गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार //

आज आषाद माह की पूर्णिमा को हम सब मनाते तो हैं गुरू पूर्णिमा के रूप में। पर शिष्यों के लिए इसकी अहमियत ज्यादा है। क्यों? क्योंकि गुरू की पूर्णिमा हो चुकी होती है। तभी तो हम उन्हें गुरू, ब्रह्म या साक्षात् ईश्वर के रूप में पूजते हैं। पूर्णिमा तो शिष्यों की होनी है। तभी गुरू इस मौके पर हमारी आसक्ति की जंजीर को तोड़कर संसार के बंधन से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह दिन शिष्यों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सवाल है कि शिष्य के तौर पर हम सब क्या करें कि गुरू पूर्णिमा सार्थक बन जाए? हम जिस गुरू से जुड़ने जा रहे हैं, वह गुरू समर्थ है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें और यदि गुरू उच्च कोटि के संत हैं तो उनके साथ हमारा संबंध कैसा होना चाहिए? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें निश्चित रूप से मंथन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद को शिष्य धर्म की कसौटी पर कसे बिना गुरू पूर्णिमा जैसा स्वर्णिम अवसर भी अर्थहीन हो जाएगा। उत्सव हम भले मना लेंगे। पर हमारे जीवन में किसी तरह का बदलाव नामुमकिन होगा।

शिष्यों के लिए गुरू पूर्णिमा कितने महत्व का है, यह आदिगुरू शिव और सप्त ऋषियों की कथा से स्पष्ट है।  शिव जी का हिमालय में ध्यानमग्नावस्था में अवतरित होना साधना मार्ग में आगे बढ़ रहे हिमालय के सात ब्रहम्चारियों के लिए किसी दैवीय संयोग से कम न था। उन्हें इस अवतारी महापुरूष में गुरू तत्व दिखा। उधर, अंतर्यामी शिवजी का ध्यान टूटा तो उन साधकों की इच्छा समझते देर न लगी। शिवजी ने उन्हें शिष्य की पात्रता हासिल करने के लिए कुछ साधनाएं बता दी। कोई 84 वर्षों की साधना के बाद जब वे शिष्य बनने के पात्र हो गए तो शिवजी ने आषाद महीने की पूर्णिमा के दिन उन साधकों को ज्ञान उपलब्ध कराया था। उसी दिन आदियोगी आदिगुरू बने और सात शिष्य कालांतर में सप्तऋषि कहलाए, जिनके नाम थे वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इस तरह सप्तऋषियों की पूर्णिमा हो गईं और आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन उत्सव का दिन बन गया।

इस कथा से साबित होता है कि शिष्य तभी बना जा सकता है, जब हममें इसकी पात्रता होगी। पर पहले समझिए कि पात्रता क्यों जरूरी है। कुंडलिनी तंत्र के मुताबिक, हमारे शरीर के अन्दर एक प्रमुख चक्र है, जिसे हम ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। कुछ लोग इसे गुरु-चक्र भी कहते हैं। इसका स्थान भूमध्य के पीछे जहाँ सुषुम्ना समाप्त होती है, वहीं है। इसकी एक अपनी विशेषता है। साधना के सिलसिले में ज्यों-ज्यों साधक की बाह्य चेतना अचेत होती जाती है, उसी अनुपात में यह चक्र जगता जाता है। एक ओर मन, बुद्धि, चित्त और इन्द्रियों का लोप होते जाता है, तथा दूसरी ओर इष्ट देव का चित्र स्पष्ट होता जाता है और इसके साथ ही साथ आज्ञा चक्र जाग्रत होता जाता है। ज्योंहि इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई कि वह अन्दर गया। ध्यान की अवस्था में उन्हीं का आज्ञा चक्र जाग्रत होता है, जिनकी इन्द्रियाँ कम चंचल हैं और मन एक हद तक शांत तथा अनासक्त है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका आज्ञा चक्र ध्यान के बाहर भी जाग्रत रहता है, पर ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। ध्यान की अवस्था में जब आदेश ग्रहण करने वाली प्रत्येक इन्द्रिय सो जाती है, तब यही आज्ञा चक्र गुरु का सूक्ष्म आदेश ग्रहण करता है।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं। अब सवाल है कि शिष्य में किस तरह की पात्रता होनी चाहिए? सभी गुरूजन एक ही बात कहते हैं कि निष्कपटता, श्रद्धा और आज्ञाकारिता ये तीन बातें शिष्यत्व की पहली शर्त है। पर इन गुणों का विकास भी तभी होगा, जब हम अष्टांग योग की प्रारंभिक साधना यम-नियम का पालन करना करना सीख जाएंगे। पूर्व में इसी कॉलम में यम-नियम पर विस्तार से लेख प्रकाशित हो चुका है। यम-नियम के बिना आध्यात्मिक प्रगति हो नहीं सकती। महर्षि पिप्पलाद ने भी प्रश्नकर्त्ताओं को पहले यम-नियम का पालन करने को ही कहा था।  

