भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आत्मज्ञानी संतों का मूल्यांकन भला कैसे हो!

किशोर कुमार //

भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन के जितने भी आत्मज्ञानी संत हुए, उनमें से किसी ने भी मातृ-शक्ति की महत्ता को कमतर नहीं आंका और न ही ऐसा कोई काम किया, जिससे सामाजिक विभेद उत्पन्न हो। चाहे वे गौतम बुद्ध, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत रविदास, गुरूनानक देव और चैतन्य महाप्रभु हों या फिर संत कबीर, मीराबाई, रहीम रसखान और संत तुलसीदास। जी हां, रामचरित मानस के रचयिता संत तुलसीदास भी।

जरा सोचिए कि विशिष्टाद्वैतवाद के समर्थक जिस आत्मज्ञानी संत की गुरू ही महिला रही हों, वह भला महिलाओं की ताड़ना-प्रताड़ना या सामाजिक विभेद पैदा करने वाली बातें कैसे कर सकता है? कालांतर में निश्चत रूप से किसी ने अपनी सुविधानुसार ऐसी पंक्तियां जोड़ी – घटाई गई होंगी, जिससे संदर्भ बदला तो अर्थ भी बदल गया या फिर हम अवधि में लिखे गए शब्दों की सही व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। वैसे, पांच सौ साल बाद महज थोथे तर्कों से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। बल्कि समग्रता में मूल्यांकन करके ही सत्य के करीब पहुंचा जा सकता है।

संत तुलसीदास को आत्मज्ञान मिलने की कहानी तो सबको पता ही है। वे अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्यार करते थे। पत्नी मायके गईं तो तुलसीदास वियोग में इतने बावले हुए कि घनघोर वर्षा के बीच नदी पार कर ससुराल पहुंच गए थे। दरवाजा न खुला तो घर के पीछे रस्सी लटकी दिखी, जो वास्तव में सांप था। सांप को रस्सी सझकर उसी के सहारे दूसरे मंजिल के उस कमरे में पहुंच गए, जहां रत्नावली सो रही थीं। रत्नावली ने पति की ऐसी आसक्ति देखकर बरबस ही बोल पड़ी थीं – “हे नाथ! मेरी देह से जितना प्रेम करते हो, इतना प्रेम यदि राम से करते, तो आपका जीवन धन्य हो जाता।“ और इसी बात से उन्हें आत्मज्ञान हो गया। वे चित्रकूट जाकर तपस्या में तल्लीन हो गए थे।

बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के स्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने सत्संग में जब कभी गोस्वामी तुलसीदास की चर्चा आती थी, कहते थे – “यह मानने का कोई कारण नहीं कि गोस्वामी तुलसीदास ने नारी के असम्मान में कभी कुछ कहा होगा। या तो उनकी बातें समझी न गईं या किसी कारणवश चौपाइयों में जोड़-तोड़ किया गया होगा। तुलसी के रामायण में तो स्त्री मर्यादा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उसे देवी बतलाते हुए सुरसा को भी माता कहकर ही संबोधित किया गया है।“ सच है कि तुलसीदास खुद ही कहते हैं –  “एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“ यह स्त्री-पुरूष समानता वाली बात ही तो है। यही नहीं, उन्होंने नवधा भक्ति के आलोक में श्रीराम और माता शबरी का भी बेहद सुंदर वर्णन किया है।

सच तो यह है कि पूरे रामचरित मानस में सामाजिक सद्भाव की बात है। इसे तर्क करके नहीं समझा जा सकता। भक्ति कोई बुद्धि-विलास की वस्तु नहीं है। महर्षि अरविंद ने भक्ति के प्रसंग में कहा भी है –  तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। इस तार्किक बुद्धि के पार जाकर भावना से भक्ति के मर्म को समझा जा सकता है। भावना का संबंध बुद्धि से नहीं है। ओशो कहा करते थे –“शास्त्र को लाख पढ़ लो, चाहो तो अपने ही अर्थ निकाल लोगे। शास्त्र तुम्हें बदले न बदले, पर तुम शास्त्र को जरूर बदल सकते हो, क्योंकि तुम जो अर्थ चाहोगे, वही अर्थ निकाल लोगे। तुम्हारी व्याख्या शास्त्र पर सवार हो जाएगी।“ भारतीय इतिहास को जिस तरह तोड़े-मरोड़े जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं, उनके आधार पर यह मानने का कोई कारण नहीं कि रामचरित मानस और अन्य धार्मिक ग्रंथों में सुविधानुसार तोड़-मरोड़ नहीं किया गया होगा। 

इसे महज संयोग ही कहिए कि इस महीने यानी फरवरी में तीन ऐसे आत्मज्ञानी संतों की जयंती मनाई जाती है, जिन्होंने भक्ति आंदोलन चलाकर सामाजिक समरसता के लिए अनूठे कार्य किए। उनमें से एक संत रविदास की जयंती तो हम मना चुके। भक्ति आंदोलन के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य संत रविदास ने अपने भक्ति आंदोलन के जरिए सामाजिक भेदभाव मिटाने में अहम् भूमिका निभाई थी। आज यानी 6 फरवरी को चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवन प्रदान करके विश्वव्यापी बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले आध्यात्मिक नेता भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की जयंती है और कोई बारह दिनों बाद यानी 18 फरवरी को श्रीचैतन्य महाप्रभु की जयंती है। इस लेख में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की बात होगी तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के आंदोलन की झलक मिल ही जाएगी।

भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने जीवन काल में देश भर में न केवल गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की जड़ें मजबूत की थी, बल्कि अपने पट्ट शिष्य श्रील अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को आगे करके दुनिया भर में भक्ति आंदोलन का ऐसा डंका बजवाया कि आज भी इस्कॉन और श्रीकृष्ण भावनामृत के रूप में उस आंदोलन की मजबूत उपस्थिति सर्वत्र देखी जा सकती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के मुख्यत: चार सूत्रों, जिनमें जाति भेद मिटाने, अंधविश्वास का परित्याग करने औऱ मानवता की सेवा को प्रमुखता देने की वजह से न केवल संप्रदायों के बीच विभेद कमा, बल्कि जाति-पांति और छुआ-छूत को लेकर भी आम लोगों का दृष्टिकोण बदला। नजीजा हुआ कि श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू किया गया भक्ति आंदोलन, जो कालांतर में धीमा पड़ गया था, पुनर्जीवित हो उठा और देश भर में फैल गया।

श्रीचैतन्य महाप्रभु का पहली बार जगन्नाथपुरी में पदार्पण हुआ था तो उनकी संकीर्तन मंडली में सभी वर्गों के लोग इस तन्मयता से जुट गए कि लगा ही नहीं कि समाज में कोई जाति विभेद भी है। उनके शिष्यों में हरिदास ठाकुर शूद्र थे। पर वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनूठे शिष्य थे। कथा है कि रविदास ठाकुर चाहते थे कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के देह त्याग से पहले उन्हें अपना देह त्याग करने की अनुमति मिल जाए। इसलिए कि वे अपने गुरू का विरह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। यह बात सुनते ही चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास जी से कहा – “हरिदास, यदि तुम चले जाओगे तो मैं कैसे रहूंगा, हरिदास क्या तुम मुझे अपने संग से वंचित करना चाहते हो?  तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा और कौन है यहाँ?” इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि भारत के किसी भी आत्मज्ञानी संत ने सामाजिक विभेद नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता के लिए अपने-अपने तरीकों से काम किया। तभी देश में सर्वत्र अनेकता में एकता बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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