योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग की स्वीकार्यता बढ़ी, गुणवत्ता भी बढ़े

किशोर कुमार

फिटनेस और वेलनेस की गारंटी देने वाला योग कम से कम बीस फीसदी मामलों में शारीरिक कष्ट का कारण बन रहा है। कारण कई हैं। पर एक बड़ा कारण है योगाभ्यास के दौरान योग साधकों और योग प्रशिक्षकों में दक्षता और सतर्कता का अभाव। योग साधक दक्ष नहीं हैं तो बात समझ में आती है। पर योग प्रशिक्षकों की दक्षता पर सवाल उठे तो यह चिंताजनक है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरूआत हुई थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का भान हुआ होगा कि दक्ष योग प्रशिक्षक नहीं होंगे तो योग साधकों को कैसी परेशानियां झेलने पड़ेगी। तभी उन्होंने कहा था कि प्रशिक्षित योग शिक्षकों को तैयार करना बड़ी चुनौती है। सच है कि वह चुनौती कमोबेश आज भी बनी हुई है।

देश को योग्य योग प्रशिक्षक मिल सकें, इसके लिए केंद्रीय आयुष मंत्रालय के अधीन योग सर्टिफिकेशन बोर्ड का गठन किया गया था। ताकि योग प्रशिक्षण केंद्र नियमों के दायरे में चलें और कुशल योग प्रशिक्षक तैयार हो सकें। पर योग की बढ़ती लोकप्रियता के बीच योगाभ्यासों से हानि होने की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं, उसको देखते हुए कहना होगा कि योग प्रशिक्षण की गुणवत्ता में काफी सुधार की जरूरत है। इसके साथ ही योग सर्टिफिकेशन बोर्ड के तौर-तरीकों की भी समीक्षा होनी चाहिए। ताकि भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के योग पेशेवरों के ज्ञान और कौशल में तालमेल, गुणवत्ता और एकरूपता लाने का सपना पूरा हो सके। केंद्रीय आयुष मंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने हाल ही सभी कॉर्पोरेट घरानों से अपने कार्यालय परिसर में एक ‘योग सेल’ शुरू करने की अपील की थी। ताकि कार्यस्थल में कायाकल्प और दक्षता को अधिकतम करने में मदद मिल सके। पर यह सपना भी तभी पूरा होगा, जब हमारे पास गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण होंगे।

इसे ऐसे समझिए। आसनो में भुजंगासन को सर्वरोग विनाशनम् कहा गया है। दुनिया के अनेक भागों में इस पर अनुसंधान हुआ तो पता चला कि इसके लाभों के बारे में हम जितना जानते रहे हैं, वह काफी कम है। इस आसन से शरीर के अंगों को नियंत्रित करने वाला तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम दुरूस्त रहता है। यही नहीं, इसका शक्तिशाली प्रभाव शरीर के सात में से चार चक्रों स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र और विशुद्धि चक्र पर भी पड़ता है। पर कल्पना कीजिए कि हर्निया, पेप्टिक अल्सर, आंतों की टीबी, हाइपर थायराइड,  कार्पल टनल सिंड्रोम या फिर रीढ़ की हड्डी के विकारों से लंबे समय से ग्रस्त व्यक्ति या कोई गर्भवती यह आसन कर ले तो क्या होगा?  लेने के देने पड़ जाएंगे।

इस संदर्भ में एक वाकया प्रासंगिक है। कुछ साल पहले की बात है। विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई दो सौ योग शिक्षकों का इंटरव्यू हुआ था। हैरान करने वाली बात यह हुई कि मात्र पांच योग शिक्षक ही ऐसे थे जो मानदंड के अनुरूप थे। यानी वे कठिन आसनों के साथ ही अच्छे प्रकार से योग की कक्षा ले सकते थे। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद की शासकीय परिषद के सदस्य डॉ. वरुण वीर ने इस बात का खुलासा किया तो योग विद्या के मर्म को समझने वालों के चेहरे पर बल पड़ जाना स्वाभाविक था। दरअसल डॉ वीर ने खुद ही इन योग शिक्षकों का इंटरव्यू लिया था। ऐसी स्थिति इसलिए बनी कि कायदा-कानूनों को ताक पर रखकर चलाए जाने वाले योग प्रशिक्षण संस्थानों से दो-चार महीनों का प्रशिक्षण लेने वाले योग प्रशिक्षक बन बैठे थे। आम जनता में योग के प्रति जाकरूकता की कमी का लाभ उन्हें मिल रहा था। वाणिज्यिक मानकों पर कसा गया तो असलियत सामने आ गई थी।

हठयोग के प्रतिपादकों महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम के साथ ही देश के प्रख्यात योगियों के शोध प्रबंधों पर गौर फरमाएं और योगाभ्यास करते लोगों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि योगकर्म में कैसी-कैसी गलतियां की जा रही हैं। मसलन, हठयोग में सबसे पहला है षट्कर्म। इसके बाद का क्रम है – आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। यदि कोई योगाभ्यासी षट्कर्म की कुछ जरूरी क्रियाएं नहीं करता तो आगे के योगाभ्यासों में बाधा आएगी या अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। इसी तरह प्राणायाम का अभ्यास किए बिना प्रत्याहार व धारणा के अभ्यासों से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे में ध्यान लगने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हठयोग के बाद राजयोग की बारी आती है, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। उसमें खासतौर से आसनों का नियम बदल जाता है। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि अनेक योग प्रशिक्षक हठयोग के अभ्यासक्रम को तो बदलते ही हैं, राजयोग के साथ घालमेल भी कर देते हैं। जबकि हठयोग में गयात्मक अभ्यास होते हैं और राजयोग में इसके विपरीत। जहां तक सावधानियों की बात है तो धनुरासन को ही ले लीजिए। यह भुजंगासन और शलभासन से मेल खाता हुआ आसन है। इन तीनों में कई समानताएं हैं। लाभ के स्तर पर भी और सावधानियों के स्तर पर भी। इस आसन से जब मेरूदंड लचीला होता है तो तंत्रिका तंत्र का व्यवधान दूर हो जाता है। पर हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, हार्निया, कोलाइटिस और अल्सर के रोगियों के लिए यह आसन वर्जित है।

