गायत्री परिवार का अश्वमेघ यज्ञ

किशोर कुमार

दुनिया के झंझटों से परेशान होकर कुछ व्यक्ति एक वटवृक्ष के नीचे बैठे वार्तालाप कर रहे थे। सभी विमर्श कर रहे थे कि तपस्या से प्रभावित होकर भगवान ने दर्शन दे दिए और वर मांगने को कहा तो क्या मांगेंगे? किसी ने अन्न मांगने का सुझाव दिया तो किसी ने बल मांगने की इच्छा जताई। विशाल वटवृक्ष उनकी बातों पर ठहाका लगाता हुआ बोला- मेरी बात मानो, तुम लोगों से न तपस्या होगी, न उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी, क्योंकि यदि इतना मनोबल होता तो संसार से घबराकर न भागते। मैं बिना मांगे ही एक वरदान देता हूँ, उसका नाम है प्रेम। प्रेम की भावना विकसित करो, फिर देखो जो वस्तु चाहोगे, वहीं प्राप्त करने की क्षमता तुम्हारे अन्दर आ जाएगी। मुंबई में पांच दिनों तक चला गायत्री परिवार का विशाल अश्वमेघ महायज्ञ भी मुख्यत: प्रेम यानी प्राणि मात्र से प्रेम, राष्ट्र से प्रेम के संदेश के साथ संपन्न हो गया। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी कहना होगा कि यह महायज्ञ समयानुकूल था और तन-मन को स्वस्थ आधार देकर वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को विकासित करने के लिहाज से मील का पत्थर साबित होगा। 

भारतीय परंपरा में अश्वमेध यज्ञ का विशेष महत्व है। अश्वमेध यज्ञों के महत्व के वर्णन से वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। प्राचीन काल में, इन्हें पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करने, ईश्वर की कृपा प्राप्त करने और राष्ट्र को एकजुट करने के लिए किया जाता था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ और उस दौरान लव-कुश के युद्ध की कहानी कौन नहीं जानता। श्री राम धर्म के प्रति समर्पित थे और उन्होंने अपने राज्य के कल्याण और सुरक्षा के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यह उनका धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक था और उनके शासनकाल में धार्मिक न्याय का पालन करने का संकल्प प्रकट करता था। महाभारत का महायुद्ध समाप्त होने के बाद देश में शांति और सद्भाव का साम्राज्य स्थापित करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था।

आधुनिक युग की समस्याएँ अलग हैं तो इस यज्ञ का स्वारूप भी बदला हुआ है। कलियुग धर्माचार्यों की चिंता इस बात को लेकर होती है कि किसी विधि मानव में देवत्व का उदय होना चाहिए। ताकि आत्मवत् सर्वभूतेषु (सभी जीवित प्राणी आत्मीय हैं) और वशुधैव कुटुंबकम् (संपूर्ण पृथ्वी हमारा परिवार है) की भावना का विकास हो सके। यह तो तभी संभव होगा जब स्वस्थ शरीर, शुद्ध मन और सभ्य समाज का निर्माण होगा। गायत्री परिवार का मुंबई में 21 से 25 फरवरी तक पांच दिवसीय अश्वमेघ महायज्ञ को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विज्ञान की कसौटी पर हमें यज्ञ, हवन और मन्त्रोच्चारण के महत्व का पता चल चुका है। अश्वमेघ यज्ञ के रूप में मिनी-कुंभ में पांच दिनों के भीतर 2.4 करोड़ मंत्र-युक्त यज्ञ आहुतियों से अभूतपूर्व सकारात्मकता उत्पन्न हुई, जो आने वाले समय में देश और विशेष रूप से मुंबई शहर के लिए शांति और समृद्धि में परिलक्षित होगी।

अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा संचालित 47वां अश्वमेध महायज्ञ इस मायने में अनूठा था कि यह प्रतिभाओं के परिष्कार तथा नियोजन के साथ नशा मुक्ति को भी समर्पित था। ताकि राष्ट्र को वह ऊर्जा प्रदान हो जिससे राम राज्य की स्थापना हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि गायत्री परिवार का अश्वमेध यज्ञ, सामाजिक संकल्प का एक महा-अभियान बन चुका है। इस अभियान से जो लाखों युवा नशे और व्यसन की कैद से बचेंगे, उनकी वो असीम ऊर्जा राष्ट्र निर्माण के काम में आएगी।