शिष्यत्व की ये योग्यताएं हासिल करने वाला शिष्य ही गुरू की खोज करने में समर्थ हो पता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरू का चयन करते समय देखो कि वह गुरू शिष्य की कसौटी पर कितना खरा है। यदि खरा है तो वह निश्चित रूप से समर्थ गुरू है। मैंने इसी बात को ध्यान में रखकर तो गुरू की खोज की थी। अब सवाल है कि गुरू के साथ हमारा संबंध कैसा हो? स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक पथ पर पहला कदम है, निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा। गुरु सेवा अमर आनन्द की अट्टालिका की नींव है। विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा इसके स्तम्भ हैं। ऊपर की इमारत अनन्त आनन्द है। गुरु सेवा ईश्वर की पूजा है। गुरु सेवा तथा गुरु के प्रति आत्मसमर्पण हृदय के द्वार खोलता है, चेतना का विस्तार करता है तथा आत्मा को गहराई प्रदान करता है। जो आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-भाव के साथ गुरु-सेवा करता है, वही सच्चा शिष्य है। गुरु-सेवा में आप जितनी अधिक शक्ति लगाएंगे, उतनी ही अधिक दैनिक शक्ति का संचार होगा।

इस तरह गुरू पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा प्रारब्ध चाहे जैसा भी हो, यदि हम सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने को तैयार हैं तो हमारे लिए अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा खुल सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्य-धर्म के निर्वहन का संकल्प लेने का दिन है। रस्मी तौर पर केवल गुरू का गुणगान करने से बात बनने वाली नहीं। गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्यों न भाए भारत!

किशोर कुमार //

आध्यात्मिक गुरू और तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को भारत भूमि से इतना लगाव क्यों है? क्यों कहते हैं कि प्राण भी निकले तो भारत भूमि पर ही। ऐसे सवाल आते ही प्राय: राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती है। उनका आध्यात्मिक पक्ष गौण हो जाता है। पर सोचने की बात है कि जब दलाई लामा भारत आए थे, तो क्या उस समय उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था? राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचे तो कहना होगा कि विकल्प था। पर आध्यात्मिक नजरिए मंथन करें तो कहना होगा कि भारत भूमि को छोड़कर ऐसी कोई भूमि नहीं थी, जहां उनकी आध्यात्मिक विचारधारा पल्लवित-पोषित हो सकती थी।

क्यों? बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे – “धरती पर भारत ही इकलौता देश है, जिसके पास सृष्टि के आरंभ से दु:खों के विनाश, पूर्ण आनंद और शांति की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रणाली है। उसे पता है कि वह कौन-सा केंद्र है, जिस पर जीवन का नाटक खेला जा रहा है। वह अपनी अंतर्यात्रा की विलक्षण शक्ति की बदौलत उस वैदांतिक सत्य से साक्षात्कार करता रहा है।“ सच है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, जन्म का प्रयोजन क्या है और मृत्यु के पश्चात कहां जाऊंगा जैसे प्रश्न हमारी पुण्य भूमि पर खड़े किए गए और अंतर्यात्रा में उनके उत्तर मिल भी गए। संतो को इस बात की शिद्दत से अनुभूति होती रही है कि मानव को कुछ बनाने की जरूरत नहीं; क्योंकि वह जो भी हो सकता है, वह अभी हैं। सिर्फ धूल की परतों के कारण उसे इस सत्य से साक्षात्कार नहीं हो पता। धूल हटते ही उसका मूल स्वरूप प्रकट हो जाएगा। योग और अध्यात्म धूल हटाने की वैज्ञानिक विधि है।

दूसरी तरफ, तमाम वैज्ञानिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद पश्चिमी दुनिया के लिए यह बात आज भी पहेली ही है। जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री और दार्शनिक इमानुएल कॉट ने नैतिक शुद्धता और कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धांत लिखा। प्राणि तत्ववेत्ता डॉ हैकेल ने “द रिड्स ऑफ द यूनिवर्स” नामक पुस्तक लिखकर उस सिद्धांत को विस्तार दिया। मूर्धन्य साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका अनुवाद किया था। पर यह विचार वेदांत के आसपास भी नहीं पहुंच सका। फिर जर्मनी के ही दार्शनिक आर्थर सोपेनहाइवर ने आगे की बात की। पर बात नहीं बन पाई। अंत में उन्होंने उपनिषदों की चर्चा करते हुए ईमनदारी से स्वीकारा कि संसार के इन अत्युत्तम ग्रंथों से कुछ विचार अपने ग्रंथों में लिए हैं। वे भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को मानते थे और स्वयं को बौद्धधर्मी कहते थे। उन्होंने जीवन के आखिरी समय में कहा था – “मेरे जीवन में उपनिषदों से शान्ति मिली है; मृत्यु के समय भी उनसे ही शान्ति मिलेगी।”  