प्राणायामों के बारे में योग शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि इसे आसनों के बाद और शुद्धि क्रियाएं करके किया जाना चाहिए। पहले नाड़ी शोधन, फिर कपालभाति और अंत में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाना चाहिए। नाड़ी शोधन के लिए भी शर्त है। यदि सिर में दर्द हो या किन्हीं अन्य कारणों से मन बेचैन हो तो वैसे में यह अभ्यास कष्ट बढ़ा देगा। उसी तरह हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी, हर्निया और अल्सर के मरीज यदि कपालभाति करेंगे तो हानि हो जाएगी। जिनके फुप्फुस कमजोर हों, उच्च या निम्न रक्त दबाव रहता हो, कान में संक्रमण हो, उन्हें भस्त्रिका प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। हृदय रोगियों को तो भ्रामरी प्राणायाम में भी सावधानी बरतनी होती है। उन्हें बिना कुंभक के यह अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।

पर इन तमाम योग विधियों और उनसे संबंधित सावधानियों की अवहेलना होगी तो समस्याएं खड़ी होना लाजिमी ही है। पर योग्य प्रशिक्षक न होंगे, तो समस्याएं बनी रहेंगी। सरकार यदि सर्टिफिकेशन बोर्ड के कामकाज को ज्यादा असरदार बनाते हुए योगाभ्यासियों से फीडबैक लेने का प्रबंध कर दे तो यह बेहतरी की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योगनिद्रा और स्वामी सत्यानंद सरस्वती

किशोर कुमार

चार दिनों बाद ही यानी 24 दिसंबर को बीसवीं सदी के महानतम संत परमहसं स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 98वी जयंती है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसके परिणामों से दुनिया भर के लोगों को अवगत कराने वाले इस महानतम योगी ने योगनिद्रा के रूप में दुनिया को अनुपम उपहार दिया था, जिसकी बदौलत असंख्य लोगों के मन का प्रबंधन और बीमारियों से मुक्ति पाना संभव हो पा रहा है। सच है कि योगनिद्रा एक ऐसी यौगिक विधि है, जिसके अभ्यास से बुरी आदतों या मनोवृत्तियों को ठीक किया जा सकता है। एक दशक पूर्व उस महान संत द्वारा अपनी महासमाधि से पूर्व योगनिद्रा पर केंद्रित सत्संग का सार प्रस्तुत है। आप सब लाभान्ति होइए।

योगनिद्रा को प्रत्याहार की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा गया है, क्योंकि यह शिथिलीकरण की एक क्रिया भी है। शिथिलीकरण में भी एक मनोविज्ञान निहित है। शिथिल होने का मतलब पैरों को फैला कर सो जाना नहीं होता। मनोविज्ञान मानता है, और हो सकता है आप लोग भी इस बात को मानें कि निद्रा में विश्राम की स्थिति नहीं रहती। निद्रा की अवस्था में भी तनाव की स्थिति रहती है। इसके पीछे एक ही कारण है कि आज तक हम लोग स्वयं को शिक्षा नहीं दे पाए हैं कि कब मन की तनावपूर्ण अवस्था से सम्बन्ध-विच्छेद करना है और कब शान्त अवस्था से सम्बन्ध जोड़ना है ।

योगनिद्रा में यही से शिक्षा आरम्भ होती है कि धीरे-धीरे अपनी शारीरक और मानसिक अवस्थाओं को पहचान कर, शारीरीक तनावों प्रति जागरूक हो, मन को एक बिन्दु में केन्द्रित करके हम विश्राम की स्थिति को प्राप्त करें। उस विश्राम की स्थिति में एक नए, सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। योगनिद्रा अभ्यास शनैः शनैः मनुष्य की सजगता को चेतन से अवचेतन और अवचेतन से अचेतन स्तर तक ले जाते हैं। अब दूसरा प्रश्न उठता है, ‘मनुष्य के मन को कैसे समझें?’ जाग्रत अवस्था में हमें बहुत प्रकार के अनुभव मिलते हैं जो हमारे विचार, व्यवहार और कर्म को प्रभावित करते हैं ।अवचेतन और अचेतन में भी इनका असर दिखलाई देता हैं। इन्हीं प्रतिक्रियाओं कारण सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, और तदनुसार कर्म होते हैं। हमलोगों का मन हमेशा धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा के सदृश रहता है, जो सुखद परिस्थिति में भी तनी रहती है और दुःखद में भी । योगनिद्रा के द्बारा यह प्रयास किया जाता है कि परिस्थिति के प्रभाव से हमारे मन में जो तनी हुई प्रत्यंचा है, उसके प्रति सजग होकर हम उसे ढीला कर दें ।

आप किसी सत्संग या रामायण कथा में जाएँगें, पन्द्रह-बीस मिनट के बाद नींद आने लगेगी। किन्तु किसी क्लब या पार्टी में जाएँगें तो आधी रात तक एकदम जमे हुए रहेंगे। विषय भोग के पीछे जाने का कारण मन सजग रहता है और ऊबता नहीं। जहाँ मन शान्त हुआ, ऊब लगने लगती है, आँखों बन्द हो जाती हैं। यह मन का स्वाभाविक रूप है। इसी में आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना है। योगनिद्रा में लेटते ही खर्राटे शुरू हो जाता हैं। या बहुत बार होता है कि हम एकदम सजग रहते हैं, सोते नहीं है, लेकिन कहीं सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जब हम फिर से सजग होते हैं तो देखते हैं कि अरे, अभी हम शरीर की दाहिनी तरफ धूम रहे थे और अब यहाँ कल्पना कर रहे हैं कि सूर्य देखो, चन्द्रमा देखो । यह अन्तराल कैसे आ गया?

