स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत कबीर : मैं कहता आंखन देखी

किशोर कुमार

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगियों के महायोगी स्वामी शिवानंद सरस्वती

दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित अप्पय्य दीक्षितार कुल में जन्मे और परदेश में अपनी चिकित्सा की धाक् जमाने वाले कुप्पू स्वामी पर किसी अदृश्य शक्ति का ऐसा जादू चला कि वे तमाम भौतिक सुखों को त्याग कर कठिन साधानाओं की बदौलत स्वामी शिवानंद सरस्वती बन गए थे। उनमें अद्भुत योग-शक्तियां थीं। वे एक ही समय अलग-अलग देशों में कई शरीर धारण कर सकते थे और खेचड़ी मुद्रा का प्रयोग करके हवा में उड़ सकते थे। पर वे इसे आत्म-ज्ञानियों के लिए मामूली बात मानते थे। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि संन्यास मार्ग पर चलने वाले ज्यादातर साधकों की साधना मामूली सिद्धियों तक ही सीमित रह जाती है। 20वीं सदी के उस महान संत की 136वीं जयंती (8 सितंबर 1887) पर प्रस्तुत है यह आलेख।     

किशोर कुमार

स्वामी विवेकानंद सन् 1893 में जब अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में योग और वेदांत दर्शन का अलख जगा रहे थे। तब भविष्य में आध्यात्मिक आंदोलन को गति देने के लिए दिव्य-शक्ति वाले कई संत भारत की धरती पर भौतिक शरीर धारण करके विभिन्न परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती उनमें प्रमुख थे।

पेशे से इस मेडिकल प्रैक्टिशनर की मलाया में काम करते हुए न जाने कौन-सी शक्ति जागृत हुई कि वे वैरागी बनकर भारत में नगर-नगर डगर-डगर भ्रमण करने लगे थे। ऋषिकेश पहुंचने पर उनकी यह यात्रा पूरी हुई थी, जब वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के दर्शन हो गए और उनसे दीक्षा मिल गई। फिर तो परिस्थितियां ऐसी बनी कि वहीं जम गए। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति की आभा फैल गई और देखते-देखते पूरी दुनिया में छा गए थे। उनके पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि वे न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। हालांकि स्वामी विश्वानंद सरस्वती को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। इसलिए कि दीक्षा देने के बाद वे कभी नहीं दिखे। कहां से आए थे और कहां गए, कुछ भी पता नहीं चला। भक्तगण मानते हैं कि किसी आलौकिन शक्ति ने दीक्षा देने के लिए भौतिक शरीर धारण किया था।