इस यज्ञ की खास बात यह रही कि गायत्री परिवार ने इसे प्रचलित अनुष्ठान से अलग इसकी वैज्ञानिकता बतलाते हुए हर कार्य संपन्न कराया। नतीजा हुआ कि यज्ञ में भाग लोगों के मन में यज्ञ के परिणामों को लेकर स्पष्टता बनी रही। इससे यज्ञ ज्यादा ही प्रभावशाली बन पड़ा। जैसे, लोगों को पता था कि महायज्ञ में गायत्री मंत्रोचार के परिणाम क्या होने हैं। इसके लिए उनके समक्ष पूर्व में किए गए शोधों के नतीजे थे, जिनमें बताया गया है कि ध्वनि कंपन की शक्ति को विज्ञान के क्षेत्र में क्यों स्वीकार किया गया है और ये कंपन सूक्ष्म और ब्रह्मांडीय स्तर पर ऊर्जा क्षेत्रों में प्रवेश करके क्या परिणाम देते हैं। इसके लिए गायत्री परिवार की ओर से एक अमेरिकी वैज्ञानिक के शोध नतीजों का हवाला दिया गया। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगुल ने स्थापित किया था कि गायत्री मंत्र के पाठ से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं।

इसी तरह और भी शोध नतीजे लोगों के संज्ञान में लाए गए थे। जैसे, गायत्री परिवार के हरिद्वार स्थित ब्रह्मवर्चस अनुसंधान संस्थान में स्थापित यज्ञोपैथी प्रयोगशाला में एक यज्ञ के अनुष्ठान के दौरान मंत्रोच्चार के साथ जड़ी-बूटियों के उर्ध्वपातन के प्रभाव का अध्ययन से पता चला था कि यह पल्मोनरी टीबी से छुटकारा दिलाने के लिए बड़े महत्व का है। पल्मोनरी ट्यूबरकुलोसिस दुनिया भर में एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। अकेले भारत में हर साल लगभग अस्सी हजार नए मामले सामने आते हैं। मंत्र के बार-बार लयबद्ध जप और गहरी सांस लेने के कारण, यज्ञ के दौरान उत्पन्न औषधीय वाष्प चमत्कारिक परिणाण देता है।

लोगों ने जाना कि यज्ञ मिर्गी के मरीजों के लिए कितना फलदायी है। भारत में, लगभग 10 मिलियन लोग मिर्गी से पीड़ित हैं। चिंताजनक बात यह है कि ज्यादातर मिर्गी पीड़ितों का कभी इलाज नहीं किया जाता है। दक्षिण अफ़्रीका में पारंपरिक चिकित्सकों ने मिर्गी के मरीजों पर यज्ञों के प्रभावों का अध्ययन किया तो पाया कि यज्ञ की प्रक्रिया वांछनीय औषधीय फाइटोकेमिकल्स और अन्य स्वस्थ पोषक तत्वों के लाभों को बढ़ाती है। इससे मरीजों की रिकवरी आसान होती है।

रूस के यहूदी जीवाणु वैज्ञानिक व्लादीमीर हाफ्किन ने हैजा-रोधी टीका विकसित करके भारत में सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। गायत्री परिवार ने उनके एक शोध परिणाम के हवाला से भी यज्ञ के चिकित्सकीय प्रभावों से लोगों को अवगत कराता रहा है। डॉ. हाफकिन के मुताबिक, “घी और चीनी को मिलाकर जलाने से धुआं निकलता है जो कुछ रोगों के कीटाणुओं को मारता है और श्वास नली से संबंधित कुछ ग्रंथियों से स्राव होता है, जो हमारे दिल और दिमाग को आनंद से भर देता है।”

यज्ञ की वैज्ञानिकता ने युवावर्ग पर व्यापक प्रभाव डाला। खास बात यह रही कि महायज्ञ से आध्यात्मिक लाभ लेने वालों की संख्या ज्यादा थी। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में महायज्ञ के सकारात्मक परिणाम दिखेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

चेतना के विकास में बड़े काम का है गायत्री मंत्र

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकने-चौंकाने वाली बात न थी। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर में उस समय क्या घटित हो रहा था, उसका आंखों देखा हाल ऐसे बतला दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ देख रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी। परीक्षण के बाद उस तस्वीर को बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में इसे त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।    