यह अनुभव तब होते हैं जब मन शांत होता है, क्योंकि जिन इन्द्रियों के साथ मन का सम्पर्क हमेशा रहता है, चाहे वह कर्मेन्द्रिय हो, चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो, चाहे बुद्धि हो, या चित्त हो, उनके साथ अगर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाए तो तन्द्रा की अवस्था अवश्य आएगी। स्वप्न की अवस्था में अगर आप जानें कि मैं सोच रहा हूँ या मैं स्वप्न देख रहा हूँ तो आप जान लेना कि अब हम योगनिद्रा का अभ्यास करने के लिए तैयार हो रहे हैं । हस तैयारी में अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । यह स्थिति स्वतः उत्पन्न होती है। जिन्हें योगनिद्रा के प्रारंभिक अभ्यास सिद्ध हो जाते हैं, वे चार धंटे की निद्रा को चालीस मिनट या एक धंटे में पूरा कर सकते हैं। इतिहास में महात्माओं या विचारकों या बड़ी-बड़ी हस्तियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने योगनिद्रा के अभ्यास को सिद्ध किया है । गाँधीजी के बारे में मालूम है । दो मिनट आँख बन्द करते, फिर एकदम तैयार । नेपोलियन के बारे में सुनते हैं कि वह धोड़े पर बैठे-बैठे सो जाता था, और फिर लड़ाई के लिए तैयार।

योगनिद्रा चेतना को जाग्रत करने का एक तरीका है। इसमें जो अनुभव होते हैं, निद्रा आती है, उस समय थोड़ा संधर्ष तो करना पड़ता है । मानसिक अनुशासन के अभाव में यह आवश्यक होता है कि हम प्रारंभ में थोड़ा संधर्ष करें । लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास होता जाएगा, संधर्ष नहीं करना पड़ेगा । मन विचारशून्य हो जाता  है, समयान्तराल हो जाता है । एक बार अगर न सोने की आदत हो गया तो जल्दी ही गाड़ी पकड़ में आ जाएगी । योगनिद्रा में मन बहुत ग्रहणशील और संवेदनशील हो जाता है । बच्चों की संकल्पशक्ति, ग्रहणशक्ति और प्रतिभा बढ़ाने के लिए यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है, और बच्चों को आप चाहे किसी विषय की शिक्षा योगनिद्रा में दे सकते हैं । योगनिद्रा ही एक ऐसी विधि है जिसमें ‘हिस्ट्री ज्योग्राफी बड़ी बेवफा, रात को पढ़ा सवेरे सफा’ वाला हिसाब नहीं होता ।

योगनिद्रा कहती है ‘सो के पढ़ा और सबेरे रखा,’ क्योंकि इसमें ग्रहणशीलता इतनी तीव्र हो जाती कि कुछ भूल ही नहीं सकते हैं। जवानों के लिए अच्छी चीज है, क्योंकि जीवन में भागदौड़ की शुरुआत जवानी में होती है। जैसे-जैसे आज विभिन्न उत्तरदायित्वों को ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे तनावमुक्त रह कर सही प्रकार से अपनी क्षमता का उपयोग करना – यही सिखलाना योगनिद्रा का उद्देश्य हो जाता है। बड़ों के लिए अच्छा अभ्यास है ताकि वे स्वयं को शांत, संयम और संतुलित रख सकें, ताकि रक्तचाप की शिकायत न हो, किसी परिस्थिति में दिल का दौरा नहीं पड़े, मन शान्त रहे । बुजुर्गों के लिए भी अच्छी चीज है, सोने को मिलता है। अतः सभी दृष्टिकोणों से, सभी वर्गों के लिए, सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए, योगनिद्रा का अभ्यास बहुत उपयोगी है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

योगविद्या को लेकर लोगों का दृष्टिकोण बदला है। जो योग शिक्षक-प्रशिक्षक समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बेहतर देने की स्थिति में होगा, वही प्रतिस्पर्द्धा में टिका रह पाएगा। कुछ भी नहीं चलेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीते एक दशक में फटाफट योग की संस्कृति विकसित की गई। फास्ट फूड की तरह। इससे योगाभ्यासियों और योगविद्या में अपना कैरियर देखने वालों का बड़ा अहित हुआ। पर यह सत्य है कि समस्या चाहे जैसी भी हो, उससे उबरने का सूत्र भी उसी में निहित होता हैं। भारत में ऐसे योगियों की कमी नहीं , जिन्होंने विपरीत परिस्थियों में राह बनाई थी और अपनी बौध्दिक व आध्यात्मिक क्षमता का विकास करके योगविद्या को समृद्ध किया।

