योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मानवता के लिए योग, ख्याल अच्छा है

किशोर कुमार

भक्ति-भावना से होगा चित्त वृत्तियों का निरोध

अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। ध्यान रहे कि इस योग-कर्म का कर्म-कांड से कोई संबंध नहीं है।

कोरोनाकाल में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ्य रखने और अवसाद से बचने के लिए सारे उपाय किए। बात न बनी। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। इसलिए कि जीवन इतनी जटिलताएं हैं कि अशांत मन को किसी बात से सांत्वना नहीं मिल पाती। चाहे आसन हो या प्राणायाम या फिर ध्यान, कोई भी योगाभ्यास फलित नहीं होता। कई बार स्थिति इतनी विकराल होती है कि उसकी परिणति आत्म-हत्या के रूप में सामने आती है।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रति 100,000 लोगों में 16.5 आत्महत्याएं हो रही हैं। इनमें भारत का योगदान सर्वाधिक है। अवसादग्रस्त मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत के योगियों ने ऐसे लोगों को संकट से निकलने के लिए अनेक उपाय बतलाए। ध्यान साधना पर खूब जोर दिया गया। सजगता के विकास और मन की एकाग्रता के लिए सरल उपाय बतलाए गए। पर अनेक लोगों को इससे बात बनती नहीं दिख रही। आम शिकायत है कि जीवन में समस्याओं का इतना समावेश हो चुका है कि मन स्थिर होता ही नहीं।  

पुराणों पर गौर करें तो पता चलता है कि मृत्युलोक में मानव जाति को विकट समस्याओं से बार-बार गुजरना पड़ता रहा है। पर संतों की युक्तियों से मानव जाति का उद्धार होता रहा है। रूद्रयामल तंत्र की रचना ही पार्वती जी की मानसिक बेचैनी की वजह से हो गई। आदियोगी शिव ने मन पर काबू करके अभीष्ट की सिद्धि के लिए इतने उपाय सुझाए कि प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से लेकर मोक्ष तक की बात हो गई। संत कबीर कहा करते थे – मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया। पर आधुनिक युग में मन को मार लेना आम आदमी के लिए चुनौती भरा कार्य बना हुआ है। अंधकार में डूबा मन अपनी जिद पर अड़ा है। पल भर में दुनिया की सैर करता है।

दिनो-दिन ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है कि हम मल्टी साइकिक होते जा रहे हैं। सुबह कुछ तय करो, शाम होते-होते विचार बदल जाता है। योग की महत्ता समझने वाले मानते हैं कि ध्यान को उपलब्ध होने से ही बात बनेगी। पर उनकी एकांतवास की चाहत पूरी नहीं हो पाती। हिमालय में भी नहीं। कही पढ़ा था कि प्रसिद्ध अमरीकी लेखक और प्रेरक सेम्युअल लेन्गहोर्न क्लेमेन्स, जो मार्क ट्वेन के नाम से ख्यात हुए थे, से किसी मित्र ने पूछ लिया – आपका आज का व्याख्यान कैसा रहा? ट्वेन ने पलट कर सवाल कर दिया – कौन-सा व्याख्यान? मित्र ने कहा – आज आपने एक ही व्याख्यान तो दिया है, उसी की बात कर रहा हूं। मार्क ट्वेन ने इसका जो उत्तर दिया, उससे आदमी के अनियंत्रित मन को आसानी से समझा जा सकता है। उसने कहा – “मैंने आज तीन व्याख्यान दिए। एक तो मैंने व्याख्यान देने से पहले अपने मन में व्याख्यान दिया। एक व्याख्यान लोगों के बीच दिया और तीसरा व्याख्यान अभी दे रहा हूं।“ यानी मन के भीतर इतना शोर-गुल वाला बाजार सजा हुआ है तो चित्त की एकाग्रता की बात बेमानी होगी ही।

फिर हमें बैठने भी तो नहीं आता। बैठने आ जाए तो भी कुछ बात बने। कुछ रास्ता निकले। हम बैठते हैं इस तरह कि शारीरिक ऊर्जा का प्रवाह गलत दिशा में होता है। यह स्थिति मन को अशांत बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। मैंने पिछले लेख में सिद्धासन की चर्चा की थी। बताया था कि सिद्धासन प्राण-शक्ति को, शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को मूलाधार से सहस्रार की ओर ले जाने में किस तरह बेहतर जरिया बनता है। योग के वैज्ञानिक संत कहते रहे हैं कि सिद्धासन न लगे तो आदमी रीढ़ सीधी करके सुखासन में ही बैठ जाएं और अपने श्वासों के प्रवाह पर ध्यान देने की कोशिश कर ले तो चीजें बदल जा सकती हैं। इसलिए कि इस स्थिति में शरीर की ऊर्जा कम से कम बर्बाद होगी तो उस ऊर्जा का दिशांतरण करना आसान होगा। योग का सारा खेल ऊर्जा की दिशा बदलने को लेकर है।      