खैर, कहते हैं न कि फलदार वृक्ष झुका हुआ होता है। भारत की मूल प्रकृति भी कुछ ऐसी ही है। इतनी प्रचुर आध्यात्मिक संपदा होने के कारण इस देश में धार्मिक सहिष्णुता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। तभी दलाई लामा कल भी मानते थे और आज भी मानते हैं कि भारत में सभी धर्मों का सम्मान है। रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत से और भी स्पष्टता आ जाती है। वे कहते थे – “जरूरी चीज है छत तक पहुंचना। तुम पत्थर की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो, बांस की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो या फिर रस्सी से भी चढ़कर जा सकते हो। इसी तरह परमात्मा को किसी भी मार्ग से प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म के मार्ग सत्य है।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हमने विभिन्न धर्मों के जितने भी संत-महात्माओं को जाना, उन सभी की उपलब्धियां और सिद्धियां समान थीं। यहां तक कि आध्यात्मिक अनुभूतियां भी समान थीं।

सर्व धर्म समभाव की ऐसी मिसाल भला और कहां मिलेगी? तभी दलाई लामा जैसे आध्यात्मिक गुरू को अध्यात्मशास्त्र की ब्रह्म या आत्मा की अवधारणा से इत्तेफाक न होने के बावजूद भारत की भूमि मातृभूमि जैसी जान पड़ती है। वैसे, दलाई लामा की कहानी तो इस युग की कहानी है। हजारों साल पहले ईसा मसीह भी आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए भारत ही तो आए थे। आध्यात्मिक पुस्तकों यथा भविष्य पुराण और लद्दाख के हेमीस मठ के अभिलेखों जैसे अनेक अभिलेखों से यह तथ्य प्रमाणित है कि ईसा मसीह ने कोई बारह वर्षों तक भारत में रहकर संन्यासी जीवन व्यतीत किया था। इसी तरह सत्रहवीं शताब्दी के यहूदी संत सरमद ईरान में जन्मे-पले थे। भारत तो व्यापार करने आए थे। पर भारतीय संतों का सानिध्य मिला तो आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त हो गया था।

खैर, आधुनिक युग में भी दलाई लामा इकलौते आध्यात्मिक गुरू नहीं हैं, जिन्हें भारत बेहद आकर्षित करता है। विदेशी आध्यात्मिक गुरूओ की फेहरिस्त लंबी है, जो भारत के संतों से विशिष्ट आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद या तो भारत के हो कर रह गए या स्वदेश वापसी के बावजूद मानसिक तौर पर भारत में ही रह गए। कैलिफोर्निया के सैन डिएगो में जन्मे और पले-पढ़े आचार्य मंगलानंद ऐसे ही आध्यात्मिक गुरू हैं। भारत की महानतम संत आनंदमयी मॉ से मिले तो दीक्षा लेने के लिए ब्याकुल हो गए थे। दीक्षित हुए तो ऐसे रूपांतरित हुए कि ओंकारेश्वर में ही रहकर कर्मयोग साधना में तल्लीन हैं। आस्ट्रेलिया के चिकित्सा स्वामी शंकरदेव सरस्वती भी वर्षों बिहार में रहे और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के सानिध्य में आध्यात्मिक साधना करते रहे। उनकी पुस्तक “रोग औऱ निरोग” सर्वाधिक चर्चित है। अब आस्ट्रेलिया में रहकर भी बिहार या सत्यानंद योग का ही प्रचार करते हैं। “सूरत शब्द योग” से हम सबको परिचित कराने वाले डॉ.जूलियन फिलीप मैथ्यू जॉनसन अमेरिका के ईसाई परिवार में जन्मे शल्य चिकित्सक थे। पर जब अध्यात्म की तरफ झुकाव हुआ तो सीधे भारत आ गए। यहां वे राधास्वामी सत्संग ब्यास के तत्कालीन प्रमुख सतगुरू महाराज सावन सिंह जी की संगति में वर्षों रहे। आध्यात्मिक अनुभूतियां हुईं तो कई यौगिक विधियों को सुगम बनाकर प्रस्तुत किया। उनसे संबंधित पुस्तकें लिखीं।   

अब तो विदेशों के आम युवा भी भारत की यौगिक व आध्यात्मिक शक्तियों से प्रभावित होकर शांति की तलाश में खींचे चले आ रहे हैं। सन् 2019 में प्रयागराज के कुंभ में इसका भव्य नजारा दिखा था। बड़ी संख्या में युवाओं ने संतो से आशीर्वाद लेकर आध्यात्मिक यात्रा शुरू की थी। समाचार एजेंसी एएनआई ने इस खबर को प्रमुखता से प्रसारित किया था। दरअसल, आज अमेरिका या यूरोप में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ अब तो विदेशी वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। इसलिए विदेशी युवाओं को भारत की आजमायी हुई यौगिक व आध्यात्मिक जीवन-शैली रास आ रही है।