कोरोना महामारी के बाद भारत में योग का कारोबार ऊंची उड़ान भर रहा है। उद्योग परिसंघों की रिपोर्टों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कोरोबार सौ बिलियन का हो चुका है, जो वेलनेस सेक्टर के कुल कारोबार का चालीस फीसदी है। योग के मुख्यत: दो पक्ष हैं। एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक। कारोबार की बात हो रही है तो जाहिर है कि लौकिक पक्ष खासतौर से उपचारात्मक पक्ष की बात है। आम जन के बीच योग के चिकित्सीय पक्ष को लेकर समझ बढ़ने और कोविड-19 की दवा की अनुपलब्धता की वजह से योग कारोबार को पंख लगा। दूसरी तरफ अगले शैक्षणिक सत्र से स्कूलों में भी योग शारीरिक शिक्षा का एक अंग बनने वाला है। दूसरे देशों में भारतीय योगाचार्यों की मांग पहले से है। जाहिर है कि योग के क्षेत्र में रोजगार के बड़े अवसर हैं। चुनौती बस योग शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है।  

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा न होने का ही नतीजा है कि कोरोनाकाल से पहले योग व्यवसाय से जीवन-यापन करने वाले लगभग 70 फीसदी योग प्रशिक्षक या तो बेरोजगार हैं या कोई अन्य व्यवसाय में लगे हुए हैं। कोई समोसा बेच रहा है तो कोई स्वास्थ्य सबंधी उत्पादों का वितरक बना हुआ है। इनमें ऐसे योग प्रशिक्षक भी शामिल हैं, जो हठयोग सीखाने में तो सक्षम हैं। पर संप्रेषण या तकनीकी दक्षता के अभाव में स्वर्णिम अवसर गंवाने को मजबूर हैं। यह इस बात का द्योतक है कि योग शिक्षा देने के तरीकों में खोट है। वरना योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच प्रशिक्षित योगाचार्यों का बेरोजगार रह जाना भला कैसे संभव था? योग के नाम पर कुछ भी और किसी भी तरह परोसने की प्रवृत्ति के कारण ऐसी स्थिति बनी है, जबकि गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा समय की मांग है।

योग परंपरा के संन्यासी दृढ़ता के साथ कहते रहे हैं कि बच्चे जब सात-आठ साल हो जाएं तो कुछ यौगिक क्रियाएं शुरू करानी चाहिए। क्यों? क्या शरीर स्वस्थ्य रहे, इसलिए? नहीं। हमारी परंपरा में योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रही। योगाभ्यास इसलिए कराया जाता था कि कम उम्र में पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की गति धीमी की जा सके। ऐसा होने से पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रहेगी। बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी। स्कूलों के योग शिक्षकों को ऐसे परिणाम हासिल करने के लिए उपयुक्त योगाभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पर वे सक्षम न हुए तो शिक्षित-प्रशिक्षित बेरोजागरो की फौज ही खड़ी होगी।  

शीर्षासन के बड़े-बड़े फायदे हैं। मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति बढ़ती है तो नाड़ी-तंतुओं का बेहतर पोषण होता है। शरीर से विषाक्त द्रव्य निष्कासित होता हैं। इससे मानसिक शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि होती है। पर साथ ही चेतावनी भी दी जाती है कि उच्च रक्तचाप और स्लिप डिस्क वाले मरीज इस आसन से दूर रहें। पर सिद्ध संतों की बात निराली होती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पास एक व्यक्ति आया। वह उच्च रक्तचाप की समस्या से परेशान था। स्वामी जी ने कहा, शीर्षासन करो। उसने वैसा ही किया और समस्या दूर हो गई। यह ठीक है कि सामान्य योग प्रशिक्षकों से ऐसे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वे तो मजबूत इच्छा-शक्ति और शास्त्रसम्मत शिक्षा से ही योग के वास्तविक परिणाम हासिल कर ही सकते हैं।

सवाल है कि योग शिक्षा कैसी हो कि योग शिक्षक-प्रशिक्षक गुणवान बन सकें? इस संदर्भ में स्वामी सत्यानंद सरस्वती से ही जुड़ा एक अन्य प्रसंग गौरतलब है। वे ऋषिकेश के अपने गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के योग प्रचार संबंधी मिशन पर निकलने से पहले तक योग के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। उनका मार्ग तो संन्यास का था। पर गुरू ने कह दिया कि जाओ, योग का प्रचार करों। ऐसा करने के लिए शक्तिपात के जरिए शक्ति दी। स्वामी सत्यानंद ने विचार किया कि घर-घर योग सीखाने से बेहतर है कि योग शिक्षक तैयार करो और ऐसा शिक्षक, जो हठयोग और राजयोग तक ही सीमित न रहे। उसे समग्र योग यानी कर्मयोग, ज्ञानयोग, मंत्रयोग, लययोग आदि का भी ज्ञान हो। उन्होंने योगविद्या को अष्टांग योग तक सीमित नहीं रखा। उनका मानना था कि अष्टांग योग राजयोग का अंग नहीं है। यह तो समस्त योगमार्गों का अंग है। जैसे, प्रत्याहार का अभ्यास राजयोग, क्रियायोग, कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, लययोग, नादयोग या किसी भी योग में किया जाता है। आज यदि योग शिक्षा के मामले में ऐसा दृष्टिकोण हो तो भारत के योगाचार्यों की पूरी दुनिया में तूती बोलेगी।

रही बात इच्छा-शक्ति की तो इस संदर्भ में आयंगार योग के जनक और हठयोग के विश्व प्रसिद्ध योगाचार्य बीकेएस आयंगार से सीख लेनी चाहिए। वे मामूली पढ़-लिख पाए थे। किशोरावस्था तक अंग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल नहीं था। पर आधुनिक योग के पितामह के रूप में मशहूर टी कृष्णामाचार्य की दृष्टि पड़ी तो उनकी ऊर्जा का दिशांतरण हुआ। किशोरावस्था में ही पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब में बतौर योग प्रशिक्षक नौकरी मिल गई। जब जीवन पटरी पर आने लगा तो नौकरी छूट गई। सवारी के नाम पर साइकिल थी। वे अपने जीविकोपार्जन के लिए दूर-दूर जाकर लोगों को योग सीखाते और खुद की उन्नति के लिए साधनाएं करते थे। उन्हें समझ में आ गया कि लोगों की तात्कालिक जरूरतें क्या हैं और दूरगामी परिणामों के लिए क्या करना होगा। इन बातों को ध्यान में रखकर अपने को उनके अनुरूप ढाला और हठयोग के पितामह बन गए।