स्वामी शिवानंद सरस्वती असीमित यौगिक शक्तियां थी। पर वे यौगिक साधनाओं की बदौलत चमत्कार दिखाने के विरूद्ध थे। केवल पीड़ित मानवता की सेवा करने और अपने शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसा काम कर देते थें, जिन्हें आम आदमी चमत्कार मानता था। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर के अस्पताल में भर्ती उनके एक शिष्य की हालत खराब थी। दूसरी तरफ कुआलालामपुर में ऐसी ही स्थिति में एक अन्य शिष्य था। इन दोनों शिष्यों द्वारा बतलाए गए समय और तिथि के मुताबिक स्वामी शिवानंद ने एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए थे और दोनों ही स्वस्थ होकर घर लौट गए थे। आस्ट्रिया में अपना शरीर त्याग चुके स्वामी ओंकारानंद ने अपनी पुस्तक में इन घटनाओं का जिक्र किया है। वे इस वाकए के वक्त स्वामी शिवानंद सरस्वती की छत्रछाया में साधनारत थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ भी एक चमत्कारिक घटना हुई थी। वे कुंभ स्नान के लिए हरिद्वार जाना चाहते थे। पर स्वामी शिवानंद सरस्वती ने उन्हें इसके लिए इजाजत न दी। स्वामी सत्यानंद सन्यास मार्ग पर नए-नए थे। उन्होंने कल का काम आज ही निबटा लिया और अपने गुरू को बताए बिना कुंभ के मेले में चले गए। गंगा में नहाते वक्त लंगोट पानी की धारा में बह गया। पहनने के लिए दूसरा कुछ भी नहीं था। ऐसे संकट में गुरू कृपा का ही सहारा था। गंगा किनारे निर्वस्त्र बैठकर गुरू का स्मरण कर रहे थे। तभी आश्रम का एक संन्यासी वस्त्र लिए पहुंच गया। स्वामी सत्यानंद उस वस्त्र को धारण कर वापस आश्रम पहुंचे ही थे कि स्वामी शिवानंद जी से सामना हो गया। उन्होंने हंसते हुए पूछा, कहो सत्यानंद कपड़े के बिना बहुत कष्ट हो गया? स्वामी जी को समझते देर न लगी कि यह चमत्कार गुरू की अवमानना का प्रतिफल था। उन्होंने क्षमा याचना करते हुए संकल्प लिया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़ा वाकया अनेक लोगों को पता होगा। वह एक ऐसा प्रसंग है, जिससे डॉ कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया था। डॉ कलाम ने अपनी पुस्तक “विंग्स ऑफ फायर” में खुद ही उस घटना का जिक्र किया था। हुआ यह कि डॉ.कलाम का मेडिकल के आधार पर वायुसेना के पायलट पद के लिए चयन नहीं हो सका। जब परीक्षा परिणाम आया था, उस समय वे देहरादून में ही थे। मायूस डॉ कलाम के पैर सहसा शिवानंद आश्रम की तरफ बढ़ गए। जब आश्रम पहुंचे तो स्वामी शिवानंद का प्रवचन चल रहा था। वे वहां बैठ गए। प्रवचन समाप्त होने के बाद वे स्वामी जी के पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उनसे कहा, तुम्हें देश की अगुआई करनी है। इन छोटी बातों से हतोत्साहित होने का कोई औचित्य नहीं। डॉ. कलाम की कल्पना से परे थीं ये बातें। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

ये सारी घटनाएं उनकी अद्भुत योग-शक्ति का प्रतिफलन थी। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत पद्मभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। पहमहंस योगानंद अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने के वक्त वहां मौजूद नहीं थे। काफी दूर थे। पर उनके गुरू भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे।

स्वामी शिवानंद जी के साथ भी अद्भुत घटना हुई थी। वे जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तो वहां ऐसा शक्तिशाली ऊर्ध्वगामी आकर्षण बना कि उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। ताकि वह जमीन पर रह सकें। आम आदमी को लग सकता है कि ये घटनाएं किसी सिद्धि के परिणाम हैं। पर ऐसा नहीं है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है।

स्वामी शिवानंद स्वयं भी कहते थे और अपनी पुस्तकों में उल्लेख भी किया कि योग में इतनी शक्ति है कि कोई शरीर के भार को कम करके पल भर में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूर जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अंदर की ओर मोड़ कर उससे पश्च नासाद्वार को बंद कर वायु में उड़ान भरी जा सकती है। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगाकर अल्प समय में पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। योगी संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मन प्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षण मानसिक भ्रमण करके जान सकते हैं। परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने अपने एक बीमार भक्त को इन्ही विधियों की बदौलत इंग्लैंड में दर्शन दिया था। दृष्टि या स्पर्श मात्र से अथवा मंत्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार किया जा सकता है। एक ही शर्त है कि साधना उच्च कोटि की होनी चाहिए।

इसके साथ ही वे कहते थे कि सिद्धियों से युक्त होना किसी महात्मा की महानता की पहचान नहीं है, न ही इससे प्रमाणित होता है कि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है। सद्गुरू किसी चमत्कार अथवा सिद्धि का प्रदर्शन तभी करते हैं, जब उन्हें जिज्ञासुओं को प्रोत्साहित करने और उनके हृदय में अतीन्द्रिय शक्तियों में विश्वास पैदा कराने की जरूरत होती है। आत्मज्ञानी गुरूओं के लिए ये सिद्धियां प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई जैसी होती हैं। दुर्भाग्यवश यह संसार नकली गुरूओं से भर गया है। वे निष्कपट व भोले लोगों का शोषण करते हैं और उन्हें अज्ञान के अंधेरे गर्त्त में डालते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती पर बनी यह डक्यूमेंटरी दूरदर्शन की प्रस्तुति है।