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह स्वस्थ्य और सक्रिय रखा जा सकता है? उपाय अनेक हैं। पर गायत्री मंत्र किसी भी यौगिक उपाय से बढ़कर है। कुछ वैज्ञानिक अनुसंधानों से इस मंत्र की अहमित को समझिए। मंत्र विज्ञान पर अनुसंधान करने वालों में अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगरिल का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे अपनी प्रयोगशाला में मंत्रों की शक्ति का वर्षों परीक्षण के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि गायत्री मंत्र बेहद शक्तिशाली है। इसके जप से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो सर्वाधिक हैं। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय ने मानव के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक विकास में गायत्री मंत्र की भूमिका पर कई साल पहले शोध शुरू किया था। पायलट प्रोजेक्ट के तहत रेडियो पारामारिबो, सूरीनाम, दक्षिण अमेरिका, जर्मन व हालैंड से प्रतिदिन शाम 7 बजे से 15 मिनट के लिए गायत्री मंत्र का प्रसारण किया गया। कुछ लोगों का समूह बनाकर उन्हें नियमित रूप से रेडियो पर गायत्री मंत्र सुनने और उससे अपने को तादात्म्य बनाने को कहा गया था। छह महीनों बाद पाया गया कि जप के समय कंपन वातावरण में फैलता है। वही कंपन सकारात्मक परमाणुओं को आकर्षित करके मंत्र से तादात्म्य बनाने वाले व्यक्ति के पास लौटता है और उसे उस सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

वैदिककालीन ऋषि तो सदियों से गायत्री शक्ति की महत्ता को स्वीकारते रहे हैं। तभी वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता, गायत्री उपनिषद, गायत्री संहिता, गायत्री तंत्रम, गायत्री रामायण, गायत्री सहस्रनाम, गायत्री चालीसा और गायत्री हृदयम जैसे न जाने कितने ही ग्रंथ उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था – ऊं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है। हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उनके उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे।

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध आज्ञा चक्र से होने के कारण इसका उच्चारण करने से ऐसे स्पंदन उत्पन्न होते हैं, जो आज्ञा चक्र को जागृत करते हैं। भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

संतों और आधुनिक युग के वैज्ञानिकों के अनुभवों से स्पष्ट है कि यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो इससे जीवन में बड़ा और सकारात्मक बदलाव देखने को मिल सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकाने वाली बात न रही। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर के भौगोलिक स्थितियों का बयान ऐसे कर दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ बता रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी, जिसके परीक्षण के बाद बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।     

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह सक्रिय किया जा सकता है? गायत्री जयंती इस साल 31 मई को मनाई गई। यह लेख उसी आलोक में होगी। वैसे, गायत्री विद्या इतना व्यापक है कि इसके किसी भी पक्ष को ले लीजिए, यदि ज्ञान है तो मोटे-मोटे ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। इसकी व्यापकता का अंदाज इस बात से लगा सकते हैं कि वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता है तो गायत्री उपनिषद है, गायत्री संहिता है तो गायत्री तंत्रम है। गायत्री रामायण है तो गायत्री सहस्रनाम है। गायत्री चालीसा है तो गायत्री हृदयम है। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था –गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है।

हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। गायत्री मंत्र के जरिए हम जो प्रार्थना करते हैं, उसका भाव होता है – उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे। कालांतर में तथ्यों के आधार पर यह विचार बलवती होता गया कि मनुष्य गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। 

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत ऊं नाद का प्रतीक है। सृजन के क्रम में इस ध्वनि का विकास होता गया। इस तरह कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैदिक सिद्धांतों में गायत्री को प्राण की इष्ट देवी कहा गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। योग शास्त्र में आज्ञा-चक्र को सक्रिय करने के लिए अनेक विधियां बतलाई गई हैं। यह सच है कि उनमें से किसी भी विधि से आज्ञा-चक्र को सक्रिय किया जा सकता है। पर इस मामले में गायत्री मंत्र की शक्ति अद्भुत है। इस मंत्र के सभी 24 अक्षरों के अलग-अलग देवता हैं और उन अक्षरों के उच्चारण का कुंडलिनी चक्रों पर प्रभाव होता है। जैसे, जब हम तत् का उच्चारण करते हैं तो इसके देवता गणेश हैं, जो सफलता शक्ति प्रदान करने वाले हैं।

जैसे हनुमान जी का उपनयन संस्कार हुआ था, वैसे ही भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

गायत्री उपासना से आध्यात्मिक उपलब्धियों के साथ ही भौतिक उपलब्धियां मिलने के भी उदाहरण भरे-पड़े हैं। आधुनिक विज्ञान ने गायत्री मंत्र की वैज्ञानिकता और मानव की चेतना के विकास में उसके महत्व का बार-बार उजागर किया है। गायत्री जयंती पर यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो यह बड़ी उपलब्धि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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