योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

योगविद्या को लेकर लोगों का दृष्टिकोण बदला है। जो योग शिक्षक-प्रशिक्षक समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बेहतर देने की स्थिति में होगा, वही प्रतिस्पर्द्धा में टिका रह पाएगा। कुछ भी नहीं चलेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीते एक दशक में फटाफट योग की संस्कृति विकसित की गई। फास्ट फूड की तरह। इससे योगाभ्यासियों और योगविद्या में अपना कैरियर देखने वालों का बड़ा अहित हुआ। पर यह सत्य है कि समस्या चाहे जैसी भी हो, उससे उबरने का सूत्र भी उसी में निहित होता हैं। भारत में ऐसे योगियों की कमी नहीं , जिन्होंने विपरीत परिस्थियों में राह बनाई थी और अपनी बौध्दिक व आध्यात्मिक क्षमता का विकास करके योगविद्या को समृद्ध किया।

कोरोना महामारी के बाद भारत में योग का कारोबार ऊंची उड़ान भर रहा है। उद्योग परिसंघों की रिपोर्टों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कोरोबार सौ बिलियन का हो चुका है, जो वेलनेस सेक्टर के कुल कारोबार का चालीस फीसदी है। योग के मुख्यत: दो पक्ष हैं। एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक। कारोबार की बात हो रही है तो जाहिर है कि लौकिक पक्ष खासतौर से उपचारात्मक पक्ष की बात है। आम जन के बीच योग के चिकित्सीय पक्ष को लेकर समझ बढ़ने और कोविड-19 की दवा की अनुपलब्धता की वजह से योग कारोबार को पंख लगा। दूसरी तरफ अगले शैक्षणिक सत्र से स्कूलों में भी योग शारीरिक शिक्षा का एक अंग बनने वाला है। दूसरे देशों में भारतीय योगाचार्यों की मांग पहले से है। जाहिर है कि योग के क्षेत्र में रोजगार के बड़े अवसर हैं। चुनौती बस योग शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है।  

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा न होने का ही नतीजा है कि कोरोनाकाल से पहले योग व्यवसाय से जीवन-यापन करने वाले लगभग 70 फीसदी योग प्रशिक्षक या तो बेरोजगार हैं या कोई अन्य व्यवसाय में लगे हुए हैं। कोई समोसा बेच रहा है तो कोई स्वास्थ्य सबंधी उत्पादों का वितरक बना हुआ है। इनमें ऐसे योग प्रशिक्षक भी शामिल हैं, जो हठयोग सीखाने में तो सक्षम हैं। पर संप्रेषण या तकनीकी दक्षता के अभाव में स्वर्णिम अवसर गंवाने को मजबूर हैं। यह इस बात का द्योतक है कि योग शिक्षा देने के तरीकों में खोट है। वरना योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच प्रशिक्षित योगाचार्यों का बेरोजगार रह जाना भला कैसे संभव था? योग के नाम पर कुछ भी और किसी भी तरह परोसने की प्रवृत्ति के कारण ऐसी स्थिति बनी है, जबकि गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा समय की मांग है।

योग परंपरा के संन्यासी दृढ़ता के साथ कहते रहे हैं कि बच्चे जब सात-आठ साल हो जाएं तो कुछ यौगिक क्रियाएं शुरू करानी चाहिए। क्यों? क्या शरीर स्वस्थ्य रहे, इसलिए? नहीं। हमारी परंपरा में योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रही। योगाभ्यास इसलिए कराया जाता था कि कम उम्र में पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की गति धीमी की जा सके। ऐसा होने से पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रहेगी। बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी। स्कूलों के योग शिक्षकों को ऐसे परिणाम हासिल करने के लिए उपयुक्त योगाभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पर वे सक्षम न हुए तो शिक्षित-प्रशिक्षित बेरोजागरो की फौज ही खड़ी होगी।  