कोई सवाल कर सकता है कि इतनी आध्यात्मिक संपदा के बावजूद खुद भारतीयों में अभारतीय संस्कार क्यों अंकुरित होने लगा, जो पश्चिमी जगत के लिए अशांति का कारण है?  इसे एक कथा से समझिए। मगध की राजधानी राजगृह में भगवान बुद्ध के सत्संग में प्रतिदिन भाग लेने वाले एक व्यक्ति को यह जानने की उत्सुकता हुई कि निर्वाण-प्राप्ति पर प्रवचन सुनने वालों में कितने लोग उस पथ पर चलते होंगे? भगवान बुद्ध ने उस व्यक्ति की भावना समझते हुए कहा – तुम तो वैशाली के हो, जो परम वैभवशाली नगर है और वहां जाने की चाहत बहुतों को होती होगी। उनमें से कोई तुमसे वहां जाने का मार्ग पूछता होगा तो तुम खुशी-खुशी बता भी देते होगे। पर क्या कभी सोचा कि उनमें से कितने लोग वहां गए? वैसे ही मैंने निर्वाण नामक जिस सुंदर नगर के दर्शन किए थे, वहां का पता जिज्ञासुओं को बता देता हूं। अब वहां तक जाना न जाना उनके संकल्प पर निर्भर है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगियों के महायोगी स्वामी शिवानंद सरस्वती

दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित अप्पय्य दीक्षितार कुल में जन्मे और परदेश में अपनी चिकित्सा की धाक् जमाने वाले कुप्पू स्वामी पर किसी अदृश्य शक्ति का ऐसा जादू चला कि वे तमाम भौतिक सुखों को त्याग कर कठिन साधानाओं की बदौलत स्वामी शिवानंद सरस्वती बन गए थे। उनमें अद्भुत योग-शक्तियां थीं। वे एक ही समय अलग-अलग देशों में कई शरीर धारण कर सकते थे और खेचड़ी मुद्रा का प्रयोग करके हवा में उड़ सकते थे। पर वे इसे आत्म-ज्ञानियों के लिए मामूली बात मानते थे। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि संन्यास मार्ग पर चलने वाले ज्यादातर साधकों की साधना मामूली सिद्धियों तक ही सीमित रह जाती है। 20वीं सदी के उस महान संत की 136वीं जयंती (8 सितंबर 1887) पर प्रस्तुत है यह आलेख।     

किशोर कुमार

स्वामी विवेकानंद सन् 1893 में जब अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में योग और वेदांत दर्शन का अलख जगा रहे थे। तब भविष्य में आध्यात्मिक आंदोलन को गति देने के लिए दिव्य-शक्ति वाले कई संत भारत की धरती पर भौतिक शरीर धारण करके विभिन्न परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती उनमें प्रमुख थे।

पेशे से इस मेडिकल प्रैक्टिशनर की मलाया में काम करते हुए न जाने कौन-सी शक्ति जागृत हुई कि वे वैरागी बनकर भारत में नगर-नगर डगर-डगर भ्रमण करने लगे थे। ऋषिकेश पहुंचने पर उनकी यह यात्रा पूरी हुई थी, जब वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के दर्शन हो गए और उनसे दीक्षा मिल गई। फिर तो परिस्थितियां ऐसी बनी कि वहीं जम गए। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति की आभा फैल गई और देखते-देखते पूरी दुनिया में छा गए थे। उनके पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि वे न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। हालांकि स्वामी विश्वानंद सरस्वती को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। इसलिए कि दीक्षा देने के बाद वे कभी नहीं दिखे। कहां से आए थे और कहां गए, कुछ भी पता नहीं चला। भक्तगण मानते हैं कि किसी आलौकिन शक्ति ने दीक्षा देने के लिए भौतिक शरीर धारण किया था।

स्वामी शिवानंद सरस्वती असीमित यौगिक शक्तियां थी। पर वे यौगिक साधनाओं की बदौलत चमत्कार दिखाने के विरूद्ध थे। केवल पीड़ित मानवता की सेवा करने और अपने शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसा काम कर देते थें, जिन्हें आम आदमी चमत्कार मानता था। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर के अस्पताल में भर्ती उनके एक शिष्य की हालत खराब थी। दूसरी तरफ कुआलालामपुर में ऐसी ही स्थिति में एक अन्य शिष्य था। इन दोनों शिष्यों द्वारा बतलाए गए समय और तिथि के मुताबिक स्वामी शिवानंद ने एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए थे और दोनों ही स्वस्थ होकर घर लौट गए थे। आस्ट्रिया में अपना शरीर त्याग चुके स्वामी ओंकारानंद ने अपनी पुस्तक में इन घटनाओं का जिक्र किया है। वे इस वाकए के वक्त स्वामी शिवानंद सरस्वती की छत्रछाया में साधनारत थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ भी एक चमत्कारिक घटना हुई थी। वे कुंभ स्नान के लिए हरिद्वार जाना चाहते थे। पर स्वामी शिवानंद सरस्वती ने उन्हें इसके लिए इजाजत न दी। स्वामी सत्यानंद सन्यास मार्ग पर नए-नए थे। उन्होंने कल का काम आज ही निबटा लिया और अपने गुरू को बताए बिना कुंभ के मेले में चले गए। गंगा में नहाते वक्त लंगोट पानी की धारा में बह गया। पहनने के लिए दूसरा कुछ भी नहीं था। ऐसे संकट में गुरू कृपा का ही सहारा था। गंगा किनारे निर्वस्त्र बैठकर गुरू का स्मरण कर रहे थे। तभी आश्रम का एक संन्यासी वस्त्र लिए पहुंच गया। स्वामी सत्यानंद उस वस्त्र को धारण कर वापस आश्रम पहुंचे ही थे कि स्वामी शिवानंद जी से सामना हो गया। उन्होंने हंसते हुए पूछा, कहो सत्यानंद कपड़े के बिना बहुत कष्ट हो गया? स्वामी जी को समझते देर न लगी कि यह चमत्कार गुरू की अवमानना का प्रतिफल था। उन्होंने क्षमा याचना करते हुए संकल्प लिया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़ा वाकया अनेक लोगों को पता होगा। वह एक ऐसा प्रसंग है, जिससे डॉ कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया था। डॉ कलाम ने अपनी पुस्तक “विंग्स ऑफ फायर” में खुद ही उस घटना का जिक्र किया था। हुआ यह कि डॉ.कलाम का मेडिकल के आधार पर वायुसेना के पायलट पद के लिए चयन नहीं हो सका। जब परीक्षा परिणाम आया था, उस समय वे देहरादून में ही थे। मायूस डॉ कलाम के पैर सहसा शिवानंद आश्रम की तरफ बढ़ गए। जब आश्रम पहुंचे तो स्वामी शिवानंद का प्रवचन चल रहा था। वे वहां बैठ गए। प्रवचन समाप्त होने के बाद वे स्वामी जी के पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उनसे कहा, तुम्हें देश की अगुआई करनी है। इन छोटी बातों से हतोत्साहित होने का कोई औचित्य नहीं। डॉ. कलाम की कल्पना से परे थीं ये बातें। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

