महर्षि योगी के यौगिक शांतिदूत!

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान योगी, भावातीत ध्यान योग और वैदिक शिक्षा के प्रणेता महर्षि महेश योगी की 12 जनवरी को 106वीं जयंती है। उनकी जयंती दुनिया भर में फैले महर्षि संस्थानों के साथ ही उनके अनुयायी ज्ञान युग दिवस के रूप में मनाते हैं। इस बार उस महान योगी की जयंती ऐसे वक्त पर मनाई जानी है, जब उनका भावातीत ध्यान योग अमेरिकी अखबारों की सुर्खियां बंटोर रहा है। दरअसल, भावातीत ध्यान और भावातीत ध्यान – सिद्धि सूत्र पर कोई सत्रह वर्षों के गहन व व्यापक फलक पर किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों और अध्ययनों के उत्साहजनक नतीजे सामने आए हैं। उसके मुताबिक, सामूहिक चेतना का विकास करके राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति की स्थापना की जा सकती है। अमेरिका स्थित महर्षि इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के मुख्यत: तीन वैज्ञानिकों की अगुआई में विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग अध्ययन व अनुसंधान किए गए थे।        

हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब महर्षि योगी की यौगिक विधियां विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरी हैं। भावातीत ध्यान, सिद्धि कार्यक्रम और यौगिक उड़ान जैसी योग विधियों पर 32 देशों के 235 विश्वविद्यालयों  तथा स्वतंत्र शोध संस्थानों में अलग-अलग समय में सात सौ से अधिक वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान करके पाया जा चुका है कि इनके अभ्यास से व्यक्ति की चेतना में प्राकृतिक नियमों की सत्ता अपनी पूर्णता में जागती है। तब वह वही काम करता है, जो धर्मानुकूल है।

वैसे, वैज्ञानिक अध्ययनों और अपनी साधना के अनुभवों के आधार पर महर्षि महेश योगी ने तो सात दशक पहले ही कह दिया था कि किसी भी देश में सामूहिक चेतना का विकास करके शांति स्थापित की जा सकती है। यही काम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी संभव है। वे कहते थे कि जिस देश में वहां की जनसंख्या एक एक प्रतिशत वर्गमूल के बराबर भावातीत ध्यान के अभ्यासी यौगिक उड़ान का सामूहिक रूप से अभ्यास करते हैं, वहां की सामूहिक चेतना में सतोगुण बढ़ता है। बीमारियों, दुर्घटनाओं और हिंसक वारदातों में कमी आती है। साथ ही अर्थव्यवस्था में मजबूती और राजनीति में शुचिता होती है। यदि इन यौगिक अभ्यासों के साथ वैदिक अनुष्ठान भी हो तो सोने पे सुहागा।

ऋग्वेद की उद्घोषणा है कि ज्ञान चेतना में निहित है और योग विज्ञान कहता है कि चेतना बहुआयामी है। यानी हमारा ज्ञान का स्तर हमारी चेतना की गुणवत्ता पर निर्भर है। हम किसी चीज को किस रूप में देखते हैं, यह हमारी चेतना की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। तुलसीदास ने भी कहा है – जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। लिहाजा चेतना ही जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति है। योगी कहते हैं कि चेतना कों संभाल लेने से बाकी सब कुछ संभल जाएगा। पर चेतना व्यवस्थित हो कैसे? योगियों से लेकर वैज्ञानिकों तक का मत प्रकारांतर से एक जैसा रहा है कि योग ही है चेतना का विज्ञान।  

भारतीय योगी सदियों से चेतना को व्यवस्थित करने के लिए अपने अनुभवों के आधार पर योग-सूत्रों को परिभाषित करके बतलाते रहे हैं। पर बीसवीं सदी के योगियों में महर्षि योगी की यौगिक विधियां चेतना को व्यवस्थित करने के लिहाज से समाज को दिया गया बड़ा उपहार है। ये विधियां दुनिया भर के वैज्ञानिकों को चमत्कृत करती रहती है। तभी उन यौगिक विधियों खासतौर से भावातीत ध्यान योग पर दुनिया के अनेक देशों में अध्ययन और अनुसंधान जारी रहता है। उसी का नतीजा है ताजा शोध प्रबंध। वर्ल्ड जर्नल ऑफ साइंस में प्रकाशित यह शोध पत्र भावातीत ध्यान, सिद्धि सूत्र और यौगिक उड़ान पर पूर्व में हुए अनुसंधानों से ज्यादा व्यापक है अर्थपूर्ण है। शोधकर्त्ताओं में एक डॉ डेविड ऑरमे जॉनसन का दावा है कि इन यौगिक विधियों का बड़े समूह में अभ्यास कराया गया तो राष्ट्रीय स्तर पर तनाव घट गया। पर समूह को छोटा किया जाने लगा तो उसी अनुपात में तनाव बढ़ता गया। इससे साफ हो गया कि यौगिक समूह प्रभाव पैदा कर रहा था।  