पर ऐसा करना भी संभव न हो तो सवाल उठना लाजिमी है कि आदमी दूसरा कौन-सा मार्ग अपनाए कि अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा हो सके?  संतों की मानें तो आधुनिक युग में चित्त की एकाग्रता के लिए भक्तियोग का संकीर्त्तन आसान भी है और असरदार भी। अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं।

भक्ति योग के सन्दर्भ में आदर्श योगी किसे कहेगे? अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद गीता में कहते हैं –

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ”

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। पर आदमी के भीतर भक्ति का सही दृष्टिकोण है तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं। भक्त के जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह प्रेम परमात्मा के लिए हो या फिर अपने चारों तरफ के लोगों के लिए।

महान योगी और योगी कथामृत के लेखक परमहंस योगानंद की बातों से इस बात की पुष्टि होती है। वे कहा करते थे, “अनेक लोग जीवन की समस्याओं से घबरा जाते हैं। अवसादग्रस्त हो जाते हैं। मेरे जीवन में जब भी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, मैंने सदा यह प्रार्थना की है कि हे प्रभु, आपकी शक्ति की मुझमें वृद्धि हो। मुझे सदा सकारात्मक चेतना में रखना। ताकि मैं आपकी सहायता से अपनी कठिनाइयों पर सदा विजय प्राप्त कर सकूं। यकीनन प्रार्थना फलित होती गई। प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। श्रद्धा की तीब्रता जितनी अधिक होती है, प्रार्थना उतनी ही तीब्रता से फलित होती है।“ चालीस के दशक में कही गई यह बात कोरोनाकाल में बेहद प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पश्चिम में योग व अध्यात्म के पितामह परमहंस योगानंद के 100 साल

परमहंस योगानंद के पश्चिम में आगमन की 100 वीं वर्षगांठ पर उन्हें अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है। वे भारत के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। यही वजह है कि उनकी यश की गाथाएं सबकी जुबान पर हैं। अमेरिका में उनके द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के मौजूदा अध्यक्ष स्वामी चिदानंद अपने गुरू को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने पश्चिम को क्रियायोग के रूप में भारत की ऐसी अमूल्य निधि दी, जो स्वयं को जानने का प्राचीन विज्ञान है। यह मानव जाति के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण उपहारों में से एक है।

परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन पहुंंचे थे तो गर्मजोशी से हुआ था स्वागत।

अपने अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश से पश्चिमी जगत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को आलोकित करने वाले जगद्गुरू परमहंस योगानंद के अमेरिका की धरती पर कदम रखने के 100 साल पूरे हो गए। वे पहली बार सन् 1920 में 19 सितंबर को एक धर्म सभा में भाग लेने बोस्टन गए थे। वहां उनकी अलौकिक ऊर्जा इस तरह प्रवाहित हुई कि क्रियायोग के रथ पर सवार आध्यात्मिक आंदोलन कम समय में ही जनांदोलन बन गया था। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए किए गए इस ऐतिहासिक कार्य की वजह से वे अमर हो गए। उनकी प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी।

परमहंस योगानंद वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर धर्म और योग की शास्त्रसम्मत बातें करते थे। इसलिए ध्यान के योग विज्ञान, संतुलित जीवन की कला, सभी महान धर्मों में अंतर्निहित एकता जैसी उनकी बातें अकाट्य होती थीं। तभी श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण द्वारा बतलाए गए क्रियायोग की विराट शक्ति से अमेरिकी नागरिकों को परिचित कराने के मार्ग के अवरोध दूर होते चले गए थे। क्राइस्ट को मानने वाले कृष्ण को भी मान बैठे और परमहंस योगानंद योग व अध्यात्म के पितामह के तौर पर स्वीकार कर लिए गए।

 “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” 20वीं शताब्दी का एक ऐसा आध्यात्मिक आत्मकथा है, जो संतों, योगियों, विज्ञान व चमत्कार और मृत्यु व पुनरूत्थान के जगत् की एक अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाता है। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो अमेरिका सहित दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।  न्यूयार्क टाइम्स की खबर का शीर्षक था – एक अद्वितीय वृतांत। इंडिया जर्नल ने लिखा – “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” एक ऐसी पुस्तक है, जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है। शेफील्ड टेलीग्राफ ने लिखा – एक स्मारकीय कार्य। न्यूजवीक ने लिखा – एक दिलचस्प एवं स्पष्ट व्याख्यापूर्ण अध्ययन।