ये सारी घटनाएं उनकी अद्भुत योग-शक्ति का प्रतिफलन थी। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत पद्मभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। पहमहंस योगानंद अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने के वक्त वहां मौजूद नहीं थे। काफी दूर थे। पर उनके गुरू भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे।

स्वामी शिवानंद जी के साथ भी अद्भुत घटना हुई थी। वे जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तो वहां ऐसा शक्तिशाली ऊर्ध्वगामी आकर्षण बना कि उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। ताकि वह जमीन पर रह सकें। आम आदमी को लग सकता है कि ये घटनाएं किसी सिद्धि के परिणाम हैं। पर ऐसा नहीं है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है।

स्वामी शिवानंद स्वयं भी कहते थे और अपनी पुस्तकों में उल्लेख भी किया कि योग में इतनी शक्ति है कि कोई शरीर के भार को कम करके पल भर में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूर जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अंदर की ओर मोड़ कर उससे पश्च नासाद्वार को बंद कर वायु में उड़ान भरी जा सकती है। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगाकर अल्प समय में पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। योगी संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मन प्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षण मानसिक भ्रमण करके जान सकते हैं। परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने अपने एक बीमार भक्त को इन्ही विधियों की बदौलत इंग्लैंड में दर्शन दिया था। दृष्टि या स्पर्श मात्र से अथवा मंत्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार किया जा सकता है। एक ही शर्त है कि साधना उच्च कोटि की होनी चाहिए।

इसके साथ ही वे कहते थे कि सिद्धियों से युक्त होना किसी महात्मा की महानता की पहचान नहीं है, न ही इससे प्रमाणित होता है कि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है। सद्गुरू किसी चमत्कार अथवा सिद्धि का प्रदर्शन तभी करते हैं, जब उन्हें जिज्ञासुओं को प्रोत्साहित करने और उनके हृदय में अतीन्द्रिय शक्तियों में विश्वास पैदा कराने की जरूरत होती है। आत्मज्ञानी गुरूओं के लिए ये सिद्धियां प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई जैसी होती हैं। दुर्भाग्यवश यह संसार नकली गुरूओं से भर गया है। वे निष्कपट व भोले लोगों का शोषण करते हैं और उन्हें अज्ञान के अंधेरे गर्त्त में डालते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती पर बनी यह डक्यूमेंटरी दूरदर्शन की प्रस्तुति है।

शायद यही वजह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती आध्यात्मिक प्रणेताओं द्वारा पंथ या संप्रदाय की स्थापना के विरूद्ध थे। वे कहते थे कि भारत अद्वैत दर्शन की पवित्र भूमि है। यहां दत्तात्रेय, शंकराचार्य एवं वामदेव जैसे महात्मा अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक और स्वामी दयानंद जैसी उदारमना एवं उदात्त आत्माएं भी भारत भूमि की ही थीं। ये संन्यासी कभी अपना पंथ या संप्रदाय स्थापित करने के पक्ष में नहीं रहे। पर उन संतों के नाम पर मयूरपंख लगाए कौए भी पंथ या संप्रदाय बनाते दिखते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती स्वर साधना को योग विद्या और ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण आधार मानते थे। वे कहते थे कि जो स्वर साधना नहीं जानता, उसकी ज्योतिष विद्या अधूरी है। योग के क्षेत्र में भी यही बात लागू है। वे कहते थे कि साधु-संन्यासी या ज्योतिष आदमी को देखकर ही ऐसी बातें कह देते हैं, जो कालांतर में सही साबित होती हैं। लोग इन्हें चमत्कार मानने लगते हैं। पर वे स्वर साधना के कमाल होते हैं। यदि ज्योतिष या संत की सूर्य नाड़ी काम कर रही हो और प्रश्नकर्ता नीचे या पीछे या दाईं ओर खड़ा हो तो दावे के साथ प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यानी यदि प्रश्न है कि फलां काम होगा या नहीं तो इसका उत्तर है – काम होगा और तय मानिए कि यह बात सौ फीसदी सही निकलेगी। स्त्री कि मासिक शौच के अनंतर पांचवें दिन यदि पति की सूर्य नाड़ी तथा पत्नी की चंद्र नाड़ी चल रही हो तो उस समय उनका प्रसंग पुत्र उत्पन्न करेगा। जब सूर्य नाड़ी चलते समय का योगासन ज्यादा फलदायी होता है