शायद यही वजह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती आध्यात्मिक प्रणेताओं द्वारा पंथ या संप्रदाय की स्थापना के विरूद्ध थे। वे कहते थे कि भारत अद्वैत दर्शन की पवित्र भूमि है। यहां दत्तात्रेय, शंकराचार्य एवं वामदेव जैसे महात्मा अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक और स्वामी दयानंद जैसी उदारमना एवं उदात्त आत्माएं भी भारत भूमि की ही थीं। ये संन्यासी कभी अपना पंथ या संप्रदाय स्थापित करने के पक्ष में नहीं रहे। पर उन संतों के नाम पर मयूरपंख लगाए कौए भी पंथ या संप्रदाय बनाते दिखते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती स्वर साधना को योग विद्या और ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण आधार मानते थे। वे कहते थे कि जो स्वर साधना नहीं जानता, उसकी ज्योतिष विद्या अधूरी है। योग के क्षेत्र में भी यही बात लागू है। वे कहते थे कि साधु-संन्यासी या ज्योतिष आदमी को देखकर ही ऐसी बातें कह देते हैं, जो कालांतर में सही साबित होती हैं। लोग इन्हें चमत्कार मानने लगते हैं। पर वे स्वर साधना के कमाल होते हैं। यदि ज्योतिष या संत की सूर्य नाड़ी काम कर रही हो और प्रश्नकर्ता नीचे या पीछे या दाईं ओर खड़ा हो तो दावे के साथ प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यानी यदि प्रश्न है कि फलां काम होगा या नहीं तो इसका उत्तर है – काम होगा और तय मानिए कि यह बात सौ फीसदी सही निकलेगी। स्त्री कि मासिक शौच के अनंतर पांचवें दिन यदि पति की सूर्य नाड़ी तथा पत्नी की चंद्र नाड़ी चल रही हो तो उस समय उनका प्रसंग पुत्र उत्पन्न करेगा। जब सूर्य नाड़ी चलते समय का योगासन ज्यादा फलदायी होता है

स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और मरीज ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

योगासनों की बारीकियों का अवलोकन करते स्वामी शिवानंद सरस्वती

स्वामी शिवानंद सरस्वती में वेदांत के अध्ययन और अभ्यास के लिए समर्पित जीवन जीने की तो स्वाभाविक व जन्मजात प्रवृत्ति थी ही, गरीबों की सेवा के प्रति तीब्र रूचि ने उन्हें संन्यास की ओर प्रवृत्त किया था। उन्होंने सन् 1932 में ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम, सन् 1936 में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी और 1948 में योग-वेदांत फारेस्ट एकाडेमी की स्थापना की थी। इन्ही संस्थाओं के जरिए लोगों को योग और वेदांत में प्रशिक्षित किया और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। आज भी ये संस्थाएं स्वामी शिवानंद सरस्वती के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु में जन्में बीसवीं सदी के इस महानतम संत को शत्-शत् नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की बड़ी भूमिका रही

संत परंपरा में महिला संतों का बड़ा योगदान रहा है। पर उन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वे हकदार थीं। इसके उलट संन्यास-मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाली मातृ-शक्ति को सामाजिक कारणों से प्रोत्साहित नहीं किया गया। फिर भी अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक की प्रेरणा और दैवयोग से अनेक महिलाएं संन्यास मार्ग के पथरीले रास्तों से आगे बढ़ गईं। इनमें मीराबाई, अक्का महादेवी, शारदा मॉ, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि , साध्वी ऋतंभरा, स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती, योगिनी शांभवी, साध्वी भगवती सरस्वती, गुरूमाई चिद्वविलासानंद, महंत दिव्या गिरि आदि उल्लेखनीय हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महाशिवरात्रि के आलोक में महिला संतों और योगियों की भूमिकाओं की एक झांकी प्रस्तुत है।   

