच पर अपनी पीठ खुद थपथपा सकते थे। पर गुरूकुल योग विद्या का असर देखिए कि उन्होंने अपनी योग परंपरा के तीन मुख्य संतों स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के आदर्शों की चर्चा करते हुए आश्रम के अपने अनुभव को इस तरह साझा किया कि आदर्श गुरू-शिष्य परंपरा और शास्त्रसम्मत योग विद्या को लेकर नईपीढी के बीच सकारात्मक संदेश गया। 

बिहार योग-सत्यानंद योग एक ऐसी परंपरा है, जिसमें शास्त्रीय और अनुभवात्मक ज्ञान और आधुनिक दृष्टिकोण का समन्वय है। इसमें योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। तमिलनाडु में जन्मे और पेशे से चिकित्सक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सत्यानंद सरस्वती जैसे शिष्य को आगे करके योग विद्या की ऐसी गंगा-जमुनी बहाई कि आज दुनिया के लोग उसमें डुबकी लगाकर आनंदमय जीवन जी रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के बाद स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस महायज्ञ को आगे बढ़ा रहे हैं।  

अब योग कैप्सूल की बात। विश्वव्यापी कोरोना वायरस का तांडव अपने देश में भी शुरू हुआ तो केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार करवाए थे। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान ने 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए, नवयुवतियों के लिए, गर्भवती महिलाओँ के लिए, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए औऱ चालीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए योग संबंधी प्रोटोकॉल तैयार किए। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक जमाने के लोगों की जीवन-पद्धति और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कई साल पहले कुछ योग विधियां बतलाई थी, जिसके समन्वित रूप को योग कैप्सूल कहा था। प्रधानमंत्री को स्वामी निरंजन का योग कैप्सूल भा गया। शायद इसकी मुख्य वजह इसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान और योगनिद्रा का समावेश होना है, जिनके कारण शारीरिक व मानसिक बीमारियां दूर ही रहती हैं। 

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के योग कैप्सूल कुछ इस तरह है – सुबह उठते ही महामृत्युंजय मंत्र व गायत्री मंत्र ग्यारह बार पाठ और दुर्गाजी के बत्तीस नामों का तीन बार पाठ। पहला मंत्र शारीरिक व मानसिक आरोग्य के लिए, दूसरा जीवन में बौद्धिक व भावनात्मक प्रतिभा की जागृति के लिए और तीसरा मंत्र जीवन से क्लेश व दु:ख की निवृत्ति एवं संयम व समरसता की प्राप्ति के लिए है। दैनिक चर्या के बाद पांच आसनों यथा तड़ासन, तिर्यक तड़ासन, कटि चक्रासन, सूर्य नमस्कार और सर्वांगासन का अभ्यास। इसके बाद नाड़ी शोधन और भ्रामरी प्राणायामों का अभ्यास। शाम को काम-काज से निवृत्त होने के बाद योगनिद्रा और रात को सोने से पहले दस मिनट मन को एकाग्र करने के लिए धारणा का अभ्यास। इसे ध्यान भी कहा जा सकता है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “स्वामी निरंजन का व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है और वह आज की पीढ़ी के अनुरूप सोच सकते हैं।” स्वामी निरंजन अपने गुरू की कसौटी पर खरे उतरे। उनका यौगिक कैप्सूल योग साधना की एक ऐसी पद्धति है, जिसे अपनाने वाले अपने जीवन में बदलाव स्पष्ट रूप से देखने लगे हैं। देश-विदेश के लाखों लोग इस पद्धति को अपना कर निरोगी जीवन जी रहे हैं। योग विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है। बाइबिल का प्रथम वाक्य है – “आरंभ में केवल शब्द था और वह शब्द ही ईश्वर था।“ भारतीय दर्शन के मुताबिक वह शब्द कुछ और नहीं, बल्कि “ॐ” था। ॐ मंत्र तीन ध्वनियों से मिलकर बना है – अ, उ और म। इनमें प्रत्येक ध्वनि के स्पंदन की आवृत्ति अलग-अलग होती है, जिससे चेतना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ॐ नमः शिवाय कई नादो का समुच्य है। गायत्र मंत्र में चौबीस ध्वनियां हैं। मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। इसकी सहायता से अपनी बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर पुन: चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है।  

अनेक लोग किसी देवी-देवता को स्मरण करके मंत्रों का जप करते हैं। पर विदेशी लोग जब इन्हीं मंत्रों के जप करते हैं तो उनके मन में तो हमारे किसी देवी-देवता का रूप नहीं होता। फिर भी वे लाभान्वित होते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि मंत्रों की साधना करते वक्त किसी भी विषय़ पर मन को एकाग्र करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। मन को खुलकर अभिव्यक्त होने देना चाहिए। मंत्र विज्ञान प्राचीन काल से विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से प्रयोग में था। इस विज्ञान की ओर अधुनिक विज्ञानियों की नजर गई है और इसका पुनरूत्थान किया जा रहा है। उन्हें पता चल गया है कि मंत्रों की शक्ति से ही प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित किया जा सकता है। आने वाले समय में मंत्रों का उपयोग एक वैज्ञानिक उपकरण के रूप में उसी तरह होगा, जिस तरह मौजूदा समय में लेजर या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का उपयोग प्रकृति के गहनतर आयामों को जानने के लिए किया जाता है।  

जहां तक योगनिद्रा की बात है तो प्रत्याहार की शक्तिशाली और मौजूदा समय में प्रचलित विधि स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देन है। उन्होंने तंत्रशास्त्र से इस विद्या को हासिल करके इतना सरल, किन्तु असरदार बनाया कि आज दुनिया भर में इसका उपयोग मानसिक बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों तक के उपचार में हो रहा है। दरअसल यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विश्रांति का एक व्यवस्थित तरीका है। गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है। मन की सजगता और शिथिलीकरण के लिए यह अचूक विधि मानी जाती है।

अब योग विधियों को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और उनके नतीजों की बात। बिहार योग विद्यालय ने स्पेन के बार्सिलोना स्थित अस्पताल में शल्य चिकित्सा कराने पहुंचे तनावग्रस्त मरीजों पर मंत्र के प्रभावों पर शोध किया। ऐसे सभी मरीजों को एक कमरे में बैठाकर बार-बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करने को कहा गया था। ईईजी और अन्य चिकित्सा उपकरणों के जरिए देखा गया कि मंत्रोचारण से भय, घबराहट और चंचलता के लिए जिम्मेदार बीटा तरंगें कम होती गईं औऱ अल्फा तरंगों की वृद्धि होती गई। स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है।

अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योगनिद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योगनिद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योगनिद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रेडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोंटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी का जीनव-काल योगनिद्रा के अभ्यास से काफी बढ़ गया था।

इन दृष्टांतों से समझा जा सकता है कि आधुनिक युग में योग कैप्सूल को जीवन-पद्धति में शामिल किया जाना कितना लाभप्रद है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री चाहते हैं लोग योग कैप्सूल को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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