योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीराम का गुणगाण करिए!

किशोर कुमार

रामनवमी करीब है, तो बात श्रीराम की ही होगी। पर बात किस श्रीराम की हो?  संत कबीर तो चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब ज्यादा सुनते-समझते हैं। बचपन से राम-कथा के साथ ही ब़ड़े हुए। पर जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? क्या वह परब्रह्म परमेश्वर है? और यदि है तो एक राजपुत्र इस अवस्था को कैसे प्राप्त हुआ?

महारामायण योगवशिष्ठ इस सावाल का जबाव है। इस पर आगे चर्चा होगी। पर पहले श्रीराम की महिमा वाले कुछ प्रसंगों पर गौर कीजिए। हमारे जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं अवसादग्रस्त कर देती हैं। पर श्रीराम की कथा पर गौर कीजिए। कल राजतिलक होना है और आज वनगमन का फैसला लेना पड़ा। जीवन की इतनी उथल-पुथल भरी घटना के बावजूद श्रीराम स्थितप्रज्ञ बने रहे। वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। वह तो इसी बात से खुश हो गए कि वन में मुनियों से मिलाप होगा। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे। रास्ते कांटों से भरे थे। पैर लहूलुहान हो गए। पर इस बात की परवाह नहीं। चिंता तो यह थी वे कांटे उनके भाइयों को चुभ जाएंगे। इसलिए उनका दिल कह रहा था कि उनके भाई भरत और शत्रुध्न उनसे मिलने जरूर आएंगे। ऐसा सद्विचार किसी महायोगी का ही हो सकता है।

शक्ति संपन्न इस महायोगी का स्वरूप इतना विराट है कि उनका नाम मात्र का स्मरण भी चमत्कार उत्पन्न करता है। इसके अनगिनत उदाहरण मिलते हैं। इस संदर्भ में बाबा मलूकदास और स्वामी सत्यानंदजी महाराज से जुड़े प्रसंगों की चर्चा समीचीन हैं। मलूकदास संत कबीर के समकालीन संत कवि थे। उनके गांव में एक रामनामी साधु आया था। वह ग्रामीणों को राम की महिमा बता रहा था, ‘राम दुनिया के सबसे बड़े दाता है। वे भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।’ साधु की बात मलूकदास के पल्ले नहीं पड़ी। वे तर्क करने लगे – यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूं, काम न करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे?’ अवश्य देंगे, साधु ने विश्वास दिलाया। यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब? तब भी राम भोजन देंगे! साधु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया। मलूकदास चले गए घने जंगल में। पेड़ पर जाकर बैठ गए। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ अनवरत राम नाम जपते रहे।

मलूकदास नाम जप में इतने तल्लीन हुए कि भूख-प्यास भी जाती रही। कई दिनों बाद एक घटना घटी। कुछ लोग आखेट के लिए जंगल गए और उसी पेड़ के नीचे भोजन करने बैठे। पर शेर की गर्जना सुनकर भोजन वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। शेर तो आया नहीं। पर थोड़ी देर बाद डकैत वहीं विश्राम करने पहुंच गए। घने जंगल में भोजन देखकर संशय में पड़ गए कि कोई पकड़ने के लिए जाल तो नहीं बिछा रहा। तभी उनकी नजर पेड़ पर बैठे मलूकदास पर गई। उन्हें लगा कि उस व्यक्ति ने जहर मिलाकर भोजन ऱखा हुआ है ताकि हमारी जान ले सके। आक्रोशित एक डाकू भोजन लिए पेड़ पर चढ़ा और मलूकदास को खाने के लिए मजबूर कर दिया। कहानी लंबी है। पर इस घटना के बाद ही मलूकदास ने काव्य रचना की थी – “अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम, दासमलूका कह गए, सबके दाता राम।“

स्वामी सत्यानंदजी महाराज आर्यसमाज के शीर्ष के आध्यात्मिक नेताओं एक थे। पर मन श्रीराम में रम गया। सन् 1925 में दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान ही एकांतवास की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज की गतिविधियों से दूर होकर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए थे। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। गांधी जी की मनोकामना पूरी हुई। पर राम नाम भजना जारी रखा। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।   

दुनिया में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने अपनी शक्तियों को जागृत करके ही महानता प्राप्त की। श्रीराम को तो बड़े होकर अयोध्या का राज सिंहासन संभालना था। पर गुरू महर्षि विश्वामित्र से धनुर्विद्या और शास्त्र विद्या की शिक्षा लेने के बाद तीर्थाटन से लौटे तो वैराग्य उत्पन्न हो गया। यही श्रीराम की योग शिक्षा की पृष्ठभूमि बनी। श्रीमद्भगवतगीता में भगवान ने विषादग्रस्त अर्जुन को योग का उपदेश किया है। इसके उलट योगवशिष्ठ में गुरू वशिष्ठ ने भगवान को विषाद जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर योग की शिक्षा दी। अर्जुन की तरह श्रीराम जिज्ञासा करते गए और गुरू वशिष्ठ उत्तर देते गए। मसलन, श्रीराम ने जिज्ञासा की कि मन का स्वरूप क्या है? महर्षि वशिष्ठ ने विस्तार से इसका उत्तर दिया, जिसका सार है कि महान आत्मा की संकल्प-शक्ति द्वारा रचा हुआ रूप ही मन है। मन का स्वभाव संकल्प है। मन जैसे जगत् की कल्पना करता है, उसके संकल्प द्वारा वैसा ही जगत् निर्मित हो जाता है। उसमें सब कुछ प्राप्त करने की अनंत शक्ति है।

महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नतीजा हुआ कि दशरथ पुत्र राम में छिपे विष्णु प्रकट हो गए। इसके साथ ही उनमें आदर्श, करूणा, दया, त्याग, शौर्य और साहस जैसे गुणों का प्रकटीकरण हुआ। श्रीराम मानव जाति के लिए आदर्श बन गए। वे युगो-युगों से हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। संस्कारों पर धूल पड़े होने के कारण हमें इसका बोध नहीं है। योगमय जीवन अपने भीतर छिपे श्रीराम के महान गुणों के प्रकटीकरण में सहायक होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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