शीर्षासन के बड़े-बड़े फायदे हैं। मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति बढ़ती है तो नाड़ी-तंतुओं का बेहतर पोषण होता है। शरीर से विषाक्त द्रव्य निष्कासित होता हैं। इससे मानसिक शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि होती है। पर साथ ही चेतावनी भी दी जाती है कि उच्च रक्तचाप और स्लिप डिस्क वाले मरीज इस आसन से दूर रहें। पर सिद्ध संतों की बात निराली होती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पास एक व्यक्ति आया। वह उच्च रक्तचाप की समस्या से परेशान था। स्वामी जी ने कहा, शीर्षासन करो। उसने वैसा ही किया और समस्या दूर हो गई। यह ठीक है कि सामान्य योग प्रशिक्षकों से ऐसे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वे तो मजबूत इच्छा-शक्ति और शास्त्रसम्मत शिक्षा से ही योग के वास्तविक परिणाम हासिल कर ही सकते हैं।

सवाल है कि योग शिक्षा कैसी हो कि योग शिक्षक-प्रशिक्षक गुणवान बन सकें? इस संदर्भ में स्वामी सत्यानंद सरस्वती से ही जुड़ा एक अन्य प्रसंग गौरतलब है। वे ऋषिकेश के अपने गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के योग प्रचार संबंधी मिशन पर निकलने से पहले तक योग के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। उनका मार्ग तो संन्यास का था। पर गुरू ने कह दिया कि जाओ, योग का प्रचार करों। ऐसा करने के लिए शक्तिपात के जरिए शक्ति दी। स्वामी सत्यानंद ने विचार किया कि घर-घर योग सीखाने से बेहतर है कि योग शिक्षक तैयार करो और ऐसा शिक्षक, जो हठयोग और राजयोग तक ही सीमित न रहे। उसे समग्र योग यानी कर्मयोग, ज्ञानयोग, मंत्रयोग, लययोग आदि का भी ज्ञान हो। उन्होंने योगविद्या को अष्टांग योग तक सीमित नहीं रखा। उनका मानना था कि अष्टांग योग राजयोग का अंग नहीं है। यह तो समस्त योगमार्गों का अंग है। जैसे, प्रत्याहार का अभ्यास राजयोग, क्रियायोग, कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, लययोग, नादयोग या किसी भी योग में किया जाता है। आज यदि योग शिक्षा के मामले में ऐसा दृष्टिकोण हो तो भारत के योगाचार्यों की पूरी दुनिया में तूती बोलेगी।

रही बात इच्छा-शक्ति की तो इस संदर्भ में आयंगार योग के जनक और हठयोग के विश्व प्रसिद्ध योगाचार्य बीकेएस आयंगार से सीख लेनी चाहिए। वे मामूली पढ़-लिख पाए थे। किशोरावस्था तक अंग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल नहीं था। पर आधुनिक योग के पितामह के रूप में मशहूर टी कृष्णामाचार्य की दृष्टि पड़ी तो उनकी ऊर्जा का दिशांतरण हुआ। किशोरावस्था में ही पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब में बतौर योग प्रशिक्षक नौकरी मिल गई। जब जीवन पटरी पर आने लगा तो नौकरी छूट गई। सवारी के नाम पर साइकिल थी। वे अपने जीविकोपार्जन के लिए दूर-दूर जाकर लोगों को योग सीखाते और खुद की उन्नति के लिए साधनाएं करते थे। उन्हें समझ में आ गया कि लोगों की तात्कालिक जरूरतें क्या हैं और दूरगामी परिणामों के लिए क्या करना होगा। इन बातों को ध्यान में रखकर अपने को उनके अनुरूप ढाला और हठयोग के पितामह बन गए।