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। अलग-अलग काल खंडों में भी योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही। पर उन्हें योगियों की तुलना में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। समाज में पुरूषों की प्रधानता इसकी बड़ी वजह रही होगी।

महिला दिवस पर मातृ-शक्ति का अभिवादन। तीन दिन बाद ही महाशिवरात्रि भी है। मुझे लगता है कि इन दोनों ही दिवसों के आलोक में शिव-शक्ति की महिमा को एक अलग दृष्टिकोण देखने का मकूल समय है। तब योग और अध्यात्म की दुनिया मे संन्यस्थ महिलाओं के योगदान की अनिवार्यता और उसके महत्व को समझना आसान होगा। तंत्रशास्त्रके मुताबिक शिव अर्थात पुरूष या शुद्ध चेतना और प्रकृति अर्थात देवी या शक्ति शरीर में होती हैं। इन दोनों ही शक्तियों का जागरण और उनका मिलन ही योग का महान लक्ष्य है। शक्ति शरीर के मूलाधार चक्र में सोई रहती है, जिसे यौगिक क्रियाओं से जागृत करके ऊपर सहस्रार चक्र तक ले जाना होता है। दूसरी तरफ शिव यानी शुद्ध चेतना की जागृति होती है तो शिव और शक्ति का मिलन होता है। इससे त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना होती है। पर इन दोनों को अलग कर देने से शून्य की, निर्वाण की, मोक्ष की स्थिति आती है। तंत्र आधारित योग का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना की जाती है कि शुद्ध चेतना ऊर्ध्वगामी है। ताकि दोनों शक्तियों का मिलन हो सके।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।   

अब बात आध्यात्मिक दुनिया में मातृ-शक्ति की उपस्थिति और उनकी भूमिकाओं की। वैदिक काल में महिलाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी, चिन्न मुकुंदा व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ तक करती थीं। योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

कालांतर में आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग लगभग बंद कर दिए गए। बावजूद दैवयोग से कई महिला संतों ने अपनी विशिष्ठ जगह बनाई। बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविदास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। संत लल्लेश्वरी, सहजोबाई, दयाबाई, मुक्ताबाई, बहिनाबाई, महारानी चुड़ाला, चिन्न मुकुंदा, शारदा मॉ, उभया भारती, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि आदि की भी मजबूत उपस्थिति रही। पर इन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। इन संतों में चिन्न मुकुंदा आदिगुरू शंकराचार्य की तांत्रिक गुरू थीं तो भैरवी ब्राह्मणी रामकृष्ण परमहंस की तांत्रिक गुरू थीं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की तांत्रिक गुरू जूना अखाड़े की सुखमन गिरि थीं। 

बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां तेजी से बदली। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थीं। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक गिनती की तपस्विनियों, संन्यासिनियों को छोड दें तो महिला संन्यासी व योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर लातविया मूल की इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टीकृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। वृंदावन में वात्सल्य ग्राम के सपने को साकार करने वाली साध्वी ऋतंभरा और रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। योगिनी शांभवी और साध्वी भगवती सरस्वती ऋषिकेश में विशेष तौर से महिलाओं के आध्यात्मिक उत्थान के लिए सक्रिय हैं। महामहोपाध्याय स्वामिनी ब्रह्मप्रकाशानंद सरस्वती वेदांत दर्शन के प्रचार में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। ऐसे और भी कई नाम हैं। अब तो जूना अखाड़े से संबंधित माई बाड़ा भी महंत दिव्या गिरि की अगुआई में बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ाने के काम में जुटा हुआ है।

