गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार //

आज आषाद माह की पूर्णिमा को हम सब मनाते तो हैं गुरू पूर्णिमा के रूप में। पर शिष्यों के लिए इसकी अहमियत ज्यादा है। क्यों? क्योंकि गुरू की पूर्णिमा हो चुकी होती है। तभी तो हम उन्हें गुरू, ब्रह्म या साक्षात् ईश्वर के रूप में पूजते हैं। पूर्णिमा तो शिष्यों की होनी है। तभी गुरू इस मौके पर हमारी आसक्ति की जंजीर को तोड़कर संसार के बंधन से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह दिन शिष्यों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सवाल है कि शिष्य के तौर पर हम सब क्या करें कि गुरू पूर्णिमा सार्थक बन जाए? हम जिस गुरू से जुड़ने जा रहे हैं, वह गुरू समर्थ है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें और यदि गुरू उच्च कोटि के संत हैं तो उनके साथ हमारा संबंध कैसा होना चाहिए? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें निश्चित रूप से मंथन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद को शिष्य धर्म की कसौटी पर कसे बिना गुरू पूर्णिमा जैसा स्वर्णिम अवसर भी अर्थहीन हो जाएगा। उत्सव हम भले मना लेंगे। पर हमारे जीवन में किसी तरह का बदलाव नामुमकिन होगा।

शिष्यों के लिए गुरू पूर्णिमा कितने महत्व का है, यह आदिगुरू शिव और सप्त ऋषियों की कथा से स्पष्ट है।  शिव जी का हिमालय में ध्यानमग्नावस्था में अवतरित होना साधना मार्ग में आगे बढ़ रहे हिमालय के सात ब्रहम्चारियों के लिए किसी दैवीय संयोग से कम न था। उन्हें इस अवतारी महापुरूष में गुरू तत्व दिखा। उधर, अंतर्यामी शिवजी का ध्यान टूटा तो उन साधकों की इच्छा समझते देर न लगी। शिवजी ने उन्हें शिष्य की पात्रता हासिल करने के लिए कुछ साधनाएं बता दी। कोई 84 वर्षों की साधना के बाद जब वे शिष्य बनने के पात्र हो गए तो शिवजी ने आषाद महीने की पूर्णिमा के दिन उन साधकों को ज्ञान उपलब्ध कराया था। उसी दिन आदियोगी आदिगुरू बने और सात शिष्य कालांतर में सप्तऋषि कहलाए, जिनके नाम थे वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इस तरह सप्तऋषियों की पूर्णिमा हो गईं और आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन उत्सव का दिन बन गया।

इस कथा से साबित होता है कि शिष्य तभी बना जा सकता है, जब हममें इसकी पात्रता होगी। पर पहले समझिए कि पात्रता क्यों जरूरी है। कुंडलिनी तंत्र के मुताबिक, हमारे शरीर के अन्दर एक प्रमुख चक्र है, जिसे हम ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। कुछ लोग इसे गुरु-चक्र भी कहते हैं। इसका स्थान भूमध्य के पीछे जहाँ सुषुम्ना समाप्त होती है, वहीं है। इसकी एक अपनी विशेषता है। साधना के सिलसिले में ज्यों-ज्यों साधक की बाह्य चेतना अचेत होती जाती है, उसी अनुपात में यह चक्र जगता जाता है। एक ओर मन, बुद्धि, चित्त और इन्द्रियों का लोप होते जाता है, तथा दूसरी ओर इष्ट देव का चित्र स्पष्ट होता जाता है और इसके साथ ही साथ आज्ञा चक्र जाग्रत होता जाता है। ज्योंहि इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई कि वह अन्दर गया। ध्यान की अवस्था में उन्हीं का आज्ञा चक्र जाग्रत होता है, जिनकी इन्द्रियाँ कम चंचल हैं और मन एक हद तक शांत तथा अनासक्त है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका आज्ञा चक्र ध्यान के बाहर भी जाग्रत रहता है, पर ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। ध्यान की अवस्था में जब आदेश ग्रहण करने वाली प्रत्येक इन्द्रिय सो जाती है, तब यही आज्ञा चक्र गुरु का सूक्ष्म आदेश ग्रहण करता है।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं। अब सवाल है कि शिष्य में किस तरह की पात्रता होनी चाहिए? सभी गुरूजन एक ही बात कहते हैं कि निष्कपटता, श्रद्धा और आज्ञाकारिता ये तीन बातें शिष्यत्व की पहली शर्त है। पर इन गुणों का विकास भी तभी होगा, जब हम अष्टांग योग की प्रारंभिक साधना यम-नियम का पालन करना करना सीख जाएंगे। पूर्व में इसी कॉलम में यम-नियम पर विस्तार से लेख प्रकाशित हो चुका है। यम-नियम के बिना आध्यात्मिक प्रगति हो नहीं सकती। महर्षि पिप्पलाद ने भी प्रश्नकर्त्ताओं को पहले यम-नियम का पालन करने को ही कहा था।  