इन तमाम बातों के मद्देनजर सरकार को भी गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा के लिए असरदार कार्य-नीति तैयार करनी होगी। संसद का बजट सत्र चल रहा है। आगामी शैक्षणिक सत्र को ध्यान में रखकर असरदार नीति बनाई जा सकती है। ताकि योग शिक्षको-प्रशिक्षकों के साथ ही छात्रों आम अन्य योग साधकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके। यदि स्कूलों में योग शिक्षा को फिजिकल एडुकेशन का हिस्सा न बनाकर स्वतंत्र विषय बना दिया जाए तो बड़ी बात होगी। योग शिक्षकों का एक बड़ा समूह इसकी मांग कर भी रहा है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नई शिक्षा नीति : कसरती स्टाइल के योग से नहीं, समग्र योग से बनेगी बात

धीरेंद्र ब्रह्मचारी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। तभी एक घटना घटित हुई। गेरू वस्त्र में पहुंचे एक अभ्यर्थी से जब सर्टिफिकेट की मांग की गई तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। वहां उपस्थित अधिकारियों को लगा कि धीरेंद्र ब्रह्चारी अभ्यर्थी के इस व्यवहार से नाराज हो जाएंगे। पर हुआ इसके उलट। धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने बिल्कुल सहज भाव से कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है। चूंकि सरकारी मामला है। इसलिए बाद में सर्टिफिकेट लाकर दे दीजिएगा।“

यह वाकया नईपीढ़ी के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है। पर इतिहास गवाह है कि एक समय पूरे भारत वर्ष की शिक्षा का पूरी दुनिया में ऐसा ही महत्व था। दुनिया भर के लोग ज्ञान हासिल करने के लिए भारत आते थे। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्ल्भी जैसे विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के आचार्य प्रमाणित कर देते थे कि अमुक शिक्षार्थी निष्णात हो गया तो हर जगह उसका सम्मान होता था। उसकी बातों को चीन से लेकर कोरिया तक के लोग आंख मूंदकर मान लेते थे। पर परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अब विश्वास खंडित हो चुका है। आधुनिक भारत में बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत और शास्त्रसम्मत शिक्षाओं को आत्मसात करके और उसे विज्ञान की कसौटी पर कसकर नईपीढ़ी के बीच ले जाने वाली कितनी संस्थाएं है कि कोई धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहेंगे कि फलां संत के शिष्य हो, तो योग्यता प्रमाणित करने के लिए कागज के टुकड़े का कोई मोल नहीं?

भ्रामरी प्राणायम : बच्चों की प्रतिभा के विकास में सहायक

स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो पांच-छह दशकों से कहते रहे हैं कि योगविद्या भारत वर्ष की सबसे प्राचीन संस्कृति और जीवन-पद्धति रही है और इसके ह्रास के बाद से ही भारतवासी गरीब, दु:खी और अस्वस्थ्य रहने लगे हैं। यह संतोष की बात है कि 21वीं सदी में भारत की बहुमूल्य आध्यात्मिक शक्तियों की पुर्नस्थापना की बात हो रही है। नई शिक्षा नीति इसका प्रमाण है। इसमें विशेष तौर से योग और आध्यात्मिक उत्थान के मामले में वैसी ही बातें है, जैसा स्वामी सत्यानंद सरस्वती बार-बार कहते रहे हैं। योग को स्कूली स्तर पर वैकल्पिक विषय के तौर पर प्रस्तुत गया तो यह विवाद न रहेगा कि इसे स्कूलों में अनिवार्य बनाया जाए या नहीं। प्रथम दृष्टया यही लग रहा है कि कोई योग शिक्षा हासिल करना चाहता है तो चुनाव करने का उसके पास अधिकार होगा। जब इसके लाभ मिलने लगेंगे तो बाकी लोग भी प्रेरित होंगे। पर यदि योग फिजिकल एजुकेशन का हिस्सा रह गया तो शिक्षा नीति की लोकलुभावन बातें, जड़ों की ओर लौटने की बातें कागजों तक सिमट कर रह जाएंगी।  