परमहंस योगानंद अपने गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परमगुरू के गुरू महावतारी बाबाजी की प्रेरणा से अमेरिका गए थे। उन्हें क्रियायोग का प्रचार करने को इसलिए कहा गया था, क्योंकि यह अशांत मन को शांति प्रदान करके उसे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम है। इस योग को अति प्राचीन पाशुपत महायोग का अंश माना जाता है। ऋषि-मुनि पाशुपत महायोग को गुप्त रखते थे और अपनी अंतर्यात्रा के लिए उपयोग करते थे। बाद में तंत्र के आधार पर विकसित पाशुपत योग को कुंडलिनी योग और राजयोग के आधार पर विकसित योग को क्रियायोग कहा गया। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने उसी क्रियायोग की दो बार चर्चा की है।

योगदा सत्संग सोसाइटी के 100 साल पूरे होने पर सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस योगानंद की याद में डाक टिकट जारी किया था।

क्रियायोग के बारे में अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में पहमहंस योगानंद ने कहा है कि इस लुप्तप्राय: प्रचीन विज्ञान को महावतारी बाबाजी ने प्रकट किया और अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को उपलब्ध कराया था। तब बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था – “19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग तुम्हारे माध्यम से विश्व को दे रहा हूं, उसे श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था। बाद में महर्षि पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।“ युक्तेश्वर गिरि कहा करते थे कि क्रियायोग एक ऐसी साधना है, जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ाई जा सकती है। बिहार योग के जनक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर ऊर्जा का क्षेत्र है. यह क्रियायोग का मूल दर्शन है। चिंता और परेशानियों के इस युग में मनुष्य की आध्यत्मिक प्रतिभा को जागृत करने की सबसे शक्तिशाली विधि है।

गोरखपुर का यह वही मकान है, जिसमें मुकुंद घोष का जन्म हुआ था, जो बाद में पूरी दुनिया में परमहंस योगानंद के नाम से मशहूर हुए थे। उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। तब उनके पिता भगवती चरण घोष रेलवे के पदाधिकारी के रूप में गोरखपुर में पदस्थापित थे और मुफ्तीपुर थाना क्षेत्र में शेख मोहम्मद अब्दुल हाजी के मकान में किराएदार थे। मौजूदा समय में वह मकान कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है।

परमहंस योगानंद को पता था कि धार्मिक भिन्नता के कारण अमेरिका में क्रियायोग का प्रचार करना औऱ अपनी बातें लोगों को मनवाना आसान न होगा। ऐसे में उन्होंने दो सूत्र पकड़े। पहला तो लोगों को समझाया कि ज्यादातर मामलों में गीता के संदेश औऱ बाइबल के संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। फिर युवाओं को समझाया कि वे एक ऐसा यौगिक उपाय जानते हैं, जो मानसिक अशांति से उबारने में कारगर है। वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी युवा मानसिक अशांति से बचने के लिए टैंक्वेलाइजर जैसी दवाओं के दास बनते जा रहे थे। परमहंस योगानंद कहते थे कि आध्यात्मिकता की सच्ची परिभाषा है शांति और अशांति की दवा भी यही है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी यौगिक उपाय के जरिए अशांति से उबारा था। क्राईस्ट ने भी शांति को ही अशांति का एकमात्र उपाय माना था। इसलिए हर व्यक्ति शांति का राजकुमार बनकर आत्म-संतुलन के सिंहासन पर बैठ सकता है और अपने कर्म-साम्राज्य का निर्देशन कर सकता है। यह शांति कुछ और नहीं, बल्कि क्रियायोग है, जिसकी शिक्षा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। विज्ञान की कसौटी पर कही गई ये बातें मानसिक समस्याओं से जूझते पश्चिम के लोगों को समझ में आई और क्रियायोग लोकप्रिय हो गया था।

परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर बीते साल भारत सरकार ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ने इस मौके पर कहा कि परमहंस योगानंद भारत के महान सपूत थे, जिन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान कायम की। लोगों को मानवता के प्रति वैश्विक रूप से जागरूक करने का काम तब किया, जब संचार के साधन भी सीमित थे। भारत को अपने इस महान सपूत पर गर्व है, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों के दिलों में एकता का संदेश भरा।’

परमहंस योगानंद का अमेरिका में सबसे पहला व्याख्यान “धर्म का विज्ञान” विषय पर हुआ था। उन्होंने एक तरफ जहां धर्म को परिभाषित किया तो दूसरी तरफ योग की व्यापकता की भी व्याख्या की। इसके साथ ही कहा कि धर्म का आधार वैज्ञानिक है और योगबल के जरिए धर्म मार्ग पर यात्रा करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा बाहर नहीं अपने भीतर है। वहां तक पहुंचने के यौगिक मार्ग हैं, उपाय हैं। मेडिटेशन का लाभ तभी मिलेगा जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पहले से बनाए गए आध्यात्मिक राजमार्ग पर चला जाएगा। इस काम में रश्म अदायगी से भी बात नहीं बनने वाली। वे कहते थे – यदि आप एक या दो डुबकियों में मोती प्राप्त नहीं कर पातें तो सागर को दोष न दें। अपनी डुबकी को दोष दें। पर ख्याल रखें कि ध्यान करना धर्म का सच्चा अभ्यास है।