स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और मरीज ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

योगासनों की बारीकियों का अवलोकन करते स्वामी शिवानंद सरस्वती

स्वामी शिवानंद सरस्वती में वेदांत के अध्ययन और अभ्यास के लिए समर्पित जीवन जीने की तो स्वाभाविक व जन्मजात प्रवृत्ति थी ही, गरीबों की सेवा के प्रति तीब्र रूचि ने उन्हें संन्यास की ओर प्रवृत्त किया था। उन्होंने सन् 1932 में ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम, सन् 1936 में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी और 1948 में योग-वेदांत फारेस्ट एकाडेमी की स्थापना की थी। इन्ही संस्थाओं के जरिए लोगों को योग और वेदांत में प्रशिक्षित किया और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। आज भी ये संस्थाएं स्वामी शिवानंद सरस्वती के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु में जन्में बीसवीं सदी के इस महानतम संत को शत्-शत् नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

भगवान नित्यानंद : गणेशपुरी के सिद्धयोगी

सिद्धयोग परंपरा के प्रेरणास्रोत, बीसवीं सदी के महान योगी गणेशपुरी के भगवान नित्यानंद में शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति के भीतर निष्क्रिय पड़ी दिव्य शक्ति को जगाने की क्षमता थी। वे अपने योग्य शिष्यों को शक्तिपात के जरिए कोलोकोपकार के लिए सहज ही सिद्ध बना देते थे। पर यह वैसा शक्तिपात नहीं था, जैसा कि आजकल ढोंगी बाबा पांच-पांच सौ रूपए में शक्तिपात करने का दावा करते रहते हैं। भगवान नित्यानंद अक्सर कहते थे कि जिस पर सिद्ध की कृपा होती है, वह भी सिद्ध हो जाता है। वास्तव में, गुरु कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि ईश्वरीय कृपा की दिव्य शक्ति है। इसलिए, वह स्वयं भगवान होता है और साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए आध्यात्मिक गुरु का रूप धारण करता है।

दुनिया भर में मशहूर सिद्धयोग परंपरा के महासमाधिलीन दो महान संतों भगवान नित्यानंद और उनके पट्ट शिष्य स्वामी मुक्तानंद को श्रद्धांजलि स्वरूप यह लेख प्रस्तुत है। अगस्त का महीना सिद्धयोग परंपरा के अनुयायियों के लिए खास होता है। इसी महीने में भगवान नित्यानंद का महासमाधि दिवस (8 अगस्त) होता है। स्वामी मुक्तानंद को अपने गुरू से शक्तिपात के जरिए सिद्धियां भी इसी महीने यानी 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुई थीं। वैसे भी जिस तरह स्वामी मुक्तानंद की आध्यात्मिक यात्रा की चर्चा भगवान नित्यानंद के बिना अधूरी रह जाती है, वैसे ही उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को ठीक तरह से समझने के लिए भी स्वामी मुक्तानंद के प्रसंगों का उल्लेख बेहतर होता है।

भगवान नित्यानंद की यौगिक अनुभूतियों पर आधारित सिद्धयोग के प्रवर्तक स्वामी मुक्तानंद ने आत्मकथा में अपने गुरू की शक्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है – “भगवान नित्यानंद भक्तों को अपने घरों में ही बैकुंठानुभूति करा देते थे। वे महापुरूष कृपामात्र से भक्त को योगी बनाते थे और कठिन साधना के बिना साधक को भक्तिसुख का पुजारी बनाते थे। कृपामात्र से ज्ञान-दृष्टि करा देते थे। प्रपंच में ही ब्रह्म दिखाते थे। नर-नारियों को परस्पर देवो भव: का मंत्र पढ़ाते थे। वे एक महान सिद्धलोक के वासी थे। पूर्ण सिद्ध थे। उनमें ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का संपूर्ण समन्वय था।“ सच है कि अपने गुरू के बारे में स्वामी मुक्तानंद ने जो कुछ कहा, उसके एक दो नहीं, बल्कि हजारों उदाहरण मिलते हैं।