इन तमाम बातों के मद्देनजर सरकार को भी गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा के लिए असरदार कार्य-नीति तैयार करनी होगी। संसद का बजट सत्र चल रहा है। आगामी शैक्षणिक सत्र को ध्यान में रखकर असरदार नीति बनाई जा सकती है। ताकि योग शिक्षको-प्रशिक्षकों के साथ ही छात्रों आम अन्य योग साधकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके। यदि स्कूलों में योग शिक्षा को फिजिकल एडुकेशन का हिस्सा न बनाकर स्वतंत्र विषय बना दिया जाए तो बड़ी बात होगी। योग शिक्षकों का एक बड़ा समूह इसकी मांग कर भी रहा है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है। इसलिए कि मानसिक उथल-पुथल ज्यादा है। पर आमतौर पर ध्यान के नाम पर जो भी अभ्यास किया या कराया जाता है, वह वास्तव में ध्यान नहीं होता, ध्यान जैसा होता है। पश्चिमी देशों में अब तक तनावों पर ध्यान के प्रभावों को लेकर जितने भी अध्ययन किए गए, उन सबमें प्रत्याहार की विधियां उपयोग में लाई गईं। पर कहा गया है ध्यान। दरअसल, प्रत्याहार राजयोग की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया और ध्यान की अवस्था तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। उसके सधे बिना जो ध्यान है, उसे बगुला ध्यान कहना चाहिए। ….और बगुला ध्यान से भला मानसिक उथल-पुथल रूकना कैसे संभव है? विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

योग शास्त्र के मुताबिक, तनाव तीन प्रकार के होते हैं – स्नायविक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक। पर इन तीनों ही तनावों का असर एक दूसरे पर होता ही है। स्नायु तंत्र मस्तिष्क, हृदय और शरीर के अन्य अंगों को प्राण-शक्ति पहुंचाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में शक्ति वितरित करता है। उत्तेजना स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिसके कारण कुछ अंगों में अध्यधिक ऊर्जा भेज दी जाती है और कुछ अंग आवश्यक ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। तंत्रिका-शक्ति में उचित वितरण की कमी ही मानसिक अशांति का मूल कारण बनती है।

आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए जान-पहचाना योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

प्राणायाम ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी वजह से आंशिक रूप से नष्ट हुईं तंत्रिकाओं में प्राण-शक्ति भेजकर मानसिक अशांति के कारण नष्ट हुए उत्तकों (टिश्यूज) को पुनर्जीवित किया जा सकता है। कोरोना काल में फेफड़े को दुरूस्त रखने में प्राणायाम की भूमिकाओं से तो अब ज्यादातर लोग वाकिफ हो चुके हैं। उसका संबंध भी मन से है। स्वात्माराम की हठप्रदीपिका के मुताबिक राजयोग साधने कि लिए हठयोग अनिवार्य है।

महानिर्वाण तंत्र, रूद्रयामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों के मुताबिक शिव ही योग के आदिगुरू हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं जिससे मन काबू में आ सके।“ शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता की इनती विधियां बतलाई थी कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई थी। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है।  

ध्यान अपने ही भीतर किसी निर्जन द्वीप जैसे स्थल की खोज का मार्ग है। दुनिया के सारे धर्मों के बीच बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। वह है ध्यान। इस बात पर सबकी एक राय है कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। परमात्मा तक अगर कोई भी कभी भी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर – कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता का अनुभव किया, उसने अपने ही भीतर डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।  —-ओशो

दरअसल, अर्जुन के मन में इतना उपद्रव था कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही मुश्किल हो गया था। उसने यह बात श्रीकृष्ण को बतला दी थी। कहा – “मन बड़ा उपद्रवी, शक्तिशाली और हठी है। मन को वश में करना उतना ही कठिन है, जितना वायु को।” श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में इसका उल्लेख है। जबाव में श्रीकृष्ण ने जो कहा था, वह समग्र योग की बात है। उन्होंने यह नहीं बताया कि केवल आंखें मूंदकर बैठ जाने से ध्यान लग जाएगा और मन वश में हो जाएगा। उनके उपायों में यम-नियम की बात है तो प्राणायाम की भी बात है। परमहंस योगानंद ने लिखा है कि भारत के ऋषियों ने अपनी साधना की बदौलत यह ज्ञान हासिल कर लिया था कि श्वास पर नियंत्रण करके मन पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। वैज्ञानिक विधि से की गई यह साधना से रक्त को पर्याप्त आक्सीजन उपलब्ध होता है और कार्बन डाइऑक्साइड हट जाता है। लेकिन फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास रोक लेने से इसके उलट परिणाम मिलने लगते हैं। तब मन चंचल रहेगा और प्रत्याहार संभव नहीं।   

कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी कुवल्यानंद कहते थे कि क्लेश न तो केवल मानसिक है, न शारीरिक। वह मनोकायिक प्रक्रिया है। उससे मुक्ति पाने का सबसे उत्तम उपाय है कि उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाए। एक तरफ से यम व नियमों के द्वारा और दूसरी तरफ से आसन व प्राणायाम के द्वारा। इन क्रियाओं से मन के क्लेश पर नियंत्रण हो जाएगा तो ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों का विनाश कर देगा।    