शिष्यत्व की ये योग्यताएं हासिल करने वाला शिष्य ही गुरू की खोज करने में समर्थ हो पता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरू का चयन करते समय देखो कि वह गुरू शिष्य की कसौटी पर कितना खरा है। यदि खरा है तो वह निश्चित रूप से समर्थ गुरू है। मैंने इसी बात को ध्यान में रखकर तो गुरू की खोज की थी। अब सवाल है कि गुरू के साथ हमारा संबंध कैसा हो? स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक पथ पर पहला कदम है, निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा। गुरु सेवा अमर आनन्द की अट्टालिका की नींव है। विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा इसके स्तम्भ हैं। ऊपर की इमारत अनन्त आनन्द है। गुरु सेवा ईश्वर की पूजा है। गुरु सेवा तथा गुरु के प्रति आत्मसमर्पण हृदय के द्वार खोलता है, चेतना का विस्तार करता है तथा आत्मा को गहराई प्रदान करता है। जो आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-भाव के साथ गुरु-सेवा करता है, वही सच्चा शिष्य है। गुरु-सेवा में आप जितनी अधिक शक्ति लगाएंगे, उतनी ही अधिक दैनिक शक्ति का संचार होगा।

इस तरह गुरू पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा प्रारब्ध चाहे जैसा भी हो, यदि हम सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने को तैयार हैं तो हमारे लिए अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा खुल सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्य-धर्म के निर्वहन का संकल्प लेने का दिन है। रस्मी तौर पर केवल गुरू का गुणगान करने से बात बनने वाली नहीं। गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ओशो : हमने कांटों को भी नरमी से छुआ अक्सर

किशोर कुमार //

ओशो कालजयी हैं, शाश्वत, सदैव प्रासंगिक। बीसवीं सदी में संभवत: वे पहले विचारक, पहले आध्यात्मिक गुरू हुए, जिन्होंने अपने अनुभवों, अपने तर्कों से साबित किया कि आंतरिक आध्यात्मिकता का वाह्य समृद्धि या बाह्य दरिद्रता से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, संभोग और समाधि से लेकर स्वस्थ्य राजनीति तक पर अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किए। उनकी बातें दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए एक मार्ग-दर्शक प्रकाश बन गईं। पर आलोचना भी कम न हुई। बिस्मिल सईदी का शेर है – “हमने काँटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर, लोग बेदर्द हैं फूलों को मसल देते हैं।“ ओशो के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा।     

यह सच है कि नए विचारों और उसके आलोक में धर्म की व्याख्या का सदैव विरोध होता रहा है। बुद्ध हों या जीसस, जीते जी उनकी बातों पर कहां विश्वास किया गया। जीसस को तो सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। ऐसे में ओशो अपवाद नहीं रहे तो चौंकाने जैसी बात नहीं थी। इसलिए उन्हें जेल में डाला गया तो तनिक भी विचलित नहीं हुए थे, बल्कि जेल में ही क्रांति के बीज बो दिए थे। प्रख्यात कवि और प्रेरक वक्ता कुमार विश्वास शायद इकलौते हैं, जिन्होंने भरी सभा में खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्होंने ओशो की चर्चित व विवादास्पद पुस्तक “संभोग से समाधि तक” को छात्र जीवन से लेकर अब तक चार बार पढ़ा। वे इस निष्कर्ष पर हैं कि संभोग शब्द केवल टाइटल भर है। पुस्तक में बातें समाधि की है, ऊर्जा की है, उसके रूपांतरण की है। हालांकि समय के अनुसार चीजें बदली हैं। ओशो के महाप्रयाण के बाद उनके विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जिस तरह बुद्ध की अनुपस्थिति में बुद्ध धर्म पनपा, जीसस की अनुपस्थिति में ईसाई धर्म पनपा और उसे विस्तार मिला, उसी तरह ओशो के शब्द भी साक्षी बन रहे हैं।

धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो कई बार ऋषियों-मुनियों की बातों में विरोधाभास दिखता है। रास्ते अलग-अलग दिखते हैं। पर लक्ष्य एक ही होता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि सत्य बुहाआयामी है। ऋषिगण इस सत्य को विभिन्न पद्धतियों से उद्घोषित करते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर की छत पर सीढी, बांस, रस्सी अथवा किसी अन्य उपाय से चढ़ता है, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग भी अनेक हैं। संसार का प्रत्येक धर्म इनमें से किसी एक मार्ग का निर्देश करता है। इसलिए यहां यह चर्चा का विषय नहीं है कि ओशो ने जो कहा वह सत्य है या दूसरों ने जो कहा, वह सत्य है। इतना जरूर है कि ओशो ने जीवन पद्धति की जैसी व्याख्या की, वह ज्यादातर मामलों में वैदिक साहित्य के अनुरूप ही है। इसे कैवल्य उपनिषद की व्याख्या के जरिए भी समझा जा सकता है।

सर्वविदित है कि ओशो ने ध्यान योग को सर्वोपरि माना था। कैवल्योपनिषद् में भी ध्यानाभ्यास का विशद वर्णन मिलता है। मैंने इसलिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के मामले में ओशो के विचारों को कुछ शब्दों में व्यक्त करने के लिए कैवल्योपनिषद् पर उनके भाष्य को चुना है। इससे उनके मौलिक और स्वतंत्र चिंतन का भी पता चल जाता है। कैवल्योपनिषद् में शिष्य आश्वलायन परम स्वतंत्रता की आकांक्षा लिए सनत्कुमारों को ज्ञान का उपदेश देने वाले ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और विनयपूर्वक ब्रह्म विद्या के लिए जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। प्रत्युत्तर में ब्रह्मा जी कहते हैं, उस परमतत्व को पाने के लिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग का आश्रय लेना पड़ता है। ओशो इस संवाद की सुंदर व्याख्या करते हैं। पर वे इसी बात को स्वतंत्र रूप से, उपनिषद का नाम लिए बिना कहते हैं तो उल्टा मालूम पड़ता है। पर ओशो ऐसी बातों की परवाह कहां रही। वे खुलकर कहते रहे कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए। फिर भक्ति, ध्यान और योग।

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा कास्मिक है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है और योग शारीरिक है। ज्यादातर लोग क्या करते हैं, शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर और फिर ब्रह्म पर। यानी कैवल्योपनिषद में बतलाए गए क्रम से उलट। इसलिए हर चरण सहज न होकर कठिन होता चला जाता है। इसलिए आमतौर पर ऐसा होता है कि योग से शुरू करने वाले योग पर अटक जाते हैं और आसन वगैर करके निपट जाते हैं। ध्यान तक पहुंच ही नहीं पाते। ध्यान से शुरू करने वालों के लिए भक्ति कठिन हो जाती है और भक्ति से शुरू करने वाले श्रद्धा तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।“ पर श्रद्धावान बनें कैसें? परमहंस योगानंद ने अपने गीताभाष्य में कहा है कि कोई भक्त अपने ईष्ट देवता पर अत्यधिक गहनता से एकाग्र होता है तो वही अभिव्यक्ति एक जीवित रूप धारण करके भक्त के हृदय की सच्ची पुकार को संतुष्ट करती है। ओशो के मुताबिक, मीरा या कबीर जब कहते हैं कि ऐ री मैंने राम-रतन धन पायो, तो वह श्रद्धा ही तो है। उनकी श्रद्धा मजबूत हुई तो सब भ्रम टूट गया। फिर मिला क्या? राम-रतन धन। यानी कोहिनूर हीरा। अब जिसे कोहिनूर हीरा मिल गया, तो वह कंकड़—पत्थर क्यों चुनेगा!

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा के बाद है भक्ति। श्रद्धा जैसी अंतर्घटना की अभिव्यक्ति। एक बार श्रद्धा का जन्म हो जाए तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है। अब किसी पदार्थ में भी प्रेमी या परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। इन दो परिघटनाओं के बाद ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। मीरा बाई और चैतन्य महाप्रभु इसके उदाहरण हैं। सबसे आखिर में योग को रखा गया है। जिसे ध्यान सध जाता, उसके पीछे योग चला आता है। हम हैं कि इसके उलट कठिन रास्ता चुन लेते हैं। ओशो की प्राय: ऐसी ही बातें उनके समकालीन प्रबुध्दजनों को उल्टी मालूम पड़ती थी। प्रसिध्द गीतकार गुलजार सदैव ओशो के विचारों से खासे प्रभावित रहे हैं। वे कहते हैं कि ओशो कुछ और नहीं, बल्कि अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अस्तित्व का माधुर्य हैं। उनकी करूणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई। ओशो को उनकी 91वीं जयंती पर सादर नमन।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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