एक प्रसंग तो भगवान नित्यानंद के व्यक्तिगत जीवन से ही जुड़ा हुआ है। पर पहले उनकी शैशवावस्था से लेकर आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत के दिनों की बात। उसी में अंतर्निहित है वह प्रसंग भी। कथा है कि सन् 1897 में एक तूफानी रात थी। सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। पेशे से वकील पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले ईश्वर अय्यर के घर काम करने वाली उन्नियाम्मा भी पूरी रफ्तार से घर चली जा रही थी। पर बीच रास्ते में घने जंगलों के पास अचानक उसके पांव थम गए। एक नवजात शिशु जमीन पर पड़ा था और कोबरा सांप फन फैलाए उसकी रखवाली कर रहा है। उन्नियाम्मा का वात्सल्य भाव जग गया। उधर, ऐसा लगा मानो सांप को उन्नियाम्मा की ही प्रतीक्षा थी। वह पीछ मुड़ा और जंगलों में विलीन हो गया। उन्नियाम्मा उस शिशु को सीने से लगाए घर पहुंच गई। उसका नाम रखा रमण और अपने बच्चों के साथ उसकी भी परवरिश करने लगी थी।

उस शिशु पर जब ईश्वर अय्यर की नजर गई तो वहीं ठहर गई। उन्हें इस बात का अहसास पहले से था कि जिस शिशु की रखवाली कोबरा सांप कर रहा हो, वह कोई सामान्य बालक नहीं हो सकता। उन्होंने उसे अपने पास रखकर शिक्षा दिलाने का फैसला किया। इसमें वे सफल भी रहे। वही रमण अपनी उच्च आध्यात्मिक साधनाओं के बाद भगवान नित्यानंद के रूप में मशहूर हुए। नित्यानंद नाम के साथ भी एक प्रसंग जुड़ा हुआ है। रमण उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वर अय्यर के साथ तीर्थयात्रा पर थे। पहाड़ों में अचानक रमण की आध्यात्मिक शक्तियां जागृत हो गईं। मन बदल गया। घर न लौटन की जिद पर अड़ गए। ईश्वर अय्यर रमण से अलग रहने की सोच भी नहीं सकते थे। पर रमण की तीब्र इच्छा को ध्यान में रखकर वे अकेले ही घर लौट गए। रमण ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे जब कभी याद करेंगे, वह उनके पास प्रस्तुत हो जाएगा।

थोड़े समय बाद ईश्वर अय्यर बीमार पड़े। भरोसा न रहा कि जीवित रह पाएंगे। ऐसे में रमण की एक झलक पाने तीब्र इच्छा हुई और चमत्कार हो गया। रमण उपस्थित हो गए। ईश्वर अय्यर सूर्य के उपासक थे। वे रमण की शक्ति भांप गए थे। लिहाजा अंतिम क्षण में साक्षात सूर्य के दर्शन कराने की इच्छा व्यक्त की। रमण ने तुरंत उनका कमरा अंदर से बंद कर लिया। बाहर खड़े लोगों ने अनुभव किया कि ईश्वर अय्यर का कमरा अकल्पनीय प्रकाश से भरा हुआ है। दरअसल, साक्षात् सूर्य अपने भक्त ईश्वर अय्यर को दर्शन दे रहे थे। अंतिम इच्छा पूरी होने के बाद अय्यर के मुंह से सहसा निकल गया – “तुमने मुझे ब्रह्मानंद दिया है। आज से तुम्हारा नाम नित्यानंद है।“

भगवान नित्यानंद और उनके शिष्य स्वामी मुक्तानंद का भले भौतिक शरीर नहीं हैं। पर उनकी अलौकिक शक्तियों, उनकी सूक्ष्म ऊर्जा के प्रवाह को मुंबई से कोई 80 किमी दूर ठाणे जिले के गणेशपुरी स्थित सिद्धपीठ जाने वाले या रहने वाले शिद्दत से महसूस करते हैं। यही स्थल दोनों संतों की तपोभूमि है। भगवान नित्यानंद ने इसी स्थान पर शक्तिपात करके स्वामी मुक्तानंद को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। मौजूदा समय में गुरूमाई चिद्विलासानंद पीठाधीश्वर हैं। सिद्ध गुरूओं से प्रदत्त आध्यत्मिक शक्तियां भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सिद्धयोग परंपरा को पल्लवित-पुष्पित करने में मददगार है। सच तो यह है कि भक्ति, श्रद्धा और प्रेम ने गणेशपुरी को धरती पर स्वर्ग बना दिया है। सिद्धयोग स्वामी मुक्तानंद द्वारा स्थापित एक आध्यात्मिक मार्ग है। इस मार्ग में पराशक्तिमयी श्रीकुंडलिनी महाविद्या को सिद्धविद्या कहा जाता है और साधक सिद्ध विद्यार्थी कहलाते हैं। सिद्धपीठ में दी गई कुंडलिनी दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है। हंस गायत्री व हंस प्रणव इसके जपमंत्र हैं। प्राण-अपान द्वारा हंसानुसंधान ही इस मार्ग का प्राणायाम है।