परमहंस योगानंद ने 2017 में अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र के रांची शहर में योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापाना करके अपने आध्यात्मिक आंदोलन का श्रीगणेश किया था।

कैलिफोर्निया में आध्यात्मिक सभा हुई तो उन्होंने कृष्ण और क्राईस्ट के उपदेशों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया था – “बाइबल में कहा गया है कि मैं द्वार हूं। मेरे द्वारा यदि कोई मानव प्रवेश करता है तो वह उद्धार पाएगा। अंदर व बाहर आया-जाया करेगा। आहार प्राप्त करेगा। दूसरी तरफ भारतीय संत पहले से कहते रहे हैं कि सर्वप्रथम ईश्वर को जानो, फिर जो कुछ भी आप जानने की इच्छा करेंगे, वे आपके समक्ष प्रकट कर देंगे। यह सब उनका साम्राज्य है, यह उनकी ही ज्ञान है। योगशास्त्र कहता है कि भ्रूमध्य कूटस्थ केंद्र है, जो कि आध्यात्मिक नेत्र का स्थान है। केवल दिव्य चेतना में हम इस द्वार के पीछे विशुद्ध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।“ इन सभी बातों का सार एक ही है।

विज्ञान की भाषा में भ्रू-मध्य को पीनियल ग्रंथि का स्थान कहा जाता है। इस ग्रंथि से मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। पीनियल ग्रंथि आध्यात्मिक यात्रा के लिहाज से बड़े काम की है। पीनियल ग्रंथि पर ध्यान की अवस्था में होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इस दौरान पीनियल ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होने लगता है तो मानसिक उथल-पुथल कम जाता है। योग विज्ञान में इस स्थान को आज्ञा चक्र और तीसरा नेत्र का स्थान कहते हैं। इसे जागृत करने की कई यौगिक उपाय हैं। उनमें एक है शांभवी मुद्रा। शिव संहिता के मुताबिक शंकर भगवान ने पार्वती को त्रिनेत्र जागृत करने के लिए यह विधि बताई थी। इसलिए इसे महामुद्रा कहते हैं। क्रियायोग से संपूर्ण चक्र क्रियाशील होते हैं तो इसके अद्भुत नतीजे मिलते हैं। ऐसी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत बातें पश्मिम के लोगों को समझते देर न लगी थी।

परमहंस योगाानंद और उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परम गुरू के गुरू महावतार बाबा जी।

पश्चिम के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिको, दर्शन शास्त्रियों और अन्य आध्यात्मिक लेखकों की पुस्तकें भी इस बात की गवाह हैं कि परमहंस योगानंद अपने मिशन में पूरी तरह कामयाब हुए थे। तभी उनकी मान्यताओं को आधार बनाकर शोध किए जा रहे हैं। उन शोधों के परिणामों के आधार पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं। ऐसी असरदार है उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा। सर जॉन मार्क्स टेंप्लेटन और रॉबर्ट एल हर्मन की पुस्तक है – “ईज गॉड द ओनली रियलिटी – साइंस प्वाइंट्स डीपर मीनिंग ऑफ यूनिवर्स?” उसमें कहा गया है कि यद्यपि विज्ञान और धर्म में विरोधाभास दिखता है। पर दोनों एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। यदि ईश्वराभिमुख कार्य होगा, जो कि होगा, तो चौंकाने वाले रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है।

यह सुखद है कि पश्चिमी दुनिया में आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरू परमहंस योगानंद और उनकी शिक्षाओं पर बीते तीन सालों से लगातार अंतर्राष्ट्रीय फलक पर चर्चा हो रही है। इसके कारण उनके कालजयी आध्यात्मिक संदेश नई पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। पर आध्यात्मिक राजमार्ग पर चलने के लिए इतने से बात बनने वाली नहीं। परमहंस जी सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के विस्तार की योजनाओं के बारे में शिष्यों को बताते हुए कहा था – “याद रखो, मंदिर मधु का छाता है, लेकिन ईश्वर ही मधु है। लोगों को आध्यात्मिक सत्य के विषय में बता कर ही संतुष्ट न रहो। उन्हें दिखलाओ कि वे स्वयं किस प्रकार ईश्वरीय अनुभूति पा सकते हैं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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