किशोर कुमार
भारत एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। नौंवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग सत्र का नेतृत्व करेंगे। यह वही मंच है जहां प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल पहले पहली बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के वार्षिक आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इस बार के आयोजन का थीम है – वसुधैव कुटुम्बकम’, जो हमारे सनातन धर्म का मूल मंत्र रहा है। हमारा दर्शन है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है। इसी अवधारणा की वजह से भारत लंबे समय तक विश्व गुरू बना रहा। भारत में सामर्थ्य है कि वह फिर से विश्व गुरू बन सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भले भारत की पहल पर दुनिया भर में मनाया जाना लगा है। पर हमें इस बात को याद रखना होगा कि हमारे संतों और योगियों ने इसके लिए पृष्ठभूमि पहले से तैयार कर रखी थी। तभी दुनिया ने हमारी बातों को गंभीरता से लिया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस तो 2015 से मनाया जा रहा है। पर भारत में पहली बार विश्व योग सम्मेलन सन् 1953 में ऋषिकेश में हुआ था। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसके लिए पहल की थी। ‘योग तथा विश्व धर्म संसद” उस योग सम्मेलन का थीम था। इसके माध्यम से पहली बार योग के सिद्धांतों, विचारधाराओं तथा विधियों को जनसाधारण्य के सामने लाया गया था। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों की जानकारी, समझ और अनुभव प्रदान करना था।
इस आयोजन के बीस साल बाद यानी 1973 में परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने दूसरे विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया था। पचास से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने भारत आए थे। इस आयोजन का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी स्तर पर योग का प्रचार-प्रसार करना था। उनका मानना था कि साधारण योग शिक्षकों की बजाय योग केवल उन्हीं लोगों के द्वारा सिखाया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन में योग को आत्मसात् और सिद्ध किया हो। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आने वाले भविष्य में ऐसे हजारों-लाखों ‘किताबी योग शिक्षक’ आ जाएँगे जो किसी किताब में से कुछ आसनों के चित्र देखकर योग सिखाना शुरू कर देंगे और अपने आपको योग शिक्षक कहेंगे। आज देश के कोने-कोने में तो क्या, सारे विश्व में यही होता दिखाई दे रहा है। इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संन्यासियों को योग की शिक्षा देनी प्रारम्भ की थी। सन् 1973 के सम्मेलन के बाद योग आन्दोलन सारे विश्व में दावानल की तरह फैल गया और दुनिया के कोने-कोने में योग केन्द्र, आश्रम और शिक्षक तैयार होने लगे। योग प्रचार के साथ-साथ योग अनुसंधान तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग के प्रयोग भी किए जाने लगे।
यह सुखद है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती द्वारा विश्व योग सम्मेलन की शुरू की गई परंपरा आज भी कायम है। अब बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। अब तो कई अन्य भारतीय संगठन भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग सम्मेलन करने लगे हैं। इसका असर विश्वव्यापी है। साठ और सत्तर के दशक में बल्गेरिया एक साम्यवादी देश था, जहाँ योग और अध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं था। आज बल्गेरिया में बड़ी संख्या में लोग योग साधना करते हैं। स्वामी योगभक्ति सरस्वती का एक आलेख हाल ही पढ़ा था। उसके मुताबिक फ्रांस में भारतीय योग पद्धति लोकप्रियता के शिखर पर है। वहां की सरकार बच्चों की योग शिक्षा को लेकर काफी सजग और सतर्क रहती है। इसके लाभ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे हैं। योगनिद्रा साधना सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से होती है।
विश्व योग सम्मेलनों से यौगिक अनुसंधानों को भी काफी बढ़ावा मिला है। विज्ञान समझने का प्रयास करता है और योग अनुभव दिलाता है। विज्ञान के द्वारा हम यह जान पाते हैं कि योग की उपयोगिता इस जीवन में क्या है और योग के द्वारा हम जान पाते हैं कि हम अपने जीवन को एक सुन्दर उद्यान में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। बीते पाचास-साठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो यौगिक अनुसंधानों के मामले में खासतौर से कैवल्यधाम, लोनावाला और बिहार योग विद्यालय के काम उल्लेखनीय हैं। एक तरफ स्वामी कुवल्यानंद योग अनुसन्धान द्वारा योग की व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर रहे तो दूसरी तरफ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी काम को विश्वव्यापी फलक प्रदान किया। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत में विश्व गुरु बनने के गुण मौजूद हैं।
भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। रूद्रयामल तंत्र से पता चलता है कि पार्वती ने भगवान शंकर से प्रश्न किया था, ‘इस संसार में बहुत कष्ट है, रोग, व्याधि, अशान्ति और अराजकता है। मनुष्य दुःख के वातावरण में जन्म लेता है, दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सुख प्राप्ति के लिए जीवन पर्यन्त दुःख से संघर्ष करता है और अंत में दुःख के वातावरण मृत्यु को प्राप्त करता है। क्या इस संसार में, इस जीवन में दुःख से मुक्ति सम्भव है?’ जबाव में शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी। वही योग शिक्षा हमारी थाती है।
आज योग आज भले ही एक विश्वव्यापी शब्द बन गया है। पर अपवादों के छोड़ दें तो उसकी पहचान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सिमट कर रह गई है। जीवन को परिवर्तित करने, पल्लवित करने, सुधारने की प्रक्रिया के रूप में कुछ परंपरागत योग संस्थान ही काम कर पा रहे हैं। संत कबीर एक दो नहीं, बल्कि चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब बचपन से ही सुनते-समझते आए हैं। घट-घट में बैठे राम की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है। पर तीसरे और चौथे राम की तो चर्चा तक नहीं होती। आमतौर पर न कोई बतलाता है और न ही हम जानने की कोशिश करते हैं कि जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? योग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हम वर्षों से आसन और प्राणायाम में ही उलझे हुए हैं।
इतनी प्राचीन किन्तु सर्वशक्तिशाली विद्या को सीमित दायरे में रखना आत्मघाती होगा। हमें आसन और प्राणायाम से आगे की बात करनी होगी। योग की समग्रता और शुद्धता पर ध्यान देना होगा। तभी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की सार्थकता होगी और तभी भारत विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होकर वसुधैव कुटुंबकम् के मंत्र को सार्थक कर पाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)