निसंदेह भगवान नित्यानंद उच्चकोटि के अवधूत थे। भक्तगण उन्हें बाबा कहकर पुकारते थे। ईश्वर अय्यर के देवलोक गमन के बाद और गणेशपुरी में साधना प्रारंभ करने से पहले सन् 1920 से लेकर सात वर्षों तक उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में साधना की थी। इस दौरान अक्सर मौन रहते थे। वे न सत्संग करते थे और न ही कुछ लिखते-पढ़ते थे। पर कभी-कभी ध्यान की अवस्था में अपने भक्तों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कुछ बोल जाते थे। उनकी एक शिष्या थीं साध्वी तुलसी अम्मा। उन्हें इसी मौके का इंतजार होता था। बाबा जैसे ही कुछ बोलते, तुलसी अम्मा उसे कन्नड भाषा में लिपिबद्ध कर लेती थीं। यह संकलन “चिदाकाश गीता” नाम से मशहूर हुआ। उसमें वेदांत दर्शन का सार है। भाषा सरल है। जैसे, बारिश को माया और छाते के हैंडल को चित्त बताकर दोनों ही गूढ़ बातों की सहज व्याख्या कर दी गई है। मान्यता है कि सिद्धयोग परंपरा के दोनों समाधिस्थ गुरू आज भी अपने भक्तों पर सदैव चिरशांति औऱ नित्यतृप्ति प्रदान करते रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीकृष्ण की बांसुरी, गोपियां और स्वामी सत्यानंद की दिव्य-दृष्टि

रासलीला, श्रीकृष्ण की बांसुरी, उसकी सुमधुर धुन और गोपियां…. इस प्रसंग में बीती शताब्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की व्याख्या एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह शास्त्रसम्मत है, विज्ञानसम्मत भी है।

जन्माष्टमी के मौके पर विशेष तौर से ज्ञान मार्ग के लोगों के लिए एक प्रेरक कथा। परमगुरू और कोई सौ से ज्यादा देशों में विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी बिहार योग पद्धति के जन्मदाता परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के श्रीमुख से सत्संग के दौरान अनेक भक्तों ने यह कथा सुनी होगी। फिर भी यह सर्वकालिक है। प्रासंगिक है।  

श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। कथा है कि उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? उन सबसे रह न गया तो एक दिन सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें आखिर ऐसी क्या बात है कि भगवान तुम्हें दिन-रात अपने पास रखते हैं और तुम उनकी पटरानी की तरह साथ-साथ रहती हो? तुम तो जंगली और सूखे बांस से बनी हो, जिसका न तो कोई रंग, न रूप और न अन्य कोई आकर्षण। फिर तुमने ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है कि भगवान तुम्हें अपने श्रीमुख से लगाते हैं तो तुमसे ऐसी सुमधुर आवाज निकलती है कि मोर पागलों की तरह नाचने लगते हैं। पहाड़ों में अजीब शांति छा जाती है। जीव-जंतु मूर्तिवत हो जाते हैं। तुमसे निकली सुरीली धुन से हम गोपियां भी सुध-बुध खो बैठती हैं और पागलों की तरह कृष्ण से मिलने दौड़ पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि तुम बांसुरी नहीं, जादू की छड़ी हो।

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उससे इतनी सुरीली आवाज कैसे निकलती है कि गोपियों के मन में इतने सारे सवाल चल रहे हैं। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“  मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है। इसलिए आपलोग भी अपने वैभव, अपनी सुंदरता व विद्वता के अभिमान से मुक्त होकर अपने को खाली कर दें तो भगवान दिव्य प्रेम से भर देंगे।“

श्री स्वामी जी कहते थे – श्रीकृष्ण की रासलीला वाली बात हम सबको पता है। कथा है कि श्रीकृष्ण आधी रात को जंगल में जा कर जब बांसुरी बजाने लगे तो उस बांसुरी की मधुर धुन सुनकर गोपिकाएं मदहोश हो गईं। जो जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में जंगल की तरफ दौड़ पड़ीं और बांसुरी की सुरीली धुन पर नाचने लगी थीं। इस प्रसंग को इस तरह समझना चाहिए और यही शास्त्रसम्मत है, यही विज्ञानसम्मत भी है। यह शरीर भी सूक्ष्म रूप से कृष्ण की वंशी ही है। उसकी सुमधुर आवाज आत्मा है। इंद्रियों को वश में कर लेना गोपियां हैं। गो मतलब इंद्रिय और पी मतलब उसे पी जाना। अर्थात कृष्ण की मुरली के धुन पर गोपियों के खींचे चले आने से अभिप्राय है आत्मा की आवाज पर इंद्रियों का वश में हो जाना। योग साधक जब साधना में लीन होता है, ध्यानमग्न होता है तो उसकी अंतर्रात्मा की आवाज से इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं और झूमने लगती हैं, नाचने लगती हैं। यानी वे वश में आ जाती हैं। आत्मा में लीन हो जाती हैं। यही योग की पूर्णता है, यही भक्ति की पराकाष्ठा है, यही मनुष्य के जीवन का पूर्णत्व है। रासलीला का अभिप्राय यही है।“

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