मौजूदा समय में प्राण-शक्ति के निम्नतर स्तर के कारण लोग नाना प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। वैसे में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए माता पार्वती द्वारा शिव से पूछे गए प्रारंभिक नौ सवालों की अहमियत बढ़ गई है। वे श्वास-प्रश्वास यानी प्राण-शक्ति की अभिवृद्धि से संबंधित हैं। जाहिर है कि यह वक्त योगिनियों और संन्यासिनियों की अहमियत को स्वीकारते हुए उनके संदेशों को जन-जन तक ले जाने का भी है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीकृष्ण की बांसुरी, गोपियां और स्वामी सत्यानंद की दिव्य-दृष्टि

रासलीला, श्रीकृष्ण की बांसुरी, उसकी सुमधुर धुन और गोपियां…. इस प्रसंग में बीती शताब्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की व्याख्या एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह शास्त्रसम्मत है, विज्ञानसम्मत भी है।

जन्माष्टमी के मौके पर विशेष तौर से ज्ञान मार्ग के लोगों के लिए एक प्रेरक कथा। परमगुरू और कोई सौ से ज्यादा देशों में विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी बिहार योग पद्धति के जन्मदाता परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के श्रीमुख से सत्संग के दौरान अनेक भक्तों ने यह कथा सुनी होगी। फिर भी यह सर्वकालिक है। प्रासंगिक है।  

श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। कथा है कि उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? उन सबसे रह न गया तो एक दिन सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें आखिर ऐसी क्या बात है कि भगवान तुम्हें दिन-रात अपने पास रखते हैं और तुम उनकी पटरानी की तरह साथ-साथ रहती हो? तुम तो जंगली और सूखे बांस से बनी हो, जिसका न तो कोई रंग, न रूप और न अन्य कोई आकर्षण। फिर तुमने ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है कि भगवान तुम्हें अपने श्रीमुख से लगाते हैं तो तुमसे ऐसी सुमधुर आवाज निकलती है कि मोर पागलों की तरह नाचने लगते हैं। पहाड़ों में अजीब शांति छा जाती है। जीव-जंतु मूर्तिवत हो जाते हैं। तुमसे निकली सुरीली धुन से हम गोपियां भी सुध-बुध खो बैठती हैं और पागलों की तरह कृष्ण से मिलने दौड़ पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि तुम बांसुरी नहीं, जादू की छड़ी हो।

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उससे इतनी सुरीली आवाज कैसे निकलती है कि गोपियों के मन में इतने सारे सवाल चल रहे हैं। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“  मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है। इसलिए आपलोग भी अपने वैभव, अपनी सुंदरता व विद्वता के अभिमान से मुक्त होकर अपने को खाली कर दें तो भगवान दिव्य प्रेम से भर देंगे।“

श्री स्वामी जी कहते थे – श्रीकृष्ण की रासलीला वाली बात हम सबको पता है। कथा है कि श्रीकृष्ण आधी रात को जंगल में जा कर जब बांसुरी बजाने लगे तो उस बांसुरी की मधुर धुन सुनकर गोपिकाएं मदहोश हो गईं। जो जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में जंगल की तरफ दौड़ पड़ीं और बांसुरी की सुरीली धुन पर नाचने लगी थीं। इस प्रसंग को इस तरह समझना चाहिए और यही शास्त्रसम्मत है, यही विज्ञानसम्मत भी है। यह शरीर भी सूक्ष्म रूप से कृष्ण की वंशी ही है। उसकी सुमधुर आवाज आत्मा है। इंद्रियों को वश में कर लेना गोपियां हैं। गो मतलब इंद्रिय और पी मतलब उसे पी जाना। अर्थात कृष्ण की मुरली के धुन पर गोपियों के खींचे चले आने से अभिप्राय है आत्मा की आवाज पर इंद्रियों का वश में हो जाना। योग साधक जब साधना में लीन होता है, ध्यानमग्न होता है तो उसकी अंतर्रात्मा की आवाज से इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं और झूमने लगती हैं, नाचने लगती हैं। यानी वे वश में आ जाती हैं। आत्मा में लीन हो जाती हैं। यही योग की पूर्णता है, यही भक्ति की पराकाष्ठा है, यही मनुष्य के जीवन का पूर्णत्व है। रासलीला का अभिप्राय यही है।“

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