नई शिक्षा नीति के आलोक में योग शिक्षा के कई मामलों स्पष्टता आनी बाकी है। पर शिक्षा नीति के दस्तावेज में जैसा संकल्प दिखाया गया है, वह तभी फलीभूत होगा जब कुछ बुनियादी बातों का ख्याल रखा जाएगा। मसलन, अलग-अलग आयु वर्ग के छात्रों को योग शिक्षा देने के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा कि बात शारीरिक स्वास्थ्य और शिक्षा तक ही सीमित न रह जाए। बल्कि पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि छात्रों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि हो। इसके साथ ही इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि योग शिक्षकों का प्रशिक्षण किस तरह से हो कि भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए बच्चों में निहित रचनात्मक क्षमताओं का विकास सही ढंग से हो सके। ऐसा लगता है कि नई शिक्षा नीति में इन बातों को ध्यान में रखा गया है। तभी घोषणा है कि प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में नई शिक्षा नीति बनाई गई है। यह सच है कि ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता था। भारत की शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मज्ञान और मुक्ति के रूप में हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

हम सभी जानते हैं कि योग जीवन जीने की कला और विज्ञान है। इसका संबंध मन और शरीर के विकास से है। सच कहिए तो योग पूर्ण शिक्षा की एक ऐसी विधि है, जिसका उपयोग सभी बच्चों पर किया जाना चाहिए। ताकि शारीरिक ऊर्जस्विता, भावनात्मक स्थिरता और बौद्धिक व सृजनात्मक प्रतिभाओं का विकास हो सके। इस विषय पर इसी कॉलम में कई बार विस्तार से लिखा जा चुका है। फिर भी संक्षेप में इतना ही बताना काफी होगा कि आठ साल की उम्र से हो योग शिक्षा देने की परंपरा क्यों रही है और विज्ञान की कसौटी पर इसके क्या मायने हैं।

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य भी केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र सात-आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत करा दी जाती थी। उपनयन संस्कार उसी का हिस्सा होता था। बच्चों को अनिवार्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। वक्त के थपेड़े ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से करानी ही होगी। इससे पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की प्रक्रिया रूक जाएगी या धीमी पड़ जाएगी। इससे जुड़ी पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी। इसका लाभ होगा कि बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी।

हमें इस बात पर गौर करना ही होगा कि छोटे-छोटे बच्चे यौन हिंसा और पशुवत व्यवहार क्यों करने लगते हैं? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाते हैं तो भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है।

इस हॉरमोन का सीधा संबंध यौन परिपक्वता से है। इस पर बड़े-बड़े शोध हुए हैं। देखा गया है कि अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले अंगों का विकास होने लगता है और यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। कामवासन जागृत हो जाती है। यह काम ऐसे समय में होता है, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। लिहाजा वे अपने को संभाल नहीं पातें। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं। अनुसंधानों से पता चला है कि प्राचीन काल में बच्चों के लिए जो योगाभ्यास तय किए गए थे। मौजूदा समय के लिहाज से शांभवी मुद्रा को भी उस सूची में जोड़ लेने की जरूरत है। यानी सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, शांभवी मुद्रा और गायत्री मंत्र।

सूर्य नमस्कार : माँस पेशियां मजबूत बनाता है

योग की भाषा में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र या तीसरा नेत्र कहा जाता हैं। इसकी सजगता के और भी लाभ हैं। संतों को हजारों साल पहले पता चल गया था कि शरीर में ऊर्जा के सात केंद्र होते हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र और सभी चक्र शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिहाज से बड़े काम के होते हैं। अब वैज्ञानिक भी इस बात को मान रहे हैं। जापान के वैज्ञानिक डॉ एच मोटायामा ने साबित किया कि खास-खास तरह के योगाभ्यासों से अलग-अलग चक्रों का जागरण होता है, जिनका मानव पर विशेष तरह का प्रभाव होता हैं। वैज्ञानिक संतों की मानें तो योग का असल उद्देश्य इन चक्रों का जागरण ही हैं। इसी से जीवन में पूर्णता आती है।

