प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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