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया है कि शारीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौराएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को व्यवस्थित करने के लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवध्यानम सरस्वती कहते हैं – प्रति  + आहार = प्रत्याहार। माया के पीछे बाह्य जगत में भटकती इंद्रियों और मन को खींचकर अपने भीतर विद्यमान चेतना, ज्ञान व आनंद के स्रोत से जोड़ देना प्रत्याहार है। राजयोग का यही मुख्य प्रयोजन है। इसलिए राजयोग के आठ अंगों में प्रत्याहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्याहार सिद्ध होता है तो शारीरिक, मानसिक औऱ भावनात्मक हर स्तर पर शांति मिलती है। मन संतुलित होता है।   

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि राजयोग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“  देखिए, विचारों का दमन किस तरह मन को विषाक्त बनाता है।

दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में योगनिद्रा का अभ्यास कराते स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? प्रत्याहार का योगनिद्रा तो शक्तिशाली है ही और भी अनेक विधियां हैं। अजपा है, अंतर्मौन है। “ऊं” मंत्र की शक्ति भी देश-विदेश में अनेक शोधों से प्रमाणित हो चुकी है। इन यौगिक विधियों को साधे बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मनोविकार का मामल उलझा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इतिहास पर गौर करने औऱ संतों के अनुभवों से साफ है कि इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना राजयोग का प्रत्याहार नहीं सधेगा। प्रत्याहार मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग प्रशिक्षकों के लिए कोरामिन की तरह है यह खबर

देश के योग साधकों का मूड बदल रहा है। उन्हें ऑनलाइन योग प्रशिक्षण ही भा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कोविड-19 संक्रमण का भय। खासतौर से दक्षिण भारत का ट्रेंड तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है। सरकार ने हाल ही जिम खोलने का आदेश जारी किया था और बीती रात इसके लिए दिशा-निर्देश भी जारी कर दिया था। पर लोगों का मिजाज कुछ अलग ही दिख रहा है। यह कई महीनों से आर्थिक संकट झेल रहे योग प्रशिक्षकों को सुकून देने वाली बात है।

मदुरै के योग प्रशिक्षकों की माने तो ऑनलाइन योग के प्रति आम लोगों के झुकाव को देखते हुए बड़ी संख्या में योग प्रशिक्षण ऑनलाइन सेवाएं देने के लिए प्रेरित हुए हैं।

शवासन में योग कारोबार, शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक

ऑनलाइन योग कारोबार भले चमकता हुआ दिख रहा है। पर इस चमक के पीछे छिपा है योग प्रशिक्षकों का बेबस दर्द। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षकों के पास या तो कोई काम नहीं है या मामूली काम है। कई योग प्रशिक्षक तो रोजमर्रे की जरूरतें पूरी करने के लिए हर्बल दवाइयां बेच रहे हैं।

कोरोनाकाल योग के लिए स्वर्णिम काल और बहुत सारे योग संस्थानों और योग प्रशिक्षकों के लिए संकट काल है। सुनने में यह विरोधाभासी बातें लग सकती हैं। पर यही हकीकत है। ऑनलाइन योग के कारोबार की जैसी चमक दिख रही है, उसकी असलियत कुछ और है। उसके पीछे ढ़ेर सारे योग कारोबारियों और प्रशिक्षकों का बेबस दर्द है। आलम यह है कि छोटे-बड़े पांच सौ से ज्यादा योग संस्थान बंद हो गए हैं। लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी इन संस्थानों के कारोबार सजने की संभावना बेहद कम है। बेरोजगारी की दंश झेल रहे कई योग प्रशिक्षक हर्बल दवाइयां तक बेच रहे हैं। केवल बाजार में बने रहने के लिए रोज अपने वीडियो जारी करते रहते हैं। जो योग प्रशिक्षक संकटकाल में भी बाजार में टिक गए हैं, उनकी आमदनी बुरी तरह प्रभावित है।

कुछ योग प्रशिक्षक जरूर इसके अपवाद हैं। ऐसे प्रशिक्षक मुख्यत: महानगरों के हैं। जो योग प्रशिक्षक साधन-संपन्न और टेक सेवी हैं और पहले से ही ऑनलाइन क्लासेज ले रहे थे, उनकी आमदनी बढ़ गई है। जो गंभीर रूप से बीमार लोगों को सेवाएं दे रहे थे, उनकी आमदनी पूर्व की तरह बनी रह गई। कुछ योग प्रशिक्षकों को स्थानीय क्लाइंट्स के मार्फत विदेशों के क्लाइंट्स भी मिल गए हैं। पर ऐसे योग प्रशिक्षकों की संख्या गिनती के हैं। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षक ऑनलाइन योग के प्रति योगाभ्यासियों की बेरूखी से बुरी तरह प्रभावित हैं। इस बेरूखी की मुख्यत: तीन वजहें हैं। पहला तो यह कि लोगों की आम राय है कि जब ऑनलाइन क्लास ही करना है तो देश के नामचीन योगाचार्यों की मुफ्त सेवा का लाभ क्यों न उठाया जाए। दूसरा, लोगों का विश्वास है कि योग ऑनलाइन नहीं सीखा जा सकता। दूरस्थ प्रशिक्षण से खतरा हो सकता है। तीसरा, नेटवर्क समस्या और योग प्रशिक्षकों के पास उपयुक्त डिवाइस न होने के कारण ऑनलाइन क्लास से फायदा नहीं है।

