योग की शुद्धता बनाए ऱखने का संकल्प लें


किशोर कुमार

भारत एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। नौंवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग सत्र का नेतृत्व करेंगे। यह वही मंच है जहां प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल पहले पहली बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के वार्षिक आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इस बार के आयोजन का थीम है – वसुधैव कुटुम्बकम’, जो हमारे सनातन धर्म का मूल मंत्र रहा है। हमारा दर्शन है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है। इसी अवधारणा की वजह से भारत लंबे समय तक विश्व गुरू बना रहा। भारत में सामर्थ्य है कि वह फिर से विश्व गुरू बन सकता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भले भारत की पहल पर दुनिया भर में मनाया जाना लगा है। पर हमें इस बात को याद रखना होगा कि हमारे संतों और योगियों ने इसके लिए पृष्ठभूमि पहले से तैयार कर रखी थी। तभी दुनिया ने हमारी बातों को गंभीरता से लिया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस तो 2015 से मनाया जा रहा है। पर भारत में पहली बार विश्व योग सम्मेलन सन् 1953 में ऋषिकेश में हुआ था। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसके लिए पहल की थी। ‘योग तथा विश्व धर्म संसद” उस योग सम्मेलन का थीम था। इसके माध्यम से पहली बार योग के सिद्धांतों, विचारधाराओं तथा विधियों को जनसाधारण्य के सामने लाया गया था। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों की जानकारी, समझ और अनुभव प्रदान करना था।

इस आयोजन के बीस साल बाद यानी 1973 में परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने दूसरे विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया था। पचास से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने भारत आए थे। इस आयोजन का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी स्तर पर योग का प्रचार-प्रसार करना था। उनका मानना था कि साधारण योग शिक्षकों की बजाय योग केवल उन्हीं लोगों के द्वारा सिखाया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन में योग को आत्मसात् और सिद्ध किया हो। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आने वाले भविष्य में ऐसे हजारों-लाखों ‘किताबी योग शिक्षक’ आ जाएँगे जो किसी किताब में से कुछ आसनों के चित्र देखकर योग सिखाना शुरू कर देंगे और अपने आपको योग शिक्षक कहेंगे। आज देश के कोने-कोने में तो क्या, सारे विश्व में यही होता दिखाई दे रहा है। इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संन्यासियों को योग की शिक्षा देनी प्रारम्भ की थी। सन् 1973 के सम्मेलन के बाद योग आन्दोलन सारे विश्व में दावानल की तरह फैल गया और दुनिया के कोने-कोने में योग केन्द्र, आश्रम और शिक्षक तैयार होने लगे। योग प्रचार के साथ-साथ योग अनुसंधान तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग के प्रयोग भी किए जाने लगे।

यह सुखद है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती द्वारा विश्व योग सम्मेलन की शुरू की गई परंपरा आज भी कायम है। अब बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। अब तो कई अन्य भारतीय संगठन भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग सम्मेलन करने लगे हैं। इसका असर विश्वव्यापी है। साठ और सत्तर के दशक में बल्गेरिया एक साम्यवादी देश था, जहाँ योग और अध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं था। आज बल्गेरिया में बड़ी संख्या में लोग योग साधना करते हैं। स्वामी योगभक्ति सरस्वती का एक आलेख हाल ही पढ़ा था। उसके मुताबिक फ्रांस में भारतीय योग पद्धति लोकप्रियता के शिखर पर है। वहां की सरकार बच्चों की योग शिक्षा को लेकर काफी सजग और सतर्क रहती है। इसके लाभ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे हैं। योगनिद्रा साधना सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से होती है।

विश्व योग सम्मेलनों से यौगिक अनुसंधानों को भी काफी बढ़ावा मिला है। विज्ञान समझने का प्रयास करता है और योग अनुभव दिलाता है। विज्ञान के द्वारा हम यह जान पाते हैं कि योग की उपयोगिता इस जीवन में क्या है और योग के द्वारा हम जान पाते हैं कि हम अपने जीवन को एक सुन्दर उद्यान में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। बीते पाचास-साठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो यौगिक अनुसंधानों के मामले में खासतौर से कैवल्यधाम, लोनावाला और बिहार योग विद्यालय के काम उल्लेखनीय हैं। एक तरफ स्वामी कुवल्यानंद योग अनुसन्धान द्वारा योग की व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर रहे तो दूसरी तरफ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी काम को विश्वव्यापी फलक प्रदान किया। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत में विश्व गुरु बनने के गुण मौजूद हैं।

भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। रूद्रयामल तंत्र से पता चलता है कि पार्वती ने भगवान शंकर से प्रश्न किया था, ‘इस संसार में बहुत कष्ट है, रोग, व्याधि, अशान्ति और अराजकता है। मनुष्य दुःख के वातावरण में जन्म लेता है, दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सुख प्राप्ति के लिए जीवन पर्यन्त दुःख से संघर्ष करता है और अंत में दुःख के वातावरण मृत्यु को प्राप्त करता है। क्या इस संसार में, इस जीवन में दुःख से मुक्ति सम्भव है?’ जबाव में शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी। वही योग शिक्षा हमारी थाती है।

आज योग आज भले ही एक विश्वव्यापी शब्द बन गया है। पर अपवादों के छोड़ दें तो उसकी पहचान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सिमट कर रह गई है। जीवन को परिवर्तित करने, पल्लवित करने, सुधारने की प्रक्रिया के रूप में कुछ परंपरागत योग संस्थान ही काम कर पा रहे हैं। संत कबीर एक दो नहीं, बल्कि चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब बचपन से ही सुनते-समझते आए हैं। घट-घट में बैठे राम की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है। पर तीसरे और चौथे राम की तो चर्चा तक नहीं होती। आमतौर पर न कोई बतलाता है और न ही हम जानने की कोशिश करते हैं कि जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? योग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हम वर्षों से आसन और प्राणायाम में ही उलझे हुए हैं।

इतनी प्राचीन किन्तु सर्वशक्तिशाली विद्या को सीमित दायरे में रखना आत्मघाती होगा। हमें आसन और प्राणायाम से आगे की बात करनी होगी। योग की समग्रता और शुद्धता पर ध्यान देना होगा। तभी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की सार्थकता होगी और तभी भारत विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होकर वसुधैव कुटुंबकम् के मंत्र को सार्थक कर पाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

जेलों में योग की अहमियत

किशोर कुमार

आठवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के लिए उल्टी गिनती शुरू है। इस बार का थीम है – योगा फॉर ह्यूमैनिटी। इस थीम के मद्देनजर जेलों के कैदियों पर भी फोकस है। योगोत्सव की तैयारियों के लिहाज से कैदियों को योगाभ्यास कराया जा रहा है। वैसे, कैदियों के लिए योग की अनिवार्यता पर लंबे समय से बहस होती रही है। कैदियों के लिए योगाभ्यास क्यों जरूरी है? क्या इससे जीवन के प्रति उनके नजरिए में कोई बदलाव हो पाता है?  क्या उनके पुनर्वास में योग की कोई भूमिका होती है?… इस तरह के सवाल किए जाते रहे हैं। इस लेख में इन्हीं संदर्भों में बात होनी है। पर पहले एक रोचक प्रसंग।

ओशो को अमेरिकी सरकार ने ओक्लाहोमा जेल में बंद कर दिया था। ओशो जब तक जेल में रहे, कैदियों को ध्यान का अभ्यास कराते रहे। कैदियों को उनका सत्संग इतना भाया कि वे बदले-बदले से दिखने लगे थे। जेलर भी खासा प्रभावित था। ओशो जब जेल से रिहा हुए तो जेलर ने अपनी भावनाएं कुछ ऐसे व्यक्त की – आपका जेल रहना मेरे जीवन का अनूठा अनुभव रहा। कैदियों की दशा बदल गई है। दूसरी तरफ मैंने आप जैसे किसी कैदी को जेल आते-जाते इतना प्रसन्न नहीं देखा था। आखिर इसका राज क्या है? ओशो ने  कहा कि उनका यही तो जुर्म है कि वे लोगो को प्रसन्न रहने का राज बतला रहे थे। सरकार को बात इसलिए नहीं भायी कि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। यहां तक कि आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के बल पर तुम्हारी छाती पर सवार हैं, वे नहीं चाहते कि जानो कि तुम कौन हो। ओक्लाहोमा जेल के तत्कालीन जेलर की आत्मकथा में इन बातों का उल्लेख है।