योग शिक्षा की महत्ता को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा सुनिश्चित करना बड़ी चुनौती है। नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की गुणवत्ता पर जरूर चिंता है और तदनुरूप काम करने का संकल्प भी है। पर विशेष तौर से योग शिक्षा के मामले में कई बातें इस बात पर निर्भर होंगी कि पाठ्यक्रम कैसा होगा और पढ़ाने के लिए किस पृष्ठभूमि के योगाचार्य होंगे। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “योग जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र अथवा रसायन विज्ञान की तरह नहीं सीखा जा सकता। इसकी शिक्षा इस तरह होनी चाहिए कि शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव हो सके। पर यह तो तभी संभव है, जब योग शिक्षक के पास अपने छात्रों या योगाभ्यासियों को देने के लिए ज्ञान के साथ ही व्यक्तिगत अनुभव भी हो। साथ ही व्यक्तित्व सुलझा हुआ और संतुलित हो। यदि योग शिक्षक का बेचैन है, मन चंचल है औऱ भावनात्मक उथल-पुथल से त्रस्त है तो आत्माविहीन शिक्षा ही दे सकता है। जिसने योग शिक्षा से खुद शांति का अनुभव नहीं किया, वह गुरू कदापि नहीं हो सकता।“

विश्व विद्यालय स्तर पर योग शिक्षा ग्रहण करने वालों को यदि आदर्श योगी का संस्कार मिल पाया तो योग के मामले में नई शिक्षा नीति की सार्थकता होगी। समय की मांग है कि कसरती स्टाइल के हठयोग से आगे बढा जाए। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सरकार ने भी माना, फिलहाल योग ही सहारा

भारत सरकार ने प्रकारांतर से स्वीकार कर लिया है कि वैक्सीन आने तक कोविड-19 से मुकाबला करने के लिए योग ही सर्वोत्तम उपाय है। विभिन्न अध्ययन रिपोर्टों के आधार पर सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है।  

https://www.livemint.com/news/india/govt-plans-yoga-lessons-for-covid-19-patients-11594989168013.html

शवासन में योग कारोबार, शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक

ऑनलाइन योग कारोबार भले चमकता हुआ दिख रहा है। पर इस चमक के पीछे छिपा है योग प्रशिक्षकों का बेबस दर्द। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षकों के पास या तो कोई काम नहीं है या मामूली काम है। कई योग प्रशिक्षक तो रोजमर्रे की जरूरतें पूरी करने के लिए हर्बल दवाइयां बेच रहे हैं।

कोरोनाकाल योग के लिए स्वर्णिम काल और बहुत सारे योग संस्थानों और योग प्रशिक्षकों के लिए संकट काल है। सुनने में यह विरोधाभासी बातें लग सकती हैं। पर यही हकीकत है। ऑनलाइन योग के कारोबार की जैसी चमक दिख रही है, उसकी असलियत कुछ और है। उसके पीछे ढ़ेर सारे योग कारोबारियों और प्रशिक्षकों का बेबस दर्द है। आलम यह है कि छोटे-बड़े पांच सौ से ज्यादा योग संस्थान बंद हो गए हैं। लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी इन संस्थानों के कारोबार सजने की संभावना बेहद कम है। बेरोजगारी की दंश झेल रहे कई योग प्रशिक्षक हर्बल दवाइयां तक बेच रहे हैं। केवल बाजार में बने रहने के लिए रोज अपने वीडियो जारी करते रहते हैं। जो योग प्रशिक्षक संकटकाल में भी बाजार में टिक गए हैं, उनकी आमदनी बुरी तरह प्रभावित है।