दूसरी तरफ, कोरोना महामारी के बाद अपनी सेहत को लेकर महानगरों के मध्य वर्ग की जैसी सोच बनी है, वह भी योग कारोबार के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। “हेल्दीफाईमी” के मुताबिक अपने स्वास्थ्य को लेकर बेहद सतर्क मध्य वर्ग घर को ही जिम में तब्दील करने में जुटा हुआ है। फ्लिप कार्ट और अमेजन से जुटाए गए आंकडों के मुताबिक लॉकडाउन के बाद मैट से लेकर फिटनेस उपकरणों तक की बिक्री में 65 फीसदी का इजाफा हुआ है। बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत योग के कुछ संस्थानों को छोड़ दें तो देश के अनेक प्रमुख योग संस्थानों की ओर से योगाभ्यासियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर रोज वीडियो जारी किए जाते हैं। योग सीखने का यह तरीका कितना कारगर है, इस पर बहस हो सकती है। पर फिलहाल बड़े संस्थानों के वीडियोंज लोगों को खूब भा रहे हैं। 

बड़े योग संस्थानों के पास अपने को बचाए रखने के दस उपाय हैं। जैसे, केंद्र और राज्यों की सरकारें योग से संबंधित अपनी बहुत सारी योजनाएँ बड़े योग संस्थानों के जरिए ही कार्यान्वित कराती है। आजकल बेबिनार का चलन है। हाल ही अंग्रेजी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने वित्तीय कंपनी और योग संस्थान के सहयोग से बेबिनार का आयोजन किया था। सबको पता है कि बेबिनार ऑनलाइन जमाने का प्रकारांतर से विज्ञापन ही है। संकट में वे हैं जो अपने बलबूते उद्यमी बनकर, एंटरप्रेन्योर बनकर कोई मुकाम हालिल करने का सपना संजोए हुए थे। परेशानी उनकी बढ़ी हुई हैं, जिन्होंने सरकारी या निजी क्षेत्र की कंपनियों में रोजगार पाने के मकसद से योग में डिप्लोमा व डिग्री ही नहीं, बल्कि पीजी यानी स्नातकोत्तर तक की शिक्षा हासिल की थी। पर संविदा शिक्षक या प्रशिक्षक बनकर रह गए थे। रोजमर्रे की जिंदगी तबाह उनकी है, जो कुकुरमुत्ते की तरह उग गए योग शिक्षण केंद्रों के भ्रमजाल में फंसकर सौ दो सौ घंटों में योग प्रशिक्षक बनकर किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। संकट झेल रहे तबकों में यह तबका सबसे बड़ा है।

ऋषिकेश को योग की वैश्विक राजधानी के रूप में जाना जाता है। वह परंपरागत योग के संतों की तपोभूमि है तो गुरू-शिष्य परंपरा वाली योग शिक्षा का केंद्र भी है। आध्यात्मिक और धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर पर्यटन स्थल होने के कारण पर्यटकों और अन्य योग शिक्षानुरागियों को ध्यान में रखकर खोले गए योग प्रशिक्षण केंद्र और योगा स्टूडियोज भी हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद योग को पंख लगा तो गुणवत्ता की परवाह किए बिना योग के कारोबार में तेजी से इजाफा हो रहा था। योग को पेशे के तौर पर देखने की युवाओं की मंशा भांपकर योग के कई कारोबारियों ने युवाओं को भ्रमजाल में फंसाया। उन्हें सौ-दो सौ घंटों का प्रशिक्षण देकर योग प्रशिक्षक बना दिया। ऐसे योग प्रशिक्षक अब ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। ऑनलाइन योग के जमाने में उन्हें इस बात का भान हो चुका है कि उनका ज्ञान योग पेशे में लंबी दूरी तय करने के लिए नाकाफी है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति दूसरे शहरों में भी है।

देश के बमुश्किल दो दर्जन योगाश्रमों और प्रतिष्ठित योग संस्थानों को छोड़ दें तो बाकी योग कारोबारियों की हालत खास्ता है। केवल ऋषिकेश में ही कोई तीन सौ योग शिक्षण-प्रशिक्षण केंद्र पूरी तरह बंद हो चुके हैं। इनमें ऐसे केंद्र भी हैं, जो महीने का सात-आठ लाख रूपए व्यावसायिक जगहों के लिए भाड़ा दे रहे थे। इनमें से नब्बे फीसदी केंद्रों के कारोबार विदेशी पर्यटकों पर आधारित थे। नेशलल लॉक़डाउन के बाद वे सभी केंद्र बालू की भीत की तरह बिखर चुके हैं। इनके प्रमोटरों को सूझ नहीं रहा कि नई राह किस तरह बनेगी। लखनऊ में प्रयाग आरोग्यम् केंद्र कई लोगों के रोजगार का जरिया बन गया था। पर कोरोना महामारी के कारण उसे बंद कर देना पड़ा है। इसके प्रमोटर प्रशांत शुक्ल अपने गांव जा चुके हैं और वहीं से ऑनलाइन क्लासेज लेते हैं। उनका कहना है कि कुछ नामचीन योगियों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि लोगों का लगता है कि योग शिक्षा मुफ्त लेने की चीज है। तभी अनेक योग प्रशिक्षकों को हर्बल दवाएं बेचने को मजबूर होना पड़ है।

देश भर में संविदा यानी कांट्रैक्ट पर काम करने वाले योग प्रशिक्षकों की स्थिति भी कमोबेश बाकी योग प्रशिक्षकों जैसी ही है। शैक्षणिक संस्थानों और अन्य संस्थानों के बंद होने के कारण उनकी सेवाएं अर्थहीन हो गई हैं। काम नहीं है तो पारिश्रमिक भी नहीं मिल रहा है। संविदा प्रशिक्षकों की पीड़ा इतनी ही नहीं है। स्नातकोत्तर स्तर की योग शिक्षा और वर्षों योग प्रशिक्षण देने का अनुभव रखने वाले प्रशांत शुक्ला को बीते साल अगस्त में लखनऊ स्थित केंद्रीय विद्यालाय में संविदा के आधार पर बहाल किया गया था। जब भारत में भी कोरोना संकट का आगाज हुआ तो फरवरी में प्राचार्य ने बता दिया कि उनकी नौकरी जा चुकी है।