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। विभिन्न कारणों से अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं को भावातीत ध्यान से इतने फायदे मिले कि वह अवसाद से उबारने की यौगिक दवा बन गई थी। इससे चिकित्सा विज्ञानी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान के विभिन्न रोगों में प्रभावों पर शोध किए जाने लगे थे। शोधों के सकारात्मक नतीजों का ही असर है कि कोरोना महामारी के कारण अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भा रहा है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा।“ महर्षि महेश योगी को जानने वालों को याद ही है कि भावातीत ध्यान को लेकर इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड ’द बीटल्स’ के कलाकारों की दीवानगी किस कदर बढ़ गई थी। तभी वे साठ के दशक में ध्यान सीखने महर्षि महेश योगी के ऋषिकेश स्थित आश्रम पहुंच गए थे। आज भी भारत सहित दुनिया के 126 देशों में इस ध्यान साधना की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है। अब तो वैज्ञानिक इसे क्वांटम मैकेनिक्स औऱ थर्मोडाइनोमिक्स से जोड़कर देखने लगे हैं।

भावातीत ध्यान योग की उत्पत्ति की कहानी रोचक है। आजकल भूधंसाव को लेकर उत्तराखंड का जोशीमठ चर्चा में है। महर्षि योगी कभी वहीं के ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य रहे स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। अपने गुरूदेव के महाप्रयाण के बाद उत्तरकाशी की गुफा में गहन ध्यान साधना में थे तो कुछ अनुभूतियां प्राप्त हुईं। उसे उन्होंने भावातीत ध्यान यानी ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन (टीएम) कहा। पर यह योग विधि पहली बार आम जनता को उपलब्ध हुई केरल में। वहीं प्रसिद्ध वैरिस्टर एएन मेनन और उनकी पत्नी ने महर्षि जी से दीक्षा ली और योग विधियां सीखी थी। खैर, अब समय आ गया है कि अपने देश में महर्षि जी की यौगिक विधियों को व्यापक रूप से अभ्यास में लाने के लिए हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कोरोना के पहले और बाद में सहारा प्राणायाम है

चुनौती कोविड-19 संक्रमण तक ही सीमित नहीं है। कोविड-19 के प्रकोप से बच निकले अनेक लोग लाइलाज पल्मोनरी फाइब्रोसिस के शिकार हो रहे है। माना जा रहा है कि वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करके उपचार किया जा सकता है। प्रारंभिक अध्ययनों से पता चलता है कि प्राणायाम वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करने में सक्षम है। स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इटली सरकार के सहयोग से इस मामले में अनुसंधान कर रहा है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी प्रकारांत से योग विज्ञानियों के इस दावे को पुष्ट करता दिख रहा है कि प्राणायाम की असीमित शक्तियां कोविड-19 संक्रमण के दुष्परिणामों से निबटने में भी बेहद लाभकारी साबित हो सकती हैं। इस धारणा का आधार श्वसन तंत्र के मामले में पूर्व में हुए यौगिक अनुसंधानों के परिणाम औऱ कोविड-19 से संक्रमित अनेक मरीजों के फीडबैक है। तभी दुनिया के अनेक देशों में एक तरफ स्वस्थ्य लोगों से लेकर संक्रमित लोगों तक को प्राणायाम करने की सलाह दी जा रही है। वहीं दूसरी ओर कोरोना संक्रमण के बाद उत्पन्न समस्याओं से निबटने में प्राणायाम की भूमिकाओं को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण किए जा रहे हैं।

बिहार योग विद्यालय ने कोरोनाकाल में प्राणायाम की महत्त्ता को बताने के लिए अपने अनुसंधानों की विस्तृत व्याख्या करते हुए एप्प आधारित ऑडियो-वीडियो जारी किया था। देखते-देखते एक सौ देशों में बडी संख्या में लोगों ने उस वीडियों को देखा। उस वीडियो में प्राणायाम की उन आठ विधियों का जिक्र है, जो कोरोनाकाल के लिहाज से जरूरी हैं।

