योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

धीरेंद्र ब्रह्मचारी : बेशकीमती यौगिक सूक्ष्म व्यायाम है

किशोर कुमार

अस्सी के दशक के बहुचर्चित योगी और महर्षि कार्तिकेय के शिष्य धीरेंद्र ब्रह्मचारी राजनीति और व्यापार के पचड़े में न पड़े होते तो उनके “विश्वायतन योगाश्रम” और “योग अनुसंधान संस्थान” का परचम लहरा रहा होता। अपने समय के प्रतिभाशाली हठयोगी होने के कारण शिखर पर पहुंच तो गए थे। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधों और अपनी कुछ गतिविधियों के कारण इतने विवादास्पद हुए कि योग को विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे जन-जन तक पहुंचाने के उनके अभियान को बड़ा धक्का लगा। लेखकों-पत्रकारों के एक बड़े वर्ग के लिए योग, यौगिक अनुसंधान व उससे मिलने वाले लाभ गौण हो गए और विवादास्पद प्रसंग महत्वपूर्ण हो गए।

वैसे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी इकलौते योगी नहीं हैं, जो विवादास्पद बने। कई अन्य योगियों का भी अलग-अलग कारणों से विवादों से गहरा नाता रहा है। पर उनके मूल कार्यों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इस मामले में धीरेंद्र ब्रह्मचारी भाग्यशाली नहीं निकले। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है।“ हम जानते हैं कि संसार त्रिगुणों यानी तमस, रजस और सत्व गुणों की लीला भूमि है। कोई भी व्यक्ति इन गुणों से परे नहीं है। फर्क इतना है कि किसी में तमस गुण की प्रधानता है तो किसी में रजस गुण की। आत्मज्ञानी संतों में सत्व गुण की प्रधानता होती है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जैसी जीवन-शैली थी, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे रजस गुण प्रधान योगाचार्य थे।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने भी कभी नहीं कहा कि वे योगी या आत्मज्ञानी संत हैं। हमेशा खुद को हठयोग साधक या योगाचार्य बताते रहे। पर समस्या इसलिए भी खड़ी हुई कि हम उन्हें निवृत्ति मार्गी संन्यासी मानते हुए तदनुरूप व्यवहार की उम्मीद करने लगे। भूल गए कि योगाचार्य प्रोफेशनल भी हो सकता है। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बिक्रम चौधरी तो हॉट योग के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। कारोबार पांच सौ करोड़ रूपए का है। विवादों से नाता बना रहता है। पर कारोबार पर कभी फर्क नहीं पड़ा।    

धीरेंद्र ब्रह्मचारी हठयोग विद्या में प्रवीण थे। तंत्र की शक्तियों से वाकिफ थे। तभी हठयोग और तंत्र में परस्पर संबंध बतलाते हुए तदनुरूप योगाभ्यास भी कराते थे। उन योगाभ्यासों से किसी न किसी दौर में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियतों के अलावा लाखों लोग लाभान्वित हुए। सच तो यह है कि सन् 1956 में जेपी जब यौगिक उपचार से मधुमेह-मुक्त हुए तो उन्होंने ही धीरेंद्र ब्रह्मचारी को कलकत्ता से दिल्ली लाने में भूमिका निभाई थी। वरना धीरेंद्र ब्रह्चारी ज्यादातर कलकत्ते में ही लोगों को योगाभ्यास कराते थे। जाहिर है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी में कुछ खास बात निश्चित रूप से रही होगी। तभी चेतना के बेहतर तल पर जीने वाली शख्सियतें उनसे प्रभावित थीं।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार-प्रसार विश्वायतन संस्था के बैनर तले करते थे। इस संस्था के बड़े योगाश्रम दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में थे। दिल्ली का आश्रम अब भारत सरकार के अधीन मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान बन चुका है। जम्मू के मंतलाई आश्रम का कायाल्प करके उसे अंतर्राष्ट्रीय योग केंद्र बनाया जा रहा है। टीवी के जरिए योग का प्रचार-प्रसार अब आम है। पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने इसकी बुनियाद सत्तर के दशक में ही रख दी थी। दूरदर्शन पर “योगाभ्यास” नाम से कार्यक्रम प्रत्येक सप्ताह प्रसारित किया जाता था। वे कहते थे कि आत्मज्ञान योग का असल उद्देश्य है। पर यह विषय उनके एजेंडे में नहीं था। उनकी कोशिश इतनी भर थी कि लोग स्वस्थ्य एवं प्रसन्न रहें। इसलिए बहिरंग योग साधना उनका विषय था।

नई शिक्षा नीति में यौगिक क्रियाओं को अब जाकर स्थान मिला है। पर धीरेंद्र ब्रह्चारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का लाभ लेते हुए अस्सी के दशक में ही देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षा आरंभ करवाई थी। ताकि छात्रों की प्रसुप्त क्षमताएं और प्रतिभाएं प्रकट हो सके। धीरेंद्र ब्रह्चारी संत भले न थे। पर संतों के प्रति अनुराग में कोई कमी न थी। इसे एक उदाहरण से समझिए। वे केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। उनके समक्ष गेरू वस्त्र धारण किया हुआ एक अभ्यर्थी उपस्थित हुआ। उससे योग्यता प्रमाण-पत्र मांगा गया तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। धीरेंद्र ब्रह्चारी ऐसे उछले मानो कोयला खान में हीरा मिल गया हो। उन्होंने कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है।“

धीरेंद्र ब्रह्मचारी बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे थे। यह वही जिला है, जहां स्वयं भगवान शिव अपने भक्त विद्यापति पर कृपा करके उनके घर में लंबे समय तक उगना के रूप में नौकरी किया करते थे। उगना महादेव मंदिर आज भी उस ईश्वरीय लीला की याद दिलाते रहता है। कृष्ण-भक्त धीरेंद्र ब्रह्चारी कोई बारह साल के थे तो उन पर सद्गुरू महर्षि कार्तिकेय की दृष्टि गई थी। इसके कुछ समय बाद ही वैराग्य के लक्ष्ण प्रकट हुए तो महादेव की लीला भूमि मधुबनी से निकल कर किसी कृष्णधाम नहीं, बल्कि काशी धाम ऐसे गए मानो आदियोगी उन्हें खींच ले गए हों। वहीं से उन्नाव के गोपाल खेड़ा स्थित कार्तिकेय आश्रम चले गए और योग विद्या हासिल की थी। जब कर्मक्षेत्र में उतरे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नजर गई। फिर तो वे वैसे ही खिल गए, जैसे सूर्य की रोशनी पा कर सूरजमुखी के फूल खिल उठते हैं।

अब तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के गुजरे भी तीन दशक होने को हैं। उनके जीवन के श्याम पक्ष को पकड़ कर उसमें उलझे रहने का भी कोई सार नहीं है। सार है तो उनके यौगिक सूक्ष्म व्यायाम का, योगासन विज्ञान का। सन् 2024 धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनकी यौगिक क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना और उन क्रियाओं को शोध का विषय बनाना योग को समृद्ध करना होगा। दिल्ली के बाद मंतलाई आश्रम का स्वरूप बदला जाना अच्छा कदम है। पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी का योग-बल ही इन संस्थाओं की बुनियाद है। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना इतिहास बदलने वाले कोई मौका कहां छोड़ते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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