कुछ योग प्रशिक्षक जरूर इसके अपवाद हैं। ऐसे प्रशिक्षक मुख्यत: महानगरों के हैं। जो योग प्रशिक्षक साधन-संपन्न और टेक सेवी हैं और पहले से ही ऑनलाइन क्लासेज ले रहे थे, उनकी आमदनी बढ़ गई है। जो गंभीर रूप से बीमार लोगों को सेवाएं दे रहे थे, उनकी आमदनी पूर्व की तरह बनी रह गई। कुछ योग प्रशिक्षकों को स्थानीय क्लाइंट्स के मार्फत विदेशों के क्लाइंट्स भी मिल गए हैं। पर ऐसे योग प्रशिक्षकों की संख्या गिनती के हैं। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षक ऑनलाइन योग के प्रति योगाभ्यासियों की बेरूखी से बुरी तरह प्रभावित हैं। इस बेरूखी की मुख्यत: तीन वजहें हैं। पहला तो यह कि लोगों की आम राय है कि जब ऑनलाइन क्लास ही करना है तो देश के नामचीन योगाचार्यों की मुफ्त सेवा का लाभ क्यों न उठाया जाए। दूसरा, लोगों का विश्वास है कि योग ऑनलाइन नहीं सीखा जा सकता। दूरस्थ प्रशिक्षण से खतरा हो सकता है। तीसरा, नेटवर्क समस्या और योग प्रशिक्षकों के पास उपयुक्त डिवाइस न होने के कारण ऑनलाइन क्लास से फायदा नहीं है।

दूसरी तरफ, कोरोना महामारी के बाद अपनी सेहत को लेकर महानगरों के मध्य वर्ग की जैसी सोच बनी है, वह भी योग कारोबार के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। “हेल्दीफाईमी” के मुताबिक अपने स्वास्थ्य को लेकर बेहद सतर्क मध्य वर्ग घर को ही जिम में तब्दील करने में जुटा हुआ है। फ्लिप कार्ट और अमेजन से जुटाए गए आंकडों के मुताबिक लॉकडाउन के बाद मैट से लेकर फिटनेस उपकरणों तक की बिक्री में 65 फीसदी का इजाफा हुआ है। बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत योग के कुछ संस्थानों को छोड़ दें तो देश के अनेक प्रमुख योग संस्थानों की ओर से योगाभ्यासियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर रोज वीडियो जारी किए जाते हैं। योग सीखने का यह तरीका कितना कारगर है, इस पर बहस हो सकती है। पर फिलहाल बड़े संस्थानों के वीडियोंज लोगों को खूब भा रहे हैं। 

बड़े योग संस्थानों के पास अपने को बचाए रखने के दस उपाय हैं। जैसे, केंद्र और राज्यों की सरकारें योग से संबंधित अपनी बहुत सारी योजनाएँ बड़े योग संस्थानों के जरिए ही कार्यान्वित कराती है। आजकल बेबिनार का चलन है। हाल ही अंग्रेजी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने वित्तीय कंपनी और योग संस्थान के सहयोग से बेबिनार का आयोजन किया था। सबको पता है कि बेबिनार ऑनलाइन जमाने का प्रकारांतर से विज्ञापन ही है। संकट में वे हैं जो अपने बलबूते उद्यमी बनकर, एंटरप्रेन्योर बनकर कोई मुकाम हालिल करने का सपना संजोए हुए थे। परेशानी उनकी बढ़ी हुई हैं, जिन्होंने सरकारी या निजी क्षेत्र की कंपनियों में रोजगार पाने के मकसद से योग में डिप्लोमा व डिग्री ही नहीं, बल्कि पीजी यानी स्नातकोत्तर तक की शिक्षा हासिल की थी। पर संविदा शिक्षक या प्रशिक्षक बनकर रह गए थे। रोजमर्रे की जिंदगी तबाह उनकी है, जो कुकुरमुत्ते की तरह उग गए योग शिक्षण केंद्रों के भ्रमजाल में फंसकर सौ दो सौ घंटों में योग प्रशिक्षक बनकर किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। संकट झेल रहे तबकों में यह तबका सबसे बड़ा है।