खैर, अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में योग का डंका बज रहा है। जेल भी इससे अछूते नहीं हैं। देश में सबसे पहले दिल्ली के तिहाड़ जेल के सभी कैदियों के लिए योगाभ्यास को अनिवार्य बनाया गया था। यह पहल खूंखार कैदियों को खुदकुशी से रोकने के लिए की गई थी। अब इस जेल के सभी कैदियों के योग को अनिवार्य बनाया जा चुका है। इसका असर हुआ कि देश के प्राय: सभी जेलों में कैदियों को प्राथमिकता के आधार पर योगाभ्यास कराया जाने लगा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कैदी प्रशिक्षण पाकर खुद ही बेहतरीन योग प्रशिक्षक बन गए। सरकार सजा पूरी कर चुके ऐसे कैदियों को आयुष केंद्रों में बतौर योग प्रशिक्षक बहाल करे तो उनके पुनर्वास में बड़ी मदद मिल सकती है।    

योग के प्रभावों के लेकर लखनऊ स्थित जिला कारागार का मामला ताजा-ताजा है। वहां प्रयाग आरोग्यम केन्द्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल कैदियों को लगातार तीन दिनों तक न केवल उदाहरणों के जरिए योग विधियों की अहमियत बताते रहे, बल्कि उन्होंने उन विधियों का अभ्यास करवा कर कैदियों पर गहरा प्रभाव डाला। आसन, प्राणायाम और योगनिद्रा से कैदियों के अशांत मन को सांत्वना मिली। अब वे योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाने को उत्सुक हैं। श्री शुक्ल कहते हैं कि योगाभ्यास का असर हुआ कि कैदियों के आचार-विचार बदल गए थे। उनकी आक्रमकता पहले जैसी नहीं रही। पूर्व में जिन कैदियों ने योग में रूचि नहीं दिखाई थी, वे भी योगनिद्रा के प्रभावों से चमत्कृत होकर बार-बार योगनिद्रा करना चाहते थे।

आखिर योगनिद्रा क्या है? जागृत और स्वप्न के बीच जो स्थिति होती है, उसे ही योगनिद्रा कहते है। जब हम सोने जाते हैं तो चेतना इन दोनों स्तरों पर काम कर रही होती है। हम न नींद में होते हैं और जगे होते हैं। यानी मस्तिष्क को अलग करके अंतर्मुखी हो जाते हैं। पर एक सीमा तक बाह्य चेतना भी बनी रहती है। इसकी वजह यह है कि हम योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान अनुदेशक से मिलने वाले निर्देशों को सुनते हुए मानसिक रूप से उनका अनुसरण भी करते रहते हैं। ऐसा नहीं करने से सजगता अचेतन में चली जाती है और मन निष्क्रिय हो जाता है। फिर गहरी निद्रा घेर लेती है, जिसे हम सामान्य निद्रा कहते हैं।

कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर दुनिया भर में कई स्तरों पर अध्ययन किए गए। पता चला कि कैदियों के शरीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूपांतरण में योग की बड़ी भूमिका होती है। कैदियों में अनिद्रा एक आम समस्या है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में अनिद्रा पर योगनिद्रा के प्रभावों पर हाल ही शोध किया गया। वैसे, वर्षों पूर्व जापान में भी योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर शोध किया गया था। उसके जरिए जानकारी इकट्ठी की गई कि साधारण निद्रा और योगनिद्रा की अवस्था में मस्तिष्क की तरंगें किस तरह काम करती हैं। इस अध्ययन की अगुआई डॉ हिरोशी मोटोयामा ने की थी। उन्होंने देखा कि गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। यही नहीं, योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साबित हुआ कि योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

स्वीडेन के यूनिवर्सिटी वेस्ट के स्वास्थ्य विभाग ने स्वीडिश कैदी सुधार सर्विसेज के साथ मिलकर 152 कैदियों पर योग के प्रभावों को लेकर कोई दस सप्ताह तक अध्ययन किया। इस दौरान कुछ आसनों के साथ मुख्यत: योगनिद्रा का अभ्यास कराने के बाद हिंसक कैदी भी सामान्य व्यवहार करने लगे थे। यूनिवर्सिटी वेस्ट के अध्ययनकर्त्ता केरेक्स ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि मन को स्वस्थ्य बनाने की यह विधि चमत्कारिक है। अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि योगाभ्यास से कैदियों के सामान्यत: फिर से आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है। इस अध्ययन का पूरा वृतांत ब्रिटेन के अखबार “द गार्डियन” में प्रकाशित हुआ है।

इन उदाहरणों से जेलों में योग की अहमियत का पता चलता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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