पथ भूल न जाना पथिक कहीं!

किशोर कुमार

वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के महान संतों तक के जीवन-दर्शन का अध्ययन करने पर पाते हैं कि उन सबने सदैव धर्मानुकूल आचरण की शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उनकी ख्वाहिश रही कि संसार में शांति और आनंद रहे। इसलिए उनकी कामना रही कि मानव में ऐसे सद्गुणों का विकास हो कि निष्काम सेवा जीवन का रस, विश्व प्रेम आहार और पवित्रता जल बन जाए। वे जानते थे कि ऐसा हुए बिना न तो भक्ति जीवन की मिठास बनेगी और न ही ध्यान जीवन की धुरी बन पाएगा। ऐसे में मोक्ष की बात तो बेमानी ही होगी। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि कलियुग में इस महान उद्देश्य की प्राप्ति का एक ही साधन है, वह है नाम संकीर्तन, सत्संग और भगवान के जीवन चरित् का गुणगाण। इनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। बाह्य-वृत्तियों में फंसा मानव भला दूसरी कठिन साधना कर भी कैसे सकता है?

ऐसे में भक्ति के अवतार योगी श्रीहनुमान की महिमा बतलाने के लिए प्रभावशाली आध्यात्मिक नेता मंच पर हो और चिलचिलाती धूप के बावजूद हनुमत् कथा सुनने के लिए लाखों की भीड़ हो तो आध्यात्मिक चेतना के विकास के बंद खिड़की-दरवाजे न खुलें, तो हैरानी होगी। बिहार में कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ था। चर्चित बागेश्वर धाम सरकार उर्फ धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री अपने इष्ट दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए एक ही जगह जमे रहे तो लाखों भक्त भी टस से मस न हुए। श्रीहनुमान के जीवन चरित से आध्यात्मिक चेतना के विकास का स्वर्णिम अवसर था। पर ऊर्जा के प्रवाह की दिशा जाने-अनजाने बदल गई। स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल गया। कैसे? इसकी चर्चा से पहले कुछ बातों को लेकर स्पष्टता जरूरी है।

कारपोरेट जगत में हर साल व्यावसायिक प्रेरकों और आध्यात्मिक नेताओं के व्याख्यानों पर लाखों रूपए खर्च किए जाते हैं। ताकि कर्मचारियों में उत्कृष्ट कार्य-संस्कृति का निर्माण हो सके। नए प्रेरको में कुमार विश्वास का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है। वे श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीहनुमान के गुणों का बखान करते हुए देश के भावी कर्णधारों को सफलता के मंत्र देते हैं। पर अलौकिक शक्तियों वाले संत-महात्मा तो सदियों से व्यक्ति को रूपांतरित करने के लिए उपक्रम करते रहे हैं। उनके पास सिद्धियों की प्रचुरता होती है। पर वे उनका उपयोग चमत्कार दिखाने में नहीं, मानव कल्याण के लिए करते हैं। मानव की आंतरिक वृत्तियों, मनोदशाओं और भावनाओं में संतुलन लाने का प्रयास करते रहे हैं। ताकि मानव में मानवीय गुणों का विकास और प्रेम, सेवा व दान का राजपथ तैयार हो सके, जो योग का परम लक्ष्य है।

मैंने जितना समझा है, छोटी-मोटी हजारों ऐसी यौगिक विधियां हैं, जिनका अभ्यास करके कोई भी कुछ समय के लिए चमत्कारी बाबा बन सकता है। अंग्रेजी पत्रकार पॉल ब्रंटन तीस के दशक में भारत आए थे। उन्होंने सुन रखा था कि भारत सपेरों का देश है। भारत पहुंचे तो संयोग से उनकी धारणा बलवती होती गई थी। पर ज्ञानयोगी रमण महर्षि के सम्मुख उपस्थित हुए तो उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा की आग में ऐसे तपे कि उनके होकर ही रह गए थे। उनकी पुस्तक “ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया” चमत्कारी बाबाओं की कहानियों से अटी पड़ी है। पर वैसे बाबा जल्दी ही गुमनामी के अंधेरे में खो गए थे। झारखंड के धनबाद में मेरे एक परिचित ने कुछ सिद्धियां हासिल कर ली थी। उनसे कोई भी कुछ भी सवाल करता, उत्तर तुरंत दे देते थे और कमाल यह कि उत्तर सही होते थे। मैं खुद कम से कम ऐसी पचास घटनाओं का गवाह हूं। पर जीवनकाल में ही सिद्धियों का असर जाता रहा।

झारखंड के ही निर्मल बाबा याद होंगे। उनका जलवा पूरे देश में था। भक्त भी आध्यात्मिक चेतना के विकास के नहीं, बल्कि तात्कालिक लाभों के लिए भीड़ लगाए रहते थे। निर्मल बाबा भक्त और भगवान के बीच “अटकी पड़ी कृपा” के मार्ग की बाधाएं दूर करने के टोटके बतलाने में व्यस्त रहते थे। अनेक लोग माइक लेकर भरी सभा में दावा करते थे कि बाबा के उपायों से जीवन की बाधाएं दूर हो चुकी हैं। पर अब निर्मल बाबा की दूर-दूर तक चर्चा सुनाई नहीं पड़ती। वैसे, चमत्कार तो महानतम संत भी दिखलाते रहे हैं। पर उद्देश्य खुद की महानता साबित करना नहीं होता था। बनारस गजेटियर में उल्लेख है कि महान संत तैलंग स्वामी को खुले बदन पूरे शहर में भ्रमण के करने के जुर्म में जेल में बंद कर दिया गया था। उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी। पर अपनी यौगिक शक्तियो के बल पर सूक्ष्म रूप धारण करके जेल से बाहर चले जाते थे। अंग्रेजों को ईश्वरीय शक्ति का अहसास करने के लिए ऐसा करते थे।  

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “लोग जिसे चमत्कार मानते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि यौगिक शक्ति है। बैंक डिपॉजिट की तरह है। उसका इस्तेमाल जितनी तेजी से होगा, खजाना उतना ही जल्दी खाली हो जाएगा।“  ऐसा लगता है कि बाबा बागेश्वर धाम अपनी शक्तियों का खजाना तेजी से खाली कर रहे हैं। ऐसे में भारत के पुनरूत्थान के लिए श्रीहनुमान के उच्च आदर्शों से युवाओं में क्रांति-बीज बोने की उनकी संकल्पना मंद पड़ जाए तो हैरानी नहीं। इस युग का महान लक्ष्य है कि भारत अपने सनातनी ज्ञान की बदौलत विश्व गुरू बने। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “जब सैकड़ों हजार नर-नारी पवित्रता की अग्नि से पूर्ण, ईश्वर में अविचल विश्वास से युक्त और हृदय में सिंह का साहस लिए गरीब और पददलितों के प्रति सहानुभूति रखते हुए भारत के कोने-कोने में मुक्ति, सहयोग, सामाजिक उत्थान और समानता का सन्देश देते हुए विचरण करेंगे तब भारत विश्वगुरु बनेगा।”

बागेश्वर धाम सरकार उर्फ धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की सिद्धियों का प्रतिफल है कि वे आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं। वे जानते हैं कि श्रीहनुमान के आदर्श ऐसे हैं कि युवा-शक्ति उनसे प्रेरणा लेकर महान उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं। इसलिए उन्हें अपनी यौगिक शक्तियों का उपयोग चमत्कार दिखाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों की चेतना के प्रवाह को सही दिशा देने के लिए करना होगा। वरना शिवमंगल सिंह सुमन की कविता “पथ भूल न जाना पथिक कहीं!” चरितार्थ होते देर न लगेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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