फोटो : स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

कोविड-19 के दुष्प्रभाव जिन-जिन रूपों में सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि चुनौती कोविड-19 संक्रमण तक ही सीमित नहीं है। बड़ी चुनौती यह भी है कि कोविड-19 के संक्रमण से बच निकल लोगों के शरीर में उथल-पुथल हो चुके महत्वपूर्ण तंत्रिका-तंत्र और ग्रंथियों को किस तरह दुरूस्त किया जाए। इस उथल-पुथल की मुख्य परिणति पल्मोनरी फाइब्रोसिस के रूप में देखने को मिल रही है। फेफड़ों के उत्तक क्षतिग्रस्त होकर मोटे और कड़े हो जाने के कारण यह बीमारी हो रही हैं। माना जा रहा है कि वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करके पल्मोनरी फाइब्रोसिस के साथ ही कई बीमारियों का उपचार किया जा सकता है। इसलिए कि यह तंत्रिका मानव शरीर के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को विनियमित करने में मदद करता है, जिनमें हृदय गति, रक्तचाप, पसीना, पाचन और यहां तक कि बोलना भी शामिल है।

आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया को श्वसन तंत्र को दुरूस्त रखने के लिए प्रभावी माना जाता है, जिसका सीधा सकारात्मक असर मस्तिष्क, हृदय और फेफड़ों पर होता है। इस संबंध में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली और निमहांस, बंगलुरू में अध्ययन किए गए थे।

श्रीश्री रविशंकर

कोविड-19 के संक्रमण से बचाव के मामले में जिस तरह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के हाथ बंधे हुए हैं और बेसब्री से विश्वसनीय वैक्सीन की प्रतीक्षा की जा रही है। लगभग वैसी ही स्थिति कोविड-19 के कुप्रभावों को लेकर भी है। इसलिए जिस तरह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए या संक्रमण के शुरूआती दौर में योगाभ्यासों विशेष तौर से नेति, कुंजल और कपालभाति जैसी शुद्धि क्रियाएं और प्राणायाम की अनेक विधियों के महत्व को दुनिया भर में स्वीकार किया गया है। लगभग वैसी ही स्थिति कोविड-19 संक्रमण के कुपरिणामों के मामले में भी है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पल्मोनरी फाइब्रोसिस के विश्वसनीय इलाज के लिए वर्षों से प्रयासरत है। पर फिलहाल वैकल्पिक दवाओं का ही सहारा है।

बीते 30-40 सालों में हमने दुनियाभर के विभिन्न जर्नल्स में इस विषय में पांच से अधिक रिसर्च पेपर्स प्रकाशित किए हैंहम योग के माध्यम से एविडेंस बेस्ड डिलिवरी सिस्टम बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हमने इस दौरान कई रिसर्च डिजाइन किए हैं, जिन्हें वैश्विक मान्यता मिल रही है

डॉ एचआर नगेंद्र, संस्थापक, स्वामी विवेकानंद योग अनसुंधान संस्थान, बेंगलूरु

पल्मोनरी फाइब्रोसिस जैसे लक्षणों वाली बीमारियों में प्राणायाम के लाभ लंबे समय से देखे जाते रहे हैं। दुनिया भर के अनेक चिकित्सा और यौगिक संस्थानों में ऐसे मामलों में अध्ययन किए गए तो सकारात्मक नतीजे मिले थे। इसी आधार पर माना जा रहा है कि कोविड-19 के बाद के दुष्परिणामों से निबटने में भी प्राणायाम की भूमिका हो सकती है। माना जा रहा है कि प्राणायाम के अभ्यास से वेगस तंत्रिका तंत्र उत्तेजित होगा तो कई समस्याएं स्वत: दूर होंगी। इसी अनुमान के वैज्ञानिक परीक्षण के लिए बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान ने इटली और बेल्जियम के संस्थानों से हाथ मिलाया है। बीते 15 अगस्त से कोई एक हजार लोगों पर अध्ययन किया जा रहा है।

जर्मनी में अनुसंधान के लिए मशहूर हीडलबर्ग यूनिवर्सिटी में भी पल्मोनरी फाइब्रोसिस के उपचार में प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया जा रहा है। इस साल मार्च में ही यह अध्ययन पूरा हो जाना था। पर अब संभवत: कोविड-19 से संक्रमित मरीजों के पल्मोनरी फाइब्रोसिस संबंधी मामलों में भी प्राणायाम का प्रभाव देखा जा रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका के लंग हेल्थ इंस्टीच्यूट से लेकर अनेक चिकित्सा संस्थानों में अनुभव किया जा चुका है कि इस बीमारी में प्राणायाम की महती भूमिका होती है। इसलिए उन संस्थानों की ओर से खुलकर प्राणायाम की सिफारिश की जा रही है।

पल्मोनरी फायब्रोसिस फेफड़ों से संबंधित गंभीर रोग है. यह तब होता है जब फेफड़ों के उत्तक क्षतिग्रस्त होकर मोटे और कड़े हो जाते हैं. ये कड़े और मोटे उत्तक फेफड़ों के लिए कार्य करना मुश्किल बना देते हैं. जैसे-जैसे समस्या गंभीर होती जाती है, रोगी की सांसे उखड़ने लगती हैं और सांस लेना दूभर हो जाता है

आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तो कोविड-19 के दस्तक देने के समय से ही कहते रहे हैं कि फेफड़े को स्वस्थ्य रखकर ही कोरोना महामारी से लड़ा जा सकेगा और बाद के दुष्परिणामों से भी मुकाबला किया जा सकेगा। वे ऐसा अपने लंबे अनुभवों और योग शास्त्रों में उल्लिखित बातों को ध्यान में रखकर कहते रहे हैं। भारत के शीर्ष के दस योग संस्थानों ने प्राणायाम के प्रभावों को लेकर प्रकारांत से एक जैसी बातें की। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, कैवल्यधाम, लोनावाला, शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश, द योगा इस्स्टीच्यूट, मुंबई, कृष्णमाचार्या योग मंदिरम, चेन्नई, पतंजलि योगपीठ आदि योग संस्थानों ने अपने पूर्व के वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर कोरोनाकाल के लिए भी प्राणायाम के महत्व पर बल दिया। इस मामले में भारत सरकार का आयुष मंत्रालय भी पीछे न रहा।

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वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में यह जानना जरूरी है कि प्राणायाम का इतना महत्व क्यों है? योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक, सामान्य श्वास में ली गई पांच सौ मिली लीटर हवा में ऑक्सीजन का अनुपात 20.95 फीसदी, नाइट्रोजन का 79.01 फीसदी और कार्बन डायऑक्साइड का 4 फीसदी रहता है। पांच सौ मिली लीटर में डेड़ सौ मिली लीटर हवा श्वास नलिकाओं में रहती है। बाकी हवा वायु कोशों में पहुंचती है। उससे ऑक्सीजन रक्त में जाता है और रक्त से कार्बन डायऑक्साइड हवा में आता है। पर व्यवहार रूप श्वास के जरिए इतनी हवा अंदर जाती नहीं। महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग संस्थान में 204 स्वस्थ्य लोगों की श्वसन क्रिया का अध्ययन किया गया था। पाया गया कि उनमें से 174 लोगों की नासिकाओं में श्वास का असामान्य प्रवाह था। स्पष्ट है कि यौगिक श्वसन के अभाव में फेफड़े के काम करने की क्षमता बेहद कम होती है। यदि किसी बीमारी की वजह से फेफड़ा क्षतिग्रस्त हो गया तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं। समस्याएं यहीं से शुरू हो जाती हैं।

वेगस तंत्रिका, तंत्रिका तंतुओं का एक गुच्छा है, जो मस्तिष्क से उदर तक निकलती है। यह मस्तिष्क, पेट, हृदय, यकृत, अग्न्याशय, गुर्दा, प्लीहा, फेफड़े और सभी अनैच्छिक शारीरिक प्रक्रियाओं के संचलन को नियंत्रित करती है। जब वेगस तंत्रिका अपनी क्षमता का सबसे उत्तम प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं होती है, तो शरीर और दिमाग कई तरह के रोगों के लिए अतिसंवेदनशील हो जाते हैं

बीते चार दशकों में प्राणायाम के प्रभावों पर दुनिया भर में काफी अध्ययन किए गए। टेक्सास य़ूनिवर्सिटी न्यूरो वैज्ञानिक डॉ स्टीफन एलिएट ने अपने शोध से निष्कर्ष निकाला कि श्वास की गति का हृदय गति से सीधा संबंध है। उन्होंने इलेक्ट्रोमायोग्राफी की सहायता से प्रमाणित किया कि यौगिक श्वसन से हृदय को स्वस्थ रखा जा सकता है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययनों के मुताबिक नाड़ी शोधन प्राणायाम से तनाव कम होता है। रक्तचाप सामान्य रहता है और फेफड़ों की शकित व क्षमता बढ़ती है। अमेरिका के बैचलर यूनिवर्सिटी के अनुसंधान के नतीजे भी कुछ ऐसे ही थे।

महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग संस्थान में 204 स्वस्थ्य लोगों की श्वसन क्रिया का अध्ययन किया गया था। पाया गया कि उनमें से 174 लोगों की नासिकाओं में श्वास का असामान्य प्रवाह था। स्पष्ट है कि यौगिक श्वसन के अभाव में फेफड़े के काम करने की क्षमता बेहद कम होती है। यदि किसी बीमारी की वजह से फेफड़ा क्षतिग्रस्त हो गया तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं।

फाइल फोटो

श्वेताश्वर उपनिषद् कहा गया है कि ज शरीर योग की प्रक्रियाओं से गुजरता है, वह वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से मुक्त हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि प्राणायाम स्वास्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है और यौगिक विधियों द्वारा ऐसी अवस्था पाई जा सकती है। इसलिए योग को अपने जीवन का अनिवार्य अंग और नियमित आदत बनाना समय की मांग है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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