आर्थिक संकट से जूझते योग प्रशिक्षक सरकार से आर्थिक मदद चाहते हैं। दिल्ली में “योग करो” संस्थान के प्रमुख मंगेश त्रिवेदी और कुछ अन्य योग प्रशिक्षक अपने पेशे के लोगों को सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से लामबंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि योग प्रशिक्षक संगठित होकर अपनी बात उचित स्थानों तक पहुंचाएंगे तो सरकार की कई योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है। शवासन में पहुंच चुके योग कारोबार के कारण शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक इस अभियान से कितने लाभान्वित हो पाएंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)  

योग की बढ़ती स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहबी दीवारें

दुनिया भर में योग की बढ़ती स्वीकार्यता की वजह से धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा खड़ी की गई मजहब की दीवारें गिर रही हैं। विभिन्न प्रकार के शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में योग चमत्कार पैदा करता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा।

भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। बीते सप्ताह उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में 20 से 24 नवंबर तक विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।

वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।

जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था।  तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।

अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।

दुनिया भर में बदलती जीवन-शैली के कारण तबाही के कगार पड़ी पर खड़ी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए लोग योग को तेजी से अपना रहे हैं। उसी का नतीजा है कि एक तरफ शमशाद हैदर जैसे योग गुरूओं को मानने वालों की फौज बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर डॉ जाकिर नाईक जैसे धर्म गुरूओं और मलेशियाई फतवा परिषद से लेकर सांसद असदुद्दीन ओवैसी की अपीलें तक युवाओं के लिए बेमतलब साबित हो रही हैं। योग-शक्ति का कमाल देखिए कि पाकिस्तान ही नहीं, अन्य इस्लामिक देशों में भी योग को लेकर भ्रांतियां दूर हो रही हैं। फिलिस्तीन, मलेशिया और इंडोनेशिया नित नए योग केंद्र खुल रहे हैं। ईरान जैसे मुस्लिम गणतंत्र में योग फेडरेशन बना हुआ है, जिसके कार्यक्रमों में प्रत्येक आसन के फायदों पर चर्चा की जाती है।

आखिर अचानक आए इस बदलाव की वजह क्या है? केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपाद येसो नाईक कहते हैं, “योग विज्ञान है। इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारों ने योग को लेकर फैली भ्रांतियां दूर करने की कभी कोशिश ही नहीं की। हम सब ने अल्पसंख्यकों को समझाया कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम है। इसका सूर्य से कोई संबंध नहीं है। यदि योग करने में ओम् का उच्चारण आड़े आता हो तो उसकी जगह अल्लाह का नाम ले लें। इन बातों का असर हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाने संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र संघ में दुनिया भर से समर्थन मिलना इस बात का परिचायक है कि योग को लेकर फैलाई गईं भ्रांतियां काफी हद तक दूर हुई हैं।“

अपनी मान्यता है कि विभिन्न धर्मों के ठेकेदारों ने निहित स्वार्थों के लिए योग विज्ञान की गलत व्याख्या कर दी। इससे कालांतर में इसका अर्थ बदल गया। अब चीजें दुरूस्त करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़ रहा है। तभी हमें जब आज के वैज्ञानिक बताते हैं कि अमुक योग से इस तरह के फायदे होते हैं, तब हमें भरोसा होता है कि योग विज्ञान है और इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। मैंने बीते सप्ताह ही इस कॉलम में वैज्ञानिक स्थापना के आधार पर लिखा था कि हमारे मस्तिष्क के भीतर चार प्रकार की तरंगें – बीटा, अल्फा, थीटा औऱ डेल्टा उत्पन्न होती हैं, जिन्हें ईईडी के जरिए देखा जा सकता है। मानव जब उत्तेजित होता है तो बीटा तरंग की प्रधानता रहती है। शांति मिलने पर अल्फा तरंग पैदा होता है। योगनिद्रा की अवस्था या अन्य तरीकों से जब मन एकाग्र होता है तो मस्तिष्क में डेल्टा औऱ थीटा तरंगों का आदान-प्रदान होता है। यह योग का विज्ञान ही तो है। इस क्रिया का धर्म से क्या वास्ता?  

आधुनिक काल में योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान के अग्रदूत स्वामी कुवल्यानंद ने तो 1920 में ही योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान प्रारम्भ कर दिया था। इसके चार साल बाद उन्होने कैवल्यधाम स्वास्थ्य एवं योग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की थी, जहाँ योग पर उनका अधिकांश अनुसंधान हुआ। उन अनुसंधानों से साबित होता गया कि योग पर प्रचीनकाल की स्थापना बिल्कुल सही थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में कहा था कि योग विज्ञान है। इसका किसी भी धर्म से कोई वास्ता नहीं। तंत्र, जिसके द्वारा योग विकसित हुआ, उन वेदों से भी अधिक पुरानी पद्धति है, जिसके द्वारा हिंदू धर्म की उत्पत्ति और विकास हो सका है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योग हिंदू धर्म से अधिक प्राचीन है।

पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था। खुद महर्षि पतंजलि ने भी योग का प्रयोजन “योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:” बताया था। यानी चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। उन्होंने किसी देवी-देवता की बात नहीं की थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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