योग विद्या के आलोक में श्रीराम

किशोर कुमार //

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है।

पूरा देश राममय है। हममे श्रीराम के मूल्यों का बीज तो पहले से विद्यमान है। सही पोषण भर से वह अंकुरित हो चुका है। कामना यही है कि यह अंकुरण निर्दोष रहे और फले-फूले। तभी कथा के राम से बाहर जाकर घट-घट में बैठे राम से साक्षात्कार कर अपना जीवन धन्य बना पाएंगे।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं कि रामायण की कथा जान गए, अच्छी बात है। सद्गुणों के विकास की पहली सीढ़ी है। पर यह भी जानने की कोशिश होनी चाहिए कि रामायण का रहस्य क्या है? क्या राम केवल राजपुत्र थे अथवा परब्रह्म परमेश्वर थे? उनका वास्तविक स्वरूप क्या था? संत कबीर ने कहा है – “एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा।“ जाहिर है कि हमें कथा के राम तक सीमित नहीं रहना होगा, एक पायदान आगे बढ़ना होगा। योगबल के जरिए घट-घट में बैठे राम का अन्वेषण करना होगा। ऐसा किए बिना कलियुग में रामराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हमारे गुरू परमहंस जी सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।

हम सब बचपन से पढ़ते आए हैं कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यौगिक व आध्यात्मिक विरासत होने के बावजूद समस्याए हर स्तर पर बनी रहती है। व्यक्तिगत समस्या के मूल में हमारी अति की भावना की प्रबलता है। जैसे, अति कामना, अति भोग आदि। यह जानते हुए भी अति का अंत बुरा ही होता है। रावण भी तो अति में ही मारा गया। सोने की लंका थी, अपने जमाने की विश्व सुंदरी मंदोदरी पत्नी थी। पर अति की भावना ने सीता जी का अपहरण करने को बाध्य किया। नतीजतन, सोने की लंका जल गई। इसलिए जरूरी है कि समाजा ऐसा होना चाहिए, जिस पर राम की कथाओं से सींचे हुए लोगों का प्रभाव हो। पर चित्तवृत्तियों का निरोध न हुआ तो बात कैसे बनेगी?

हम सबकी जैसी मनोदशा होती है, उसमें सीधे-सीधे आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधनाओं से बात बनने वाली नहीं। तभी अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के लिए होने वाले महायज्ञ से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यम-नियम की साधना की। यम और नियम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के पहले दो पायदान हैं। योगी इसे योग का आधार मानते हैं। इसके बिना सामान्य जनों का योग सधना मुश्किल है। हम सब देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है। इन योग साधनाओं के बाद ही उच्चतर योग साधनाओं से मन का प्रबंधन होगा और घट-घट के राम का जानना संभव हो सकेगा।

पर संत तुलसीदास जी कह गए – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नाम जप और संकीर्त्तन को छोड़कर प्राचीन काल में जितनी साधनाएँ हम लोगों को बतलाई गई, इस कलयुग में उन सबकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। राम नाम से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे स्वामी सत्यानंदजी महाराज। पर मन श्रीराम में रम गया। बात 1925 की है। उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह में एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज।

स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।  

नाम जप, संकीर्त्तन और मंत्रों की शक्ति को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारता है। महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नाम की महत्ता बतलाई थी। नतीजा हुआ कि दशरथ के राम में साक्षात् विष्णु प्रकट हो गए, जो हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। आईए, संतों द्वारा बताई गई योग सधना का क्रमिक अभ्यास करके श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में प्रकट करने का प्रयास करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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