ऋषिकेश को योग की वैश्विक राजधानी के रूप में जाना जाता है। वह परंपरागत योग के संतों की तपोभूमि है तो गुरू-शिष्य परंपरा वाली योग शिक्षा का केंद्र भी है। आध्यात्मिक और धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर पर्यटन स्थल होने के कारण पर्यटकों और अन्य योग शिक्षानुरागियों को ध्यान में रखकर खोले गए योग प्रशिक्षण केंद्र और योगा स्टूडियोज भी हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद योग को पंख लगा तो गुणवत्ता की परवाह किए बिना योग के कारोबार में तेजी से इजाफा हो रहा था। योग को पेशे के तौर पर देखने की युवाओं की मंशा भांपकर योग के कई कारोबारियों ने युवाओं को भ्रमजाल में फंसाया। उन्हें सौ-दो सौ घंटों का प्रशिक्षण देकर योग प्रशिक्षक बना दिया। ऐसे योग प्रशिक्षक अब ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। ऑनलाइन योग के जमाने में उन्हें इस बात का भान हो चुका है कि उनका ज्ञान योग पेशे में लंबी दूरी तय करने के लिए नाकाफी है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति दूसरे शहरों में भी है।

देश के बमुश्किल दो दर्जन योगाश्रमों और प्रतिष्ठित योग संस्थानों को छोड़ दें तो बाकी योग कारोबारियों की हालत खास्ता है। केवल ऋषिकेश में ही कोई तीन सौ योग शिक्षण-प्रशिक्षण केंद्र पूरी तरह बंद हो चुके हैं। इनमें ऐसे केंद्र भी हैं, जो महीने का सात-आठ लाख रूपए व्यावसायिक जगहों के लिए भाड़ा दे रहे थे। इनमें से नब्बे फीसदी केंद्रों के कारोबार विदेशी पर्यटकों पर आधारित थे। नेशलल लॉक़डाउन के बाद वे सभी केंद्र बालू की भीत की तरह बिखर चुके हैं। इनके प्रमोटरों को सूझ नहीं रहा कि नई राह किस तरह बनेगी। लखनऊ में प्रयाग आरोग्यम् केंद्र कई लोगों के रोजगार का जरिया बन गया था। पर कोरोना महामारी के कारण उसे बंद कर देना पड़ा है। इसके प्रमोटर प्रशांत शुक्ल अपने गांव जा चुके हैं और वहीं से ऑनलाइन क्लासेज लेते हैं। उनका कहना है कि कुछ नामचीन योगियों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि लोगों का लगता है कि योग शिक्षा मुफ्त लेने की चीज है। तभी अनेक योग प्रशिक्षकों को हर्बल दवाएं बेचने को मजबूर होना पड़ है।

देश भर में संविदा यानी कांट्रैक्ट पर काम करने वाले योग प्रशिक्षकों की स्थिति भी कमोबेश बाकी योग प्रशिक्षकों जैसी ही है। शैक्षणिक संस्थानों और अन्य संस्थानों के बंद होने के कारण उनकी सेवाएं अर्थहीन हो गई हैं। काम नहीं है तो पारिश्रमिक भी नहीं मिल रहा है। संविदा प्रशिक्षकों की पीड़ा इतनी ही नहीं है। स्नातकोत्तर स्तर की योग शिक्षा और वर्षों योग प्रशिक्षण देने का अनुभव रखने वाले प्रशांत शुक्ला को बीते साल अगस्त में लखनऊ स्थित केंद्रीय विद्यालाय में संविदा के आधार पर बहाल किया गया था। जब भारत में भी कोरोना संकट का आगाज हुआ तो फरवरी में प्राचार्य ने बता दिया कि उनकी नौकरी जा चुकी है।

आर्थिक संकट से जूझते योग प्रशिक्षक सरकार से आर्थिक मदद चाहते हैं। दिल्ली में “योग करो” संस्थान के प्रमुख मंगेश त्रिवेदी और कुछ अन्य योग प्रशिक्षक अपने पेशे के लोगों को सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से लामबंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि योग प्रशिक्षक संगठित होकर अपनी बात उचित स्थानों तक पहुंचाएंगे तो सरकार की कई योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है। शवासन में पहुंच चुके योग कारोबार के कारण शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक इस अभियान से कितने लाभान्वित हो पाएंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)  

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